ब्याह :कहानी -वंदना गुप्ता

ब्याह   नैन नक्श तो बडे कंटीले हैं साफ़ सुथरे दिल को चीरने वाले गर जुबान पर भी नियन्त्रण होता तो क्या जरूरत थी फिर से सेज चढने की । हाय हाय ! जीजी ये क्या कह दिया ? जो कह रही हो सोचा कभी तुम भी वो ही कर रही हो वो ही जुबान बोल रही हो । न जीजी कोई औरत कब खुशी से दोबारा सेज सजाती है , जाने क्या मजबूरी रही होगी , कभी इस तरह भी सोचा करो । औरत की तो बिछावन और जलावन दोनो ही कब किसी के काम आयी हैं , वो तो हमेशा निरीह पशु सी हाँकी गयी है , कभी इस देश कभी उस देश , एक साँस लेने के गुनाह की इतनी बडी सजा तो सिर्फ़ एक औरत को ही मिला करती है , दुनिया भला कब बर्तन में झाँका करती है बस कडछी के खडकने से अंदाज़े लगाती है कि बर्तन में तरकारी बची है या नहीं । और आज तुम भी यही कर रही हो बिना सोचे समझे जाने आखिर क्यों ये नौबत आयी ? आखिर क्यों औरत के सिर्फ़ हाड माँस का ही हमेशा सौदा होता रहा बिना उसकी इजाज़त के बिना उसके मन के । मन , हा हा हा मन अरी औरत का भी कभी कोई मन हुआ करता है ? क्या हमारा तुम्हारा भी कभी मन हुआ किसी बात का ? क्या हम नही जीये , क्या हम खुश नहीं रहे , क्या कमी रही भला बता तो रज्जो । जीजी तुम क्यों जान कर भी अंजान बन रही हो , किसे भुलावे में रखना चाह रही हो मुझे या खुद को या इस समाज को । बताना जरा कितनी बार तुमने अपने मन से ओढा पहना या कोई भी निर्णय लिया जो किया सब जीजाजी के लिए किया , बच्चों के लिए किया , घर परिवार के लिए किया । तो क्या गलत किया रज्जो यही तो ज़िन्दगी होती है और ऐसे ही चला करती है क्या हमारी माँ ऐसे नहीं जी या हमारी सखियाँ या आस पास की औरतें ऐसे नहीं जीतीं तो इसमें बुराई क्या है । सबको सुख देते हुए जीना थोडा बहत त्याग कर देना तो उससे घर में जो वातावरण बनता है उसमें बहुत अपनत्व होता है और देख उसी के बल पर तो घर के मर्द बेफ़िक्री से काम धन्धे पर लगे रहते हैं । जाने तुझे कब ये बात समझ आयेगी कि औरत का काम घर की चाहरदीवारी को सुरक्षित बनाए रखना है और मर्द का उसके बाहर अपने होने की तैनाती का आभास बनाए रखना और ज़िन्दगी गुजर जाती है आराम से इसी तरह । भला क्या जरूरत थी इसे इतने ऊँचे शब्द बोलने की ? भला क्या जरूरत थी इसे अपने भर्तार को दुत्कारने की वो भी इस हद तक कि वो आत्महत्या कर ले । भला ऐसी सुन्दरता किस काम की जो आदमी की जान ही ले ले , ऐसा क्या घमंड अपने रूप यौवन का जो एक बसे बसाए घर को ही उजाड दे और तुम कहती हो चुप रहो । भई अपने से ये अनर्थ देख चुप नहीं रहा जाता । जीजी तुम नहीं जानती क्या हुआ है ? तुमने तो बस जो सुना उसी पर आँख मूँद विश्वास कर लिया अन्दर की बात तुम्हें नहीं पता यदि पता होती तो कभी ऐसा न कहतीँ बल्कि सुनयना से तुम्हें सहानुभूति ही होती । कभी कभी सच को सात परदों में छुपा दिया जाता है फिर भी वो किसी न किसी झिर्री से बाहर आ ही जाता है । बेशक सबको नहीं पता मगर मुझे पता चल गयी है लेकिन तुम्हें एक ही शर्त पर बताऊँगी तुम किसी से कहोगी नहीं । (अचरज से रज्जो को देखते हुए ) अरे रज्जो , ये क्या कह रही है तू , जो सारे में बात फ़ैली हुई है क्या वो सही नहीं है ? तो सच क्या है ? बता मुझे किसी से नहीं कहूँगी तेरी सौं । जीजी जाने क्या सोच ईश्वर ने औरत की रचना की और यदि की भी तो क्यों नहीं उसे इतना सख्तजान बनाया जो सारे संसार से लोहा ले सकती । बेबसियों के सारे काँटे सिर्फ़ उसी की राह में बो दिए हैं और उस पर सितम ये कि चलना भी नंगे पाँव पडेगा वो भी बिना उफ़ किए बस ऐसा ही तो सुनयना के साथ हुआ है जो एक ऐसा सच है जिसके बारे में किसी को नहीं पता । मुझे आज भी याद है जब सुनयना डोली से उतरी थी जिसने देखा उसे ही लगा मानो चाँद धरती पर उतर आया है । खुदा ने एक एक अंग को ऐसे तराशा मानो आज के बाद अब कोई कृति बनानी ही नहीं , जाने किस फ़ुर्सत में बैठकर गढा था कि जो देखता फिर वो स्त्री हो या पुरुष देखता रह जाता । चाल ऐसी मोरनी को भी मात करे , बोली मानो कोयल कुहुक रही हो सबका मन मोह लेती , एक पल में दुख को सुख में बदल देती किसी के चेहरे पर उदासी देख ही नहीं सकती थी । जैसे बासन्ती बयार ने खुद अविनाश के आँगन में दस्तक दी हो । हर पल मानो सरसों ही महक रही हो आँगन यूँ गुलज़ार रहता । आस पडोस दुआयें देता न थकता जिसका जो काम होता ऐसे करती मानो जादू की छडी हाथ में हो और अपने घर का काम कब करती किसी को पता भी नहीं चलता क्या छोटा क्या बडा सब निहाल रहते क्योंकि बतियाने में उसका कोई सानी ही नहीं था । अविनाश के पाँव जमीन पर नहीं पडते उसे भला और क्या चाहिए था ऐसी सुन्दर सुगढ पत्नी जिसे मिल जाए उसे और क्या चाहिए भला । सास ससुर , देवर , जेठ जेठानी सबकी चहेती बनी हवा के पंखों पर एक तितली सी मानो उडती फ़िरती और अपने रंगों से सबको सराबोर रखती । इसी सब में छह महीने कब निकले किसी को पता न चला । अचानक एक दिन अविनाश के घर से रोने चीखने की आवाज़ें सुन सारे पडोसी भागे आखिर क्या हो गया ऐसा और जाकर देखा तो अविनाश की लाश बिस्तर पर पडी थी … Read more

भीखू : कहानी -कुसुम पालीवाल

कहानी—- ” भीखू “                  ********** ललिया..ओ..ललिया…….कहाँ मर गये सब …..किसी को चिंता नहीं है मेरी  , अरे कहाँ हो तुम सब……..मरा जा रहा हूँ सारा कलेजा जल रहा है….. ,।भीखू की आवाज जैसे ही धनिया ने सुनी….., दौडी-दौडी भीखू के पास आई ….., क्यों चिल्लाबत हो …….., ठौरे ही तो बइठे हतै………ललिया नाही है घरै मा ….काम पर गई है बोलो …….का भवा…..।        अरी …थोडी दारू दे… दै…मर जाऊंगा , नहीं पीऊंगा  तो …………तू  क्या ये ही चाहे है …..। अब धनिया तो मानों …..फट पडी भीखू पर ……., हाँ ….हाँ , हम सब यही चाहें. ……..तभी तो ललिया काम धन्धे पर जात है , तुमका.. का पडी……कहाँ जात है…..का करत है…….., तुम्हे तो मुंह जरी जे …… दारू ही  चाहे ……….।       मालूम है बा दिना …डांगदर साब  ….का बोले हते……., ललिया की माँ भीखू को जिन्दा धरनौ है तो , दारू बन्द करवा दै  । कलेजा जल गयो है…. तुम्हारौ………तुम्हे पता नाय……..।     लेकिन भीखू कहाँ समझने वाला था , उसको तो जब से मुंह लगी थी तो अब कहाँ छूटने वाली थी ? चाहे जान चली जाये …।         अरे……जा भाषण मती दै…..दारू ला…….। धनिया बेचारी खडी -खडी सोच रही थी ……, सारी उम्र बिता दी पीते -पीते उसने , लेकिन अब भी समझ नहीं है ,मत मारी गई है , बेटी का ध्यान नहीं है , कैसे-कैसे वो अपने जमीर को बेच कर घर चला रही है , आखिर बेटी है न …….बेटा होता …कब का घरवाली को लेकर चला गया होता  ।         हमारी थोडी सी जमीन थी वो भी गिरवी है इतने भी पैसे नहीं थे कि उसको छुडवा सकें. ……। बेटी के जवान होते ही , सारे गाँव के …मर्द जाति की  नजरें तो जैसे गिद्ध बन गईं थीं ……साले पास तो आ नहीं सकते थे , तो आँखों से ही नोंच -नोंच कर खा रहे थे बिटिया को ………।  कितनी बार जब  मैं देखती थी तो कलेजा फट उठता था  ।  जवानी थी कि जोश मार रही थी , तन ढांपने को कपडे नहीं थे , और जो थे वो भी जगह -जगह से फटे ….., शरीर का दिखाना वहाँ स्वभाविक था ।                               एक बार कुछ पैसो की जरूरत पडने पर धनिया  , उस सेठ के  पास गई  , जिसके पास जमीन गिरवी रखी थी ……….. , साहब ……थोडे पैसे चाहिए ……दे …दो हुजूर. ……….।     क्या……. करोगी  ?  पैसों का …..आदमी को दारू पिलायेगी…….। नहीं साहब. ……घर में अनाज नहीं है , क्या खायेंगे  ………साब …मर जायेंगे …….।        साहब तो लग रहा था इसी मौके में था , तुरन्त मन में दबी बात …होठों पर आ गई   ।  अरे , तेरी तो बेटी भी सयानी हो गई है. …… उसको ……काम पर भेज दिया कर………..मालकिन के साथ , काम में हाथ बटा दिया करेगी , कमाई होगी सो अलग ……।धनिया को बात समझ में आ गई  , बस वो दिन था …कि आज का  दिन , लडकी को रखैल बना कर छोड दिया था ससुरे …कमीने  ने   …..।      अरे , वहीं खडी रहेगी ….का सोच रही है -ठाडी ठाडी……। धनिया की सोच टूटी ….., और वो तुरन्त भीखू के पास आई ………,सारी बोतलें खालीं हैं …घर में नाय दारू , कहाँ तै लाऊँ…. ..थोडो सबर करौ ……..। और ये कह कर  धनिया भीखू का सिर अपनी गोद में रख कर , सहराने लगी थी  ।        इन्सान आखिर इन्सान है , धनिया की गोद का सहारा …भीखू के मन को , अन्दर तक भिगो गया , क्योंकि हालात और स्वास्थ का मारा व्यक्ति प्यार की जरा सी आँच में पिघल उठता है , वही भीखू के साथ भी  हुआ. …… ।और वो सोचने लगा …… मैंने जिन्दगी में क्या किया. … अब तक….और उसके  आँसू  ठुलक गये आँखों से ……। धनिया को कुछ गरम -गरम सा एहसास हुआ अपनी गोद में …..तो समझ चुकी थी , बाप का कलेजा दुखी हो रहा है , लेकिन बोली कुछ नहीं  । कहते हैं न ” मन का गुबार आँखों के रास्ते बह जाये तो मन हल्का हो उठता है , ऐसा ही कुछ भीखू के साथ हुआ……….।      ललिया नहीं आई अभी तक. …., भीखू ने धनिया से पूछा. …। धनिया ने तुरन्त कहा …..आती होगी , मौसम की मार है. …….थोडा रुक गई होगी. …..। तभी अचानक ….एक आहट हुई …..देखा.. …..ललिया ने किवाड खोला ……..और सीधे अपने कमरे में चली गई थी  ।   माँ की नजरों ने सब भाँप लिया था. ….. आखिर माँ थी न……….नौ महीने कोख में रख कर भी जो न समझे , तो वो पालक कैसा  ?????      मै , अभी आवत हूँ ये कह कर वो ललिया के पास गई. ……. ललिया का चेहरा और उसकी आँखों के आँसू , एक अलग दास्तान बयां कर रहे थे  । पूछने पर पता चला….. कि कमीना सेठ , खुद तो रौंदता ही  था ………आज तो उसने किसी और के साथ सौदा भी कर दिया था ललिया के शरीर का …………….। ये जुल्म सुन कर धनिया सोच में पड गई थी ……कि भीखू को सब कुछ बताये या नहीं ……। सोच ही रही थी कि अचानक किवाड की ओट से एक छाया को देख कर  सहम गई थी धनिया , ये क्या …..ये तो भीखू ही है ……अरे हाँ ,ये भीखू ही खडा है ……..सहम गई अन्दर तक , और कहने लगी …….तुम का कर रहे हो इतै (यहाँ) …….आराम करौ जाय कै………।   धनिया माँ थी  तो साथ में एक पत्नी भी , पति को कोई कष्ट न हो , इसलिए सब कुछ अकेले ही सुलटाना चाहती थी ।       लेकिन अब आराम …भीखू के लिए हराम हो गया था …….भीखू की आँखों में खून उतर आया था. …….वो बाहर की तरफ भागा. ……..उसके पीछे-पीछे धनिया  …।    धनिया रोक रही थी लेकिन …….भीखू की आँखों और सिर पर तो खून सवार था ।     खोल …..कमीने. ………किवाड खोल …… आज तक मुझे नहीं मालूम था कि बहन बेटियों का सौदा करता है तू ………तुझे मैं नही छोडुगां ……. …..कमीने ….। मैं दारू पीता हूँ …..एक नजर भी नहीं … Read more

अहम् : कहानी -सपना मांगलिक

अहम् आज फिर वही मियां बीवी की तू तडाक और तेरी मेरी से घर गूँज उठा था .विनय बाबू बैचैनी से लॉन में टहल रहे थे ,उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस समस्या का क्या हल निकालें .आस पडो स के घरों की खिड़कियाँ भी खुली हुईं थीं शायद पडोसी भी विनय बाबू की तरह ही या तो वाकई मामले की तह में जाना चाहते थे या फिर यूँ ही फ्री  की फिल्म देखकर वाद विवाद और हास परिहास की सामग्री जुटाना चाहते थे .खैर जो भी हो मगर जबसे यह नए किरायेदार आये हैं इन्होने जीना हरम करके रक्खा हुआ है कभी पति गुस्से में पत्नी को लताडता तो कभी पत्नी अपनी कर्कशता दिखाती .मानो आंधी और सुनामी एक साथ इस घर पर कहर बरसाने के लिए उपरवाले ने भेज दीये  हों .कल ही की बात है पत्नी चाय मेज पर पटकते हुए चिल्लाई –“लो सुडको चाय आते ही आदेश देने शुरू कर दिए ,मैं तो दिन भर पलंग तोडती हूँ मेरा काम किसी को नहीं दीखता सुबह पांच बजे से बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करो ,खाना बनाओ सफाई करो यह करो वो करो (अपने दिन भर के कामों को गिनाते हुए)“ पति –“(झुंझलाकर )बकर बकर बंद करो ,दिनभर की कें कें कें ,आने की देर नहीं हुई और दिमाग ख़राब करना शुरू “पत्नी –“मुझे तुम्हारी यह पसीने में नहाई हुई काली शक्ल देखने का शौक नहीं तुम्हे चाय देने आई थी “पति-“रखो चाय और दफा हो यहाँ से “पत्नी पैर पटकते हुए –“क्यूँ दफा हो जाऊं याद रखो जिस दिन इस घर से गयी सब कुछ आधा आधा लेकर जाउंगी समझे ?”इतने में बच्चा खेलते खेलते आया और उसकी बौल  से चाय का कप हिल गया .पहले पति और फिर पत्नी ने उसकी कसकर धुनाई कर डाली ,अरे जनाब बच्चे की धुनाई क्या अपनी भड़ास दोनों मिलकर उस मासूम पर उतार रहे थे .और फिर उसके बाद पति पत्नी का शोर बच्चे के ब्रह्माण्ड हिला देने वाले रुदन में कहीं गुम हो गया. इन सभी झगड़ों का मूल इन पति पत्नी का अहम् था इनके अन्दर इतना अहम् भरा हुआ था कि कोई भी झुकने को तैयार नहीं कोई भी चुप होने को तैयार नहीं ,ऐसा नहीं है कि किसी ने भी इन्हें समझाया ना हो .खुद विनय बाबू की पत्नी मालती को और विनय बाबू मुकेश को आदर्श विवाह की अवधारणा ,पति पत्नी का समर्पण और प्रेम इत्यादि नैतिक मूल्यों से भरे कई उपदेश दे चुके थे .मगर यह कर्कश पति पत्नी का जोड़ा तो उन्हें “पर उपदेश कुशल बहुतेरे”समझ मानने को तैयार ही नहीं .जब भी इन्हें समझाने जाओ यह अपने ही जीवन साथी के जीवन की ऐसी बखिया उघाड़ते कि शर्म भी इनसे शरमा के भाग जाए .इनदोनो से ही इनकी पिछली जिन्दगी का सच विनय बाबू को ज्ञात हुआ .दरअसल मुकेश और मालती की यह दूसरी दूसरी शादी थी ,मुकेश की पहली पत्नी उसके गाली गलौंच और हाथापाई की आदत से तंग आकर घर छोड़कर चली गयी थी और मालती को उसके कर्कश स्वाभाव की वजह से उसके पूर्व पति ने तलाक दे दिया था ,यह दोनों की दूसरी शादी थी .अपनी पहली शादी की असफलता के कारणों को ना इन दोनों ने जानने का प्रयास किया ना ही अपनी पिछली गलतियों से सबक लेकर अपने वर्तमान को सुधारने की कोशिश की .यह दोनों धोबी घाट  पर कपडे फटकते धोबी की तरह अपने विवाह को फटक रहे हैं ,बिना इस डर के की ज्यादा फटकने से कपडा फट जाएगा ,तार तार हो जाएगा .हर समय यही होता है की एक ने अगर कुछ तुर्रा छेड़ दिया तो दूसरा उसका दुगना कडवा नहीं बोल देगा जब तक चैन से नहीं बैठेगा .कभी कभी तो विनय बाबू उस वैज्ञानिक को कोसते जिसने यह सिद्धांत बनाया कि –“हर क्रिया की कोई ना कोई प्रतिक्रिया होती है “ यह मूर्ख शादीशुदा जोड़ा कैसे इस सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ा रहा है कोई विनय बाबू के घर जाकर देखे . कहते हैं कि विवाह में पति पत्नी के गुण आपस में मिलने चाहियें मगर देखो गुण मिलने का दुष्परिणाम .अब इस मोहल्ले का तो कोई व्यक्ति विवाह के समय गुण नहीं मिलवायेगा  .यह सोचते ही तनाव में भी विनय बाबू के चेहरे पर हँसी की रेखा खिल उठी .पति पत्नी अगर एक दूसरे के साथ एकत्व बनाकर रहे तो यह जोडी अर्धनारीश्वर की जोड़ी कहलाती है और यदि मुकेश और मालती की तरह अपने अहम् और अकड में लड़ाई भिड़ाई ,काट्मकाट करें तो शनी और राहू बन जाते हैं जो कि जिस स्थान पर बस जाएँ उसका तो बेडा गरक ही समझो .सबसे ज्यादा नुक्सान इनके बच्चे का है जिससे अगर यह पूछा जाए कि बेटा विश्व युद्ध किसके मध्य हुआ ? तो उसका जवाब हमेशा उसके माता पिता ही होंगे .अपने माँ बाप के झगडे से बचने के लिए नन्हा बालक अक्सर पडौसियों के घर चक्कर लगाता है और पडौसी भी इस नन्हे नारद का फायदा उठाने से नहीं चूकते .आखिर हम इंसानों में इतना अहम् होता ही क्यूँ है ?क्यूँ हम इसे अपनी खुशियों ,सुख और शांति से ज्यादा तबज्जो देते हैं ,हमारा अहम् वो हिटलर है जो हमारी जिन्दगी पर एक बार हावी हो जाए फिर तब तक शासन करता है जबतक कि वह हमारी जिन्दगी को क्रूरता पूर्वक तहस नहस ना कर दे .विवाह दिल का रिश्ता है तो इस पर पर जहन के जाये अहम को शासन क्यों करने देता है मनुष्य .मुकेश को गुमसुम देखकर लगता है कि वह अपनी पूर्व पत्नी और वर्तमान पत्नी में तुलना करके अपने आपको मन ही मन कोसता है कि क्यूँ उस बेचारी गाय जैसी महिला को इतना तंग किया कि वो घर छोड़कर विवश हो गयी .और मालती जो कि देखने में गौर वर्ण और बढ़िया नाक नक्श वाली है अपने अहम् के चलते किसी पुरुष की प्रिया ना बन सकी और इस अहम् ने भी उसके चहरे पर हमेशा खूंखार भाव लाकर उसकी सारी  सुन्दरता को लील लिया है .कैसा जिद्दी है इंसान अपना सब कुछ  खोकर,अपनों को खोकर  भी अपने दुश्मन अपने अहम् को पाल रहा है .और बेवक़ूफ़ इतना कि इसे  छोड़ने को तैयार नहीं .ठीक उस कंजूस महाजन … Read more

ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा

ढिगली  पल्स पोलियो अभियान में  सत प्रतिशत  बच्चों को पोलियो की खुराक पिलाई जा सके अत: 70 आंगनवाड़ी वर्करों व स्वास्थ्य विभाग के कर्मियों की मीटिंग रखी गई। पीएमओ डॉ. विजय मालवीय ने स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों के साथ-साथ आंगनवाड़ी वर्करों को कल से तीन दिवसीय चलने वाले प्लस पोलियो अभियान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी।   हालाँकि हम स्वास्थ्य विभाग के कर्मियों को तो ज्यादातर पता रहता है कैसे क्या करना है, अत: पीऍमओ साहब का ख़ास संबोधन आंगनवाडी के कार्यकर्ताओं के लिए ही था। उन्होंने वर्करों को समझाया कि किस प्रकार से बच्चों को पोलियो की दवा पिलानी है। कैसे-कैसे कहाँ-कहाँ से शुरू करना है , कहाँ ख़त्म करना है । शहर में कूल  120 बूथ बना दिए इसके अतिरिक्त कुछ मोबाइल टीम भी गठित कर दी गई । जो बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने के लिए ईंट भट्ठों व अन्य आबादी से बाहर  बन रही बहुमंजिला इमारतों, दूर शहर से ग्रामीण क्षेत्रों तक जुड़ती सड़को पर चल रहे नरेगा, कच्ची बस्तियों ,पहाड़ियों वाले क्षेत्रों में दवा पिलाने का काम करें।  उषा शर्मा व दिलीप देव के साथ मुझे हिरणमगरी सेक्टर चार-पांच का जिम्मा सौंपा गया ।  सारे कर्मचारी दूसरे दिन सुबह अपने-अपने निर्धारित केन्दों पर कैसे,कब निकलेंगे तय करने लगे।   हम तीनों ने भी तय कर लिया सुबह आठ बजे कहाँ मिलना है.. कहाँ से, किस तरह शुरू करेंगे। सुबह दस बजे तक हमारा काम बड़ी फुर्ती से होता है । उस वक्त अधिकांशत: पुरुष घर पर ही होते हैं इस कारण या तो घरों के दरवाजे खुले मिल जाते हैं, नहीं मिले तो भी महिलाओं को उस समय दरवाजा खोलने में ज्यादा हिचकिचाहट या अन्य कोई  आशंका नहीं होती । ज्यादा सवाल जवाब भी नहीं होते अधिकतर पुरुष सरकार की इस योजना के बारे में जानते हैं । जानती तो पढ़ी लिखी महिलाएं भी हैं पर अधिकतर पढ़ी-लिखी महिलाएं भी नौकरी धंधे में होने के कारण सुबह फटाफट घर का काम निपटाने में लगी रहती है । फिर नौकरी पर चली जाती हैं  पीछे बुजुर्ग महिलाएं बच्चों की देखभाल करती घर पर मिलती हैं । कुछ घरों में जवान महिलाएं घर पर होते हुवे पति के ऑफिस या काम धंधे पर चले जाने के बाद  दरवाजा खोलने के लिए सास को ही भेजती है या यूँ समझलो बहू को पीछे धकेलती हुई  सास ही आगे आती है अपने वीरता, अनुभवों व ज्ञान की प्रदर्शनी करने । सास जी धीरे-धीरे आती दस सवाल अन्दर से दाग कर फिर दरवाजा खोलती है, खोल कर पुन: बीस सवाल और दागती है  कुछ महिलाएं सास की ओट में खड़ी चाह कर भी किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे पाती । खैर आज तो स्तिथि बहुत बदल गई ..पर शुरू-शुरू में जब मैं नौकरी में आई ही थी उन दिनों इस अभियान से जुड़ कर जब दूर बस्ती में जाते थे तो हमें दूसरी दुनिया का प्राणी जान कर बड़े अजीब अंदाज से देखा जाता था ,बड़ा तल्ख़ व्यवहार भी किया जाता था । तब तो हमें उसी गाँव बस्ती का कोई मुख्या भी साथ में लेना होता था लोगों को समझाने बुझाने के लिए । कई कई जगह तो यह अफवाह भी फैली हुई थी कि यह दवा पिलाने से बड़े होकर बच्चे नपुसंक हों जायेंगे, व लड़कियों में माहवारी की दिक्कत आएगी कम बच्चे पैदा हों इस वास्ते सरकार ने ऐसी योजना चलाई है ..  ऐसी भ्रांतियां दूर करने के लिए एक-एक परिवार को कितनी-कितनी देर समझाना बुझाना पड़ता था क्या बताऊँ  कछ हमसें नहीं समझते उन्हें साथ चला गाँव का मुख्या समझाता कोई कोई तो तब भी नहीं समझते आज बहुत बदलाव आया है, बहुत जागरूक हुवे हैं लोग  हालाँकि समय के साथ सब कुछ काफी बदला है पर शक की नजर से तो आज भी देखा जाता है हमें । जिन-जिन घरों के लोग हमें शक्लो सूरत से जानने लगे हैं वो तो थोड़ा ठीक-ठाक व्यवहार करते हैं। पर हमारी बस्ती तो हर बार बदल दी जाती है कम या ज्यादा यह अजनबियत का व्यवहार व संकोच की दृष्टि तो हमें हर बार मिलती है ।लगभग दुत्कार भरा आचरण तो हर बार ही दो चार जगह देखना भोगना,सहना होता ही है जो अब एक तरह से इस नौकरी का अंग बन गया नियति या नौकरी का हिस्सा मान कर हर माह दो,तीन दिन यह संत्रास भी भोग लेते हैं । आज दोपहर बारह बजे तक तो हमने हर संभव कोशिश की फटाफट घर-घर दवा पिला दें   पर महिलाएं खिड़की की ओट में से झांकती, दरवाजे के छेद में से देखती, यह सुविधा न होने पर छत पर चढ़कर मुंडेर से झांकती है । इस तरह दरवाजा खोलने में जाने कितनी-कितनी देर लगा देती फिर भी आँखे फाड़-फाड़ मुंह को लटका कर करकराती आवाज में चिडचिडाती जाने क्या जानना चाहती है हमारे बारे में .. । दोपहर दो बजे बाद तो लगभग हर घर की महिला घंटी बजने के साथ दोपहर की सुस्ताती नींद में दरवाजा खोलती है तो वक़्त चार गुना जाया हो जाता है उनकी नींद उड़ाने व बच्चे को दवा पीलाने में .. । कहीं बच्चा नींद से जगाये जाने पर रोने लगता है तो कहीं माएं या दादियाँ बच्चों को जगाने से साफ़ मना कर जाती है । अभियान पर निकलने से पहले ही यह सब सोच-सोच कर मन झूंझलाता तो बहुत है पर  कर कुछ भी नहीं सकते .. । इस वक्त  कुछ गर्मी  बढ़ रही है एक बजते-बजते तो पसीने से तर होने लगे हैं, बार-बार गला भी सूखने लगा .. । अपनी-अपनी गलियां निपटाते हुवे मैंन सड़क पर फिर बार-बार मिल जाते हैं हम लोग,फिर अलग-अलग गलियां बाँट लेते हैं, फिर अपने-अपने टारगेट में जुट जाते हैं जब-जब मिलते हैं तीनों मिलकर चाय पानी पी लेते हैं ,तीनों का साथ लाया पानी भी खत्म हो गया  । अभी तक शहरी इलाके में हैं बारी-बारी तीनों ने एक-एक बोतल बिसलरी की भी खरीदी, दो बार चाय की थड़ी पर बैठ कर चाय भी पी चुके हैं… । गलियां ..घर.. बच्चे तलाशते,निपटाते दोपहर के दो बज गए। सेक्टर चार के राजीव गाँधी पार्क में अमलतास के पेड़ के नीचे गुदगुदी हरी नर्म दूब पर बैठ हम तीनों ने दोपहर का … Read more

ममता

ममता यूँ  तो  शीतल  को  अपने  ससुराल  में  सभी  भले  लगे  लेकिन  उसकी  बुआ सास की  लड़की  हर्षदा  न  जाने  क्यों  बहुत  अपनी-सी  लगती  थी|  हर्षदा उम्र  में  उससे  कम  थी पर  अत्यंत  परिपक्व  व  शालीन  थी |  साल दर साल  गुजरते  गए  पर  शीतल  को  माँ  बनने   का सौभाग्य  न  मिला |  मिले  तो  बस  सवाल  ही  सवाल-  ससुराल  में  भी , मायके  में  भी|  हर्षदा उससे  सखी  का  सा  बर्ताव  करती |  शीतल  उसके  पास   रोकर  अपना  दाह शांत  कर  लेती |  शादी  कि  दसवीं  वर्षगाठ  पर  उसे  बहुत  बधाइयाँ मिली  पर  जब  उसने  अपनी  बहनों  से , ननदों  से  एक  बच्चा  उसकी  गोद में  डाल  देने  का  आग्रह  किया  तो  सबने  अपने  कारण  गिना  दिए |सास-ससुर  को  परिवार  से  बाहर  का  शिशु  गवारा  न  था |  उसके  आसुओं के  सागर   में  हर्षदा ने  यह  कहकर  एक  आशा  नौका  डाल  दी  कि भविष्य  में  वह  अपना  बच्चा  शीतल  को  देगी |        विधि  का  विधान- जल्दी  ही  हर्षदा  के  विवाह  की  तारीख  पक्की हो  गई |  शीतल  ने  जब  उसे  उसका  वचन  याद   दिलाया  तो  हर्षदा  ने स्पष्ट  किया  कि  उसके  मंगेतर  नवीन  से  उसने  बात  की  है  और  उन दोनों  ने  फैसला  लिया  है  कि  वे  अपना  दूसरा  बच्चा  शीतल  को देंगे |   पहला  बच्चा  वे  स्वयं  रखेंगे |  समय  पंख  लगाकर  उड़ा | तमाम इलाज  व  पूजा -पाठ  के  बाद  भी  शीतल  नाउम्मीद  ही  रही |  उधर हर्षदा   के  गर्भ  में  शीतल  की  उम्मीदें  पलने  लगी |  हर्षदा सोचती  यदि  प्रथमतः  पुत्री  हुई , फिर  दुबारा  लड़का  हुआ  तो  वह भाभी  का  होगा  पर  क्या  उसके  सास-ससुर  पोते  का  मोह  छोड़  देंगे | फिर  उसे  तो  अपने  लिए  बेटी  ही  चाहिए  थी |  शिशु  चाहे  बेटा  हो या  बेटी  पर  स्वस्थ ,सुंदर  व  तेजस्वी  हो |  उसके  चिंतन  का  तो अंत  ही  नहीं  था  पर  पूरे  नौ  महीने  उसने  शांतचित्त  हो ,प्रसन्नतापूर्वक  धार्मिक  ग्रंथो  का  अध्ययन  किया , सकारात्मक  भावो का  पोषण  किया | लेबर रूम  में  वह  आश्चर्यचकित  रह  गई  जब  अत्यंत  पीड़ा की  अवस्था में,  तंद्रा  में  उसे  समाचार  मिला  कि  उसने  जुड़वाँ  पुत्रों  को जन्म  दिया  है |   यह  किसी  चमत्कार  से  कम  न  था ।  जब  नवीन उन्हें  देखने  आये  तो  उसने  संयत  स्वर  में  कहा  कि  भगवान  ने  एक बच्चा  भाभी  के  लिए  ही  भेजा  है |  हम  दोनों  को  ठीक-से   संभल भी नहीं  पायेंगे |  नवीन  ने  अपनी  माँ  की  झिझक  के  बावजूद  भी स्वीकृति  दे  दी |  उसने  स्वयं  शीतल  को  फोन  किया |  जब  डॉक्टर बच्चो  का  चेक-अप  करके  बाहर  निकले  तो  हर्षदा  ने  नवीन  को  वार्ड में  बुलाया  और  गुरूजी  द्वारा  प्रदत्त  धागा  एक  बच्चे  की  कलाई पर बांधा   और  बोली “ये  हमारा  अर्जुन  है  और  वो  रहा  शीतल  भाभी  का बेटा |” शीतल  के  तो  मानो  पैर  ही  जमीं  पर  नहीं  पड़  रहे  थे | गाजे-बाजे   के  साथ  वो  बेटे  को  घर  ले  गई |   अभी  तो  उसे जन्मोत्सव  मनाकर  अपने  ढेरों  अरमान  पूरे  करने  थे |  हर्षदा  पर  तो मानो  उसने  आशीर्वाद  व  शुभकामना  की  झड़ी  ही  लगा  दी |                                                                 शीतल के  पास  तो  अब  कोई  बात  ही  नहीं  होती  थी सिवा  उसके  बेटे  वासु के  कार्यकलापों  के |  अब  वो  बैठना  सीख  गया , उसने  कब  पहली  बार माँ  कहा – वो  बस  चहकती  ही  रहती |  हर्षदा  की  विशेष  देखभाल  व इलाज  करवाने  के  बाद  भी  अर्जुन  ठीक  से  चल  नहीं  पाता  था हालाँकि  मानसिक  रूप  से  वह  पूर्ण  परिपक्व  था |  नवीन  ने  इसे नियति  माना  कि वासु  भाभी  की  गोद  में  है |  पर  हर्षदा  हार  मानने वाली  नहीं  थी |  उसने  अर्जुन  को  पूर्ण  शिक्षा  दिलवाने  के  साथ साथ  उसके  रूचि  के  क्षेत्र  को  विकसित  किया |  उसने  जान  लिया  कि  व्हील  चेयर  पर  निर्भर  होने  के  बावजूद  भी  अर्जुन  की  रूचि निशानेबाजी  में  है |  उसने  अपनी  जमापूंजी  से  घर  में  ही  शूटिंग रूम  बनवाया |  सुयोग्य  कोच  की  सेवायें  ली |  वो  निरंतर अर्जुन  को प्रोत्साहित  करती|  उसे  लक्ष्य  के  प्रति  एकाग्र  होना  सिखाती | माँ -बेटे की  मेहनत  रंग  लाई  जब  छोटी  उम्र  में  ही  पेराओलम्पिक में  अर्जुन  ने  शूटिंग  में  स्वर्ण  पदक  जीतकर  देश  का  मान  बढ़ाया |  गौरवान्वित  माता -पिता  एयरपोर्ट  के  रास्ते  में  थे , अपने विजेता  पुत्र  की  अगवानी के  लिए |  नवीन  ने  सहज  ही  पूछ  लिया हर्षदा, वासु  का पूर्ण  विकास  देखकर  कभी  तुम्हें  नियति  पर  क्षोभ नहीं  हुआ ? ” हर्षदा ने  आत्मविश्वास  के  साथ  जवाब  दिया “क्षोभ  कैसा? ये  मेरा  अपना  फैसला  था |  मैंने  आजतक  किसी  को  नहीं  बताया | डॉक्टर  ने  चेक -अप  बताया  कि  अर्जुन  शारीरिक  रूप से  कुछ  कमतर होगा  तभी  तो  गुरूजी  का  दिया  धागा  मैंने  उसे  बांधा  उसकी विशिष्ट  पहचान  के  लिए ।” नवीन  ने  प्रतिप्रश्न  किया “शीतल  भाभी  से  तुम्हें  इतना  स्नेह  था  पर  उन  पर  विश्वास  नहीं  था  कि  वोअर्जुन  को  उसकी  कमजोरी  की  वजह  से  पूर्ण  ममता  नहीं  देगी ?”हर्षदा गम्भीरतापूर्वक  मुस्कराई “शीतल  भाभी दयावश  ममता  तो  पूरी लुटाती  पर  मुझे  डर  था  कि कहीं  वो  उसे  भावनात्मक  व  मानसिक धरातल पर कमजोर  बना  देती |  उसकी प्रतिभा  को  निखार  नहीं  पाती।  मेरी  तरह  कठोर  नहीं  हो  पाती | “              हर्षदा के  इस  रहस्योद्घाटन  पर  नवीन  अवाक्  था  पर  साथ  ही  नतमस्तक  था  अपनी  अर्धांगिनी  की  इस  दृढ़ता  पर , त्याग और समझदारी  पर | रचना व्यास  शिक्षा :         एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए मेरी  प्रेरणा : जब  भीतर  का  द्र्ष्टापन  सधता  है  तो  लेखनी  स्वतः प्रेरित  करती  है| अटूट बंधन

एक प्यार ऐसा भी (कहानी -श्वेता मिश्रा )

एक प्यार ऐसा भी  (कहानी ) आप बहुत निष्ठुर हैं’…अवि ने चारू से कहा ……. चारू हैरत भरी निगाहों से अवि का चेहरा देखने लगी ….. . और दिल ही दिल में सोचने लगी की ऐसा क्या किया उसने जो अवि ने उसे ‘निष्ठुर’ कहा …. . अवि को अपने पेरेंट्स के साथ आये अभी दो दिन ही हुए हैं और घर भी उसका अभी ठीक से सेटल नहीं हो पाया है .फिर उसने किस बात को लेकर ये बात कही ..वो समझ नहीं सकी ! शाम को चारू कॉरिडोर में अपनी स्टडी में बिजी थी तभी वहां अवि आ पंहुचा और उसने चारू से कहा की आप ‘बहुत बहुत निष्ठुर हैं’ .तो चारू ने उससे पूछा की वो उसे ऐसा क्यों कह रहा है , उसने ऐसा क्या कर दिया …… अवि बोला आप कितनी भोली हैं .आपके इसी भोलेपन पर तो मैं मरता हूँ .आप मेरी जिंदगी का पहला प्यार  हो मैं आपको कभी नहीं भूल सकता ….. चारू के तो पैर के निचे से मानो ज़मीन ही खिसक गई हो …. ये क्या पागलपन है ….तुम होश में तो हो …… मैं तुम से उम्र में बड़ी हूँ … .ये कैसे हो सकता है .तुम जाओ यंहा से मुझे पढने दो कल मेरा एग्जाम है .चारू ने अविनाश से कहा …. कितनी बड़ी हैं आप एक साल दो साल कितने साल ??? मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता …दो दिन मुझे इस शहर में ,आपके घर में आये हो गया पर आपकी एक भी झलक नहीं मिली मैं कितना बेचैन था आपकी सिर्फ एक झलक के लिए . अगर आप सामने आ जाती तो क्या चला जाता आप का ???? .जाने क्या – क्या कह गया अवि . चारू को कुछ भी समझ नहीं आया …. . वो अब एक नई उलझन में उलझने लगी थी .. अवि ने कहा जब से मैंने होश संभाला है बस आप से ही प्यार करता आ रहा हूँ और आपको ही प्यार करता रहूँगा .. ये सब फालतू बातें हैं … इसे भूल जाओ और जा कर पढाई करो तुम अभी बच्चे हो .. ऐसा सुनते ही अवि ने चारू का चेहरा अपने हाथो में ले लिया और कहा देखिये मेरी इन आँखों में आपको प्यार नहीं दिखाई देता … .ये बस आपके लिए है .. .इतने सालो से मैं जिस आग में जल रहा हूँ मैं ही जानता हूँ .. वैसे भी सालो पहले आप मुझे रोता हुआ छोड़ के चली आई थी और एक बार भी पीछे पलट कर भी नहीं देखा था …………चारू हतप्रत सी अवि का चेहरा देखने लगी ये कब की बात है मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम .. तुम कह क्या रहे हो .चारू ने अवि से कहा . जब हम सालो पहले एक ही शहर में थे . जब आप और छोटी थीं ,और हम साथ साथ अपने ढेर सारे फ्रेंड्स के साथ खेला करते थे ,और सारी लड़कियां मेरे पीछे रहती थी और मैं आप के . ..अवि ने बताया . चारू इतना सुनते ही जोर से हसने लगी .और फिर बोली ये तो बचपन की बातें हैं और तुम तो अब भी बचपन में ही हो .इतना कह कर वो अपने कमरे में चली गई . अवि उधर एक बार फिर दुखी हो गया ..उसे लगने लगा की चारू उसकी फीलिंग्स को क्यों नहीं समझना चाहती .क्या उसके प्यार में कोई कमी है ऐसे ढेरों सवाल में खुद ही घिरने लगा . आज पुरे एक हफ्ते हो गए लेकिन उसे चारू कंही दिखाई नहीं दी . अवि ने सोचा आज कुछ भी हो वो चारू से मिल के ही रहेगा और वो उसके कमरे में जा पंहुचा . चारू उसको देख घबरा गई बोली तुम यहाँ क्यों आये हो तुमको शायद मालूम नहीं मेरी शादी होने वाली है…मेरी जिंदगी खुद मेरी नहीं हैं .मैं अपने पेरेंट्स को कोई भी दुःख नहीं दे सकती .तुम यहाँ से जाओ .. .पर अवि कुछ बोल न सका और वहां से चला गया … चारू आज शहर से बाहर  जा रही थी .अवि को बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था .अवि उसे सी ऑफ  करने के लिए उसकी कार के पास ही खड़ा था .चारू ने एक बार फिर उसकी तरफ नहीं देखा और वो चली गई . रस्ते में ही चारू का एक्सीडेंट हो गया और वो जैसे मौत के मुह से बाहर  आ गई हो अब तो उसके घर में सिम्पैथी  देने वालो की लाइन ही लगी रहती अवि को भी मौका अच्छा मिल गया अब उसके करीब जाने का इसी दौरान चारू की शादी भी कैंसिल हो गई . मिलते मिलते अवि ने अपना प्यार तो चारू के दिल में जगा  तो दिया पर चारू इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकी ….. चारू ने अवि से पूछा की वो उसे ‘निष्ठुर’ क्यों कहता है . अवि ने कहा मेरी feeling आप जो नहीं समझती .पर आप से मिलने के बाद मुझे बहुत बुरा लग रहा है मैंने आपको क्यों कहा सॉरी प्लीज मुझे माफ़ कर दीजिये बातें बढ़ने लगी . और एक दिन अवि ने चारू से बताया की उसे कभी उम्मीद ही नही थी की वो उसे कभी दुबारा जिंदगी में उससे मिल भी पायेगा सो हर चेहरे में वो उसका ही चेहरा तलाशता था और उसी तलाश में उसे एक फ्रेंड भी मिल गई है .ये बात चारू को अच्छी लगी चारू मुस्कुराई और बोली तब तुम फिर भी मेरे पीछे क्यों हो ???? . अवि बोला आप नहीं समझ सकती ……..काश !आप ये समझती तो ये सवाल ही न करती .आप उम्र में मुझसे बड़ी जरुर हैं पर शायद आज तक आप बच्ची ही हैं इसीलिए तो मैं आप पर मरता हूँ . पर जब भी चारू अवि से मिलती बस एक ही बात कहती ये सब पागलपन है तुम्हारा आज नहीं तो कल मेरी शादी हो ही जाएगी फिर तुम और राशि …..पर तुम्हारे सामने एक ही प्रॉब्लम है तुम्हारे पास अभी कोई जॉब नहीं है अब बस तुम एक अच्छी सी जॉब ज्वाइन कर लो और राशि से शादी कर लो….. समय बिताता गया दोनों एक दुसरे से मिलने लगे सारे शिकवे गिले भी मिटने लगे थे अवि चारू को कभी बचपन की … Read more

दो चोर (कहानी -विनीता शुक्ला )

गीतांजलि एक्सप्रेस  धीरे धीरे पटरियों पर सरकने लगी थी।  देखते ही रंजन अपने फटीचर सूटकेस के संग दौड़ पड़ा। दौड़ते भागते किसी तरह वह अपने कम्पार्टमेंट में घुस ही गया। हावड़ा स्टेशन पर भीड़ का जमावड़ा इतना ज्यादा था कि इस काम के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी उसे। पसीने पसीने होकर हांफता हुआ जब वह अपनी सीट तक पहुँचा तो सामने बैठे भद्र पुरुष ने अखबार से मुँह निकाला और एक प्रश्नवाचक  दृष्टि से उसे देखा। “जैसे तैसे ट्रेन पकड़ पाया हूँ।” अपने स्थान पर बैठते हुए उसने खिसियाहट भरे स्वर में उन सज्जन को बताया। “तो ये आपकी ही सीट है?” उन साहब ने उससे सहानुभूति जताने के बजाय फट से सवाल दाग दिया था। “जी?” उसने इस विचित्र प्रश्न  को सुनकर आश्चर्य से पूछा। “नहीं नहीं कुछ नहीं।” कहकर वे महानुभाव फिर से अखबार में गुम हो गये। “बहुत खूब रंजन मित्राॐ ” उसने अपनेआप से कहा“एक तो सेकेंड क्लास का घटिया सफर और उस पर इस खूसट आदमी का साथ।” सूटकेस को सिरहाने रखकर वह बर्थ पर पसर गया और यूँ ही कुछ गुनगुनाने लगा। इस बार श्रीमानजी ने कनखियों से उसे देखा था। उसे अपनी तरफ देखते पाकर वे झेंपे और फिर से दैनिक पत्र में मुँह छिपा लिया। मित्रा से रहा न गया। उनसे मुखातिब होकर बोला “भाईसाहब ज़रा सुनिए।” “कहिए” “ये ट्रेन बिलासपुर कब पहुँचेगी?” “पहुँचने का टाइम तो पाँच बजे के आसपास का हैै। देखिये कितने बजे तक पहुँचती है।” “चली तो राइट टाइम पर ही थी।” “हूँ” महाशय ने एक रूखी सी प््रातिक्रिया की और झोला लेकर ट्वायलेट की तरफ बढ़ चले। कहानी -काकी का करवाचौथ रंजन कटकर रह गया। उसके भाई प्रत्युष  के अनुसार रंजन के लिए सबसे बड़ी सज़ा थी– उसे ऐसी जगह पर बैठा देना जहाँ वो किसी से बोल–बतिया न सके। आज तो वाकई यही हाल था। ले–देकर एक सहयात्री मिला और वह भी नपी–तुली सी बात करने वाला। पिछले कुछ दिनों से उसके सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। उसके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। चाहकर भी ए. सी। का टिकट नहीं मिल सका। ट्रैफिक की वजह से ट्रेन भी छूटते छूटते बची। उस पर मुम्बई तक का ये लम्बा सफर वो भी गर्मी में,  उसने अपने ‘भिखारी मार्का’ सूटकेस पर एक नज़र डाली। मन ग्लानि से भर गया। पढ़ाई के चक्कर में उसका ध्यान कभी अपने सामान की साज–संभाल करने की तरफ गया ही नहीं। पर आज पहली बार उसे शिद्दत से इसकी जरूरत महसूस हो रही थी। मुम्बई पहुँचने पर सबसे पहले वो एक नया सूटकेस खरीदेगा। हो सके तो एक बढ़िया शर्ट और टाई भी।  आखिर नौकरी के लिए इंटरव्यू देना है। आजकल तो कैंडिडेट की क्वालिफिकेशन बाद में देखी जाती है और ‘गेटअप’ पहले। यह सब सोचते विचारते हुए अचानक उसकी नज़र सामने वाली बर्थ पर पड़े समाचार पत्र की तरफ चली गई। ‘गीतांजलि एक्सप््रोस में चोरी की वारदातें’ इस सुर्खी को देखकर वह दंग रह गया। जिज्ञासावश पास खड़ा होकर पढ़ने लगा ‘हावड़ा से मुम्बई जाने वाली गीतांजलि एक्सप््रोस में आए दिन चोरी और लूटपाट के समाचार मिले हैं। चोर बाकायदा टिकट कराके ट्रेन में चढ़ता है और रातबिरात यात्रियों का सामान लेकर चम्पत हो जाता है।’ उसे ध्यान आया कि जब वो रिजर्वेशन करा रहा था तो पड़ोसन भाभी ने भी उससे कहा था“देख रंजू जिस रूट से तू जा रहा है उस पर कई ‘केस’ं हो चुके हैं। संभलकर रहियो।” मित्रा का दिमाग इस बारे में और कुछ सोच पाता इसके पहले ही अखबार वाले भाईसाहब की ‘एंट्री’ हो गई। रंजन को अपनी सीट के पास देखकर उन्होंने कुछ अजीब सा मुँह बनाया और रुक्ष स्वर में पूछा “क्या हुआ?” “कुछ नहीं…” उनके हाव भाव देखकर वह सहम सा गया और वापस अपनी जगह पर जा बैठा। उन्होंने अपने टिफिन से कुछ निकाला और जुगाली करने लगे। यह देखकर रंजन के पेट में भी चूहे दौड़ने लगे। माँ अस्वस्थ थीं सो इस बार खाना बांधकर नहीं दे सकींं। सोचा था कि चलने के पहले किसी अच्छे होटल से कुछ पैक करवा लेगा। पर वो नौबत ही कहाँ आ पाई  ऐन समय पर देवी मन्दिर वाले उसके घर के सामने वाले रास्ते पर जुलूस निकालने लगा  मानों सड़क उनके बाप की मिल्कियत हो ।  इतना चौड़ा मार्ग पर इंच भर भी हिलने डुलने की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी धर्म के उन ठेकेदारों ने फिर तो किसी तरह भागमभागी करके स्टेशन पहुँच पाने भर का समय ही बचा उसके पास। हताशा में थोड़ी देर यूँ ही वह आँखें मूंदे हुए बैठा रहा। कुछ समय बाद उसे जान पड़ा कि रेलगाड़ी की गति धीमी होती जा रही थी। वो निरुद्देश्य खिड़की से बाहर को ताकने लगा। लगता था कि कोई स्टेशन आने वाला था। ‘चलो पेट पूजा का जुगाड़ करते हैं ’ उसने खुद से कहा और उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर सामने वाले भाईसाहब ने अपना झोलानुमा बैग उठाकर बगल में रख लिया और आने जाने वालों को घूरने लगे। प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसने पूरी भाजी का दोना खरीदा और फिर आरक्षण तालिका पर एक नज़र डाली। अपना नाम रिजर्वेशन लिस्ट में पाकर वह आश्वस्त हुआ और खाने में जुट गया। बाद में कुछ छोटी मोटी खरीदारी भी की। कई यात्रियों और फेरीवालों को भीतर जाते देख उसके मन में खटका सा हुआ और तब उसने डब्बे के भीतर झांककर देखा। वो महाशय इस प््राकार झोले को सटाकर बैठे थे  मानों उसे कोई छीनने वाला था। उनसे निगाह मिलते ही उसे वितृष्णा सी होने लगी और मन में यह विचार उठने लगा कि यह आदमी कैसा अजब नमूना है। ट्वायलेट जाते समय भी बैग को नहीं छोड़ता। जरा देखूँ तो कि ये जनाब आख़िर हैं कौन। एक बार फिर रिजर्वेशन लिस्ट को जांचा तो पाया कि उसके सहयात्री का नाम शैलेश राय था और वह भी मुंबई तक ही जा रहा था। ‘क्यों न इन साहब के साथ हीे कुछ टाइम पास किया जाए’ ऐसा सोचकर वो कम्पार्टमेंट में घुस गया।  “बड़ी गर्मी है आज” अपना स्थान ग्रहण करते ही उसने फिर से शैलेश राय नाम के उस बंदे को कुरेद दिया। “हाँ सो तो है?” उदासीनता से भरा संक्षिप्त उत्तर मिला। ज़ाहिर था कि ‘राय साहब’ और … Read more

“एक दिन पिता के नाम “……… गडा धन (कहानी- निधि जैन )

                              “गड़ा धन” “चल बे उठ…. बहुत सो लिया… सर पर सूरज चढ़ आया पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही न लेती।” राजू का बाप उसे झिंझोड़ते हुए बोला। “अरे सोने तो दो… बेचारा कितना थका हारा आता है। खड़े खड़े पैर दुखने लगते और करता भी किसके लिए है…घर के लिए ही न कुछ देर और सो लेने दो..” “अरे करता है तो कौन सा एहसान करता है…खुद भी रोटी तोड़ता है चार टाइम”, फिर से लड़के को लतियाता है,”उठ बे हरामी …देर हो जायेगी तो सेठ अलग मारेगा…” लात घलने से और चें चें पें पें से नींद तो खुल ही गई थी। आँखे  मलता दारूबाज बाप को घूरता गुसलखाने की ओर जाने लगा। “एssss हरामी को देखो तो कैसे आँखें निकाल रहा जैसे काट के खा जाएगा मुझे..” “अरे क्यू सुबह सुबह जली कटी बक रहे हो” “अच्छा मैं बक रहा हूँ और जो तेरा लाडेसर घूर रहा मुझे वो…”और एक लात राजू की माँ को भी मिल गई।     लड़का जल्दी जल्दी इस नर्क से निकल जाने की फिराक में है और बाप सबको काम पर लगाकर बोतल से मुंह धोने की फिराक में।     लड़का जानता है इस नर्क से निकलकर भी वो नर्क से बाहर नही क्योकि बाहर एक और नर्क उसका रास्ता देख रहा है,दुकान पर छोटी छोटी गलती पर सेठ की गालियाँ और कभी कभी मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को।     यहाँ लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई।घर का खर्च चलाने को दूसरों के घरों में झाड़ू बर्तन करती थी। “लक्ष्मी तू उस पीर बाबा की मजार पर गई थी क्या धागा बाँधने…” मालकिन के घर कपडे धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी।     माला अधेड़ उम्र की महिला है और लक्ष्मी के दुखों से भली भाँति परिचित भी।इसलिए कुछ न कुछ करके उसकी मदद करने को तैयार रहती।    “हाँ गई थी… उसे लेकर..नशे में धुत्त रहता दिन रात..बड़ी मुश्किल से साथ चलने को राजी हुआ..” लक्ष्मी ने जवाब दिया “पर होगा क्या इस सब से….इतने साल तो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा की मजार….ये मंदिर…वो बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो करके देख लिया पर न ही कोख फलती है और न ही घर गृहस्थी पनपती है। बस आस के सहारे दिन कट रहे हैं।” कहते कहते लक्ष्मी रूआंसी हो गई।   माला ढांढस बंधाती बोली,”सब कर्मों के फल हैं री और जो भोगना बदा है सो तो भोगना ही पड़ेगा।” “हम्म..”बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी।    “सुन एक बाबा और है,उसको देवता आते हैं.. सब बताता है और उसी के अनुसार पूजा अनुष्ठान करने से बिगड़े काम बन जाते हैं।”       “अच्छा तुझे कैसे पता?”      “कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उसकी लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई। मुझे तभी तेरा ख़याल आया और उस बाबा का पता ठिकाना पूछ कर ले आई। अब तू बोल कब चलना है?”    “उससे पूछकर बताऊँगी…. पता नही किस दिन होश में रहेगा..”   “हाँ ठीक है,वो सिर्फ इतवार बुधवार को ही बताता है और कल बुध है,अगर तैयार हो जाए तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही,फिर हम साथ चलेंगे…मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है..”      लक्ष्मी ने हाँ भरी और दोनों काम निबटा कर अपने अपने रास्ते हो लीं।     लक्ष्मी माला की बात सुनकर खुश थी कि अगर सब कुछ सही रहा तो जल्दी ही हमारे घर की भी मनहूसियत दूर हो जायेगी। पर कही राजू का बाप न सुधरा तो…आने वाली संतान के साथ भी उसने यही किया तो..जैसे सवाल ने उस्की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की पर उसने खुद को संभाल लिया।       सामने आम का ठेला देख राजू की याद आ गई। राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है। सुबह सुबह बेचारा राजू उदास होकर घर से निकला था,आमरस से रोटी खायेगा तो खुश हो जायेगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूँगी,मन में ही सारे ताने बाने बुन, वो रुकी और एक आम लेकर जल्दी जल्दी घर की ओर चल दी।       घर पहुंचकर दोनों को खाना खिलाकर सारे कामों से फारिग हो राजू के बाप से बात करने लगी। दारु का नशा कम था शायद या आमरस का नशा हो आया था,वो दूसरे ही दिन जाने को मान गया।      दूसरे दिन राजू,रमेश (राजू का बाप) और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ लेकर बाबा के ठिकाने पर।        बाबा के दरवाजे पर कोई आठ दस लोग पहले से ही अपने अपने दुखों को सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे। एक एक करके सबको अंदर बुलाया जाता। वो लोग भी जाकर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए।      सभी लोग अपनी अपनी परेशानी में खोये थे। यहाँ माला लक्ष्मी को बीच बीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा व्यवहार करना है और समझाती इतनी जोर से कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुँच जाती। एक दो बार तो रमेश को क्रोध आया पर लक्ष्मी ने हाथ पकड़ कर बैठाये रखा।       करीब दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद उनकी बारी आई,तब तक पाँच छः दुखी लोग और आ चुके थे। खैर,अपनी बारी आने की ख़ुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ़ झलक रही थी यूँ लग रहा था मानो यहाँ से वो बच्चा लेकर और घर का दलिद्दर यहीं छोड़ कर जायेगी।        चारों अंदर गए। बाबा पूर्ण आडम्बरयुक्त थे।चारों ने बाबा को प्रणाम बोला।बाबा ने उनकी समस्या सुनी। फिर बाबा ने भगवान् को उनके नाम का प्रसाद चढ़ाया और थोड़ी देर ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर बाद बाबा ने जब आँखें खोली तो आँखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं। अब लक्ष्मी को विशवास हो गया था कि … Read more

उसके बाद ( कहानी-उपासना सियाग )

                                          गाँव दीना सर में आज एक अजीब सी ख़ामोशी थी लेकिन लोगों के मन में एक हड़कंपथा। होठों पर ताले लगे हुए थे और मनों में कोलाहल मचा  था। कोई भी बोलना नहीं चाह रहा था लेकिन अंतर्मन शोर से फटा जा रहा था। दरवाज़े बंद थे घरों के लेकिन खिडकियों की ओट  से झांकते दहशत ज़दा चेहरे थे …! आखिर ऐसा क्या हुआ है आज गाँव में जो इतनी रहस्यमय चुप्पी है …! अब कोई अपना मुहं कैसे खोले भला …!किसकी इतनी हिम्मत थी !       गाँव की गलियों के सन्नाटे को चीरती एक जीप एक बड़ी सी हवेली के आगे रुकी। यह हवेली चौधरी रणवीर सिंह की है। जीप से उतरने वाला भी चौधरी रणवीर सिंह ही है। उसकी आँखे जैसे अंगारे उगल रही हो  चेहरा तमतमाया हुआ है। चाल  में तेज़ी है जैसे बहुत आक्रोशित हो ,विजयी भाव तो फिर भी नहीं थे चेहरे पर। एक हार ही नज़र आ रही थी।      अचानक सामने उनकी पत्नी सुमित्रा आ खड़ी हुई और सवालिया नज़रों से ताकने लगी। सुमित्रा को जवाब मिल तो गया था लेकिन उनके मुंह   से ही सुनना चाह  रही थी।जवाब क्या देते वह …! एक हाथ से झटक दिया उसे और आगे बढ़  कर कुर्सी पर बैठ गए।      सुमित्रा जाने कब से रुदन रोके हुए थी। घुटने जमीन पर टिका कर जोर से रो पड़ी , ” मार दिया रे …!  अरे जालिम मेरी बच्ची  को मार डाला रे …!”    रणवीर सिंह ने उसे बाजू से पकड कर उठाने की भी जहमत नहीं की बल्कि  लगभग घसीटते हुए कमरे में ले जा धकेल दिया और बोला , ” जुबान बंद रख …! रोने की , मातम मनाने की जरूरत नहीं है। तुमने कोई हीरा नहीं जना था , अरे कलंक थी वो परिवार के लिए …मार दिया …! पाप मिटा दिया कई जन्मो का …पीढियां तर गयी …!”  बाहर आकर घर की दूसरी औरतों को सख्त ताकीद की , कि कोई मातम नहीं मनाया जायेगा यहाँ , जैसा रोज़ चलता है वैसे ही चलेगा। सभी स्तब्ध थी।     घर की बेटी सायरा जो कभी इन्ही चौधरी रणवीर सिंह के आँखों का तारा थी , आज अपने ही हाथों उसे मार डाला। “मार डाला …!” लेकिन किस कुसूर की सजा मिली है उसे …! प्यार करने की सज़ा मिली है उसे …! एक बड़े घर की बेटी जिसे पढाया लिखाया , लाड-प्यार जताया , उसे क्या हक़ है किसी दूसरी जात के लड़के को प्यार करने का …! क्या उसे खानदान की इज्ज़त का ख्याल नहीं रखना चाहिए था ? चार अक्षर क्या पढ़ लिए …! बस हो गयी खुद मुख्तियार …!  चौधरी रणवीर सिंह चुप बैठा ऐसा ही कुछ सोच रहा है। अचानक दिल को चीर देने वाली आवाज़ सुनाई दी। सायरा चीख रही थी …” बाबा , मत मारो …! मैं तुम्हारी तो लाडली हूँ …इतनी बड़ी सज़ा मत दो अपने आपको …! मेरे मरने से तुम्हे ही सबसे ज्यादा दुःख होगा। तुम भी चैन नहीं पाओगे …,”        सुन कर अचानक खड़ा हो गया रणवीर सिंह और ताकने लगा की यह आवाज़ कहाँ से आई। फिर कटे वृक्ष की भांति कुर्सी पर बैठ गया क्यूँकि यह आवाज़ तो उसके भीतर से ही आ रही थी। पेट से जैसे मरोड़ की तरह रोना फूटना चाहा।   लेकिन वह क्यूँ रोये …! क्या गलत किया उसने। अब बेटी थी तो क्या हुआ , कलंक तो थी ही ना …! कुर्सी से खड़े हो बैचेन से चहलकदमी करने लगा। “यह मन को कैसे समझाऊं कि इसे चैन मिले। किया तो तूने गलत ही है आखिर रणवीर …! कलेजे के टुकड़े को तूने अपने हाथों से टुकड़े कर दिए। किसी का क्या गया , तेरी बेटी गयी , तुझे कन्या की हत्या का पाप भी तो लगा है , क्या तू उसे और समय नहीं दे सकता था। ” अब रणवीर सोचते -सोचते दोनों हाथों से मुहं ढांप  कर रोने को ही था कि बाहर से आहट हुई , किसी ने उसे पुकारा था। संयत हो कर फिर से चौधराहट का गंभीर आवरण पहन बाहर को चला।    आँखे छलकने को आई जब सामने बड़े भाई को देखा। एक बार मन किया कि लिपट कर जोर से रो पड़े। माँ-बापू के बाद यह बड़ा भाई राम शरण ही सब कुछ था उसका।  मन किया फिर से बच्चा बन कर लिपट  जाये भाई से और सारा दुःख हल्का कर दे।   वह रो कैसे सकता था उसने ऐसा क्या किया जो दुःख होता उसको। सामने भाई की आँखों में देखा तो उसकी भी आँखों में एक मलाल था जाने कन्या की हत्या का या खानदान की इज्ज़त जाने का। चाहे लडकी को मार डाला  हो कलंक तो लग ही गया था।     दोनों भाई निशब्द – स्तब्ध से बैठे रहे। मानो शब्द ही ख़त्म हो गए सायरा के साथ -साथ। लेकिन रणवीर को भाई का मौन भी एक सांत्वना सी ही दे रहा था। थोड़ी देर बाद राम शरण उसके कंधे थपथपा कर चल दिया।   चुप रणबीर का गला भर आता था रह – रह कर , लेकिन गला सूख रहा था। आँखे बंद ,होठ भींचे कुर्सी पर बैठा था।  ” बापू पानी …” , अचानक किसी ने पुकारा  तो आँखे खोली। अरे सायरा …! यह तो सायरा ही थी सामने हाथ में गिलास लिए। उसे देख चौंक कर उठ खड़ा हुआ रणवीर। बड़े प्यार से हमेशा की तरह उसने एक हाथ पानी के गिलास की तरफ और दूसरा बेटी के  सर पर रखने को बढ़ा दिया। लेकिन यह क्या …?  दोनों हाथ तो हवा में लहरा कर ही रह गए। अब सायरा कहाँ थी ! उसे तो उसने इन्ही दोनों हाथों से गला दबा कर मार दिया था।हृदय से एक हूक सी निकली और कटे वृक्ष की भाँति कुर्सी पर गिर पड़ा।     रणबीर की सबसे छोटी बेटी सायरा जो तीन भाइयों की इकलौती बहन भी थी। घर भर में सबकी लाडली थी। जन्म हुआ तो दादी ना खुश हुई कि  बेटी हो गयी कहाँ तो वह चार पोतों को देखने को तरस रही थी और कहां सायरा का जन्म हो गया। तीन की पोते हुए अब उसके जोड़ी तो ना … Read more

डर (कहानी -रोचिका शर्मा )

                         रीना एक पढ़ी-लिखी एवं समझदार लड़की थी । जैसे ही उसके रिश्ते  की बातें घर में होने लगीं उसके मन में एक डर घर करने लगा , वह था ससुराल का डर। वह तो अरेंज्ड मॅरेज के नाम से पहले से ही डरती थी । फिर भी कुँवारी तो नहीं रह सकती थी । दुनिया की प्रथा है विवाह ! निभानी तो पड़ेगी । यह सोच उसने अपने पिताजी को बता दिया कैसा लड़का चाहिए । फिर क्या था पिताजी ढूँढने लगे पढ़ा-लिखा एवं खुले विचारों वाला लड़का । बड़ी लाडली थी वह अपने पिता की । एक दिन लड़का व उसके परिवार वाले उसे देखने आए । गोरा रंग, सुन्दर कद-काठी एवं रहन-सहन देख लड़का तो जैसे उस पर मोहित हो गया । और उसी समय रिश्ते के लिए हाँ कर दी । लड़के के माता-पिता ने भी अपने बेटे की हाँ में हाँ मिला दी । फिर क्या था चट मँगनी पट ब्याह । हाँ विवाह में ज़रूर रिश्तेदारों ने अपनी फ़रमाइशों व रीति-रिवाजों की आड़ में काफ़ी परेशान किया । रीना तो स्वयं रीति-रिवाजों और रिश्तेदारों से घिरी हुई थी सो उसे तो भनक भी न लगी कि शादी में कोई मन-मुटाव हो गया है । जब विदाई का समय आया अपने पिता की लाडली रीना ने एक आँसू न बहाया । सोचा उसके पिता को दुख पहुँचेगा और हंसते-हंसते विदा हो गयी । ससुराल के रास्ते में ही उसके पति ने उसे शादी में हुए मन-मुटाव के बारे में बताया । और समझाया कि रिश्तेदार नाराज़ हैं और हो सकता है उसे भला-बुरा कहें ।रीना को अरेंज्ड मॅरेज में जिस बात से डर था वही हुआ । जैसे ही वह ससुराल पहुँची सभी रिश्तेदारों की फौज  ने उसे घेर लिया और फिर ससुराल की रस्में शुरू हो गयीं । बात–बेबात कोई न कोई रिश्तेदार उस पर व्यंग्य करते और शादी की रस्मों को लेकर उस पर ताने मारते । ननद का तो मुँह पूरे समय फूला ही रहता  । अब वह ससुराल में डरी-सहमी ही रहती । सोचती पति न जाने कैसा होगा । फिर भी शायद माँ-पिताजी के दिए संस्कार थे या डर जिनके कारण वह मुँह भी न खोलती । बार-बार उसे अपने पिता की याद आती । कई बार आँखों से आँसू बह निकलते और वह सोचती क्यूँ किया विवाह ? इससे तो वह अपने घर में ही भली थी । एक माह बीत गया, सभी रिश्तेदार अपने–अपने घर जा चुके थे एवं ननद भी ससुराल जा चुकी थी । चुप-चापमूक बन वह मुँह नीचे किए सारा घर का काम करती एवं कभी-कभी अकेले में अपने पिता को याद कर रो लेती । शायद थकान के कारण या इतने काम की आदत न होने के कारण उसकी तबीयत बिगड़ गयी व उसे जुकाम ,बुखार हो गया । पाँच -छह दिन में तो उसकी हालत बहुत खराब हो गयी । डॉक्टर की दवा तो वह ले रही थी किंतु खाँसी थी कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सारा दिन एवं रात को वह खों-खों कर खाँसती रहती । तभी एक दिन उसके ससुर जी आए और बोले बेटा यह लो मैं ने अदरक का रस निकाला हैं थोड़ा इसे पी लो तुम्हारी खाँसी ठीक हो जाएगी । जैसे ही रीना ने ऊपर मुँह उठाया उसके ससुर उसे प्यार से देख मुस्कुरा रहे थे । उस प्यार भरी मुस्कुराहट को देखते ही रीना की आँखों में आँसू आ गये । उसे अपने पिता की  ही छवि ससुर जी में नज़र आई ।उसने झुक कर अपने ससुर के पैर छू लिए । ससुर ने उसे बोला बेटी मैं भी तुम्हारे पिता के समान हूँ और बेटियाँ पैर नहीं छूती । मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है । आज से इस घर में मैं ही तुम्हारा पिता हूँ , तुम्हें कोई भी तकलीफ़ हो तो मुझे बताना । रीना की आँखों में आँसू थे। उसे तो एक पिता का घर छोड़ते ही दूसरे घर में पिता मिल गये थे जिसकी उसने सपने में भी कल्पना न की थी । आँख में आँसू फिर भी वह मुस्कुरा रही थी । और वह डर हमेशा के लिए ख़त्म हो गया था ।                         रोचिका शर्मा, चेन्नई डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी                         (www.tradingsecret.com) अटूट बंधन ………..हमारा फेस बुक पेज