समयरेखा

अंजू शर्मा   “छह बजने में आधा घंटा बाक़ी है और अभी तक तुम तैयार नहीं हुई!  पिक्चर निकल जाएगी, जानेमन!!!” मानव ने एकाएक पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए ज़ोर से हिला दिया!  बचपन से उसकी आदत थी, मैं जब-जब क्षितिज को देखते हुए अपने ही ख्यालों में डूबी कहीं खो जाती, वह ऐसे ही मुझे अपनी दुनिया में लौटा लाता!  उसका मुझे ‘जानेमन‘ कहना या बाँहों में भरकर मेरा गाल चूम लेना किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो मेरा प्रेमी है!  मेरी अपनी एक काल्पनिक दुनिया थी जिसमें खो जाने के लिए मैं हरपल बेताब रहती!  ढलते सूरज की सुनहरी किरणों में जब पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होने लगती, शाम दबे पाँव उस प्रेमिका की तरह मेरी बालकनी के मनी-प्लांट्स को सहलाने लगती जो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करते हुए हर सजीव-निर्जीव शय को अपनी प्रतीक्षा में शामिल करना चाहती है!  ऐसी शामों के धुंधलकों में मुझे खो जाने देने से बचाने की कवायद में, तमाम बचकानी हरकतें करता, वह मेरे आँचल का एक सिरा थामे हुए ठीक मेरे पीछे रहता!  ऐसा नहीं था कि यह उसकी अनधिकार चेष्टा मात्र थी, कभी मैं भी उसकी हंसी में शामिल हो मुस्कुराती तो कभी कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए ऐतराज़ जताती! पर आज तन्द्रा भंग होना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा!  “जाओ न, मनु!  आज मेरा मन नहीं है!” मैंने नीममदहोशी में फिर से अपनी दुनिया में लौट जाने के ख्याल से दहलीज़ से ही उसे लौटा  देना चाहा!  मेरी आवाज़ में छाई मदहोशी से उसका पुराना परिचय था! “तुम्हारे मन के भरोसे रहूँगा तो कुंवारा रह जाऊंगा, जानेमन!”  उसने फिर से मुझे दहलीज़ के उस ओर खींच लेने का प्रयास किया! “शटअप मनु!  जाओ अभी!”  मैंने लगभग झुंझलाते अपनी दुनिया का दरवाज़ा ठीक उसके मुंह पर बंद करने की एक और कोशिश की और इस बार झुंझलाने में कृत्रिमता का तनिक भी अंश नहीं था!  सचमुच पिक्चर जाने का मेरा बिल्कुल मन नहीं था!  यूँ भी मानव की पसंद की ये चलताऊ फ़िल्में मुझे रास कहाँ आती थीं!  वो मुझे निरा अल्हड किशोर नज़र आता, जिसकी बचकानी हरकतें कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देती तो कभी खीज पैदा करतीं!  ये और बात है कि हम हमउम्र थे!  उसकी शरारतें मेरे जीवन का अटूट हिस्सा थीं, किताबों, सपनों और माँ की तरह! “उठो अवनि, तुम्हारी बिल्कुल नहीं सुनूंगा!”  उसने कोशिशें बंद करना सीखा ही कहाँ था!  न जाने मुझे क्या हुआ मैंने झटके से उसकी बांह पकड़ी और खुद को उसे दरवाज़े की ओर धकेलते हुए जोर से कहते सुना, “जाओ मानव, सुना नहीं तुमने, नहीं जाना है मुझे कहीं!  मुझे अकेला छोड़ दो, जाओ, प्लीईईइज़!” उसे ऐसी आशा नहीं थी, मैंने पहले कभी ऐसा किया भी तो नहीं था!  मेरी लरजती आवाज़ की दिशा में ताकता वह चुपचाप कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ गया!   अजीब बात थी कि उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था!  अब मेरा दिल चाह रहा था वह बाँहों में भरकर छीन ले मुझे इस मदहोशी से, पर.…. पर वह चला गया और मैं रफ्ता-रफ्ता एक गहरी ख़ामोशी में डूबती चली गई! कभी कभी लगता है हम दोनों एक समय-रेखा पर खड़े हैं!  मैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस पर!  मैं हर कदम पर एक साल गिनते हुये अनिरुद्ध की ओर बढ़ रही हूँ और वे एक-एक कदम गिनते हुये मेरी दिशा की ओर लौट रहे हैं!  ठीक दस कदमों  के बाद हम दोनों साथ खड़े हैं, कहीं कोई फर्क नहीं अब, न समय का और न ही आयु का!  इस खेल का मैं मन ही मन भरपूर आनंद लेती हूँ!   काश कि असल जीवन में भी ये फर्क ऐसे ही दस कदमों में खत्म हो जाता!  पर मैं तो जाने कब से चले जा रही हूँ और ये फर्क है कि मिटता ही नहीं, कभी कभी बीस साल का यह फासला इतना लंबा प्रतीत होता है कि लगता है मेरा पूरा जन्म इस फासले को तय करने में ही बीत जाएगा! मार्था शरारत से मुस्कुराते हुए बताती है, मार्क ट्वेन ने कहा था “उम्र कोई विषय होने की बजाय दिमाग की उपज है!  अगर आप इस पर ज्यादा सोचते हैं तो यह मायने भी नहीं रखती!”  मैं खिलखिलाकर हँस देती हूँ, हंसी के उजले फूल पूरे कमरे में बिखर जाते हैं!  मार्था भी न, गोर्की की एक कहानी के पात्र निकोलाई पेत्रोविच की तरह  जाने कहाँ-कहाँ से ऐसे कोट ढूंढ लाती है!  शायद यही वे क्षण होते हैं जब मैं खुलकर हँसती हूँ!  घर में तो हमेशा एक अजीब-सी चुप्पी छाई रहती है! उस चुप्पी के आवरण में मेरी उम्र जैसे कुछ और बढ़ जाती है!  तब मैं और मेरी मुस्कान दोनों जैसे मुरझा से जाते हैं! पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोयी रहने वाली मैं अपनी हमउम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी हूँ और पैंतालीस की उम्र में अनिरुद्ध कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैं!  अपनी किताबों पर बात करते हुए वे अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब वे मुझे बेहद करीब लगते हैं!  उनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में ये फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता है!  मुझे लगता है जब वो मेरे साथ होते हैं तब हम, हम होते हैं, उम्र के उन सालों का अंतर तो मुझे लोगों के चेहरों, विद्रुप मुस्कानों और माँ की चिंताओं में ही नज़र आता है!  उफ़्फ़, मैं चाहती हूँ ये चेहरे ओझल हो जाएँ, मैं नज़र घुमाकर इनकी जद से दूर निकल जाती हूँ पर माँ……..!!! बचपन में माँ ने किताबों से दोस्ती करा दी थी!  माँ की पीएचडी और मेरा प्राइमरी स्कूल, किताबों का साथ हम दोनों को घेरे लेता!  माँ अपने स्कूल से लौटते ही मुझे खाना खिलाकर अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और मुझे भी कोई कहानियों की किताब थमा देती!  किताबों ने ही अनिरुद्ध से मिलाया था!  लाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते, एक सन्दर्भ पर दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देते!  मेरे शोध में मुझे जो मदद चाहिए थी वह उनसे मिली!  फिर पता ही नहीं चला कब वे … Read more

क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ?

तीन तलाक पर आधारित कहानी  उफ़ ! क्या दिन थे वो | जब बनी थी तुम्हारी शरीके हयात | तुम्हारे जीवन में भरने को रंग सुर्ख जोड़े में किया था तुम्हारे घर में प्रवेश , जीवन भर साथ निभाने के वादे के साथ | पूरे परिवार के बीच बैठे हुए जब – जब टकरा जाती थी तुमसे नज़र तो मारे हया के मेरे लिबास से भी ज्यादा सुर्ख लाल हो जाते थे मेरे गाल …… और बन जाता हमारे बीच एक अनदेखा सा सेतु | जिसमें बहता था हमारा प्रेम निशब्द और मौन सा | पर सब के बीच बात करे तो कैसे ? फिर नौकरी की जद्दोजहद में तुम्हारा घर से दूर जाना | बात होती भी तो कैसे | मैं यहाँ तडपती और तुम वहां | समाधान तुम्ही ने निकाला था | | जब मेरे जन्मदिन पर तोहफे के रूप में मेरी हथेली पर रख दिया था तुमने एक मोबाइल और मुस्कुरा कर कहा था | अब बस हमेशा मैं तुमसे एक घंटी की दूरी पर रहूँगा | सही कहा था तुमने जब भी घंटी बजती | बज उठते थे दो दिल | बज उठते थे जज्बातों के हजारों सितार |बज उठता था हमारे तुम्हारे बीच का प्रेम | होती थी घंटों बातें | इसी फोन पर तो दी थी मैंने तुम्हे अपनी प्रेगनेंसी की पहली खबर | बच्चों से खुश हो गए थे तुम | कैसे टोंका था मैंने ,” अब बाप बनने वाले हो , बच्चों सी हरकते बंद करो |इसी फोन पर तो दी थी तुमने मुझे अपने प्रमोशन की खबर | तुमसे कहीं ज्यादा खुश हुई थी मैं | जब अब्बा का इंतकाल हुआ था और तुम ऑफिस में थे, मैं तुमको इत्तला देना चाहती थी , पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे | आंसुओं में शब्द जैसे बहे जा रहे थे | तुमने महसूस किया था मुझसे ज्यादा मेरी पीड़ा को | तभी तो रखा नहीं था फोन | ऑफिस से घर आते हुए ड्राइव करते हुए भी लगातार बोले जा रहे थे | खौफ था तुम्हे ,कहीं तुम्हारे आने से पहले टूट कर बिखर न जाऊं मैं | एक आदत सी हो गयी थी इस फोन की | लगता था तुम सदा हो मुझसे एक घंटी की दूरी पर | समय का दरिया बहता गया | साथ में बहती गयी हमारे -तुम्हारे बीच की गर्मजोशियाँ | मैं घर और बच्चों में व्यस्त होती गयी और तुम ऑफिस में | घर पर जो लम्हे मिलते वो तमाम गलतफहमियों से उपजे तनाव की भेंट चढ़ जाते | बड़ा भयानक दौर रहा हमारे बीच , लड़ाई – झगड़ों तोहमतों का | न तुम झुकते न मैं | कुछ तुम टूटते कुछ मैं | जुड़ा था तो बस रिश्ता , कुछ टूटा – टूटा सा कुछ जुड़ा – जुड़ा सा | ऑफिस से फोन अब भी आते पर घंटों की बातें मिनटों में सिमटने लगीं | क्या लाना है , और जरूरी कामों तक सिमट कर रह गया हमारा संवाद | फिर भी तार तो जुड़े थे | और एक घंटी पर घनघना उठते थे दो दिल | हालाँकि कुछ जुदा तरीके से , कुछ जुदा चाल से | पर ये अहसास तो था की एक दिन मिल बैठकर सुलझा लेंगे अपने और तुम्हारे बीच की सारी गलतफहमियाँ | या फिर कभी तुम पहले की तरह फोन पर पढ़ डोगे कोई रूमानी सा शेर और मैं फिर हो जाउंगी लाज से दोहरी …….. और बज़ उठेगी एक घंटी हमारे तुम्हारे दरमियान | फेसबुक पेज नारी संवेदना के स्वर पर कुछ दिनों से तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे | जाने क्या चल रहा था तुम्हारे मन में | मैं लाख कोशिशे कर रही थी | चाहे झगडा ही करो पर कुछ बोलो तो ? ये दम घोटू चुप्पी मेरी जान ले रही थी |मैं अहिस्ता – आहिस्ता मर रही थी | पर एक उम्मीद थी की हो न हो एक दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | और आज जब तुम्हारा कई दिन बाद फोन आया तो बज़ उठे मेरे दिल के तार | कितने ख्वाब  पाल लिए मैंने हेलो कहने से पहले | पर रूह पिघल गयी मेरी जब तुमने तलाक, तलाक, तलाक के तीन पत्थर मार दिए और हमारे रिश्ते को कुछ कहे सुने बिना इस तरह खत्म कर दिया | काश एक बार तुम सामने बैठ कर बात कर लेते | काश मेरा नज़रिया जानने की कोशिश करते , काश ! अपने मन में चलती इस गुथम गुत्था का हल्का भी ईशारा मुझे करते , तो शायद … | एक झटके ख़त्म हो गये हमारे बीच के वो खट्टे – मीठे पल , वो अच्छी बुरी यादें और वो फोन की घंटी भी जो हमारे दिलों को एक किया करती थी | आंसुओं के सैलाब के बीच में डूब जाता है ये प्रश्न की मेरी जिन्दगी से जुड़े इस फैसले में ,” क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? ” वंदना बाजपेयी                             यह भी पढ़ें … तीन तलाक : औरतों और तरक्की पसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना होगा महिला दिवस और नारी मन की व्यथा किट्टी पार्टी

नयी सुबह

साधना सिंह    गोरखपुर दिन भर मेहमानों की आवाजाही , ऊपर से रात से तबीयत खराब थी भारती की..  फिर भी कोई कोताही नही बरती खातिरदारी मे । सुबह का नाश्ता,  दोपहर का लंच और रात कौ रात का डिनर.. कमर मानो टुट ही गयी थी । आखिरकार मेहमान गये तो सास को खाना देकर थोडी देर पीठ सीधी करने कमरे मे गयी तो बच्चो ने पुरा घर बिखेरा था ..एक दम से झल्ला उठी पर क्या करती .. रूम ठीक किया और आँखे बंद करके लेट गयी । पतिदेव अभी आये नहीं थे । आज जाने क्यों सोच का सिरा अतीत की तरफ भाग रहा था ।        12 साल पहले शादी करके छोटी उम्र मे बड़े -बडे़ अरमान लेकर इस संयुक्त परिवार मे आयी थी । सबका दिल जीतने की उम्मीद से पर यो इतना आसान कहाँ होता है ये बाद मे समझ आया । जितना करती लोग थोडी और उम्मीद कर लेते ये सोचे बिना कि उसके भी तो कुछ अरमान है। सारा रसोई उसके उपर छोड दी गयी..  मायके मे कभी उसने इतना काम किया नही था जाहिर है कुछ गलतियाँ हो ही जाती जैसे नमक का डब्बा टाइट नहीं बंद हुआ या चीनी चायपत्ती का डब्बा स्लैब पर छुट गया । वही जेठानी को लिये बडी बात थी ।  रोटी तो उससे कभी अच्छी बन ही नहीं पायी । मजे की बात ये थी कि रोटियाँ उससे अच्छे नही बनती थी फिर भी उसे ही बनानी थी बुराई सुन सुन कर भी । कोफ्त मे पति से कुछ कहती तो अलग लडाई हो जाती कि बाहर से आता हूं ये सब सुनने । रोज रोज कलह बढती रही .. बात बहुत साधारण होती थी जैसे दाल मे छौंक लगाना भुल गयी या चटनी पीसना भुल गयी ।जिस दिन पति के साथ बाहर चली जाती थी उस दिन तो उनका मुंह ही सीधा नहीं रहता था। जेठानी को जैसे उससे और उसकी हर बात से समस्या थी और सास की कोई अपनी राय ही नही थी कि भारती को भावनात्मक सहयोग ही दे देती । पति से कहो तो बंटवारे पर उतर जाते थे और  भारती ये कलंक नही लेना चाहती थी । बेचारी मायूस हो जाती कि अच्छा था शादी ही नहीं करती.. क्या है औरत की जिंदगी…  दिन भर इनके लिये करो, फिर भी किसी का मुंह सीधा नहीं.. कोई ये भी नही पुछता कि तुमने खाया या नहीं.. या तुम कैसी हो ? क्या यही होता है परिवार.. संयुक्त परिवार?       इसी तरह दिन गुजर रहे थे कि पता चला वो माँ बनने वाली थी । जब प्रेगनेंसी के 6 महीने बीते तो एक दिन उसे चक्कर आ गया वो बाथरूम मे गिर पडी  .जाँच करने पर पता चला कि बीपी बहुत हाई था । डाक्टर ने कम्पलीट बेड रेस्ट बोल दिया । पति बहुत ख्याल रखने लगे..  और जब पति ख्याल रखने लगता है तो परिवार वाले भी इज्जत देने ही लगते हैं । सास भी अपने आने वाले वंश के लिये भारती का ख्याल रखने लगी  तब अब तक पुरे घर पर एकछत्र राज करने वाली जेठानी की अकड़ थोडी कम हुई पर जैसे उनको भारती के आने वाले बच्चे और भारती के सेहत से कोई सरोकार नहीं था ।       फिर एक दिन नये मेहमान गोद मे आया तो कुछ दिन के लिये घर मे सकारात्मक माहौल आ गया । भारती कुछ दिनो के लिये जैसे सारा तनाव,  सारा दवाब भुल गयी थी बच्चे के एक मुस्कान मे । सास तो खैर अपने सेहत से लाचार थी पर जेठानी ने कोई सहयोग नही दिया बच्चे के लालन पालन मे पर भारती को कोई परवाह नहीं था.. बहुत खुश थी वो अपने बच्चे के साथ । धीरे-धीरे उसके समझ मे आने लगा कि जब उसे उसी घर मे उनके साथ ही रहना है तो उसे अपनी बात रखनी ही होगी.. आखिर कब तक वो इस तरह तनाव मे रहेगी ।          बच्चा तीन महीने का हो गया था । नया साल आ रहा था। नये साल की पार्टी मे सब लोग बाहर इन्जॉय करने गये.. रात मे वापसी पर भारती बच्चे को लेकर सीधे कमरे मे चली गयी उसके दिमाग से ये बात निकल गयी कि दुध फ्रिज मे रखना है । जाडे का दिन था दुध बाहर भी रह गया तो कोई खराब नहीं होता पर जेठानी को इस बात का बतंगड बनाने का मौका नही खोना था । अगले दिन सास के कमरे मे पंचायत लग गयी.. जैसे कोई बडी गलती कर दी हो.. सास भी बडी बहू के हाँ मे हाँ मिलाने लगी । बहुत सालों से खुद पर संयम रखने वाली भारती ने बडे संयमित लहजे मे कहा कि -‘क्या हुआ अगर एक दिन वो दुध रखना भुल गयी.. आप लोग भी तो रख सकती थी । अगर घर मे चार लोग  है और चापो लोग स्वस्थ्य है तो घर का काम एक की ही जिम्मेदारी नहीं । ‘ और वो कमरे आगयी । जब ये बात जेठ को पता चली तो उन्होंने भी भारती का साथ दिया कि बात सही है सबकी जिम्मेदारी है घर सम्भालना फिर उसका छोटा बच्चा भी है ।     उस दिन भारती ने तय किया कि अब वो अपने  सुख,  अपने खुशी से समझौता नहीं करेगी । अपनी बात, अपनी इक्छाएं वो सबके सामने जरूर रखेगी ।  अगले दिन जब वो सोकर उठी तो नये साल का नया सबेरा नयी रौशनी के साथ उसके कमरे के खिडकी से उतर रहा था और वो मुस्करा उठी । _________________ 

मरुस्थली चिड़िया के सिर्फ तुम

              सुबह से ही अस्पताल में मरीजों का तांता लगा हुआ था ।चाय पीना तो छोड़ो लू जाने की भी फुरसत नहीं मिल रही थी । जाने कहाँ से ये मरीजों का छत्ता टूटकर भिनभिना रहा था ।हालाँकि किसी भी डाक्टर को मरीज बुरे नहीं लगते लेकिन आज अक्की आने वाली थी और मैं उसे तसल्ली से चेक करना चाहता था । जब से सुबह उसकी माँ से बात हुई थी मैं असमंजस में था ।उसके एक हाथ को दो महीने पहले मगरमच्छ चबा गया है और वो गहरे सदमे में मानों गुम सी हो गयी है, ये सुनकर ही मेरे दिमाग के सारे पाइप टपर-टप-टप करने लगे थे ।                    बहुत मामूली सी दिखने वाली अक्की भीतर से इतनी संवेदनशील और संयमी हो सकती है कोई सोच भी नहीं सकता ।कोई क्या !!!! मैं खुद भी तो उसे छ सालों से जानता हूँ पर कभी उसके जीवन को पढ़ नहीं पाया ।    “हाँ” इतना जरुर महसूस किया था की छ साल पहले अक्की ने जब मेरे अस्पताल में ज्वाइन किया था वो बड़ी हंसमुख थी । गोरा रंग, भूरी आँखे , घुंघराले भूरे बाल जो उसके कद से भी लम्बे लगते थे । खुद को बहुत गंभीर और मैच्योर दिखाने के लिए वो कभी कभी जीरो नम्बर का चश्मा पहनती थी और  चाइल्ड पेशंट्स  के साथ मस्ती करते पाए जाने पर मासूमियत का ऐसा भयंकर नाटक करती थी की नारद भी शर्मा जाए । उसे मैंने कई बार आफ़िस आवर के बाद चाइल्ड पेशंट्स के साथ खेलते , उन्हें चूमते और गल बइयां डाले देखा था । अपने कुलीग्स के साथ भी वो ऐसे घुल मिल गयी थी जैसे बरसों पुरानी यारी हो । किसी का जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह , कोई गमी हो या सास बहू टॉपिक , उसके पास सब सुलझाने का समय था । हाँ ,मुझे अच्छे से याद है सास बहु टॉपिक को वो नॉनसेंस टॉपिक कहती थी और अपने दिमाग की सारी खुराफंते अपनी बहू दोस्तों को सिखाती थी । इन सब चुहल बाजियों के बावजूद भी मैंने कभी किसी से उसकी शिकायत नहीं पाई थी ।जब भी इन्स्पेक्शन के लिए निकलता था वो हमेशा अस्पताल के किसी न किसी हिस्से में शरारती चश्मा लगाए , अपने लम्बे बालो से लगभग पोंछा मारती हुई दिख जाती ।उसका पांच फुटा साइज कभी भी उसके चार फुटे बालों का साथ नहीं देता था ।उसे देख कर कभी-कभी मैं भी भ्रम में पड़ जाता था की क्या इसने सचमुच डाक्टरी पढ़ी है, इसे तो जोकर होना चाहिए था । मुझे याद नहीं आता की किसी भी जेन्ट्स डाक्टर ने उसको देख कर आहें भरी हो या उसकी सुन्दरता का बखान किया हो । जेंट्स तो छोड़ो मुझे तो किसी लेडिस डाक्टर का भी कोई कमेन्ट याद नहीं आता लेकिन फिर भी वो सबकी चहेती थी । ज्वाइन करने के छ महीने के भीतर ही उसकी शादी हो गयी थी , उसकी एक चचेरी बहन के देवर से शायद बात पक्की हुई थी ।हम सभी उसकी शादी में गए थे । हमारी पांच फुटी अक्की को छ फिटा लड़का मिला था । रंग अक्की से कुछ दबा हुआ था लेकिन मूंछो और बढिया फिजिक के चलते एकदम अनिल कपूर लुक दे रहा था । शादी के कुछ दिनों के अंदर ही अंदर अक्की का रंग रूप गजब का निखर आया था । उसको देख कर लगता था जैसे विश्व विजयनी आ रही हो ……आह !! मैं भी क्या – क्या सोचने लगा ! पर उसका इलाज करने से पहले उसके साथ हुए हादसे के बारे में जानना जरुरी भी तो है । हूँ …….सबसे पहले उसके परिवार के साथ -साथ उस चचेरी बहन से भी मिल कर देखता हूँ ।। मैंने जल्दी – जल्दी उसके आने के समय से पहले मरीजों को निपटाया और रिपोर्ट्स देखने का काम अपने एक जूनियर पर छोड़ कर उसे अटैंड करने शल्य चिकित्सा विभाग की ओर चल दिया । जब मैंने कमरे में प्रवेश किया तो उसकी पीठ मेरी तरफ थी , उसके लम्बे बाल गुथ-गुथकर मोड़े गए लग रहे थे । शरीर पहले से आधा भी नहीं रह गया था और जब ….जब मैंने उसे सामने से देखा …….ओह !! अक्की ये क्या हुआ ? ऐसा कहकर मैं चीखना चाहता था , पैर पटकना चाहता था लेकिन मेरी जुबाँ गले के भीतर ही घुट गयी थी और पैर जमीं में धंस गए थे ।उसकी शरारती आँखों के आस -पास काले घेरों ने काला चश्मा बना लिया था । गोरा रंग पीलपिली सफेदी में तब्दील हो चुका था ।वो गली के कोने पर बने उस झोपड़े सी जर-जर दिख रही थी जिसे आंधी से भी ज्यादा एक फूंक में ढह जाने का डर हो । सीधे हाथ का आकार लगभग टेढ़ा हो चुका था , मगरमच्छ ने पुरे मांस को खा लिया था । अब वहां बचा था तो बस हड्डी का डंडा , जिस पर पतली चमड़ी मानो अनेको टांको के साथ अपने दर्द की शिकायत कर रही हो ।उसका वो अंगूठा जिससे वो साथी दोस्तों को ” ऐ ssssssssss” करके चिड़ाती थी , इस हादसे में उससे नाता तोड़ चुका था । मैंने खुद पर संयम रखते हुए उसे प्यार से गले लगाया ।मेरे करीब आने पर उसकी कंकाली आँखों के पोर भीग गए और फटे सूखे होंठ कांपने लगे । अस्थियों के इस ढेर से मैं क्या पूछता ? उसे तो खुद सहारे की जरूरत थी और यूँ भी मैं उसके ज़ख्म कुरेदना नहीं चाहता था । थोड़ी बहुत यहाँ वहां की बाते करके , हाथ का निरक्षण करके उसे मैंने रूम में शिफ्ट करवा दिया । उसके हाथ की अवस्था सुधारने के लिए कम से कम चार बार प्लास्टिक सर्जरी की जरूरत थी और मन की सर्जरी के लिए कितने आपरेशन करने पड़ेगे , ये मैं खुद भी नहीं जानता था । उसकी माँ के हाथो ही  मैंने उसकी चचेरी बहन निशा को बुलवा लिया था । निशा आई तो मैं सीधे उसे साइक्लोजिस्ट वैभव के रूम में ही ले गया । मैं चाहता था की वैभव भी सारी बात जान ले और आज से ही अक्की को देखना … Read more

आखिरी भूल

लाख कोशिशों के बाद भी माधवी स्वयं को संयत नहीं कर पा रही थी, मन की उद्विग्नता चरम पर थी l जाते हुए जेठ की प्रचण्ड तपन लहुलुहान मन की पीड़ा से एकाकार होकर जैसे आज जीते जी उसे जला देना चाहते थे l शाम के सात बजने वाले थे पर बाहर दिशाओं में हलकी उजास अब तक कायम थी, यह उजास जैसे माधवी की आँखों में, बदन में शोलों की तरह चुभने लगा l वह छुप जाना चाहती थी, अँधेरे में कहीं गुम हो जाना चाहती थी, घर परिवार समाज सबकी नज़रों से दूर, यहाँ तक कि अपने आप से भी दूर … ओझल हो जाना चाहती थी lदोनों बच्चे पढ़ रहे थे, सास-ससुर ड्राइंग रूम में टीवी देख रहे थे, वह किचेन में खाना बना रही थी पर हाथों के कम्पन से आज सारे काम हीं गलत हुए जा रहे थे l माँ का चेहरा और बातें ज़ेहन से हट हीं नहीं रही थी … विचारों के कश्मकश और रसोईघर के धुएँ में उसका दम घुटने लगा … पसीने में तरबतर हुई वह हाँफती हुई किचन से निकलकर आँगन में आ गयी l ग्रीष्म का ताप पूरे आँगन में पसरा हुआ था … कुछ देर आँगन में ठहरकर जीने की ओर बढ़ी और काँपते पैरों को बमुश्किल सीढ़ियों पर ज़माते हुए वह ऊपर छत पर आ गई l उत्तर की आकाश से सुरमई बादलों का झुंड घनीभूत होते हुए आगे बढ़ रहा था, मतवाले सांवले बादलों की यह सघनता कभी उसे सम्मोहित कर लिया करती थी पर आज इन्होंने मन की बेचैनी और बढ़ा दी माधवी रेलिंग से सटकर खड़ी हो गई … निगाहें अपने आप हरे रंग के दोमंज़िले मकान की ओर मुड़ गई, कलात्मक ढंग से बनी बाल्कनी में गहराते धुँधलके के बीच भी नर्म सी परछाईं को अपनी तरफ ताकते हुए उसने महसूस किया … माधवी ने आँखें फेर ली l अँधेरा धीरे-धीरे साम्राज्य बढ़ाने लगा था … उसका खुद का जीवन भी तो एक गहराते अँधेरे का अकथ दुःस्वप्न हीं बन कर रह गया था .. दीर्घ निःश्वास के संग अतीत की स्मृतियों में माधवी भटकने लगी l पिता का प्रभावशाली चेहरा, शान्त स्निग्ध आँखों से बेटी के लिए निरन्तर झरता स्नेह, माँ की लाड-भरी बोली, भाईयों संग नोंक झोंक …. सब चलचित्र की भांति विचारों में जीवन्त हो उठे l दो भाईयों की इकलौती बहन पूरे दिन घर में चिड़िया की तरह चहचहाती रहती l पिता के प्राण बसते थे बेटी में … बचा खुचा स्नेह हीं दोनों भाईयों को मिल पाता था l दोनों भाई जहाँ गेहुएँ रंग और सामान्य शक्ल सूरत के थे वहीँ माधवी के ऊपर विधाता ने जैसे दोनों हाथों से खुलकर सौन्दर्य का पारितोषिक लुटाया था … स्वच्छ धुले स्वर्णचम्पा-सा गौर वर्ण, तीखे नयन नक्श और सबसे गज़ब तिलस्मी बादामी आँखें जो हर किसी की निगाहों को बाँध लेते थे … अनुपम सौन्दर्यशालिनी , नटखट बिटिया की एक-एक चपलता पर पिता सौ-सौ लाड़ जताते … जब बेटी को स्कूल भेजने की बात आई तो पिता ने शहर के मंहगें कॉन्वेंटो के फीस पता करने शुरू किए, काफी दौड़ धूप के बाद आखिरकार शहर के एक ढ़ेरों चोंचले वाले मंहगें कॉन्वेंट में माधवी को दाखिल कराया गया जबकि दोनों भाई सामान्य स्कूलों में पढाई के लिए भेजे गए l बढे हुए खर्च को पूरा करने के लिए माधवी के पिता को अब दिन-रात मेहनत करनी पड़ती थी l खेती के काम के अलावा अब वह ठेकेदारी के काम भी देखने लगा था l काम की व्यस्तता के बीच भी सुबह 4.30 पर बेटी को स्कूल की बस तक छोड़ने के बाद दोपहर को बाईक से लेने आता … घर से स्कूल की बस तक पहुँचने में आधे घन्टे लग जाते थे l 9वीं कक्षा तक आते-आते माधवी खुद भी कभी-कभी घर आ जाती lवायु में एक अमंगल-सी सनसनाहट थी उस दिन जब ऐसे हीं अकेली माधवी अपनी धुन में स्कूल से घर की ओर जा रही थी, एकाएक एक बाईक सर्राटे से उसकी बगल से गुज़रा … बाईक इतने करीब से गुज़रा था कि माधवी गिरते-गिरते बची … सहमकर वह सड़क के किनारे से होकर जल्दी-जल्दी चलने लगी, तभी पीछे से कुछ आवाजें आने पर उसने मुड़कर देखा … बाईक नीचे गिरी हुई थी और उस अभद्र बाईक सवार को कॉलर से पकड़ कर कोई धकिया रहा था … यह नीलेश था जो पहले माधवी के स्कूल में हीं पढ़ता था पर पिता के अकस्मात् अस्वस्थता के कारण उसे अपने स्कूल की पढाई बीच में हीं छोड़कर पिता के कारोबार का काम संभालना पड़ा था l इस घटना के बाद से माधवी ने गौर किया कि अब वह जब भी अकेली घर जा रही होती तो नीलेश बाईक से चक्कर लगाते हुए उसके पीछे-पीछे आता और जब वह घर पहुँच जाती तो वापस लौट जाता l दो-एक महीने बाद माधवी ने महसूस किया कि सामने वाले घर की खिड़कियों से दो आँखें निरन्तर उसे हीं देख रहीं हैं … पता नहीं कब और क्यों नीलेश ने सामने वाले घर में एक कमरा ले लिया था l माधवी के मन में एक अज़ीब असुविधा की सी स्थिति उत्पन्न हुई l नीलेश अच्छी कद काठी का एक आकर्षक युवक था, गिटार बजाने के अलावा वह शब्दों की बाज़ीगरी में भी माहिर था l दिलकश शब्दों को पुर्जों पर लिखकर मौका देखकर माधवी को समर्पित किए जाते … धीरे-धीरे मासूम सुनयना को भी यह सब अच्छा लगने लगा l माधवी का ध्यान अब पढने लिखने में कम लगता, निगाहें नीलेश को हीं ढूँढती … इधर चार-पाँच दिनों से नीलेश का कहीं अता-पता नहीं था, माधवी को चिन्ता हुई … छठे दिन नीलेश दिखा उसका चेहरा उतरा हुआ था, उसने जो कुछ बताया उसे सुनकर माधवी परेशान हो उठी l माधवी के दोनों भाईयों ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर हॉकी स्टिक से नीलेश की पिटाई की थी, साथ हीं उसे उस कमरे भी निकलवा दिया था जिसे कितने जुगाड़ लगाकर छः महीने के एडवांस पैसे जमा कराने के बाद वह हासिल कर पाया था l घर में माता-पिता नीलेश की हालत देख कर बहुत परेशान हैं, यह सब कहते हुए नीलेश की आँखों में आँसू आ गए l उसने माधवी … Read more

ऐसे थे हमारे कल्लू भईया! (एक सच्ची कहानी)

बात 1986 की है मैं उस समय हाईस्कूल का छात्र हुआ करता था। मेरी दोस्ती हुई राजीव मिश्रा नाम के एक सहपाठी के साथ। प्यार से उन्हें लोग टिल्लू भाई पुकारा करते थे। टिल्लू के साथ दोस्ती के बाद मैंने उनकी दो आदतों को अपनी आदतों में शामिल कर लिया। एक था उनके नाई अयूब भाई से बाल कटवाना और दूसरा उनके साथ मल्हू भाई के दुकान पर रोज जाकर दोहरा खाना। दोहरा खाने का एक सबसे बड़ा फायदा यह था कि घर पर किसी को पता नहीं चलता था कि मैं दोहरा (पान में पड़ने वाला मीठा मसाला) खाता हूँ। चूंकि इसमें पान, चूना या कत्था जैसी कोई चीज नहीं होती थी इसलिए मुँह में कुछ लगता नहीं था और मै घर अपनी माता जी से डांट खाने से बच जाता था।मल्हू भईया के तीन और भाई थे। सबसे बड़े ज्ञान भईया, उसके बाद कल्लू भईया और सबसे छोट थे दिनेष। टिल्लू की दोस्ती और मल्हू भाई के दोहरे से मुझे ऐसा प्यार हुआ कि मैं शाम को कोचिंग से सीधे मल्हू भाई की दुकान पर पहुंच जाता और कुछ समय वहीं पर टिल्लू के साथ बिताता। धीरे-धीरे मल्हू भाई के साथ ही साथ उनके सभी भाईयों से मेरी दोस्ती हो गई। अब रोज मल्हू भाई की दुकान पर बैठकी होने लगी। उसी दुकान पर कुछ लोगों की एक अलग पार्टी भी बैठकी करती थी जिन्हें शायद मेरा वहां पर बैठना अच्छा नहीं लगता था। एक दिन किसी बहाने से वे मुझसे लड़ाई करने लगे बातचीत चल ही रही थी कि मुझे पीछे से किसी ने एक झापड़ रसीद दिया। मैं कुछ समझ पाता कि इससे पहले बगल वाली दुकान जिस पर मल्हू भाई के तीनों भाई बैठा करते थे, में से निकल कर कल्लू भईया उन सभी लोगों से भिड़ गये। कल्लू भईया का उन लोगों से भिड़ना क्या था सभी भाईयों के साथ ही आस-पास के दुकान वालों ने भी कल्लू भईया की तरफ से मोर्चा संभाल लिया। मुझे कल्लू भईया ने तुरन्त घर जाने को कहा और मैं भी और अधिक मार खाने की डर से सीधे घर की तरफ भाग चला। घर पहंुच कर मुझे बहुत आत्मग्लानि महसूस हुई कि तुम्हारे कारण कल्लू भईया ने सभी से लड़ाई मोल ली और तुम कायरों की तरह घर भाग आये। बहुत शर्मिन्दगी महसूस हुई। साईकिल उठायी और फिर सीधे कल्लू भाई की दुकान की तरफ भागा। वहां पहंुचने पर जो नजारा देखने को मिला मैं समझ गया कि कोई बहुत बड़ी बात हो गई। सुलतानपुर जैसे छोटे से शहर की सबसे बड़ी मार्केट की दुकानों के शटर गिर चुके थे। कल्लू भईया और उनके भाईयों का भी कहीं कुछ पता नहीं चला। उस समय मोबाइल नहीं हुआ करता था। हार कर मैं भी अपने घर लौट आया। सुबह हुई दूसरी पार्टी में शामिल एक लड़के के चाचाजी मेरे पिता जी के पास षिकायत के साथ खड़े थे कि आपके लड़के की वजह से मेरे लड़के को बहुत मार पड़ी। उसकी पीठ खोलकर दिखाई तो उसके निषान बता रहें थे कि कल मेरे घर भाग आने के बाद की स्थिति क्या रही होगी। मैं तुरन्त कल्लू भईया की कुषल क्षेम पूछने के लिए उनकी दुकान की तरफ भागा। दुकान पर सभी भाई मौजूद थे और वो भी पूरी तैयारी के साथ कि अगर दूसरी पार्टी फिर आती है तो आज फिर वही होगा जो कल रात को हुआ था। खैर पिता जी के इस आष्वासन के बाद कि अब उनके लड़के को फिर से यह तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी दूसरी पार्टी शांत पड़ गई थी और मेरे हीरो कल्लू भईया हो गये।धीरे-धीरे कल्लू भईया से ऐसी आत्मीयता हो गई कि उनसे अगर एक दिन भी न मिलू तो मन ही नहीं लगता। मेरी जिंदगी में मेरी माता जी के बाद अगर किसी का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा तो वे थे कल्लू भईया। मेरी जिदंगी में कल्लू भईया का मतलब था कि सभी समस्याओं का समाधान। उनके रहते मैंने किसी भी तरह की समस्या को गंभीरता से लिया ही नहीं। मेरा बस एक ही काम होता था वो था समस्या को कल्लू भईया तक पहुंचाना। बाकी समस्याओं के समाधान का काम कल्लू भईया खुद करते थे। समस्या चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान मेरे कल्लू भईया ऐसा करते थे कि मुझे पता भी नहीं चलता था और समस्या गायब भी हो जाती थी। अपनी माता जी और कल्लू भईया से मैंने जो सबसे बड़ी चीज सीखी वो है किसी दूसरे को बिना किसी स्वार्थ के प्यार करना, उसे मदद करना। फिर वो चाहे कोई भी हो इसका कल्लू भईया पर कोई फर्क नहीं पड़ता था।बात 1995 की है। उस समय मैं बेरोजगार था जिसके कारण पैसों की समस्या सताने लगी थी। कल्लू भईया से कहां तो बोले क्या करना चाहते हो? उस समय पी.सी.ओ. का काम बहुत अच्छा माना जाता था। मैंने कहा कि पी.सी.ओ. खोलना है पर लाइसेंस कैसे मिलेगा? मेरा इतना कहना था कि वो मुझे अपनी स्कूटर पर बिठा कर पहंुच गये उस कमेटी के सदस्य के पास जो पी.सी.ओ. का आवंटन करते थे। लिस्ट आई तो मुझे भी एक पी.सी.ओ. मिल चुका था। समस्या दुकान की आयी। पिता जी से बोला तों कुछ पैसों का इतंजाम उन्होंने किया और एक लकड़ी की गुमटी खड़ी हो गई। लाइट का कनेक्षन भी मिल गया पर अब तक पैसे खत्म हो गये थे। उसी बीच एक दिन शाम को कल्लू भईया के घर पर एक पार्टी थी। मैं भी पहुंचा। पार्टी घर के दो मंजिला छत पर चल रही थी। कल्लू भईया ने बात ही बात में मेरे पी.सी.ओ. के बारे में पूछा तो मैं चुप हो गया। उनको समझते देर न लगी कि मुझे पैसों की समस्या आ गई है। बोले पी.सी.ओ. खुलने के लिए अभी कितना पैसा चाहिए? मैंने हिसाब लगाया कि 18 हजार रूपये की तो मषीन ही है बाकी सभी चीजों को शामिल करते हुए मैंने उनसे 23 हजार रूपये बताये। बिना कुछ सोचे वे मेरा हाथ पकड़ कर नीचे अपने कमरे में ले गये और लाॅकर से 23 हजार रूपये निकाल कर मुझे देते हुए बोले ‘इसे शर्ट के अंदर डालो और सीधे घर जाकर इस पैसे … Read more

घरेलू पति

विशेष सोच रहा हैं। आने का सम्भावित समय निकल गया हैं।………अब तो सात भी बज चुके हैं। शंका-कुशंका डेरा डालने लगी थीं।………अणिमा अब तक निश्चय ही आ जाती हैं । फिर आज क्या हुआ ? अनहोनी की आशंका से वह ग्रस्त होता जा रहा है।……… एक नजर किटटू पर जाती है और फिर दूसरी नजर बेबी पर आकर ठहर जाती हैं।………. अगले ही पल उसकी निगाह घड़ी की टिक-टिक पर स्थिर हो जाती और वहाॅ से उसके कान टिक-टिक से इतर कुछ और सुनने को तत्पर होते हैं, शायद काल बेल की आवाज या दरवाजे की ठक-ठक।……ऐसा कुछ भी आभास नहीं होता है, निराश वापस कमरे पर आकर घूमने लगती है।……..उसका मन किया उसे काल करी जाये, परन्तु ठिठक गया। अणिमा का रिसपांस ऐसे मामलों में काफी तल्ख होता है और उसकी काल करने कह भावना को ठेस लगेगी। उसकी काल अपना अर्थ खो देगी और परिवाद को जन्म देगी और उसकी चिंता परिहास बनकर रह जायेगी। आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चलेगा और वातावरण कलुषित हो जायेगा। इन्तजार करते है। इधर काफी दिनों से वह महसूस करता है कि अणिमा बात-बात पर झल्ला उठती है। उस पर उसकी जासूसी करने का आरोप मढ़ देती है, जब वह कुछ उससे पूॅंछ-ताॅंछ करने लगता है। फिर भी उसे देर से आने का कारण पहले से बता देना चाहिए था। एक काल तो कर सकती थी। अब तो यह निश्चित हो गया है कि वह अपने आप कुछ नहीं बताती। उसे ही पूछॅंना पड़ता हैं। …….और उत्तर कटीलें प्राप्त होतें हैं। मगर आज वह पूॅंछ कर रहेगा, उसकी जिम्मेदारी बनती है। किट्टू स्कूल से आया था, उसे खिला-पिलाकर सुला दिया था। इस समय वह उठकर होमवर्क कर रहा है। उसने एक बार भी मम्मी के विषय में नहीं पूॅछा। वह समझदार हो गया है, मम्मी छै-साढ़े छै के बाद ही आयेगीं। विशेष ने उससे होमवर्क में हेल्प करने के बाबत पूॅंछा था, उसने कहा था जरूरत होगी तो बतायेगां। बेबी इस समय सो रही है। आज काफी तंग किया उसने । रो रही थी। शायद बेवजह या उसकी समझ से परे था उसका कारण। अणिमा को पता लग जाता था उसके रोने का कारण। खैर! थोड़ी देर बाद वह खुद चुप हो गई। उसने उसे दूध पिलाया। वह फिर सो गई, क्षुधा शान्त होने की वजह से या रोकर थकने की वजह से। उसने महसूस किया शायद उसे अपनी मम्मी की याद आ रही होेगी। परन्तु वह तो था। अक्सर वही रहता है, कोई नई बात नहीं है। ……..बच्चों का क्या किस बात पर मचल गये, क्या पता ? वह अभी तक अनुमान नहीं लगा पाता है। अणिमा और विशेष एक ही कोचिंग स्कूल में पढ़ाते थे। अणिमा अंग्रेजी और वह मैथ। एक दूसरे से अच्छी पहचान हुई, जो प्रेम पर पहुॅच गयी, जिसकी परिणिति शादी में हो गई । उन लोगों ने घर वालों के विरोध को दरकिनार कर दिया और अपनी अलग दुनिया बसा ली । दोनों खुश और संतुष्ट थे, अपनी पंसद को पाकर। उनकी जिन्दगी में परिवर्तन लेकर आया, केन्द्रीय विद्यालय संगठन की अध्यापकीय नियुक्ति का विज्ञापन । दोनों ने एक साथ जूनियर अध्यापक पद के लिए अप्लाई किया। जहाॅं अणिमा जांब पाने में सफल रही, वही विशेष अपने एक्सीलेन्ट एकाडेमिक कैरियर न होने की वजह से असफल रहा। अणिमा को कानपुर सेन्ट्रल स्कूल, अर्मापुर में पोस्टिंग मिली। दोनों को अलग होना मंजूर नहीं था। दोनों ने मिल कर निर्णय किया कि गाजियाबाद से शिफ्ट कर के अब कानपुर रहा जायेगा और विशेष कानपुर के किसी प्राइवेट स्कूल या कोचिंग में जांॅब कर लेगा । ऐसा ही हुआ। लाल बंगला के कोचिंग इन्स्टीट्यूट में उसे पढ़ाने का जाॅंब मिल गया और फिर वहीं दो कमरे का एक पोर्शन रहने के लिए। केन्द्र्रीय विद्यालय अर्मापुर वहाॅं से काफी दूर था। घर से अणिमा को वह बस स्टैंड, स्कूटर से छोड़कर आता और वहाॅं से अणिमा बस द्वारा अर्मापुर स्टेट तक और स्कूल तक पैदल। स्कूल से पढ़ाकर लौट कर आते-आते साढ़े छै से सात बज जाते थे। घर का काम सहयोग भावना से चल रहा था और विशेष का प्रयास भी एक बेहतर नौकरी पाने की लालसा से जोर-शोर से चल रहा था, कि उनकी जिन्दगी में तीसरे का प्रवेश हो गया। किट्टू आ गया । उसके आते ही चिन्ताओं और उलझनों की आमद भी हो गई । जब तक अणिमा का प्रसव अवकाश चलता रहा स्थिति सामान्य रही। उसके बाद यक्ष प्रश्न सामने खड़ा हो गया, किट्टू की परिवरिश का। उस इलाकें में क्रैंच कोई नहीं था। अब दो में कोई एक ही नौंकरी कर सकता थां अणिमा की नौंकरी सरकारी और स्थायी थी और उसकी सैलरी भी विशेष से तीन गुना ज्यादा थीं । इसलिए विशेष को ही अपनी नौंकरी की तिलांजलि देनी पड़ीं। उसने सोचा जब तक बच्चा बड़ा नहीं हो जाता वह घर पर ही एक-दो-प्राइवेट ट्यूशन पढ़ा लिया करेगा और उसके बाद कोई रेगुलर जाॅब पकड़ लेगा। इस बीच उसे एक अच्छी नौंकरी पाने के प्रयास को बल मिलेगा। क्योंकि अब उसके पास तैयारी के लिये अधिक समय मिल सकेगा। मगर सोचा होता कहाॅ है घर में दो ट्यूशनें थी। किट्टू था। घर की सम्पूर्ण व्यवस्था थी। अणिमा का सहयोग कम से कमतर होता गया। अणिमा की नौंकरी से आयी अतिरिक्त व्यवस्था व्यवधान दूर करने की जिममेदारी थी। उसके लिए नोट्स बनाना, प्रोजेक्ट वर्क तैयार करना और घर लायी कापियां जांचने में सहयोग, तथा अणिमा समय से स्कूल पहंॅुच जाये यह भी संुनिश्चित करना था। उसके अपने लिए समय नहीं था। परन्तु खलिस का एक रेशा भी उसके पास नहीं था, क्यों कि वह प्रेम और हर्ष में था। किट्टू बड़ा हुआ। नर्सरी में यही एडमीशन दिलवाया गया, क्योंकि केन्द्रीय विद्यालय में नर्सरी की कक्षायें सुबह लगती थी और अणिमा की क्लासेज 10 बजे से प्रारम्भ होती थी। इसलिए माॅ-बेटे स्कूल भी साथ नहीं जा सके। अब किटृटू को स्कूल भेजने और वापस लाने की जिममेदारी भी आ गईं घर के काम काज के लिए कामवाली रखी गई। वह अपने को फ्री नहीं कर पा रहा था किसी भी बाहरी जाॅब के लिएं। किसी तरह कामवाली की सहायता से एडजस्ट हो रहा था। उसने पार्ट-टाइम जाॅब करने की कोशिश की 7 बजे से 10 बजे … Read more

अंधी खोहों के परे

सांझ की धुंध में, रात की स्याही घुलने लगी थी. सर्दहवाओं के खंजर, सन्नाटे में सांय- सांय करते…उनकी बर्फीली चुभन, बदन में उतरती हुई. बाहर ही क्यों, भीतर का मौसम भी सर्द था. मल्लिका को झुरझुरी सी हुई. गोपी की किताबेंसहेजते हुए, दृष्टि खिड़की पर जा टिकी. जागेश अंकल की अर्थी सजने लगी थी. ‘स्यापा’ करने वाली स्त्रियों के साथ, रीति आंटी भी आयीं और अंकल की देह पर, पछाड़ खा- खाकर गिरने लगीं. उनका विलाप तमाम ‘आरोह- अवरोह’ के साथ, मातम की बेसुरी धुन जैसा था. वह ‘नौटंकी’ देख- सुनकर, उसे जुगुप्सा होने लगी.रीति ने दोहाजू जागेश से ब्याह, इस आश्वासन पर किया था कि उनके बच्चों को, अपने बच्चों सा लाड़ देगी. लेकिन ब्याह के चंद दिनों में ही उसने, अपना असल रंग दिखा दिया. घर अस्त – व्यस्त हो गया. बच्चों की देखभाल तो दूर; वह खुद को भी संभाल न सकी… . जब देखो, पति की जेब पर, हाथ साफ़ कर देना… पुराने आशिक सेमिलते रहना-चोरी- छुपे! जागेश के दिल को गहरी ठेस पहुंची. दिल का मरीज़ आखिर कब तक चल पाता! अंकल की तेरह वर्षीय बेटी मंगला,अब तक बुत बनी खड़ी थी. गोद में उसका, नन्हा सा भाई था. अर्थी उठते ही, वह आंसुओं में डूब गयी. मंगला का आकुल रुदन, हवाओं को पिघला रहा था. वही ऊष्मा मानों वाष्पित हो, खिड़की पर ठहर गयी…कांच का पारदर्शीपट, भोथरा हो चला!!दृष्टिपथ धूमिल… क्या जाने कोहरा था या फिर…आँखों की नमी! अम्मा अभी तक, उधर से नहींलौटीं. शोक मनाना सहज नहीं होता. रिवाज़ कोई हो; निभाने के लिए, वक्त चाहिए. रीति का रोना- गाना,हद से बढ़ने लगा; उसके साथ, मल्लिका की हैरानी- परेशानी भी. अन्धेरा अब,दूसरा ही राग अलाप रहा था . अवचेतन पर छा गयी- धड़- धड़ करती हुई ट्रेन. भैया, भाभी के ऊपर झुके हुए…उनके छलकते हुए आंसू और बदहवास चीखें. सहसा परिदृश्य बदल जाता है. ट्रेन एक बार फिर, अँधेरी सुरंग में घुस जाती है. और तब…भैया की आंखें, कुछ और ही कहती हैं! कुछ वैसा ही रहस्यमय- जैसा कि इस समय, रीति के नयन बांच रहे हैं!!“अरी मल्ली, अभी तक बिस्तर नहीं लगाया”…”सोने का टैम हो गया”…”चल जल्दी कर; सुबह मुन्ने को स्कूल भेजना है”. अम्मा केशब्दवाण, विचार- समाधि तोड़ गये थे. मन- पखेरू के कोमल पंख, चोटिल हो सिमट आये… वह तंद्रा से जागी;मानोंउड़ान भरते- भरते, जमीन पर आ गिरी! मुन्ना उर्फ़ गोपी, उस दबंग आवाज़ से डरकर, पलंग में दुबक गया. मल्लिका यंत्रवत सी उठी और सब काम निपटाए. काम की थकान, देह पर हावी थी किन्तु अंतस में, हिलोर सी उमगती … नींद कोसों दूर… समग्र चेतना पुनः, अंधी सुरंग की तरफ, खिंचतीहुई…!!अतीत की अँधेरी खोहोंसे, निकलभीआये तो क्या! ऐसी कितनी अदृश्य अंधी खोहें, उसके चारों तरफ बिछी हैं. कुछ वैसा ही अन्धेरा, कॉलेज के महिला कक्ष में- खस के पर्दों से रचा गया अन्धेरा,“ सब चचेरी- ममेरी बहनों की ‘सादी’हो गयी… न जाने हमारीकब होगी!”“चल आज, ज्योतिष महराज से पूछते हैं.”“कितना लेते हैं?!”“पचास रूपये में सब बता देते हैं. कब तक ब्याह होगा, कहाँ होगा, पति कैसा होगा, उसकी नौकरी…ब्याह फलेगा कि नहीं…कितने बच्चे होंगे”“बस, बस इत्ता बहुत है…चल आज चलते हैं. बल्कि अभी ही”“फिर हिस्ट्री का पीरियड”“उसे मार गोली…तू बस चल, फौरन!” उन दो लड़कियों का प्रलाप सुनकर, वह वितृष्णा से मुस्करा उठी थी. इस कॉलेज का स्तर ही ऐसा था. चलताऊ पुस्तकालय, शिक्षक भी चलताऊ और विद्यार्थी तो और भी गये- गुजरे! बिल्डिंग ऐसी कि जगह जगह प्लास्टर उधड़ा हुआ. इतना जरूर था कि यहाँ फीस में कुछ रियायत मिल जाती थी; इसी से निम्न – मध्यम वर्ग के छात्रों की बहुतायत थी. उनकी जीवन शैली, उनके अभाव, उनकी कुंठाएं, माहौल में झलक उठतीं. बगल में, सरकारी आवास योजना वाले फ्लैट थे. ज्यादातर स्टूडेंट, उधर ही रहते थे.वहींमल्लिका का घर भी था; आर्थिक- स्थिति,उन आवासों के हीअनुरूप. जीवन की औसत आवश्कताएं कठिनाई से पूरी होतीं; फिर भी,कुछ कर दिखाने का जज्बा; जोर मारता रहता. उसका भाई महज एक टी. सी. और पिता रिटायर्ड सुरक्षा- गार्ड; भाई की नियुक्ति किसी दूसरी जगह थी. घर में मां- पिताजी व भतीजा गोपी, इतने ही लोग रहते. कॉलोनी के दूसरे लोगभी, बहुत समर्थ न थे. उसकी सहपाठी मीना के पिता, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक. दूसरी सहपाठी शिखा के पिता क्लर्क और शिखा के मामाजी, जो बाजूवाले फ्लैट में रहते थे- लाइब्रेरियन. रीमा उनके ग्रुप की, एक ही ऐसी लड़की थी, जिसके पापा ने ठेकेदारी से, ‘दो नम्बर’ का पैसा बनाया था; इसी से उसके ‘जलवे’ कुछ दूसरे थे.मीना और शिखा मन ही मन उससे जलतीं. यहाँ तक कि उसके चाल- चलन को लेकर,परपंच करतीं, “मल्ली तू रीमा के यहाँ मत जाया कर. उसके भाई का जो दोस्त है ना- अरे वही रविन्द्रन…मद्रासी छोरा! उसके साथ ही चक्कर चला रही है…” मल्लिका के होंठ कुछ कहने को खुले, किन्तु सप्रयास, उसने उन्हें भींच लिया. मूढ़मगज के साथ, भेजा कौनखपाए?? उसने अपनी आँखों से रविन्द्रन को, रीमा से अपनी कलाई पर राखी बंधवाते और स्नेह से उसके सर पर हाथ फेरते हुए देखा था. नहीं…ऐसा पवित्र प्रेम, छल कैसे हो सकता है?! मीना और शिखा के बचकाने आरोप- यह भी,अंधियारे कारूप थे और तम से घिरी, कंदराओं में रेंगना, जीवन की नियति!! भाभी मां के बाद वह भी, ऐसी ही कंदराओं में भटक रही है… जहाँ धड़ धड़ करती ट्रेन डोलती है; दम तोड़ती भाभी की फ़ैली हुई आँखें…उनका खुला मुख!! प्रेरक कहानियों का विशाल संग्रह बार बार अभिशप्त स्मृतियों से उबरना कठिन है. किसी भाँति उन्हें झटकती है; किन्तु अँधेरे और कलुष की दुरभिसंधि, अब भी नहीं टूटती. उसकी हमजोलियों को ही लो- शिखा के पिता ने, पैतृक सम्पत्ति बेचकर, किसी भाँति पैसा जमा किया. शिखा को ‘निपटाना’ जो था. रीमा का रिश्ता भी, एक बड़े घर में हो गया. मल्लिका तो ब्याह- शादी के झमेलों से उदासीन थी लेकिन मीना पर यह बहुत नागवार गुजरा. उसकी खीज बढ़ती गयी. एक दिन जब मल्लिका, उसके साथ ऑटो में थी; वह उससे सटकर बैठ गयी. एक लिजलिजा एहसास था – उस छुअन में! मीना- जो शादी के लिए उतावली थी; दान – दहेज़ के अभाव में, एकदम पगला ही गयी! शरीर में उफनते हार्मोन, दूसरा ‘विकल्प’ तलाश रहे थे!!अनब्याही रह जाना- यह मीना की नियति ही नहीं; दूसरी कई लड़कियों की नियति … Read more

अस्तित्व

अम्बा … पर्वतों की छाँव पिथौरागढ़ में रहनेवाली है । उसकी पांच बेटियां व एक बेटा सुधीर है । बचपन से ही पांच बहिनों में सबसे छोटा सुधीर माँ का बेहद दुलारा था । सुधीर को आज भी वो दिन याद है जब वह चार वर्ष का था और उसके पिता की खाई में गिरने से मृत्यु हो गई थी । माँ का चूड़ियाँ तोडना … रोना तड़पना … आज भी उसकी आँखें नम कर देता है ।कितनी अकेली हो गयी थी वो |बिलकुल टूट सी गयी थी |पहाड़ों पर रहने वाले ही जानते हैं की उनकी जिंदगी कितनी कठिन होती है | पर्वतों पर रहने वालों को पर्वत सा ही कलेजा चाहिए | तभी तो अम्बा ने बड़ी हिम्मत से घर को संभाला । कम उम्र , पति का वियोग , बच्चों की जिम्मेदारी … लड़कियों की शादी की चिंता ऊपर से स्वयं उसका अल्प शिक्षित होना । पर वो अटल दुःख के इन थपेड़ों से टकराती रही । पर इस पहाड़ के अन्दर एक नदी भी बहती थी , बिलकुल मीठे पानी की , अपने बच्चों की खातिर , तभी तो दिन – रात मेहनत करके दूसरों के खेतों में मजदूरी करके वह जब घर आती तो सुधीर को अपनी गोदी में लिटा कर लोरी सुनाना नहीं भूलती ।पहाड़ी लोक लोक गीत और उनकी मिठास …. सुधीर भी बहार से कठोर और अन्दर से मुलायम होता चला गया | कभी – कभी नन्हा सुधीर माँ के गले में बाहें डाल कर पूंछता, ” माँ एक बात बताओ तुम इतना सब कुछ कैसे कर लेती हो “। अम्बा अपनी एक अंगुली उठाकर उठाकर पहाड़ की तरफ इशारा कर के कहती … मैं उस पहाड़ की तरह हूँ जो तेज़ आंधी तूफ़ान में भी अडिग रह कर अपने ऊपर जमी घास का बाल भी बांका नहीं होने देता ।पर जब – जब जीवन में विपरीत परिस्तिथियाँ आती हर बार माँ के प्रति चिंतित व् आदर भाव से भरे सुधीर का यही प्रश्न होता … और माँ का यही उत्तर होता । सुधीर को उसकी माँ की हर बात अच्छी लगती, उसकी मेहनत … उसका प्रेम … उसकी तपस्या । सब कुछ देख कर वो सोंचता जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो माँ का खूब ध्यान रखूँगा। कोई दुःख नहीं होने दूंगा उसे | पर जैसे चाँद में दाग होता है | एक बात उसे भी माँ की बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी, कि चाहे खुद कितनी कंगाली में रहे पर दूसरों को कुछ देने की बात आये तो सबसे आगे बढ़ कर सहायता करती | अपने लिए कुछ बचाने का सोंचती ही नहीं , यहाँ तक की खाना भी | पड़ोस के बच्चे अक्सर खाना खाने के समय आ जाते तो अंपने लिए बनाया खाना वह उन बच्चों को खिला खुद पानी पीकर सो जाती थी । एक दिन सुधीर ने माँ से पूंछ ही लिया ‘ माँ तुम ऐसा क्यों करती हो ‘। माँ हंसकर जवाब देती कहा ना मैं उस पहाड़ की तरह हूँ जब कोई मेघ मुझसे टकराता है तो मैं हर तरफ वर्षा करती हूँ । केवल अपने लिए नहीं दूसरों को देने में मुझे सुख मिलता है । माँ और पर्वत ये उपमा सुनते सुनते सुधीर बड़ा अफसर बन कर मुंबई चला गया | उसकी शिक्षा माँ की ही त्याग तपस्या का फल थी , और उसकी पसंद उसके जीवन में उजाला करने के लिए आई मुंबई की ज्योति पर भी माँ ने सहजता से अपनी पसंद की मोहर लगा दी | और विवाह के पवित्र सूत्र में बंध ज्योति व् सुधीर एक हो गए ।ज्योति सुधीर के मुंह से अम्बा की तारीफे सुनती रहती , वो जानती थी सुधीर के मन में अम्बा के लिए बहुत सम्मान है , इसीलिए तो उसने ही सुधीर के आगे ” माजी को अपने पास लाने का प्रस्ताव रखा था | इधर अम्बा पहाड़ की मिटटी में घुल मिल सी गयी थी | पड़ोस के बच्चों , रोज के काम और पहाड़ी लोक गीत … दिन तो कट ही जाता था | पर रात घिरते ही पुत्र मोह जाग उठता | सुधीर को देखने की इच्छा बलवती होती | पर मन में तसल्ली कर लेती , चलो , ” ज्योति जैसी पत्नी उसके जीवन में जो उसका पूरा ध्यान रखती है व् सुधीर भी तो उसे बहुत प्रेम करता है | उसका क्या है ? पूरा गाँव ही उस का घर है , बची खुची जिन्दगी भी कट ही जायेगी | फिर भी माँ की सेवा करने के लिए सुधीर उसे गाँव से अपने पास ले चलने के लिए आया , तो उसकी ख़ुशी छिपी न रह सकी , आँखों के रास्ते निकल ही गयी | गाँव वाले स्नेह से उलाहना देने लगे ,” अब पहाड़ नदी बन कर मैदानों को हरा- भरा करने चला है |” पर जैसा सोंचा था हुआ उसका उल्टा । ना तो अंग्रेजी सभ्यता में पली बढ़ी ज्योति अम्बा को भाई और ना ही बात बात पर रीति रिवाज़ और पहाड़ की बात करने वाली अम्बा ज्योति को । तनाव बढ़ने लगा ।दोनों लाख कोशिश करतीं पर किसी न किसी बत पर विवाद हो जाता | घर का माहौल बिगड़ जाता |पहाड़ी और मैदानी दो सभ्यताओं की टकराहट हो रही थी | पहाड़ी नदी का उफान मैदानों में बाढ़ लाता , तो कभी मैदानी तपिश पहाड़ पर बेमौसम बरस जाती | प्रेम की धारा विवादों के कीचड में तब्दील होने लगी | ऐसा कीचड जिसमें कमल नहीं खिलते , तभी तो मुरझा गया था सुधीर |किसकी तरफ से बोले … एक तरफ माँ है जिसने लाख मुसीबत झेल कर उसे पाला है दूसरी तरफ पत्नी है जो आजन्म उसकी सहचरी है । वह दोनों के बीच पिसने लगा और उसका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन बिगड़ने लगा । दोनों उसके लिए चिंतित थीं पर प्रेम का धागा जो ज्योति और अम्बा के बीच टूट चूका था , वह जुड़ने से भी नहीं जुड़ पा रहा था । सुधीर का स्वास्थय बिगड़ता जा रहा था । एक दिन जब सुधीर घर लौटा तो माँ दिखाई नहीं दी । ज्योति से पूंछा , पर उसने भी अनभिज्ञता दिखाई | मन में उठते अनेकों प्रश्नों हल के रूप में मेज … Read more

पतुरिया

“अम्मा मैं बहुत अच्छे नम्बर से पास हो गई हूँ । अब मैं भी पी सी एस अधिकारी बन गयी ।” बेटी दुर्गा ने अपने पी सी एस की परीक्षा उत्तीर्ण करने की सूचना को जैसे ही नैना को बताया नैना की आँखों से आंसू छल छला कर बहने लगे ।“अरी मोरी बिटिया बस तुमका ही देखि देखि ई जिंदगी ई परान जिन्दा रहल । ” आज हमार सपना पूरा हो गइल । तोरे पढाई माँ आपन पूरा गहना गीठी सब बेच देहली हम । दू बीघा खेत बिक गइल । चार बीघा गिरो रखल बा । आज तू पास हो गइलू त समझा भगवान हमरो पतुरिया जात के सुन लिहलें । दुर्गा को गले लगा कर काफी देर तक नैना रोती रही । माँ को देख कर दुर्गा की आँखों में भी आंसू आ गए ।दुर्गा की आँखों के सामने वह बचपन का सारा मंजर घूम गया था । लोग बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखते थे । माँ का समाज में कोई सम्मान नही था । गांव में आने वाले लोग घूर घूर के जाते थे । नैना ने बहुत साफ शब्दों में सबको बता दिया था बेटी नाच गाना नही सीखेगी । स्कूल जायेगी और साहब बनेगी । गाव का वह माहौल जिसमे पढाई से कोई लेना देना ही नही था । अंत में माँ ने सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखकर पढ़ने का अवसर दिलाया । सचमुच में नैना का त्याग और बलिदान गांव वालों के लिए एक मिशाल से कम नही था । गाँव के लोग एक एक कर आ रहे थे । आखिर दुर्गा पतुरियन के पुरवा का गौरव जो बन चुकी थी । ढेर सारी बधाइयां ढेर सारे लोगों की दुआए नैना की ख़ुशी में चार चाँद लगा रहे थे । चर्चा कई गांव तक पहुँच चुकी थी । खास बात यह नही थी कि दुर्गा ने परीक्षा पास कर ली है बल्कि खास तो यह था कि एक पतुरिया की बेटी ने यह परीक्षा पास की है । दूसरे दिन अख़बार में जिले के पेज पर दुर्गा की खबर प्रमुखता से छपी । हर गली मुहल्ले चौराहे पर सिर्फ दुर्गा की ही चर्चा । दुर्गा आज समाज का बदला हुआ रूप देख कर हैरान थी । यह वही समाज है जब दुर्गा सौरभ के साथ उसके घर गयी थी तो सौरभ की माँ ने उसके बारे में पूछा था । सौरभ ने बताया था मेरे स्कूल में पढ़ती है मेरी पिछले साल की कक्षा पांच की किताबें पढ़ने के लिए मांगने आयी है । पतुरियन के टोला में रहती है ।सौरभ की बात सुनकर सौरभ की माँ ने कहा था” हाय राम ! ई पतुरिया की बेटी का घर मा घुसा लिहला । इका जल्दी घर से पाहिले बाहर निकाला ।जा उई जा पेड़ के नीचे बैठ …… ऐ लइकी ………..घर से बाहर निकल पाहिले । तोके कउनो तमीज न सिखौली तोर माई बाप का ? जा…..जा….” सौरभ को बात बहुत बुरी लगी थी और माँ से लड़ने लगा था तो माँ ने सौरभ की गाल पर दो चार तमाचे भी जड़ दिए थे । बेचारा सौरभ दूसरे दिन चोरी से उसे सारी किताबें दे गया था । बाद में वही सौरभ दुर्गा का सबसे अच्छा दोस्त साबित हुआ । और वह दोस्ती आज भी पूरी तरह कायम है । उपेक्षा तिरस्कार से रूबरू होते होते दुर्गा की इच्छा शक्ति दृढ होती गयी थी । इसी दृढ़ इच्छा शक्ति से उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया जिससे आज वही समाज उसका गुणगान करता नज़र आ रहा था । गाँव वाले दबी जुबान से यह भी कहते थे दुर्गा तो माधव की बेटी ही नहीं है । यह तो माधव के मरने के साढ़े दस महीने बाद पैदा हुई थी । पतुरियन के पुरवा के लिए यह बात कोई खास मायने नही रखती थी । सबके इज्जत में कालिख की कमी नही थी । सबके अपने अपने अफ़साने थे । दिन के दस बजे थे । दुर्गा के घर के सामने हेलमेट लगाए एक मोटर सायकिल सवार नौजवान ने अपनी बाइक रोकी । ” आंटी जी दुर्गा का घर यही है न ? ” हाँ बिटवा घर तो यही है । हाँ ऊ बइठी बा पेड़वा के नीचे ” “जी दुर्गा को बधाई देने आया हूँ । ” हेलमेट लगाये युवक ने दुर्गा को देखकर आवाज दिया । “बधाई हो दुर्गा !” अरी तुम ? …….कैसे हो सौरभ ? दुर्गा का चेहरा खिल उठा था ।ऐसा लगा जैसे सौरभ से मिलकर जाने क्या पा गयी हो । शायद उसकी ख़ुशी दो गुना हो गयी थी । “अख़बार में पढ़ा तो रहा ही नही गया और आज पहली बार तुम्हारे घर भी आ गया ।” सौरभ ने कहा । ” हाँ सौरभ यह सारी तपस्या तो बस तुम्हारी वजह से पूरी हो गयी । एक तुम ही तो थे जिसकी गाइड लाइन से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी । चोरी चोरी तुम्हारे भेजे गए पैसों की मैं बहुत कर्जदार हूँ । आज तुम मेरे घर आ गए समझो भगवान् ने मेरी सारी मुराद पूरी कर दी । ” “और सुनाओ क्या हो रहा है आजकल ?” दुर्गा ने पूछा । “दुर्गा मैं दो बार आई ए एस के लिए ट्राई किया । एक बार तो प्री ही नही निकाल पाया दूसरी बार में प्री और मेन दोनों क्वालीफाई करने के बाद इंटरव्यू से आउट हो गया ……………। ”“इस बीच यू पी एस सी से कस्टम इंस्पेक्टर के लिए क्वालीफाई हो गया हूँ । ” “बधाई हो सौरभ । अब तो नौकरी भी तुम्हे मिल गयी । अब तो शादी में कोई बाधा नहीं । ”“हाँ दुर्गा तुम ठीक कह रही हो ,अम्मा भी यही कहती हैं जल्दी से जोड़ी ढूढ़ नहीं तो मैं अपने पसंद की कर दूँगी । ” “तो ढूंढी कोई जोड़ी ?”“सच बताऊँ क्या ?” “हाँ हाँ बताओ न ? ”“जोड़ी तो वर्षों पहले से ही ढूढ़ चुका हूँ । लेकिन अब वह शादी होगी या नहीं भगवान् ही जाने ……” दुर्गा के मन में उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी ।कैसी है वो ?बिलकुल तुम्हारे जैसी ?अरी यार साफ साफ बताओ न ? क्या तुम्हारे ही कास्ट में … Read more