समयरेखा
अंजू शर्मा “छह बजने में आधा घंटा बाक़ी है और अभी तक तुम तैयार नहीं हुई! पिक्चर निकल जाएगी, जानेमन!!!” मानव ने एकाएक पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए ज़ोर से हिला दिया! बचपन से उसकी आदत थी, मैं जब-जब क्षितिज को देखते हुए अपने ही ख्यालों में डूबी कहीं खो जाती, वह ऐसे ही मुझे अपनी दुनिया में लौटा लाता! उसका मुझे ‘जानेमन‘ कहना या बाँहों में भरकर मेरा गाल चूम लेना किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो मेरा प्रेमी है! मेरी अपनी एक काल्पनिक दुनिया थी जिसमें खो जाने के लिए मैं हरपल बेताब रहती! ढलते सूरज की सुनहरी किरणों में जब पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होने लगती, शाम दबे पाँव उस प्रेमिका की तरह मेरी बालकनी के मनी-प्लांट्स को सहलाने लगती जो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करते हुए हर सजीव-निर्जीव शय को अपनी प्रतीक्षा में शामिल करना चाहती है! ऐसी शामों के धुंधलकों में मुझे खो जाने देने से बचाने की कवायद में, तमाम बचकानी हरकतें करता, वह मेरे आँचल का एक सिरा थामे हुए ठीक मेरे पीछे रहता! ऐसा नहीं था कि यह उसकी अनधिकार चेष्टा मात्र थी, कभी मैं भी उसकी हंसी में शामिल हो मुस्कुराती तो कभी कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए ऐतराज़ जताती! पर आज तन्द्रा भंग होना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा! “जाओ न, मनु! आज मेरा मन नहीं है!” मैंने नीममदहोशी में फिर से अपनी दुनिया में लौट जाने के ख्याल से दहलीज़ से ही उसे लौटा देना चाहा! मेरी आवाज़ में छाई मदहोशी से उसका पुराना परिचय था! “तुम्हारे मन के भरोसे रहूँगा तो कुंवारा रह जाऊंगा, जानेमन!” उसने फिर से मुझे दहलीज़ के उस ओर खींच लेने का प्रयास किया! “शटअप मनु! जाओ अभी!” मैंने लगभग झुंझलाते अपनी दुनिया का दरवाज़ा ठीक उसके मुंह पर बंद करने की एक और कोशिश की और इस बार झुंझलाने में कृत्रिमता का तनिक भी अंश नहीं था! सचमुच पिक्चर जाने का मेरा बिल्कुल मन नहीं था! यूँ भी मानव की पसंद की ये चलताऊ फ़िल्में मुझे रास कहाँ आती थीं! वो मुझे निरा अल्हड किशोर नज़र आता, जिसकी बचकानी हरकतें कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देती तो कभी खीज पैदा करतीं! ये और बात है कि हम हमउम्र थे! उसकी शरारतें मेरे जीवन का अटूट हिस्सा थीं, किताबों, सपनों और माँ की तरह! “उठो अवनि, तुम्हारी बिल्कुल नहीं सुनूंगा!” उसने कोशिशें बंद करना सीखा ही कहाँ था! न जाने मुझे क्या हुआ मैंने झटके से उसकी बांह पकड़ी और खुद को उसे दरवाज़े की ओर धकेलते हुए जोर से कहते सुना, “जाओ मानव, सुना नहीं तुमने, नहीं जाना है मुझे कहीं! मुझे अकेला छोड़ दो, जाओ, प्लीईईइज़!” उसे ऐसी आशा नहीं थी, मैंने पहले कभी ऐसा किया भी तो नहीं था! मेरी लरजती आवाज़ की दिशा में ताकता वह चुपचाप कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ गया! अजीब बात थी कि उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था! अब मेरा दिल चाह रहा था वह बाँहों में भरकर छीन ले मुझे इस मदहोशी से, पर.…. पर वह चला गया और मैं रफ्ता-रफ्ता एक गहरी ख़ामोशी में डूबती चली गई! कभी कभी लगता है हम दोनों एक समय-रेखा पर खड़े हैं! मैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस पर! मैं हर कदम पर एक साल गिनते हुये अनिरुद्ध की ओर बढ़ रही हूँ और वे एक-एक कदम गिनते हुये मेरी दिशा की ओर लौट रहे हैं! ठीक दस कदमों के बाद हम दोनों साथ खड़े हैं, कहीं कोई फर्क नहीं अब, न समय का और न ही आयु का! इस खेल का मैं मन ही मन भरपूर आनंद लेती हूँ! काश कि असल जीवन में भी ये फर्क ऐसे ही दस कदमों में खत्म हो जाता! पर मैं तो जाने कब से चले जा रही हूँ और ये फर्क है कि मिटता ही नहीं, कभी कभी बीस साल का यह फासला इतना लंबा प्रतीत होता है कि लगता है मेरा पूरा जन्म इस फासले को तय करने में ही बीत जाएगा! मार्था शरारत से मुस्कुराते हुए बताती है, मार्क ट्वेन ने कहा था “उम्र कोई विषय होने की बजाय दिमाग की उपज है! अगर आप इस पर ज्यादा सोचते हैं तो यह मायने भी नहीं रखती!” मैं खिलखिलाकर हँस देती हूँ, हंसी के उजले फूल पूरे कमरे में बिखर जाते हैं! मार्था भी न, गोर्की की एक कहानी के पात्र निकोलाई पेत्रोविच की तरह जाने कहाँ-कहाँ से ऐसे कोट ढूंढ लाती है! शायद यही वे क्षण होते हैं जब मैं खुलकर हँसती हूँ! घर में तो हमेशा एक अजीब-सी चुप्पी छाई रहती है! उस चुप्पी के आवरण में मेरी उम्र जैसे कुछ और बढ़ जाती है! तब मैं और मेरी मुस्कान दोनों जैसे मुरझा से जाते हैं! पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोयी रहने वाली मैं अपनी हमउम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी हूँ और पैंतालीस की उम्र में अनिरुद्ध कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैं! अपनी किताबों पर बात करते हुए वे अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब वे मुझे बेहद करीब लगते हैं! उनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में ये फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता है! मुझे लगता है जब वो मेरे साथ होते हैं तब हम, हम होते हैं, उम्र के उन सालों का अंतर तो मुझे लोगों के चेहरों, विद्रुप मुस्कानों और माँ की चिंताओं में ही नज़र आता है! उफ़्फ़, मैं चाहती हूँ ये चेहरे ओझल हो जाएँ, मैं नज़र घुमाकर इनकी जद से दूर निकल जाती हूँ पर माँ……..!!! बचपन में माँ ने किताबों से दोस्ती करा दी थी! माँ की पीएचडी और मेरा प्राइमरी स्कूल, किताबों का साथ हम दोनों को घेरे लेता! माँ अपने स्कूल से लौटते ही मुझे खाना खिलाकर अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और मुझे भी कोई कहानियों की किताब थमा देती! किताबों ने ही अनिरुद्ध से मिलाया था! लाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते, एक सन्दर्भ पर दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देते! मेरे शोध में मुझे जो मदद चाहिए थी वह उनसे मिली! फिर पता ही नहीं चला कब वे … Read more