बस अब और नहीं !

बस अब और नहीं

स्वतंत्रता या गुलामी ये हमारा चयन है | कई बार गुलामी के चयन के पीछे सामाजिक वर्जनाएँ होती हैं  तो कई बार इसके पीछे विलासिता और ऐश की चाह  भी होती है जो हँसकर गुलामी सहने को विवश करती है | स्वतंत्रता अपने साथ जिम्मेदारियाँ लाती है, संघर्ष लाती है और कठोर परिश्रम का माद्दा भी .. “बस अब और नहीं” केवल कह कर समझौता कर लेने वाले शब्द नहीं है | ये शब्द है.. अपने स्वाभिमान को बचाए रख कर जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के | आइए पढ़ें सुपरिचित लेखिका रश्मि तारिका जी की एक ऐसी कहानी जिसकी नायिका  लता  विपरीत परिस्तिथियों  के सामने मजबूती से खड़ी हुई | बस अब और नहीं !   दर्द अगर कहानियों में निहित है तो कहानियाँ हमारे आस पास ही बिखरी होती हैं  और कहानियाँ हैं तो किरदार भी होंगे ही ..बस ज़रा ढूँढने की ज़द्दोज़हद करनी पड़ती है ! चलिये आज आपके लिए मैं ही एक किरदार ढूँढ लाई हूँ …ऐसा ही शायद आपके भी इर्द गिर्द होगा ही।चलिये इस किरदार से मिलने चलते हैं जो एक ईंटों से बने एक कमरे को ही अपना घर बनाने की कोशिश में है। * सुबह दस बजे का समय और रसोई में  उठा पटक का स्वर रोज़ की बजाए आज तेज़ था।पल्लवी के दिमाग और कदमों ने भी कमरे से रसोई तक पहुंचने में भी एक तीव्रता दिखाई। कारण था किसी नुक्सान की आशंका !   “लता !  ज़रा ध्यान से ! आज जल्दी है या कोई गुस्सा है जो बर्तनों पर निकाल रही है ? पिछली दफा भी तूने जल्दबाज़ी में एक काँच का गिलास तोड़ दिया था।आज ज़रा संभलकर।” पल्लवी ने कहा और लता के उखड़े मूड को देखकर खुद ही चाय चढ़ा दी ,अपने लिए और लता के लिए भी।वरना तो गरमा गरम चाय लता के हाथों, कुर्सी पर बैठे बिठाए उसे रोज़ ही मिल जाती थी।लता काम बाद में शुरू करती और चाय पहले चढ़ा देती थी। “लता ..चाय बन गई है पहले गरम गरम पी ले फिर करती रहना काम।” पर आज लता ने  बर्तनों का काम पूरा किया और हाथ पौन्छ कर चाय लेकर फटाफट पी और अपना मोबाइल उठाकर ले आई। “भाभी ..पहले तो आज मुझे यह बताओ कि ये जो फेसबूक होती है ,उस में  जो अपुन फ़ोटो डालते हैं क्या वो सबके पास पहुँच जाती है ?”भोलेपन से लता ने पूछा। “हाँ ,पहुँचने का मतलब वही लोग देख सकते हैं अगर तुमने उसे अपना दोस्त बनाया हुआ है।”   पल्लवी को लगा फ्रेंड लिस्ट ,मित्र सूची शब्दों का इस्तेमाल लता के समक्ष लेना व्यर्थ है कि वो समझ नहीं पाएगी। ” हाय री मेरी अल्पबुद्धि ! इतना भी न सोच सकी कि फेसबूक की दुनिया में कदम रखने वाली लता क्या फ्रेंड लिस्ट का मतलब भी न जानती होगी ?”पल्लवी को अपनी सोच पर खुद ही हँसी आने लगी।   “अरे भाभी , ये तो मालूम कि एक फ्रेंड लिस्ट होती है जिस में हम अपनी मर्ज़ी से लोगों को लिस्ट में बुलाते हैं।आप भी तो हो न मेरी लिस्ट में !”   लता ने बड़े फ़ख्र से बताया जबकि पल्लवी उसी फ़ख्र से यह न बता सकी कि उसने लता की फ्रेंड रिकुवेस्ट कितना सोचने के बाद स्वीकार की थी। “हाँ ..तो फिर क्या हुआ अब ! परेशानी किस बात की है लता?”   “भाभी ..कल मेरी बेटी ने अपनी एक फ़ोटो डाल दी फेसबूक पर और मेरी जान को एक मुसीबत खड़ी हो गई।इसीलिए परेशान हूँ।” “क्या परेशानी ज़रा खुल कर बताओ न! ” “वो मेरी बेटी की फ़ोटो मेरे किसी रिश्तेदार ने देख ली और  उसने गुड़िया के पप्पा को शिकायत कर दी कि फ़ोटो क्यों डाली ।” “तो क्या हुआ ! आजकल तो सब बच्चे ही अपनी फोटो फेसबूक पर हैं तो डाल ही देते हैं।चिंता वाली क्या बात है ? बस फोटो सही होनी चाहिए, मर्यादा में।” पल्लवी ने मर्यादा शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा ताकि लता आराम से समझ जाए। “भाभी ,बच्ची ने केवल मुस्कुराते हुए ही अपनी फोटो डाली।अब हम लोग कहाँ ऐसे वैसे कपड़े पहनते कि मर्यादा का सोचें।लेकिन लोग फिर भी बातें बनाएँ तो क्या करें ! खुद के अंदर तो झाँक कर नहीं देखते !”   लता का उखड़ा स्वर बता रहा था कि किसी अपने ने ही उसकी बेटी की शिकायत की थी।पल्लवी सुनकर हैरान थी कि एक बारह तेरह साल की मासूम बच्ची जो न बोल सकती है ,न सुन सकती है।केवल इशारों से जो बात सुनती समझती है तो क्या वो मुस्कुरा भी नहीं सकती ? क्या उसके मुस्कुराने पर भी कोई बैन लगा है? “तूँ लोगों की बातों की परवाह क्यों करती है, लता ?कहने दे जिसने जो कहना है।बच्ची ने कोई गुनाह नहीं किया जो तूँ इतना डर रही है।”पल्लवी ने समझाने का प्रयास किया। “”नहीं न भाभी ..आपको मालूम नहीं। अभी तो गुड़िया के पप्पा अपनी साइट(काम) पर गए हैं।आएँगे तो बहुत बवाल करेंगे।अभी तो बस उन्होंने फ़ोन पर बताया।मैं इसी बात को लेकर परेशान हूँ।”   “तो अब क्या इरादा है ,क्या चाहती है तूँ और तूने गुड़िया से पूछा क्या इस फ़ोटो की बात को लेकर ?”   “मैंने उसे इशारे से समझाया तो वो पहले तो अड़ी रही कि फ़ोटो नहीं हटाएगी पर जब मैंने उसे कहा कि पप्पा गुस्सा होंगे तो उसने गुस्से में आकर अपनी फोटो भी हटा ली और  मेरे मोबाइल से फेसबूक भी हटा दिया।” “एक तो तूँ बच्ची को नाहक ही गुस्सा हो रही है।फिर अगर उसने फ़ोटो हटा दी है तो अब क्यों परेशान है ?”   “वो यह पूछना था कि गुड़िया ने फ़ोटो हटा ली तो क्या अब भी फ़ोटो वो रिश्तेदार के पास होगी तो नहीं न ?”लता अपनी बुद्धि के हिसाब से अपनी समस्या का निवारण ही पूछ रही थी । पल्लवी सोचने लगी कि आजकल के बच्चे इतना कहाँ सोचते हैं कि सोशल साइट्स पर तस्वीरें डालने से कई बार समस्याओं का सामना करता पड़ता है।जबकि लता तो अपनी बेटी की मासूमियत को भी लोगों की नज़रों से बचाने का प्रयास कर रही थी। पल्लवी जानती थी कि लता आज संघर्षों और हिम्मत से जूझती हुई एक साहसी महिला थी … Read more

उर्मिला शुक्ल की कहानी रेशम की डोर 

रेशम की डोर

          रेशम की डोर में गाँठ बांध कर जोड़ा गया पति -पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का होता है | सुख के साथी, दुख के साथी, जीवन के हर पल के साथी ..  फिर क्यों ऐसा रिवाज बना दिया गया कि   अंतिम विदा में जीवन संगिनी साथ नहीं दे सकती | चार कंधों के लिए आदमी ढूंढते लोग अपनी जाई बेटी को मुखाग्नि  देने का अधिकार नहीं देते |  शहरों में छुटपुट घटनाएँ भले ही हों पर गांवों में समाज इतना शक्तिशाली और हावी रूप से सामने आता है कि  हुक्म की इन बेड़ियों को काटना आसान नहीं होता |  आइए पढ़ें कुछ ऐसी ही बेड़ियों को जानने, समझने और काटने की कोशिश करती सुप्रसिद्ध साहित्यकार उर्मिला शुक्ल जी की कहानी जिसमें स्त्री विमर्श एक नारा भर नहीं है |                                                               उर्मिला शुक्ल की कहानी “रेशम की डोर”                                                                                                                                                                                                                                                  कस्बे की एक सर्द सुबह, कुहरे में लिपटा सूरज तनिक बाहर झाँकता फिर अपने लिहाफ में जा छुपता .  ऐसे में भला मेरी क्या बिसात थी की  मैं.. सो उठने का मेरा संकल्प बार बार भहरा रहा था .दिन चढ़ आया था , मगर ठंड कह रही थी कि  बस मैं ही हूँ . रविवार था ,सो चिंता की  कोई बात भी नहीं थी. ‘ क्यों न एक  नींद मार ली जाय . ‘ सोचा और लिहाफ ताना ही था कि कालबेल घनघनाई . ‘ कौन आ गया इतनी ठंड में ? ‘ लिहाफ़ से जरा सा मुँह निकाला था कि ठंड भीतर तक उतरती चली गई . ‘ होगा कोई .अपने आप लौट जायेगा ‘. सोचा और लिहाफ़ कस लिया . मगर अब कालबेल लगातार घनघना रही थी . ” कौन ?  ” स्वर में झुंझलाहट  उतर आयी .  बेमन से चप्पल घसीटे और दरवाज़ा खोला …… ” कुछु सुनेव आपमन ? मास्टर साहब बीत गये . ”  पड़ोसी थे . …………. “रात को जो सुते तो उठे ही नहीं . ”  अब मैं कुछ सुन नहीं पा रही थी .  भीतर कुछ हो रहा था , जिसमें उनकी आवाज़ ही नहीं, सब कुछ गुम हो चला था . ” बहुत परेमी मनखे रहिन . “ उनके होंठ हिल रहे थे . आवाज़ भी कानों तक पहुँची थी, पर वह कोई अर्थ न दे सकी . वे जा चुके थे . अब भीतर मेरे अतीत फैलाव ले रहा था…….. मास्टर साहब !  सारा कस्बा उन्हें इसी नाम जानता था .  उनके इस नाम ने इतनी ख्याति पायी थी कि उनका असली नाम ही खो गया था और वे सबके मास्टरसाहब बन गये थे . ‘जीवन प्रकाश ‘ उन्होंने अपने नाम को सार्थक किया था. दूसरों का अँधेरा समेटने में अपना कितना कुछ पीछे छूटता चला  गया  था . गाँव , रिश्ते सब . वे लोगों में  इस कदर डूबे कि सब भूल गये . उन्हें कभी लगा  ही  नहीं कि उनका कुछ  निजी  भी  है . सिर्फ  देना  ही तो जाना था उन्होंने . काकीदाई नाराज़ होतीं– ” बस ! एक कमंडल खंगे हे . धर लेव् . हममन तो तुम्हारे  कुछ  लगते ही नहीं . ” वे कहती .मगर उनकी सरल  सौम्य मुस्कान के सामने  उनका ये आक्रोश कहाँ ठहरता था. .उनका  यह आक्रोश भी तो ऊपरी था . भीतर से तो उनकी अनुगामी ही थीं . अब आँखों वे उभर आयीं – गोरा रंग , माथे पे सिंदूरी बिंदी ,कोष्टउहन लुगरा ( करघा की साडी ) और चूड़ियों भरी कलाइयाँ . मगर  आज ? ‘ सोच कर मैं सिहर उठी . भाई साहब जा चुके थे. ठंड अभी भी वैसी ही थी;, मगर मैं देर तक वहीं खड़ी रही . फिर जैसे तैसे पैर घिसटते हुए कमरे तक पहुँची .ऐसा लग रहा था, मानो मीलों लंबा सफर तय किया हो . मन थिर नहीं हो रहा था . चलचित्र सा चल रहा था – विद्यालय में मेरा  पहला दिन था . दूसरों की तरह मैं उनके लिये भी अजनबी थी; मगर ज्वाइनिंग के बाद मुझे अपने घर ले गये . मुझे डर भी लगा .एक अनजान व्यक्ति के साथ ? अख़बारों में पढ़ी घटनायें याद  हो आयीं .सोचा मना कर दूँ . मगर …… ” डेरा झन ! तेरे जैसी बेटी हे मेरी ” उन्होंने  मुझे देखा था . ‘ मैं सन्न ! ‘ . लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ ली गई हो . मन में डर तो था ,पर ऊपरी मन से कहा…. “नहीं  सर ऐसी  बात नहीं  हे “. कह तो दिया पर मन का भय बरकरार था ;मगर  घर पहुँचते ही काकीदाई और केतकी ने मुझे ऐसा अपनाया कि लगा ही नहीं कि वह किसी और का घर है . मैं ही नहीं , मेरे जैसे बहुतों की छाया थे वे .आज मुझे वहाँ जाना था ;मगर  हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर भी जाना तो था . सो दरवाजा बंद किया ; मगर ताला था कि बंद ही न हो . बार – बार चाबी घुमाने के बाद भी खुलाका खुला. हाथों में जैसे ताकत ही  नहीं थी . देर तक  चाबी और ताले से जूझने के बाद ताला बंद हुआ . अब घिसटते कदमों से मैं उस घर की ओर बढ़ रही थी . मगर कदम साथ नहीं दे रहे थे .  किसी तरह मैं उस द्वार तक पहुँची ..तो द्वार पर कोई नहीं  ! मन को धक्का  लगा ! यह  वही द्वार था, जहाँ लोगों की भीड़ लगी रहती थी . मास्टर साहब अपना सब काम छोड़कर सबकी समस्यायें सुलझाते थे तब लोग उन्हें कितना सम्मान देते थे ; मगर   पंचायती राज ने  सारे समीकरण ही … Read more

उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो 

बिन ड्योढ़ी का घर

ऊर्मिला शुक्ल जी का “बिन ड्योढ़ी का घर” एक ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री के जीवन का हाहाकार सुनाई देता है | साथ ही उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | इस उपन्यास को पाठकों और समीक्षकों द्वारा पसंद किये जाने के बाद अब उर्मिला शुक्ल जी ला रहीं हैं “बिन ड्योढ़ी का घर -2 ” पूरा विश्वास है की ये उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर कहर उतरेगा | आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का एक अंश ..   यू ट्यूब पर देखें   उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  “ माँ देखो न ! डंकिनी ने मेरी माला खराब कर दी | उसने मुझे जीभ भी चिढाया | ” रूआँसी सी वन्या उसे अपनी माला दिखा रही थी | उसकी माला की लड़ें आपस में उलझ गयी थीं |  “ इसमें रोने की क्या बात है ? चलो अभी ठीक कर देते हैं | ” कात्यायनी को वहाँ से निकलने की राह मिल गयी | वह उसे लेकर वनिता धाम की ओर बढ़ चली |  “भूरी चींटी लाल भितिहा | गिर गई चींटी फूटगे भितिहा | ईइइ ” दीवार की ओट में खड़ी डंकिनी ने वन्या को चिढ़ाया | “ देखो माँ वो फिर चिढ़ा रही है और बिजरा (जीभ चिढ़ा ) भी रही है | ” कात्यायनी ने डंकिनी की ओर देखा | वह उसे देखकर भी डरी नहीं | पूरी ढिठाई से उसकी ओर देखती रही |  “ गंदी बात | अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते | ” “ में अच्छी नई हूँ ? ” “ किसने कहा तुम अच्छी नहीं ? तुम तो सबसे अच्छी हो | “  “ वनिया ने मेरे को डंकिनी फंखनी बोला | ” “ वन्या ! ये गंदी बात है | तुमने क्यों चिढ़ाया इसे ? ”  “ इसने कहा ये माला मेरे को नई फबती और मेरी माला खराब कर दी | ” अपनी उलझी माला देख ,उसका स्वर फिर रुआँसा हो उठा |  “ इसने भी तो मेरे को काली चीटी बोला | डंकिनी डंक मार बी बोली | बिजराया बी | देखो – देखो फिर बिजरा रही | ” कात्यायनी ने देखा ,वन्या उसके पीछे छुपकर अपनी माला दिखाते हुए उसे जीभ दिखा रही थी और डंकिनी की क्रुद्ध नजरें उसकी माला पर टिकी थीं | वह उसकी इर्ष्या कारण समझ गयी |   “ तुमको भी माला पहनना है ? ” डंकिनी ने हाँ में गर्दन हिलाई | “ आओ मेरे साथ | ” “ माँ इसको माला नहीं देना | बहुत गंदी है ये | ” “ ऐसा नहीं बोलते | ये तो तुम्हारी संगी है न | संगी के संग तो मिल कर रहते हैं | ” कात्यायनी ने लाल पाड़वाली कोसा की ओढ़नी निकाली | साड़ी की तरह पहनाया उसे | फिर उसके बालों को समेट कर सुंदर सा जूड़ा बनाया | उसमें कौड़ियों की माला सजाई | फिर अपनी मालाओं में से लाल रंग की एक माला निकाली और  तिहराकर पहना दिया | डंकिनी ने दर्पण देखा | उसका मुख गुड़हल सा खिल उठा | “ देख– देख मेरा माला कितना सुंदर | तेरे से भी सुंदर | ” “ ठेंगा | ” वन्या ने अँगूठा दिखाया और जीभ चिढ़ाती बाहर भाग गयी |  उसके पीछे डंकिनी भी | कात्यायनी महसूस रही थी उस बाल युद्ध को ,जिसमें जीभ चिढ़ाना ,ठेंगा दिखाना और चिढ़ाने वाले शब्द ,ऐसे अस्त्र थे कि सामने वाला तिलमिला उठे | यहाँ डंकिनी का नाम भी ऐसा ही हथियार बन गया था | वरन डंकिनी इस अंचल की ख्यात नदी हैं | उसकी कथा में माँ दंतेश्वरी जुड़ी हैं | सो इस अंचल के लिए एक पवित्र नाम है डंकिनी | ‘ सोचती कात्यायनी को वह दिन याद हो आया जब …….   बस्तर के धुर दक्खिन में डंकिनी की गोद में बैठा पालनार | जंगल ,नदी और पहाड़ का सौंदर्य अपने में समेटे ,एक सुंदर सा गाँव | लोह अयस्क का तो अकूत भंडार ही था वहाँ | अपनी बोली – बानी ,अपने नाच – गान को सहेजता पालनार अपने आप में मस्त था | वह तेलंगाना के ज्यादा करीब था | सो उस गाँव का शेष बस्तर से, कोई ख़ास वास्ता नहीं था | न काहू से दोस्ती न काहू से बैर ,की तर्ज पर वह एक शांतिप्रिय गाँव था ; मगर उस दिन पूरा गाँव राख में बदल गया था ? पुलिस ,सेना और प्रशासन को अंदेसा तो उन्हीं पर था ,जो अपने को इस अंचल का कर्णधार मान बैठे थे ;मगर सबूत कोई न था | वे वहाँ पहुँचीं ,तब तक कुछ नहीं बचा था | बची थी तो सिर्फ राख | मारी माँ उदास हो उठीं | उन्हें लग रहा था आना व्यर्थ हुआ | सो लौटते समय गाड़ी में ख़ामोशी पसरी हुई थी | घाट आने वाला था | मोड़ तीखे हो चले थे | चालक ने गाड़ी की रफ्तार धीमी की | गाड़ी घाट चढ़ने ही वाली थी कि छत पर धम्म की आवाज आई |  “ साड़थी ! गाड़ी साइड लो | देखो कौन है ? ”   “ जिनावर होगा | इहाँ गाड़ी रोकना टीक नई | ये इलाका बहुत डेंजर | ” चालक ने कहा | “ जानवर ? अमको लगता कोई आडमी है ? ” “ आदमी ? इतना अँधेरा में आदमी कहाँ होयेगा ? कोंनो जिनावर है | मै गाड़ी को अइसा मोड़ेगा के वो धड़ाम हो जायेगा | ” और उसने झटके से मोड़ काटा – “ रूको – … Read more

कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द

अंतरद्वन्द

जीवन में हम जो चाहते हैं वो हमेशा हमें नहीं मिलता | फिर भी हम अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े आगे बढ़ते जाते हैं .. खोखले होते रिश्तों को ढोते रहते हैं |इस परिधि को तोड़ कर एक नए आकाश की ओर बढ़ते कदम अतीत के अनुभव की कारा में बार -बार बंदी होते रहते हैं | आखिर कोई तो हल होगा .. अतीत और वर्तमान के इस अंतरद्वन्द का | आइए पढ़ें अतीत और वर्तमान के  उलझे धागों को सुलझाती, युवा कथाकार कविता सिंह की कहानी.. अंतरद्वन्द  कहानी से – देखें यू ट्यूब पर   “तुम भूलती जा रही हो कि तुम एक डॉक्टर हो, जिन्हें अपनी फीलिंग्स और इमोशन्स अपने घर रखकर क्लीनिक जाना चाहिए।” आज फिर मुझे गुमसुम बैठा देखकर दक्ष ने कहा। “तुम भी भूल रहे हो, मैं सिर्फ डॉक्टर नहीं बल्कि साइकोलॉजिस्ट हूँ, इन फीलिंग्स और इमोशन्स से ही अपने मरीजों के मन की तह तक पहुँच पाती हूँ।” “पागलों का इलाज करते-करते जो तुम अपने खोल में सिमटती जा रही हो ना, मुझे डर है किसी दिन तुम्हें ही किसी डॉक्टर की जरूरत ना पड़ जाए।” मेरा जवाब सुनकर उसने बहुत धीरे से कहा। “दक्ष! वो पागल नहीं हैं….” मैं भड़क गई। “लीव दिस… मैं तो मजाक कर रहा था। मैं मानता हूँ तुम इस शहर की जानी-मानी साइकोलोजिस्ट हो पर मेरी दोस्त भी तो हो.. भई! खाना ऑर्डर करो।” वेटर को हमारी तरफ आता देखकर वो मुस्कुराते हुए बोला। वो सच कह रहा था, मैं बाहर की दुनिया से कटने लगी थी। डिप्रेशन के बढ़ते मरीजों और उनके साथ लंबे-लंबे काउंसलिंग सैशन, उनके आँसू, उनकी हिचकियाँ अक्सर मेरे गले में मछली के कांटें जैसी फँस जाया करतीं। बाहरी दुनिया में कदम रखते ही अजीब-अजीब से ख्याल आने लगते हैं। चलते-फिरते लोगों में न जाने कितने ऐसे मुर्दे लोग हैं जो सम्बन्धों का शव कांधे पर लिए घूम रहे हैं। मुर्दे? हाँ मुर्दे ही होते हैं वो..चलते-फिरते और सांस लेते हुए। साँसों का बन्द होना ही मौत नहीं होती। बहुत करीब से देखा है ऐसों को इन दस सालों में..जो सम्बन्धों और उम्मीदों का गला तो नहीं घोंट पाते पर अपनी साँसों को खत्म करने की कोशिशें जरूर कर चुके होते हैं। “उफ्फ यार! फिर से शुरू हो गईं…ऑर्डर करो भई! वेटर वेट कर रहा..अच्छा छोड़ो मैं ही कर देता हूँ।” उसने मेनू लेते हुए कहा। कितने वक़्त के बाद मैं आज दक्ष के साथ डिनर पर बाहर निकली थी वो भी उसकी जबरदस्ती के कारण। “सॉरी स्वाति, मुझे तुमसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर कुछ समय से मैं तुममें जरूरत से ज्यादा बदलाव देख रहा हूँ।” वो बहुत गम्भीरता से बोला। मैंने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की- “ऐसी कोई बात नहीं दक्ष, थोड़ी थकान हो जाती है। अब खाना खाओ!”   आजकल बिस्तर पर लेटते ही मकड़ियां दिमाग में जाले बुनना शुरू कर देती हैं, और मैं उस जाले में फँसी मक्खी की तरह छटपटाती रह जाती हूँ। क्या सच में मैं अपने मरीजों के हालातों से खुद भी जूझने लगी हूँ? नहीं.. नहीं, शायद मैं अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही, केवल भागने की कोशिश कर रही। अनगिनत मरीज मेरे पास आने के बाद ठीक हुए हैं, फिर मैं क्यों नहीं मुक्त हो पाती? उफ्फ! मैं हर बार सर झटककर सोने की कोशिश करती हूँ पर कामयाब नहीं हो पाती। आज भी तो यही हुआ, कोई सामने बैठा जैसे मेरा ही अतीत मुझे सुना रहा था। मुझे चुपचाप एक कोने में बैठी दस साल की लड़की याद आने लगी। उसे पता था, तीन सालों में बहुत कुछ बदल गया है उसकी जिंदगी में। उसकी जिंदगी बदल गयी, उसके प्रति फैसले बदल गए, उसके पापा बदल गए…। जन्मदिन पर चुपचाप उदास बैठने की कोई खास वजह नहीं थी। मम्मी तैयारियाँ कर रही थीं जैसा कि उनके हिसाब से होना चाहिए। तीन साल पहले तक जैसा वो चाहती थी तैयारियां वैसी होती थीं। पापा दस दिन पहले से ही गिफ्ट के लिए पूछना शुरू कर देते। उस दिन सुबह ही उसे बाजार लेकर जाते, पूरे दिन मस्ती और शाम को बर्थडे पार्टी। मां अक्सर कहती थी- “बेटी है अधिक सर पे मत चढ़ाइए, अभी की बिगड़ी आदतें जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई सर पर बैठाने वाला नहीं मिला तो जीवन दूभर हो जाएगा इसका।” हाँ, बेटियों के ‘रहनुमा’ बदलते जो रहते हैं उम्र के साथ-साथ। “चिंता क्यों करती हो! मेरी बिटिया मेरे पलकों पर रहेगी।” पापा की बात सुनकर मां अपना सर पीट लेती। मां एक बीमारी में चली गयी दुनिया छोड़कर। वो बहुत रोई थी, बच्ची ही तो थी.. धीरे-धीरे संतोष कर लिया उसने, उसके पापा तो साथ थे। फिर आईं मम्मी, मां जैसी तो नहीं पर बुरी भी नहीं। उसका और पापा का खूब ख्याल रखती। समझदार इतनी थीं कि उसे बिगाड़ने वाली मां की बात जो पापा कभी नहीं समझे मम्मी की यही बात वो कुछ महीनों में ही समझ गए। जिस घर में बिना उससे पूछे शाम का खाना नहीं बनता था अब मम्मी के हिसाब से हेल्थी खाना बनने लगा। पलकों पर बैठने वाले भूल जाते हैं कि पलक झपकते देर नहीं लगती। वो उम्र से पहले ही समझदार होने लगी थी। जल्द ही समझ गयी, अब फैसले पापा के नहीं मम्मी के हाथ में हैं। उसे किस चीज की जरूरत है ये अब वो नहीं मम्मी सोचती थीं। किस स्कूल में पढ़ना है, ट्यूशन की जरूरत है या नहीं। अब पढ़ाई पर ध्यान देना है उछल-कूद की उम्र खत्म हो रही है, आदि, आदि…। एक शाम मम्मी को तैयार होता देख वो भी अपनी सबसे पसंदीदा ड्रेस ढूँढने लगी थी। “वक़्त से खाना खा लेना गुड़िया! हम जल्दी आ जाएँगे।” मम्मी अपने बाल सँवारती बोलीं। उनकी बात सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरायी थी। वो जानती थी पापा उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। उसे हर जगह साथ लेकर जाने वाली आदत पर मां के साथ पापा की कितनी बार बहस हो जाती थी, फिर भी पापा मानते कहाँ थे। पर, मम्मी मां की तरह झगड़ती नहीं थीं, वो तो बहुत धीरे से समझाती थीं। पापा समझ गए कि बड़ी होती बेटी को हर जगह ले जाना उचित नहीं और … Read more

गईया-मईया- पी. शंभू सिंह जी की कहानी

गईया मैया

  गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में जी जान से करती रहती हैं |  पर पितृसत्ता दोनों का ही दोहन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती | वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शंभू पी सिंह जी भी अपनी कहानी में गईया मैया और स्त्री के एक ऐसे दर्द की तुलना करते हैं ..अपनी प्रकृति में भिन्न होते हुए भी जिनमें साम्य  है, वो है एक माँ का दर्द |पितृसत्ता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जहँ गईया से बछिया चाहती है वहीं स्त्री से पुत्र | और अनचाही संतान का एक ही हश्र , चाहें वो जन्म से पहले हो या बाद में |  पढ़ते हैं .. दो माओं के दर्द को एक तन्तु में पिरोती मार्मिक कहानी .. कहानी की समीक्षा यू ट्यूब पर देखें … कथा समीक्षा -गईया मैया गईया मैया  “रामायणी मैं जा रहा हूं खेत पर। आने में लेट होगी, तो गईया को सानी-पानी दे देना। उसका अंतिम महीना चल रहा है, इस बार बाछी हो जाए तो एक और गाय तैयार हो जायगी। अब ये बूढ़ी भी हो गई, समझो अंतिमें बियान है।” रामायणी को हिदायत करते, कंधे पर गमछा रख, गनौरी चला गया खेत पर। रामायणी मुंह में आंचल दबाए चुपचाप सुनती रही। गाय की इतनी चिंता है। दो दिन से कह रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा दो, लेकिन मेरी बात का कोई असर नहीं। रामायणी ने टेलीविजन पर देखा है, डॉक्टर बोल रही थी कि गर्भ के बाद हर महीने जांच करानी चाहिए, सास उसे लेकर अस्पताल जाती नहीं, अकेले जाने देती नहीं और रोपनी का टाइम है, तो गनौरी को फुर्सत ही नहीं है। कुछ भी हो इस बार वह लिंग जांच तो नहीं करवाएगी। सास के दबाव में आकर तो दो बच्चे की हत्या कर चुकी है। इस बार जो भी हो, उसका भी अंतिमें होगा। रामायणी का यह तीसरा महीना चल रहा है। चार बच्चे तो जन चुकी, चारों बेटी। दो जिंदा है, दो को आने ही नहीं दिया। गर्भ में ही पता लग गया। अल्ट्रासाउंड की जांच में, दोनों बार लड़की ही थी। उसे तो कुछ भी नहीं पता, कब, क्या, क्यों किया, ये सब।जिसे आना है उसे आने दे, नहीं तो हमेशा के लिए टांका लगवा दे। अब बार-बार की जांच-पड़ताल। कहीं लड़की निकल गई तो दवा देकर अंदर ही मार देना कोई अच्छी बात थोड़े ही न है। मर कर बची थी रामायणी पिछले साल। इतना खून निकला कि लगता था अब दम ही निकल जाएगा। गनीमत ये हुई बड़े भैया आ गए। स्थिति देख तुरत एम्बुलेंस मंगाया गया और शहर के अस्पताल में भर्ती करा दिए, तो जान बची। मरद तो कुछ सुनता ही नहीं। बस रात में शरीर नोचने आ जाता है। उसकी किस्मत खोटी थी कि इस घर ब्याही गई। भैया चाहते तो किसी नौकरी वाले घर भी भेज सकते थे। पिता जिंदा होते तो यहां कभी नहीं ब्याहते। कितना प्यार करते थे। रोज बाबूजी को रामायण की चौपाई पढ़ते सुनाती थी। पांच साल की उम्र में ही वह रामायण की चौपाई पढ़ने लग गई थी। तभी उन्होंने मेरा नाम रामायणी रख दिया। जहां भी जाते मुझे साथ ले जाते। लोगों को बैठाकर चौपाई सुनवाते थे। गर्व करते थे मुझपर। भैया तो सात साल बड़े हैं। पिता जैसा सम्मान देती रही है। भैया तो चाहते भी थे कि थोड़ा अधिक दहेज दे देने से नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, लेकिन भाभी ने एक न सुनी। बस एक ही रट लगाती रही, तीन बहन है तेरी। एक का ब्याह नौकरी वाले के घर करोगे, तो बाकी का भी सोच लो। अकेले कमाने वाले, सात खाने वाले हैं। एक अदना क्लर्क की नौकरी से क्या कर सकते हो। जो भी करो सोच समझकर करो। बाबूजी के गुजरने से पहले भाई की नौकरी हो गई थी। खेती-पथारी से तो साल भर खाने का अनाज भी नहीं हो पाता था। भाभी भैया को हमेशा घर की बाकी जिम्मेदारियों का एहसास कराती रहती। कुछ नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य संवारने की बात करना नहीं भूलती। यह सुन भैया चुप हो जाते। रामायणी किसी को दोष नहीं देती। सब किस्मत की बात है। जिसकी किस्मत जहां ले जाय, जाना ही पड़ेगा। आ गई इस घर में। साथ में भैया ने एक कर्यकी बाछी भी लगा दिया। आज वही कर्यकी बाछी, गाय बन गई है। इस घर में रामायणी और कर्यकी की हालत एक जैसी है। कर्यकी ने भी पिछले छह साल में चार बच्चा दे चुकी है। दुधारू गाय है। साल में नौ महीने दूध देती है। गाभिन होने के अंतिम तीन महीना ही दम मारती है। उसकी भी किस्मत रामायणी जैसी ही है। उसके चार बच्चों में पहली ही बाछी हुई, बाद का तीनों बाछा हुआ। दो को तो एक साल बाद ही कसाई के हवाले कर दिया। तीसरे को भी हटाने की तैयारी हो रही है। पता नहीं उतने छोटे बछड़े का कसाई क्या करता है। बछड़े के जन्म को लेकर भी रामायणी को ही सास का उलाहना सुननी पड़ती है। हर बात पर एक ही रट लगाए रहती है, जैसी कुलछिन अपने है, वैसी ही अपने साथ बाछी भी लेकर आई। अपने खाली बेटिये जनती है, तो नैहर से लाई बछिया खाली बछड़ा ही बियाती है। बाछी होती, तो एक साल के अंदर गाय बन जाती। इतनी दुधारू गाय है कि पचास हजार से कम में नहीं बिकती। बाछा तो अब किसी काम का रहा नहीं। हल से खेत जोतने का समय बीत गया। पहले हल और गाड़ी में बैल की जरूरत होती थी, तो लोग बछड़ा को पालते थे। अब खेत की जोताई ट्रैक्टर से होने लगी और बैलगाड़ी की जगह मोटर गाड़ी ने ले ली, तो भला अब बैल को कोई क्यों खरीदेगा। जब तक गईया दूध देती है, तभी तक बछड़ा दिखता है। जैसे ही उसकी कर्यकी गाय गाभिन होती है,  बेचारा बछड़ा कसाई के हवाले कर दिया जाता है। पिछ्ली बार भी तो … Read more

पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी

वो एक नदी

सागर से मिलने को आतुर नदी हरहराती हुई आगे बढ़ती जाती है, बीच में पड़ने वाले खेत खलिहान को समान भाव  से अपने स्नेह से सिंचित करते हुए | पर इस नदी में कभी बाढ़ आती है तो कभी सूखा भी पड़ता है | परंतु  वो ऐसी नदी नहीं थी, वो अपने दो पक्के किनारों के बीच अविरल बह रही थी .. भले हि कगार के वृक्ष मूक देख रहे हों | आस-पास से गुजरते पथिक प्रश्न उठा रहे हों, यहाँ  तक की उसके अंदर पली बढ़ी मछलियाँ भी उसके इस तरह बहने से आहत हों ? फिर भी वो बहती रही अपने ही वेग में अपने ही अंदाज में इस तरह की सारे प्रश्न स्वतः ही गिर गए | अस्वीकृति  को मौन स्वीकृति मिल गई और अस्वीकार को स्वीकार | आइए पढ़ते हैं   सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका आदरणीय पद्मश्री उषा किरण खान जी की बेहद सशक्त कहानी “वो एक नदी” | एक स्त्री की नदी से तुलना हमने कई बार सुनी है पर वो कुछ अलग ही थी .. वो एक नदी पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी   जब कभी तुम्हारे बारे में कुछ सोचने बैठती हूँ तो दृष्टि अनायाम आकाश की ओर उठ जाती है। सफेद खरगोश की तरह दौड़ता चाँद दिखने लगता है, उसके पीछे  बादलों का झुंड पड़ा  दिखता है। लुकता-छिपता यह चाँद मुझे सचमुच नहीं दिखता, यह तो मैं अपने  मन के आकाश में देखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि आकाश मे  उन दृश्यों को देखकर मुझे तुम याद आती हो। नहीं, मैंने  कहा न, मैं  तुम्हारी याद आने पर ही उन वस्तुओं की कल्पना करने लगती हूँ जो कभी घटी थी। तुम्हें  क्या मालूम कि तुम्हारी  आज की इतनी-इतनी, सौन्दर्यबोध वाली माँ उन दिनों क्या कहती थी, कैसी लगती थी। श्यामा कुँअरि से श्यामा शर्मा होते जाने  की कहानी का तुम्हें कहाँ पता है? तीन भाईयों वाले जमींदार साहब के घर कई-कई पुश्तों के बाद जनमी पहली लड़की थी श्यामा। भक् गोरा रंग, बड़ी-बड़ी चमकती आँखें और सौन्दर्य के तमाम उपमानों की हेठी करती-सी उसके देहयष्टि देखकर कोई भी सोच सकता था कि इसका नाम श्यामा क्यों है। मुझे याद है, तुमने भी कई बार पूछा था। रेशमी  घघरी छोड़कर अभी साड़ी बाँधने ही लगी थी श्यामा कि उसकी शादी उच्च कुलीन बलदेव  से कर दी गयी थी। वही बलदेव, जो तुम्हारा पिता है और उसे  तुम बेहद-बेहद प्यार करती हो। आठ वर्षो की श्यामा थी, अठारह वर्षो का बलदेव था। कहीं संस्कृत विद्यालय में  पढ़ रहा था। श्यामा की ओर बलदेव भौंचक देखता रहता। श्यामा की शैतानियाँ बदस्तूर  कायम रहीं। वैसे ही आम की बगीची में जाकर। कोयल के सुर-में-सुर मिलाना, वैसे ही घर से दाल चावल-घी चुराकर ले जाना, कुम्हार के घर से हाँड़ी उठा लाना और कमलबाग में  आम की सूखी  टहनियों से ईटे  जोड़कर खिचड़ी पकाना। हर टोले की छोकरियाँ श्यामा की दोस्त हुआ करतीं। साथ-साथ खिचड़ी खाना और करिया झूमर खेल खेलना ढली साँझ तक चलता रहता आषाढ़ बीतने के बाद ताल-तलैया भर जाते , कमलबाग सूने  पड़ते । तब बंसी-बनास लेकर कीचड़े-कादों फलाँगती फिरती मिली हुइ छोटी मछलियों को खेत में ही पकाकर नमक मिर्च  के साथ चट कर जाती। अक्सर बूढ़ी  दादी के डाँट खाती किन्तु  उसकी भी परवाह नहीं करती। बड़ी-बुढ़ियां  अक्सर सिर पर हाथ ठोंककर कहतीं ‘‘अरी, यह तो बड़ी  बहरबटटू है,दिन भर वन-वन छिछियाती रहती है। घराने की नाक कटाएगी।’’ ‘‘क्या बताऊँ , यह तो बड़े घराने की कन्यादानी बेटी है। कौन क्या कहेगा? लेकिन हम जैसे छोटे घर की लड़कियो  को तो बिगाड़ कर रख देगी’’-दूसरी बूढ़ी  कहती और सोच में डूब जाती। पहले  बड़े  घराने  के लोग करते थे। बेटी के नाम धन-सम्पत्ति का भाग तो रहता ही था, मायके में रहकर खानदान भर पर रौब गाँठने का स्वार्जित अवसर भी स्वतःहाथ आ जाता था। तो तुम्हारी माँ श्यामा ऐसी ही कन्यादानी बेटी थी। तुम्हारा पिता बलदेव वैसा ही उच्चकुलीन दामाद था जो कई   और शादियाँ कर सकता था। तुम्हारे  पिता को पढने-लिखने  का कुछ अधिक ही शौक था। सो उन्होंनें  संस्कृत विद्यालय पास कर मेंडिकल स्कूल में दाखिला ले लिया था। कुऐं  की जगत पर ‘‘पाहुन, आप श्यामा कुँअरि को क्यों नहीं कुछ कहते?’’- एक दिन स्नान के बाद धोती पकड़ते खवासन ने कहा था। ‘‘ऊँ, क्या कहूँ?’’ चिहुँक उठे थे बलदेव। ‘‘यही, रन-वन छिछियाती रहती है।’’ ‘‘हें-हें-हें’’ -स्निग्ध हँसी हँस पड़े थे थे बलदेव। ‘‘घर में लोग तो है ही।’’ ‘‘फिर भी, आप स्वामी है।’’ ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है।’’ ‘‘हाँ सरकार। कहीं आपके कहने से सुधर जाए।’’ ‘‘कोइ बात नहीं, अभी बच्ची है, बड़ी होगी तो समझ जाएगी।’’ बातों के तार को छिन्न कर दिया उन्होंने । लेकिन उसी रात को जब छोटी काकी ने  नहला-धुलाकर चाटी-पाटी करके किशोरी की थी। मेडिकल में नाम लिखाने के बाद बलदेव  पहली बार ससुराल आये थे। छह माह में  ही श्यामा बड़ी लगने लगी थी। आते ही चहककर पास आ बैठी। आप इस बार बहुत दिनों के बाद आये । डॉक्टरी की पढ़ाई  शुरू हो गयी? बार रे। आप भी छुरी से घाव चीर डालिएगा, नौआ की तरह? प्रश्न-पर-प्रश्न दागती चली गयी श्यामा तब तक जब तक बलदेव ने उसे अपनी ओर खींच नहीं लिया। बोल-े ‘‘छोड़ो यह सब, पहले  यह बताओं कि अबकी कलमबाग में नीलम परी उतरी थी क्या?’’ ‘‘न, तो, किसने कहा? कैसे पता चला? तुम  नीलम परी को जानते तो क्या? झूठे।’’ आँखें मटका कर कहा था  श्यामा ने । “तुम्हीं  तो बताती थी, नीलम परी आती है, जादू  का डण्डा लाती है। जिस साल डण्डा फेरतीहै उस साल आम में बौर लगते है, नहीं, तो नहीं।’’-श्यामा ने सुनकर ठहाका लगाया था। ‘‘जानते हो, अब मैं  जान गयी हूँ, कोई परी-वरी नहीं आती है, वह तो धरती माता है, आकाश पिता है, जो आम के गाछों मे  बौर लगाते  हैं। ‘‘बस’’ -समझदारी से कहा। ‘‘लेकिन मेरा तो विश्वास बढ़ गया है नीलम परी के प्रति कि वह जरूर आती है बगीची में,जरूर  जादू की छड़ी फेरती है। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने  से सटाते  हुए कहा बलदेव ने। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने से सटाते हुए कहा बलदवे ने। सीने में सटाकर बलदवे ने जैसे ही दोनों … Read more

छतरी

छतरी

  दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगर्ना मैं /बारिश की एक बूँद न बे-कार जाने दूँ .. अजहर फराग जी के इस शेर में बारिश की खूबसूरती छिपी है | सच ! बारिश  होते ही दिल बच्चा हो जाना चाहता है | वो पानी में भीगना, छप -छप करना कागज की नाव .. आह | पर एक उम्र बाद लड़कियाँ बारिश से परहेज करने लगती हैं | कपड़ों का  बदन से चिपक जाना और आस -पास घूरती नजरें, उन्हें चाहिए होती है एक छतरी | जिसके नीचे वो महफूज रह सकें | धीरे -धीरे जीवन में छतरियाँ बढ़ती जाती है | एक संघर्ष शुरू होता है इन छतरियों को पाने का, और जीवंतता खो जाने का | “छतरी” एक प्रतीकात्मक बिम्ब के साथ स्त्री जीवन की तमाम विद्रूपताओं पर गहरा प्रहार करती है, तो रास्ता भी दिखाती है |  आईये बारिश के मौसम में  पढ़ें डॉ. ज्योत्सना मिश्रा जी की एक खूबसूरत  कहानी  छतरी                                    वो रोज शाम पांच बजे लौटती ,धूप हो या सर्दी या बरसात । नहीं बरसात नहीं इस मौसम में कभी कभी देर हो जाती । बारिश कभी कभी जैसे उसके निकलने के समय की प्रतीक्षा में रहती और उसे अक्सर गेट की छतरी के नीचे खड़े इंतजार करना होता ,सब लोग निकल जाते साहब अपनी गाड़ी से और बाकी सब अपनी छतरियों के नीचे । छतरी उसे भी खरीदनी है ,ऐसा नहीं कि छतरी खरीदने को पति से उसने कहा नहीं ,कहा तो अप्रैल के शुरू में ही था कि अभी धूप से बचेगी फिर बारिश से । लेकिन बात आई गई हो गई । कहा आषाढ़ में भी था पर आजकल करते पूरा महीना बीत गया और सावन में तो सिवाय हल्की फुहार के बरसात हुई ही नहीं पति ने भी कहा इस बार तो सीज़न बीत ही गया ,अब छतरी क्या लेना, अगले साल ले लेना उसका बड़ा मन था कि जब छतरी ले तो सुन्दर रंगों वाली फ्रिल लगी ले जिसे समेटो तो कलाई भर की हो जाये और खटका दबाते ही आकाश सी फैल जाये आफिस की सारी महिला साथी पर्स में ही रख लेती थीं ऐसी छतरियां । अगले साल जरूर लेगी बस यह भादों पार हो जाये ।यह महीना तो जैसे पूरे चौमासे का हिसाब चुकाने पर लगा था रोज इतनी तेज , नकली लगने वाली बारिश जैसी फिल्मों में होती है । वो ऊब चूभ करती गार्ड के केबिन के बाहर खड़ी रहती और बारिश थमने का नाम न लेती ।उसे पति पर बहुत गुस्सा आता कि उसकी ज़रूरत की चीज़ो पर हमेशा टाल कर देते हैं । उसके घर में रिवाज़ था कि सभी अपनी तनख्वाह सासू मां को दे देते फिर जरूरत भर का वापस मिलता। उसे भी मिलता था दो तरफ का टैम्पो का किराया । आटोरिक्शा वाले पानी के छींटे उड़ाते उसके नज़दीक आ चिल्लाते, मैडम किधर जाना है ? वो मन में ही पैसे गिनती जो बमुश्किल ग्रामीण सेवा टेम्पो के किराए भर के होते और न में जबाब दे देती। बारिश नाराज़ हो और तेज हो जाती।कभी कभी उसकी आंखों में भी भर जाती । वो सड़क किनारे दुकानों के शेड के नीचे नीचे चल कर कुछ दूर जाती ,साड़ी के आंचल को सर से ले लेती और रैक्सीन का पर्स जोर से भींच कर तेज कदम से चौराहा पार करती । भीगने पर ज़ुखाम हो जायेगा इतना भर डर नहीं था। भीगे हुए कपड़े कई कई परत होकर भी पारदर्शी हो जाते, डर उसका था । सड़क पर लोगों की आंखें भी बारिशों में एक्स रे हो लेतीं हैं।छतरी की ओट होती तो और बात होती । आज तो बारिश इतनी तेज कि कोई रिक्शा भी नहीं दिख रहा ,आज कोई आटो वाला मिले तो वो बैठ ही जाती ,घर पहुंच कर पैसे दे देती आकाश काला होकर डरा रहा था सड़क किनारे की नाली बीच तक पहुंच गयी थी । कब तक खड़ी रहेंगीं,हमारी छतरी ले जाइये कल लौटा देना !गार्ड भइया ने कहा ,पर कुछ देर में उनकी भी शिफ्ट बदलती उन्हें घर जाने में दिक्कत होगी यही सोच झिझक गई वो सड़क पर भरे पानी में बूंदें घेरे बना रही थी उसने न जाने क्या सोचा पैर बढ़ा कर एक छल्ला छू दिया ,वो छल्ला उछल कर उसके पैर से लिपट गया। फिर उसने पर्स बगल में दबाया और पल्ला कमर पर खोंसा, साड़ी दोनो हाथों से उठाई और छप्प ! सड़क पानी के नीचे मुलायम नर्म मुस्कुराहट सी लगी वो उतरी और उतरी ,एक छप्प दो छप्प छप्प छप्प सड़क पर बीचोबीच तेज बारिश में भीगती चलने लगी वो वाहन अब तेजी से छींटें उड़ाते नहीं निकलते ,हार्न देते उसकी वहां मौज़ूदगी पर झुंझलाते पर उन्हें धीमा होना पड़ता । बारिश थोड़ी देर में ही उसकी सहेली बन गयी उसकी उंगलियों में पानी की उंगलियां फंसाये बरसात पोशम पा खेल रही थी । एक जगह एक बड़े से बरगद के पेड़ की शाखों ने बुलाया भी पर बारिश खिलखिलाती ,गुदगुदाती खींचती ले गयी । घर पहुंचते वो बिल्कुल भीग गई थी ,पल्ला अब भी खुंसा ही था। गीली साड़ी पैरों में लिपटी थी ।सिंदूर भीग कर गालों तक बह आया था ‌। गीली चप्पलों सहित ,बालों से ,कपड़ो से टपकते पानी से बेपरवाह , बिना किसी हड़बड़ी के वो अपने कमरे में चली गयी। बाहर सासू मां बड़बड़ा रहीं थीं ,बताओ छतरी नहीं तो हमसे कहा क्यों नहीं , शनिवार बाजार से ले आती । वो कमरे में भादों की बारिश की तरह गुनगुना रही थी… वो किसे चाहिए? भाड़ में जाये छतरी … डॉ . ज्योत्सना मिश्रा यह भी पढ़ें … लैण्ड स्लाइड जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी ढोंगी आपको कहानी “छतरी”कैसी लगी ? अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करे |

वसीयत 

वसीयत

बिन ब्याही बेटियाँ, तलकशुदा, परित्यक्ता या विधवा महिलायें सदियों से उस घर पर बोझ समझी गईं जिस के आँगन की मिट्टी में खेल कर बड़ी हुई, जिन्होंने अपनी कच्ची उम्र अपने छोटे भाई बहनों को पालने में बिता दी , और विवाह से पहले के हर दिन माँ के साथ घर की देखभाल में खपने खटने में | उन्हीं का जीवन जब  पति की छाया से दूर हुआ तो मायके बाहें नहीं पसारी, भाई-भौजाइयों ने मुँह बिचकाया, और अपने ही घर में वो बन गई बोझ | एक दुख के साथ उनके नसीब में लिख दिया गया हाड़ -तोड़ काम और बदले में ढेर सारे ताने और दो जून की रोटी .. घर की चारदीवारी के अंदर सदियों तक लिखी जाती रही स्त्री शोषण की सबसे दारुण कहानी | उनके घावों पर मरहम बन कर आया वो कानून जो लड़की को भी पिता की संपत्ति में हक देता है | पर क्या सब लड़कियाँ वसीयत पर अपना  जानती है ? क्या सब जीवन भर को भाई का प्रेम छोड़ने को तैयार हैं ? क्या सब अकेले रहने की हिम्मत कर पाती हैं ? बहुत से सवाल हैं लड़कियों के सामने पर सवालों में उलझने से  कहीं ज्यादा जरूरी है जवाबों की ओर कदम बढ़ाना | आइए पढ़ते हैं कलम की धनी सुपरिचित लेखिका आशा पाण्डेय जी की एक ऐसी ही अनब्याही लड़की की बेहतरीन कहानी वसीयत         यहीं, इसी जगह पर पहले एक चाल हुआ करती थी | उसमें  चार खोली हमारी थी | उधर , आनंद अपार्टमेंट के सामने वाले उस फ्लैट में तो हम बाद में गए थे | पहले यहाँ से दिखता था वो फ्लैट | अब तो देखो, बीच में ये इतने फ़्लैट  हो गए ! यहाँ मुंबई का तो पूछो मत , हर महीने एक नया फ़्लैट उग आता है |       तो उस साल म्हाडा की स्कीम इस इलाके के लिए भी आई थी | मेरे भाई ने भी फार्म भर दिया | उसका नसीब देखो , लग गया उसका नम्बर ! उस समय उसके पास पूरे पैसे भी नहीं थे | इधर-उधर से मांग के भी कम पड़ रहे थे | मेरी भाभी ने भाई को सुझाया कि माँ के गहने बेच दो , आखिर गहने इन्हीं दिनों के लिए तो होते हैं | भाई ने गहने बेच दिये | अच्छे पैसे मिले थे माँ के गहनों से … पुराने जमाने के एकदम शुद्ध सोने के मोटे-मोटे चार कड़े थे , गले की मोटी – सी चेन थी , दादी की दी हुई सोने की मोटी करधनी भी थी | अंगूठियाँ ,बुँदे तो कई-कई जोड़ थे माँ के पास | कुछ उसे शादी में मिले थे , कुछ मेरी दादी ने दिया था | माँ जब तक रहीं अपने गहनों को संभाल कर रखीं , तभी तो भाई के काम आये वो गहने |      उधर हमारा फ़्लैट चौथे माले पर था | उस माले पर चार फ़्लैट और थे | सारे वन बी .एच. के. | एक हाल , एक बेडरूम , एक किचन , | रसोई मिलाकर बस तीन कमरे , रहने वाले हम पांच जन – मैं ,मेरा भाई , मेरी भाभी और उसके दो बच्चे –एक बेटा , एक बेटी |             मैं सुबह उठकर घर में झाड़ू-पोछा करती , बरतन मांजती , दुकान से दूध और ब्रेड ले आती , सब्जी-भाजी काट लेती , आटा गूँथ कर रख लेती | तब तक मेरी भाभी भी उठ जाती | मेरी भाभी को घर में भीड़-भाड अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए उनके उठने के बाद मैं हाल से लगकर ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर बैठ जाती थी |  लोग लिफ्ट से ऊपर –नीचे आते- जाते थे न , इसलिए  सीढ़ियाँ खाली ही रहती थीं और मुझे बैठने का स्थान मिल जाता था |       नाश्ता और खाना भाभी ही बनाती थीं | मुझे देख कर उन्हें घिन आ जाती थी … वो मेरे दांत थोड़े बड़े और भद्दे थे न , इसलिए | जब तक खाना बनता था , मुझे रसोई में जाने की इजाज़त नहीं थी | जब भाभी सबका टिफिन भरकर तैयार कर देती थीं और खुद भी अपना टिफिन लेकर डयूटी पर निकल जाती थीं , तब मैं रसोई में जाती थी | नाश्ता- खाना जो कुछ भी रहता था , खा लेती थी और फिर से किचन की सफाई करती , बरतन मांजती , कपड़े धोती और दोपहर में बैठकर टी . बी . देखती  |       मेरी भतीजी मीता जब बड़ी हुई तो उसकी शादी हो गई | पर कैसे – कैसे तो लोग हैं इस दुनिया में | बेचारी को ठीक से रक्खे ही नहीं, आ गई लौटकर | कुछ दिन बाद उसका तलाक हो गया | उसे देख-देख कर मेरा मन भीतर ही भीतर बहुत रोता था |      अब मेरी भतीजी भी घर में रहने लगी | अब दोपहर में हम दोनों साथ-साथ बैठकर टी . बी . देखते | वह दीवान पर बैठ जाती , मैं नीचे फर्श पर | वह मुझसे घिनाती नहीं थी | भाभी की छुट्टी वाले दिन मैं काम करके पूरी दोपहर सीढियों पर ही बैठी रहती थी | अन्य दिनों में तो कोई दिक्कत नहीं होती थी पर बरसात में पानी की बौछार सीढ़ियों तक आ जाती थी |      मेरे घर के सामने वाले फ़्लैट में शिंदे परिवार रहने आया | शिंदे भाभी और मेरी भाभी कभी-कभी बात-चीत करती थीं | लिफ्ट से ऊपर-नीचे आते-जाते समय जब उन्हें मैं सीढ़ियों पर बैठी दिख जाती थी तब वो मेरा भी हाल-चाल पूछ लेती थी | मेरे होंठ बहुत अधिक न फ़ैल जाएँ इस बात का ध्यान रखते  हुए मैं धीरे से मुस्करा देती थी | मुस्कराने के अलावा मैंने उन्हें कभी कोई जवाब दिया ही नहीं | धीरे-धीरे उन्होंने मुझसे कुछ पूछना छोड़ दिया पर सामने पड़ने पर मुस्करा जरुर देतीं थीं |      मेरी भाभी कहती थीं कि मेरे दांत गंदे हैं तो मैं सोचती थी कि जैसे भाभी को मेरे दांतों की घिन है वैसे दूसरों को भी होगी | बस , इसलिए मैंने सब से बोलना , मुस्कराना छोड़ दिया था |      एक दिन जब मेरी भाभी की छुट्टी  थी , उन्होंने पकौड़े बनाये | एक प्लेट में पकौड़े भरकर उन्होंने … Read more

इत्ती-सी खुशी 

इत्ती सी खुशी

रात को जब सब सो जाते हैं तो चाँदनी सबकी आँखों में चाँद पाने का ख्वाब परोस देती है | सुबह उठते ही सब निकल पड़ते हैं अपने हिस्से के के उस चाँद को पाने के लिए | जो चाँद सपनों में आया था उसे पाने में कितनी नींदें खराब करनी पड़ती हैं | कभी चाँद मिल भी जाता है तो पता चलता  है .. हरी  -भरी धरती कहाँ बुरी थी ? अतीत सी पीछा छुड़ा कर वर्तमान जब भविष्य के लिए खुद को होम रहा होता है तो उसे कहाँ पता होता है वहाँ पहुँचकर इस हिस्से की घास दिखाई देगी |घबराता मन सोचता है कल में आज में या कल में आखिर कहानी है खुशी | पाठकों को अपनी कहानी के माध्यम से इत्ती सी पर असली खुशी का पता दे रही है सुपरिचित लेखिका कल्पना मनोरमा जी की कहानी ….. इत्ती-सी खुशी  घरों की मुंडेरें हों या कॉलोनी के पेड़-पौधे, सभी पर छोटे-छोटे बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगा दी गई थीं । उजाले का मर्म अबोले कहाँ जानते हैं; वे तो उजाले को पाकर खुद उत्स में बदल जाते हैं। चौंधियाती साँझ अपने प्रेमी के साथ पसरने को बेताब थी लेकिन चारों ओर बिजली का रुआब इस क़दर तारी था कि पेड़ों का हरा रंग के साथ धरती का भी रंग खिल उठा था। इस बार दीवाली आने से पहले मेरा भी पता बदल गया था। भले एक कमरे का ही सही अपना घर खरीदकर केतन ने मेरी जिंदगी को रोशन कर दिया था। किराए के सीलन भरे घर से निजात मिल चुकी थी।जिंदगी की भव्यता का छोटा-सा परिचय मिला था। सातवीं मंजिल पर खड़ी मैं नीचे झाँक-झाँक कर देखे जा रही थी। पार्क का मनभावन दृश्य धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की ओस जैसा लग रहा था। पलट कर अपने चारों ओर देखा तो जल्दी-जल्दी बालकनी में पड़ीं पुरानी चीज़ों को धकेलकर किनारे कर ढक दिया। दो चार ठीक-ठीक गमलों को थोड़े ऊँचे पर रख दिए ताकि आठवीं मंजिल के घरों से हम अच्छे दिख सकें।अभी मैं पौधों पर जमी मिट्टी साफ कर ही रही थी कि मन फिर से हुआ कि लाओ और देंखें नीचे हो क्या रहा है ? जैसा सोचा वैसा ही किया। देखा, एक महिला सुंदर परिधान में निकली और चट से गाड़ी में बैठकर फ़ुर्र गयी। ये निश्चित ही कुछ खरीदने जा रही होगी।दीवाली है भई!मैंने मन ही मन स्वयं से कहा। क्या मुझे भी इस धनतेरस कुछ ख़रीदना चाहिए? वैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने धनतेरस को कुछ ख़रिदवाना बंद ही करवा दिया था। पर इस बार क्या सच्ची में कुछ ख़रीद लूँ? एक कटोरदान ही सही  जैसा वृंदा मौसी के घर देखा था। मैंने जैसे खुद से ही पूछा और खुद ही उत्तर दे दिया। न न बेटे से इतना ख़र्च करवाने के बाद धनतेरस का शगुन करने के लिए नहीं कहूँगी। कुछ न खरीद पाने के बावजूद भी मन हल्का था। मैं आँखें उठा कर अपने सिर के ऊपर तनी छत को शुक्रिया के साथ निहारा। मैं अपने विचारों में निमग्न बालकनी में पड़ी कुर्सी पर ही बैठ गयी और धीरे-धीरे धनिक बस्ती में शर्मीली शाम का उतरना देखने लगी। मन शांत हुआ तो कान हरकत में आ गए और घर के भीतर हो रही खुरस-फुसर पर केंद्रित हो गए। “मेट्रो सिटी में रहने के अपने ही दुख होते हैं भाई। यहाँ न चैन से जिया जा सकता है न मरा।” एक आदमी बोल रहा था। उसको सही ठहराते हुए दूसरे ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा, “तभी तो अक्सर लोग कहते मिल ही जाते हैं कि”बृहस्पतिवार की लोई के लिए गाय नहीं,नवरात्रियों में कन्यायें नहीं और दाता को जल्दी से सच्चे जरूरतमंद नहीं मिलते और यदि मिलते भी हैं, तो जुआरी-शराबी; जिनको कुछ देना मतलब  उनके परिवार को विपत्ति में डालना। उनसे तो लोगों को तौबा ही कर लेनी चाहिए।” “चल छोड़ो यार! आज तो अपनी जमेगी न..?” दोनों आवाज़ें थमी तो खिखियाकर हँसने की समलित आवाज़ गूँज उठी। झपटकर मैंने अंदर झाँकते हुए बेटे से पूछा। “ये कौन अजीब-अज़ीब बातें कर रहा है ?” मेरे चेहरे पर डर छितरा चुका था। “अम्मा! मैं बताना भूल गया था। मुख्य द्वार पर बत्ती वाली बंदनवार लगाने के लिए इलेक्ट्रीशियन को बुलाया था। वही अपने हेल्पर के साथ आया है ।” “अच्छा, बड़ी अलग-सी बातें कर रहे हैं दोनों।” “अम्मा धीरे बोलो प्लीज़ अब आप गलियों वाली बस्ती में नहीं सोसायटी में रह रही हो। वे लोग अपनी बातें कर रहे हैं। सबके जीवन के अपने-अपने प्रसंग होते हैं। चलो तुम्हारे छालों की दवाई दिलवा लाता हूँ । देर होगी तो बाज़ार में ठेलम-ठेल मच जाएगी।” मुझे समझाकर वह तुरंत भीतर की ओर मुड़ गया । “अम्मा जल्दी करना…!” उसने फिर कहा। “हाँ, इन लोगों के जाने के बाद ही न!” “हाँ जी अम्मा!” सही तो कहा उसने बाज़ार का दूसरा नाम  ठेलम-ठेल ही होता है। लाने को मैं खुद भी दवाई ला सकती थी लेकिन त्योहार के दिनों में बच्चे जितना नज़दीक रहें उतनी ज़्यादा ख़ुशी मिलती है। वैसे देखा जाए तो आजकल के बच्चे नौकरी की चकल्लस में नाक तक डूबे रहते हैं। कब वे अपने साथ बैठें और कब परिवार के? अब देखो न आज मेरा ही घर से निकलने का बिल्कुल मन नहीं था लेकिन शरीर की व्यथा कहाँ समझती है मन के संकल्पों को। “चलता हूँ सर !” अपनी ऊब-चूब में डूबी में  फिर से बालकनी में जा बैठी थी कि अचानक उन दोनों ने जाने की आज्ञा बेटे से माँगी तो मुझे भी छुट्टी मिली। “चलो अच्छा हुआ जल्दी चले गए। केतन कौन से कपड़े पहनूँ ?” “अम्मा  जो आपको पसंद हों।” बेटे ने कमरे की खिड़की बंद करते हुए कहा । “बस दो मिनट का समय दो अभी चलती हूँ।” कहते हुए मैंने अलमारी खोली। एक तोतयी रँग का कुरता मेरे हाथ में आया। उलट-पलटकर देखा और वापस रख दिया।अब इसे बाहर नहीं पहनूँगी। गलियों में रहने की और बात थी और मैंने एक ठीक-ठाक साड़ी निकालकर पहन ली। घर से निकलते हुए बेटे ने कहा,‘क्या बात है अम्मा? आप किन ख़्यालों में खोई हो? सब ठीक तो है न! छाला ज्यादा दर्द कर … Read more

जीकाजि

जिकाजि

प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई । राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥ कितनी खूबसूरत बात कही है कबीर दास जी ने , प्रेम कोई खरीदी, बेची जाने वाली वस्तु थोड़ी ही है | ये तो गहन भावना है जो त्याग और समर्पण की नीव पर टिकी होती है | कुछ ऐसा ही प्रेम था रीवा और तेजस में |सब कुछ कितना आसान सा लगता था ….वो दौड़, भाग, वो गणित के सवाल, वो शरारतों भरी दोस्ती | पर जिंदगी अपनी मर्जी से चली है क्या ? ये गाड़ी कम धीमी रफ्तार हो जाए, कब ब्रेक ले ले और कब .. ? ऐसे में ही तो पता चलता है की प्रेम कितना गहरा था या कितना उथला | रीवा और तेजस कए प्रेम क्या इस कसौटी पर खरा उतर पाएगा ? आइए पढ़ते हैं सुपरिचित लेखिका “निर्देश निधि”जी की कहानी  “जीकाजि”   “मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा । म्याऊँ देख लेना । सिर्फ रेस ही नहीं जीतूँगा, हर बार की तरह  फुटबॉल के गेम में भी सबसे ज़्यादा गोल मैं ही करूंगा । मतलब ये कि वहाँ भी मैं और मेरी ही टीम जीतेगी ।“  “चल – चल अपना काम कर, हर  बार मैं ही जीतूँगा आया बड़ा, जीकाजि ।“ तेजस रीवा को म्याऊँ कहकर चिढ़ाता और रीवा तेजस को जीकाजि (जीत का जिन्न) पुकारकर चिढ़ाती ।  “क्यों नहीं जीत सकता मैं हर बार? तू आखिर अंडर ऐस्टिमेट कैसे कर सकती है मुझे म्याऊँ ?” “कभी तो कोई हार भी सकता ही है जीकाजि, खेल में हारना कोई कैरेक्टर लूज़ कर जाना थोड़े ही होता है, स्टुपिड।“  “मैं कभी नहीं हार सकता, कम से कम इस जीवन में तो कभी नहीं ।  इन फ़ैक्ट, मैं हारने के लिए बना ही नहीं, समझी……..।“ प्रैक्टिस के दौरान स्टेडियम में दौड़ते – हाँफते हुए वह चिल्ला – चिल्ला कर यह घोषणा करता । जिसकी श्रोता सिर्फ रीवा ही होती । वाकई, वह हर रेस जीतता, चाहे वह सौ मीटर की हो या दो सौ मीटर की । फुटबॉल के मैच में भी सबसे ज़्यादा गोल दागने वाला वही होता । यूं तो रीवा उसकी जीत पर खुद को विजेता समझती, पर उसे चिढ़ाती, “तुझे और आता ही क्या है जीकाजि । कोई ढंग का काम आता भी है तुझे रेस और फुटबॉल के सिवा ?”   “भूल गई म्याऊँ, एड़ी चोटी के ज़ोर लगाकर भी तू आज तक मैथ्स में मुझसे अच्छे मार्क्स ला नहीं सकी है।  ज़्यादा से ज़्यादा मेरे बराबर यानी सौ में से सौ ही ला सकी है,एक सौ एक तो कभी तू भी ला नहीं पाई ।“ यह भी वो स्टेडियम में दौड़ लगाते – लगाते चिल्ला कर कहता । उसके पैरों में जैसे कोई तीव्र गति यंत्र फिट था, वे कभी थकते नहीं, हारते नहीं । अपनी प्रैक्टिस के दौरान वह घंटों रीवा को स्टेडियम में बैठाए रखता, वह उस पर ऐहसान तो दिखाती रहती पर वहीं बैठ कर अपनी पढ़ाई करती रहती ।  “क्या हुआ बाकी सारे सब्जेक्ट्स में तो मैं ही नंबर वन हूँ जीकाजि । और हाँ यह भी मत भूलना कि मैं अगर म्याऊँ हूँ तो तू सिर्फ चूहा है चूहा, दौड़ मुझसे दूर वरना…. तू तो गया जीकाजि ।“   तेजस और रीवा की लगभग रोज़-रोज़ की बहस थी यह, पर दोनों की दोस्ती में बीच से हवा को भी गुज़र जाने की इजाज़त नहीं थी। दोनों बचपन से पड़ोसी थे और घर में माता – पिता का भी अच्छा मेल – जोल था, दोनों का बचपन एक साथ खेलते गुज़रा था । दोनों एक ही स्कूल, एक ही कक्षा, एक ही सैक्शन में पढ़ते, एक ही रिक्शा में बैठकर स्कूल जाते । दोनों के घर के बीच की  दीवार एक ही थी । रीवा के पिता सरकारी स्कूल की सीनियर विंग में अध्यापक थे और तेजस के पिता जूनियर विंग में । रीवा और तेजस दोनों ही अपने – अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे, यह भी इत्तफ़ाकन एक ही जैसा था । बचपन में जब किसी एक की माँ खाना देती तो वो झट से दूसरे को बुलाने उसके घर भागता । धीरे – धीरे जिस भी घर में खाना लगाया जाता दोनों के लिए ही लगाया जाने लगा । दोनों के घर वालों की कुछ ऐसी उदारता रही कि उन दोनों के बड़े हो जाने पर भी इस मेल – जोल को किसी ने रोका नहीं ।    बचपन से ही एक – दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने, गले लग जाने, एक दूसरे को छू लेने में न कोई असहजता  थी, न असहज होने का ज्ञान ही था । बड़े हुए तो सब कुछ वैसा ही होने के बावजूद स्पर्श कुछ बदला – बदला सा लगने लगा। अब कुछ दिनों से, कुछ असहज से हो जाने लगे, दोनों ही । बचपन पीछे छूट रहा था, दोनों के शारीरिक परिवर्तनों की उद्दाम लहरें अपनी ताज़गी, खुशबू, नयेपन के कौतूहल और नशे में सराबोर किशोरावस्था के कोरे साहिलों से टकरा रही थीं । तेजस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक बनकर उभर रहा था । रीवा सामान्य कद – काठी की गंभीर और समझदार और दृढ़निश्चयी लड़की बन कर बड़ी हो रही थी । पर उसने अपना चुलबुलापन भी खोया नहीं था । दोनों हैरान थे यह सोचकर कि आखिर यह कौन सा मोड़ था जीवन का, जिस पर ना चाहते हुए भी बचपन की दोस्ती खत्म हुई जा रही थी । अब एक – दूसरे से एक नई पहचान हो रही थी, जैसे उनके पुराने रिश्ते का नवीनीकरण हो रहा हो । हो जो भी रहा था पर रिश्ता और प्रगाढ़ होता जा रहा था । कुछ – कुछ अलग से इस एहसास पर एक दिन बोल ही दिया था मुँहफट तेजस ने,  “ए म्याऊँ, तू क्या जादू करने लगी है अब ? तेरे कंधे पर भी हाथ रख लूँ तो करंट सा लग जाता है यार ।“ इस पर रीवा आँखें झपकाकर बोली थी,  “मैं तो कुछ एक्स्ट्रा एफ़र्ट नहीं डालती, अब तुझमें ही कोई प्रॉब्लम हो गई लगती है । सिंपल, अब मेरे कंधे पर हाथ रखा ही मत कर, बचा रह जाएगा करंट से ।“ और वह खूब ज़ोर … Read more