फिर एक बार
फैक्ट्री कासालाना जलसा होना था. तीन ही सप्ताह बच रहे थे. कायापलट जरूरी हो गया;बाउंड्री और फर्श की मरम्मत और कहीं कहीं रंग- रोगन भी. आखिर मंत्री महोदय को आना था. दरोदीवार को मुनासिब निखार चाहिए.अधिकाँश कार्यक्रम, वहीं प्रेक्षागृह में होने थे. उधर का सूरतेहालभी दुरुस्त करना था. ए. सी. और माइक के पेंच कसे जाने थे. युद्धस्तर पर काम चलने लगा;ओवरसियर राघव को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं. ऐसे में,नुक्कड़- नाटक वालों का कहर… लाउडस्पीकर पर कानफोडू, नाटकीय सम्वाद!! प्रवेश- द्वार पर आये दिन, उनका जमावड़ा रहता. अर्दली बोल रहा था- यह मजदूरों को भड़काने की साज़िश है. नुक्कड़- नाटिका के ज्यादातर विषय, समाजवाद के इर्द गिर्द घूमते.एक दिन तो हद हो गयी. कोई जनाना आवाज़ चीख चीखकर कह रही थी, “बोलो कितना और खटेंगे– रोटी के झमेले में??होम करेंगेसपने कब तक – बेगारी के चूल्हे में?! लाल क्रांति का समय आ गया…फिर एक बार!” वह डायलाग सुनकर, राघव को वाकई, किसी षड्यंत्र की बू आने लगी थी. उसने मन में सोच लिया, ‘ अब जो हो, इन बन्दों को धमकाकर, यहाँ से खदेड़ना होगा- किसी भी युक्ति से. चाहे अराजकता का आरोप लगाकर, याप्रवेश- क्षेत्र में, घुसपैठ का इलज़ाम देकर. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद…’ उसके विचारों को लगाम लगी जब वह आवाज़, गाने में ढल गई.जाने ऐसाक्यों लगा कि वह उस आलाप, स्वरों के उस उतार- चढ़ाव से परिचित था. मिस्री सा रस घोलती,चिरपरिचित मीठी कसक! राघव बेसबर होकर बाहर को भागा. उसका असिस्टेंट भौंचक सा, उसे भागते हुए देखता रहा. वह भीनासमझ सा, पीछे पीछे दौड़ पड़ा. गायिका को देख, आंखें चौड़ी हो गईं, दिल धक से रह गया…निमिष भर को शून्यता छा गयी. प्रौढ़ावस्था में भी, मौली के तेवर वही थे. बस बालों में थोड़ी चांदी उतर आई थी और चेहरे पर कहीं कहीं, उम्र की लकीरें. भावप्रणव आँखें स्वयम बोल रही थीं;आकर्षकहाव- भाव, दर्शकों को सम्मोहन में बांधे थे. वह उसे देख, हकबका गयी और अपना तामझाम समेटकर चलने लगी.संगी- साथी अचरच में थे; वे भी यंत्रवत, उसके संग चल पड़े. राघव उलटे पैरों भीतर लौट आया.राघव के असिस्टेंट संजय ने पूछा, “क्या बात हैरघु साहब? कुछ गड़बड़ है क्या??!”“कुछ नहीं…तुम जाओ; और हाँ पुताई का काम, आज तुम ही देख लेना…मशीनों की ओवरहॉलिंग भी…मेरा सर थोड़ा दुःख रहा है”“जी ठीक है…आप आराम करें. चाय भिजवाऊं?”“नहीं…आई ऍम फाइन. थोड़ी देर तन्हाई में रहना चाहता हूँ”. उसे केबिन में अकेला छोड़, संजय काम में व्यस्त हो गया. उधर रघु के मनमें,हलचल मची थी. बीती हुई कहानियां, फिल्म की रील की तरह रिवाइंड हो रही थीं. वह सुनहरा समय- राघवऔर मौली, अपने शौक को परवान चढ़ाने, ‘सम्वाद’ थियेटर ग्रुप से जुड़े. दोनों वीकेंड पर मिलते रहते. वे पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों की भाँति, नितांत भिन्न परिवेशों से आये थे. फिर भी अभिनय का सूत्र, उन्हें बांधे रखता. कितने ही ‘प्लेज़’ साथ किये थे उन्होंने. रघु को समय लगा; थियेटर की बारीकियाँ जानने- समझने में- अभिनय- कौशल, डायलाग- डिलीवरी, पटकथा- लेखन और भी बहुत कुछ.किन्तु मौली को यह सब ज्ञान घुट्टी में मिला था. उसके पिता लोककलाकार जो थे. घर में कलाकारों की आवाजाही रहती. इसी से बहुत कुछ सीख गयी थी. यहाँ तक कि तकनीकी बातें भी जानती थी. जैसेसाउंड व लाइट इफेक्ट्स, मेकअप, बैक स्टेज का संचालन; यही नहीं – दृश्य तथापर्दोंका निर्माण भी.संवादों पर उसकी अच्छी पकड़ थी. बौद्धिक अभिवृत्ति ऐसी कि डायलाग सुधार कर, उसे असरदार बना देती. सामाजिक समानता को मुखर करने वाले ‘शोज़’ उसे ज्यादा पसंद थे. इसी एक बिंदु पर उन दोनों के विचार टकराते. राघव मुंह सिकोड़ कर कहता, “कैसी नौटंकी है…’सो कॉल्ड’ मजबूरी और बेचारगी का काढ़ा! टसुओं का ओवरडोज़…दिसएंड देट…टोटल पकाऊ, टोटल रबिश!! दिस इस नॉट द वे टु सॉल्व प्रोब्लेम्स”“टेल मी द वे मिस्टर राघव” मौली उत्तेजना में प्रतिवाद कर बैठती, “आप क्या सोचते हैं कि आपके जैसे लक्ज़री में रहने वाले, समस्या को हल करसकेंगे… नहीं रघु बाबू…फॉरगेट इट !!” और बोलते बोलते उसके कान लाल हो जाते. जबड़ों की नसें तन जातीं. निम्नमध्यम वर्ग की त्रासदी, दंश मारने लगती…आँखों के डोरे सुर्ख हो उठते और चेहरे का ‘ज्योग्राफिया’ बदल जाता. ऐसे में राघव को, हथियार डालने ही पड़ते. छोटी छोटी तकरारें कब प्यार बन गयीं, पता ना चला. मौली के दिल में भी कसक होती पर वह जबरन उसे दबा लेती. उसने राघव से कहीं ज्यादा, ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव देखे थे. वह जानती थी कि धरती और आकाश का मिलन, आभासी क्षितिज पर ही होता है.वास्तविक जीवन फंतासियों से कहीं दूर था. उसके पिता एक छोटी सी परचून की दूकान रखे थे; जबकि राघव जाने माने वकील का बेटा था. ऐसा जुगाड़ू वकील- जिसने नेताओं से लेकर, माफिया तक से हाथ मिला रखा था. स्याह को सफेद कर दिखाना, जिसका धंधा था. पैसा ही जिसका ईमान और जीने का मकसद था. इधर मौली– वह स्वयम डांस- क्लास चलाकर, अभावों के हवनकुंड में, आहुति दे रही थी. राघव अक्सर कहता, “ये भी कोई लाइफ है मौली?! करियर में आगे बढ़ना है तो कुछ बड़ा मुकाम हासिल करो…रेडियो, टी. वी. में ऑडिशन दे डालो. कहो तो मैं बायोडाटा तैयार करूं?? आफ्टर आल यू आर सो एक्सपीरियंस्ड…कितनेकैरेक्टर प्ले किये हैं तुमने और एक से बढ़कर एक परफॉरमेंस… सिंगिंगऔर डांस की भी मास्टर हो तुम…”“बस बस रघु बाबू!” उत्तेजना में मौली उसे ‘बाबू’ की पदवी दे डालती; स्वरमें व्यंग्य उतर आता और शब्दवाण, राघव को निशाने पर लेते, “बाबू साहेब, हम सीधे- सादे गरीब आदमी…इज्जत की रोटी खाने वाले. दंदफंद करके एप्रोच निकाल पाना, अपन के बस में नहीं! उस पर कास्टिंग काउच…सुना है ना??!” शुभचिंतकबनने का जतन, राघव को अदृश्य कटघरे में खड़ा कर देता. ऐसेमें वहां रहना असम्भव हो जाता. वह तमककर उधर से चल देता और मौली चाहकर भी उसे मना ना पाती!! यूँ ही खट्टी मीठी झड़पों में दिन बीतते रहे और एक दिन राघव को पता चला कि परिवारचलाने के लिए मौली ने रंगशाला को अलविदा कह दिया है और कोई‘फूहड़ टाइप’ ऑर्केस्ट्रा ग्रुप जॉइन कर लिया है.ग्रुप क्या- नौटंकी कम्पनी ही समझो. मेले- ठेले में या दारूबाज लोगों की नॉन- स्टैण्डर्ड पार्टियों में शिरकत करते थे कलाकार.राघव के दिलोदिमाग में,धमाका सा हुआ! वह दनदनाता हुआ उनके दफ्तर पंहुचा और बिना संदर्भ- प्रसंग, मौली पर बरस पड़ा, “ बहुत … Read more