ठकुराइन का बेटा

ठकुराइन का बेटा

क्या प्रेम व्यक्ति को बदल देता है ? व्यक्ति के संस्कार में उसके आस -पास के लोगों का व्यवहार भी शामिल होता है | ठकुराइन का बेटा एक ऐसे ही व्यक्ति की कहानी है जो अपने कर्म के संस्कारों से को छोड़कर एक सच्चा इंसान बनता है | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी की कहानी …. ठकुराइन का बेटा   पुलिस के डर के मारे वह भागा जा रहा था ।सड़क पर सन्नाटा छाया था।एकबड़ी कोठी की चारदीवारी फाँद कर अंदर कूद गया ।कोठी के पीछे सहायकों केलिए कमरे बने हुए थे,सबसे किनारे वाले कमरे का दरवाज़ा उढ़का था।अंदरपहुँचते ही आवाज़ आई -“ आ गया बेटा।” पता नहीं कैसे मुँह से निकल गया-“हाँ,अम्मा ।” महिला ने संभवत नींद में ही कहा -‘ चुपचाप सो जा ।’ वह नंगे फ़र्श पर लेट गया,पहली बार इतनी मीठी नींद आई । सुबह की रोशनी चेहरे पर पड़ी,देखा चालीस साल की ममतामयी प्रौढ़ा उसे देखरही है।’उठ गया बिरजू। उधर नल है,संडास है।फ़ारिग हो कर रोटी खा लेना।मैं कोठी पर जा रही हूँ ।’   जीवन के ऐसा बदलाव आयेगा,सोचा न था,छोटू से बिरजू बन गया ।सोचते हुएनल पर चला गया,कुछ महिलायें कपड़े धो रही थी । ‘आ गया ठकुराइन अम्मा का बेटा ।अब माँ को छोड़कर मत जाना ।बेचारी नेबड़े कष्ट भोगे है ।’उसने चुपचाप सिर हिला दिया ।   कोठरी में आकर देखा,दो रोटियाँ ढंकी रखी थी ।कितने दिनों बाद चैन की रोटी नसीब हुई ।पड़ोसी की बिटिया गिलास में चाय लेकर आई,बताया कि अम्माअब दोपहर में आयेगी।कोठी पर खाना बनाती है ।   चाय पीकर वह सफ़ाई में जुट गया ।सारे कपड़े तह किये,झाड़ पोंछ की।किनारेएक टीन का बक्सा था,पर उसे खोला नहीं ।अम्मा की साड़ी धोकर अलगनी परफैला दी ।पड़ोसिनो को प्रसन्नता हुई कि अम्मा का बेटा सुधर गया ।   उन्नाव के किसी गाँव में अम्मा का घर था।पति के गुजर जाने के बाद किसीप्रकार अपने एकमात्र पुत्र के संग जी रही थी।देवर ने बेटे को न तो पढ़ने लिखनेदिया,और बिगाड़ दिया ।इससे भी संतोष न हुआ,तो जायदाद के लिए हत्या काविचार किया ।अम्मा को ख़बर मिल गयी,और वह बेटे को लेकर भाग निकली। रास्ते में बेटा जाने कहाँ उतर गया ।वह व्याकुल भटकने लगी,उसे  कनोडिया परिवार की बड़ी सेठानी मिल गई ।समझा बुझाकर अपने साथ ले आई ।अस्सीवर्षीय माता का पूरे घर पर हुकुम चलता था। पुत्र गिरधारीलाल,पौत्र राधे लाल,उनकी बहुयें के लिए माता की आज्ञा सर्वोपरि थी।अब तो नये युग के राघव भी बड़े हो गए थे,दादा के आदेश से आफिस जानेलगे।ये माता की चौथी पीढ़ी के हैं ।   ठकुराइन को रहने के लिए कोठरी मिल गई ।खाना बनाने का कौशल था,सो रसोई संभाल ली।माता को हाथ की चक्की का पिसा आटा चाहिए था,सो माताके लिए गेहूं पीस कर रोटी बनातीं।बहुओं को ठकुराइन के कारण बहुत आराम हो गया ।ठकुराइन अम्मा कही जाने लगी ।सेठानी ज़बरदस्ती पगार देतीं,जिसेवह टीन के बक्से में रख देती,पर अपना खाना स्वंय बनाती। गिरधारीलाल को पता चला कि ठकुराइन का बेटा आ गया है ।उन्होंने विरोध किया,पता नहीं कौन है,चोर चकार न हो।पर माता के सामने कुछ कह नहीं सके।संशय का कीड़ा कुलबुलाता रहा। रात को अम्मा ने रोटी बनाई,खाकर अम्मा लेट गई।वह अम्मा के मना करने परभी पैर दबाने लगा।-‘ अम्मा मैं बिरजू नहीं हूँ ‘ ‘मुझे पता है,तुझे घर चाहिए था,मुझे बेटा ।अब तू बिरजू है,ब्रजेन्द्र सिंह ।   अम्मा मैं पासी हूँ ।छोटे नाम है ।छोट जात का हूँ । ‘तू चाहे कुछ भी रहा,अब मेरा बिरजू है ।   बिरजू चुपचाप पैर दबाता रहा-‘अम्मा अगर बिरजू आ गया तो।’   ‘तो क्या,मैं कह दूँगी कि तू उसका कुंभ मेले का बिछड़ा भाई है।’ हर सवाल का जवाब अम्मा के पास था।   ‘ एक सवाल और पूछ ।दरवाज़ा क्यों खुला था। ‘एक उम्मीद थी कि खुले दरवाज़े से किसी दिन बिरजू आयेगा,और आ गया।’अम्मा गहरी नींद में सो गई।   छोटू उर्फ़ बिरजू ने यहीं रहने का निश्चय कर लिया,ममता की छाँह छोड़ कर कहाँ जाता ।   कोठरी के पीछे काफ़ी जमीन खाली पड़ी थी।अम्मा ने बड़ी सेठानी से आज्ञा लेली ।बिरजू ज़मीन को समतल करने में जुट गया ।क्यारियाँ बना कर सब्ज़ियाँ बो दी।किनारे पर कुछ गेंदा के पौधे लगाए ।बगिया लहक उठी।अब सारे पड़ोसी वहीं से सब्ज़ी लेते ।   कोठी पर फूल देने वाली नहीं आई ।हंगामा मच गया कि माता पूजा कैसे करेंगी।बाहर इतना बड़ा लान था,पर फूल नहीं थे। उर्मिला जो पड़ोसी थी,बोली’चलिये मालकिन अम्मा की बगिया से फूल ले आयें। बड़ी मालकिन कोठी के पीछे आई ।इधर कोई आता नहीं था।बगीचा देख ख़ुशहो गयीं।बिरजू ने फूलों से डलिया भर दी।बेल से एक लौकी तोड़ पेश की । अब मालकिन अपने पति गिरधारीलाल जी से बिरजू को आफिस में लगवाने को कहने लगी।   गिरधारीलाल बिरजू से चिढ़ते थे-पता नहीं कहाँ से चोट्टा पकड़ लाई है ।बेटा बना लिया ।   मालकिन-जब से अम्मा ने रसोई संभाली है,एक चम्मच भी ग़ायब नहीं हुई ।मसालदान में इलायची भरी रहती है । अपनी माता और पत्नी के सामने गिरधारीलाल ने हथियार डाल दिए ।पोते राघवके कक्ष का चपरासी नियुक्त किया । ड्राइवर राम सिंह ने वर्दी दिलवा दी,समझाया कि बड़े सेठ समय के पाबंद हैं ।छोटे सेठ थोड़ा लेटलतीफ़ है ।सबसे जूनियर राघव सेठ बड़ी मुश्किल से आते हैं।तुम्हें उनके कमरे की देखभाल करनी है,बाक़ी समय बाहर स्टूल पर बैठ करघंटी बजते अंदर जाना ।   बिरजू दस बजे से पहले आफिस पहुँच जाता,कमरा झाडपोछ कर चमका देता ।राघव मस्त मौला युवक थे।एकदम लापरवाह,अभी तो पिता और दादा व्यापार संभाल रहे हैं,सो बेफ़िक्री से सीटी बजाते दो ढाई बजे आते ,जल्द ही निकल जाते ।जब से सगाई हुई है,शाम को अक्सर होने वाली संगिनी के साथ घूमनेनिकल जाते।   जब भी आते,बिरजू को मुस्तैद पाते ।हंस कर -तू पूरे समय डटा रहता है ।वेलापरवाह हो सकते थे,पर बिरजू को अपनी अम्मा का ख़्याल था।   सुबह जब वह झाड़ू लगा रहा था,कोई चीज़ कूड़े में चमकती नज़र आई ।उठाकर देखा,हीरे की अंगूठी थीं।बड़ा हीरा जगमगा रहा था ।लाख दो लाख की तो होगी।अंदर बैठा चोर ललकारने लगा,निकल ले,बहुत दिनों की ऐश है।किसी कोक्या पता लगेगा कि अंगूठी मुझे मिली।वह अंगूठी कपड़े से पोंछता जा रहा था ।   बड़े सेठ के कमरे … Read more

हंसते जख्म

हँसते जख्म

विवाह एक ऐसी गांठ, जिसमें दो लोग एक -दूसरे के साथ जिंदगी भर हर लम्हा प्यार के, अपनेपन के , जिम्मेदारी के  अहसास से गुजारने वादा करते हैं | पर जिस देश में लड़कियाँ बोझ समझी जाती  हों वहाँ  ये वादा इस तरह से नहीं निभता | वहाँ शादियाँ बस निभाई जाती  हैं | ऐसी ही एक शादी में प्रेमी व पति के बीच बँटी हुई एक लड़की की दास्तान .है प्रेमलता टोंगया जी की कहानी “हंसते जख्म” मध्यम श्रेणी परिवार में राधा और उसके बड़े भाई का बचपन प्यार से बीता।सारी खुशियां साथ लिये वह बड़ी हो गई, भाई भी बड़ा हो रहा था । राधा की जवान तमन्नाओं का सैलाब और कालेज की पढ़ाई एक साथ चल रहे थे।वह सुन्दर होने के साथ पढ़ाई में भी होशियार थी, उसके कालेज में लड़की और लड़के साथ पढ़ते थे।एक लड़का विनय” जो राधा का रिश्तेदार भी था राधा के घर के सामने ही रहता था सो साथ ही आता जाता उसका ख्याल रखता ।पढ़ाई में भी सहायता करता । इसी तरह तीन साल बीत गए। दोनों साथ रहते हुए एक-दूसरे को बेहद चाहने लगे एक दिन दोनों ने अपने अपने प्यार का इजहार किया। एक दिन शाम होते ही दोनों काफी पीने निकले, बड़े भाई ने देख लिया तो बहुत नाराज़ हुआ घर पर भी बता दिया लेकिन राधा ने साफ कहा कि शादी करूंगी तो विनय से वरना नहीं।भाई इस बात से बहुत नाराज़ हुआ उसके अहम को चोट लगी थी, उसने मां पिताजी को समझा कर अपने दोस्त से शादी करवा दी जो परिवार के दूर की रिश्तेदारी से था ।समाज में परिवार की बेइज्जती के डर से राधा ने अपनी भावनाओं को दफ़न कर दिया। सुहागरात को दोनों में कोई बात नहीं हुई, क्योंकि राधा का पति शराबी था, और निकम्मा भी।जब एक दो दिन बाद वह राधा के करीब आने की कोशिश करने लगा तब राधा को असलियत पता चली कि यह तो नपुंसक है। उफ्फ ____राधा रोती रही और सोचती रही कि यह मेरे भाई ने मुझे किस आदमी के पल्ले बांध दिया?? कौनसे जन्म का बदला लिया है,?? सारे अरमानों पर पानी फिर गया ।उसने अपने मायके आकर अपने प्रेमी विनय को सारी बात बताई दोनों ने सारी जिन्दगी साथ देने का वादा किया।अब दोनों साथ घूमते फिरते कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि राधा गुस्से में बोल चुकी थी कि किसी ने भी मेरे मामले में दख़ल दिया तो तलाक दे दूंगी या मैं आत्महत्या कर लूंगी।समाज और रिश्तेदारी की वज़ह से सभी चुप थे।एक चचेरी बहन थी राधा की वह सब जानती थी। उसके घर में एक कमरा खाली रहता था,वह दोनों का साथ देती और उनका मिलन करवाती।पति अपनी कमजोरी के कारण चुप रहता।जब राधा प्रेगनेंट हो गई तो उसने अपने पति को बताया पर वह कुछ बोल ही नहीं पाया, बच्चे को अपना नाम देना ही मुनासिब समझा क्योंकि गलती उसी की थी झूठ बोल कर शादी करने, गलत हरकतें करने और ना कमाने का परिणाम भोगना ही था। इसी तरह राधा ने दो बच्चों को जन्म देकर नाम अपने पति का ही  दिया। एक दिन राधा को किसी ने बताया विनय नहीं रहा ओह…. राधा सुनते ही बेहोश हो गई।होश आने पर पता लगवाया कि कहां है??? लेकिन ना ही लाश मिली ना ही मरने का कारण पता चला हां कपड़े जरुर किसी स्वीमिंगपूल के किनारे पड़े मिले।शायद किसी ने…….अब बच्चों की परवरिश वह अकेले ही कर रही थी, क्योंकि विनय का सहारा छिन गया था। राधा ने ब्यूटी पार्लर का कोर्स किया हुआ था सो घर में ही पार्लर खोल कर अपने और बच्चों के लायक़ कमाने लगी।पति इधर उधर से मांग कर शराब पीता और घर आकर बेइज्जती की रोटी खाता। आज दोनों बच्चों की शादी करके राधा खुश है। उसने अपने बच्चों से कुछ नहीं छुपाया सब कुछ बताया विनय के बारे में। लेकिन दोनों बच्चे समाज में राधा के और पति के नाम से ही जाने जाते हैं। अब भी राधा अपने प्यार को याद करके आंसू बहाती है, लेकिन उसके दर्द को कोई नहीं समझ सकता शायद उसके नसीब में इतना ही था।पति से वह आज भी नफ़रत करती है।  प्रेम टोंग्या इन्दौर यह भी पढ़ें ॥ कहानी -कडवाहट ब्याह :कहानी -वंदना गुप्ता लैण्ड स्लाइड आपको कहानी हँसते जख्म कैसी लगी ? अपनी प्रतिक्रिया से हमीं अवश्य अवगत कराये |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारी साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन पेज लाइक करें |

भ्रम 

कहानी -भ्रम

भ्रम में जीना कभी अच्छा नहीं होता, लेकिन हम खुद कई बार भ्रम पालते हैं .. बहुत लोग हैं हमारे अपने, बस जरा सा  कह  देंगे तो सबका साथ मिल जाएगा | कई बार हम अपने इस भ्रम को जिंदा रखने के लिए कहते भी नहीं हैं | पर एक दिन ऐसा आता है की भ्रम के इस चढ़ते हुए बोझ से हमारा अपना अस्तित्व तार -तार होने लगता है | उस समय ये भ्रम की गठरी उतार कर फेंक देते हैं |असली सशक्तता वहीं से होती हैं | आइए पढ़ते हैं सुपरिचित कथाकार कविता  वर्मा की बरसों -बरस ऐसे ही भ्रम में जीती लड़की की कहानी .. भ्रम    गर्मियों के दिन में सूरज उगते ही सिर पर चढ़ जाता है उसके तेवर से सुबह का सुहानापन यूँ झुलस जाता है जैसे गिरे हुए पानी पर गर्म तवा रख दिया गया हो। कहीं से ठंडक चुरा कर लाई हवाएँ भी सूरज की तपिश के आगे दम तोड़ देती हैं। उनका हश्र देख दिल दिमाग मुस्तैदी से काम निपटाने की ताकीद करता है। वैसे भी इतने सालों की अनुशासित जीवन शैली ने मेघना को सुबह टाइमपास करना या अलसाना कभी सीखने ही कहाँ दिया? आँख खुलते ही घर के कामों की फेहरिस्त दिमाग में दौड़ने लगती है और उन्हें पूरा करने की बैचेनी भी। बरसों की आदत और कहीं कोई कोताही होने पर मिलने वाले कड़वे बोल आलस को आसपास भी न फटकने देते। मेघना अभी घर के काम निपटा कर फुर्सत ही हुई थी कि उसका मोबाइल बज उठा। एक झुंझलाहट सी हुई जब यह विचार आया कि किसका फोन होगा लेकिन फोन बज रहा है तो उठाना तो होगा ही। नए नंबर को देख उसने असमंजस में फोन उठाया दूसरी तरफ एक चहकती हुई आवाज थी “हेलो मेघना कैसी है तू? क्या यार कितने साल हो गए न मिले हुए, बात किए हुए, हमेशा तेरी याद आती है लेकिन तेरा नंबर ही नहीं था मेरे पास।” दूसरी ओर की चुप्पी से बेखबर वह आवाज अपनी खुशी बिखेरती जा रही थी, जबकि मेघना ने उसी आवाज के सहारे पहचान के सभी सूत्रों को तलाशना शुरू कर दिया था। इतना तो तय था कि फोन उसकी किसी पुरानी सखी का है लेकिन कौन नाम याद ही नहीं आ रहा था। उस तरफ से जितनी खुशी और उत्साह छलक रहा था मेघना उतने ही संकोच से भरती जा रही थी। खुशी की खनक में संकोच की चुप्पी सुनाई ही नहीं दे रही थी और इस खनक पर अपरिचय का छींटा मारने का साहस मेघना नहीं जुटा पा रही थी। तभी शायद चुप्पी ने चीख कर अपने होने का एहसास करवाया और वहाँ से आवाज आई, “अरे पहचाना नहीं क्या मैं सुमन बोल रही हूँ जबलपुर से”  नाम सुनते ही दिमाग में पड़े पहचान सूत्र एक बार फिर उथल-पुथल हुए और कहीं दबा पड़ा नाम सुमन कश्यप सतह पर आ गया। “अरे सुमन तू कैसी है कहाँ है आजकल और तुझे नंबर कैसे मिला” मेघना के स्वर में भी थोड़ा उत्साह थोड़ी खुशी छलकी जो सायास ही लाई गई थी। जबलपुर से जुड़े सूत्र के साथ बहुत आत्मीयता अब उसमें शेष न बची थी लेकिन उसे प्रकट करना इतना सहज भी न था। कम से कम प्रचलित मान्यताओं के अनुसार तो पुरानी सखी और मायके के नाम का जिक्र प्रसन्न होने की अनिवार्यता थी। पति बच्चे ससुराल की बातों के बाद आखिर वह प्रश्न आ ही गया जिसकी आशंका मेघना को प्रसन्न नहीं होने दे रही थी। सुमन ने बताया था कि बाजार में बड़ी भाभी मिली थीं और नंबर उन्हीं से मिला है। नंबर के साथ ही उन्होंने कुछ उलाहने भी अवश्य दिए होंगे जानती थी मेघना। वही उलाहने प्रश्न बनकर आने से आशंकित थी वह। अचानक उसे तेज गर्मी लगने लगी जैसे सुमन के प्रश्न सूरज की तपिश लपेट कर उसके ठीक सामने आ खड़े हुए हैं। अच्छा कहकर बात खत्म करने की कोशिश की उसने लेकिन उस तरफ से बात तो अब शुरू होना थी। “भाभी कह रही थी कि तू मायके नहीं आती दो-तीन साल हो गए ऐसा क्यों, कोई बात हो गई क्या?” सुमन ने कुरेदते हुए पूछा तो थोड़ी अनमनी सी हो गई वह। यह भाभी भी न, हर किसी के सामने पुराण बाँचने बैठ जाती हैं। सुमन ने नंबर माँगा था दे देतीं, मैं मायके आती हूँ नहीं आती बताने की क्या जरूरत थी? मन में उठते इन असंतोषी भावों को दबाकर वह हँसी की आवाज निकालते हुए बोली “अरे ऐसा कुछ नहीं है पहले संयुक्त परिवार था तो पीछे से सुकेश के खाने-पीने की चिंता नहीं रहती थी, बच्चे भी छोटे थे तो लंबी छुट्टी मिल जाती थी। अब गर्मी की छुट्टियाँ उनकी हॉबी क्लास स्किल क्लास में निकल जाती हैं अब बच्चों को छोड़कर जाना नहीं हो सकता न अभी इतने समझदार भी नहीं हुए हैं। वैसे कभी-कभार किसी शादी में हमें निकलना होता है तो जबलपुर रुक जाती हूँ। और तू सुना कब आई जबलपुर, कब तक रुकेगी? ” मेघना ने बिना रुके प्रश्नों की झड़ी लगाकर बातचीत की दिशा मोड़ दी। लगभग बीस मिनट की इस बातचीत ने मेघना को थका दिया फोन रख कर उसने पूरा गिलास भर पानी पिया और बेडरूम में आकर लेट गई।   यादों की गठरी के साथ दिक्कत ही यही है कि अगर उसे जरा सा छेड़ा तो यादें रुई के फाहे सी हवा में तैरने लगती हैं, फिर उन्हें समेट कर वापस बाँधना मुश्किल होता है जब तक उन्हें सहला कर समेटा न जाए। मेघना ने बिस्तर पर लेट कर आँखें बंद की तो अतीत के फाहे उसकी आँखों के आगे नाचने लगे।n बाईस की हुई थी वह जब उसकी सगाई सुकेश के साथ हुई थी। उसके पहले का जीवन आम भारतीय लड़की की तरह था, होश संभालते ही खाना बनाना, घर के काम करना सिखा दिया गया था। तीन भाइयों की इकलौती बहन थी। यूँ खाने कपड़े की कोई कमी न थी सरकारी कॉलेज में पढ़ाई का विशेष खर्च भी न था लेकिन फिर भी कभी-कभी बहुत छोटी-छोटी बातों में भी लड़के लड़की के बीच का भेद उसे चुभता था। अम्मा खूब पढ़ी लिखी तो न थीं, लेकिन सामाजिकता व्यवहारिकता निभाना खूब … Read more

कार्टून

कार्टून

चित्रकला में सिद्धहस्त माँ जब अपनी बेटी को एक चित्रकला की बारीकियाँ सिखाती है तो कहती है कि “काग़ज़ पर चेहरे ऐसे लाओ जैसे वे तुम्हें नज़र आते हैं| ऐसे नहीं जैसे लोग उन्हें पहचानते हैं|” बेटी सीखती है .. चित्र बनाती है , पर वो कार्टून बन जाते हैं | पर वो तो हमेशा गौर से देख कर बनाती है, जैसे उसे दिखते हैं  .. किसी की नाक इतनी लंबी है की पूरे चेहरे को ढक लेती हैं, किसी की आँखें इतनी गोल व लाल तो किसी के कान हद से ज्यादा बड़े | उसके चित्रों को लोग कार्टून कहते हैं .. क्योंकि उन्हें सच सुनना देखना पसंद नहीं हैं | सच बोलने वालो को ताने उलाहने मिलते हैं .. कई बार उनकी हत्या तक हो जाती है | क्योंकि हम झूठ सुनना चाहते हैं अपने बारे में, अपने चेहरे के बारे ,अपने रिश्तों के बारे में .. एक सुंदर चित्र , नपा तुला जो कार्टून तो बिल्कुल नहीं हो सकता |  कहानी की शुरुआत सफल कार्टूनिस्ट बेटी के इंटरव्यू से होती है और फ़्लैश  बैक में जाकर उस बदसूरती तक पहुँचती है जिसे हम कार्टून कह कर टाल  नहीं सकते |पढिए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की सशक्त कहानी ..  कार्टून  प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट प्रभाज्योति अपने हर इन्टरव्यू में अपनी माँ की सीख दोहराते हुए उन के प्रति अपना आभार प्रकट करती है| बताती है वह जैसे ही हाथ में पैंसिल पकड़ने योग्य हुई थी माँ ने उस के सामने लाल, क्रीम, सलेटी रंगों के व खुरदुरे, जई, पारदर्शी बुनावट के काग़ज़ों के साथ तीन-बी पैंसिल, चार-बी पैंसिल, चारकोल पैंसिल, चौक पैंसिल, क्रेयॉन स्टिक, खड़िया स्टिक, काठकोयला ला बिछायी थीं और बोली थीं, “काग़ज़ पर चेहरे ऐसे लाओ जैसे वे तुम्हें नज़र आते हैं| ऐसे नहीं जैसे लोग उन्हें पहचानते हैं| नाक-माथा, आँख-कान, गला और होंठ तो सभी चेहरों के पास हैं| लेकिन हर कोई अपने चेहरे के किसी एक नक्श को सब से ज़्यादा इस्तेमाल करता है और चेहरा बनाते समय हमें वही एक नक्श बिगाड़ कर पेश करना होता है…..” माँ के बारे में प्रभाज्योति फिर और कुछ नहीं बताती| चुप लगा जाती है| यह चुप उस के साथ उस के ग्यारहवें वर्ष से चल रही है| जिस साल उसकी माँ की मृत्यु हुई थी और उस का बचपन उस से विदा ले लिया था|  अपने उन ग्यारह वर्षों को वह अपने पास रखे रखती है….. अकेले में उन्हें खोलती ज़रूर है….. बारम्बार….. कैसे उन दिनों उस ने बड़े भाई का चेहरा बनाया था तो उसकी नाक उसकी गालों से बड़ी कर दी थी….. मँझले भाई के कान उसकी आँखों से शुरू कर उसके जबड़ों तक लम्बे कर दिए थे….. छोटे भाई को तीन ठुड्डियाँ दे दी थीं और गरदन मोटी कर दी थी| याद है उसे, कैसे दादी अपनी तस्वीर देख कर भड़क ली थीं, ‘तस्वीरें बनाती वह है और फिर उन्हें बेटी के नाम की ओट दे देती है…..’ अपनी तस्वीर उन्हें कतई नहीं भायी थी| कारण, प्रभाज्योति ने उनकी गालें गोलाई में रखने की बजाए इतनी चपटी कर दी थीं कि कान गायब ही हो गए थे| असल में दादी को माँ से शुरू ही से चिढ़ रही थी| और वह चिढ़ प्रभा के जन्म के बाद तो दस बित्ता और ऊपर चढ़ ली थी, ‘तीन लड़कों की पीठ पर एक लड़की जन कर बहू घर में कोई आपदा लाना चाहती है…..’ इसीलिए प्रभा के पालन-पोषण का बीड़ा माँ ने अपने ऊपर ही ले रखा था| तीनों भाई दादी की गोदी में पले-बढ़े थे| लेकिन प्रभा को न केवल माँ की गोदी ही उपलब्ध रही थी, बल्कि ड्राइंग की यह ट्रेनिंग भी| मगर अचम्भे की बात तो यह थी कि माँ की ड्राइंग का वही हुनर जो अभी तक भाइयों की ड्राइंग की कापियों में और साइंस की प्रैक्टिकल बुक्स के डाएग्रैम्ज़ पर उन्हें ‘वेरी गुड’ दिलाने का गौरव प्राप्त करता रहा था, प्रभा के पास जाते ही नया निरूपण धारण कर रहा था| माँ के रूलर वाले जोड़ से अलग जा रहा था| कहाँ तो माँ द्वारा बनाए गए चेहरे सही अनुपात लेते रहे थे| माँ अपनी ड्राइंग में चेहरे के सिर की अनी और ठुड्डी की नोंक के बीच का फ़ासला रूलर से माप कर उसे उस की आँखें देती थीं| बीचोंबीच| और फिर नाक और ठुड्डी का फ़ासला माप कर नाक के ऊपर वाले सिरे की सीध से शुरू कर नाक के निचले सिरे की सीध तक कान रखती रही थीं| और कहाँ प्रभा के काग़ज़-पैंसिल चेहरों को टेढ़े-टेढ़े मरोड़ दे कर विकृत रूप देने की ठानते चले गए थे! क्रमशः| निरन्तर| अपने उस ग्यारहवें साल में प्रभाज्योति ने पापा की तस्वीर बनायी थी| लाल काग़ज़ पर| पापा के नाक-नक्श प्रभा ने काठ-कोयले से छितराए थे| बालों की रज्जू हूबहू उन की असली रज्जू की जगह रखी थी| उन के तीन-चौथाई बालों को उनके एक-चौथाई बालों से अलग करती हुई| आँखों की भौहों व बरौनियों को भी सुस्पष्ट समानता दी थी| कानों को भी नाक के अनुपात में एकदम मेल खिलाया था| मगर उनकी आँखों के गोलक, उनकी नासिकाएँ, उनकी गालों की हड्डियाँ, उनके बालों की मांग रिक्त, खाली लाल काग़ज़ पर रख दी थीं| साथ में जोड़ दी थी वह लाल ज़ुबान जो ऊपर के खुले होंठ को धकियाती हुई निचले होंठ और ठुड्डी की जगह ले बैठी थी| नाक का टेढ़ापन भी अधिमाप लिए था| और काली पुतली लिए लाल वे नेत्र-गोलक और लाल वह ज़बान पारिभाषिक प्रकोप की आशंका सामने रख रही थी| “देख तो!” दादी वह तस्वीर झट पापा के पास ले गयी थी, “बहू कैसे तो लड़की को बिगाड़ रही है!” “यह क्या?” आनन-फानन पापा उस तस्वीर के साथ माँ के पास जा धमके थे| माँ उस समय पापा के लिए अनन्नास तराश रही थीं और बोलने में बेध्यानी बरत गयीं थीं, “प्रभा ने आपकी तस्वीर बनायी है…..” फल तराशते समय वह पापा के संग अकसर उच्छृंखल स्वेच्छाचार पर उतर आती थीं| शायद सोचती थीं फल तराश कर वह पति को अनुगृहित करती थीं क्योंकि फल वह बहुत श्रम से तराशा करतीं| पपीते के, सेब के, चीकू के छिलके तो ललित अपनी काट से उतारती ही उतारतीं, सन्तरे व मौसमी की फाँकों के तो बीज … Read more

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लैंड स्लाइड या भूस्खलन -ठोस चट्टान अथवा शैल यदि अचानक ढलान पर फिसल जायें तो उसको भू-स्खलन कहते हैं ।  भू-स्खलन चंद सेकंडों में हो सकता है तथा इसमें कुछ दिन और महीने भी लग सकते हैं । वरिष्ठ लेखिका कुसुम भट्ट जी की  कहानी “लैंड स्लाइड”  भी एक भूस्खलन की ओर इशारा करती है | सतरी की तुलना धरती से की गई है |ये धरती स्थिर रहती आई है हमेशा .. तो क्यों ना आम धारणा बन जाए कि क्या कर सकती है बेचारी औरत ? आइए जाने मन के इस लैंड स्लाइड के प्रभाव को ..   लैण्ड स्लाइड   गौरी का देहरी से बाहर निकलना हुआ ही था कि चट्टान की तरह बीच में आ गया अवरोध – पहचाना फूफू जी….?’’ जरा भी खिसकना उसने मुनासिब न समझा! अंगद पांव जमाये खड़ा रहा कम्बख्त – ऐसे क्या देख रही फूफू जी मैं कल्लूऽ…’’ गौरी ने कलाई घड़ी देखी सिर्फ तीस मिनट! साढ़े दस बजे नहीं पहुँची तो सबकी आँखों की किरकिरी हो जायेगी, कई मर्तबा उसे देर से आने के लिये माफी मांगनी पड़ी थी, पर हर बार उसे माफ कर ही दिया जायेगा, इसकी गारंटी थोड़े ही है। उसकी जिंदगी में ही इस कदर अवरोध क्यों, जब भी आगे बढ़ने को होती बीच सड़क में लैण्डस्लाइड! उसने आॅटो रिक्शा मंगवा लिया था। अगर वह दस मिनट में होटल हिम पैलेस के पास नहीं पहुँची तो…? वह एक टक गौरी की आँखों मे ंदेख रहा था – कलम सिंह हूँ, बचपन में आप मुझे कल्लू कल्वा कहती थी न?’’ उसे गौरी की पेशानी पर चिन्ता की सिल्बटें देख कर भी कोई फर्क नहीं पड़ा – बहुत तीसा (प्यासा) हूँफू फू जी.. देखो तो गर्मी से पसीना की छप-छप हो री है…’’ वो हंसा, उसके तवे से काले चेहरे पर उजली मुस्कान उभरी, सफेद दंत पंक्ति चमकी! एक पल को गौरी तनाव भूल गई और पीछे मुड़कर फ्रिज से पानी की बोतल लाकर उसे थमा दी बे आवाज। उसका ंप्यास से हल्कान गला पूरी बोतल एक सांस में गटक गया – चाचा घर में नहीं हैं?’’ मामुली सा फिजूल सवाल करके वह बरामदे में बिछी कुर्सी पर बैठ गया, जबकि उसे पता था कि पुरोहित जी इस समय आॅफिस में होंगे, फिर भी गौरी को उलझाने की उसकी मूर्खतापूर्ण चेष्टा! गौरी को किसी भी हालत में राजपुर रोड के होटल अजन्ता में जहाँ उसकी संस्था बुरांस और कुछ बाहर की संस्थाओं के पदाधिकारियों की मीटिंग में पहुँचना था। अब गौरी को बोलना पड़ा, फिर कलाई घड़ी पर नजर डालते हुए उसने शून्य में देखा – कल्लू अभी तू सुमन नगर चला जा….’’ वह चिहुँका – तो पहचान लिया अपने भतीजे को? कहीं दूर जा रही हैं..?’ गौरी ने उसकी तरफ देखे बिना गर्दन हिलाई, उसकी आँखों की याचना वह मन ही मन टालने का संकल्प करती रही। और भीतर का एक कोना पिघलते रहने के बावजूद फुर्ती से ताला लगाकर निकल पड़ी थी। अंधेरा घिर जाने पर वह थकी कलान्त घर पहुँची तो कल्लू पुरोहित जी के साथ चाय पीते हुए गपबाजी करते हुए हंस रहा था, दोनों किसी तीसरे की मनोस्ाििति की चीरफाड़ करते हुए शब्दों का उत्सव मना रहे थे, छोटी मेज पर नमकीन मठरियाँ सजी हुई थीं। गौरी को देखकर पुरोहित जी भीतर लपके और चिंहुक कर बोले – सुन गौरी तू जल्दी से भात चढ़़ा कर मसाला पीस कर आटा गूंथ ले, मैं मछली लेकर आता हूँ।’’ गौरी चुपचाप गुसलखाने में बन्द हो गई। उसने शावर खोला और देर तक नहाती रही। आज भी उसे सुनना पड़ा था, बमुश्किल बाहर की संस्थाओं को उसने अपने जंगल प्रोजैक्ट के साथ जोड़ा था, वरना पहाड़ में बरसात के दिनों लैण्डस्लाइड के चलते कोई काम करने को तैयार नहीं था – भई जंगल तो मैदानों में भी कट-कट कर खाली हो चुके हैं’’उनका तकिया कलाम होता-‘‘हाँ अपने तो बस का नहीं पहाड़ की चढ़ाई चढ़ना’’ नींव के अजय मिश्रा बोले थे, पर फिर गौरी के बुझते चेहरे को देख कर तैयार हो गये थे। जाड़ों के दिन थे, अभी-अभी उसने बुरांस की हरीतिमा की नींव में ईंटों की पहली खेप रखी थी कि शाम के धुंधलके में पुरोहित जी के साथ एक साये को टहलते पाया था! गौरी को देख कर पुरोहित जी आज की तरह लपके थे – इतनी देर कहाँ थी मैडम! कलम सिंह कब से राह देख रहा है… बहुत भूखा है बेचारा, जल्दी से नाश्ता बना दो।’’ इस आदेश को अनसुना कर उसने कपड़े बदल कर चाय चढ़ा दी थी, आँच कम करने वह रजिस्टर में हिसाब लिखने लगी थी, चाय पीने का उसका भी मन था। उसने रेडियो चला दिया था। तलत महमूद की दर्द भरी आवाज गूँजने लगी थी – ऐ! गमे दिल कहीं और चल… और चल.. और चल… इस दर्द भरे गीत में वह भूल गई थी चाय का पानी खौल कर जल चुका था, पुरोहित जी जले हुए की गंध संूंघकर भीतर आये, उन्होंनंे भगोने को जोर से बेसिन में पटका और दहाड़ मारी -फूअड़ औरत! देख अपनी करतूत! वे उसके कलम पकड़े हाथ को खींच कर रसोई में ले गये- देऽख….? उन्हांेने थप्पड़ मारने के लिये हाथ उठाया ही था कि कल्लू बीच में आ गया – मारो मत चाचा, फू फू फिर बना लेगी चा..’’. गौरी की आँखों में धुआँ भर गया था। कल्लू जो उसके घर में उसके भाईयों की उतरन पहन कर अपनी नंगई ढकता रहा था, जिसके परिवार के सब लोग उसके परिवार और गांव के टुक्ड़ों पर पले थे। उसके सामने जैसे उसके कपड़े उतार दिये थे पुरोहित जी ने!गौरी को आग और धुएं के बीच जलता छोड़ वे बाहर निकल गये थे! कल्लू गौरी को ताकता रहा था – कोई बात नी फू फू जी, आराम से बन जायेगा खाने का क्या है।’’ गौरी ने भर आई आँखों के पानी को बमुश्किल भीतर घूँटा और भीतर के खारे समुद्र में अपने वजूद को छपछपाते देख कर गुसलखाने में घुसी तो पानी की धार के साथ आँखों का सारा खारा पानी धरती को भेज दिया। माँ के शब्द कानों में शीशा घोलने को बढ़े – स्त्री की नियती पुरूष के हाथों पिटना और वाक बाणों से घायल होना ही लिखा है … Read more

हारने से पहले

हारने से पहले

जीवन में हम कितनी ही बार परेशान होकर कहते हैं, “ये जीना भी कोई जीना है”या “इससे तो मौत भली”  पर वास्तव में जब मौत सामने या कर खड़ी होती है तो पीछे छूटता जीवन दिखाई देता है | मृत्यु  और जीवन कि इस संधि पर पल -पल हारते हुए व्यक्ति को अपनी पूरी जिजीविषा के साथ वापस लौटने के लिए क्या जरूरी होता है ? आइए जाने डॉ. पूनम गुज़रानी जी की कहानी “हारने से पहले” से .. हारने से ठीक पहले  टिप….टिप…. टिप…..टपकती हुई गुल्कोज की बूंदें पिछले चार दिनों से लगातार मेरे शरीर में प्रवेश कर रही थी। इसके अलावा जाने कितनी दवाइयां, इंजेक्शन, विटामिन, प्रोटिन मेरे शरीर में जा रहे थे पर शरीर पर इनका कोई असर हो रहा ये महसूस नहीं हो रहा था। बैचैन मन , अशक्त शरीर, उबाऊ दिनचर्या, गमगीन माहौल जीवन को निरन्तर मौत की ओर धकेल रहे थे। पी पी कीट पहने डॉक्टर…. नर्स…. और वार्ड बॉय….इस तनाव , उदासी को कम  करने में असमर्थ लग रहे थे। चारों ओर शोक ही शोक पसरा था। जाने कितने चले गए और कितने ओर इस महामारी की भेंट चढ़ेगे… कोई नहीं जानता…..। सांत्वना के शब्द बिल्कुल खोखले और बेमानी लग रहे थे। जब से मैं इस कोविड अस्पताल में भर्ती हुआ  मन रह-रहकर मौत की कल्पना करते हुए अपने आप से डर रहा है। न प्रार्थना में जी लगता…. न कोइ सपना जी बहलाने में कामयाब हो पाता…. दूर-दूर तक सधन अंधेरा…..उम्मीद की कोई किरणें आस-पास दिखाई नहीं दे रही है…..है तो सिर्फ मरीजों की दर्द से कराहती चीखें….. इमरजेंसी में भागती हुई हताश, बेबस नर्सें…. आक्सीजन की सप्लाई को लेकर चिंतित डॉक्टर…. पिछले चार दिनों में मेरे आस-पास की चार जिंदगियां लाश में तब्दील है गई…. इस खौफनाक माहौल में जब अपनी ही सांस को बारी-बारी कभी ओक्सोमीटर से, कभी नाक के आगे उंगली रखकर चेक करना पङता है तो दूसरों पर भला क्या भरोसा हो….सांस चलती है तो दिल पर संदेह की सुई अटक जाती है….. और दिल धङकने की आवाज से भी तसल्ली नहीं होती तो दिन में कई-कई बार थर्मामीटर लगाने की अजीब सी बीमारी जहन में पलने लगती है….। लगता है यमदूत बस आने ही वाला है ….। सोचते हुए रूह कांप जाती है…. पिछले कई दिनों से यही सब तो भुगत रहा हूं मैं। जब भी समाचार सुनता हूं विषबैल के बढ़ते हुए आंकङे मेरे भीतर की जीवटता को तिल-तिल कर मारते हुए प्रतीत हो रहे हैं। कभी कभी मन में सवाल उठता है कि ये क्यों हो रहा है…. भगवान…. खुदा…., परमात्मा…. कहां, कौनसी गुफा में बैठ गया कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा…. कुछ दिखाई नहीं दे रहा…..। फिर अगले ही पल इसका प्रतिकार करते हुए अपना ही दिल, दिमाग कहता है- भगवान…. खुदा…. परमात्मा…. कोई भला क्यों करेगा तुम्हारी सहायता…. स्वर्ग सी धरती का तुम लोगों ने क्या हाल किया है। अंधाधुंध प्रदूषण, अशांति, तनाव, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की आग में सुलगते हुए इस ब्रह्माण्ड का कितना शोषण किया है तुमने….। तुम मानव नहीं….दानव हो दानव…. फिर भी बात करते हो परमात्मा की…. धिक्कार….तुम्हें सौ सौ धिक्कार… विजय के हाथ अपने कानों पर चल गये। कङ़वी सच्चाई से रुबरु होना वश की बात नहीं थी….। जो आया है उसे एक दिन जाना पर कदम- कदम बढ़ते मौत के साए में जीना मरने से कई गुना डरावना होता है। इसे उन सबने महसूस किया जिन्होंने चौहदह दिन अकेले अस्पताल में बिताए…..न कोई सर पर हाथ रखकर सांत्वना देने वाला….न कोई चार बार मनुहार करके खाना खिलाने वाला….न कोई दवाई लेने के लिए आंख दिखाने वाला ….न कोई दूध न पीने पर अपनी कसम देने वाला….इतने पर भी तो बस नहीं…. कोई मर जाए तो चार कंधे भी नसीब नहीं होते ….बाप के मरने पर बेटा नहीं जा पाया और बेटे के मरने पर बाप…. उफ…..जिंदगी बस अजीब सी दास्तां बनकर रह गई है आजकल….। जिंदगी में बङी से बङ़ी मुसीबत से मैं कभी नहीं घबराया पर आजकल दिल दिमाग सब के सब जङ हो रहे हैं।इसे वहम कहें या डर या वातावरण का असर कि पिछले छह महीनों में बारह बार अपना कोविड टेस्ट करवाया होगा मैनें…. पर हर बार नेगेटिव….. लेकिन चूहे की मां भला अब तक खैर मनाती….इस बार रिपोर्ट पोजिटिव थी। एक दो दिन ओल्ड एज होम में आइसोलेशन में रहा पर लगातार बढ़ती हुई खांसी….उखङती हुई सी सांस….जीभ से नदारद होता स्वाद…. आवाज में भारीपन…. कोई रिश्क नहीं लेना चाहता था मैं….न अपने लिए…. न अपनों के लिए….,। वृद्धाश्रम छोङकर मैं दयाल जी हॉस्पिटल में आ गया पर यहां स्थिति सुधरने के बजाय बिगङती चली जा रही थी। दो दिन बाद ही मुझे आई सी ओ में शिफ्ट कर दिया गया। धीरे धीरे तन-मन ढीले होते जा रहे हैं। भगवान के घर का बुलावा मानो साफ – साफ सुनाई दे रहा है। कल ही तो मेरे पास के बेड पर लेटा चालीस साल का युवक आक्सीजन की कमी के कारण चला गया। सरकार….मीडिया…. डाक्टर….परिवार….सब लाचार होकर मौत का नग्न नृत्य देख रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पा रहा…..कैसा विचित्र समय है…. आदमी आदमी के छूने से बीमार हो रहा है…. बहुत पीछे छूट गया किसी से गले मिलना , गर्मजोशी से हाथ मिलाना, जादू की झप्पी,हर दर्द की दवा मीठी सी पप्पी….. सोचते हुए विजय के आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगी। अचानक अपने सर पर किसी का स्पर्श महसूस किया तो धीरे से आंख खोली। सफेद कपड़ों में ये कौन है…. क्या कोई परी…. क्या कोई अप्सरा…… क्या मैं मरकर स्वर्ग में आ गया…. कहीं कोई भूतनी तो नहीं …..कहीं मैं नरक में….. नहीं…. नहीं…. कहते हुए हङबङाते हुए मैं उठ बैठा…. पूरा बदन पसीने से तर-बतर…..मेरे ज़हन में शायद मरने के ख्याल को छोड़कर कुछ भी शेष नहीं रहा। अंकल यूं अकेले – अकेले आंसू बहाना कोई अच्छी बात तो नहीं….. मुझे बताइए क्या प्रोब्लम है…. आपकी आज की तो सब रिपोर्ट भी अच्छी है। फिर इस तरह दिल छोटा करने का मतलब….थोङा सा बहादूर बनिए…. खुद को संभालिए…. हौसले के बलबूते हर जंग जीती जा सकती है….। मुझे देखिए पिछले पूरे साल से इस हॉस्पिटल में कोविड के … Read more

अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी- दिन भर का इंतजार

दिन भर का इंतज़ार ------------------------ --- मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे --- अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

आज हम कोरोना वायरस से जूझ रहे हैं | पर ये कहानी फ्लू कि कहानी है | जाहिर है उसका भी खौफ रहा होगा | मृत्यु सामने दिखाई देती  होगी | बीमारी इंसान को कई  बार निराशावादी भी  बना देती है | “दिन भर का इंतजार”अमेरिकी लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे कि ये कहानी एक ऐसी ही मनोदशा से जूझते व्यक्ति कि कहानी है |अर्नेस्ट हेमिंग्वे  की कहानियों कि खासियत है कि वो आत्मानुभवजन्य होते हुए भी कलात्मकता के शिखर को छूती हैं |इसका अनुवाद किया है सुपरिचित साहित्यकार सुशांत सुप्रिय जी ने .. दिन भर का इंतज़ार ———————— — मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय जब वह खिड़कियाँ बंद करने के लिए कमरे में आया , तो हम सब बिस्तर पर ही लेटे थे और मैंने देखा कि वह बीमार लग रहा था । वह काँप रहा था , उसका चेहरा सफ़ेद था और वह धीरे-धीरे चल रहा था , जैसे चलने से दर्द होता हो । ” क्या बात है , शैट्ज़ ? ” ” मुझे सिर-दर्द है । ” ” बेहतर होगा , तुम वापस बिस्तर पर चले जाओ ।” ” नहीं , मैं ठीक हूँ ।” ” तुम बिस्तर पर जाओ । मैं कपड़े पहनकर तुम्हें देखता हूँ ।” पर , जब मैं सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आया , तो वह अलाव के पास कपड़े पहन कर तैयार बैठा था । वह नौ वर्ष का एक बेहद बीमार और दुखी लड़का लग रहा था । जब मैंने अपना हाथ उसके माथे पर रखा , तो मुझे पता चल गया कि उसे बुखार था । ” तुम बिस्तर पर जाओ ” , मैंने कहा , ” तुम बीमार हो ।” ” मैं ठीक हूँ “, उसने कहा । जब डॉक्टर आया , तो उसने लड़के का बुखार जाँचा । ” कितना बुखार है ?” मैंने उससे पूछा । ” एक सौ दो । ” डॉक्टर अलग-अलग रंग के कैप्सूलों में तीन अलग-अलग तरह की दवाइयाँ और उन्हें देने के बारे में हिदायतें भी दे गया । एक दवा बुखार उतारने के लिए थी , दूसरी एक रेचक थी और तीसरी अम्लीय स्थिति पर क़ाबू पाने के लिए थी । इन्फ्लुएंज़ा के कीटाणु केवल अम्लीय स्थिति में ही जीवित रह सकते हैं , उसने बताया । लगता था , उसे इन्फ़्लुएंज़ा के बारे में सब कुछ मालूम था और उसने कहा कि यदि बुख़ार एक सौ चार डिग्री से ऊपर नहीं गया , तो डरने की कोई बात नहीं । यह फ़्लू का एक हल्का हमला है और यदि आप निमोनिया से बच कर रहें , तो ख़तरे की कोई बात नहीं थी । कमरे में वापस जा कर मैंने लड़के का बुख़ार लिखा और अलग-अलग तरह के कैप्सूलों को देने का समय नोट किया । ” क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कुछ पढ़ कर सुनाऊँ ? ” ” ठीक है । अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो “, लड़के ने कहा । उसका चेहरा बेहद सफ़ेद था और उसकी आँखों के नीचे काले घेरे थे । वह बिस्तर पर चुपचाप लेटा था और जो कुछ हो रहा था , उससे बेहद निर्लिप्त लग रहा था । मैं उसे हॉर्वर्ड पाइल की ‘ समुद्री डाकुओं की किताब ‘ ज़ोर से पढ़ कर सुनाने लगा , लेकिन मैं देख सकता था कि मैं जो पढ़ रहा था , उसमें वह दिलचस्पी नहीं ले रहा था । ” अब कैसा महसूस कर रहे हो , शैट्ज़ ? ” मैंने उससे पूछा । ” अब तक ठीक वैसा ही ,” उसने कहा । मैं बिस्तर के एक कोने पर बैठ कर अपने लिए पढ़ता रहा और उसे दूसरा कैप्सूल देने के समय का इंतज़ार करता रहा । उसका सो जाना स्वाभाविक होता , लेकिन जब मैंने निगाह ऊपर उठायी , तो वह बड़े अजीब ढंग से बिस्तर के पैताने को घूर रहा था । ” तुम सोने की कोशिश क्यों नहीं करते ? मैं तुम्हें दवा देने के लिए उठा दूँगा ।” ” मुझे जगे रहना अधिक पसंद है ।” थोड़ी देर बाद उसने मुझसे कहा — ” अगर आपको परेशानी हो रही है पापा , तो आपका यहाँ मेरे पास रहना ज़रूरी नहीं । ” ” मुझे तो कोई परेशानी नहीं हो रही ।” ” नहीं , मेरा मतलब है अगर आपको परेशानी हो , तो आप यहाँ मत रुकिए । ” मैंने सोचा , शायद बुखार के कारण वह थोड़ा व्याकुल हो गया था और ग्यारह बजे उसे निर्दिष्ट कैप्सूलों को देने के बाद मैं थोड़ी देर के लिए बाहर चला गया । वह एक चमकीला , ठंडा दिन था और ज़मीन बर्फ़ से ढँकी हुई थी । बर्फ़ जम गई थी , जिससे लगता था कि बिना पत्तों वाले सभी पेड़ों , झाड़ियों , सारी घास और ख़ाली ज़मीन को बर्फ़ से रोगन कर दिया गया हो । मैंने आइरिश नस्ल के छोटे कुत्ते को सड़क पर कुछ दूर तक सैर करा लाने के लिए अपने साथ ले लिया । मैं उसे एक जमी हुई सँकरी खाड़ी के बगल से ले गया , पर काँच जैसी सतह पर खड़ा होना या चलना मुश्किल था और वह लाल कुत्ता बार-बार फिसलता और गिर जाता था और मैं भी दो बार ज़ोर से गिरा । एक बार तो मेरी बंदूक़ भी हाथ से छूट कर गिर गई और बर्फ़ पर फिसलते हुए दूर तक चली गई । हमने मिट्टी के एक ऊँचे टीले पर लटके झाड़-झंखाड़ में छिपे बटेरों के एक झुंड को उत्तेजित करके उड़ा दिया और जब वे टीले के ऊपर से उस पार ओझल हो रही थीं , मैंने उनमें से दो को मार गिराया । झुंड में से कुछ बटेरें पेड़ों पर जा बैठीं पर उनमें से ज़्यादातर झाड़-झंखाड़ के ढेर में तितर-बितर हो गईं और झाड़-झंखाड़ के बर्फ़ से लदे टीलों पर कई बार उछलना ज़रूरी हो गया , तब जा कर वे उड़ीं । जब आप बर्फ़ीले , लचीले झाड़-झंखाड़ पर अस्थिर ढंग से संतुलन बनाए हों , तब उन्हें निशाना साध कर गोली मारना मुश्किल रहता है और मैंने दो बटेरें मारीं , पाँच का निशाना चूका और घर के इतने पास एक झुंड को पाने पर प्रसन्न हो कर वापस लौट चला । मैं इसलिए भी ख़ुश था कि किसी और दिन शिकार करने के लिए इतनी सारी बटेरें बची रह गई थीं । घर पहुँचने पर लोगों ने बताया कि लड़के ने किसी को भी कमरे में आने से मना कर दिया था । ” तुम लोग अंदर नहीं आ सकते “, उसने सबसे कहा ,” तुम्हें इस बीमारी से दूर रहना चाहिए , जो मुझे हो गई है ।” मैं उसके पास भीतर गया और उसे ठीक उसी अवस्था में पाया , जिसमें उसे छोड़ कर गया था । उसका चेहरा सफ़ेद था , पर उसके गालों का ऊपरी हिस्सा बुखार के कारण लाल हो गया था । वह सुबह की तरह बिना हिले-डुले बिस्तर के पैताने को घूर रहा था । मैंने उसका बुखार जाँचा । ” कितना है ? ” ” सौ के आस-पास ,” मैंने कहा । बुखार एक सौ दो से थोड़ा ज़्यादा था । ” बुखार एक सौ दो था ,” उसने कहा । ” यह किसने बताया ?” ” डॉक्टर ने ।” ” तुम्हारा बुखार ठीक-ठाक है ,” मैंने कहा , ” चिंतित होने की कोई बात नहीं । ” ” मैं चिंता नहीं करता ,” उसने कहा , ” लेकिन मैं खुद को सोचने से नहीं रोक सकता ।” ” सोचो मत ,” मैंने कहा , ” तुम केवल आराम करो ।” ” मैं तो आराम ही कर रहा हूँ ,” उसने कहा और ठीक सामने देखने लगा । साफ़ लग रहा था कि वह किसी चीज़ के बारे में सोच-सोच कर बेहद चिंतित हो रहा था । ” यह दवा पानी के साथ ले लो ।” ” क्या आप सोचते हैं कि इससे कोई फ़ायदा होगा ?” ” हाँ , ज़रूर होगा ।” मैं बैठ गया और समुद्री डाकुओं वाली किताब खोलकर पढ़ने लगा , लेकिन मैं देख सकता था कि उसका ध्यान कहीं और था , इसलिए मैंने किताब बंद कर दी । ” आप क्या सोचते हैं , मैं किस समय मरने वाला हूँ ? ” ” क्या ? ” ” मेरे मरने में अभी और कितनी देर लगेगी ?” ” तुम कोई मरने-वरने नहीं जा रहे हो । ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हो ? ” ” हाँ , मैं मरने जा रहा हूँ । मैंने डॉक्टर को एक सौ दो कहते हुए सुना । ” ” लोग एक सौ दो बुखार में नहीं मरते । बेवक़ूफ़ी भरी बात नहीं करो । ” ” मैं जानता हूँ , वे मरते हैं । फ़्रांस में लड़कों ने मुझे स्कूल में बताया था कि तुम चौवालीस डिग्री बुखार होने पर जीवित नहीं बच सकते । मुझे तो एक सौ दो बुखार है । ” तो वह सुबह नौ बजे से लेकर दिन भर मरने का इंतज़ार करता रहा था । ” ओ मेरे बेचारे शैट्ज़ ,” मैंने कहा , ” मेरे बेचारे बच्चे शैट्ज़ । यह मीलों और किलोमीटरों की तरह है । तुम कोई मरने-वरने नहीं जा रहे । वह एक दूसरा थर्मामीटर है । उस थर्मामीटर में सैंतीस सामान्य होता है , जबकि इस थर्मामीटर में अट्ठानवे सामान्य होता है ।” ” क्या आपको पक्का पता है ? ” ” बेशक,” मैंने कहा । ” यह मीलों और किलोमीटरों की तरह है । जैसे कि , जब हम कार से सत्तर मील की यात्रा करते हैं , तो हम कितने किलोमीटर की यात्रा करते हैं , समझे ? ” ” ओह ,” उसने कहा । लेकिन , बिस्तर के पैताने पर टिकी हुई उसकी निगाह धीरे-धीरे शिथिल हुई । अपने ऊपर उसकी पकड़ भी अंत में ढीली हो गई और अगले दिन वह बेहद सुस्त और धीमा था और वह बड़ी आसानी से उन छोटी-छोटी चीज़ों पर रोया , जिनका कोई महत्व नहीं था ।     ————०———— सुशांत सुप्रिय     इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद – 201014 ( उ. प्र . ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com     यह भी पढ़ें …… डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ लाल चप्पल आपको सुशांत सुप्रिय द्वारा अनुवादित अर्नेस्ट हेमिंग्वे कि कहानी दिन भर का इंतज़ार कैसी लगी |हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको हमारी रचनाएँ पसंद आती हैं तो अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें व अटूट बंधन कि साइट सबस्क्राइब करें | ————————

क्या हम मुताह कर लें?

मुताह

  मुस्लिम धर्म में मुताह निकाह की परंपरा है | ये एक तरह से कान्ट्रैक्ट मैरिज है | ये कॉन्ट्रैक्ट एक दिन का भी हो सकता है, कुछ महीनों का और कुछ घंटों का भी | इसमें मेहर पहले ही दे दी जाती  है | किसी समय ये एक स्त्री को संरक्षण देने के लिए था पर आज इसका स्वरूप सही नहीं कहा जयाया सकता | क्योंकि वेश्यावृत्ति की इजाजत नहीं है इसलिए ये उस पर एक मोहर लगाने की तरह है | निकाह से पहले ही बता दिया जाता है कि ये मुताह निकाह है | इसलिए कॉन्ट्रैक्ट खत्म होते ही दोनों अलग हो जाते हैं | इस निकाह से उत्पन्न बच्चों के कानूनी अधिकार नहीं होते |  पुरुष कितने भी मुताह कर सकते हैं पर स्त्री को एक मुताह के बाद दूसरे की इजात तभी है जब वो इददत की अवधि पूरी कर ले | ये चार महीने दस दिन का मर्द की छाया से बचकर  ऐकांतवास का समय होता है | ये तो रही मुताह निकाह की बात |पर आज हम वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी की सच्चे किस्सों पर आधारित शृंखला “जेल के पन्नों से” से एक ऐसी कहानी ले कर आए हैंजो .. | सवाल ये उठता है कि आखिर वो ऐसा क्यों करती है ? हमने वाल्मीकि की कथा पढ़ी है | जहाँ उनके गुनाह में परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं होता | फिर भी सब वाल्मीकि नहीं होते |गुनाह की तरफ भागते हैं | पैसा , प्रतिष्ठा, बच्चों की परवरिश , परिवार की जरूरतें | वाल्मीकि होने के लिए जरूरी है समय रहते गुनाह का अहसास |   क्या हम मुताह कर लें?     जेल में सबसे भयानक दिन,जब किसी को फांसी दी जाती है। यद्यपि    जघन्य अपराध के लिए ही फांसी की सजा सुनाई जाती है। न्यायाधीश भी सजा सुनाकर कलम तोड़ देते हैं। उस दिन जेल में अजीब सन्नाटा छा जाता है।जब जब घंटा बजता,कलेजा मुंहको आ जाता,बस ज़िन्दगी को इतना   समय शेष है।उस समय उसके जुर्म  को भूलकर बस पल पल खींचती मौत की बात होती। कैदी की अंतिम इच्छा पूछी जाती। शमशाद को हत्यायों और डकैती के मामले में फांसी  की सजा मिली थी। उसने अपनी पत्नी शबनम से मिलना चाहा | मुलाकात के समय जेलर उपस्थित थे।सींखचे दोनों के बीच में,बीबी बराबर सुबकती जा रही थी। मन बार बार चीत्कार कर रहा था |काश, जो सब वो देख रही है वो बस एक सपना होता| कितनी बार  कहा  था “हराम का पैसा घर मत लाओ |रूखी -सूखी में भी जन्नत है |” पर शमशाद समझा ही  नहीं | शौहर से खोने से कहीं ज्यादा दुख उसे इस बात का था कि बच्चे एक हत्यारे के बच्चे के ठप्पे के साथ कैसे पलेंगे | पर ऊपर से कुछ कहा नहीं | शमशाद भी अपने परिवार से बहुत प्यार करता था |उसे भी खौफ था कि से  बाद उसके बच्चे कैसे पलेंगे |इसीलिए तो हर तरीके से कमाया था धन उसने | न डकैती को गलत समझा, न हत्या को  और नया ही दारू में उड़ाने को | सिसकियाँ सुन कर उसका दिल भर आया | अंतिम समय बच्चों के प्रति खुद को आश्वस्त करने के लिए समझाने लगा – रोओ नहीं, कुछ माल अम्मा की चारपाई के नीचे गड़ा है, थोड़ा भैंस की नाद के नीचे। कुछ पै सा लाला के पास जमा है, हर महीने खर्च को लेती रहना बच्चों की परवरिश अच्छे ढंग से करना। खूब पढ़ाना लिखाना। हमारी तरह  गलत सोहबत में न पड़ें।पूछें तो कहना कि अब्बा दुबई कमाने गये है। सिसकियां तेज हो गई।कैसा मिलन जो हमेशा बिछुड़ने के लिए था। शमशाद तसल्ली देते हुए बोला – अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है।बैरक में लौटने ही वाला था,बीबी ने कहा- एक बात पूछूं ? हां हां बोलो- शमशाद ने कहा। ‘क्या हम मुताह कर लें ?‘ शमशाद के चेहरे  का बल्ब फ्यूज हो गया।अपने बीबी बच्चों से बेइंतहा प्यार करने वाला फांसी से पहले टूट कर मर गया। ‘कर लेना, और भारी कदमों से बैरक की ओर चल दिया। कुछ अभागे   ऐसे भी होते हैं जिन्हें मर कर भी चैन  नहीं मिलता। जेलर जो बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से को दबाये थे,बम्ब की तरह फट   पड़े-बेवकूफ औरत,वह तो कुछ देर बाद दुनिया छोड़ कर जाने वाला था।कम  से कम उसे सुकून से जाने देती।तूने तो पहले ही उसकी जान लें ली।मरने के  बाद कुछ भी करती, क्या वह देखने आता। एक निराश, अजीब सी नजर से उसने  उसने जेलर की ओर देखा | फिर, पैसा..  डकैती,हत्या ,मुताह .. बड़बड़ाते हुए शबनम डबडबाई आँखों के साथ जेल से बाहर निकलने लगी | आशा सिंह इस प्रथा पर डिटेल जानकारी के लिए पढ़ें –मुताह जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ जेल के पन्नों से आप को ये कहानी “क्या हम मुताह कर लें ?” कैसी लगी |हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराये | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें |

ठेका     

ठेका

शराब का ठेका यानी सरकार के लिए राजस्व सबसे बड़ा सहारा | वही सरकार जो विज्ञापन दिखाती है कि आप  शराब पीते हैं तो आप की पत्नी जिंदगी भर आँसू पीती है | आखिर कौन चुका रहा है ये राजस्व और किस कीमत पर .. आइए जाने उषा अवस्थी जी की लघु कहानी से .. ठेका                   मैं गहरी नींद में थी तभी बाहरी दरवाजे पर जोर से भड़भड़ाने की आवाज आई। कौन हो सकता है?उठ कर बत्ती जलाई। घड़ी पर दृष्टि डाली। रात के बारह बज रहे थे। आख़िर  इतनी रात को कौन आया है? मैंने सोचा। मन आशंकित हो उठा। बरामदे की लाइट जला कर दरवाजा खोला।  जाली से झाँक कर देखा , बाहर सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने वाली रामकली अपनी बेटी पार्वती के साथ खड़ी थी। “क्या हुआ रामकली?” मैंने घबरा कर पूछा। “आंटी जी , तनी दरवाजा खोलिए।” मैंने दरवाजा खोल दिया। उसके चेहरे से गुस्सा साफ झलक रहा था। वह कोरोना के चलते अन्दर नहीं आई। क्रोध से उबलते हुए उसने कहा,”हमका नरेन्दर मोदी ( नरेन्द्र मोदी ) का नम्बर देव।” “कौन सा नम्बर ? ” “अरे! , वहै मोबाइल नम्बर। ” वह आधी रात को देश के प्रधान मंत्री का नम्बर माँगने आई है ? आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गईं। “जब इतने दिनन ठेका नाहीं खोलिन तौ अब काहे खोल दिहिन। अगर अबहूँ ना खुलतै तो कउन सा पहाड़ टूट पड़त। अब तक तौ कउनेव का पियै की जरूरत नाही रही। अब का करोना खतम हुई गवा? जब लोगन मा पीयै की लत छूटि गई तौ अब काहे चालू कर दिहिन? ” “इसके लिए नरेन्द्र मोदी कहाँ जिम्मेदार हैं?” मैंने कहा।  “यह तो मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ ने खोली हैं। ” उनहीं से पूछ कर तौ खोली हुइहैं । ” उसका जवाब था । इतनी रात गए इस बात को बढ़ाने का मेरा मन नही  था। अभी कल ही तो ठेके खुले हैं। अनायास ही मेरा मन समाचार पत्र में सुबह देखे उस चित्र की ओर चला गया जिसमें शराब की दूकान पर ‘सोशल डिस्टेंन्सिंग ‘ की धज्जियाँ उड़ाते हुए लोग एक दूसरे पर लदे पड़ रहे थे। वह तैश में थी । तभी उसने दुपट्टे से ढका अपना हाथ और सलवार उठा कर अपना पाँव ,  मेरे सामने कर दिए। मैं स्तब्ध रह गई।  कई जगह घाव थे । कितना भी यह सारा दिन काम करें , मरें, पर वही ढाक के तीन पात। मन हुआ कि अभी इसके मर्द को बुलाकर उसकी अच्छे से ख़बर लूँ किन्तु नशे की हालत में वह किस तरह प्रतिक्रिया करेगा ,  क्या इसकी गारन्टी ली जा सकती है ? वह बेअदबी भी कर सकता है ।    जब पहली बार यह अपनी ननद के साथ , जिसे मैं पहले से ही जानती थी ; मुझसे कमरा माँगने आई , कैसी – कैसी कसमें खा कर कह रही थी कि मेरा मरद दारू नहीं पीता और आज इस तरह मेरे सामने खड़ी है। मैंने अपने भावों को जब्त करते हुए सोचा। इससे तो मैं बाद में निपटूगीं । मैंने ‘सोफ्रामाइसिन ‘ का ट्यूब उसके हाथ में देते हुए कहा ,  “देखो , इस मसले पर हम सुबह बात करेंगे। अभी तुम दवा लगा कर सो जाओ। यदि आराम नहीं हुआ तो सवेरे डा0 को दिखाना पड़ेगा।” मै कमरे में आकर  लेट गई किन्तु नींद? ना जाने कितने अनुत्तरित प्रश्नों  पर मंथन करते मेरे मन को  छोड़ कर वह मुझसे कोसों दूर जा चुकी थी। वो स्काईलैब का गिरना मेंढकी कब्ज़े पर आप को लघु कहानी ठेका कैसी लगी?अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |                         

थ्री बी एच के

थ्री बी ऐच के

स्त्री का कोई घर नहीं होता | यहाँ तक की किसी कमरे में उसका एक कोन भी सुरक्षित नहीं होता | ऐसी ही है कहानी की नायिका अंकिता  की जिंदगी जो अपने थ्री बी एच के फ्लैट   में अपने लिए एक कोना तलाश रही है | उसकी  परेशानी हल होती है .. पर कैसे ? आइए जानते हैं रश्मि तारिका जी की कहानी से…..   थ्री बी ऐच के      मन के   अंधेरे को चारदीवारी की रौशनी कभी खत्म नहीं कर सकती या शायद आँखों में वो रोशनी चुभती सी लगती है तो पलकें मूँद लेने से खुद को एक दिलासा दिया जा सकता है कि हाँ , अब ठीक है।पर वास्तव में क्या सही  हो जाता है ? नहीं न…! “मॉम ,आप यहाँ सोफे पर सो रहीं हो ?” बोर्ड की परीक्षा की एक्स्ट्रा क्लासेस से आकर बड़े बेटे अंशुल ने पूछा और बैग वहीं अंकिता के पास ही रख दिया। “अंशुल , अपना बैग अंदर रखो।ये कौन सी जगह है ?कितनी बार समझाया है तुम लोगों को लेकिन ..!”कहकर अंकिता उठने लगी कि अंशुल ने चिढ़कर कहा “खुद कमरा होते हुए भी सोफे पर पड़ी रहती हो ,और हमें डांटती हो”कहते हुए बैग उठा कर अपने कमरे में जाकर बैठ कर टीवी देखने लगा। अंकिता उठी और बेटे को खाना देने की तैयारी करने लगी। आजकल उसके हाथ पाँव और दिमाग बस परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही चल रहे थे। तीन कमरों के इस फ्लैट में एक कमरा पति शैलेश का बन चुका था जिसमें वो अपने बिज़नेस की फाइलों से घिरे रहते थे और बचा हुआ वक़्त भी “बिज़नेस टाइम” चैनल पर व्यतीत होता था मानो सारे जहाँ के कारोबार की चिंता इस इंसान पर ही आ चुकी है और उस में किसी प्रकार का कोई व्यवधान नहीं पड़ना चाहिए। दूसरा कमरा बड़े बेटे अंशुल का था जो अपने कमरे को अपनी मिल्कियत समझता था।उसके कमरे में किसी के भी आने जाने की अनुमति नहीं थी जब तक कोई ठोस कारण न हो।कमरे का दरवाज़ा उतना ही खुला रहता जितना कि अंकिता उसे हल्का सा उढेल कर बच्चे को केवल खाने पीने के लिए पूछ सके। यहाँ भी बोर्ड की परीक्षा महत्वपूर्ण कारण था इसलिए घर के इस दूसरे कमरे के बाहर एक बेटे के नाम की एक अदृश्य नेम प्लेट लगी थी। अब रहा तीसरा कमरा जो साइज में छोटा था और था भी छोटे बेटे मेहुल का जिसे बहुत बड़ी शिकायत थी कि उसे छोटे होने की वजह से न तो मनपसंद जगह मिली है और न ही बड़े भाई की तरह पूरी छूट कि वो अपने इस कमरे में किसी के आने जाने की मनाही कर सके क्यूँकि मेहुल की अलमारी के साथ वाली अलमारी में पूरा सामान अंकिता ने अपना रखा हुआ था और उसे ज़रूरत पड़ने पर बार बार उस कमरे में आना पड़ता था।कमरा छोटा था तो वहाँ बनाया गया पलँग का साइज भी छोटा था कि मेहुल को लगता कि वो केवल उसी का है। यानी “थ्री बी एच के ” के इस फ्लैट में अंकिता अपने नाम से किसी कमरे को अपना नहीं कह सकती थी।कहे भी कैसे ..भारतीय पत्नी का कमरा तो वही होगा न जो उसके पति का होगा ! बंगला हो या फ्लैट ,पत्नी का अपने कमरे का कोई वज़ूद नहीं क्योंकि पत्नी का वज़ूद होगा तो कमरा या घर होगा या फिर उसके नाम की नेम प्लेट ! “सुनो ,एक महीने के लिए बाबूजी अपने यहाँ रहने आ रहे हैं।”फेक्ट्री से आकर शैलेश ने बताया। “जी ..ठीक है।”अंकिता ने पानी का गिलास देते हुए कहा। “क्या ठीक है ..बाबू जी आ रहें हैं तो उनके लिए जगह का भी तो सोचना होगा न।” “मेहुल के कमरे में …!” अंकिता ने अभी वाक्य पूरा भी न किया था कि शैलेश ने इन तरह से नज़र उठा कर देखा मानो कुछ गलत कहने का अपराध कर दिया हो। “उस छोटे कमरे में उन्हें पिछली बार ठहराया था न।जानती हो न बाद में कितनी दिक्कत हुई थी उन्हें ? ” “देखिए , अंशुल की परीक्षा के दिन करीब आ रहे हैं।उसे परेशान नहीं करते।हम अपने कमरे में बाउजी के रहने का प्रबंध कर देते हैं।” “लेकिन हम दोनों कैसे मेहुल के कमरे में और उसे अंशुल के साथ भी नहीं एडजस्ट कर सकते क्यूँकि किसी भी बात पर झगड़ पड़ेंगे और अंशुल परेशान होगा।” “आप मेहुल के साथ आराम से सो सकते हैं।पलंग इतना भी छोटा नहीं। दो बड़े इंसानों का मुश्किल है उस पर पूरा आना ।मेहुल तो अभी छोटा बच्चा ही है न !”अंकिता ने जैसे समाधान खोज कर दे दिया हो। बस इंतज़ार तो उसे अगले उस पल का था जब शैलेश उसके लिए पूछते कि वो कहाँ सोएगी या रहेगी उस दौरान जब बाबूजी उनके यहाँ होंगे।कुछ पल की खामोशी को तोड़ते हुए शैलेश ने पूछा “तुम कहाँ सोओगी..?” “हॉल में सोफे पर सो जाऊँगी ।” “क्यों..अंशुल जब सो जाया करे तो तुम उसके पास सो सकती हो न ?” “नहीं..अंशुल  कभी वो रात को पढ़ता है कभी सुबह उठकर तो मैं उसके पास कैसे सो सकती हूँ ?” “ठीक है जैसे तुम्हें सही लगे।” शैलेश ने चाय का कप रखा और जैसे ही जाने लगे अंकिता ने डरते डरते पूछ लिया। ” बाबूजी को हम अंशुल की परीक्षा के बाद न बुला ले  ?” “क्यों ,तुम्हें अपना कमरा देने में परेशानी हो रही है क्या ?”बेरुखी से शैलेश ने पूछा और बिना जवाब का इंतज़ार किये अपने कमरे में जाकर कमरा बंद कर लिया। ऐसी बेरुखी और कमरा बंद कर देना आज कोई नई बात नहीं थी।जब भी शैलेश को कोई बात नागवार गुजरती वो ऐसा ही करते।एक दो बार अंकिता ने एतराज़ किया तो शैलेश ने ऐ सी चलने का बहाना बता दिया तो दूसरी तीसरी बार मच्छरों  का।अंकिता ने एक बार दबी ज़ुबाँ में कह दिया कि ए सी गर्मियों में चलता है सर्दियों में तो नहीं ..!” जिस भाव से कहा शैलेश ने समझा लेकिन इस बात को लेकर उसने अगले पंद्रह दिन कमरे के दरवाजे को बन्द नहीं किया और गर्मी ,घबराहट ऐसी दिखाई कि ऐ सी चलने पर दरवाज़ा खुला रहने से … Read more