लक्ष्मी की विजय

दीपावली पर धन की देवी लक्ष्मी जी की पूजा का विधान है | पर एक लक्ष्मी हमारे घरों में भी होती है जिसे हम गृह लक्ष्मी कहते हैं | अब अगर पृथ्वी पर गृह लक्ष्मियाँ अपनी समस्याओं के समाधान के लिए  पुकारेंगी   तो एक स्त्री होने माता लक्ष्मी को तो आना ही पड़ेगा | अब जब गृह लक्ष्मियाँ की माता लक्ष्मी से बात होगी तो माता लक्ष्मी यहाँ की दशा तो सुधारेंगें ही  स्वर्ग में कुछ आमूल चूल बदलाव भी करेंगी  | आखिर हम एक दूसरे से सीखते जो हैं | तो क्या होंगे ये बदलाव पढ़िए नागेश्वरी राव जी की खूबसूरत कहानी  लक्ष्मी की विजय  विष्णु जी पुकार  ने लगे, लच्छु देखो, तुम्हारा सैलफोन बज रहा है, कोई तुम्हारा भक्त पुकार रहा होगा, “अजी, आप हमारे सैलफोन के पीछे क्यों पड़े है, जब आप स्काइप पर अपने भक्तों से बात करते हैं तो मैंने कुछ कहा है क्या! ” नहीं बाबा, मैंने यों ही मजाक किया, इतने में ही बुरा मान गई! नही! नहीं! श्रीमान,  मैंने केवल आपकी  ही बोली बोलने की प्रयास किया  है. फिर बोली, नाथ, मेरे हाथ भारी हो रहे हैं जरा मानव लोक से चिकित्सक को खबर कीजियेगा! मैं भी उन्हें बुलाने की बात सोच रहा था, मेरे पगों में भी रक्तचाप में गिरावट आ गयी| तभी फिर से बिपर बज उठी, लक्ष्मी जी ने फ़ोन उठाई, किसी महिला की कोमल आवाज बोल उठी ” मैडम आपसे कुछ सलाह लेनी है, क्योकि सर्वत्र आपका ही बोलबाला है साथ ही आप अनुभवी और उच्च आसन पर विराजमान हैं, हमारे महिला-मंडल आपसे भेंट के लिए समय निर्धारित कर कुछ मसलों पर चर्चा करना चाहती है, कृपया आप मिलने की अनुमति देकर नियोजित समय बतायेगीं ?  लक्ष्मी   अवश्य, हम भी जाने, भूलोक में स्त्रियाँ किन-किन समस्याओं से जूझते हैं, उनका जीवन शैली और सोच कैसी है? फिर उन्होंने अपने घडी में देखकर , कही कि कल सुबह दस बजे आ जाइये , इस पर महिला  अध्यक्ष ने अत्यंत हर्ष के साथ धन्यवाद कहकर फोन रख दी. लक्ष्मी की प्रसन्नता से दमकती चेहरे को देखकर विष्णु जी बोले क्या बात है! चेहरा कमल सा खिला हुआ है, तो लक्ष्मी जी ने इठलाती हुई कही कि क्यों न प्रसन्न होऊं, कई वर्षो से, नही! नही! कई युगों के बाद आज मुझे किसी ने वरदान के लिए नही अनुभवी नारी के रूप में मुझे पहचानकर निमंत्रित किये है. दूसरे दिन महिलाओं के अध्यक्षा दीपा अपने अन्य सखियो के साथ बुके लेकर लक्ष्मी जी के सामने उपस्थित हुई| वे लक्ष्मी जी को आभूषण रहित, सादे कुर्ता पायजामा में देखकर अचम्मित हो गए.  उनके विस्मय-बोधक चिन्ह अंकित चेहरे को ताड कर लक्ष्मी जी मंद मुस्कराटों को बिखेरती हुई कही” बाह आभरणो की आवश्यकता तबतक होती जबतक किसीकी व्यक्तित्व के अस्मिता की पहचान नही होती है। बात को बढ़ाती हुई बोली– बोलिए आपको किस बात का गम है? भूमण्डल में स्त्रियाँ सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर कर चुकी है. दीपा ने कही है कि आपने सही फ़रमाई, लेकिन आप हमारे द्वारा अविष्कृत यंत्र में बैठकर मॉनिटर में दखेंगे तो हमारे समस्याओ की पूर्ण जानकारी हो जाएगी। लक्ष्मी जी यंत्र में प्रविष्ट होते ही यंत्र अविष्कारक लता ने मॉनिटर पर एक एक  परिवार का चित्र प्रस्तुत करते हुए कहती गई “ये हैं सुरेश अपने प्रोफेसर पत्नी को मंत्री के पास टिकट पाने के लिए भेजते है|उनका कहना है कि जब वेद पुराणो में राजा अपने शान या स्वार्थ सिद्धि के लिए अपनी पत्नी को दूसरे राजाओ के पास भेजते थे तो धन और पद के लिए अपनी इच्छा से हम अपनी पत्नी को क्यों नही भेज सकते ? दूसरा समाजसेवक दीनदयाल जी ये खुद कुछ कमाते नही., पर अपने पत्नी अंजू((U.D.C) को विभिन्न नूतन अन्वेषित गलियों से विभूषित कर, धन समर्पित करने के लिए बाध्य करते है, जिसे वे अधिकारियों,गुंडों, व्यभिचार में लुटाते है. तीसरी, शारदा जिनका मुँह ही नहीं कान, आँखे  भी कैंची की तरह चल कर अपने और दूसरे के परिवार को बर्बाद करती है| उन्हें अपने गहने, साड़ियों, पार्टियो और डिंग आंककर  नाक में दम करने के सिवा कुछ सूझता नही. चौथा दिनेश अध्यापक है, जो चाहते है, कि पत्नी नौकरी करे, परिवार के सदस्यों की सेवा चौबीसों घंटे करे और पाठशाला में किसीसे भी बात न करे. शक से पीड़ित होकर पत्नी के हर व्यवहार में मीन- मेख  निकाल कर न खुद खुश रह पाते है न पत्नी को,  ऊपर से अपने को ज्ञानी, दयालु, विशाल एवं निर्लिप्त कहते है.  इस प्रकार वह मॉनिटर पर वह अभिनेताओं,डॉक्टर, कलाकारों, सरकारी-गैर सरकारी कर्मचारियों आदि विभिन्न वर्गो के पारिवारिक,व्यक्तिगत, समाजिक,धार्मिक आदि के रूपों को दर्शाती गयी| लक्ष्मी जी इस विस्तृत व्याख्यान से स्तब्ध रह गयी फिर विभिन्न युगों के आचार व्यवहार अपने स्वर्ग के लोगो के विचारो और आचरणों की तुलना में डूब गयी| थोड़ी देर में ही उनके आँखों में चमक आ गयी जैसे राशन  की दुकान की के लम्बे कतार में खड़े व्यक्ति को चावल,गेहूं, चीनी,मिटटी के तेल आदि सबकुछ मिल गया हो. लक्ष्मी जी मुस्कराटों को बिखेरती हुई कहती है कि संसार में सबकुछ हैं जिसे इंसान अपने मेहनत,विवेक,सयंम द्वारा पा सकता है. पर ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ और अहंकार के कारण यथार्थ का सही अवगाहन के आभाव में वह दुखी और पीड़ित है. समय का, स्थान का, लिंगो का, विचारो का, भावो का सही समीकरण नहीं हो पाया है  विचारो में विकृतियां का आना स्वाभाविक है| मैं विष्णु लोक जाकर   भगवान् विष्णु से  इस बारे में चर्चा करुँगी | वे इन सबसे रूबरू  होंगे,शायद वे स्त्री की शक्ति देखना चाहते हैं | वे देखना चाहते हैं कि आप अपने दुनिया को कितना जानते है, सचेत हैं, कितना योगदान दे सकते है ? अच्छा , अब मैं चलती हूँ कहकर लक्ष्मी आगे बड़ी तो दीपा और अन्य महिलाएँ आग्रह करने लगी, उनका आतिथ्य स्वीकार करे, जो आपके व्यंजनों से काफी भिन्न है, जैसे पिज़ा ,बर्गर, डोसा, बेलपूरी,रसमलाई,गुलाबजामुन आदि आपकी जीभ  को खुश कर देंगे| लक्ष्मी जी, प्यारभरा आमंत्रण स्वीकार किया  और भोज्य पदार्थो का आनंद उठाकर अपने पति के पास जाकर बोली है कि भूलोक के स्त्रियों की समझदारी और उनकी चेतनशीलता को देख कर, मेरी बुद्धि भी तेज  हो गई| अभी तक स्वर्ग की जनता सुरापान, कोमलांगियों के सतही सौंदर्यपान करने में ही तल्लीन  है, उनके शरीर,मन, आत्मा चैतन्यशून्य हो गयी है |  हमे भी स्वर्ग के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन लाना होगा| सभी को अपनी अपनी योग्यता के अनुसार काम करना होगा तदनुसार परिश्रमिक और सुविधाएँ उपलब्ध होना चाहिए| एक दूसरे के साथ सौहृदतापूर्वक व्यवहार करना पड़ेगा, नियम का उल्लंघन करने वालो को वेतन में कटौती या शारीरिक दंड देनी चाहिए| जिससे न आपके न हमारे या अन्य सदस्योँ के अंगो में शीतलता आयेगी न भूलोक से चिकित्सकों को बुलाना पड़ेगा| विष्णु जी मुस्कराते हुए कहे : डार्लिंग मैंने भी अपने साधनो द्वारा सारे खबरें प्राप्त कर ली है टीवी और कंप्यूटर द्वारा घोषणा करवा दी है की  कि … Read more

“ना तुम जानो ना हम”

‘हैलो मौम…, कैसे हो आप…’ ‘अरे श्रद्धा..! तुम कब आई. कोई खबर भी नही. अचानक से कैसे…?’ ‘मौम, मेरे एग्ज़ाम ख़त्म हो गये तो सोचा क्यूँ ना घर आ कर आपको सर्प्राइज़ दूं. क्यूँ? कैसा रहा सर्प्राइज़…?’ ‘बहुत बढ़िया बेटा..’ और वातावरण में हँसी की गूँज. ‘आज सब तुम्हारी पसंद का बनेगा. राजमा, जीरा राइस और…’ ‘और… बूँदी का रायता…’ फिर हँसी के ठहाके… ‘मौम, आज नानू के घर जाने का मन है..’ ‘तो हम अपने बेटी के मन की हर बात पूरी करेंगे.. और…’ ‘नानू के घर चलेंगे…’ दोनो चहकते हुए बोल उठीं… अभी दोनो माँ बेटी ने खाना शुरू ही किया था कि, फोन की घंटी बजी. ‘हेलो…, जी कौन..?’ ‘मेरा नाम गिरीश है. मैं सिविल अस्पताल से बोल रहा हूँ. सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति को गंभीर चोटें आई हैं और उनकी जेब से मुझे आपका नंबर मिला इसलिए आपको फोन मिला दिया. क्या आप उन्हें जानती हैं.’ ‘क्या नाम है उनका…?’ ‘जी, राकेश..’ ‘क्या..?’ ‘अगर आप उन्हें जानती हैं तो कृपया आप सिविल अस्पताल में जल्दी आ जाइए.’ ‘जी नही. मैं इस नाम के किसी भी व्यक्ति को नही जानती.’ और अर्चना ने फोन रख दिया.. ‘किसका फोन था माँ?’ ‘कुछ नही बेटा. रौंग नंबर था.’ अगली सुबह अर्चना घर से ये कह कर निकली कि, ज़रूरी काम से शहर से बाहर जा रही हूँ. शाम तक लौटूँगी. सुबह के ग्यारह बज रहे हैं. अर्चना अस्पताल में दाखिल हुई… ‘सुनिए, मेरा नाम अर्चना है कल राकेश नाम के एक व्यक्ति को यहाँ दाखिल करवाया गया था. वो कहाँ पर हैं.’ अर्चना ने वहाँ की रिसेप्षनिस्ट से पूछा. ‘आप उनकी क्या लगती हैं?’ ‘मैं… मैं पत्नी हूँ उनकी..’ ‘उनका कल शाम को ही देहांत हो गया. कोई भी रिश्तेदार ना आने पर अस्पताल की ओर से उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.’ अर्चना तो रो भी नही सकती थी. राकेश से उसका रिश्ता कब का बिखर चुका था. आज से बीस बरस पहले के पन्नों में दोनो ने एक दूसरे के साथ रहने की कस्में खाई थी. राकेश अर्चना से बहुत स्नेह करता था. घरवालों की सहमति से ही दोनो ने शादी भी की. शादी के कुछ महीनों बाद ही राकेश को किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा और फिर उसने दिल्ली में ही नौकरी भी कर ली. वो दिल्ली से वापिस नही लौटा. घरवालों के फोन गये पर कोई भी जवाब नही मिल पाया. फिर अर्चना ने दिल्ली जाने का फैंसला किया. राकेश के पते के बारे में तो वो कुछ जानती नही थी. उसकी कंपनी के बारे में वो जितना जानती थी उसी के सहारे राकेश तक पहुँचने में सफल रही. राकेश के दफ़्तर पहुँचने पर उसे पता चलता है कि वो आज दफ़्तर नही आया. उसके घर का पता मालूम किया और अर्चना वहाँ पहुँच गयी. अर्चना ने फ्लैट की घंटी बजाई…दरवाजा खुला… ‘जी कहिए, किससे मिलना है आपको..?’ ‘क्या राकेश यहीं रहते हैं..?’ ‘जी हाँ..आप कौन?’ ‘मेरा नाम…’ अर्चना अभी अपने सच को कहने ही वाली थी कि.. इससे पहले ही सब मौन हो गया… ‘तुम… तुम यहाँ कैसे…??’ ‘तुम इसे जानते हो राकेश..? कौन है ये..?’ ‘उल्टे फेरे लेते हुए अर्चना वहाँ से चली आई..’ घर में किसी को कोई खबर नही कि राकेश कहाँ है, अर्चना कहाँ है. अर्चना के माता–पिता उसे ले कर बहुत चिंतित थे. उसके भाई को दिल्ली भेजा गया.. और यहाँ आ कर उसे सारी सच्चाई का पता चला. लेकिन, अर्चना का कुछ भी पता ना चल पाया.. हताश, वो लौट गया. अर्चना ने अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लिया. तीन महीने की गर्भवती वो अब कहाँ जाती. उसके पास कोई विकल्प नही था. ससुराल जाना नही चाहती थी और अपने मायके में क्या मुँह ले कर जाए. क्योंकि पसंद तो अर्चना की ही थी. कदम उसे कहाँ ले जा रहे थे वो भी नही जानती थी. सड़क को पार करते समय उसके मन में एक भयावह विचार आया कि क्यूँ ना वो अगली सड़क को पार करे ही ना. हाँ यही ठीक रहेगा.. गाड़ी की ज़बरदस्त ब्रेक लगी… ‘अरे भाई ध्यान से.. अभी कुछ अनहोनी हो जाती तो लेने के देने पड़ जाते..’ अर्चना कुछ ना बोली. गाड़ी का दरवाज़ा खुला और 40-45 वर्ष का एक व्यक्ति. सफेद कुर्ता–पायजामा और पैरों में कोलपुरी जूती पहने हुए बाहर निकला. ‘क्या बात है बेटा. कहीं जाना है क्या..? रास्ता भूल गई हो क्या.. ? मैं कुछ मदद कर दूं…?’ अर्चना सुन्न खड़ी. मुँह से एक भी शब्द नही फूट रहा था. ‘देखो बेटा कुछ तो बताओ.. कौन हो तुम? और कहाँ जाना है तुम्हे?’ ‘कहाँ… जाना है… मुझे….?हां…नही… पता नही … कहाँ… जाना.. है.. मुझे…’ शब्दों को ढूंढ कर संजोने का असफल प्रयास करती हुई संजना फिर सन्नाटे की गोद में जा बैठी | ऐसे कई सन्नाटे होते हैं जो व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़े होते हैं और कई बार उनमें से निकलना मुश्किल हो जाता है | दिल बहुत नाजुक होता है | इसे जितना भ्रम में रखो उतनी ही इसकी उम्र बढ़ जाती है | भ्रम टूटा तो यह भी टूट जाता है | परन्तु हम हमेशा भ्रम में नहीं रह सकते सच्चाई से परिचय होना बहुत जरूरी है |   ‘लगता है कोई ठिकाना नही है इसके पास.. कपूर साहिब ने एक अनुमान लगाया.. पर अपने साथ चलने के लिए भी कैसे कहूँ… क्यूँ भरोसा करेगी वो मुझपर.. मैं तो अंजान हूँ इसके लिए…’ कपूर साहिब ने अपने बेटी को फोन मिलाया और उसे वहाँ आने के लिए कहा… कपूर साहिब ने अर्चना को सहारा देते हुए उठाया और अपनी बेटी पूर्वी का इंतज़ार करने लगे.. ‘पापा क्या बात है..आपने अचानक मुझे यहाँ क्यूँ बुलाया है.. और ये… ये कौन हैं…’ ‘सब बताता हूँ बेटा… इधर तो आओ..’ ‘मेरी गाड़ी के साथ टकरा गयी ये..’ ‘क्या ? कहीं चोट तो नही आई ना इसे…’ ‘नही.. मुझे लगता है इसके साथ कुछ अनहोनी हुई है… जिससे ये परेशान है.. मैने तुम्हे यहाँ इसलिए बुलाया है कि तुम इसे घर ले जाओ और मैं पुलिस स्टेशन जा कर आता हूँ…’ ‘ठीक है पापा.. आप निश्चिंत रहो… मैं इसे घर ले जाती हूँ…’ पूर्वी, अर्चना को घर ले आई… कुछहीसमयमेंकपूरसाहबभीघरपहुँचे… ‘देखो बेटा इसे … Read more

उसकी मौत

आजएक बार फिर हम सब दोस्त सोहन के घर एकत्रित हुये थे – मयपान के लिये नहीं अपितु उसकी शव-यात्रा में शामिल होकर उससे अंतिम विदा लेने के लिये! उसके घर के बाहर गली में शोक सभा के लिये लगाये गयेशामियाने के नीचे एक तरफ गली-मोहल्ले व रिश्ते की औरतें ‘स्यापा‘ कररही थीं और दूसरी तरफ कुछ शोकग्रस्त मर्द बैठे थे जिनमें से कुछ तोबिल्कुल ख़ामोश थे तो कुछ आपस में वार्तालाप कर रहे थे। हम चारों दोस्तभी अपने सिर झुकाये इस शोक सभा में शामिल थे! सहसा, सभा में मौजूद एक सज्जन ने मौत का कारण जानतेहुये भी अपने पास बैठे दूसरे सज्जन से औपचारिकतावश अपनी सहानुभूतिदर्शाते हुये वार्तालाप शुरू किया, “वाकई ही बड़ा ज़ुल्म हुआ है भाईसाहिब, इस परिवार के साथ… बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, बड़ाशायद लड़का है और दूसरा बच्चा लड़की है, सोहन की उम्र भी कोई ख़ास नहींथी, यही कोई बत्तीस-पैंतीस साल मुश्किल से …पिछले हफ्ते ही मैं ख़ुदअपने सैक्टर की मार्किट में उनसे मिला हूँ, शाम का ‘टाइम‘ था … कोनेमें सब्जी वाले की दुकान के साथ वाली पान-सिगरेट की दुकान पर खड़े थे, शायद पान तैयार होने की इंतज़ार में थे… पान खाने का उन्हें बड़ा शौकथा …मैं ज़रा जल्दी में था, उनसे कोई ज़्यादा गल-बात तो नहीं कर पाया, पर मुझे क्या पता था कि यह मेरी अंतिम मुलाक़ात होगी… क्या भरोसा हैज़िंदगी का? है कोई, भला …?” अविश्वास की मुद्रा में अपना सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा। उनके प्रत्युतर में वार्तालाप में उनके साथ लिप्त सज्जन जो रिश्ते में शायद सोहन के काफी नज़दीकी थे, आखिर फफक ही पड़े, “यही सुना है, कल रात अपने दोस्तों के साथ खाने-पीने के बाद अपने घरस्कूटर पर रवाना हुये हैं कि उस रिक्शे वाले चौंक पर, एक ‘थ्री-व्हीलर‘ वाले के साथ टकराकर सिर के भार सड़क पे गिरे हैं कि बस वहीं पर दम तोड़दिया …!” “हेल्मेट नहीं था डाला हुआ सोहन लाल जी ने …?” “ओह जी, यह सब बातें हैं …हेल्मेट भी डाला हुआ था, पर सड़क पर गिरने के बाद हेल्मेट किधर का किधर जा गिरा, सर जाके उधरकंक्रीट से टकराया…बस जी…. बुरी घड़ी आई हुई थी…होनी को कौन टालसकता है…?” पढ़िए – साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे वार्तालाप को सुनकर हमें लगा जैसे हम चारों दोस्त हीअपने दोस्त की मौत के ज़िम्मेवार हैं और लोग हमें ही कोस रहे हैंक्योंकि घटना की शाम हर रोज़ की तरह हम सभी दोस्त मिलकर जशन मना रहे थे।उस दिन सोहन ने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी और फिर वह नशे की हालत में घरजाने का हठ करने लगा था। उसकी हालत को देखकर हम सभी दोस्तों ने उसेस्कूटर चला कर घर न जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन वह हमारी बात कबमाना था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, इससे पूर्व भी तो हममें से कोई न कोई नशे की हालत में घर जाता रहा था। ख़ुशक़िस्मती से हममें से किसी के साथ कोई बुरी घटना नहीं घटी थी। हमारे बीच ऐसी पार्टियाँ अक्सर होती रहती थीं, कभी सोहन के घर, कभी मोहन के घर, कभी मेरे यहाँ तो कभी हम किसी क्लब में जा धमकते थे। अब तो हम सब को मय की लत ऐसी लगी थी कि पीने के लिये हमें कोई बहाना भी नहीं चाहिए होता था, बस ऑफिस में ही तयहो जाता था कि कब और कहाँ शाम को मिल रहे हैं। ऑफिस में एक-दूसरे केसाथ काम करने के इलावा हम चारों-पाँचों दोस्त लगभग एक उम्र के भी थे।ताश खेलने बैठते तो घर-वर सब भूल जाते। पढ़िए –एक लेखक की दास्तान लेकिन सोहन की अचानक मौत हम सबके लिये एक बहुत बड़ासदमा थी। इस हादसे से सबक लेकर या फिर इसके डर से कुछ दिन तो हममें सेकिसी ने भी पीने का नाम नहीं लिया लेकिन पीने की यह लत अगर किसी को अगरएक बार लग जाये तो मय पीने वाले इन्सानों को अंत में बिना पिये कबछोड़ती है! हमारी यह लत “मैं कम्बल तो छोड़ता हूँ मगर कम्बल मुझे नहींछोड़ता” कहावत जैसी कटु सच थी! सोहन को छोडकर आज सभी दोस्त एक बार फिर पीने के लिये मोहन के घर एकत्रित हुए थे। सब कुछ वही था, मय की बोतल, पुराने दोस्तऔर खाने का सामान जो हमारे सामने ‘टेबल‘ पर रखा था। अगर किसी चीज़ की कमी थी तो वह थी – हमारे दोस्त सोहन की! सोहन की अनुपस्थिति हम सबको बार-बार झँझोड़ रही थी, उसकी मौत रह-रहकर हमारी आत्मा को कचोट रही थी।आज फिर हमने पीने की कोशिश की मगर लाख यत्न करने के बाद भी पी न सकेथे। कहतेहैं – सुबह का भूलाअगर शाम को घर लौटआये तो उसे भूला नहीं कहते,हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही थी।क्या ग़लत हैऔर क्या ठीक है, संगत में रहकर हम शायद यह भूले हुये थे और भटक भी गए थे, लेकिन उसकी मौत ने हमारीआँखें खोलदी थीं! अशोक परूथी “मतवाला” पढ़िए अशोक परूथी की दो प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा  काहे करो विलाप (व्यंग संग्रह ) अंतर – कहानी संग्रह

निर्मम

                                                     -नवीन मणि त्रिपाठी        दिसंबर का आखिरी सप्ताह ……बरसात के बाद हवाओं के रुख में परिवर्तन से ठंडक  के साथ घना कुहरा समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । हलकी हलकी पछुआ हवाओं की सरसराहट ……….. पाले की फुहार के साथ सीना चीरती हुई  बर्फीली ठंठक एक आम आदमी का होश फाख्ता करने के लिए काफी थी । पिछले पन्द्रह दिनों से सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए थे । छोटी छोटी चिड़ियाँ भी पेट की लाचारी की वजह सी निकल तो आती परंतु  फुदकने के हौसले बुरी तरह पस्त नज़र आ रहे थे । कुहरे में का अजीबो गरीब मंजर पूरा दिन टप………टप      ……टपकटी शीत की बूंदे……शहर का तापमान एक दो डिग्री के आसपास ठहरा हुआ …….। अखबारों में मवेशियों और इंसानो की मौत की ख़बरें  आम बनती जा रही थी । कम्बल रजाई सब के सब बे असरदार हो गए , ज्यादा तर घरों में अलाव जलने लगे ।  सरकारी इन्तजाम में चौराहे पर अलाव जलने लगे । सर्दी का आलम बेइंतहां कहर बरपा कर रहा था  ।      शाम सवा पांच बज चुके थे । मैं अपने सहकर्मी विनोद के साथ गेट पर रुक कर ड्यूटी समाप्ति की घोषणा करने वाले सायरन की प्रतीक्षा कर रहा था । विनोद के पैरों  में चोट थी इसलिए वह मेरी ही बाइक से आजकल आता जाता था । फैक्ट्री का सायरन बजते ही ड्यूटी समाप्त हो गयी । तीन किलो मीटर दूर अपनी कालोनी के लिए नेशनल हाई वे पर बाइक से चल रहे थे तभी रोड पर एक बुड्ढे को सड़क पार करते हुए देखा । बुड्ढा चार पांच कदम चलने के बाद लड़खड़ा कर  सड़क पर गिर गया । तब तक मेरी गाड़ी उसके करीब पहुच गयी । मैंने देखा उसके बदन पर फटा पुराना कुर्ता  मैली सी मारकीन की धोती एक ओबर साइज अध् फटा स्वेटर पैरों में दम तोड़ता सा एक हवाई चप्पल । उम्र यही कोई पचहत्तर से अस्सी के बीच । काफी कमजोर काया । मैंने गाड़ी रोक दी ।     क्या हो गया बाबा जी ??? जल्दी उठिए नहीं तो गाड़िया आपको रौंद डालेंगी । मैंने बाबा से कहा ।  बाबा ने थोड़ी कोसिस की और फिर खड़े हो गए । करीब दो तीन कदम ही चले होंगे और फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े । तभी तेजी से  सामने  की ओर से आती हुई कार ने ब्रेक लगाया ।उसके ब्रेक लगाने से बाबा की जान तो बाच गयी अंदर से ड्राइवर की आवाज आयी ” अरे बाबा मारना ही है तो किसी और गाड़ी से मरो । मैंने क्या बिगाड़ा है बाबा । इतना कहते कहते ड्राइवर ने गाड़ी बैक किया और साइड से होकर निकल गया ।बाबा वहीँ पड़े के पड़े । मुझे लगा बाबा को शायद अब मेरी मदद की जरूरत है । लगती है उन्हें कोई दिक्कत आ गयी है । अगर इनकी मदत नहीं की तो इसी अंधेरे में कुछ सेकेण्ड में अभी दूसरी कोई गाड़ी आएगी और बुड्ढे को रौंद कर चली जायेगी ।     मैंने तुरंत बाबा की सुरक्षा के लिए रोड पर ही अपनी बाइक आड़ी तिरछी खड़ी कर दी । बाबा को रोड से उठा कर  मैं और विनोद दोनों मिलकर किनारे ले आए । फिर गाड़ी भी किनारे ले आये ।     बूढ़े बाबा बार बार कुछ बताने का प्रयास कर रहे थे परंतु अस्पष्ट शब्द थे कुछ समझ पाना मुश्किल था ।  मैंने इनसे पूछा ” बाबा कहाँ तक जाना है आपको ? मैं आपको आपके घर छोड़ दूंगा ।” “बेइया ” बाबा ने कहा था ।क्या कहा बाबा बेइया ?? मैंने दोबारा स्पष्ट कराना चाहा बाबा ने अस्वीकृत में सर हिला दिया । बाबा ने फिर कहा बे ई या …..बे ई या.. क्या बेरिया …….???बेड़िया……?? या बेलिया ???बाबा सभी शब्दों को अस्वीकृत करते गए और वही बेइया की रट लगाये रखे ।   अंत मुझे लगा शायद इनकी दिमागी हालत भी ठीक नहीं है ।    मैंने उनकी हालत देख कर अपने घर चलने का आग्रह किया लेकिन बाबा तौयार नहीं हुए और एक बार फिर उठ कर खड़े हो गए और चलने लगे । बस चार कदम ही चले होंगे और बाबा फिर गिर पड़े । इस बार चोट भी ज्यादा लग गयी । बाबा को उठाया उन्हें चोट से थोडा चक्कर भी  आ गया था । बाबा को होश आने पर कलम कागज दिया गया शायद कुछ लिख सकें बाबा परंतु बाबा कुछ पढ़े लिखे नहीं थे । । बुड्ढे बाबा के घुटनों में बार बार गिरने से घाव हो गया था । मैने  विनोद की तरफ देखा और पूछ ही लिया –” विनोद भाई क्या किया जाए इनका ? लगता है किसी बड़ी बीमारी की वजह से पीड़ित हैं । ““नहीं भाई यह घर पर ले चलने लायक नहीं है । कही कुछ हो गया  तो और तबाही । ऐसा करते हैं इसे क्यों न थाना तक पंहुचा दिया जाए । थाने वाले जरूर बाबा को घर तक पंहुचा देंगे ।”   विनोद की बात में दम था । बर्फीली ठण्ढक के प्रकोप से बाबा की जान जाने की सम्भावना थी ।विनोद ने एक नज़र घड़ी देखी और फिर अचानक कुछ शब्द निकल पड़े ………,,,,,,,,”।विनोद ने कहा देखिये इस रास्ते पर इतने सारे लोग गुजर गए किसी ने बाबा की कोई खोज खबर नहीं ली लोग इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ते रहे । आप क्यों रुके हैं ? इनको अब इनके हाल पर छोडो और आगे बढ़ो । यह सब फालतू का कार्य है । आपने इनकी जान बचा दी अब आप की ड्यूटी समाप्त हो गयी । बहुत मिलेंगे दाता धर्मी  ।”  विनोद की बात जरूरत से ज्यादा प्रैक्टिकल लगने पर मैंने टोक दिया ।“अरे भाई विनोद जी इतनी पढाई लिखाई की इतनी सारी नैतिक शिक्षा की किताबे पढ़ी ….. कर्तव्यों को निभाने का वक्त आया तो भाग जाएँ ??? यह उचित तो नहीं यार ।चलो इसे किसी सुरक्षित स्थान पर कर दिया जाये जहाँ से इनकी पहचान हो सके और अपने घर यह पहुँच जाएँ ।    चलो अब बहुत हो गया लाओ बाबा को गाड़ी पर बैठाओ ले … Read more

प्रेम और इज्जत

अपने अतीत और वर्तमान के मध्य उलझ कर अजीब सी स्थिति हो गई थी दिव्या की! खोलना चाहती थी वह अतीत की चाबियों से भविष्य का ताला! लड़ना चाहती थी वह प्रेम के पक्ष में खड़े होकर वह समाज और परिवार से यहाँ तक कि अपने पति से भी जिसके द्वारा पहनाये गये मंगलसूत्र को गले में पहनकर हर मंगल तथा अमंगल कार्य में अब तक मूक बन साथ देती आई है ! जो दिव्या अपने प्रेम को चुपचाप संस्कारों की बलि चढ़ते हुए उफ तक नहीं की थी पता नहीं कहाँ से उसके अंदर इतनी शक्ति आ गयी थी दिव्या में !  दिव्या अपनी पुत्री में  स्वयं को देख रही थी ! डर रही थी कि कहीं उसी की तरह उसकी बेटी के प्रेम को भी इज्जत की बलि न चढ़ा दी जाये! सोंचकर ही सिहर जा रही थी कि कैसे सह पायेगी उसकी बेटी संस्कृति अपने प्रेम के टूटने की असहनीय पीड़ा……मैं तो अभिनय कला में निपुण थी इसलिए कृत्रिम मुस्कुराहट में  छुपा लेती थी अपने हृदय की पीड़ा…… क्यों कि बचपन से यही तो शिक्षा मिली थी कि बेटियाँ घर की इज्जत होतीं हैं , … नैहर ससुराल का इज्जत रखना , एक बार यदि इज्जत चली गई तो फिर वापस नहीं आयेगी..! यह सब बातें दिव्या के मन मस्तिष्क में ऐसे भर गईं थीं कि उसने इज्जत के खातिर अपनी किसी भी खुशी को कुर्बान करने में ज़रा भी नहीं हिचकती थी ….यहाँ तक कि अपने प्रेम को भी…!  प्रेम का  क्या… दिव्या ने तो प्रेम से भी कभी नहीं स्वीकारा कि वे उससे प्रेम करती है… क्यों कि उसे प्रेम करने का परिणाम पता था कि सिर्फ इज्जत की छीछालेदरी ही होनी है प्रेम में………!  नहीं नहीं मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी मन ही मन निश्चय करती हुई दिव्या  अपने अतीत में चली जाती है ! याद आने लगता है उसे अपना प्रेम जिसे वे कभी अपनी यादों में भी नहीं आने देती थी!  जब कभी भी उसे प्रेम की याद आती उसकी ऊँगुलियाँ स्वतः उसके मंगलसूत्र तक पहुंच जातीं और खेलने लगतीं थीं मंगलसूत्र से और निकाल लेती थी विवाह का अल्बम जिसमें अपनी तस्वीरें देखते देखते याद करने लगती थी अपने सात फेरों संग लिए गये वचन! और दिव्या अपने कर्तव्यों में जुट जाती थी!  वैसे तो प्रेम को भूला देना चाहती थी दिव्या कभी मिलना भी नहीं चाहती थी प्रेम से, फिर भी प्रेम यदा कदा दिव्या के सपनों में आ ही जाया करता था और दिव्या सपनों में ही प्रेम से प्रश्न करना चाहती थी तभी दिव्या की नींद खुल जाती थी और सपना टूट जाता था तथा दिव्या के प्रश्न अनुत्तरित ही जाते थे! झुंझलाकर वह कुछ कामों में खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करती थी ताकि वह प्रेम को भूल सके.. लेकिन इतना आसान थोड़े न होता है पहले प्यार को भूलना..वह भी पहला ! वह जितना ही भूलने की कोशिश करती प्रेम उसे और भी याद आने लगता था!  पढ़ें – लक्ष्मी की कृपा (कहानी ) किसी विवाह समारोह में गई थी दिव्या वहीं प्रेम से मिली थी! उसे याद है कि जब पहली बार आँखें चार हुईं थीं तो प्रेम उसे कैसे देखता रह गया था और दिव्या की नज़रें झुक गई थीं! शायद दिव्या को भी पहले प्यार का एहसास हो गया था तभी वह अपनी नजरें चाह कर भी नहीं उठा पाई थी शायद उसे डर था कि कहीं उसकी आँखें प्रेम से कह न दे कि हाँ मुझे भी तुमसे प्यार हो गया है!  अक्सर प्रेम दिव्या से बातें करने का बहाना ढूढ लेता था! दिव्या तो सबकी लाडली थी इसलिए कभी दिव्या को कोई अपने पास बुला लेता था तो कभी कोई और प्रेम तथा दिव्या की बातें अधूरी ही रह जाती थी!  दिव्या गुलाबी लिबास में बिल्कुल गुलाब की तरह खिल रही थी! जैसे ही कमरे से बाहर निकली उधर से प्रेम आ रहा था और दोनों आपस में टकरा गये! दिव्या जैसे ही गिरने को हुई प्रेम उसे थाम लिया दोनों की नज़रें टकराई और दिव्या शर्म से गुलाबी से लाल हो गई.. फिर झट से प्रेम से हाथ छुड़ाकर बिजली की तरह भागी थी दिव्या!  विवाह के रस्मों के बीच भी दोनों की आँखें कभी-कभी चार हो जाया करतीं थीं फिर दिव्या की नज़रें झुक जाया करतीं थीं.. यह क्रम रात भर चलता रहा!  कभी-कभी रस्मों रिवाजों के बीच दिव्या और प्रेम भी कल्पना में खो जाते और खुद को दुल्हा दुल्हन के रूप में सात फेरे लेते पाते तभी बीच में कोई पुकारता तो तंद्रा भंग हो जाती और धरातल पर वापस लौट आते !  विवाह सम्पन्न हो गया तो दिव्या अपने परिवार के साथ अपने घर लौटने को हुई लेकिन दिव्या का मन जाने का नहीं कर रहा था, वह चाह रही थी कि उसे कोई रोक लेता और उसकी आँखें तो प्रेम को ही ढूढ रहीं थीं पर प्रेम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था! उदास दिव्या सभी बड़े परिजनों को प्रणाम तथा छोटों से गले मिलकर गाड़ी में बैठने को हुई तो प्रेम भी अचानक आ पहुंचा तथा धीरे से दिव्या के हाथ में कुछ सामान ( मिठाइयों वगरा के साथ) एक चिट्ठी भी पकड़ा दिया जिसे दिव्या बड़ी मुश्किल से सभी की नजरों से छुपा पाई थी!  दिव्या का मन चिट्ठी पढने के लिए बेचैन हो रहा था! रास्ते भर सोंच रही थी कि प्रेम क्या लिखा होगा इसमें! घर पहुंच कर अपने कमरे में जाकर सबसे पहले चिट्ठी खोली जिसमें लिखा था….  दिव्या मैनें जब तुम्हें पहली ही बार देखा तो लगा कि मैं तुम्हें जन्मों से जानता हूँ! तुम मेरी पहली और आखिरी पसंद हो लेकिन पता नहीं मैं तुम्हें पसंद हूँ या नहीं… यदि तुम भी मुझे पसंद कर लो तो………….  प्रेम  तब दिव्या को तो मानो पूरी दुनिया भर की खुशियां मिल गयीं थीं ! उसे भी तो प्रेम उतना ही पसंद था बल्कि कहीं अधिक ही पर स्त्री मन प्रेम कितना भी अधिक कर ले पर प्रेम के इज़हार में तो हमेशा ही पिछड़ जाता है और इस मामले में पुरुष हमेशा ही अव्वल रहते हैं!  दिव्या भी प्रतिउत्तर में प्रेम को चिट्ठी लिख … Read more

लक्ष्मी की कृपा

लक्ष्मी की कृपा  किरण सिंह बहुत दिनों बाद मेरे सामने वाला फ्लैट किराए पर लगा…! सभी फ्लैट वासियों के साथ साथ मुझे भी खुशी और उत्सुकता हुई कि चलो घर के सामने कोई दिखेगा तो सही …. भले ही पड़ोसी अच्छा हो या बुरा……! मन ही मन सोंच रही थी कि ज्यादा घुलूंगी मिलूंगी नहीं.. क्यों कि बच्चों की पढ़ाई , अपना काम सब बाधित होता है ज्यादा सामाजिक होने पर… और फिर पता नहीं कैसे होंगे वे लोग….मिलने को तो कई लोग मिल जाते हैं यहाँ….. घुल मिल भी जाते हैं…. दोस्ती की दुहाई देकर दुख सुख भी बांटते हैं…….मुंह पर तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं और पीठ पीछे चुगली करने से भी नहीं चूकते…इसलिए मैंने मन ही मन सोंच लिया कि पहले मैं उनके रंग ढंग देखकर ही घुलूंगी मिलूंगी…! करीब शाम चार बजे आए मेरे पडोसी मिस्टर एंड मिसेज सिन्हा जी..! मेरे ड्राइंग रूम की खिड़की से सामने वाले फ्लैट में आने जाने वालों की आहट मिल जाती थी फिर भी मैं अपने स्वभाव के विपरीत बैठी खटर पटर की आवाज सुन रही थी….. सोंची नहीं निकलूंगी बाहर पर आदत से मजबूर मेरे कदम बढ़ ही गए नए पड़ोसी के दरवाजे तक चाय पकौड़ी के साथ…..! देखी पड़ोसन बिल्कुल ही साधारण सी साड़ी में लिपटी हुई… माथे पर बड़ी सी बिंदी… भारी भरकम शरीर…… कुछ थकी हुई सी….. चाय पकौड़ी को देखकर शायद बहुत ही राहत मिली उन्हें…… चेहरे पर मुस्कान खिल गई और पति पत्नी दोनों ही शुक्रिया अदा करने से नहीं चूके….! मैंने भी कह दिया मैंने कुछ भी तो नहीं किया और रात के भोजन के लिए आमंत्रित कर आई…! उनसे मिलने के बाद काफी खुशी मिली मुझे….. मन में सोंचने लगी इतने बड़े पद पर रहने के बाद भी ज़रा सा भी दंभ नहीं है और पहली ही नजर में वे अच्छे लगने लगे .! पढ़िए – रिश्तों पर खूबसूरत कहानी यकीन रात्रि में वे सपरिवार हमारे घर आए…… बच्चे तो घर में प्रवेश करते ही प्रसन्नता से उछल पड़े….. कोई मेरे ड्राइंग में सजे हुए एक्वेरियम की मछलियों को देखने लगा तो कोई दीवार में लगे पेंटिंग्स का….!थोड़ा बहुत दबी जुबान में मिस्टर सिन्हा भी प्रशंसा कर ही दिए…… पर मिसेज सिन्हा बिल्कुल धीर – गम्भीर, चुपचाप मूरत बनी बैठी थी…..! खाने-पीने के साथ-साथ बातें भी हुई….. और बहुत देर बाद मिसेज सिन्हा का मौन ब्रत टूटा…कहने लगी देखिए जी हमलोग सादा जीवन जीना पसंद करते हैं….. दिखावा में विश्वास नहीं करते….. और हमारा परिवार थोड़े में ही सन्तुष्ट है….और फिर अपनी कहानी सुनाने लगीं…! एक रिश्तेदार ( ममेरी देवर ) के यहाँ मैं कुछ दिनों के लिए गई थी…. देवरानी ( पम्मी ) सुन्दर – सुन्दर महंगे कपड़े पहनी थी… पर दूसरे ही दिन बिल्कुल साधरण कपड़े पहनने लगी… मैंने कहा कल तुम बहुत सुंदर लग रही थी आज क्यों इतनी सिम्पल………तब वह कहने लगी भाभी आपकी सादगी देखकर मुझे शर्म महसूस होने लगी इसलिए…… कि आप इतनी सम्पन्न और फिर भी इतनी सादगी ………….! इतना सुनने के बाद तो मेरे मन में उनके लिए और भी अधिक सम्मान उत्पन्न हो गया…! हम पड़ोसी में प्रगाढ़ता बढ़ने लगी….सिनेमा…. बाजार… या कहीं भी साथ साथ निकलते थे… अपना दुख सुख एक-दूसरे से बांटने लगे….! तब ब्रैंडेड कपड़े सभी नहीं पहनते थे…. किन्तु हमारे बच्चे तब भी ब्रैंडेड कपड़े , जूते आदि पहनते थे…! एकदिन मिस्टर सिन्हा ने मेरे पति से कहा कि इतने महंगे-महंगे कपड़े अभी से पहनाएंगे तो बच्चों में खुद कमाने की जिज्ञासा ही नहीं रहेगी….! तब स्कूल के परीक्षाओं में उनके बच्चों का नम्बर अधिक आता था… पतिदेव ने आकर मुझे सुनाई तो मुझे भी उनकी बातें अच्छी और सच्ची लगी….! यही बात मैंने अपने बेटे ऋषि से कही….. तो उसने कहा कि आप चिंता मत करिए….. यदि हम आज ऐसे रह रहे हैं तो कल और भी बेहतर तरीके से रहने के लिए और भी मेहनत करेंगे… और फिर कहा कि दुनिया में हर इन्सान अपने से ऊपर वाले इन्सान को गाली देता है पर रहना चाहता है उन्हीं की तरह…. यह सब वे ईर्ष्या वश कह रहे हैं…. आप लोगों की बातें क्यों सुनती हैं….! मैने अपने बेटे से कोई बहस नहीं करना चाहती थी इसलिए चुप रहना ही उचित समझा…! पर उस समय मिस्टर सिन्हा की बातें मुझे कुछ हद तक सही लग रही थीं… पर करती भी क्या……. बच्चों की आदतें तो मैंने ही खराब की थी…! पढ़िए – फेसबुक : क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं धीरे-धीरे समय बीतता गया….. हम दोनों के परिवारों के बीच प्रगाढ़ता बढ़ने लगी…! मिस्टर सिन्हा के ऊपर लक्ष्मी की कृपा भी बरसने लगी…! कुछ ही महीनों में उन्होंने सामने वाला फ्लैट खरीद भी लिया… घर के इन्टिरियर में बिल्कुल मेरे घर की काॅपी की गई थी…! बच्चों के महंगे ब्रैंडेड कपड़ों की तो पूछिए ही मत…! और मिसेज सिन्हा के वार्डरोब में तो महंगी साड़ियाँ देखते ही बनती थीं…मिस्टर सिन्हा के क्या कहने…. उनकी तो अतृप्त ईच्छा मानो अब जाकर पूरी हुई हो…. पचास वर्ष की आयु में किशोरों के तरह कपड़े पहन मानो किशोर ही बन गए हों…! मुझे अपने बेटे की कही हुई एक एक बात सही लगने लगी…… और मैं मन ही मन सोंचने लगी कि यह तो लक्ष्मी जी की कृपा है…! यह भी पढ़ें ………. टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे दोषी कौन  परिचय … साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की … Read more

यकीन

 पढ़िए ” यकीन “पर एक खूबसूरत  कहानी  किरण सिंह ******** अभी मीना को दुनिया छोड़े कुछ दो ही महीने हुए होंगे कि उसके  पति महेश का अपनी बेटी के रिंग सेरेमनी में शामिल होने के लिए हमें निमंत्रण आया! जिस समारोह का मुझे बेसब्री से इंतजार था पर उस दिन मेरा मन बहुत खिन्न सा हो गया था तथा मन ही मन में महेश के प्रति कुछ नाराजगी भी हुई थी मुझे ! मैं सोचने लगी थी कि वही महेश हैं न जो अपनी माँ के मृत्यु के छः महीने बाद भी घर में होली का त्योहार नहीं मनाने दिये! घर के बच्चों ने भी तब चाहकर भी होली नहीं खेली थी और ना ही नये वस्त्र पहने थे ! याद आने लगा कि जब होली के दिन किसी ने सिर्फ टीका लगाना चाहा था तो ऐसे दूर हट गये थे जैसे कि किसी ने उन्हें बिजली की करेंट लगा दी हो, पर मीना के दुनिया से जाने के दो महीने बाद ही यह आयोजन…….. मन तो हो रहा था कि उन्हें खूब जली कटी सुनाऊँ पर…! जाना तो था ही आखिर मीना मेरी पक्की सहेली जो थी .. इसके अलावा महेश जी और  मीना ने जो मेरे लिए किया उसे कैसे कभी भूल सकती थी कि जब मेरी ओपेन हार्ट सर्जरी दिल्ली में हुई थी तब ये लोग ही उस घड़ी में हर समय हमारे साथ खड़े रहे! यह बात तो कभी भूलता ही नहीं जब मैं हास्पिटल में ऐडमिट थी और महेश जी हर सुबह और शाम एक ही बात कहते थे –  कि आप बहादुर महिला हैं ऐसे ही बहादुरी से रहियेगा और मोवाइल कट जाती थी! मुझे महेश जी के इन बातों से ढाढस तो बहुत मिलता था लेकिन मन ही मन अपने आप पर हँसी भी आती थी कि मैं वाकई अभिनय कला में निपुण हूँ कि किसी को मेरी घबराहट का एहसास तक नहीं होता था और फिर कुछ ही क्षणों बाद आँखों में आँसू छलछला जाता था जिसे मैं बड़ी मुश्किल से छुपा पाती थी!  अभिनय कला में तो पारंगत थी ही इस लिए चली गई सगाई में अपने होठों पर झूठी मुस्कुराहट के साथ ! सगाई समारोह बहुत ही भव्य तरीके से हुआ ! लेकिन समारोह में महेश जी को खुश देखकर मेरा मन अन्दर ही अन्दर दुखी हो रहा था! मन ही मन मैं सोचने लगी कि कितना अन्तर होता है न पुरुषों और स्त्रियों में!  ऐसी स्थिति में क्या मीना होती तो ऐसा कर पाती क्या… स्त्रियों के साथ तो ऐसी परिस्थितियों में  नियति के क्रूर चक्र के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों का भी दंश झेलना पड़ता है और अंतर्मन की पीड़ा तो मरण शैया तक या फिर मरणोपरांत भी नहीं छोड़ती है! छिः सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं.. कुछ समय के लिए तो पूरी पुरुष जाति से नफरत सी होने लगी थी मुझे किन्तु मैं अपनी भावनाओं को छुपाने का भरसक प्रयास करती रही थी! मैं समारोह में उपस्थित थी किन्तु मेरा मन तो मीना  के ख्यालों में ही खोया हुआ था… काश वो होती!  लेकिन मैं मन को सम्हालने में कामयाब हो गई थी कि चलो दामाद तो काफी अच्छा है जिसे दीदी ने खुद पसंद किया था!  समारोह सम्पन्न हुआ और हम सभी रिश्तेदार अपने – अपने घर वापस लौट आये!  फिर एक महीने के बाद मीना की बेटी का विवाह का निमन्त्रण भी आया ! तब भी मन दुखी हुआ था कि इतनी जल्दी क्या थी कम से कम साल तो लग जाने देते…..! विवाह में भी हम पहुंचे ! विवाह की व्यवस्था देखकर तो मैं दंग रह गई सोंचने लगी कि ऐसी व्यवस्था तो शायद मीना होती तो भी नहीं हो पाती! महेश जी तथा उनके परिवार वाले स्वागत सत्कार में कहीं से भी किसी चीज की कमी नहीं होने दिये थे फिर भी खून के रिश्तों की भरपाई कहाँ किसी से हो पाती है इसीलिए मीना के सभी खून के रिश्तेदार रोने के लिए एकांत ढूढ लेते थे! और फिर हल्के होकर होठों पर कृत्रिम मुस्कान बिखेरते हुए मांगलिक कार्यक्रमों में शरीक हो जाते थे !  दिल्ली में रहते – रहते महेश जी भी पक्का दिल्ली वाले हो गये हैं इसीलिए तो अपने रस्मों को निभाने के साथ साथ कुछ दिल्ली के पंजाबियों के रस्म रिवाजों को भी अपना लिये थे!  विवाह के एक दिन पहले मेंहदी के रस्म के बाद शाम सात बजे से काकटेल पार्टी की व्यवस्था की गयी थी जो हम सभी के लिए कुछ नई थी! हर टेबल पर एक – एक बैरा तैनात थे, स्टार्टर के साथ – साथ कोल्डड्रिंक्स और दारू भी चल रहा था जहाँ मैं कुछ असहज सी महसूस कर रही थी! उसके बाद कुछ हम जैसों को छोड़कर सभी डांस फ्लोर पर खूब नाच रहे थे साथ में महेश जी भी कई पैग चढ़ाकर सभी के साथ नाच रहे थे और एक एक करके सभी को डांस फ्लोर पर ले गये और खूब नाचे..! पर मैं हर जगह अपनी बीमारी की वजह से बच जाती हूँ सो यहाँ भी मुझसे किसी ने भी जोर जबरजस्ती नहीं की.. लेकिन जब मीना का बेटा आया और बोला प्लीज मौसी जी आप भी फ्लोर तक चलिये.. उसके आग्रह को मैं नकार नहीं सकी और थोड़ा बहुत मैं भी ठुमका लगा ही ली !  सबसे ज्यादा खला फोटो खिंचवाते समय जब सभी पति पत्नी साथ होते थे और महेश जी अकेले ही हम सभी के साथ फोटो खिंचवा रहे थे ! अगले दिन विवाह का रस्म था जिसे महेश जी के भैया भाभी निभा रहे थे !  विवाह के दिन महेश जी को मैंने ज़रा उदास देखा तो दुख तो हुआ लेकिन उनकी उदासियों में मुझे हल्का सा सुकून भी मिल रहा था कि चलो मीना को याद तो कर रहे हैं न वे! विवाह बहुत ही अच्छे ढंग से सम्पन्न हो गया ! एक एक करके सभी रिश्तेदार जाने लगे जिनकी विदाई भी जीजा जी ने बहुत अच्छे सै किया!  मीना दी की माँ की जब जाने की बारी आई तो महेश जी उनका हाथ पकड़कर फफक फफक कर रो पड़े और सभी को रुला दिये!  शायद सभी  मुस्कुराने का अभिनय करते  – करते थक चुके थे … Read more

काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता

क्या मन्त्र से जाति बदल सकती है  किरण सिंह ********************************* बिना किसी पूर्व सूचना दिए ही मैं नीलम से मिलने उसके घर गई…! सोंचा आज सरप्राइज दूं | घंटी बजाते हुए मन ही मन सोंच रही थी कि इतने दिनों बाद नीलम मुझे देखकर उछल पड़ेगी..! पर क्या दरवाजा आया खोलती है और घर में घुसते ही चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ | मेरा तो जी घबराने लगा और आया से पूछ बैठी कि घर में सब ठीक तो है न….! तभी अपने बेडरूम से नीलम आई और अपने चेहरे की उदासी पर पर्दा डालने के लिए मुस्कुराने का प्रयास करती हुई…! पर मैं अपने बचपन की सहेली के मनोभावों को कैसे न पढ़ लेती|फिर भी प्रतिउत्तर में मैं भी मुस्कुराते हुए उसके समीप ही सोफे पर बैठ गई….! मैंने हालचाल पूछने के क्रम में नीलम से उसकी बेटी स्नेहा का हाल भी पूछ लिया, और स्नेहा के रिश्ते के लिए एक बहुत ही योग्य स्वजातीय  अच्छा लड़का बताया | क्योंकि नीलम अक्सर ही मुझसे कहा करती थी कि तुम्हारे नज़र में कोई अच्छा लड़का हो तो बताना…… बल्कि कई बार फोन पर भी बोली थी स्नेहा तुम्हारी भी बेटी है … लड़का ढूढने की जिम्मेदारी तुम्हारी……! पर क्या मैंने लड़के के बारे में बताना शुरू किया तो वो मेरी बात बीच में ही रोकते हुए चाय लाती हूँ, कहकर किचेन में चली गई….! मुझे अकेले बैठे देख नीलम की सास मेरे समीप आकर बैठ गई जैसे वे नीलम के अन्दर जाने की प्रतीक्षा ही कर रही थी……….! और कहने लगीं…बहुते मन बढ़ गया है आजकल के बचवन का….. एक से बढ़कर एक रिश्ता देखे रहे नंदकिशोर  ( उनका बेटा नीलम के पति ) बाकीर स्नेहा बियाह करे खातिर तैयारे नाहीं है…! मैंने कहा पूछ लीजिए नेहा से कहीं किसी और को तो नहीं पसंद कर ली है…? मेरे इतना कहने पर आंटी झल्ला उठीं कहने लगीं तुम भी कइसन बात करने लगी किरण……. अरे हमन लोग ऊँची जाति के हैं कइसे अपने से नीच जाति में अपन घर की इज्जत ( बेटी ) दे दें.. अउर नीच जाति का स्वागत सत्कार हम ऊँची जाति वाले अपन दरवाजे पर नाहीं करे सकत हैं…! अरे एतना इज्जत कमाया है हमर लड़का नन्दकिशोर… सब मिट्टी मा मिल जाई…! एही खातिर पहिले लोग बेटी का जनम लेते ही मार देत रहा सब….अब ओकरे पसंद के नीच जाति मैं बियाह करब तो खानदान पर कलंके न लगी…इ कइसन बेटी जनम ले ली हमर नन्द किशोर का…..! मैं आंटी की बातें बिना किसी तर्क किए चुपचाप सत्यनारायण भगवान् की कथा की तरह सुन रही थी.|और याद आने लगी आंटी की पिछली वो बातें जब मैं पिछली बार यहां आई थी…! आंटी नेहा की प्रशंसा करते नहीं थक रही थी |  कह रहीं थीं एकरा कहते हैं परवरिश….. आज तक नेहा पढाई में टॉप करत रह गई…पहिले बार में नौकरियो बढिया कम्पनी में हो गवा…..अउर एतना मोटा रकम पावे वाली बेटी को देखो तो तनियो घमंड ना है | उका……………..घर का भी सब काम कर लेत है…. अउर खाना के तो पूछ मत…. किसिम किसीम के  (तरह तरह का) खाना बनावे जानत है…… आदि आदि…………….. भगवान् केकरो ( किसी को भी ) *बेटी दें तो नेहा जइसन…. और तब मैं आंटी के हां में हां मिलाते जाती थी| तभी नीलम नास्ते का ट्रे लेकर आ गई और मैं स्मृतियों से वापस वर्तमान में लौट आई…! आंटी की बातों से नेहा की उदासी का पूरा माजरा समझ चुकी थी मैं, फिर भी मैं नीलम के मुह से सुनना चाहती थी इसलिए नीलम से पूछा आखिर बात क्या है नीलम……………… और स्नेहा किसे पसंद की है….. लड़का क्या करता है आदि आदि………. नीलम की आँखें छलछला आईं… और आँसू पोंछते हुए मुझसे कहने लगी लड़का आईआईएम से मैनेजमेंट करके जाॅब कर रहा है पचास लाख का पैकेज है……. देखने में भी हैंडसम है……बाप की बहुत बड़ी फैक्ट्री है….! मैंने कहा तो अब क्या चाहिए… इतना अच्छा लड़का तो दिया लेकर ढूढने से भी नहीं मिलेगा…. फिर ये आंसू क्यों……? मैं सबकुछ समझते हुए भी नीलम से पूछ रही थी…!  नीलम कहने लगी लड़का बहुत छोटी जाति का है…. किसी और शहर में रहता तो कुछ सोंचा भी जा सकता था…अपने ही शहर का है….. लोग तरह-तरह की बातें करेंगे…. हम लोगों का शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा…! मैंने कहा लोगों की छोड़ो पहले तुम क्या सोंचती हो ये बताओ…? नीलम कहने लगी मेरे चाहने न चाहने से क्या होगा…. मेरे पति इस रिश्ते के लिए कतई तैयार नहीं हैं… और मैं अपने पति के खिलाफ नहीं जाऊँगी….! और फिर उसके आँखों से आँसू छलक पड़े………….  नेहा कहने लगी…. सुबह चार बजे से उठकर…… दिन रात एक करके मेरे पति कितना मेहनत करके बच्चों को पढ़ाए…. कितना दिल में अरमान था स्नेहा के विवाह का……….मेरे बच्चे इतने स्वार्थी हो जाएंगे मैंने सपने में भी नहीं सोंचा था…. काश कि उसे इतना नहीं पढ़ाए होते…! मैंने बीच में रोकते हुए नीलम से पूछा…. इस विषय में तुम स्नेहा से खुद बात की..? नीलम ने कहा हां एक दिन मेरे पति ने बहुत परेशान होकर कहा कि पूछो स्नेहा से कि वो सोसाइट करेगी या मैं कर लूँ….! मेरी तो जान ही निकल गई थी मैंने स्नेहा को समझाने की भरपूर कोशिश की… पर उसका एक ही उत्तर था कि मैं यदि अंकित से शादी नहीं करूंगी तो किसी और से भी नहीं कर सकती.. अंकित को मैं बचपन से जानती हूँ उसके अलावा मैं किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती…… फिर मैंने धमकाया भी कि तब तुम्हें हमलोगों से रिश्ता तोड़ना पड़ेगा…… फिर वो खूब रोने लगी… बोली प्लीज माँ मैं किसी को भी छोड़ना नहीं चाहती….. अंकित यदि छोटी जाति में पैदा हुआ है तो इसमें उसकी क्या गलती है….. उससे कम औकात वाले करोड़ों रुपये दहेज में मांगते हैं और उसको भी उसके स्वजातिय देंगे ही…… आखिर उसमें कमी क्या है……. और झल्ला कर कहने लगी रोज धर्म परिवर्तन हो रहा है क्या छोटी जाति को ऊँची जाति में परिवर्तन करने का कोई उपाय नहीं है…… प्लीज मम्मी कुछ करो….! मैं  सोंचने लगी सही ही तो कह रही है स्नेहा…! बालिग है… आत्मनिर्भर … Read more

टाईम है मम्मी

किरण सिंह जॉब के बाद ऋषि पहली बार घर आ रहा था..!कुछ छःमहीने ही हुए होंगे किन्तु लग रहा था कि छः वर्षों के बाद आ रहा है ! बैंगलोर  से आने वाली फ्लाइट पटना में ग्यारह बजे लैंड करने वाली थी.पर मेरे पति को रात भर नींद नहीं आई.उनका वश चलता तो रात भर एयरपोर्ट पर ही जाकर बैठे रहते..! ! कई बार ऋषि से बात करते रहे कब चलोगे.. थोड़ा जल्दी ही घर से निकलना..सड़क जाम भी हो सकता है…… आदि आदि..! उनकी इस बेचैनी को देखते हुए मैंने थोड़ा चुटकी लेते हुए कहा चले जाइए ना रात में ही एयरपोर्ट..! मैं तो ऋषि के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाई ही थी किन्तु पिता के मन को माता से ही प्रतिस्पर्धा…. कहां मानने वाला था पिता का दिल सो उन्होंने बाजार से खरीद कर घर में ऋषि के मनपसंद फलों और मिठाइयों का ढेर लगा दिया..! शायद उनका वश चलता तो पूरा बाजार ही घर में उठा लाते..! एयरपोर्ट घर से तीन चार किलोमीटर ही दूर होगा और जाने में टाइम भी पांच से दस मिनट ही लगता… पर मेरे पति नौ बजे ही एयरपोर्ट चले गए… एक पिता के हृदय का कौतूहल देखकर मैंने भी बिना टोके जाने दिया….! पहली बार मुझे पिता का प्रेम माता से भारी प्रतीत हो रहा था….! मैंने घर का मेन गेट खुला छोड़ रखा था इसलिए डोरवेल भी नहीं बजा और घर में प्रवेश कर गए बाप बेटे.. पहली बार मैंने उन्हें इतना खुश होकर मित्रवत वार्तालाप करते हुए देखकर मुझे भी काफी खुशी हुई साथ में डर भी लग रहा था कि कहीं मेरी नज़र ही न लग जाए…! मैं अभी खुशियों के अनुभूतियों में डूबी हुई थी कि ऋषि अपने स्वभावानुसार सबसे पहले फ्रिज खोला ये ऋषि की बचपन की ही आदत थी देखने की कि फ्रिज में क्या क्या है…! और फिर कोल्ड्रिंक्स का बॉटल निकाल कर लाया..और हांथ में लेकर अपने रूम में चला गया ! और फिर बैग खोलकर ढेर सारे गिफ्ट्स निकाल कर लाया……. मेरे लिए टैब्लेट, अपने पापा के और चाचा के लिए कीमती घड़ी………… आदि……! पहले तो पतिदेव ने कहा क्या जरूरत थी बेटा इतना खर्च करने की लेकिन जब ऋषि ने पहनाया तो उनके चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी ठीक जैसे कभी ऋषि अपना गिफ्ट देखकर खुश हुआ करता था….! मैंने जो टेबल पर कई तरह के व्यंजन परोसे थे दोनों बाप बेटे व्यंजनों का आनंद ले रहे थे.. फिर मेरे पति ने याद दिलाया मैंने काजू की बरफी लाई है उसे भी लाओ और देखना कच्चा गुल्ला भी………………. मैं परोस रही थी और बाप बेटे बातों में इतने व्यस्त..कि उस दिन मेरे पति आफिस भी नहीं गए..! पिता पुत्र को इतनी देर तक बातें करते देख बहुत खुशी हो रही थी और सबसे खुशी इस बात की कि सिर्फ उपदेश देने वाले पिता आज पुत्र की सुन रहे… और मेरे आँखों के सामने पिछला स्मरण चलचित्र की तरह घूमने लगा…! जब ऋषि सेमेस्टर एग्जाम के बाद छुट्टियों में घर आता था…. प्रतीक्षा और स्नेह तो तब भी इतना ही करते थे.. तब भी फल और मिठाइयों से घर भर देते थे ऋषि के पिता….! सिर्फ अब और तब में अन्तर इतना ही था कि बेटे के घर में प्रवेश करते ही शुरू हो जाता था पिता का प्रश्न और उपदेश….. एग्जाम कैसा गया…. मेहनत से ही सफलता मिलती है…………  सक्सेस का एक ही मूलमंत्र है…. मेहनत  मेहनत और मेहनत और ऋषि का हर बार एक ही जवाब होता था……. मेहनत करने वाले जिन्दगी भर मेहनत करते रह जाते हैं और दिमाग वाले हमेशा ही आगे निकल जाते हैं……. मेहनत तो मजदूर भी करते हैं कहां सफलता मिलती है उन्हें……! और फिर होने लगती थी पिता पुत्र में गर्मागर्म बहस और मैं बड़ी मुश्किल से बहस को शांत कराती…….! मैं ऋषि को समझाने लगती बेटा क्यों नहीं सुन लेते पापा की आखिर वे तुम्हारे लिए ही तो कहते हैं…. खामखा नाराज कर दिया तुमने……..! और ऋषि कहता गलत क्यों सुनें वे कहता था कि आदमी को जिस विषय में अभिरुचि है यदि उस कार्य को करे तो विशेष मेहनत करने की जरूरत नहीं होती है…! और लोग परेशान इसलिए रहते हैं कि वे अपने कैरियर बनाने के लिए विषय का चुनाव अपनी अभिरुचि के अनुसार नहीं करते…और इसीलिए उन्हें अपना काम उबाऊ लगता है और विशेष मेहनत की आवश्यकता पड़ती है..! उसने फिर मुझे उदाहरण सहित समझाया कि मम्मी जैसे आपको लेखन कार्य में अभिरुचि है तो आपको कविता या कहानी लिखने के लिए अलग से मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती होगी बल्कि आपके लिए मनोरंजक होगा….! और यही कार्य किसी और को करने के लिए दिया जाए तो यह उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी..! और मैं ऋषि से पूर्णतः सहमत हो जाती थी…..! सबसे मुश्किल तब होता था  ऋषि के रात में जगने वाली आदत से……! मैं तो रात में खाने के लिए ऋषि के मनपसंद व्यंजन बनाकर रख देती थी और सो जाती थी…! पर कभी-कभी रात में पतिदेव के चिल्लाने की आवाज सुनकर उठ जाती थी….. रात रात भर कम्प्यूटर पर क्या करते हो …….. ये कौन सा रुटीन है…………… जब तक रुटीन सही नहीं रहेगा तब तक लाइफ में कुछ नहीं कर सकते……………. कौन सी कम्पनी तुम्हारे लिए रात भर खुली रहेगी…….. आदि आदि…..! और शान्ति स्थापना  हेतु मेरी नाइट ड्यूटी लग जाती थी…! पर आज तो सूरज पश्चिम में उग आया था…! ऋषि बोल रहा था और उसके पिता सुन रहे थे कभी कभी कुछ पूछने के लिए बोलते थे बाकी समय सिर्फ सुन रहे थे सत्यनारायण भगवान् की कथा की तरह….! एक वक्ता इतना अच्छा श्रोता कैसे बन गया मुझे खुशी के साथ साथ आश्चर्य हो रहा था….! मैं तो विजयी मुद्रा में बैठी देख और सुन रही थी……..!  अंत में मुझसे रहा नहीं गया और मैंने चुटकी लेते हुए ऋषि से कहा ऋषि तुम्हारा घड़ी तो कमाल कर दिया……… फिर ऋषि ने भी मुस्कुराते हुए कहा.. टाइम है मम्मी….! ************** ©कॉपीराइट किरण सिंह  यह भी पढ़ें ………. एक पाती भाई के नाम सिर्फ ख़ूबसूरती ही नहीं भाग्य भी बढाता है 16 श्रृंगार मित्रता – एक खूबसूरत बंधन स्त्री विमर्श का … Read more

” ब्लू व्हेल ” का अंतिम टास्क

पापा मेरे मैथ्स के सवाल हल करने में मुझे आपकी मदद चाहिए | नहीं बेटा आज तो मैं बहुत बिजी हूँ , ऐसा करो संडे  को  तुम्हारे साथ बैठूँगा | पापा , न जाने ये संडे कब आएगा | पिछले एक साल से तो आया नहीं | बहुत फ़ालतू बाते करने लगा है | अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है की पिता से जुबान लड़ाए | देखते नहीं दिन – रात तुम्हारे लिए ही कमाता रहता हूँ | वर्ना मुझे क्या जरूरत है नौकरी करने की | मम्मा रोज चीज ब्रेड ले स्कूल लंच में ले जाते हुए ऊब होने लगी है ,दोस्त भी हँसी उड़ाते हैं |  क्या आप मेरे लिए आज कुछ अच्छा बना देंगीं | नहीं बेटा , तुम्हें पता है न सुबह सात बजे तक तुम्हारा लंच तैयार करना पड़ता हैं | फिर मुझे तैयार हो कर ऑफिस जाना होता है | शाम को लौटते समय घर का सामान लाना , फिर खाना बनाना | कितने काम हैं मेरी जान पर अकेली क्या क्या करु | आखिर ये नौकरी तुम्हारे लिए ही तो कर रही हूँ | ताकि तुम्हें बेहतर भविष्य दे सकूँ | कम से कम तुम सुबह के नाश्ते में तो एडजस्ट कर सकते हो |                                                                                                                सुपर बिजी रागिनी और विक्रम का अपने १२ वर्षीय पुत्र देवांश से ये वार्तालाप सामान्य लग सकता है | पर इस सामान्य से वार्तालाप से देवांश के मन में उपजे एकाकीपन को  उसके माता – पिता नहीं समझ पा रहे थे | तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है | स्कूल से आने के बाद देवांश घर में बिलकुल अकेला होता | कभी सोफे पर पड़ा रहता , तो कभी मोबाइल लैपटॉप पर कुछ खंगालता , कभी रिमोट से टी वी चैनल बदलता | उसे घर एक कैद खाना सा लगता पर माता – पिता की अपने एकलौते पुत्र की सुरक्षा के लिए  घर से बाहर न निकलने की इच्छा उसे मन या बेमन से माननी ही पड़ती | बाहर दोस्त खेलने को बुलाते पर वो  कोई बहाना बना कर मोबाइल में बिजी हो जाता | देवांश पढाई में भी पिछड़  रहा था | ये ऊब भरी जिंदगी उसे निर्थक लग रही थी | उसके लिए जिंदगी बोरिंग हो चुकी थी | जहाँ कोई एक्साईटमेंट नहीं था |                                            जिन्दगी की लौ फिर से जलाने के लिए वो नए – नए मोबाइल गेम्स खेलता रहता | ऐसे ही  उसकी नज़र पड़ी एक नए गेम पर , जिसका नाम था ब्लू व्हेल | यूँ तो ब्लू व्हेल संसार का सबसे बड़ा जीव है | पर इस गेम का नाम उस पर रखने के पीछे एक ख़ास मकसद था | क्योंकि ये ब्लू व्हेल समुद्र मैं तैरती नहीं थी | जिन्दिगियाँ निगलती थी ,पूरी की पूरी | इसका आसान शिकार थे जिन्दगी से ऊबे हुए लोग | खासकर किशोर व् बच्चे | इस गेम में प्रतियोगियों को ५० दिन में ५० अलग – अलग टास्क पूरे करने होते हैं |और हर टास्क के बाद अपने हाथ पर एक निशान बनाना होता है | इस गेम का आखिरी टास्क होता है आत्महत्या |                                 जिंदगी की चिंगारी जलाने की चाह  ब्लास्ट तक ले जा सकती है इस बात से अनभिज्ञ देवांश ने यह गेम खेलना शुरू किया | उसे बहुत मजा आ रहा था | पहला टास्क जो उसे मिला वो था रात में हॉरर मूवी देखने का | वो भी अकेले | देवांश सबके सो जाने के बाद चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर फिल्म  देखने लगा | डर से उसके रोंगटे खड़े हो गए | पर  आखिरकार उसने फिल्म देख ही ली | जीत के अहसास के साथ उसने अपने हाथ पर निशान बना दिया | सुबह रागिनी ने हाथ देखा तो देवांश ने उसे बताया माँ ट्रुथ एंड डेयर का एक खेल खेल रहा था ” ब्लू व्हेल ” बहुत मजा आया | रागिनी सुरक्षा के साथ खेल खेलने की ताकीद दे कर अपने काम में लग गयी | इससे ज्यादा कुछ कहने  का समय रागिनी के पास कहाँ होता था |                                  देवांश का व्यवहार बदल रहा था | रागिनी व् विक्रम  महसूस कर रहे थे | कुछ टोंकते तो भी देवांश उनकी बात अनसुनी कर देता | रागिनी ने उसे पढाई के बहाने टोंका तो देवांश ने बताया ,” मम्मा आज मेरे गेम का अंतिम टास्क है | यह पूरा हो जाए फिर कल से पढूंगा | रागिनी  निश्चिन्त हो कर ऑफिस चली गयी | ऑफिस में आज माहौल  कुछ दूसरा ही था | सभी लोग कुछ चिंतित थे | रागिनी ने महसूस किया की आज वो ऑफिस के सहकर्मी नहीं बस माता – पिता थे | जो अपने बच्चों के वीडियो गेम्स खेलने पर चिंतित थे | अब बच्चे हैं तो वीडियो गेम खेलेंगे ही यह सोंच कर रागिनी ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर अपने काम पर फोकस करने का मन बनाया | आखिर माता – पिता हैं तो चिंता तो करेंगे ही |                     एक बजे लंच ब्रेक में उसने अपनी सहकर्मी मोहिनी से कहा ,” क्या बात है आज सभी को अपने बच्चों की टेंशन है | मोहिनी दीवार पर आँखे गड़ा कर लंबी सांस लेते हुए बोली ,” क्यों न हो , आज हम सब यहाँ पैसा कमाने में जुटे  हैं , की बच्चों भविष्य सुनहरा हो , वहां घर पर हमारे बच्चे मोबाइल , लैप टॉप पर अपनी जान खतरे में डाल रहे हैं | क्या मतलब ? मोबाइल लैप टॉप पर समय … Read more