पागल औरत (कहानी )
पागल औरत रूपलाल बेदिया लखनी जिस मोड़ पर खड़ी है, उस जगह निर्णय कर पाना कठिन है कि क्या किया जाए| किसी मोड़ से आगे कोई रास्ता नजर न आए तो आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है | कभी ऐसा होता है कि दो रास्ते नजर तो आते है, पर एक भी सुरक्षित नहीं जान पड़ता| उनमें से किसी भी एक पर चलने, आगे बढ़ने का मतलब खुद को लहूलुहान कर लेना है; अपने को मिटा लेना है; अपनी आत्मा को मार देना है या अपनी निष्प्राणवत काया को कीचड़ भरी गंधाती नाली में दूबो देना है या अपने हृदय के इतने टुकड़े कर लेना है कि सम्भालना असंभव हो जाए| उसका पति दो हप्ते से बिस्तर पर पड़ा है| वह रिक्शा चलाता है और परिवार की धुरी उस रिक्शे के पहियों के साथ ही घुमती है| रिक्शा चलाने का मतलब निरंतर चलना है| जिस दिन नहीं चला, उस दिन पैसा देखना नसीब नहीं| लेदवा ठीक-ठाक रहता है तो दिन भर में सौ-पचास कमा लेता है| लेकिन ये सौ-पचास वह किस तरह कमाता है, वही जानता है| रूखा-सूखा खाकर, जाड़ा, गर्मी, बरसात की मार तो झेलता ही है, सवारियों की बकझक से दिन भर हलकान रहता है| कोई भी सवारी बिना बकझक के सही भाड़ा देना ही नहीं चाहता| पता नहीं क्यों, उन्हें लगता है कि रिक्शे वाला ज्यादा भाड़ा माँग रहा है| लेदवा दूसरे उन रिक्शा चालकों से भी कुढ़ता है जो सवारियों से अधिक भाड़ा वसूलने की कोशिश करते हैं| दूसरे शहर से आये अजनबियों से तो ज्यादा वसूलते ही हैं, उन्हें टेढ़े-मेढ़े रास्ते से घुमाकर ले जाते हैं ताकि सवारियों को अधिक दूरी जान पड़े और वे अधिक भाड़ा देने में आनाकानी न करें| अजनबी तो अजनबी, स्थानीय लोगों से भी यही रवैया अपनाते हैं| ऐसे में किचकिच तो होना ही होना होता है| लेकिन रिक्शा चालक भी क्या करें, उन्हें मालूम है कि इस अविश्वास की दुनिया में कोई किसी की बात पर यकीन नहीं करता| सही भाड़ा भी बोलो तो लोगों को यही लगता है कि रिक्शा वाला ऐंठ रहा है| इसलिए वे बढ़ाकर बोलते हैं ताकि मोल-तोल भी तो वाजिब भाड़ा मिल जाए| सब कुछ जानते हुए भी लेदवा ज्यादा भाड़ा नहीं बोल पाता है| यही कारण है कि सवारियों से उसकी ज्यादा बकझक होती है; क्योंकि वाजिब भाड़ा माँगने पर भी वे देने को तैयार नहीं होते| वास्तव में ईमानदारी की कमाई करना निहायत कठिन है| लखनी के लिए बड़ा कठिन समय था| बीमार पति की दवा-दारू, उसकी सेवा-टहल और तीन छोटे-छोटे बच्चों का पेट भरना कोई खेल नहीं था| लेदवा दिनोंदिन सूखता जा रहा था| कसबे के डॉक्टर ने शहर के किसी बड़े अस्पताल में इलाज कराने की सलाह दी थी| पास में पैसा न हो तो बड़े अस्पताल के नाम से ही आँसू निकल आते हैं| पड़ोसियों की सलाह पर लेदवा को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया| परन्तु सरकारी अस्पतालों की अपनी कार्यसंकृति है| न समय पर डॉक्टर मिलते हैं और न दवाइयाँ| वहाँ के कर्मचारी तो ऐसे पेश आते हैं जैसे वे मज़बूरी में बिना वेतन के कार्य करते हैं| लखनी का चेहरा एकदम से फक पड़ गया जब उसे बाहर से दवाइयाँ खरीदने को कहा गया| लखनी को बताया गया कि यही कोई दस हजार लगेंगे| लखनी की नजरों के सामने सारी धरती घूमने लगी| उसे तो यह भी नहीं मालूम कि एक हजार कितना को कहते हैं| हाँ, हजार का नाम सुना अवश्य था| इतना रुपये का जुगाड़ कैसे हो पाएगा? कौन देगा इतने रुपये? तो क्या उसके पति का इलाज नहीं हो सकेगा? बीमारी ठीक नहीं होगी तो फिर क्या होगा? क्या उसकी अकाल मृत्यु हो जाएगी? क्या उसका पति उसे अकेली छोड़कर चला जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो उसका और उसके बच्चों का क्या होगा? सोचकर लखनी काँप उठी| फिर अचानक उसकी आँखों के सामने बचपन की एक धुंधली-सी तस्वीर नाच उठी| गाँव के एक संपन्न परिवार के यहाँ हो रही बटसावित्री की पूजा में अपनी माँ के साथ कथा सुनने गयी थी—सावित्री और सत्यवान की कथा| उसे लगा, कहीं उसके पति के आसपास भी यमदूत तो नहीं मंडरा रहे ! क्या वह भी सावित्री की तरह अपने सत्यवान की रक्षा कर पाएगी? पर कैसे, काफी देर तक इसी चिंता में डूबी रही लखनी| पड़ोसी रिक्शा चालक सतेंदर के साथ लखनी शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति रघुराज के दो मंजिले मकान के सामने खड़ी भौंचक होकर इधर-उधर, डरी-सहमी सी देख रही थी| सतेंदर के अनुसार आशा की किरण उसी मकान से निकलने वाली थी; इंसानियत का सोता फूटने वाला था, दया का झरना झरने वाला था| सतेंदर ने बताया था कि रघुराज बाबू बहुत दयालु आदमी हैं| शुरू-शुरू में सतेंदर और लेदवा उसी से किराए पर रिक्शा लेकर चलाते थे| अन्य रिक्शा मालिकों की तरह रघुराज बाबू किराए की बंधी-बंधायी रकम नहीं लेता था, बल्कि प्रतिदिन की कमाई के हिसाब से लेता था| जिस दिन पचास रुपये से कम की कमाई होती थी, उस दिन वह कोई किराया नहीं लेता था| भला आज की दुनिया में ऐसा इन्सान मिल सकता है! रघुराज बाबू सचमुच दयालु आदमी प्रतीत हुआ| सारी बात सुनने के उपरांत उसने सतेंदर को सम्बोधित करते हुए कहा, “सतेंदर, यह सब सुनकर सचमुच बड़ा दुःख हो रहा है| लेदवा अच्छा और मेहनती आदमी है|” उसने कनखियों से लखनी को देखा और आगे बोला, “मैं जरूर मदद करूँगा; लेकिन इतने पैसे पास में नहीं हैं| बैंक से लाना होगा| इसके लिए डेढ़ दो घंटे रुकना होगा|” लखनी को लगा मानो उसकी मुराद पूरी हो गयी| इस मतलबी दुनिया में जहाँ अपने ही अपनों के काम नहीं आते; जरूरत पड़ने पर मुँह फेर लेते हैं; ऐसे में कोई गैर मुसीबत के वक्त काम आ जाए तो उसे भगवान का स्वरूप ही माना जाना चाहिए| कहते हैं, कुछ ऐसे ही भले लोगों के कारण दुनिया टिकी हुई है, वरना कब को रसातल को चली गयी होती| निराधार को आधार मिलने की पूरी उम्मीद हो तो डेढ़ दो घंटे का समय कुछ भी नहीं| सहमी हुई नजरें झुकाए बैठी लखनी अचानक चहककर बोल पड़ी, “कोई बात नई बाबू, हम तो दिन भर रुक सकते हैं|” फिर उसे … Read more