डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी

डाटा फ्लो डायग्राम

जिंदगी क्या है ? पाप  और पुण्य का लेखा -जोखा, चित्रगुप्त की वो डायरी जिसके अनुसार हमें स्वर्ग -नर्क या अगला जन्म मिलता है | या डाटा फ्लो डायग्राम – जिसमें हम बार- बार ऐसे निर्णायक  मोड पर खड़े होते हैं | जहाँ हम एक फैसले से अपनी आगे की जिंदगी की दिशा तय करते हैं | स्टीव जॉब्स ने एक बार कहा था कि अगर आप अपनी जिंदगी के चित्र को पीछे की डॉटस मिलाते हुए बनाएंगे तो आप को पता चल जाएगा कि आज आप जहाँ हैं वो क्या -क्या करने या नहीं करने के कारण हैं | ये कहानी पाप -पुण्य की अवधारणा को इसी जन्म में किये गए कामों का फल बताती है | बिलकुल क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह | जहाँ हम मुख्य घटनाओं को नहीं उनके परिणामों को बदल सकते हैं | आइए पढ़ें सशक्त रचनाकार  श्रद्धा थवाईत की  आध्यात्मिक  टच    लिए बेहतरीन कहानी ….   डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी      कितनी सुन्दर है ये सड़क! सड़क के दोनों ओर गुलमोहर छाये हुए हैं। नीचे काली सड़क पर बिछी गुलमोहर की लाल पंखुडियां और ऊपर गुलमोहर का हरा-लाल शामियाना। मन को एक सुकून सा मिलता है, इस सड़क पर सैर से। दिन भर की दौड़-भाग भरी पुलिस की नौकरी में यह सुकून ही मेरी नियमित सैर का राज है। इस पर चलते हुए मैं अक्सर अपनी जिंदगी का सिंहावलोकन करने लगता हूँ।     कल ऑफिस में मुझसे मिलने निखिल आये थे। उनसे मिलने के बाद से मेरा मन कई प्रश्नों से मुठभेड़ में लगा हुआ है।     ‘हमारी जिंदगी कौन बनाता है?’     रगों में बहती बात तो यही है, ईश्वर सबकी जिंदगी की स्क्रिप्ट पहले से लिख कर रखते हैं। यदि हां तो फिर ये क्यों कहते हैं, कि मरने के बाद कोई चित्रगुप्त हैं, जो जिंदगी में किये कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं, और इन्हीं कर्मों के आधार पर लोगों को स्वर्ग या नरक में भेजते हैं। कुछ अजीब नहीं है यह? जिंदगी की कहानी लिखी भी ईश्वर ने, फिर अपने ही एजेंट से इसकी एकाउंटिंग भी करा दी, और फिर ऑडिट भी, जबकि सब कुछ पहले से तय है, तो क्या स्वर्ग और नर्क के लिए फिक्सिंग है नहीं है ये?      अच्छा तब क्या, जब कोई ना माने कि ईश्वर होता है तो? तो कौन कहता है यह कहानी? कौन लाता है निर्णय की परिस्थिति? रगों में बहती बात छोड़ दूँ तो मेरे तार्किक दिमाग के आधार पर हम जिंदगी मेहनत और कर्मों के तानों-बानों से खुद बुनते हैं। तो सच क्या है? पहले जिंदगी की कहानी लिखी गई, या पहले जिंदगी जी गई, कि किश्तों में लिखी जाती है जिंदगी की कहानी.     इस हरियाले शामियाने में मन के प्रश्नों के इस ऑक्सीजन सिलेंडर ने मुझे यादों के सागर में गहरे उतार दिया है। निखिल से जुडी यादें जेहन में कौंध रही हैं। जिनके साथ मैं अपने इन प्रश्नों के, किसी नायाब मोती से उत्तर की खोज में गोते लगाये जा रहा हूँ।      तब मैं बिलासपुर में पुलिस अधीक्षक था। नयी-नयी नौकरी थी। दुनिया बदल देने का, समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जूनून था। मैं हर सप्ताह सोमवार को पुलिस ग्राउंड में, कभी शामियाना लगाकर, तो कभी नीम के पेड़ के नीचे, अपनी टेबल-कुर्सी लगवा कर बैठ जाता। ये मेरा जनता दरबार होता। जिसमें हर वो आम आदमी जो मुझसे मिलना चाहता हो, आकर मिल सकता था। कार्यालय के औपचारिक माहौल से दूर होने के कारण शायद बाकी दिनों की अपेक्षा सोमवार को मिलने वालों की भीड़ बहुत ज्यादा होती।       वे ठण्ड के दिन थे, जब नीम के नीचे मेरा जनता दरबार सजा हुआ था. उस सोमवार वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उम्र ज्यादा नहीं थी, लेकिन वह सिर्फ हड्डियों का ढांचा भर था; जैसे किसी ने उसकी त्वचा के नीचे सक्शन पम्प लगा कर सारी चर्बी निकाल ली हो। सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी बची रह गई हो। मैंने एक नजर में उसे स्कैन कर लिया। स्कैनिंग जो हमारे प्रशिक्षण का हिस्सा होती है, जो हमारी रग-रग में बसी होती है। किसी आदमी को देख कर ही मैं बता सकता हूँ कि इस धरती पुत्र के पेट में बारूदी सुरंगें दबी हुई हैं या नहीं।    खैर उस दिन दिनेश कुछ तुड़ा-मुड़ा सा कागज पकड़े हुए था। उसने आकर हिचकते हुए दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा,     “साहेब एक अर्जी हे साहेब।”    “हां कहो।” मैंने मेरी आवाज का हिस्सा बन चुकी रौबीली संवेदनशीलता से कहा,    “साहेब! मोर संपत्ति कुरुक हो गिस हे। साहेब! आप ले बिनती हे, के आप ओला छुड़ा देवा, साहेब! हमर करा रहे बर भी जघा नई हे।” उसकी आवाज में कातरता थी.     “क्यों कुर्क हो गया ही तुम्हारा घर? कुछ कागज है तुम्हारे पास? दिखाओ।” मैंने पूरा मामला समझने के लिए अभिलेख देखने चाहे।     उस हड्डी के ढांचे में हरकत हुई। तुड़े-मुड़े दो पर्चे अब मेरे हाथ में थे। एक पर्चे पर दिनेश का कुर्की ख़त्म करने आवेदन था, तो एक में कोर्ट का कुर्की का आदेश।     आदेश को मैंने ध्यान से देखा। कोर्ट के आदेश पर ही कुर्की हुई थी।    “ये कुर्की क्यों हुई है?”     “साहेब में एक बरस तक घर के भाड़ा नई दे सकें, एकरे बर मकान मालिक ह मोर सम्पति कुरुक करा दिस।” उसकी आवाज में सच्चाई थी।     उसने किराया जमा नहीं किया था। कोर्ट के आदेश से कुर्की हुई थी। इसमें सब कुछ नियमानुसार ही था, इसलिए इसमें मेरे करने लायक कुछ नहीं था. मैंने यह बताते हुए उसे जाने का इशारा कर दिया, लेकिन वह जर्जर ढांचा कहता रहा,    “साहेब! बिनती हे साहब! मोर संपति ले कुरुकी के आदेश हटवा देवा साहेब। ईसवर आपके  भला करही साहेब। बिनती हे साहेब!”      मैंने एक सिपाही को उसे सारी बात समझा देने के लिए कहा। सिपाही उसे समझाने के लिये दूर ले जाने लगा, लेकिन वह मुड़ मुड़ कर मुझ से कहने लगा,     “साहेब! बिनती हे, आप बस पांच मिनिट मोर बात सुन लेवा.” उसकी आवाज में दीनता थी, जिससे मेरा मन कुछ पिघल सा गया. मैंने कहा,    “पांच मिनट क्या, तुम दस मिनट अपनी बात कहो; कहो क्या कहना है?”  उसने भीड़ की तरफ देख किसी को पास आने का इशारा किया। एक मुंह बाँधी हुई वृद्धा और एक … Read more

जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी

नन्हा अपराधी

  एक नन्हा  मासूम सा  बच्चा जेल के अंदर आया माँ को पुकार रहा था .. माँ को नहीं | कहन से आया क्यों आया वो मासूम जेल में |पढिए वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह के धरावहिक जेल के पन्नों से की अगली कड़ी में नन्हा अपराधी जेल शहर से बाहर स्थित थी। मुख्य राजमार्ग से अंदर की ओर सड़क जेल कीओर जाती है,जिसके दोनों ओर कर्मचारियों के आवास थे।शाम को महिलाएंगपशप करती, बच्चे सामने पार्क में खेलते। एक सांय छोटेलाल ने बताया-‘ साहब,जेल में एक छोटा बच्चा आया है, बहुत हीसुन्दर है।‘ ‘मॉ के साथ आया होगा।‘ किसी ने कहा। ‘नहीं साहब,मां तो उसकी भाग गई। स्टेशन पर किसी सेठ का थैला लेकर भागा था,पर लोगों ने पकड़ लिया।जब से आया है बराबर आया मां कहकर रोते जारहा है।यही छै सात बरस का होगा। ‘छोटे बच्चे तो स्कूल जाते हैं,जेल में क्यों लाया गया ‘एक बच्चे ने पूछा। मैंने कहा-‘बेटे इसीलिए कभी चोरी मत करना। बच्चों के साथ महिलाओं कीउत्सुकता बढ़ती जा रही थी।जेलर साहब से निवेदन किया गया कि बच्चे कोदेखना है। छोटे लाल को डांट पड़ी कि जेल की बात बताने के लिए। पर हम लोगों का आग्रह देख एक सिपाही के साथ गेट पर लाया गया। वास्तव मेंबच्चा बेहद खूबसूरत और मासूम था।हाथ पैरों में बेड़ियां पड़ी थी। कपिल देव सिपाही ने बताया- यह बहुत तेज भागता है, इसलिए बेड़ी डाली गईहै।बराबर मां के लिए रो रहा है। उसको देख कर कान्हा की याद आ गई।उसे तो मां यशोदा शरारत करने पररस्सी से बांध देती थीं। हम लोगों ने पूछा-थैला क्यों उठाया। बहुत ही मासूम उत्तर-आया मां ने कहा था। हम सब यही बातें कर रहे थे कि बच्चा अच्छे परिवार का लग रहा है।उसकाआया मां कहना भी खटक रहा था। इस केस पर काम कर रहे इंस्पेक्टर साहब से पूछा। उन्होंने कहा-लगता है किबच्चा चोरों की टोली का है। कुछ घरों से बच्चा चुरा लाते हैं।उनसे भीख मंगवातेहैं,चोरी करवाते हैं।बच्चा धीरे से सामान  पार कर देता है, किसी को शक नहींहोता है। कभी कभी रोशनदान से अंदर कुदा देते हैं,बच्चा दरवाजा खोल देता है, गिरोह लूटपाट करता है। ‘यह आया मां क्यों कह रहा है। उन्होंने कहा-शक सही है।बच्चा अच्छे परिवार का है,इसकी मां ने देखभाल करनेके लिए आया रखी होगी।अपने बच्चे के लिए समय नहीं था,सो बच्चा आया सेज्यादा हिल गया था।मौका पाकर बच्चे के साथ गिरोह में शामिल हो गयी।पहलेविश्वास अर्जित किया फिर धोखा दिया। अब देखिए बच्चा भी मां के बजायआया मां कह रहा है।हर तरह से पूछताछ जारी है, पर बच्चे को अपने घर मां-बाप का स्मरण नहीं है।वह औरत उल्टी दिशा में भाग गई, इसलिए पकड़ी नहींजा सकी। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि वह चालीस वर्षीय ,गहरा रंग और गठेशरीर की थी।हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, पर गिरोह बहुत चालाक होता है, होसकता है कि डेराडंडा उठा कर दूसरे शहर चला गया हो। ‘बेचारी मां, अपने बच्चे के लिए कितना तड़पती होगी। इंस्पेक्टर नाराजगी से बोले -कैसी मां जो अपने बच्चे को आया के हवाले कर क्लब पार्टी में मशगूल रही। किसी महिला ने कहा -शायद मजबूरी रही हो,वह नौकरी करती हो। हो सकता है। ऐसे में अपने परिवार पर विश्वास करना चाहिए।अपनी कीमती चीजें तो संभाल कर रखती हैं। बच्चे तो अनमोल होते हैं। बाद में सूचना मिली कि बच्चे को बाल सुधार केन्द्र भेज दिया गया। कपिल देव बोले -अब वह पक्का अपराधी बन कर बाहर आयेगा। आशा सिंह यह भी पढ़ें ॥ जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ जेल के पन्नों से आपको धरवाहिक जेल के पन्नों से की ये कड़ी “नन्हा अपराधी” कैसी लगी ?अपनी प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराए |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

जीवन-संध्या

जीवन संध्या

मासूम बच्चों के कंधों पर अपनी उम्मीदों का बस्ता लाड़ कर उन्हें रेस में खुद ही दौड़ाते हैं तो जीवन संध्या में पछताना कैसा ? पर अक्सर ऐसा होता है |इन सब के पीच में पिसती है एक स्त्री ..  जो बच्चों और पिता के बीच में जिंदगी भर एक पुल बनाने की असफल कोशिश में लगी रहती है | इन तमाम उम्मीदों से इतर भी क्या जीवन है | जीवन संध्या की इन तमाम उलझनों से जूझ कर एक सकारात्मक दिशा देती कविता सिंह की कहानी.. “जीवन-संध्या” बालकनी में बैठे प्रकाश जी बार-बार सड़क की ओर देखते  और फिर अपने गेट की ओर, जैसे उन्हें किसी का बेसब्री से इंतजार हो। जैसे-जैसे वक़्त गुजर रहा था वैसे-वैसे उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो उठे और रेलिंग के पास जाकर खड़े हो गए। “अरे! अभी आपने चाय नहीं पी? ये तो ठंडी हो गई।” पत्नी सुमन ने चाय के कप को उठाते हुए कहा। कोई जवाब ना पाकर उन्होंने प्रकाश जी की ओर देखा, वो सड़क की ओर मुँह किये खड़े थे, शायद उनकी बात सुने ही नहीं। “मैं दूसरा चाय लेकर आती हूँ।” सुमन जी थोड़ी तेज़ आवाज में बोलीं। “ओह! ठंडी हो गई? रहने दो मन नहीं है।” कहकर वो फिर सड़क की ओर देखने लगे। “अच्छा सुनो! मेड को बता दिया ना खाने में क्या-क्या बनाना है?” प्रकाश जी ने बाहर की तरफ देखते हुए ही पूछा। “हाँ जी! कितनी बार पूछोगे, वही बन रहा है जो आपने कह रखा है। मैं वही तो देख रही थी। अब चलिए अंदर नहीं तो ठंड लग जाएगी।”      फरवरी का महीना वैसे भी समझ नहीं आता, ठंड है या गर्म। धूप में गर्मी लगती और घर के भीतर ठंडी। प्रकाश जी ने महसूस किया कि वाकई हवा में नमी बढ़ गयी है लेकिन वो अभी अंदर नहीं जाना चाह रहे थे। “मेरा शॉल दे दो, कुछ देर बाद भीतर आऊँगा, तबतक तुम तैयारी देख लो।” “आप भी कभी-कभी बच्चों जैसी हरकतें करते हैं, अब कौन सा छोटे बच्चा का जन्मदिन है जो सजावट और तैयारी करनी है।” सुमन मुस्कुराते हुए बोली। “ठीक है, मुझ बुढ़े का ही जन्मदिन है पर बच्चे तो आ रहे ना, वो खुश होंगे देखकर।” बोलते हुए प्रकाश जी कि आवाज धीमी हो गयी। उनकी बात सुनकर सुमन उदास होकर अंदर आ गई। वो सोच रही थीं समय के साथ इंसान कितना बदल जाता है। अचानक ही बच्चों का चेहरा याद आ गया जब बचपन में वो इसी तरह अपने पापा का इंतजार करते थे और इन्हें हमेंशा ही आने में देर हो जाता। और अब, इधर जब से बच्चे बाहर गए हैं, तब से ये हर त्यौहार, हर मौके पर बच्चो का बेसब्री से इंतजार करने लगे हैं। छोटा बेटा विदेश में सेटल हो गया। शुरुआत में वो फोन पर बधाईयां जरूर देता पर धीरे-धीरे वो व्यस्त होता चला गया। अब उसकी भी क्या गलती उधर यहाँ के तीज त्योहार का चलन ही नहीं तो वो भी कब तक याद रखेगा। बड़ा बेटा यहीं पास के शहर में इंजीनियर है जिसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं, जिन्हें वो खुद भी बहुत याद करती हैं। जब तक बच्चों का स्कूल जाना नहीं हुआ था वो अक्सर यहाँ आ जाया करते थे, आखिर तीन ही घण्टे का तो सफर था, पर अब तो उनके स्कूल की छुट्टियों का इंतजार करना पड़ता है।       पिछले साल भी प्रकाश जी ऐसे ही बेसब्री से बच्चों का इंतजार कर रहे थे और ताव ये कि उन्हें फोन करके बताना नहीं है। रात 9 बजे तक राह खोजते रहे पर बच्चे नहीं आये। हाँ अगली सुबह उनका फोन आया माफी के साथ कि व्यस्तता के कारण पापा का जन्मदिन भूल गए।  प्रकाश जी बहुत दुःखी थे, उन्हें बच्चों की ये उपेक्षा सहन नहीं हो रही थी। “जिन बच्चों के लिए अपना पूरा जीवन खपा दिए अब उनके पास हमारे लिए ही टाइम नहीं।” वो सुमन से गुस्से में बोले थे। और सुमन, जिसने जीवन भर स्त्री होने के समझौते किये थे, वक़्त के साथ अब वो समझौता करने में परिपक्व हो चुकी थीं। यही कारण था कि उन्होंने यहाँ भी समझौता कर लिया था। पर प्रकाश जी के लिए ये आसान नहीं था। पुरुषोचित अहम से वो बाहर नहीं निकल पा रहे थे, वो किसी से कुछ कह भी नहीं पाते बस भीतर ही भीतर कुढ़ते रहते। बहुत ज्यादा हुआ तो सुमन जी को उलाहने सुना देते। “देखिए! अब हमारे बच्चे, बच्चे नहीं रहे, उनका भी अपना परिवार है, काम के हजारों पचड़े हैं।” उस दिन सुमन जी ने धीरे से कह ही दिया। “तो क्या हम उनके परिवार में शामिल नहीं हैं?” वो तैश में आकर बोले। सुमन जी चुप हो गईं। क्या कहतीं, बेटे ने साथ रहने के लिए कई बार कहा पर पति नहीं माने। कितना बचत करने के बाद तो अपना घर बनाया था उसे छोड़कर जाना उन्हें गंवारा नहीं।    आज फिर प्रकाश जी बच्चों का इंतजार कर रहे हैं। मेड खाना बनाकर चली गयी। धीरे- धीरे शाम का धुंधलका छाने लगा। वो फिर बालकनी में पहुँची जहाँ प्रकाश जी आँखे बंद किये आराम कुर्सी पर बैठे थे। सुमन ने बालकनी की लाइट ऑन की और धीरे से उनके कँधे पर हाथ रखा। “बच्चे आ गए क्या? वो चौंककर उठे। सुमन जी ने न में सिर हिलाया। “भीतर चलिए ठंड बढ़ रही।” “हाँ, चलो।” जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा था उनके चेहरे पर उदासी छाती जा रही थी। “देखा तुमने? इस बार भी उन्हें याद नहीं।” उन्होंने सोफे पर बैठते हुए धीरे से कहा। “मैं फोन करूँ उन्हें?” सुमन जी ने हिचकिचाते हुए पूछा। “कोई जरूरत नहीं, अब उन्हें फोन करके बताना होगा कि उनके मां-बाप भी हैं? बोलो!.. दिन रात एक करके इन्हें पढ़ाया-लिखाया, किसी चीज की कमी नहीं होने दी, आज उनके पास हमारे लिए ही समय नहीं।” प्रकाश जी के सब्र का बांध टूटने लगा था।  उनकी बात सुनकर सुमन जी भी तिलमिला गईं। हमेंशा के उलाहनों से तंग आ गईं थीं। उनका सब्र भी जवाब देने लगा था। ” हमेंशा यही बात, यही अपेक्षा, यही उलाहना… किसका दोष है इसमें? सिर्फ उनका ही या हमारा भी? परिवार की … Read more

जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा

अंतिम इच्छा

रिश्ते भी कितने अजीब होते हैं | कभी अनजान अपने हो जाते हैं तो अपने अनजान |वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी के धारावाहिक “जेल के पन्नों से” सत्य पर आधारित  शृंखला” की ये कहानी एक ऐसे ही भाई की कहानी है जो अपनी बहन के लिए हत्या बना |जेल गया | अंतिम समय में टी . बी हो गया | साक्षात मृत्यु सामने थी |ऐसे समय में उस की एक ही अंतिम इच्छा थी |क्या वो पूरी हुई | आइए जाने ….. अंतिम इच्छा उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जेल में टी बी पीड़ित कैदी रखे जाते हैं।आजादी से पहले जेल परिसर में एक कुआं था,जिसके पानी के सेवन से टी बी रोग  के कीटाणु कम हो जाते थे। इसीलिए टी बी के कैदी यहां रखे जाते।१९४७मेंअंग्रेजों ने भारत छोड़ा,इस कुएं को पटवा गये ।साथ तो नहीं ले जा सकते थे।विजेता की हताशा या मानवता का ह्रास। पर वह राजयक्ष्मा से पीड़ित कैदियों की जेल रही है। अब दवाओं और स्वास्थ्यवर्धक आहार से इलाज किया जाता है। जब भी डाक्टर निरीक्षण पर जाते, सारे कैदी अपने बिस्तर पर बैठ जाते, परीक्षण के बाद दवा और डायट लिखी जाती। एक कैदी निहायत बदतमीजी से बेड पर लेटा रहा। कर्मचारी ने उठने को कहा। बेहद नाराजगी से बोला- हम बागी हैं। किसी की नहीं सुनते। खींच कर वार्ड ब्वाय ने उसे बैठाया। परीक्षण बाद दवा और पथ्य लिखा। आहार में अंडा और मांस देखते ही बिफर उठा-ऐ डाक्टर,हम ब्राह्मण है,मांसमछली नहीं छूते। डाक्टर-पर कर्म तो ब्राह्मणों वाले नहीं किया। बाकी कैदी आश्चर्य से ताक रहे थे।कितना जिद्दी है,हम लोगों को दे देता। खैर डाक्टर ने फल दूध बढ़ा दिया। ‘पंडित जी, अच्छी तरह इलाज करवाओ , जल्दी ठीक हो जाओगे। वह गुर्राया – ठीक किसको होना है। उसके व्यवहार को अन्देखा कर डाक्टर आगे बढ़ गये।उसके दोनों फेफड़े बुरीतरह संक्रमित थे। ज्यादा समय नहीं बचा था। बाद में जेलर से पता चला कि वह दुर्दांत डाकू था। हत्या तो ऐसे करता  जैसे मक्खी मच्छर मार रहा है। फांसी और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। महात्मा गांधी की जन्म शती के उपलक्ष्य में फांसी की सजा माफ कर दीगई। सांस लेने में दिक्कत हो रही थी,अक्सर बदतमीजी करता। जेल में हर वर्ष उच्च अधिकारियों की बैठक होती। गंभीर मरीजों को छोड़ने केलिए शासन को लिखा जाता।सारे कैदी कान लगाये रहते। शुकुल बड़बड़ाता-सब साले घूंस खोर हैं।जिसके घर वाले मुठ्ठी गरम करदेंगे,उसी का नाम जायेगा। चारों ओर भ्रष्टाचार की गंगा बह रही है। पड़ोसी कैदी ने कहा- यह डाक्टर ऐसा नहीं है। उसे तो सारे ज़माने से चिढ़ थी। मीटिंग के दिन पता चला कि शुकुल का नाम सबसे ऊपर है। पुलिस कप्तान बोले-यह बहुत क्रूर हत्यारा है। गाजर मूली की तरह आदमीकाटता है। डाक्टर ने दलील दी-यह तबकी बात है।अब तो वह सूजा(मोटी सुई) नहीं उठासकता। उसके पास ज्यादा समय नहीं है। अंतिम पल अपने परिवार के साथ रहलेगा। सारे अधिकारी सहमत हुए,लिहाजा उसकी रिहाई के लिए अनुमोदन पत्र शासनको भेजा गया।शुकुल को सारी बात पता चली। अगले दिन जब डाक्टर राउन्ड पर आते,उसने खड़े होकर प्रणाम किया। डाक्टर ने कहा -अब तुम अपने परिवार के पास जल्दी चले जाओगे। वह कहना चाहता था कि- मेरे लिए क्यों इतना किया,पर गला रूंध गया।आपपहले क्यों नहीं मेरे जीवन में आये। डाक्टर ने कुर्सी खींची बेड के पास बैठ गया।- अब तुमने प्रायश्चित कर लियाहै।कोई बात हो तो कह सकते हो। शुकुल ने अपनी कहानी शुरू की।साहब,मेरे माता पिता बचपन में ही हमें अनाथकर गये। मैं और बड़ी बहन चाचा के पास पले।सारी जमीन जायदाद पर उन्हींका कब्जा था।चाचा के सात बेटे थे।जरा बड़े होते ही मुझे खेतों में भेज दियागया।चाचा के बेटे पढ़ने जाते।बहन घर के सारे काम करती।हम दोनों को बचाखुचा खाना मिलता।घर में गाय भैंस थी,दूध घी चचेरे भाइयों के हिस्से में,छाछमुझे दिया जाता। साहब, गांवों की परंपरा है कि पुरुष बाहर तथा स्त्रियां घर के अंदर सोती है। मैंने एक दिन चचेरे भाई को बहन से बदतमीजी करते देख लिया। वह हिरणीजैसी थर थर कांप रही थी, भेड़िया घात लगाए आगे बढ़ रहा था कि मैं पहुंचगया। मुझे देख कर भेड़िया दुम दबाकर भाग गया। साहब मुझे कभी भरपूर भोजन नहीं मिला,पर खेतों में फावड़ा चला कर शरीर मेंबल था। मैंने चुपचाप फरसे पर सान चढ़वायी।सान चढ़ाते हुए लुहार ने पूछा-अरे महाराजक्या परशुरामी करना है। रात को जब सब गहरी नींद में थे, मैंने फरसे के प्रहार से चाचा और चचेरे भाइयोंके सिर को धड़ से अलग कर दिया।आक्रोश इतना ज्यादा था कि किसीकीआवाज भी नहीं निकली। पौ फटने वाली थी, मैं चुपचाप बैठा था।बहन बाहर आई।उसने मुझे भाग जानेको कहा। भागता रहा। एक डाकूओं के गिरोह में शामिल हो गया। हत्या करतेहुए मेरे हाथ नहीं कांपते थे। धीरे धीरे गिरोह का सरदार बन गया। किसी से पता चला कि चाची भी अपने पति और बेटों के दुख के कारण मर गई।मैंने रिश्तेदार की मदद से बहन का विवाह करवा दिया।बहन और जीजा को घरखेती की जिम्मेदारी सौंपी। स्वयं डकैती डालता।दूर दराज से बहन और उसकेबच्चों को देख लेता।अब जीवन में और क्या बचा था। वह बुरी तरह हांफने लगा। उसे दवा देकर लिटा दिया गया। डाक्टर ने तसल्ली दी-अब तुम छिपकर नहीं सबके साथ रहोगे। राज काज में समय लगता ही है।उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। आंखें डूब रही थी। उसने बहन से मिलने की इच्छा जताई। घर के पते पर पत्रडाला गया।उस समय मोबाइल नहीं आये थे।वायर लेस से थाने को सूचना दीगई,पर कोई नहीं आया। प्रतीक्षा की घड़ी बढ़ रही थी,और सांस उखड़ रही थी। सुबह जब डाक्टर राउन्ड पर आये, उसने अपने कांपते हाथों से डाक्टर का हाथपकड़ लिया-मुझे छोड़कर मत जाइए,वरना यमदूत मुझे ले जायेंगे। निरुपाय डाक्टर उसके पास बैठ गया।वह बड़बड़ाने लगा -सब मुझे छोड़ करचले गए।अम्मा बाबू। यहां तक कि दीदी भी भूल गयी। आप मत जाइए। डाक्टर जरा सा उठने की कोशिश करते,वह किसी कोमल शिशु की भांति हाथपकड़ लेता जो मां को नहीं छोड़ता। ‘मसीहा के रहने से इरादा मौत का बदला जाएगा‘ लंच का समय हो गया था, पर उसने हाथ नहीं छोड़ा। पूरा जेल स्तब्ध,बार बार वायरलेस भेजा जा रहा था। सुबह से शाम हो गई। दूसरे डॉ पर मरीज की जिम्मेदारी देकर केवल चाय पीनेघर आये।कप मुंह से लगाया ही था,टूट गया। कदाचित यमदूत भी मसीहा के सामने प्राण खींचने का साहस नहीं जुटा सके।जब कोई संसार छोड़ता है, आसपास कुछ अपने आंसू बहाते हैं, कुछ अभागे ऐसेहोते हैं,जिनके पास अपने नहीं होते। सूचना देने पर भी परिवार का कोई व्यक्ति नहीं आया, लिहाजा जेल प्रशासन नेअंतिम संस्कार कर दिया। पन्द्रह दिन बाद उसके बहनोई आये।जेलर के समक्ष न पहुंच सकने के बहानेबताया। जेलर बड़ी मुश्किल से अपने जज्बातों पर काबू रख सके।जाने का इशाराकिया। ‘साहब उसके आखिरी क्षणों में कौन उसके पास था।‘ ‘क्यों डाक्टर साहब थे।‘ ‘उनसे मिलना है।‘ ‘क्यों मिलना चाहते हो।‘जेलर ने पूछा। जीजा ने रिरियाते हुए कहा-‘शायद साहब को बताया हो कि माल कहां छिपा रखा है।‘ लंबे तड़गें जेलर साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। बड़ी मुश्किलसे अपने को रोका-‘ निकल जा मेरी नजरों से।जब वह अपनी बहन को देखेने केलिए तड़प रहा था, नहीं आया। डाक्टर साहब तो हाथ उठा देंगे।‘ जेलर हतप्रभ थे मानवता का उत्थान और पतन देखकर। आशा सिंह … जेल के पन्नों से जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ आपको कहानी “जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा”कैसी लगी | अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराये |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

मासूम

मासूम

किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार /किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार .. जीना इसी का नाम है |मासूम कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले ये गीत ही जेहन में आया | कितने गरीब मासूम बच्चे सड़क पर रेस्तरा में ,आइसक्रीम , चाट के ठेलों के आस -पास खड़े मिल जाते हैं |क्या हम उनके लिए कुछ करते हैं ? अगर हम सब जरा सा सहयोग कर दें तो ना जाने कितने मासूमों की जिंदगी बदल जाए | आइए पढ़ें एक प्रेरणा दायक कहानी मासूम   स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो सामान उठाने के लिए कोई भी कुली नहीं दिखा। जब कि डिब्बे के साथ – साथ कुली दौड़ते रहते हैं, जब तक गाड़ी रुक नहीं जाती। पता चला कि कुलियों की हड़ताल है।किसी तरह सामान डिब्बे से खींचकर बाहर निकाला। इस शहर में करीब बारह वर्षों पश्चात् पति का प्रमोशन पर पुनः तबादला हुआ था। वह पहले ही यहाँ आ चुके थे।   मैं उनके लेने आने का इन्तज़ार करने लगी । तभी सामने से एक लड़का आता दिखा। उसने कहा, ‘शायद आप किसी का इन्तजार कर रही हैं? चलिए,मैं सामने वाले स्टाॅल तक आपका सामान ले चलता हूँ , तब तक आप वहीं पर बैठिए।मैं आपका सामान बाहर तक पहुँचा दूँगा।’ मैने उसे संशय की दृष्टि से देखा। दूर – दूर तक कोई कुली दिखाई नहीं पड़ रहा था। मरता क्या न करता? ‘ठीक है’,मैंने कहा। उसने  सामान उठा लिया और पास ही सामने वाले चाय के स्टाॅल के पास जाकर रख दिया। वहाँ पर रक्खी कुर्सी बैठने के लिए खींच दी। मै बैठ गई। उसने स्टाॅल पर खड़े लड़के से चाय लेकर मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने चाय उसके हाथ से ले ली। सच कहूँ तो सफर से थक गई थी।चाय पीने की इच्छा भी हो रही थी। मैं  उसे चाय के पैसे देने लगी किन्तु उसने लेने से इन्कार कर दिया। ‘आपने मुझे पहचाना नहीं पर मैंने आपको पहचान लिया है। ‘बारह साल पहले …. आइसक्रीम काॅर्नर पर ‘….. उसकी आँखें छलछला आईं थीं ।    मुझे करेन्ट सा लगा था। ‘ क्या यह वही बच्चा है? ” जिन स्मृतियों को यत्नपूर्वक धक्के मारकर मैने अवचेतन मन की गहराइयों में दफन कर दिया था, वह इस रूप में सामने आएगीं, सोचा न था।    पति कब आकर खड़े हो गए थे, पता नहीं चला। वह कह रहा था  ‘आपके द्वारा दिए गए पैसों से मैंने कई काम किए, उनसे जो फायदा हुआ, यह स्टाॅल उसी का नतीजा है। ‘ उसने झुक कर मेरे पाँव छू लिए थे। पति हतप्रभ थे किन्तु मेरी हालत देखकर वह मौन रहे। लड़का कुछ कह रहा था पर मेरा मन बारह साल पीछे, इसी शहर के सबसे पाॅश इलाके के चौराहे पर जा पहुँचा था।        काॅलोनी से थोड़ा बाहर चलकर ,शहर का पाॅश कहलाने वाला मोहल्ला शुरू हो जाता था ।वहाँ बाजार में खूब रौनक रहती , खासकर सायंकाल से देर रात्रि तक। करीब-करीब सभी जरूरत का सामान वहाँ मिल जाता था। सब्जी से लेकर स्टेशनरी तक। वहाँ शहर की प्रसिद्धमिठाई और चाट की दूकाने थीं। सच कहें तो वह सम्भ्रन्त लोगों का बाजार था।     हम अक्सर शाम को इधर घूमने निकल आते और जरूरत का सामान भी लेते आते। वहाँ चौराहे पर एक ओर ‘ आइसक्रीम काॅर्नर ‘ था। हम सब , मैं , पति और दोनो बच्चे वहाँ आइसक्रीम खाते । किन्तु यहाँ जब-जब आती, एक अजीब सी बेचैनी होती।उस काँर्नर पर तथाकथित सम्भ्रान्त लोगों के बीच ऐसा नज़ारा देखने को मिलता कि अन्दर तक दिल दहल जाता। जैसे ही लोग खाकर आइसक्रीम के कप फेंकते, एक खूबसूरत दस-बारह साल का लड़का नज़र गड़ाए रहता। वह लपक कर दौड़ता हुआ आता और जूठे फेंके हुए कप में लगी आइसक्रीम को जीभ से चाट कर खा जाता ।जब भी यहाँ आती, यह नज़ारा देखने को मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इस बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसा देखने को लोग अभ्यस्त हो चुके थे। मन विचित्र अपराध – बोध से भर जाता।क्या करें ? कुछ समझ न आता। उस ‘ आइसक्रीम कार्नर ‘ के ऊपर स्टेशनरी की दूकान धी।एक दिन जब लोग आइसक्रीम खा रहे थे और वह लड़का दौड़-दौड़ कर कप चाट रहा था, बच्चों की पढ़ाई से सम्बन्थित कुछ सामान लेने के लिए मेरे पति ने मुझसे ऊपर चलने को कहा।मैं नहीं जाना चाहती थी। यह जानकर कि मैं सीढ़ियाँ नहीं चढ़ना चाहती, वह बच्चों को लेकर ऊपर चले गए। मैं कुछ देर तक उस बच्चे को देखती रही।  फिर किसी अनजान अन्तःप्रेरणावश मैंने उसे इशारे से पास आने के लिए कहा । वह आ गया। मैं पर्स खोल कर उसमे से उतने रुपये ढूँढने की कोशिश कर रही थी जिससे वह आइसक्रीम खरीद कर भरपेट खा सके। तभी मेरी निगाह ऊपर पड़ी। पति और बच्चे सामान लेकर दूकान से बाहर निकल रहे थे । पता नहीं क्यों , मै नहीं चाहती थी कि यह मुझे इस बच्चे को कुछ देते हुए देखें। खुले रूपये ढूँढ नहीं पा रही थी। मैंने घबराहट में सौ-सौ के नोट , जो आपस में लिपटे हुए थे , उसे दे दिए। मुझे नहीं पता कि उसमे सौ के कितने नोट थे। मैं मुँह फेर कर खड़ी हो गई और बच्चों को सीढ़ी से उतर कर आते हुए देखने लगी।          वही बच्चा जवान होकर मुझे इस तरह सामने खड़ा मिलेगा , कभी स्वप्न में भी न सोचा था। उसने सामान उठा लिया था और मैं यन्त्रवत उसके पीछे चल पड़ी थी।प्लेटफार्म से बाहर आकर उसने सामान कार में रख दिया फिर हाथ जोड़कर भरे गले से बोला , ‘ यदि मेरे लायक कोई भी कार्य हो तो जरूर बताएँ , मैं दौड़ा चला आऊँगा। ‘ तब तक ड्राइवर कार स्टार्ट कर चुका था । कार चल पड़ी थी । वह बाहर खड़ा हाथ हिला रहा धा । मैं तो उसका नाम भी नहीं पूछ पाई थी ।                                   अभी भी जो मासूम , न चाहने पर भी , यदा- कदा मेरे अवचेतन मन की भीतरी पर्तों को चीर कर , चेतना के स्तर … Read more

जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ

जेल के पन्नों से--हत्यारिन माँ

“माँ”, दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द है |माँ शब्द के साथ एक शब्द और जुड़ा है ….ममता, जैसे देवत्व का भाव | माँ, जो जन्म देती है, माँ जो पालती है, चलना सिखाती है ,उंच -नीच समझाती  है,हर बला से बचाती है क्या वो हत्यारिन हो सकती ? वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी  के धारावाहिक “जेल के पन्नों से” के भाग दो में पढिए एक हत्यारिन माँ की रोंगटे खड़े कर देने की कहानी .. जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ यह घटना शायद न लिखती,पर आंध्र प्रदेश के चित्तूर की घटना ने विवश कर दिया। पिता कैमिस्ट्री में पी एच डी, स्कूल के उप प्रधानाचार्य, मां गणित में एम एस सी , तंत्र के जाल में फंस कर अपनी ही दोनों बेटियों की हत्या कर दी। शवों के पास इस विश्वास से बैठे रहे-सत्ययुग आयेगा। बेटियां पुनर्जीवित हो जायेगी। जब इतने शिक्षित अंधविश्वास में ग्रसित होकर ऐसा कर सकते हैं,तो गांवों में वैसे ही टोना टोटका चलता है। जेल के बाहर कर्मचारियों के आवास थे।सांय महिलाएं गपशप करतीं।जब ऐसे ही हल्की फुल्की चर्चा चल रही थी,जेल की महिला वार्डन जमुना कैदी को लगभग घसीटते हुए ले जा रही थी। जमुना को इतना बिफरते नहीं देखा था। हम लोगों ने उसे टोका-‘आज इतना गुस्सा क्यों आ रहा। मैडम,जब आप लोगों को इसके बारे में पता चलेगा,आप भी मुझसे ज्यादा अंगारा हो जायेंगी। हम लोगों ने उस स्त्री पर ध्यान दिया।गोरी चिट्टी नाटे कद की सुंदर महिला चेहरे पर पिटाई की सूजन बिखरे बाल चेहरे पर मुर्दिनी छाई हुई थी। जमुना ने बात आगे बढ़ाई-राजापुर गांव की अच्छे खाते पीते परिवार की है। कुर्मी परिवार खेतों में बहुत परिश्रम करते हैं। महिलाएं भी पूरा साथ देती हैं।रहन सहन में सीधे और मालदार होते हैं। अक्सर मुकदमे में इनकी गारंटी ली जाती है। एक बार गांव के ठाकुर की जमानत के लिए बूढ़े पटेल जी पहुंचें।उनकी सादी वेशभूषा देख कर जज को विश्वास न हुआ कि ये इतनी रकम भर सकेंगे।पटेल जी ने पोटली बढाई,साहब गिनवा लें। ज्यादा हो तो वापिस करें,कम हो तो भी बताया जाये। चौधरी टीकाराम का अच्छा परिवार बीस बीघे की काश्त और पक्का मकान।दो जवान बेटे पिता के साथ हाड़ तोड़ मेहनत करते। दोनों बेटो का ब्याह कर दिया।पूरा परिवार प्रेम से रहता। बड़े भाई का पांच साल का बेटा चुनमुन सबकी आंखों का तारा था। छोटी बहू की गोद खाली थी।वह भी बच्चे को बेहद प्यार करती।बच्चा भी काकी से ही चिमटा रहता। लिहाजा सास और जिठानी निश्चित हो कर खेतों की निराई करती। पता नहीं क्यों मायके से लौट कर उदास रहने लगी।पति के पूछने पर निस्संतान रहने के कारण दुख बताया।पति ने हंसकर कहा-है ना चुनमुन। अन्तर में क्या ज्वाला जल रही थी,कोई भांप न सका। सारे सदस्य खेतों पर गये थे। चुनमुन काकी के साथ घर पर ही था। काकी जाकर गौ के लिए चारा काटने लगी।बच्चा गले से लिपट कर मनुहार करने लगा- काकी लड्डू दो। दुपहरिया में बाकी सदस्य आ गया। भोजन के लिए बैठ गया। बच्चे को सामने न देख पुकारा जाने लगा। सोचा कि बालक शरारत से कहीं छुप गया है। दादी बोली- बचवा , अब तंग न करा। जल्दी से आओ। तुम्हारे लिए रोटी पर घी लगा दिया। छोटी बहू पागलों की तरह चीखने लगी-अब वह कभी नहीं आयेगा। उसके पति ने पूछा- क्या आंय बांय बक रही है। कहां गया चुनमुन। बेहद वीभत्स उत्तर मिला-हम उसको गंडासा से काट कर खून पिये।साधु बाबा कहे थे कि फिर वह तुम्हारे पेट से जन्म लेगा। सबको लगा विक्षिप्त हो गई है। अनर्गल प्रलाप कर रही है। बूढ़ी दादी – हंसी न कर।बबुआ कहां है। हम भूले के ढेर में तोप दिये हैं। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी, अन्यथा सब उसे पीट पीटकर मार डालते। उस हत्यारिन पिशाचनी को देख उबकाई आने लगी।हम लोगों की स्थिति देख जमुना फौरन लेकर चली गई। ऐसे ही लाखों ढोंगी बाबा हैं। पता नहीं कैसे इनके जाल में फंस जाते हैं।   यह भी पढ़ें ॥ जेल के पन्नों से दरवाजा खुला है नीम का पेड़‘ बोलती का नाम गाड़ी आपको धारावाहिक जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ कैसा लगा ? हमें  अपनी अवश्य अवगत कराएँ | अगर  आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद   आती   हैं  तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज    लाइक करें |

धनश्री

धनश्री

दीपावली का त्योहार आते ही महिलाओं की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं |धन की देवी लक्ष्मी के स्वागत के लिए घर का कोन -कोना साफ करना, ढेर सारा सामान खरीदना और पकवान बनाना |ऐसे में अगर स्वास्थ्य साथ ना दे तो इतना काम संभालना मुश्किल होता है | न कर सकने  की स्थिति में मन में एक अपराध बोध रहता है | ऐसी ही सतही से गुजरती नंदनी को दीपावली से ठीक पहले धनश्री मिलती है पर एक अलग रूप में | आइए पढ़ें घरेलू कामों और स्त्री के श्रम के महत्व को बताती कहानी…. धनश्री  सितंबर का माह खत्म होनें को था, और चारों तरफ गुलाबी धूप का बसेरा शुरू हो चुका था। त्यौहारों का मौसम भी हर दुकान चौराहे पर रौनक़ बड़ा रहा था। बाज़ार में नये नये सामान की दुकानें  सजने लगीं थी। नई सजावटी सामान का अंबार हर साल खुशियों की सौग़ात लिए बाज़ार में चमक रहा था। साल भर के त्यौहार दीपावली आने की फैलती खुशबु छुटपुट पटाखों के फूटने से पता पड़ने लगी थी । उस दिन  लगभग बीस दिन बाद नंदनी बिस्तर से उठी थी। हाथ की हड्डी के फ़्रैक्चर के साथ पैर में भी मौच आ जाने से उसने  जो बिस्तर पकड़ा था वो उस साल के पूरे बीस बाइस दिन ले गया था ।  नंदनी अपने घर की छत पर पहले की तरह  चाय का बड़ा कप लिए धीरे धीरे  घूम रही थी यह सोचते हुए कि माह के आख़िर में ही दीपावली है। आपरेशन के बाद ज़्यादा भारी काम के लिए डॉ ने मना किया था। घर के बहुत से छोटे बड़े काम अभी भी छूटे थे। पिछले साल से ही पुताई करवाने का सोच रही थी। इसबार दीपावली की पुताई तो करवाना ही थी,सोचाथा  भले पूजा के कमरे और चौके में हो जाये ।यह भी सोचा था कि पुराना सामान भी कबाड़ी को दे देना है तभी नये सामान की खरीदी  करेगी और सबके मन पसंद के अनुसार घर की सजावट करके सबको खुश कर देगी । मगर हाय रे क़िस्मत  उसी उठा पटक में स्टूल से गिरी थी की उल्टे हाथ में फैक्चर हो गया और पैर अलग मौच खा गया था।तब तक तो घर फैल चुका था और उसके  गिरने से  सारे काम आधे अधूरे ही रह गये थे।  अब तो दीपावली को कम दिन ही रहे उनको पूरा करना ही होगा मगर किसी की मदद लेनी होगी अब अकेले नहीं हो पायेगा इस बार चंद्रा से मदद माँगूँगी कि तभी ज़ोर से दरवाज़े पर घर की घन्टी बजी …टिन…टिन …टिन … अरे !…कौन है जो इतनी सुबह घन्टी पर घन्टी बजा रहा है ,नंदनी सोच में थी कि बड़ी बेटी ने दरवाज़ा खोला और आवाज़ दी “मम्मा आंटी आई है ….” “कौन सी आंटी ?” “अरे मैडम… मैं हूँ ! हँसते हुए काम वाली चंद्रा नंदिनी के सामने जा खड़ी हुई।” “अरे !आज इतनी  सुबह जल्दी आ गई ?” “मुझे छुट्टी चाहिए…….  मैडम “ “क्यों ?…  तू सुबह से यह छुट्टी का क्या राग आलाप करने लगी, क्यों चाहिए छुट्टी?” “ पिछले सप्ताह भी एक टाइम की तो छुट्टी ली थी। फिर पिछले महीने भी  छुट्टी लेकर  अपने ससुराल घर गई थी ?” नंदिनी के सवाल पर चंद्रा ने दुखी सा मुँह बनाया और बोलने लगी “मैडम… मेरी नानी बहुत बीमार है, आज मरी कि कल ऐसा चल रहा है, और सात दिन बाद मेरे इकलौते भाई की सगाई भी है।” फिर  चंद्रा थोड़ा दयनीय होकर बोली “दिवाली बाद देव उठने पर ही शादी होगी माँ ने मुझे काम में मदद के लिए ही बुलाया है।  उनके पास भी कोई नहीं है।।पहले सगाई की फिर दिपावली  फिर शादी की तैयारीकरना है, और नानी की खराब तबीयत के साथ सब काम  माँ नहीं  सँभाल  पायेगी।” चंद्रा कुछ लड़ियाते हुए बोली। “ फिर राखी के बाद अब जा रही हूँ अपने माँ के घर।” थोड़ी देर रुककर चंद्रा तेज़ आवाज़  में और अधिकार के साथ फिर बोली “देखो आप अब ठीक हो जब आपकी तबीयत ख़राब थी तो मैंने  भी छुट्टी नहीं ली थी।” मानों एहसान जता रही हो कि अब तो छुट्टी जाकर ही रहेगी। “हाँ ना मैडम  …” एक मिनिट रुककर वो नंदनी के चेहरे के हाव भाव देख पढ़ती रही फिर बोली “एक बात और कुछ पैसे भी एडवांस  चाहिए; घर जाकर इस बार दीवाली पर पायलें ख़रीदना हैं” इतनी बातें नंदनी को सुनाकर चंद्रा फिर से उसका मुँह देखने लगती है। “अच्छा !..कब जाना है तुझे ?” नन्दनी के सवाल पर चंद्रा ने झट उत्तर दिया “आज ही जाना है शाम को , पूरे पंद्रह दिन… धीमे से कहते हुए चंद्रा काम करने लगी ।” नंदनी स्तब्ध सी हो गई उसके सोचे काम का अब क्या होगा? सोचने लगी । “अरे मैं किसी को देखती हूँ  कोई और मेरी जगह काम कर दे ,आप चिन्ता मत करो मैडम”  चंद्रा ने हंसते हुए कहा । नंदनी स्वयं को  लाचार महसूस करते हुए अंदर से खूब परेशान हो गई थी पर बिना ना-नुकुर करते हुए बुदबुदाई अब जो होगा देखा जायेगा सोचती हुई घर के काम में व्यस्त हो गई। हाथ के हड्डी के आपरेशन के बाद नंदनी सारे काम भी संभाल नहीं पा रही थी।एक दूसरी काम वाली को मदद के लिए चंद्रा ने भेजा जो बस झाड़ू -पोछा,बर्तन करके चली जाती थी। आठ दिन तक पुताई के चलते नंदनी काफी परेशान हो चुकी थी और गर्दन में (स्पंडालाइसिस का कॉलर) कमर में बेल्ट लगा कर काम कर रही थी ।बार -बार काम वाली और दीपावली को अपनी इस हालत का दोषी मान रही थी।ठीक दीपावली के एक सप्ताह पहले नंदनी की तबीयत और खराब हो गई और घर के लोग भी त्यौहार के चलते अधिक काम से परेशान होने लगे ।जहाँ दीपावली खुशियों का त्यौहार है वही सभी मुँह लटकाये बस काम किये जा रहे थे। चंद्रा ने तो काम वाली भेजी  मगर पाँच छ: दिन बाद ही उसने आना बंद कर दिया था। पता पड़ा की उसके बेटे का स्कूटर से एक्सीडेंट् हो गया है और वो अस्पताल में है।अब और परेशानी नंदनी ऐसे में जाकर किसे पूछे। अब तो  घर के लोगों की एक दूसरे पर खीज ही निकल रही थी। घर … Read more

डरना मना है

डरना मना है

.‘डरना मना है’ कहानी  में बाल मनोविज्ञान और भूख का मनोविज्ञान दोनों का ही अंजू जी ने बहुत सहजता से वर्णन किया है |ये कहानी एक बच्चे पर आधारित है जो कूड़ा बीन कर अपना व् अपने परिवार का पेट पालता है | इन कूड़ा बीनने वाले बच्चों के इलाके भी बंधे हुए हैं | जहाँ दूसरे इलाके के बच्चे नहीं आ सकते और अगर आये उन्हें इस गलती के लिए पिटाई की सजा भुगतनी होती है | ऐसा ही एक बच्चा बसंत जो पिटाई के बाद दूसरे दिन काम पर नहीं आ पाया पर उसके अगले दिन उसे काम पर निकलना है उसकी आँखों के आगे अपनी और अपने परिवार की भूख का सवाल है | ऐसे में दूर से जब उसे बीच सड़क पर पड़ी कोई वस्तु दिखाई पड़ती है तो वो सहज ही उसकी ओर आकर्षित होते हुए बढ़ता चला जाता है | बच्चे हर बढ़ते कदम के आगे कहानी मार्मिक और गंभीर होती जाती है | हम सब के मन में बहुत सारे विश्वास –अन्धविश्वास रोप दिए जाते हैं | कहानी उस पर भी प्रहार करती है परन्तु कहानी का उद्देश्य पाठक के मन में उस मानवीय संवेदना को जगाना है जिस के तहत वो बच्चा आगे बढ़ते हुए उन सब आवाजों को दर-किनार करता चलता है जो आज तक उसे डराती आई हैं | वो है भूख का डर  जो हर डर पर हावी है | ये कहानी ऐसी है जो खत्म होने के बाद पाठक के मन में एक टीस उठा देती है | डरना मना है —————- पौ फटने के समय ही निकल जाता है बसंत घर से पर आज थोड़ा लेट हो गया!  सड़क पर थोड़ी बहुत आवाजाही शुरू हो चुकी थी!  शुक्र है कि झाड़ू लगना अभी शुरू नहीं हुई थी वरना उसकी किस्मत पर भी फिर जाती झाड़ू!  उसने सड़क पार की और मेनरोड से अंदर वाले छोटे रोड पर आ गया था।  किनारे पर पड़ी दो बोतलें इसका कारण थीं जिन्होंने दूर ही से उसका ध्यान खींच लिया था। उसने दौड़कर दोनों बोतलें और उससे आगे पड़ी पन्नी और कुछ कागज़ उठाकर कंधे पर लटके अपने कद से भी  बड़े से पोलीथिन के झोले के हवाले की और आगे बढ़ गया। उसके कोहनी और घुटने में अब भी दर्द है!  उसे याद आयी कल रात की वह घटना।  माँ की दवाई तीन दिन से खत्म थी!  पूरे दिन भटकने पर भी थोड़ी पन्नियों और कागज़ के अलावा कुछ खास हाथ नहीं लगा तो वह बाजार चला गया था। वहाँ लगनेवाला साप्ताहिक शुक्र बाजार उस जैसे लड़कों को मालामाल कर देता है, उसने सुना था हरीश से।  हरीश… उसके साथ कूड़ा बीननेवाला उसका हमउम्र हमपेशा लड़का, जो अपने अनुभव के चलते अब वरिष्ठ की श्रेणी में आ गया था।  हरीश उसकी तरह किसी परिवार से नहीं जुड़ा था।  उसके ही शब्दों में वह “सड़क पर पैदा होया मैं…बोले तो लावारिस जिसका कोई वाली-वारिस ई नई!” पर बसंत लावारिस नहीं था! उसके पीछे दो और पेट लगे थे! बाजार में पीछे बचे ‘माल’ का अंबार लगा होता है।  जो लोगों के लिए कूड़ा-करकट, भंगार या कबाड़ है   उसके लिए वही माल है, रोजी रोटी है!  लालच ने घेर लिया था बसंत को, उससे भी अधिक रोजी की चिंता ने। “उधर जाने का नई रे बसंत।  अपना इलाका नई है।  हाथ लग गया तो साबुत नई बचेगा रे।”  हरीश बोलता था! लालच बड़ा था क्योंकि भूख बड़ी थी।  जरूरत उससे भी बड़ी।  पांच मिनट में आधा झोला भर गया था इतनी पन्नी, कागज़, बोतल, प्लास्टिक मिले थे बसंत को बाज़ार उठने के बाद। झूम गया था उसका मन पर वही हुआ जिसका डर था। लालच की सज़ा मिलनी थी, मिली भी।  आ गया था एक को नज़र!  उसकी एक हुंकार पर पूरा गैंग जमा हो गया!  खूब मार पड़ी।  वह बेतहाशा भाग निकला वहाँ से। झोला तो पहले ही छीन लिया गया। जब दूर आकर रुककर सांस ली तो अहसास हुआ, होंठ साइड से कटकर सूज गया था।  वहां छलछला आए खून को उसने बाजू से पोंछ लिया था। मुंह मे रक्त का नमकीन स्वाद घुला तो उसने जोर से थूक दिया। दाई कोहनी, बायां घुटना भी छिल गया था।  कंधे में भी तेज दर्द था।  रात भर कराहता रहा।  रंजू ने हल्दी की सिकाई की तो कुछ आराम मिला।  कब नींद आई कुछ पता नहीं।  रंजू उसकी बड़ी बहन है।  सड़क पर हुए एक हादसे में उसका एक पैर कट गया। हंसती खेलती रंजू के साथ अब सहेलियाँ नहीं बैसाखी थी!  जिन कोठियों में काम करती थी सब जाता रहा।  अपाहिज लड़की को कौन काम देगा।  माँ तो पहले ही फेंफड़े की बीमारी से लाचार हो चुकी है।  बाप कभी होगा पर बसंत ने उसका चेहरा तक नहीं देखा।  उसके जन्म से पहले ही लापता हो गया कहीं! ये भी नहीं मालूम कि है या नहीं! होता भी तो कुछ फर्क नहीं!  सड़क बनाने का काम में बेलदारी करता था पर नशेड़ी था एक नंबर का…माँ बताती है! एक बड़ा भाई भी है जो नशे की लत के कारण घर कम आता है। उसके साल के चार महीने चोरी चकारी या उठाईगिरी में बीतते हैं और बाकी आठ जेल में।  उससे छोटी एक बहन डेंगू का शिकार होकर ऊपर पहुँच गई, डायरेक्ट भगवान के पास।  सबसे छोटा वही! जब तक माँ बहन कोठी का काम करती रही हालात इतने खराब नहीं थे पर अभी तो सब भगवान नहीं बसंत भरोसे! आठ साल की उम्र में कौन काम देगा! एक बार लगा था एक होटल में!  मालिक दिन निकले से आधी रात तक जमकर काम कराता था और पगार में से आधा काट लेता था ये टूटा वो टूटा बोलकर! उसकी उम्र के चलते काम मिलना मुश्किल है!  कानून का डर है सबको!  उसको अब ये काम ही जमता है! ये माल बटोर कर इदरीस चचा को बेच देता है!  गुजारा चल रहा है पर एक-दो दिन माल न मिले तो फाके के नौबत आ जाती है! पन्नी, गत्ता, कागज़ खूब मिलता है उसे! कभी किस्मत साथ दे तो अच्छा कबाड़ भी हाथ लग जाता है! जैसे कोई ट्यूबलाइट की खराब पट्टी, कोई पुरानी मशीन, कोई ख़राब इलेक्ट्रॉनिक आइटम! और कोई … Read more

जेल के पन्नों से

जेल के पन्नों से

जेल .. ये शब्द सुनते ही मन पर एक खौफ सा तारी हो जाता है | शहर की भीड़ -भाड़ से दूर,अपनों से अलग, एक छोटा सा कमरा,अंधेरा सीलन भरा | जेल जाने का डर इंसान को अपराध करने से रोकता है |फिर भी अपराध होते हैं | लोग जेल जाते हैं |क्या सब वाकई खूंखार होते हैं ?या कुछ परिस्थितिजन्य  अपराधी होते हैं और क्षणिक आवेश में किये गए अपराध की सजा भुगतते हैं | आइए मिलते हैं ऐसे ही जेल के कैदियों से और जानते हैं उनकी सच्ची कहानी वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी की कलम की जुबानी .. जेल के पन्नों से  जेल का नाम ही मन में भय उत्पन्न कर देता है ।एक बार जेल में ही पतिदेव की पोस्टिंग हुई,सो जेल और क़ैदियों से मिलने का अवसर मिला । गीता का ज्ञान देने वाले भगवान श्री कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था ।जेल के परिसर में कृष्ण जन्माष्टमी बहुत धूमधाम से मनाई जाती है ।जन्माष्टमी पर झाँकी देखने जेल परिसर में गयी।बड़े ही सुंदर ढंग से सजाया गया था कागज की पट्टियों को काटकर मंदिर बनाया गया था ।एक्स-रे प्लेट पर बालकृष्ण की छवि जो लाइट पड़ते जगमगा उठती।किसी पंखे के चक्र पर किनारे गोपियाँ और बीच में बाँसुरी बजाते कृष्ण ।बुरादे को अलग अलग रंगों में रंग कर रास्ते,उसपर प्रभु के नन्हे चरण,जो नंदवाल के झूले तक जा रहे थे । मैं तन्मयता से झांकी को देख रही थी।कुछ क़ैदी भजन कीर्तन कर रहे थे।एक क़ैदी से पूछा -‘बहुत सुंदर सजाया है।‘उसने बताया कि उमर का कमाल है। मैंने उमर को बधाई देनी चाही,एक दुबला पतला सांवले रंग का युवक मेरे सामने लाया गया मैंने उसकी कला की बहुत तारीफ की। उसने झुक कर शुक्रिया कहा। उसके चेहरे पर इतनी मासूमियत भरी थी कि मैं सोच में पड़ गई कि इससे अपराध हुआ होगा। डाक्टर सिंह ने बताया कि इस पर तीन कत्ल का जुर्म है। फांसी की सजा हुई थी,पर महात्मा गांधी के सौ वर्ष पूरे होने के कारण उम्रकैद में तब्दील हो गई। ‘पर यह कितना मासूम दिखता है,शरीफ लगता है।इसने खून किया, विश्वास नहीं होता।‘ ‘अच्छा ,आप खुद ही पूछ लेना ।‘जेलर साहब ने मेरी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसे मेरे बंगले पर भेज दिया। हथकड़ी बेड़ी में जकड़ा उमर सिपाही के संग लाया गया।उसको देखकर मस्तिष्क में ववंडर चलने लगा। इतनी कम उम्र में जेल में आ गया।जब तक छूटेगा एकदम कृशकाय वृद्ध हो चुका होगा। शायद उसे खुले आसमान के नीचे अच्छा लगा। मैंने चाय मंगवायी तो उसने अपने तसले में ली। ‘अरे तुम लोग अपना तसला साथ लेकर चलते हो।‘ ‘अरे मालकिन, छोड़ कर आता तो चोरी हो जाता।ससुरे चोर डकैत तो भरे हुए हैं।‘चाय में बिस्कुट डुबो कर खाते हुए बोले। देखो हम बैठे है, मैडम जो पूछे बता देना। बड़ी मुश्किल से वह मोंढे पर बैठा। ज्यादा समय नहीं था,सो मैंने बात शुरू की-‘तुम तो शरीफ खानदान के लगते हो। यहां कैसे आ गये।‘ उसने सिर झुकाए कहा-‘मैडम इश्क के कारण। मैंने किया नहीं पर हो गया। लखनऊ में अब्बा हुजूर की फोटो फ्रेम करने की छोटी सी दुकान थी,साथ में बुक बाईंडिग का भी काम करते थे। मैं इकलौता बेटा, मां बाप की आंखों का नूर था।दो मकान भी थे। किराया अच्छा खासा आ जाता। जिन्दगी मजे से बीत रही थी। अचानक तूफान आ गया।कश्ती डगमगाने लगी। दुपहर को अब्बा खाना खाने घर जाते,उस समय मैं कालेज से लौटकर दुकान पर बैठता। मैं एक फ्रेम सही कर रहा था कि दुकान रोशन हो गई। निहायत खूबसूरत हसीना मेरे सामने खड़ी थी।उनके गोरे रंग की वजह से पूरी जगह जगमगा उठी। मैंने पूछा‘जी बताइए।‘ उन्होंने एक बेहद पुरानी तस्वीर जो पानी में भीग कर खराब हो गई थी। जगह जगह से फट गई थी,कई जगह बदरंग हो गई थी,‘यह मेरी दादी जान की तस्वीर है। पता नहीं कैसे पानी में भीग गई। अब्बा हुजूर को बहुत ही प्यारी है। अम्मी ने कहा कि किसी तरह ठीक कराओ,अब्बू को पता नहीं लगे। मैने तस्वीर ली-‘कोशिश करता हूं।‘ ‘कोशिश नहीं,आपको करना ही है।आपकी दुकान का नाम सुनकर ही आई हूं।‘ मैने फोटो देखी।वे भी अपने जमाने की हूर की परी होंगी। एकाएक दिमाग में बिजली कौंधी,ये तो अपनी दादी पर पड़ी है। पुराने जमाने के ढेरों जेवरात पहिने गोया खुद से शरमा रही हो। पता नहीं कैसे फोटो खींचने की इजाजत दी होगी। विचारों के समन्दर से बाहर आया। धीरे धीरे फोटो फ्रेम से अलग की। बाबा आदम के जमाने की तस्वीर,किस मुसीबत में फंसा गई। मैं पेन्टिग कर ही लेता था। आहिस्ता आहिस्ता खराब जगहों को भरने लगा। एक एक जेवर को संवारा। बालों पर, कपड़े सब पर कहीं ब्रश कहीं पेन्सिल चली।अब्बा मुझे व्यस्त देख बहुत खुश हुए। तीसरे दिन वे आ धमकी। अपने मोतियों जैसे दांतों की नुमाइश करती हुई-‘हो गया।‘ मैंने धीरे से पेपर में लिपटी हुई फोटो उन्हें दी। ‘माशा अल्लाह।कमाल कर दिया।जी चाहता है कि ऊंगलियां चूम लूं।‘अपनी बात पर खुद ही शर्मा गई। बटुआ खोल कर मेहनताना देना चाहा, मैंने मना कर दिया। ‘आपने इतनी तारीफ कर दी, मेहनताना वसूल। वे शुक्रिया अदा कर चली गई। अगले दिन वे पेन्टिग का ढेरों सामान लेकर हाजिर हो गई।ब्रश बहुत नफीस और महंगे थे। मैं हतप्रभ-‘ नहीं बहुत महंगे हैं।‘ मैं चाहती हूं कि तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बनो। खूब नाम कमाओ। ‘अरे नहीं साहब‘मैने कहना चाहा। ‘क्यो मकबूल फिदा हुसैन साहब हैं ना। तुम क्यों नहीं उनकी तरह मशहूर हो सकते।‘ मन में सपने जगाकर चली गई। हुसैन तो नहीं बन पाया, कैदी नंबर २२१ बन गया। मैं ने तसल्ली दी। मैंने कैनवस पर शायरी शुरू कर दी।वे आतीं,पेन्टिग को सराहती।मेरा हौसला अफजाई करतीं।‘बहुत सारी बना डालो।मै आर्ट गैलरी में नुमाइश लगवा दूंगी‘ मेरी उड़ान को पंख देती। अब्बू की अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया-‘बेटा हम छोटे लोग हैं।वे बड़े बिजनेसमैन मिर्जा साहब की बेटी हैं।‘ ‘नहीं अब्बू,वे बस हौसला अफजाई करतीं हैं।‘ हौसला अफजाई कब मुहब्बत में तब्दील हो गई, पता नहीं चला। हम अक्सर पार्क में मिलते।वे अपनी शानदार कार से आतीं, मैं अपनी खटारा सायकिल से। ‘जब तुम्हारा नाम हो जाए, मुझे भूल न जाना।‘ ‘सवाल ही नहीं है,आप हमेशा मेरे साथ रहेंगी‘ पर हमारे फैसले … Read more

व्यस्त चौराहे

व्यस्त चौराहे

ये कहानी है एक व्यस्त चौराहे की, जो साक्षी बना  दुख -दर्द से जूझती महिला का, जो साक्षी बना अवसाद और मौन का ,जो साक्षी बना इंसानियत का | कितनी भी करुणा उपजे , कितना भी दर्द हो ,पर ये व्यस्त चौराहे कभी खाली नहीं होते .. लोगों की भीड़ से ,वाहनों के शोर से और साक्षी होने के ..  मौन अंतहीन दर्द की शृंखलाओं से | आइए पढ़ें मीन पाठक जी की एक ऐसी ही मार्मिक कहानी व्यस्त चौराहे  जब से आरोही ने ये नया ऑफिस ज्वाइन किया था, शहर के इस व्यस्त चौराहे से गुजरते हुए रोज ही उस अम्मा को देख रही थी। मझोला कद, गोरी-चिट्टी रंगत, गंदे-चिकट बाल, बदन पर मैले-कुचैले कपड़े, दुबली-पतली और चेहरे पर उम्र की अनगिनत लकीरें लिए अम्मा चुपचाप कुछ ना कुछ करती रहती। वह कभी अपना चबूतरा साफ़ करती, कभी चूल्हे में आग जलाती तो कभी अपने सेवार से उलझे बालों को सुलझाती हुई दिख जाती। आरोही जब भी उसे देखती उसके भीतर सैकड़ों सवालों के काँटे उग आते। कौन है ये? यूँ बीच चौराहे पर खुले में क्यूँ अपना डेरा जमाए बैठी है? छत्त के नाम पर ऊपर से गुजरता हाइवे और दीवारों के नाम पर वो चौंड़ा सा चौकोर पिलर; जो अपने सिर पर हाइवे को उठाये खड़ा था, वही उसका भी सहारा था। अम्मा ने कुछ बोरों में ना जाने क्या-क्या भर कर उसी से टिका रखा था। वहीं छः ईंट जोड़ कर चूल्हा बना था। कुछ एल्युमिनियम के पिचके टेढ़े-मेढ़े बर्तन, प्लास्टिक की पेण्ट वाली बाल्टी और चूल्हे के पास ही कुछ सूखी लकड़ियाँ रखी थीं। यही थी उसकी घर-गृहस्थी। उसे देख कर आरोही के मन में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आते। वह सोचती कि उम्र के जिस पड़ाव पर अम्मा है, उसके बेटे-बेटियों के बालों में भी सफेदी झाँक रही होगी। उनके बच्चे भी बड़े हो रहे होगें। इसका पति जीवित है भी या नहीं! क्या उसे अम्मा की याद नहीं आती या अम्मा ही सब भूल गयी है ? इतने शोर में यहाँ कैसे रहती है अम्मा ? इन्हीं सब प्रश्नों के साथ आरोही ऑफिस पहुँच कर अपने काम में जुट जाती। लौटते समय फिर से चौराहे पर उसकी आँखें अम्मा को ऐसे तलाशतीं जैसे मेले की भीड़ में कोई अपने को तलाशता है। उस दिन किसी कारणवश आरोही को ऑफिस से जल्दी लौटना पड़ा। ऑटो से उतर कर चौराहे पर पहुँची तो आदतन उसकी आँखें अम्मा के चबूतरे की ओर उठ गयीं। उसने देखा कि अम्मा कोई कपड़ा सिल रही थी। कुछ सोचते हुए पहली बार आरोही के कदम खुद-ब-खुद अम्मा की ओर बढ़ गए। पास आ कर उसने देखा, अम्मा के सामने ही एक प्लेट पर काली रील रखी हुयी थी और अम्मा बड़ी तल्लीनता से ब्लाउंज की फटी आस्तीन सिलने में जुटी थी। उसने बैग से अपना टिफिन बॉक्स निकाल लिया। “अम्मा..! प्लेट इधर करना ज़रा।” टिफिन खोलते हुए बोली वह। अम्मा अपने काम में लगी रही। जैसे उसने सुना ही ना हो। “प्लेट इधर कर दो अम्मा।” आरोही इस बार कुछ जोर से बोली। उसकी तरफ देखे बिना ही अम्मा ने सुई को कपड़े में फँसा कर रील गिराते हुए प्लेट उसकी ओर खिसका दिया और फिर से सिलाई में लग गई। “लो, अम्मा !” लंच प्लेट पर रख कर उसके आगे सरकाते हुए आरोही ने कहा; पर अम्मा अपने काम में मगन थी, कुछ न बोली। लंच यूँ ही अम्मा के सामने रखा रहा और अम्मा अपना काम करती रही। आरोही थोड़ी देर वहीं खड़ी रही; पर जब अम्मा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी तब वह चुपचाप अपने रास्ते हो ली। मन ही मन सोच रही थी कि पता नहीं उसने जो किया वो उसे करना चाहिए था या नही; पर अम्मा के करीब जाने का उसे वही एक रास्ता सूझा था। अब तो रोज ही आते-जाते कुछ न कुछ उसके आगे रख देती आरोही लेकिन कभी भी ना तो अम्मा ने आरोही की ओर देखा, ना ही उसके कहने पर चीजें अपने हाथ में ली। कभी-कभी तो वह अम्मा के इस रवइए पर खिन्न हो जाती; पर अम्मा के नज़दीक जाने का और कोई ज़रिया उसे दिखाई नहीं दे रहा था। वह करे भी तो क्या ! जब भी वह उसके पास जा कर खड़ी होती तब ना जाने कितनी बार उसका जी चाहता कि वह बात करे अम्मा से। पूछे, कि वह कहाँ से आई है? यहाँ क्यों रह रही है? उसके घर में कौन-कौन हैं? परन्तु अम्मा के व्यवहार से आरोही की हिम्मत न होती और घर आ कर देर तक उसके बारे में ही सोचती रहती। उस दिन लौटते समय आरोही ने देखा कि अम्मा आने-जाने वालों को उंगली दिखा कर कुछ बोल रही थी। जैसे यातायात के नियमों को ताक पर रखने के लिए उन सबको डाँट रही हो, “सुधर जाओ तुम लोग नहीं तो भुगतोगे।“ जिज्ञासावश आरोही अम्मा की तरफ बढ़ गयी। कुछ और लोग भी उसी की तरह उत्सुकतावश रुक कर उसे देख रहे थे। अम्मा को देख कर आरोही ठिठक गयी। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। भौंहें कमान-सी तनी थीं। गले की नसें खिंच कर उभर आई थीं। अम्मा ऊँची आवाज में बोले जा रही थी; पर उसे कुछ समझ नहीं आया। वह चुपचाप देखती रही फिर वहीं बैठे एक रिक्शेवाले से पूछ लिया उसने, “क्या हुआ अम्मा को ?” “कबहू-कबहू बुढ़िया पगलाय जात। थोड़ो दिमाग खिसको है जाको।” चुल्लू भर मसाला वहीं चप्प से थूक कर अंगोछे से दाढ़ी पर छलका थूक पोछते हुए बोला वह। सुन कर धक्क से रह गयी आरोही। वह उसे इस हाल में पहली बार देख रही थी। उसे हमेशा चुप-चाप अपना काम करते हुए ही देखा था उसने। वहाँ लोगों के खड़े होने से जाम लगने लगा था। आती-जाती गाड़ियों की रफ़्तार थमने से उनके हॉर्न तेज हो गए थे। तभी चौराहे पर खड़ा सिपाही सीटी बजाता हुए वहीं आ गया। उसे देखते ही वहाँ खड़े सभी लोग तितर-वितर हो गए। गाड़ियों की कतारें रेंगती हुयी निकलने लगीं और थोड़ी देर में ही यातायात पहले जैसा सामान्य हो गया। रिक्शेवाले की बात सुन कर आरोही के दिल में कुछ चुभ-सा गया था। वह सोचने लगी कि कहीं अम्मा के इस … Read more