दरवाजा खुला है

दरवाजा खुला है

दरवाजा खुला है .. दरवाजा खुला रखना आसान नहीं होता ,खासकर उसके लिए जिसने आपकी जिंदगी को छिन्न -भिन्न कर दिया हो | स्त्री जीवन के त्याग  की कथाएँ अनगिनत है पर ऐसा नहीं है कि पुरुष त्याग नहीं करते .. परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का पालन नहीं करते और सब कुछ भूल कर , क्षमा कर पुन : एक नई शुरुआत नहीं करते .. आइए पढ़ें आशा सिंह जी की कहानी दरवाजा खुला है  मां के साथ रात को टहलने निकली। सरकारी कालोनी,साफ सुथरी सड़क,दोनो तरफ कर्मचारियों के बंगले। अचानक एक महिला जो गेटपर खड़ी थीं, हमें देखकर अंदर चली गई। मैंने चौंक कर मां से पूछा-‘काकीमां?‘ हां। मैं आसमान से गिरी। फैक्ट्री में कार्यरत सब एक दूसरे से परिचित हैं।सारी संस्कृतियां एकाकार हो गई है।खाने की तश्तरी बराबर घूमती रहती। बंगाल से पंजाब काश्मीर से केरल बीच में यू पी बिहार। बगल में बंग परिवार था।काकी के दोनों पुत्र थे,तपन सपन सरकार।लिहाजा उनका प्रेम मुझ पर बरसता। अक्सर बालों में तेल लगाती।मां कहती-‘कितनी कोशिश कर लो,मे के बाल बंगालियों की तरह नहीं होंगे।‘ तपन कुढ़ता-‘मैं खींच कर चूल लंबा कर देता हूं।‘ मैं चिढाती- बोका शाम को बैर भुलाकर पार्क में खेलते। सरकार मोशाय बहुत ही सीधे सादे व्यक्ति थे। सुबह सायकिल पर टिफिन बांधकर फैक्ट्री निकलते,शाम को लौटते हुए सब्जी माछ ले आते। आराम कुर्सी पर बैठ तपन सपन को पढ़ाते,बीच बीच में डांटने की आवाज सुनाई देती। मां कुढ़ती रहती क्योंकि पिता जी फैक्ट्री से लौटकर चाय पीने के बाद क्लब निकल जाते,ब्रिज खेलते।रात को जब तक वापस आते,हम लोग सो चुके होते। मां खाना परोसती जाती , बड़बड़ाती जाती-‘कभी बच्चों की पढ़ाई भी देख लिया करो।‘ पिता जी बात को हंसी में उड़ा देते-‘कौन फेल हो गया।‘ काकी को गाने का बहुत शौक था।काका ने हारु मास्टर जी को संगीत शिक्षा के लिए नियुक्त किया।हारु मास्टर भी साथ में काम करते थे। संध्या को रियाज होता। दुर्गा पूजा में अपने मधुर कंठ से गीत गाया, लोगों ने बहुत प्रशंसा की। कालोनी के बाहर के भी क्रार्यक्रम होने लगे।स्टेज पर काकी बिल्कुल मीरा जैसी तन्मय दिखती। कुछ लोगों के पेट में दर्द उठने लगा।काका को समझाने लगे।काका ने ध्यान नहीं दिया। समाज के ठेकेदारों ने महाप्रबंधक से कहकर हारु मास्टर का तबादला कलकत्ता करवा दिया। पता नहीं प्रेम का बंधन था या संगीत का।काकी अपने बेटों और पति को छोड़ कलकत्ता चली गई। बेचारे काका सबके जहरीले बाण झेलते।पर उनका रूटीन नहीं बदला।शाम सब्जी भाजी लाते, बच्चों को पढ़ने को कह रसोई संभालते। स्कूल में जब बच्चे चिढ़ाते, मैं मोर्चा लेती-‘काकी रविन्द्र संगीत सीखने कलकत्ता गई है।‘ काका की गंभीरता देख लोगों के मुंह बंद हो गए। रेडियो पर जब काकी का स्वर गूंजता तन्मयता से सुनते। मां से कहा-‘बऊ दी मैं उसके लायक नहीं था।‘ दस साल बीत गए,तपन सपन ने बिना मां के रहना सीख लिया। घर के काम में पिता की मदद करते उन्हीं की तरह गंभीर हो गए। सपन क्रिकेट का अच्छा खिलाड़ी था,बाल पर इतनी ज़ोर से शाट लगाता,मानो किसी से बदला ले रहा है। तपन ने बागवानी का शौक अपना लिया।जब काकी रेडियो सुनते,वह बाहर निकल कर बागवानी में जुट जाता।ख़त खच कर कैंची से सूखे पत्ते काटता। अचानक कलकत्ता से खबर आई कि हारु मास्टर नहीं रहे। पूरी कालोनी में सुगबुगाहट शुरू हो गई। एक दिन काकी वापस आ गई। काका ने इतना कहा-‘दरवाजा खुला है।‘ आशा सिंह यह भी पढ़ें … वो स्काईलैब का गिरना परछाइयों के उजाले  कड़वा सच आपको कहानी “दरवाजा खुला है”कैसी लगी ?अपनी प्रतिक्रिया से अहमें अवश्य अवगत कराये | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन  फेसबूक पेज लाइक करें |

हमसाया

हमसाया

अंधेरी रात, सुनसान सड़क और एक अकेली लड़की .. ये पंक्तियाँ पढ़ते ही जब मन में एक भय तारी हो जाता है तो क्या बीतती होगी उस लड़की पर जो वास्तव में इन परिस्थितियों से गुजर रही हो ? क्या होता होगा जब ऐसे में कोई हमसाया बन उसका पीछा कर रहा हो | धड़कते दिल से मन -मन भर भारी हो चुके पैरों को आगे घसीटते हुए ना जाने कितने अखबारों की खौफनाक पंक्तियाँ याद आती होंगी |ऐसी ही मनोदशा से गुजरती एक लड़की की कहानी हमसाया       कुछ ही दिन हुए थे उस नए शहर में मुझे नौकरी ज्वाइन किये। हर दिन लगभग पांच-छः बजे मैं अपने ठिकाने यानि वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल पहुँच जाती थी। उस दिन कुछ जरुरी काम निपटाते मुझे देर हो गयी। माँ की सीख याद आई कि रात के वक़्त रिज़र्व ऑटो में अकेले न जाना, सो शेयर्ड ऑटो ले मैं हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। वह मुझे सड़क पर उतार आगे बढ़ गया, रात घिर आई थी, कोई नौ -साढ़े नौ होने को था। पक्की सड़क से हमारा हॉस्टल कोई आधा किलोमीटर अंदर गली में था।    अचानक गली के सूनेपन का दैत्य अपने पंजे गड़ाने लगा मानस पर। इक्के दुक्के लैंप पोस्ट नज़र आ रहें थें पर उनकी रौशनी मानो बीरबल की खिचड़ी ही पका रहीं थी। सामने पान वाले की गुमटी पर अलबत्ता कुछ रौशनी जरुर थी पर वहां कुछ लड़कों की मौजूदगी सिहरा रही थी जो जोर जोर से हंसते हुए माहौल को डरावना ही बना रहे थें। मैं सड़क पर गुमटी के विपरीत दिशा से नज़रें झुका जल्दी जल्दी पार होने लगी, “काश मैं अदृश्य हो जाऊं, कोई मुझे न देख पाए”,     कुछ ऐसे ही ख्याल मुझे आ रहें थें कि उनके समवेत ठहाकों ने मेरे होश उड़ा दिए। अचानक मैं मुड़ी तो देखा कि एक साया बिलकुल मेरे पीछे ही है। लम्बें -चौड़े डील डौल वाले उस शख्स को अपने इतने पास देख मेरे होश फाक्ता हो गएँ। घबरा कर मैंने पर्स को सीने से चिपका लिया और दौड़ने लगी। अब वह भी लम्बें डग भरता मेरे समांतर चलने लगा। अनिष्ट की आशंका से मन पानी-पानी होने लगा। “छोरियों को क्या जरुरत बाहर जा कर दूसरे शहर में नौकरी करने की”, दादी की चेतावनी अब याद आ रही थी। “दादी, सारी लडकियां आज कल पढ़-लिख कर पहले कुछ काम करतीं हैं तभी शादी करती हैं…”, इस दंभ की हवा निकल रही थी।  तभी एक कार बिलकुल मेरे पास आ कर धीमी हो गयी, जिसमें तेज म्यूजिक बज रहा था. दो लड़के शीशा नीचे कर कुछ अश्लील आमंत्रण से मेरे कान में पिघला शीशा डाल ही रहें थें कि उस हमसाये ने टार्च की रौशनी उनके चेहरे पर टिका दिया। शीशा ऊपर कर कार आगे बढ़ गयी। वह अब भी मेरे पीछे था, उसके टार्च की रौशनी मुझे राह दिखा रही थी पर उसके इरादे को सोच मैं पत्ते की तरह कांप रही थी।  “क्या देख रहा वह पीछे से रौशनी मार मुझ पर, शायद कार वाले इसके साथी होंगे और लौट कर आ ही रहे होगें ?”,  मैं अनिष्ट का अनुमान लगा ही रही थी कि तभी माँ का फ़ोन आ गया। “माँ, मैं बस पहुँचने वाली हूँ हॉस्टल, मुझे अब रौशनी दिखने लगी है….”, एक तरह से खुद को ही ढाढ़स बढाती मैं माँ से बातें करती कैंपस में प्रवेश कर गयी। तेजी से हाँफते मैं पहली मंजिल पर अपने रूम की तरफ दौड़ी। लगभग अर्ध बेहोशी हालत में बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी रूम मेट ने मुझे पानी पिलाया और एक साँस में मैं उस हमसाये की बात बता गयी जो मेरा पीछा करते गेट तक आ गया था. अब चौंकने की बारी मेरी थी,    “लगभग तीन महीने पहले इसी वर्किंग हॉस्टल के बगल घर में रजनी रहती थी। एक रात वह लौटी नहीं, अगले दिन सुबह गली की नुक्कड़ पर उसका क्षत-विक्षत लाश पाई गयी थी। ये उसके ही भाई हैं जो तब से हर रात गली में आने वाली हर अकेली लड़की को उसके ठिकाने तक पहुंचाते हैं”, सुनीला बोल रही थी और मैं रो रही थी. उठ कर खिड़की से देखा मेरा वह भला हमसाया दूर गली के अंधियारे में पीठ किये गुम हुए जा रहा था शायद किसी और लड़की को उसके ठिकाने तक सुरक्षित पहुँचाने. रीता गुप्ता   यह भी पढ़ें .. ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा कहानी -कडवाहट पागल औरत (कहानी ) आपको कहानी हमसाया कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें |

लाल चप्पल

लाल चप्पल

कभी महंगी डिजाइनदार चप्पल खरीदते समय हम ये सोचते हैं कि कितने लोग हैं जिन्हें नंगे पाँव ही धूप ,सर्दी और बरसात का सामना करना पड़ता है | अमीर और गरीब को बांटने वाली रेखाओं में चप्पल भी एक ऐसी ही रेखा है और ये कहानी गरीब कामवाली द्वारा उस रेखा को मिटाने के लिए की गई एक छोटी सी कोशिश .. क्या वो कामयाब होगी ? आइए जानते हैं अर्चना अनुप्रिया जी की कहानी लाल चप्पल से लाल चप्पल  दूर दूर तक कोई भी नहीं था। पूरी सड़क सुनसान थी।दोपहर का वक्त था और गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती धूप में रधिया नंगे पाँव जलती हुई सड़क पर लगभग दौड़ती हुई बाजार की तरफ चली जा रही थी। उसे बाजार पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी पर एक पैर सड़क पर रखते ही सड़क की चारकोल पैर जलाने लगती थी तो झट दूसरा पैर खुद ही आगे आ जाता था। सूरज की कड़कड़ाती धूप से सड़क पर बिछी चारकोल इतनी गरम हो चुकी थी कि रधिया का चलना दौड़ने में परिवर्तित हो रहा था। कल ही मालकिन ने रधिया को पैसे दिए थे कि वह अपने लिए एक चप्पल खरीद ले। पहले तो उसने सोचा था कि उन पैसों से चप्पल की जगह बुधवा के लिए एक काली वाली छतरी खरीदेगी… बेचारा इतनी धूप में मजदूरी करने शहर के एकदम दूसरी छोर तक जाता है… दिन भर माथे पर ईंटें लाद-लाद कर तीन मंजिलें चढ़ता- उतरता है, फिर जब तक ठेकेदार न बोले, खाना भी नहीं खा पाता है। बारिश हो कि कड़ी धूप..दिन-दिन भर खुले आसमान के नीचे काम करता रहता है। छतरी होगी तो दम भर धूप और पानी से बच कर बैठ तो सकेगा। परंतु,बीती रात को रोटी खिलाते समय जब से रधिया ने बुधवा को मालकिन के लिए पैसों के विषय में बताया था, तभी से वह उसके पीछे पड़ गया था कि पैसे दे दो क्योंकि पिछले महीने उसके दोस्त हरमू ने सब दोस्तों को ताड़ी पिलाई थी, मीट-भात खिलाया था… तो इस बार वह सब को अपनी तरफ से ताड़ी की पार्टी देगा। उसका इरादा समझते ही रधिया ने तय कर लिया था कि चुपचाप चप्पल ले आने में ही उसकी भलाई है, वरना एक बार पैसे बुधवा के हाथ में गए.. तो न छतरी आएगी न चप्पल।वह पैसों को दोस्तों के बीच उड़ा देगा और फिर मालकिन दुबारा पैसे देने से तो रहीं…उलटा कहीं डाँट न सुननी पड़े। इसीलिए रधिया शाम तक बुधवा के आने से पहले ही चप्पल खरीदकर छुपा देना चाहती थी। बुधवा पूछेगा तो कह देगी पैसे कहीं गिर गए, नहीं तो चप्पल देखकर बुधवा उसी चप्पल से उसकी पिटाई कर देगा… कहेगा कि ‘बड़ी महारानी बनती है, चप्पल पहनकर काम करने जाएगी स्साली… दोस्तों के सामने मेरी इज्जत रहे ना रहे, महारानी को चप्पल जरूर चाहिए।’ रधिया अच्छी तरह से जानती है उसे, भले वह उससे प्रेम करता है, लेकिन उसकी खुद की जो पसंद है, उसे रधिया से ज्यादा प्यारी है…जो बोल दिया सो बोल दिया। बुधवा को बताकर अपनी शामत थोड़े ही न लानी है। रधिया के कदम और तेज हो गए।   बाजार में बहुत कम दुकानें खुली थीं। अधिकतर दुकानें या तो दोपहर की गर्मी की वजह से बंद थीं या फिर दुकानदार खाना खा रहे थे तो शटर आधी गिरा रखी थी। रधिया को समझ नहीं आया कि वह क्या करे। इतनी मुश्किल से तो पाँव जला-जला कर पहुँची थी वह… अब वापस जाकर फिर से आना कहाँ संभव था। दो-ढाई बज चुके थे तीन-साढ़े तीन बजे तक कोठी में काम करने जाना होगा, फिर कहाँ टाईम मिलेगा..?.. अभी अगर चप्पल नहीं खरीद पायी तो फिर तो नहीं ही ले पाएगी। शाम को लौट कर बुधवा फिर पैसे माँगेगा और नहीं देने पर मारेगा… छतरी खरीदेगी तो वह उसे भी बेच कर पैसे ताड़ी पार्टी में उड़ा देगा… नहीं नहीं.. उसे चप्पल खरीदनी ही होगी।   रधिया ने इधर उधर देखा, कोने में चप्पलों की एक छोटी सी दुकान दिखी..वह उधर ही बढ़ गई। दुकान का मालिक उन्हीं चप्पलों के बीच बैठकर खाना खा रहा था। छोटी सी दुकान थी पर जूतों-चप्पलों का अंबार लगा था। सामने थोड़ी हिलती-डुलती सी एक बेंच रखी थी।दीवार के ऊपर एक छोटा सा पंखा तिरछा करके लगा था, जो सीधा दुकानदार के ऊपर ही हवा फेंक रहा था हालांकि उसकी गर्म हवा बीच-बीच में थोड़ी बेंच की तरफ भी आ रही थी।रधिया उस गर्मी में तेजी से चलती-चलती थक गई थी। बेंच देखते ही जल्दी से जाकर बैठ गई। दुकानदार ने एक बार खाते-खाते सिर उठाकर उसे देखा,फिर इशारे से गर्दन उचकाकर पूछा कि क्या चाहिए..? “भईया, एगो चप्पल देखाइए न… मेरे लिए”.. रधिया ने कहा। दुकानदार ने खाते-खाते पूछा-“हवाई चप्पल चाहिए कि फैंसी वाला देखावें?” “हवाइए चप्पल देखाइए….फैंसिया लेकर का करेंगे भईया,हम लोग त काम-काज वाले आदमी हैं”- रधिया का जवाब था। दायें हाथ से खाते-खाते दुकानदार ने बायें हाथ से चप्पल का एक डब्बा उठाया, खोला और उसे उलटकर उसमें से चप्पल नीचे गिरा दी– “पहिन के देखिए, ठीक है..?” रधिया झट से उठकर चप्पल में एक पैर डाल कर देखने लगी-“लगता तो ठीके है, पर तनी कड़ा है, दोसर देखाइए न।” “अरे दुन्नू पैर में पहिन के देखिए, एगो पैर में थोड़े पता चलेगा..” दुकानदार बोला। गर्मी से बेहाल,थकी हुई रधिया का बेंच पर से दुबारा उठने का मन नहीं हो रहा था, पर क्या करती,जल्दी से लौटकर काम पर भी जाना था। बेमन से उठकर दोनों पैरों में चप्पल पहन कर देखा… तलवे के नीचे मोटा का गद्दा..अहा, जलते हुए पैरों को बड़ी ठंडक सी मिली, पल भर के लिए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं… बंद आँखों से ही उसे कोठी की मालकिन के पैरों की लाल चप्पल दिखी, जो उनके गोरे से पैरों में बड़ी खिलती थी। रधिया का मन मचल उठा, बोली-“ए साइज तो ठीके  लग रहा है, लाल कलर में नहीं है..?” लाल वाला देखाइए ना..।” दुकानदार का खाना भी तब तक समाप्त हो चुका था। हाथ हिला कर रधिया को बैठने का इशारा करते हुए पानी की बोतल लेकर दुकान से बाहर चला गया।हाथ मुँह धोकर तुरंत ही वापस आ गया, फिर एक फटे से तौलिये में … Read more

मंथरा

मंथरा

इतिहास साक्षी है कि केकैयी अपने पुत्र राम के प्रति अपार स्नेह भाव रखती थीं | पर उन को सौतेली माँ का दर्जा दिलाने में मंथरा की अहम भूमिका रही है | कबसे सौतेली माएँ कैकेयी के उपनाम का सहारा ले कर ताने झेलती रहीं हैं और मंथराएँ आजाद रहीं हैं | सौतेली सिद्ध होती माँ के पास मंथरा जरूर रही है पर जरूरी नहीं कि वह स्त्री ही हो | आइए जानते हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी मंथरा .. मंथरा  इस बार हम पति-पत्नी मेरी स्टेप-मॉम की मृत्यु की सूचना पर इधर पापा के कस्बापुर आये हैं। “मंथरा अभी भी जमी हुई है,” हमारे गेट खोलने की आवाज़ पर बाहर के बरामदे में मालती के प्रकट होने पर विभा बुदबुदाती है। “यह मौका है क्या? तुम्हारे उस पुराने मज़ाक़ का?” मैं उस पर झल्लाता हूँ। मालती को परिवार में पापा लाये थे चार वर्ष पहले। ‘केयर-गिवर’ (टहलिनी) की एक एजेंसी के माध्यम से। इन्हीं स्टेप-मॉम की देखभाल के लिए। जो अपने डिमेन्शिया, मनोभ्रंश, के अंतर्गत अपनी स्मृति एवं चेतना तेज़ी से खो रही थीं। समय, स्थान अथवा व्यक्ति का उन्हें अकसर बोध न रहा करता। और अगली अपनी एक टिकान के दौरान विभा ने जब उन्हें न केवल अपने प्रसाधन, भोजन एवं औषधि ही के लिए बल्कि अपनी सूई-धागे की थैली से लेकर अपने निजी माल-मते की सँभाल तक के लिए मालती पर निर्भर पाया था तो वह बोल उठी थी, “कैकेयी अब अकेली नहीं। उसके साथ मंथरा भी आन जुटी है।” “पापा कहाँ हैं?” समीप पहुँच रही मालती से मैं पूछता हूँ। आज वह अपना एप्रन नहीं पहने है जिसकी आस्तीनें वह हमेशा ऊपर चढ़ाकर रखी रहती थी। उसकी साड़ी का पल्लू भी उसकी कमर में कसे होने के बजाय खुला है और हवा में लहरा रहा है-चरबीदार उसके कन्धों और स्थूल उसकी कमर को अपरिचित एक गोलाई और मांसलता प्रदान करते हुए। “वह नहा रहे हैं…” “नहाना तो मुझे भी है,” विभा पहियों वाला अपना सूटकेस मालती की ओर बढ़ा देती है। सोचती है पिछली बार की तरह इस बार भी मालती हमारा सामान हमारे कमरे में पहुँचा देगी। किन्तु मालती विभा के संकेत को नज़र-अन्दाज़ कर देती है और बरामदे के हाल वाले कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़कर उसे हमारे प्रवेश के लिए खोल देती है। बाहर के इस बरामदे में तीन दरवाज़े हैं। एक यह हाल-वाला, दूसरा पापा के क्लीनिक वाला और तीसरा उनके रोगियों के प्रतीक्षा-कक्ष का। विभा और मैं अपने-अपने सूटकेस के साथ हाल में दाखिल होते हैं। अन्दर गहरा सन्नाटा है। दोनों सोफ़ा-सेट और खाने की मेज़ अपनी कुर्सियों समेत जस-की-तस अपनी-अपनी सामान्य जगह पर विराजमान हैं। यहाँ मेरा अनुमान ग़लत साबित हो रहा है। रास्ते भर मेरी कल्पना अपनी स्टेप-मॉम की तस्वीर की बग़ल में जल रही अगरबत्ती और धूप के बीच मंत्रोच्चार सुन रहे पापा एवं उनके मित्रों की जमा भीड़ देखती रही थी। लगभग उसी दृश्य को दोहराती हुई जब आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व मेरी माँ की अंत्येष्टि क्रिया के बाद इसी हाल में शान्तिपाठ रखा गया था। और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस दिन माँ की स्मृति में अगरबत्ती जलाने वाले हाथ इन्हीं स्टेप-मॉम के रहे थे। “मौसी?” सम्बोधन के स्तर पर मेरी स्टेपमॉम मेरे लिए मौसी ही रही हैं। रिश्ते में वह मेरी मौसी थीं भी, माँ के ताऊ की बेटी। जो उन्हीं के घर पर पली बढ़ी थीं। कारण, माँ के यह ताऊ जब अपने तेइसवें वर्ष ही में विधुर हो गये तो उन्होंने दो साल की अपनी इस बच्ची को अपनी माँ की झोली में डालकर संन्यास ले लिया था। “अम्माजी बिजली की भट्टी में भस्म कर दी गयी हैं। उनका अस्थिकलश उनके कमरे में रखवाया गया है…।” आयु में मालती ज़रूर सैंतीस-वर्षीया मेरी स्टेप-मॉम से दो-चार बरस बड़ी ही रही होगी किन्तु पापा के आदेशानुसार घर में काम करने वालों के लिए वह ‘अम्माजी’ ही थीं। “हमारा कमरा तैयार है क्या?” विभा मालती से पूछती है। “तैयार हो चुका है,” मालती सिर हिलाती है। बैठक का पिछला दरवाज़ा एक लम्बे गलियारे में खुलता है जो अपने दोनों ओर बने दो-दो कमरों के दरवाज़े लिए है। बायीं ओर के कमरों में पहला रसोईघर है और दूसरा हमारा शयनकक्ष। जबकि दायीं ओर के कमरों में पहला कमरा गेस्टरूम रह चुका है किन्तु जिसे मालती के आने पर स्टेप-मॉम के काम में लाया जाता रहा है और जिसे विभा ने अपनी ठिठोली के अंतर्गत ‘सिक-रूम’ का नाम दे रखा है। जिस चौथे कमरे को यह गलियारा रास्ता देता है, कहने को वह पापा का शयनकक्ष है मगर पापा अब उसे कम ही उपयोग में लाते हैं। उसके स्थान पर उन्होंने घर के उस चौथे शयनकक्ष को अपने अधिकार में ले लिया है जो घर के बाक़ी कमरों से कटा हुआ है। मेरे विद्यार्थी जीवन में वह मेरा कमरा रहा है जिसमें मैंने अपनी उठती जवानी के अनेक स्मरणीय पल बिताये हैं। कुछ आर्द्र तो कुछ विस्फोटक। कुछ उर्वर तो कुछ उड़ाऊ। यह कमरा गलियारा पार करने पर आता है। उस बड़े घेरे के एक चौथाई भाग में, जिसका तीन-चौथाई भाग सभी का है। किसी भी एक के अधिकार में नहीं। इसमें एक तख़्त भी बिछा है और चार आराम-कुर्सियाँ भी। माँ और फिर बाद में अपने डिमेंशिया से पूर्व मेरी स्टेप-मॉम भी अपने दिन का और बहुत बार रात का भी अधिकांश समय यहीं बिताया करती थीं। स्वतंत्र रूप से : कभी अकेली और कभी टोली में। “तुम पहले हमें चाय पिलाओ, मालती।” हमारे कमरे की ओर अपना सूटकेस ठेल रही विभा को रसोई-घर का दरवाज़ा चाय की आवश्यकता का एहसास दिला जाता है। उधर मालती रसोई की ओर मुड़ती है तो इधर अपना सूटकेस गलियारे ही में छोड़कर मैं स्टेप-मॉम के कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ। उनका बिस्तर पहले की तरह बिछा है। बिना एक भी सिलवट लिए। मालती की सेवा-टहल में औपचारिक दक्षता की कमी कभी नहीं रही थी। हमेशा की तरह बिस्तर के बग़ल वाली बड़ी मेज़ पर दवाओं के विभिन्न डिब्बे अपनी अपनी व्यवस्थित क़तार में लगे हैं। धूल का उन पर एक भी कण ढूँढने पर भी नहीं मिल सकता। स्टेप-मॉम की पहियेदार वह कुर्सी आज ख़ाली है जिस पर वह मुझे मेरे … Read more

सुपारी

सुपारी

एक खूबसूरत कहावत है “नेकी कर दरिया में डाल ” क्योंकि हमारी नेकियों का हिसाब रखने वाला कोई है जो समय आने पर हमें हर मुश्किल सही से बचाता है | सुपारी कहानी सुपरिचित लेखिका हुस्न  तबस्सुम ‘‘निंहाँ‘‘जी की एक अनोखी कहानी है | एक तरफ तो ये एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाती है जो जीवन की तमाम विद्रूपताओं से परेशान हो स्वयं ही जीवन के उस पार की यात्रा करता है | उसकी छटपटाहट और बेचैनी में उसके अपने पराए हैं और पराए हितैषी  बन कर सामने आते है | बार-बार  क्यों होता है  ऐसा कि कोई एक तिनका उसे मृत्यु सागर में डूबने से बचा लेता है | आइए जानते हैं हुस्न  तबस्सुम‘‘निंहाँ‘‘ जी की  रहस्य और संवेदनाओं  से भारी कहानी सुपारी से .. सुपारी  ठीक रात के दो बजे सेठ नरोत्तम दास काली मण्डी पहुंचे। काली मण्डी, यानी कालू दादा का ठिया। खपरैल डाल कर बनाए गए तमाम छोटे-छोटे मिट्टी पुते घर। सभी आपस में मिले हुए और सारे मकानों को दोनों तरफ से घेरे हुए एक चैहद्दी। जैसे पूरी जगह को दोनों बाँहों में भरे हुए हो। अंत में बांस के बने हुए बड़े-बड़े गेट। गेट पर खड़े दो-चार प्रहरी। कह लो सुरक्षा गार्ड। जब सेठ नरोत्तम दास उधर बढ़े तो उन लोगों ने थाम लिया- ‘‘कहाँ घुसे जा रहे हो़…….पहले संदेसा भेजो अंदर, कहाँ से आए हो, क्या काम है?’’ ‘‘ मैं सेठ नरोत्तमदास हूँ, मुझे कालू दादा को सुपारी देनी है’’ ‘‘ठीक  है’’-कहते हुए उसने भीतर पुकारा- ‘‘अबे मन्नू उस्ताद से कहो सुपारी आई है’’ -कुछ देर बाद एक लड़का बाहर आया- ‘‘लड्डन भाई, सुपारी को भीतर उस्ताद ने बुलाया है।’’ ‘‘……….जाओ सेठ’’ -सेठ जी भीतर चले गए लड़के के साथ। कई दालान व बरामदे पार करने के बाद कालू दादा का कमरा दिखाई पड़ा। एक बड़ा सा हॉल जिस पर नीचे ही दीवान बिछा था और उस पर कालू दादा गाव तकिए के सहारे बैठा हुआ था। हुक्के की नाल उसके मुँह में थी और वह हुक्का गुड़गुड़ाए जा रहा था। लड़का उन्हें वहीं छोड़ कर बाहर से ही चला गया। कालू दादा ने उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया- ‘‘आओ सेठ जी इतनी रात गए कैसे आना हुआ। कुछ चाय पानी़………….’’ ‘‘ नहीं, कुछ नहीं’’-कहते हुए सेठ जी वहीं दीवान पर ही बैठ गए। ‘‘अच्छा बताओ, किस के दिन पूरे कर रहे हो? किस हरामी ने आपका जीना दुश्वार कर रखा है…….कल ही काम लगवाता हूँ ’’ ‘‘ठीक है  ये लो’’-कहते हुए सेठ ने उसकी ओर एक बैग बढ़ा दिया- ‘‘पूरे दस लाख हैं।’’ ‘‘दस लाख, किसकी जान इतनी मंहगी है सेठ, तुम्हारा काम तो पाँच लाख में ही हो जाएगा।‘‘ ‘‘……..नहीं रख लो’’ -सेठ के चेहरे पे अजब शून्यता और नारंगीपन था। चेहरे से नितांत हताशा टपक रही थी। जुबान बोलती कम थी लड़खड़ाती ज्यादह थी। अंतस बेजान हुआ जाता था। उनकी कैफियत समझ कर कालू दादा ने सांत्वना दी- ‘‘तुम नर्वस न हो सेठ। कोई नहीं जानेगा कि आप यहाँ आए हो। आप उस आदमी का नाम व पता बता दीजिए और निश्चिन्त हो जाईए। ‘‘ ‘‘…….उसका नाम’’ सेठ जी की जुबान फिर लड़खड़ाई। ‘‘हाँ….हाँ…बोलिए…..’’ कालू ने जेब से कलम निकाला और बाजू में पड़ी हुई एक पुरानी सी नोटबुक उठा ली। ‘‘दरअसल… दर…..असल….मुझे ही मारना है।‘‘ ‘‘हैं….ह…’’ कालू दादा के हाथ से पेन छूट गई और वह उछल पड़ा।- ‘‘सेठ जी आज कुछ ज्यादह चढ़ा ली है क्या….कमाल करते हो…’’ ‘‘ नहीं ……मैं पीता नहीं’’ ‘‘ तो?’’ ‘‘…..मैं सही कहता हूं। बिल्कुल होश में हूँ।’’  ‘‘ पर तुम्हें ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी कि तुम अपनी ही जान के दुश्मन बन बैठे हो। तुम उसका नाम बता दो जिसने तुम्हें इस हाल तक पहुँचाया है। मैं उसी को न खत्म कर डालूँ ‘‘ ‘‘नहीं….नहीं…ऐसा कभी मत करना कभी…’’ कालू दादा उसको देखता रह गया।  ‘‘असल में कालू दादा, मैं बहुत कायर  व्यक्ति हूँ। कई बार आत्महत्या की कोशिश की पर नाकाम रहा। अंत में ये सोंचा कि ये काम तुम्हें दे दूँ।’’ ‘‘मगर क्यूं सेठ ….क्यूँ……? वह लगभग तड़प कर बोला। ‘‘…ये मत पूछो, अपने काम से मतलब रखो। बस मुझे इस हाड़-मांस से मुक्ति दिला दो’’ ‘‘…ठीक है सेठ जी हो जाएगा काम। अब आप जाएं’’ -सेठ नरोत्तम दास उठे, कालू दादा भी उनके साथ खड़ा हो गया। बड़ी विनम्रता के साथ उनको नमन किया और एक लड़के को पुकार कर उन्हे गेट तक छोड़ने को कहा। =============================================== रात के बारह साढ़े बारह बजे होंगे। कुत्तों ने सुरताल मिलानी शुरु कर दी थी। यहाँ-वहाँ झींगुर भी बोल पड़ते थे। काली रात। भयावह सन्नाटा। कि तभी सेठ नरोत्तम दास की कोठी के पीछे हंगामा बरपा हो गया। सेठ नरोत्तम दास के चैकीदार एक काले भुजंग बदमाश तुल्य व्यक्ति को बुरी तरह पीट रहे थे। सेठ तक खबर लगने से पहले ही वह व्यक्ति तुड़ा-फुड़ा कर भाग खड़ा हुआ। =============================================== तीसरे दिन देर रात सेठ जी फिर काली मण्डी पहुंचे। कालू दादा वैसे ही दीवान पर पड़ा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। सेठ को देख कर उठ बैठा। सेठ जी ने आते ही रद्दा रखा- ‘‘यार किस बात के दादा हो, मेरा काम नहीं हुआ। आज तीसरा दिन है।’’ ‘‘…अरे सेठ जी क्या बात करते हो। काम तो हो ही जाता, पर आपने इतने गुर्गे पाल रखे हैं कि कोई मारना तो दूर आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता। उल्टे हमारे ही आदमी की अच्छी ठुंकाई कर दी सालों ने। उसकी मरहम-पट्टी करवानी पड़ी सो अलग।’’ -कालू दादा ने एक ही सांस में सफाई दे डाली। सेठ जी बगैर किसी औपचारिकता के उसके सामने उसी दीवान पर बैठ गए और शून्य निहारने लगे। दादा ने उन्हें कुरेदा- ‘‘सेठ जी , मगर ये बात हजम नहीं हो रही कि ऐसा भी क्या आन पड़ा….’’ कि सेठ जी ने दायां हाथ ऊपर उठा दिया- ‘‘नहीं कुछ भी नहीं….‘‘ कालू दादा चुप मार गए। कुछ देर इधर उधर खामोशी लहराती रही फिर कालू दादा ने ही खामोशी तोड़ी- ‘‘सेठ जी आप निश्चिंत हो कर जाएं। भगवान चाहेगा तो एक दो रोज में आपका काम जरुर हो जाएगा।‘‘  ‘‘देखो दादा, कोई जरुरी नहीं कि ये काम तुम्हारे कारिंदे सन्नाटेदार रातों में ही करें। बाहर चलते फिरते दिन दहाड़े कहीं भी … Read more

गेस्ट रूम

गेस्ट रूम

गेस्ट रूम यानि मेहमानों का कमरा |आजकल के घरों में बनाया जाने वाला एक आवश्यक कमरा है |जहाँ मेहमानों को आराम से रहने को मिल सके पर क्या इसमें अपनेपन  का वो एहसास राहत है जो अगल-बगल खटिया डाल कर तारे गिनने में होता है | पराए होते अपने रिश्तों की डॉ. रंजना  जायसवाल जी यथार्थपरक कहानी गेस्ट रूम   “रामदीन साहब का सामान गेस्ट रूम रख दो।”   “जी साहब!!!…”   विजय चाचा प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे। गाड़ी,बंगला लाल बत्ती गाड़ी….सब कुछ था।जब भी वो सफारी सूट पहने लाल बत्ती गाड़ी से गाँव आते…. बाबू जी की जी जुड़ा जाता।   बाबा दादी के स्वर्ग सिधारने के बाद बाबू जी और अम्मा ने चाचा जी को औलाद की तरह पाला था। चाचा जी भी उन्हें कम आदर नहीं देते थे।बाबू जी हर साल एक बार तो चाचा जी के पास जरूर जाते…पर पता नहीं क्यों माँ का उत्साह चाचा जी के घर जाने के नाम कपूर की तरह उड़ जाता।   ऐसा नहीं था कि चाची जी उन्हें मान-सम्मान नहीं देती थी।जब भी चाचा जी का परिवार घर आता तो माँ उनकी सेवा-सत्कार में बिछ सी जाती ।   चाचा जी अम्मा से लाड़ लड़ाने से बाज नहीं आते।अम्मा कहती रह जाती …तुम्हारा कमरा साफ करवा दिया है पर चाचा बड़े वाले कमरें में गद्दे बिछवा कर सब बच्चों के साथ वही लेट जाते।   “इतना बड़ा अफ़सर हो गया है पर इसका बचपना नहीं जा रहा…”   “आपके लिए तो विजु ही हूँ न…”   चाचा जी अम्मा की गोद में सर रख कर लेट जाते। चाची जी आँचल की ओट से देवर -भाभी का प्यार देख मुस्कुराती रहती।   ” विजु हमारे पेट से पैदा नहीं हुए बस …अपनी संतान से कभी कम नहीं समझा।ब्याह कर आये थे बारह बरस के थे…उसकी पसन्द-नापसंद हमसे बेहतर कोई नहीं जानता।”   अम्मा कहते-कहते न जाने कहाँ खो जाती…ये बाते अम्मा हमसे कितनी बार कह चुकी थी पर चाचा की बात आती तो उनकी पलके सहज ही सजल हो जाती…   “वो क्या जाने माँ …उसके लिए तो हम ही भाभी …हम ही माँ…”   चाचा जी भी कही भी घूमने जाते तो अम्मा के लिए साड़ी लाना नहीं भूलते। कितना मजा आता था चाचा जी के घर…घर के हर कमरे में मेज पर घण्टी रखी रहती थी। एक घण्टी दबाओ तो सफेद पैंट शर्ट पहने आदमी खिदमत में हाजिर हो जाता था।    “बहन जी!!…कुछ चाहिए??”   और हम भाई-बहन एक पल के लिए सकपका से जाते…   ” भैया !!…चाची जी कहाँ है।”   ” मैडम जी!!! …वो बड़ी मैडम जी के साथ बगीचे में बैठी है।”   चाचा जी सरकारी बंगले में रहते थे…एकदम फिल्मों की तरह था चाचा जी का बंगला।बंगले में दो तरफ गेट लगे थे…सफेद रंग की अम्बेसडर में चाचा जी ड्राइवर की पीछे वाली सीट पर बैठते थे। लाल झब्बेदार कपड़े में चपरासी हाथों में फाइलों का पुलिंदा लिए आगे वाली सीट पर बैठता था। जब चाचा जी ऑफिस निकलने के लिए कार की तरफ बढ़ते, तब कार का दरवाजा सिपाही खोलता था और एक जोरदार सलाम ठोकता   “जय हिंद सर!!…”   कितना रोमांचक और खूबसूरत था ये सब… एक सपनें की तरह…ऐसा सपना जो कभी खत्म न हो। बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा था जहां गेरुए रंग से रंगे गमलों में गुलदाऊदी, गेंदे और गुलाब के फूल मुस्कुराते रहते थे। लाल-सफेद रंग के ईंटो से बनी मेड के आगे कालीन की तरह बिछी मुलायम घास पर पैर देने में भी संकोच होता था।बंगले के पीछे खेती थी….चाचा जी के परिवार की जरूरत के हिसाब से अनाज भी निकल आता था।…पर माँ तो माँ ही थी गाँव मे अच्छी-खासी खेती थी। माँ हर बार गाड़ी में गेंहू ,चावल,प्याज,आलू की बोरियाँ लाद-फांद कर चाचा जी के घर पहुँचती थी। चाचा जी के शान-शौकत को देखकर वो सकुचा जाती …कही उन्होंने गलती तो नहीं कर दी।   चाचा जी की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं थी…हम जब भी चाचा जी के घर से लौटते चाची जी फल,मिठाई कपड़ों से गाड़ी भर देती।बाबू जी, चाचा जी का रौब-दाब देख कर निहाल हो जाते। उनका छोटा सा विजु कब इतना बड़ा हो गया…उनकी आँखें बरबस भर-भर जाती।   चाचा जी के घर से वापस लौटने पर भी कई दिनों तक बाबू जी का चाचा पुराण चलता रहता….पर माँ की आँखों में एक अजीब सी खामोशी तैर जाती।    “अजी सुनती हो विजु का फोन आया था…अगले हफ्ते गाड़ी भेजेगा।सबको बुलाया है…अगले महीने उसकी ट्रेनिग है इसलिए बहू को मायके भेज देगा…बोल रहा था…इस बार चित्रकूट और बिठूर भी चलेंगे। गेस्ट हाउस में इंतजाम हो जाएगा एक-दो दिन आराम से रहा जायेगा।”   बाबू जी अपनी रौ में बोले जा रहे थे और अम्मा अपनी ही उधेड़बुन में थी।   ” पीहू के बाबू जी हर बार ही तो जाते है …इस बार रहने दो अगले साल चले चलेंगे।”   “क्यों???…क्या हुआ पिछली बार भी तो तुम्हारी तबीयत की वजह से जा नहीं पाए थे। दिक्कत क्या है…”   “कुछ मन नहीं कर रहा।”   “चलो न अम्मा…कितना मजा आता है वहाँ”   अम्मा की मनाही से पीहू और पवन का चेहरा उतर गया,   ” देखो न बच्चे भी कही नहीं जा पाते इसी बहाने उनका भी निकलना हो जाएगा…एक जगह रहते-रहते तुम्हारा भी मन ऊब जाता है …हवा-पानी बदलेगा तो तबीयत भी सुधर जाएगी।”   बाबू जी ने दलील दी।   “वहाँ वो उस कमरे में ठहरा देता है…!!!”   अम्मा ने अस्फुट स्वर में कहा,   ” क्या खराबी है उस गेस्ट रूम में…इतना बड़ा कमरा है अपना तो पूरा घर समा जाए।मुझे तो कभी-कभी बड़ी शर्म आती है कि बहू कैसे अपने आप को यहाँ एडजस्ट करती होगी…विजु का तो खैर ये घर ही है…”   अम्मा की निगाहें फर्श की तरफ कुछ ढूंढती रही,वो लगातार पैर के नाखून से फर्श को कुरेद रही थी…उनके मन मे बहुत कुछ था जिसे वो कुरेद-कुरेद कर निकालना चाहती थी पर…,    “चारों तरफ खिड़की,सोफा, कालीन,ए. सी. और वो गद्देदार बिस्तर …एक घण्टी पर नौकर- चाकर सेवा के लिए हाजिर हो जाते हैं। यहाँ आकर तो बहू को तुम्हारे साथ चौके में … Read more

साला फटीचर

साला फटीचर

सफलता किसी खास पद या पैकेज  को प्राप्त करना नहीं है |हर वो व्यक्ति सफल है जो अपने मन के अनुसार निर्णय लेता है | अक्सर बड़े ओहदों पर बैठे लोगों को मन को बहुत मारना पड़ता है | पैकेज  के चक्कर में मशीन बन जाते हैं लोग |जीत कर हारने का एहसास बहुत खोखला कर देने वाला होता है| प्रस्तुत है श्रुत कीर्ति जी की ऐसी ही एक आंखे खोलने  वाली कहानी .. साला फटीचर आज काम का बोझ बहुत ज्यादा था, आलोक को मानो साँस लेने की भी फुर्सत नहीं थी। ऐसे में जब पियून ने किसी विजय कुमार का कार्ड लाकर सामने रखा तो उसने मना ही कर दिया…  एक तो थकान से मन चिड़चिड़ाया हुआ है तिस पर से  बिना पहले से अपॉइंटमेंट लिए क्यों आ जाते हैं लोग? किसी दूसरे की प्राॅब्लम समझने का कल्चर ही नहीं है इधर! कोई जिद्दी आदमी ही रहा होगा जो पियून के रोकने के बावजूद फिल्मी स्टाइल में जबरदस्ती केबिन में घुसा चला आ रहा था। झल्लाकर नजर ऊपर उठाई तो चौंक ही गया वह…  “विजय तुम? इतने सालों में न खैर न खबर… कहाँ हो यार आजकल?” आलोक को अब अपनी स्टूडेंट लाइफ याद आने लगी थी। यह विजय…  ऊँचा, बलिष्ठ, बेहद खुशमिजाज… सबसे बढ़कर आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में रैंक होल्डर… फिर लगातार, हर साल का टॉपर! ईश्वर कभी-कभी इतने पक्षपाती हो जाते हैं कि एक ही इंसान को सबकुछ दे डालते हैं। फैकल्टी का दुलारा, कालेज का हीरो… कभी इग्ज़ाम के कारण, तो कभी प्रोजेक्ट्स बनाने में जब सब पागल से हो चुके होते, वह सीटी बजाता, मस्तियाँ कर रहा होता। किसी को उससे नोट्स चाहिये होते थे तो कोई उससे कुछ पढ़ने-समझने को उतावला होता और हमेशा उसके आगे-पीछे स्टूडेंट्स की एक  भीड़ सी लगी रहती! जिसे देखो वही उसकी गुड बुक में आने को परेशान…  पर आलोक जानता है, अंदर से  सभी उसी की तरह, विजय से ईर्ष्या भी करते थे, उसी के जैसा बनने के सपने भी देखते थे! उसके प्रश्न पर ध्यान दिए बिना विजय ने कहा, “बहुत बड़ा अफसर हो गया है तू तो! बिना अपॉइंटमेंट के आने वालों को धक्के मार कर निकलवा ही देगा?” “क्या करूँ यार… इतना प्रेशर है कि क्या बताऊँ! यही तो नौकरी की हकीकत है! पैसे तो मिलते हैं यहाँ  पर एक-एक पाई की चार गुनी कीमत चुकानी पड़ती है। गलाकाट प्रतियोगिता है और हर पल स्वयं को साबित करते रहने की मजबूरी! जिस दिन परफार्मेंस में जरा सी कमी आई, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगें। और हम, इस तनख्वाह की नाव पर सवार होकर इतना हाथ-पैर फैला चुके होते हैं, कि बँधुआ मजदूर बन जाते हैं इनके!  पर आजकल किसे नहीं पता ये सब, हम सभी तो एक ही नाव में सवार हैं। चल तू अपनी सुना!  कहाँ रहकर डॉलर छाप रहा है? न्यूयार्क या शिकागो?” उसके साधारण से पैंट-शर्ट पर नजर डालते हुए आलोक ने पूछा। विजय ने उसकी आवाज़ में आश्चर्य सुना था या व्यंग्य कि  ठहाका मारकर हँस पड़ा। “केनी में रहता हूँ मैं,  अपने गांव में!” “क्या बात कर रहा है?” आलोक बुरी तरह चौंक पड़ा। “तेरे जैसा लड़का गांव में? तेरा  पैकेज तो सबसे शानदार  था। वर्ल्ड  की इतनी बड़ी कंपनी के लिये तेरा कैंपस सिलेक्शन हुआ था!” फिर कुछ सोंचकर आवाज़ धीमी कर ली, “क्या कोई दिक्कत हुई जो वापस आना पड़ा?” “नहीं,  गया ही नहीं था मैं!” विजय ने कहा, “न्यूज़ में सुना होगा तुम लोगों ने, उस साल हमारे इलाके में भयंकर सूखा पड़ा था और कर्जे के बोझ से दबे हुए बहुत सारे किसानों ने आत्महत्या कर ली थी, याद है तुझे?” ऐसी खबरें तो रोज ही आती रहती हैं पर उनपर ध्यान किसका जाता है? आलोक कुछ बोलने ही वाला था मगर विजय के चेहरे की गंभीरता देख, चुप रह गया। “उसमें मेरे चाचा भी थे, रामधनी कक्का भी थे, और मेरे सबसे प्यारे दोस्त के वो फूफा भी थे जिन्होंने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था! एक-एक कर के, महीने भर में इतने लोग चले गये पर कसूर क्या था उनका? किसी ने सुध क्यों नहीं ली उनकी?  मैं उन सभी के साथ बहुत अटैच्ड था। उनके परिजनों के आँसू मुझसे बर्दाश्त नहीँ होते थे। बहुत बुरा  समय था वह… मै डिस्टर्ब था!  यूँ तो सबने यही समझाया कि मुझे नौकरी ज्वाइन करनी चाहिए और बहुत सारे पैसे कमा कर यहाँ भेजने चाहिये, पर मुझे यह समझ में नहीं आता था। उससे तो केवल मेरे परिवार का कर्जा उतरता न? मुझे लगता था कि मैं तो पूरे गाँव के लिए, बहुत कुछ करने में सक्षम हूँ, फिर खुद को दायरे में क्यूँ  बाँधकर रखूँ? इस हवा, पानी, मिट्टी, प्यार मुहब्बत का कर्ज मात्र पैसे भेज देने से उतर जाता क्या?” बहुत सोंचा, माँ-बाबा से लड़ाई भी बहुत हुई, बेहद परेशान रहा, पर डिसाइड कर ही लिया कि अब यहीं रहना है और लाइफ में चैलेंज अगर लेने ही हैं तो अपने लिए लूँगा, विदेशियों के लिए नहीं! कैसे बताऊँ तुझे, एक बार निर्णय लेते ही मैंने कितना रिलेक्स फील किया था…” आलोक ने डरते-डरते पूछा, “अब सब ठीक हो गया?” अतीत के दर्द से बाहर आ, विजय अब मुस्कुरा रहा था। बहुत काम कर रहे हैं हम लोग, और बहुत कुछ करना अभी बाकी है। वाटर हार्वेस्टिंग, आधुनिक तकनीक से खेती, सिंचाई…  कुँए तालाबों का जीर्णोद्धार, स्वयं उत्तम क्वालिटी के बीज पैदा कर रद्दी बाजारू बीजों से छुटकारा, इंटरनेट पर बोली लगाकर फसल की बिक्री…  इसके अलावा फलदार पेड़ लगाना, मवेशियों का चारा.. अगर नई तकनीक में पुराने अनुभवों को मिला लिया जाय न, तो चमत्कार भी किया जा सकता है।” फिर शायद  याद आ गया कि वह कुछ ज्यादा ही तो नहीं बोल रहा, उसने अपनी बात एकाएक वहीं समाप्त कर दी।  “छोड़ वह सब! अभी तेरे पास तीन पीस ट्रैक्टर का आर्डर करने आया हूँ डियर… हो सके तो कुछ डिस्काउंट में दिलवा दे।” आलोक को उस जमाने के अपने आदर्श याद आने लगे थे… देश, समाज, स्वच्छ राजनीति, पर्यावरण… वो सब बातें ही क्यों रह गईं? क्यों सबकुछ भूल कर वह महज भौतिक सुखों के पीछे भागने लग पड़ा? शरीर पर एक लाख का सूट होने के … Read more

कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2)

कविता सिंह

जिस शहर को उन्होंने अपने हाथों से सींच कर सुंदर बनाया था वो एक झटके में पराए हो गए |कोरोना के साइड इफेक्ट के रूप में मजदूरों और छोटे स्तर के कामगारों का भारी संख्या में गाँव की तरफ पलायन हुआ | पर गांवों ने उन्हें बाहें पसार कर अपनाया नहीं | रिश्तों की कितनी परते खुलीं |कितने रिश्ते टूटे | पर क्या कोई बीच का रास्ता भी हो सकता है जहाँ हाथों को काम भी मिले और रिश्तों को मुस्कुराहट भी | आइए पढ़े कविता सिंह जी की कोरोनकाल के विस्थापित कामगारों के रिश्तों के ताने -बाने को सँजोती ऐसी ही खूबसूरत कहानी ..   कठिन वक्त (कारोना इफेक्ट -2) “सुना तुमने! प्रकाश क्या कहते चल रहा है?” मधु अपने पति चंद्रेश से बहुत धीरे से बोली, मानों दीवारें भी उसकी बात सुन लेंगी। “क्या हुआ? मुझसे तो कुछ नहीं कहा उसने।” चंद्रेश ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा। “सोनाली कह रहा थी कि दीदी, अब हम यहीं गाँव में रहेंगे, भले की कम कमाएं पर चैन से तो जिएंगे।” मधु ने इधर-उधर देखते हुए कहा। उसकी बात सुनकर चंद्रेश एक पल चौंका फिर मुस्कुराते हुए बोला—” तुम भी पागल हो बिल्कुल, अरे! अभी इस कोरोना से डरे हुए हैं वो….तुम नहीं जानती ये शहर की हवा बहुत बुरी होती है, इतना आसान नहीं गाँव में टिकना।” “अरे आप नहीं समझ रहे, अगर वो सच में यहाँ रहने लगा तो अपने हिस्से के जमीन पर खुद खेती करने लगेगा।” मधु ने जब से ये बात सुनी थी तभी से परेशान थी और ये परेशानी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। “चिंता मत करो, माहौल सही होते ही सब के सब फिर भागेंगे। अगर गाँव में ही रहना होता तो वहाँ शहर में कीड़े-मकोड़े की तरह झुग्गी झोपड़ियों में सड़ते नहीं। गया तो था पिछली बार प्रकाश के पास…एक हफ्ते का सोचकर गया था और चार ही दिन मेरा दम घुटने लगा वहाँ।” “फिर भी उसके मन की टोह ले लो, एक तो जमीन कम है, उसका हिस्सा जोतते थे तो अच्छी गुज़र रही अगर वो भी हाथ से निकल गयी तो बेटा की पढ़ाई और सुमन की शादी ….” “चुप करो तुम..कहाँ की बात कहाँ तक ले जाती हो। खाना दो, कब से माथा खा रही मेरा।” चंद्रेश तिलमिलाकर बोला क्योंकि वो समझ गया था मधु सही कह रही है।    अगले दिन मशीन पर प्रकाश बैठा हुआ कुछ सोच रहा था तभी चंद्रेश वहाँ पहुँचा। उसे मधु की बात याद आ गयी तो सोचने लगा क्यों ना प्रकाश के मन की थाह ली जाए। वो भी जाकर प्रकाश के बगल में बैठ गया। “क्या सोच रहे हो प्रकाश?” “अरे भैया! आप कब आये?” प्रकाश उसकी बात सुनकर चिहुँक गया। “सब्जियों में पानी देना था, पंपिंग सेट चलाने आया तो तुम्हें यहाँ देखकर बैठ गया।” चंद्रेश खेतों की ओर देखते हुए बोला। “मैं सोच रहा था कितने दिन ऐसे चलेगा, यहीं कुछ काम धंधा शुरू करूँ पर समझ नहीं आ रहा, क्या काम करूँ?” प्रकाश चिंतित स्वर में बोला। “हाँ, ये बात तो है पर सुनने में आ रहा कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।” चंद्रेश ने प्रकाश के मन को टटोलना चाहा। “भैया! हम जो भुगतकर वापस आएं हैं वो तो हम और हमारे जैसे लोग ही समझ सकते हैं। अब हिम्मत नहीं वापस जाने की।” “ये क्या बोल रहे हो! वहाँ तुम्हारा जमाजमाया धंधा चल रहा था, ऐसे कैसे वापस नहीं जाने का सोच लिया तुमने?” चंद्रेश थोड़ा घबड़ा गया। “हमारे जैसे कितने लोगों का जो छोटा मोटा धंधा चल रहा था सब का सब चौपट हो गया। अब जब शुरुआत ही करनी है तो यहीं अपने गाँव जवार में ही करेंगे, फिर से अनाथों की तरह सबका मुँह तो नहीं देखना पड़ेगा, कम से कम यहाँ हमारे अपने, हमारे जानने वालों का साथ तो रहेगा।” प्रकाश बेचारगी भरी आवाज में बोला। “पर प्रकाश! इतनी सी जमीन से हम दोनों तो गुजारा नहीं चल पाएगा….” कहकर चंद्रेश चुप हो गया। “सोचते हैं भैया।” कहकर प्रकाश वहाँ से उठकर चला गया।   “दीदी! डिब्बे में घी तो है ही नहीं, राजू बिना उसके दाल भात खाता ही नहीं।” घर में घुसते हुए प्रकाश के कानों में सोनाली की आवाज सुनाई दी, वो कुछ पल को वहीं ठहर गया। “घी खत्म हो गया है, अब क्या-क्या खरीदें पैसे का कुछ पता ही नहीं और खर्चे बढ़ते ही जा रहे।” ये भाभी की आवाज थी। “पर कल तो उसमें आधे डब्बा घी था दीदी…” सोनाली बोल पड़ी। तभी प्रकाश आंगन में पहुँच गया। उसे देखते ही सोनाली चुप हो गयी। “कहाँ चले गए थे सवेरे-सवेरे, बिना कुछ खाये पिये?” सोनाली प्रकाश को देखते ही बोल पड़ी। “कहीं नहीं ऐसे ही खेतों की ओर निकल गया था। तुम खाना निकालो मैं हाथ मुँह धोकर आता हूँ।” कहकर वो चांपाकल पर हाथ मुँह धोने लगा।   सोनाली कोठरी में खाना लेकर आ गई। सात साल का राजू खाना खाने में आनाकानी कर रहा था, वो उसे फुसलाकर खिलाने की कोशिश करने लगी। “देखो सोनाली! जब तक कुछ कमाई- धमाई का जुगाड़ नहीं हो जाता तब तक किसी तरह कम ज्यादा में गुजारा करने की कोशिश करो।” प्रकाश ने कौर अपने मुँह में डालते हुए कहा। “आप समझ नहीं रहे हैं, दीदी का व्यवहार बहुत बदल गया है..पहले यही दीदी इतनी खातिरदारी करती थीं हमारी।” “पहले की बात और थी, साल, छः महीने में हमलोग हफ्ते-महीने के लिए आते थे, और कुछ ना कुछ लेकर आते थे साथ में पैसा भी, पर इस बार उजड़े हुए आये हैं और जाने का कोई ठिकाना भी नहीं।” प्रकाश ने सोनाली को समझाते हुए कहा। “आप भी ना, अरे तो कौन सा बेगार का खा रहे हम, इतने सालों से हमारे हिस्से का जमीन जोत रहे हैं हमने कभी कुछ नहीं कहा। साल में एक बार आये तो जो खिलाया-पिलाया वही ना।” सोनाली तमतमाकर बोली। “फालतू बात मत करो, आज ये लोग हैं तभी तीन महीने से जी खा रहे हैं हम।” प्रकाश ग़ुस्से में बोला। “हाँ, तभी तो अब चीजें छुपाई जाने लगी हैं, सही कह रही थीं रमा ताई…” “रमा ताई?? उससे बात हुई तुम्हारी? अरे उस कुटनी की बात … Read more

छोटी सी उलझन

छोटी सी उलझन

स्त्री विमर्श के इस दौर में एक मांग पुरुष विमर्श की भी उठने लगी है | ऐसा रातों -रात नहीं हुआ पर ये सच्चाई  है की  पुरुष भी शोषण का शिकार हो रहे हैं | कई  बार वो जान बूझ कर परिवार की शांति के लिए चुप रह जाते हैं वहीं से मानसिक शोषण शुरू होता है |भले ही आप और हम उसे विमर्श की श्रेणी में रखे या न रखे पर इस पर बात जरूर होनी चाहिए | “छोटी सी उलझन’ एक ऐसी ही कहानी है | छोटी सी उलझन कहाँ गलती हो गई मुझसे?” रेखा का ऐसा रूप देखकर विकास सकते में था। सात वर्षों के वैवाहिक जीवन में आज पहली बार उसे एहसास हुआ कि कहीं उससे गलती तो नहीं हो गयी। आज वो अपने कमरे में अकेला लेटा यही सोच रहा था। एक छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था, सुबह वो ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी रेखा ने बात छेड़ दी। “कहा ना मैंने कि गाँव की जमीन बेचकर यहाँ शहर में जमीन ले लेते हैं पर तुम्हारे कान पर तो जूं ही रेंगती।” रेखा की हर बात मानने वाला विकास उसकी ये बात सुनकर भड़क उठा— “आजकल रोज यही बात लेकर क्यों झिक-झिक करती हो? कितनी बार कहा मैंने की वो जमीन ही है जो हमें हमारे गाँव से जोड़कर रखे हुए है, कान खोलकर सुन लो मैं अपनी जड़ों से कटकर नहीं रह सकता, समझी ना तुम?” विकास का लहजा सुनकर वो तिलमिला गयी, आखिर क्यों ना तिलमिलाए, विवाह के सात वर्षों में पहले कभी विकास ने उससे इस तरह से बात नहीं  की थी। अपनी बात की अवहेलना उससे सहन नहीं हो रही थी। वो उठी और चिल्लाते हुए बोली— “रहो तब अपनी जड़ों के साथ मैं कुहू को लेकर मम्मी के यहाँ जा रही।” कहने के साथ ही वो अपना और कुहू का सामान पैक करने लगी। विकास भी बिना कुछ बोले आफिस के लिए निकल गया।    शाम को जब विकास आफिस से वापस आया तो रेखा सच में बेटी को लेकर अपनी माँ के घर चली गयी थी। अकेला विस्तर पर लेटा विकास पंखे को एकटक देखे जा रहा था। नींद उसकी आँखो से कोसों दूर थी। बचपन से लेकर अबतक का अतीत उसकी आंखों के सामने से गुजर रहा था। पिताजी गाँव में स्कूल मास्टर थे और माँ एक गवईं गृहणी। मां का अनपढ़ होना पिताजी के लिए जीवन भर का कलंक हो गया था, जिसे मिटाने के प्रयत्न में वो हमेंशा मां का तिरस्कार करते रहे। पिताजी जी की दृष्टि में मां जीवन भर केवल एक नौकर ही रही। जब वो छोटी-मोटी भूलों पर भी मां को बुरी तरह लताड़ देते, तो फिर घर या बच्चे के विषयों में मां को कैसे शामिल करते। विकास ये सब देखते हुए बड़ा होता रहा और मां को कभी चुप रहते तो कभी पानी सर से ऊपर निकल जाने पर पिताजी से लड़ते हुए भी देखा। विकास के कोमल मन पर मां की स्थिति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने कभी भी किसी स्त्री को स्वयं से नीचा नहीं समझा। विवाह के बाद उसने अपनी पत्नी को वो सारे मान सम्मान देने की भरसक कोशिश की जो उसकी माँ को कभी नहीं मिले। इसके लिए मित्रों और स्वजनों से अक्सर उसे कटाक्ष भी सुनने पड़ते रहे थे, जैसे- “बीवी से तो इसकी फटती रहती है”,..”बिना बीवी की सहमति के एक कदम नहीं उठाता”… सबसे प्रसिद्ध वाक्य- “जोरू का गुलाम है” आदि। वो सबकी बात हँसी में उड़ा देता क्योंकि उनकी बातों से अधिक उसे अपनी गृहस्थी प्यारी थी। अच्छे शहर में अच्छी नौकरी, एक समझदार और सुघड़ जीवनसाथी…जिंदगी अच्छी चल रही थी। मां और पिताजी भी बहुत खुश थे। बस जब वो पत्नी के साथ गाँव जाता तो पिताजी उसे एक ही बात समझाते कि औरतों को ज्यादा सर नहीं चढ़ाना चाहिए। वो उनकी बात पर कुछ बोलता नहीं बस मुस्कुरा कर टाल जाता। उसे एक आत्मसंतुष्टि थी कि उससे जुड़े उसके सारे रिश्ते खुश हैं। रेखा भी एक सुलझी स्त्री थी। घर परिवार और रिश्तों में अच्छा संतुलन बनाकर रखती। पिता के सेवानिवृत्ति के बाद वो मां पिताजी को अपने साथ ही शहर ले आया, रेखा ने कोई आपत्ति नहीं की बल्कि उनकी देख-रेख बहुत अच्छे से कर रही थी। इसी बीच उसके गर्भवती होने पर घर में खुशी का माहौल रहने लगा। गर्भावस्था से लेकर कुहू के जन्म के बाद तक मां ने दोनों की देखरेख बहुत कुशलता से सम्भाल ली थीं जिससे वो भी बिल्कुल निश्चिंत हो गया था। बेटी के जन्म के बाद से स्थिति कुछ बदलने लगी, विकास को रेखा के व्यवहार में एक अलग तरह का आभास मिलने लगा। उसने उसकी धीरता को भीरुता समझना आरम्भ कर दिया। अब तो घर के सभी निर्णय रेखा द्वारा ही लिये जाने लगे, उसे केवल सहमति का मुहर लगाना होता। घर के निर्णय तक तो सही रहा पर अब तो वो बाहर के निर्णय भी स्वयं लेने लगी, विकास घर में शांति बनाए रखने के लिए थोड़ी फेरबदल के साथ उसके निर्णयों पर चलने भी लगा,  जबकि अभी तक कोई भी निर्णय, उनदोनों की सहमति से, आपस मेें बात करके लिया जाता रहा था। बेटी क्या खाएगी, क्या पहनेगी, उसे किस वस्तु की आवश्यकता है, मां को कितने की साड़ी आनी चाहिए पिताजी का इलाज किस डॉक्टर से करवाना है, उसे क्या पहनना है, किस रिश्ते पर अधिक ध्यान देना है किसपर नहीं देना है, ये सभी निर्णय रेखा द्वारा लिया जाने लगा था। यहाँ तक भी ठीक था पर उसे पहली बार बुरा तब लगा जब पिताजी के आकस्मिक निधन के बाद अंतिम संस्कार के लिए रेखा ने गाँव में मृत्युभोज करने के लिए मना किया। “क्या जरूरत है गाँव में जाकर इतनी तामझाम करने की?” रेखा ने विरोध किया। “कैसी बात करती हो वहीं पिताजी के सभी परिचित हैं, सारे नाते रिश्तेदार हैं, अगर वहाँ नहीं करेंगे तो दुनिया क्या कहेगी।” वो पहली बार रेखा से रूखे शब्दों में बात किया था। “देख लो, तुम्हारे भले के लिए ही कह रही थी। क्योंकि ये वक़्त और पैसे दोनों की बर्बादी है।” अनमने मन से रेखा ने कहा था। ऐसे ही … Read more

मैं जिंदा हूँ..

archana anupriya

विज्ञान कहता है कि पेड़ -पौधे भी हमारी तरह सजीव होते हैं .. बढ़ते हैं, खिलते हैं और अपना वंश आगे बढ़ाते  हैं | पर क्या वो बोलते भी हैं ? आयुर्वेद की माने तो ‘हाँ” | कहते हैं हमारे ऋषि मुनि पेड -पौधों से बात करते थे ,औषधीय पेड़ों से पत्तियां ,फूल आदि तोड़ने का विशेष समय और प्रार्थना होती थी | प्रकृति के साथ रिश्ता बनाने के लिए ही पेड पौधों की पूजा का प्रावधान था |विकास की दौड़ में मनुष्य सब कुछ भूलता गया | प्रकृति के साथ साझी भावनाएँ केवल उदरपूर्ति का साधन रह गई .. विकास की अंधी दौड़ बस उसे भगाए लिए जा रही है | कभी सोच है क्या बीतती है हमारे इन सजीव रिश्तों पर | आइए जाने एक पेड की कहानी उसी  की जुबानी .. “मैं जिंदा हूँ..”   कस्बे का शहरीकरण हो रहा था और आसपास के सभी गाँवों को जोड़ा जा रहा था। उस चुनावी क्षेत्र के सांसद, रंजीत राय जी एक दबंग इंसान थे और केंद्र में उन्हीं की पार्टी की सरकार भी थी। चुनावी वादों को पूरा करने के ख्याल से कस्बे और आसपास के गाँवों को मिलाकर शहरीकरण करने का प्रस्ताव उन्होंने येन केन प्रकारेण तरीके से पास करवा लिया था और अब पक्की सड़क का निर्माण कार्य किया जा रहा था। जाहिर है, सड़कों के निर्माण के रास्ते में जितने पेड़-पौधे व्यवधान उत्पन्न कर रहे थे, वे सभी सरकारी हुक्म से कानून का सहारा लेते हुए बड़ी निर्ममता से हटाए जा रहे थे। पकड़ी गाँव के पास का बूढ़ा बरगद बहुत सहमा हुआ और उदास था। उसके आसपास के छोटे बड़े पेड़ काटे जा रहे थे और आज न कल उसकी बारी भी आने ही वाली थी। वह बरगद शतायु था और करीब सौ-डेढ़ सौ वर्षो से इस गाँव के पास खड़ा था- किसी प्रहरी की तरह,एकदम तना और सजग…मजाल है कि उसकी शाखाओं के नीचे से गुजरे बगैर कोई गाँव की राह पकड़ ले।एक पूरा युग उसने मानवता और समाज को गिरते और गिर कर उठते देखा था।आजकल वह दिन भर  डरा- सहमा सा रहता क्योंकि सारा-सारा दिन सरकारी ठेकेदार मजदूरों की टोली के साथ सड़कों का नक्शा खींचते रहते थे और कुल्हाड़ी,बुलडोजर,क्रेन आदि के साथ वृक्षों के काटने का कार्यक्रम चलता रहता था। कितने संगी साथी.. जिन्हें उसने पैदा होते देखा था,जिनसे रोज बातें किया करता था.. इस शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके थे। शाम ढलते अंधेरा घिरने पर जब सभी वहाँ से चले जाते तब जाकर कहीं वह थोड़ी देर चैन की सांस ले पाता था।वह भी सिर्फ रात भर ही क्योंकि अगले दिन सूरज निकलते ही पुनः काम आरंभ होता और फिर से वही दहशत उसे घेर लेती। रात भर वह बूढ़ा बरगद चिंता में डूबा रहता, नींद नहीं आती थी उसे… जाने क्या-क्या सोचता रहता था। अगल-बगल के काटे गए वृक्षों के विषय में सोच कर मन भर आता था उसका-“आखिर उम्र ही क्या थी उनकी? वो बेर का पेड़.. अभी अभी तो बड़ा हुआ था, आम के पेड़ पर अगले साल से मँजरियाँ आ जातीं.. सखुआ, शहतूत, नीम, पीपल- ऐसे ही जाने कितने ही साथी और युवा तथा बच्चे-वृक्ष शहरीकरण की बलि चढ़ाए गए थे। खुद वह… कितना खुश था यहाँ.. न जाने कब से इस नदी के साथ हँसता- खेलता बरसों से वहाँ खड़ा था, परन्तु,अब देखो, कैसा डरा सहमा सा है…”न जाने मानव को क्या होता जा रहा है कि अपने विकास के रास्ते में हमें दुश्मन समझ रहा है.. अरे,हम पेड़ -पौधे तो जीवन हैं उनके,हम ही न होंगे तो वह जियेगा कैसे?ऐसे में कैसा विकास?विधाता ने भी हमें कितना असहाय बनाकर भेजा है,कैसे कहें मानव से मन की बात?हम देना तो जानते हैं पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। कोई काटे तो कटना ही पड़ता है,मना भी नहीं कर पाते,किसी मनुष्य को अपने मन का दर्द कह भी तो नहीं सकते,हमारी इच्छा की परवाह भी किसे है?..ओहहह..।” बरगद सोच-सोचकर दुखी हो रहा था।उसे वह साल भी याद है, जब गांव के सारे मेहनतकश लोगों ने चंदा इकट्ठा करके उसे सीमेंट से घेरा था और उसके चारों तरफ गोल सा चबूतरा बना दिया गया था… बिल्कुल किसी नन्हीं गुड़िया की फैली हुई फ्रॉक की फ्रिल की तरह..कितना खुश था वह उस दिन…झूम-झूमकर हवाओं के संग नाचा था। बगल में थोड़ी ही दूरी पर बहती हुई नदी से अक्सर वह बात कर लिया करता था।दोनों अपना सुख- दुख बरसों से आपस में बाँटते आ रहे थे।गांव के लोग भी उसे बहुत प्यार करते थे और प्यार से उसे दादा कह कर पुकारते थे। दादा ही तो था वह आसपास के सभी गाँवों का। लोग आते, उससे आशीर्वाद लेते, फूल प्रसाद चढ़ाते, सुहागिनें गीत गाती हुई लाल पीला धागा बांधकर चारों ओर घूमकर फेरी लगातीं, सुहाग के लिए दुआएँ मांगतीं, थके हारे ग्रामीण लोग उसकी घनी छाया में घंटों बैठकर बतियाते,हंसी ठिठोली करते, चांदनी रात में ढोल मंजीरे के साथ गाते बजाते…गांव की, शहर की, देश की राजनीति और बड़ी-बड़ी नीतियों पर चर्चा होती,बच्चे लुकाछिपी खेलते,थक जाते तो वहीं ठंडी छाया में पैर पसार कर सो लेते, सत्तू की रोटी और सब्जी लेकर गाँव की नवविवाहितायें उसके बड़े से घेरे वाले तने की ओट में सास ननद से छुपकर अपने पति को भोजन खिलातीं, प्रेमी प्रेमिका के जोड़े उसकी ओट में छिप कर एक दूसरे से मिलते और जन्मों- जन्म साथ रहने की कसमें खाते.. गांव के हर व्यक्ति का राज वह बूढ़ा बरगद जानता था। वह बूढ़ा बरगद ही तो था जिसे पता था कि रतन चौधरी की बेटी रमिया अपने विवाह से पहले उसी गांव के गरीब दलित फेकू माँझी के बेटे, रमेश से प्रेम करती थी।जाति-पाँति के डर से प्रेमाग्नि के फेरों के साथ जन्मों का बंधन तो नहीं बन सका लेकिन विवाह के बाद आज भी जब वह मायके  वापस आती है तो रमेश से मिलने भरी दोपहरी में, जब सब सो रहे होते हैं,यहीं आती है और इसी बरगद की ओट में दोनों छुप कर एक दूसरे का हालचाल लेते हैं,एक दूसरे का दुख सुख सुनते हैं और अगले जन्म में साथ रहने की कसमें खाते हैं।गांव का मुखिया, रतन चौधरी अपनी चौपाल भी यहीं लगाता है। किसी भी तरह के … Read more