वो स्काईलैब का गिरना

कुमकुम सिंह

आज हम कोरोना की आपदा से घिरे हुए अपने –अपने घरों में कैद हैं और ये दुआएं कर रहे हैं की ये आपदा जल्दी से जल्दी विश्व पटल से दूर हो | क्योंकि साहित्य अपने समय को दर्ज करता है इसलिए इस आपदा पर कई लेख, कहानियाँ , कवितायें आदि लिखी जा रहीं हैं | मुझे P.B.Shelley का एक कथन याद आ रहा है | “our  sweetest songs are those that tell of saddest thought” आपदा के निकल  जाने के बाद हो सकता है हम इस पर कुछ ऐसी ही रचनाएँ लिखे जिन्हें पढ़कर होंठों पर मुस्कान खिल जाए | अब स्काई लैब को ही देखिये …जिस समय ये गिरने को तैयार भारत के साथ फेरे ले रहा था तब हम सब कैसे दम साधे बी. बी. सी पर उसकी पल –पल की खबरे सुन रहे थे | अब उसी बात को याद कर के हँसी भी आती है | अब स्काई लैब भले ही खबरों  के अनुसार प्रशांत महासागर में गिरा पर चुन्नी लाल जी के परिवार पर तो गिर ही गया | पढ़िए कुमकुम सिंह जी की रोचक कहानी …. वो स्काईलैब का गिरना   “अरे पढ़ लो , पढ़ लो , परीक्षा सिर पर है । तुम दोनो अभी तक खेले ही जा कहे हो । इतनी शाम हो गई और तुम दोनो ने किताब तक ना खोली । मै कहता हूँ कि जिन्दगी मे बस पढ़ाई ही काम आने वाली है ये फालतू की उछल कूद से कुछ भी हासिल ना होगा “ चुन्नीलाल ने दफ्तर से वापस आकर अपना छाता और झोला , दीवार की खूटी पर टांगते हुए , अपने दोनो बेटों को उलाहना देते हुए कहा । “ अब बस भी करो , अब जब सब कुछ खतम ही होने जा रहा है तो फिर कैसी पढ़ाई लिखाई ? जो दो चार दिन बाकी हैं तो इन दोनो को जी भर के मौज मस्ती कर लेने दो “ विमला बाई अपने बारह वर्षीय राकेश और चौदह वर्षीय मुकेश को अपने सीने से लगाते हुए बोली । ऐसा कहते हुए वो अत्यन्त भावुक हो गई और उनके नैन आँसू से भर आये । “ अरे तुमको भी पता लग गया ? “ चुन्नीलाल बेहद दुखी स्वर मे बोले । “ ये भला कोई छिपने वाली बात है ? आजकल सारा मोहल्ला बस यही बात कर रहा है । रेडियो मे भी बार बार यही खबर आ रही है कि आसमान से कोई भारी सी मशीन आफत बन कर हम पर गिरने वाली है और हम सब बस एक साथ ….” इतना कहने के बाद विमला से आगे कुछ ना बोला गया , गला भारी हो गया और वो अपने दोनो बच्चों को गले लगा कर रोने लगी ।यह देख कर चुन्नीलाल के भी आँखों मे आंसू भर आए और वे रूंधे हुए गले से बोल पड़े – “ करे कोई और भरे कोई । अमेरिका नाम के देश ने कुछ समय पहले स्काईलैब नाम का बहुत ही वजनी प्रयोगशाला जैसी कुछ मशीन अन्तरिक्ष मे भेजा था , पता नही क्या करने ? वही अब हमारी जान लेने के वास्ते आ रहा है “ “ पापा ये स्काईलैब क्या होता है ? बड़े बेटे ने कौतुहल पूर्वक पूछा । “बेटा ये एक विशालकाय यान है जो कुछ साल से अंतरिक्ष मे था । यह एक इमारत जितना बड़ा है और वैज्ञानिक लोगों की प्रयोगशाला बना हुआ था । पृथ्वी से वैज्ञानिक लोग इसमे सन्देशों के जरिए विभिन्न प्रकार के प्रयोग कर रहे थे और सूचनाएँ एकत्र कर रहे थे । पर बदकिस्मती से अब वैज्ञानिकों का इस पर कोई नियन्त्रण नही रहा । अत: वो अब पृथ्वी की ओर तेजी से आ रहा है । कहीं भी गिर सकता है । पता ये चला है कि इसके गिरने की ज्यादा सम्भावना अपने मध्यप्रदेश के किसी इलाके मे या आसपास के इलाके की है । इसलिए हम सब की जान खतरे मे हैं “ चुन्नीलाल उदास होकर बोले । “ तो अब हम लोग अब क्या करें पापा ?” छोटा बेटा हैरान होकर पूछने लगा । “ कुछ नही , जो मरजी आए वो करो और अपने आप को खूब खुश रखो “ इतना कह कर वे मुकेश के सिर पर , स्नेहपूर्वक हाथ फेरने लगे । “ तुम लोग को क्या क्या खाने का मन कर रहा है ? अपनी अपनी पसन्द बताते चलो । मै सब बना कर खिलाऊँगी अपने बच्चों को । और अब पढ़ने लिखने की कतई जरूरत नही है “ विमला ने ऐसी घोषणा करके बच्चों की मुँह मांगी मुराद पूरी कर दी । “ आज तो हम लोग नन्हे हलवाई के समोसे और जलेबी खायेगे , पापा पैसे दो “छोटा मचल कर बोला । “ हाँ हाँ ! अभी लो “ चुन्नीलाल ने तुरन्त ही मुकेश को एक नोट पकड़ाया । नोट लेकर दोनो बच्चे बाजार दौड़ गए । अब तो जब ना तब बाजार से तरह तरह के चटपटे, नमकीन और मीठे मनभावन खाने की चीजें खरीद कर आने लगी । कभी चाट और रबड़ी ,कभी कलाकंद , रसगुल्ले , कुल्फी आदि आदि । घर पर भी लज्जतदार पकवान बनने लगे । सच है कि भोजन इन्सान की मूलभूत आवश्यकता है और ये भी सच है कि स्वादिष्ट भोजन मे मानव तो तुरन्त ही आनन्द की अनुभूती करा देने की क्षमता होती है।कई लोग तो अकसर ये कह भी देते हैं कि हम खाने के लिए ही तो कमाते हैं ! राकेश मुकेश ने स्कूल बैग को बिस्तर के नीचे सरका दिया और बची खुची किताब कॉपी , पेन पेन्सिल सब ताक पर रख दिए । दिन भर गिल्ली डन्डा , कबड्डी , पतंगबाजी आदि होने लगा । स्कूल जाना बंद । पढ़ाई से कोई सरोकार ना रहा । परीक्षा और परीक्षाफल का कोई डर नही रहा । ऐसा लग रहा था कि जैसे निश्चित मौत के डर ने जीवन को और भी निडर बना दिया था । इन दिनो दफ्तर मे भी कोई काम ना होता था । सभी मुँह लटका कर उदास मन से तरह तरह की बात करते थे । अफवाहों का बाजार गर्म हो चला था । कई लोग तो यह भी दावा करने … Read more

अहसास

अहसास

बेटा  हो या बेटी आज के जमाने में दोनों बराबर हैं | जहां जहां बेटियों को अधिकार मिले हैं , वहाँ उन्हे अपने कर्तव्य के प्रति भी सजग रहना चाहिए | इस बात का अहसास रहना चाहिए कि रिश्ते एक तरफ न हों | एहसास सुनिये,उठिये— ,बार बार शालू के आवाज दिये जाने पर भी देवेश नहीं उठ रहा था, आखिर में उसके नाराज़ होने के डर से शालू रसोई में जाकर नाश्ते और चाय की तैयारी में लग गयी ।बच्चों का दूध मम्मी पापा के लिए दलिया, सभी का खयाल रखना है उसका सिरदर्द हो रहा था मन था एक कप चाय बना कर पी ले, लेकिन यह सोचकर कि देवेश के साथ ही पी लूंगी वह अपने कार्य में लगी रही। 9 बजने वाले थे अब — आखिर फिर आवाज देने गई,देवेश ने उसे अपने आलिंगन में भर लिया और एक हल्का सा चुम्बन सिर पर देकर बोला, शादी के 10 साल की सुखद यादें मुबारक,तुम हमेशा खुश रहो सलामत रहो। शालू के गालों पर लालिमा छा गई वह नयी दुल्हन की तरह शर्माकर देवेश की छाती पर सिर रखकर बोली मेरा तो संसार तुमसे है तुम खुश तो मैं खुश। देवेश नहाकर तैयार हो गया नाश्ते की टेबल पर आज गर्म जलेबी और पोहे देखकर दोनों बच्चों मोनू शोनू को आवाज दी बच्चे भी आकर लड़ाई करने लगे- मैं यहां बैठूंगा बड़ा भाई बोला, छोटे को रोते देख दादा जी ने बड़े को समझाया बेटा मोनू आप बड़े हो आपको छोटे भाई के लिए प्यार होना चाहिए लड़ाई नहीं करना।यह बात हमेशा सुनते हुए वह बड़ा हो रहा था। मोनू अपने भाई को भी लेकर जा खेलने शालू ने आवाज दी। नहीं मैं नहीं ले जाउंगा मोनू ने हट की शोनू रो रहा था साथ में जाने के लिए। शालू के बार बार डांटने पर मोनू नहीं गया खेलने और रोता रहा, रोते रोते नींद आ गई। इस तरह बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले थे। उनकी मनोदशा भी बदलने लगी थी। प्यार और झगड़ा दोनों होते थे। सुनिए- देवेश को देख कर शालू ने याद दिलाया कि आज मम्मी पापा को हेल्थ चेकअप कराने जाना है आप ले जाएंगे तो अच्छा है मुझे भी अपनी मां की बरसी पर मायके जाना है शाम तक आ जाऊंगी।खाना बना दिया है। देवेश ने कहा ठीक है लेकिन आते वक्त तुम बच्चों स्कूल से लेकर कहीं अच्छा सा पीज़ा खिला देना बहुत दिनों से बाहर नहीं गये है। लेकिन मुझे देर भी हो सकती है शालू ने कहा-___ क्यों? देवेश बोला इतनी देर क्यों? शालू बोली मेरे पापा के पास बैठे हुए उनकी बातों को सुने हुए बहुत समय हो गया है मुझे लगता है पापा मम्मी के नहीं होने से अकेले हो गये है और अपने मन की बात किसी से करना चाहते हैं और एक बेटी होने की वजह से मैं उन्हें नजदीक से जानती हूं इसलिए मैं थोड़ा देरी से आउंगी।ठीक है देवेश ने कहा। पापा और शालू बाहर बने गार्डन में बेंच पर बैठ गए, हल्की हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। शालू __बेटा एक बात कहना चाहता हूं, क्या पापा ??शालू बोली ।देखो बेटा मेरे पास तुम्हारे लिए सिर्फ एक सोने की चेन है बाकी जेवर तो तुम्हारे भाई को पढ़ाने में और यह घर बनाने में बिक गये,अब कुछ रुपये बैंक में जमा है जो मेरे बुढ़ापे में या अन्तिम संस्कार में काम आ जाएंगे। शालू की आंखों से आंसू बहते रहे कुछ नहीं बोली लेकिन पापा ने जब सिर पर प्यार से हाथ फेरा और कहा कि तुम ही बेटी और बेटा हो तो फफक पड़ी और बोली कुछ नहीं चाहिए, बस आप स्वस्थ और सुखी रहें प्रभु से यही चाहती हूं। घर आकर काम खत्म करके जब बिस्तर पर आई तो देवेश ने उसकी आंखें सूजी हुई देखकर कहा क्यों क्या हुआ आज मायका छोड़ कर आने पर बहुत रोई हो क्या? नहीं अब तो आदत हो गई शालू बोली बस पापा की फ़िक्र है।भाई बाहर रहते हैं साल भर में एक बार आते हैं,खाना बनाने वाली बना कर रख जाती है। दिन भर अकेले काटना मुश्किल हो जाता है मन की बातें किसी से करना चाहते हैं एक मैं हूं तो मुझसे कह देते हैं। देवेश थोड़ी देर बोला,एक बात कहूं? हां कहिए, पापा को यहां ले आओ साथ में रहने पर मन लग जाएगा बच्चों के साथ। मेरे मम्मी पापा को भी कम्पनी मिल जाएगी| दूसरे दिन फ़ोन पर बातों बातों में शालू ने कहा, पापा आप क्यों ना हमारे साथ रहें। पापा ने छूटते ही कहा अरे कैसी बात करती हो? मैं वहां आ जाउंगा तो तेरे भैया भाभी आएंगे तो कैसे होगा सबकुछ। नहीं मैं यहां ठीक हूं। देवेश ने भी समझाया लेकिन नहीं मानें। आखिर फिर वैसे ही चलने लगा। मोनू को अच्छे मार्क्स आने पर अच्छे कालेज में एडमिशन मिल गया।शोनू को अभी दो साल बाकी थे कालेज में।अब वह घर में अकेला रह गया भाई के साथ लड़ाई याद आती, ज़िद करने में मजा नहीं आता। (क्योंकि ज़िद भी मजा तब देती है जब मुश्किल से पूरी हो) अब हर बात में भाई की कमी खलती। दिन बित रहे थे। सभी अपने अपने कार्य में व्यस्त थे। अचानक भाई के एक्सीडेंट और मौत की खबर आई भाभी को आईसीयू में रखा है ऐसा बताया। शालू असमंजस में पड़ गई कि क्या करे पापा को बताने में डर लग रहा था कि वो सहन कर पाएंगे कि नहीं। लेकिन बताना पड़ा। घबराहट में पापा का ब्लडप्रेशर कंट्रोल नहीं हुआ और पेरेलेसिस हो गया। मुश्किलें बढ़ गई क्या करे क्या ना करें।दो दिन बाद भाभी ने भी दम तोड दिया,यह तो अच्छा था कि रोमी भाई का बेटा बड़ा हो गया था उसने सब सम्हाल लिया। रात हुई तो हिम्मत करके शालू ने फ़ोन पर रोमी से बात की उसको समझाया कि वह अब क्या चाहता है जो भी निर्णय लें सोच कर लें।रोमी विदेश में पला बढ़ा तो सोच भी विदेशी होना स्वाभाविक है लेकिन आश्चर्य हुआ जब उसने अपने देश में आकर कुछ अपना बिजनेस करने की इच्छा जताई। उसने बिजनेस मेनेजमेंट किया था तो कोई तकलीफ़ नहीं हुई पैसा भी था। धीरे … Read more

अजनबी

रश्मि वर्मा

रिश्ते पौधों की तरह होते हैं, जिन्हें हर दिन सीचना पड़ता है | प्रेम और निष्ठा से संवारना पड़ता है | अगर ध्यान ना दिया जाए तो  कब दोस्त अजनबी बन जाते है और अजनबी गहरे  रिश्तों में बंध जाते हैं | आइये पढ़ते हैं टूटते बनते रिश्तों पर रश्मि वर्मा जी कीकहानी … अजनबी  अनिकेत अनिकेत , राशी दौड़ती हुई अनिकेत से आकर लिपट गयी। क्या हो गया बड़ी खुश हो? अर्रे कम्पनी हम दोनो को ट्रेनिंग  पर हैदराबाद भेज रही है वो भी पूरे ३ हफ़्ते के लिए ,जल्दी से जाकर सूट्केस पैक कर लो और हाँ हाँ स्पोर्ट्स शूज़ नहीं भूलना वहाँ  हॉस्टल में बहुत त बड़ा गार्डन है रोज़ सुबह शाम जमकर घूमेंगे। राशी बोलती जा रही थी अचानक रुकी , अनिकेत का चेहरा सपाट था कोई उत्साह नहीं,वो अपने काम मैं मशगूल जैसे कोई बड़ी बात ना हो। राशी ने मॉनिटर ऑफ़ कर दिया या, अरे ये क्या? मैं तुमसे बात कर रही हूँ तुम्हें सुनाई देना बंद है क्या ? राशी , मुझे इस इस ट्रेनिंग में कोई इंट्रेस्ट नहीं है ,हाँ तुम जाना चाहती हो तो तुम्हारी मर्ज़ी ,कह कर अनिकेत उठ कर ऑफ़िस के कॉरिडर में चला गया। राशी हैरान पर कई बार समझाने ,अनुनय करने पर भी जब अनिकेत नहीं माना तभ राशी ने अपना समान पैक किया और फ़्लाइट ले कर हैदराबाद पहुँच गयी । रात को हॉस्टल पहुँचने पर पता चला की रूम ख़ाली नहीं है शेयर करना पड़ेगा । अजीब मुसीबत है पर आपको क्या मेरे आने की ईमेल नहीं मिली? राशी ने वार्डन को प्रशं मैडम मैडम आप आज रात निकालिए कल सुबह देखते हैं ।जल्दी जा कर डिनर कर लें वरना मेस बंद हो जाएगा। कोई हल ना होता देख राशी ने हालत से समझोता किया फिर रात को ही अपने मैनेजर को ईमेल लिख दी। सुबह होते ही राशी को अलग कमरा मिल गया। हैदराबाद में हॉस्टल के नियम काफी सख्ती से लागू थे , सुबह 0630 चाय , 0900 बजे नाश्ता , फॉर्मल ड्रेस कोड सबके लिए , नाश्ते पर आशा जी जो की मुंबई से आयी थी उनसे हलकी फुल्की मुलाकात हुई फिर पूरा दिन ट्रेनिंग शाम को घूमते हुए आशा जी बातचीत हुई। पता चला यनहा जिम में केरमबोर्ड है जो आशा जी को बेहद पसंद है पर वो जाने में हिचक रही थी क्योंकि जिम में लड़कों का बोलबाला था, पर राशी उन्हें खीँच कर लेगयी । फिर तो दोनो के जैसे कॉलेज के दिन लौट आए ।जम कर केरम खेला ,रात का डिनर करके दोनो अपने अपने कमरे में। दो दिन बाद शनिवार ,इतवार की छुट्टी थी राशी ने सोचा कयों ना रामोजी फ़िल्म सिटी ज़ाया जाए ,आशा जी भी तैयार हो गयी ,बस फिर क्या था सुबह के नाश्ते के बाद फटपट ऊबर बुलायी और चल दी दो अनजान सहकर्मी दोस्त बन्ने। रमोजी फ़िल्म सिटी अपने आप में एक नहीं तीन चीजों का मिलान है ,फ़िल्म सिटी के सेट के अलावा वनहा खूबसूरत गॉर्डन, अम्यूज़्मेंट पार्क , भी है । पूरा एक दिन भी कम है घूमने के लिए पर टाइम से हास्टल वापिस भी आनाथा। अगला हफ़्ता फिर श्री सेलम मंदिर का ,शिवजी के १२ ज्योतिर्लिंग में से एक। रास्ते में जंगल और श्री सेलम डैम की खूबसूरती के क्या कहने जम के फोटोग्राफी की । इसी बीच १५ अगस्त ट्रेनिंग कॉलेज में ध्वजः आरोहण हुआ चेयरमैन सर की स्पीच के बाद राशी ने भी छोटी सी से स्पीच से सबका मन मोह लिया । आख़िरी हफ़्ता आ गया बस उसके बाद जाना था तो राशी और आशा जी ने लगे हाथ बिरला मंदिर , सेलर जंग म्यूज़ीयम चारमीनार का भी प्रोग्राम बना डाला वो भी हैदराबादी मेट्रो से। इसी बीच राशी को पता चला की अनिकेत लंदन पोस्टिंग चला गया है कम्पनी की तरफ से , उसने जान कर राशी से बात छुपाई क्योंकि उसके अलावा राशी ही उस पोस्ट के क़ाबिल थी । एक अजीब सा झटका लगा राशी को कमाल है प्रतिस्पर्धा के इस युग में कोई किसी का मित्र नहीं है , स्कूल,कॉलेज की दोस्ती सब एक तरफ़ , राशी अपने मन की कोई बात अनिकेत से छुपाती नहीं थी ,और अनिकेत ——— तभी मोबाइल की घंटी बजी ,अनिकेत का फ़ोन था, हेलो । राशी कैसी हो ? क्या बताऊँ तुम्हारे जाने के बाद अचानक मुझे लंदन आना पड़ा पर तुम्हारे लिए गिफ़्ट लिये हैं मैंने, पहले बताओ मुझे याद करती हो या भूल गयी? अनिकेत की चहकती हुई आवाज़ राशी का मिज़ाज बिगाड़ने के लियें आग में घी का काम कर रही थी पर फिर भी सयंत होकर राशी बोली , “अनिकेत तुम्हारे बिना मेरी ज़िंदगी के मायने ही क्या थे पर इन चंद दिनो में जाना है ज़िंदगी हर पल जीने के नए मायने देती है ज़रूरत है उन्हें स्वीकारने की।” अनिकेत की आवाज़ नहीं निकली राशी ने फ़ोन रख दिया । अगले दिन दो अजनबी औरते दोस्त बन कर एक दूसरे से विदा ले रही थी जबकि दो पक्के दोस्त हमेशा के लिये अजनबी हो गए थे। रश्मि वर्मा यह भी पढ़ें ……. पतुरिया तबादले का सच  भावनाओं की सरहदें कब होंगी  मन का अँधेरा आपको कहानी  “अजनबी   “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; hindi story, hindi, relations, friendship

जगत बा

neelam kulshreshth

दुर्गा को पूजने वाले इस देश में कब स्त्रियाँ कमजोर और कोमल मान लीं गयीं ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता | आज भी स्त्रियाँ उस परम्परा का आवरण ओढ़े हुए हैं पर सच्चाई ये है कि अगर स्त्री ठान ले तो वो वो काम भी कर लेती है जिसके बारे में उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था | ये कहानी एक ऐसी ही जुझारू स्त्री की कहानी है जिसने अनपढ़ होने के बावजूद गाँव का नक्शा बदल दिया | जगत बा कुछ बरस पहले मैंने अपने सरकारी घर के पीछे के कम्पाउंड में खुलने वाला दरवाज़ा खोला था ,देखा  वे हैं -बा ,दो कपडों के लम्बे थैलों में वे अपनी कपड़े ठूंसे खड़ी हैं। झुर्रियों भरा चेहरा ,पतली  दुबली ,छोटे कद की देह  ,नीले पतले बॉर्डर वाली हलके रंग की साड़ी में  अपने छोटे काले सफ़ेद बालों को पीछे जुड़े में बांधे हुए ,एक आम गंवई गुजरातिन। “बा तारा बेन नथी , पानी जुईये [तारा बेन घर पर नहीं हैं , पानी चाहिए ]?“ “पिड़वा दो [ पिला दो ].“कहते हुए वह हमारे घर के आऊट  हाउस के दरवाज़े के कुंडी खोलकर थैले रख आईं । बा ,यानि हमारे आऊट हाउस में रहने वाली बाई तारा बेन की सास। दो गिलास फ्रिज का ठंडा पानी पीकर वह तृप्त हो गई। ऐसी गर्मी में गाँव से बस के सफ़र में वह पसीने पसीने हो रही थी। मैंने दिल से आग्रह किया ,“ठंडा शरबत बनाऊं ?“ “अत्यारे नथी मने जमवाणुं छे [अभी नहीं ,मुझे खाना खाना  है।]“ “सारू। “मैं कमरे में अंदर आ गई  तो छोटा  बेटा बोला ,“बा की काफ़ी खातिरदारी हो रही थी। “ “बिचारी बूढ़ी है ,धूप में सफ़र करके आ रही है। “ “बट  शी इज़ अ  मेड। तारा बेन के  घड़े में से भी पानी पी सकती थी। “उसने अपनी छोटी अक्ल लगाते हुए  कहा। “आफ़्टर   ऑल शी इज़ एन ओल्ड   ह्यूमेन बिइंग   `.“कहते हुए मैंने अपने को दस सीढ़ी ऊपर  चढ़ा लिया कि  देखो मैं नौकरानी की सास की भी परवाह करतीं हूँ. इन सात वर्षों से जब जब वे गाँव से आतीं हैं तो तारा बेन निश्चित हो जाती है। वे कभी ,उसकी बेटियों कामी व झीनी के साथ मेरे घर के बर्तनों को साफ़ कर रही होतीं हैं या बाहर पत्थर पर अपने सारे घर के कपड़े  धो रही होतीं हैं। बीच में जब समय मिलता है तो  चबूतरे पर चावल या गेंहूं बीनने  बैठ जातीं हैं  या पुराने कपडों   की कथरी   [दरी ] पर टाँके लगाने बैठ जातीं हैं। बीच बीच में उनका पोता मेहुल उन्हें पानी पिलाता रहता है। मैं उनकी इस मेहनत  पर  तारीफ़ करती जातीं हूँ   तो बहुत समझदारी से मुझे देखते हुए `हाँ `में  सिर हिलाती जातीं हैं। जैसे ही मेरा बोलना बंद होता है वे तारा बेन से पूछतीं हैं ,“ए सु कहे छे ?[ये क्या कह रहीं हैं ]? “ तारा बेन हँसते हँसते लोट पोट हो जाती है,“बा ने हिंदी नई आवड़ती  एटले  [ बा को हिंदी नहीं आती ] .  “ कभी ऊंचा नहीं बोलने वाली ऐसी दुर्लभ सास पर मैं मुग्ध होती रहतीं हूँ।  तो हाँ ,मैं  उस दिन की बात बता रही थी जब मैंने अपने आपको दस सीढ़ी ऊपर चढ़ा दिया था।  स्त्री अधिकारों के लिए लड़ने वाली व समाज  सेवा सम्बन्धी अपने लेख लिखने के लिए अपने आपको कितने सीढ़ी चढ़ाये रखतीं  हूँ  ,बताऊँ ?ख़ैर —- जाने दीजिये।  एक आज का दिन है। मैं  अपने ऊपर शर्मसार हूँ। पाताल क्या उसके भी नीचे कोई जगह हो तो मैं उसमें जा धंसूं  .जिसे दो गिलास पानी पिलाकर मैं गौरान्वित हो रही थी। उस अनपढ़ बा ने एक गाँव में प्राण फूंक दिए थे ,सारे गाँव को ट्यूब वैल से निहला दिया था    .  कहते हैं प्रसवकाल का समय निश्चित होता है तो क्या  कहानी के जन्म का समय भी निश्चित होता है ?एक क्रांतिकारी कहानी हमारे ही घर की आऊट हाउस में रहने वाली तारा बेन के दिल में कुछ वर्ष से बंद थी और मुझे पता ही नहीं था। हुआ कुछ यूं कि मैं उस उस सुबह कम्पाउंड की धूप  में अख़बार लेकर बैठे अफ़सोस ज़ाहिर  कर रही थी ,“देखो कैसे आंधी आई है। बी जे पी को उड़ा ले गई। सोनिया गांधी को प्रधान  मंत्री बनाये दे रही है। “ तारा  कत्थई धोती में, बालों में तेल लगाकर चोटी बनाकर टी वी पर समाचार सुनकर काम पर जाने को तैयार थी। मेरी बात सुनकर बोल उठी ,“आंटी! तुम देख लेना सोनिया गांधी एक औरत है देश को  अच्छी तरह संभालेगी। “ मुझे हंसी आ  गई  ,“देश को सम्भालना   कोई घर सँभालने जैसा खेल नहीं है। “ “केम नथी ?औरत के दिल में दर्द होता है इसलिए वह दूसरों का दर्द कम करना जानती है। हमारे गामड़ा में कितने सरपंच हुए हैं। किसी ने सरकारी पैसे से गाँव का भला नहीं किया। जब बा सरपंच बनी तो देखो हमारा भानपुरा गामड़ा को  गोकुलनगर [आदर्श गाँव ] का इनाम मिला। “ “कौन सी बा ?“मेरी निगाहें अभी भी अख़बारों की सुर्ख़ियों पर फिसल रहीं थीं। “और कौन सी बा ?म्हारी सविता बा ,बसंतभाई नी  माँ  .“ “क्या ?“मेरे हाथ से अखबार छूटते छूटते बचा। मैं कुर्सी पर चिहुंक कर सीधी बैठ गई। ये तो नहीं कह पाई कि ये दुबली पतली ,अगूँठा छाप सविता बेन कैसे सरपंच  हो सकती है  ?फिर भी बोली ,“तू ने इतने बड़ी बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई ?“ “आंटी !आपको  मैंने आपको दो वर्ष पहले बताया था कि बा का सरपंच का टैम ख़त्म हो रहा है। वो राज़ीनामा [इस्तीफ़ा ] दे रही है। “ “हाय —मुझे बिलकुल याद नहीं है। तू कहना भूल गई होगी। “ “ना रे ,मैंने आपको बताया था। “ हे भगवान ! लेखक `एब्सेंट मांइडेड `होते हैं ,तो मैं ऐसी ही अवस्था में  रही हूँगी। तारा की बात मेरे दिमाग़ के  ऊपर से निकल गई होगी। अब मैं आप लोगों के बीच  सेअपने आपको व गुजराती भाषा को अंतर्ध्यान कर रहीं हूँ।  भानपुरा की सरपंच सविता बा की कहानी ला रही हूँ। ये गरीब घर की थीं इसलिए घरवालों ने पंद्रह वर्ष बड़े दुहाजु से इनका ब्याह कर दिया था।वे पति छगनभाई ,मगनभाई वाणंद के घर के … Read more

पौ फटी पगरा भया

शिवानी शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज में कई रिश्तों के बीच उनका जन्म होता है और जीवन पर्यन्त इस रिश्तों को निभाता चला जाता है | कुछ रिश्ते उसके वजूद का इस कदर हिस्सा बन जाते हैं कि उनसे अलग वो अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाता | कभी कभी कोई एक घटना आँखों पर बंधी ये  पट्टी खोल देती और अहसास कराती है कि दो लोगों के बीच परस्पर विश्वास की तथाकथित धुरी पर टिका ये रिश्ता कितना एक तरफ़ा था | ऐसे समय में क्या निर्णय सही होता है ? ये द्वन्द उसे कैसे तोड़ता है ? और वो किसके पक्ष में खड़ा होता है एक टूटे जर्जर रिश्ते के नीचे कुचले अपने वजूद के साथ या अपने आत्मसम्मान के साथ | पौ फटी पगरा भया , 30 साल के अँधेरे के छटने के बाद ऐसे ही निर्णय की कहानी है |ये कहानी है सुमन और अनूप के रिश्तों की , ये कहानी है , ये कहानी है परस्पर विश्वास की , ये कहानी है स्त्री चरित्र की …आइये पढ़ें स्त्री विमर्श को रेखांकित करती शिवानी शर्मा जी की सशक्त कहानी। .. “पौ फटी पगरा भया” सुमन हफ्ते भर से परेशान थी। रसोई में सब्जियों को गर्म पानी में धोते हुए मन ही मन भुनभुना रही थी! भतीजे की शादी अगले हफ्ते है और ये पीरियड्स समय से क्यों नहीं आए? एन शादी के वक्त आए तो दर्द लेकर बैठी रहूंगी, नाचने गाने की तो सोच भी नहीं सकती! डॉ को भी दिखा आई। उन्होंने कहा कि मेनोपॉज़ का समय है कुछ दिन आगे पीछे हो सकता है!क्या मुसीबत है! और एक ये अनूप हैं! हर बात हंसी-मजाक में उड़ाते हैं! कहते हैं कोई खुशखबरी तो नहीं सुना रही? हद्द है सच्ची! पंद्रह साल पहले ही खुद ने अपना ऑपरेशन करवाया था फिर बच्चे की बात कहां से आ गई? कुछ भी मज़ाक करना बस! और ये इतनी सारी पत्ते वाली सब्जियां एक साथ क्यों ले आते हैं जाने!सारा शनिवार इनमें ही निकल जाता है। साफ-सूफ करने में कितना समय और मेहनत लगती है!पालक,मेथी, बथुआ, सरसों,मटर सब एक साथ थोड़े ही बनेगी? ज्यादा दिन रख भी नहीं सकते! उफ़!ये अनूप भी ना अपनी तरह के बस एक ही अनोखे इंसान हैं शायद! बरसों से समझा रही हूं कि ये सब एकसाथ मत लाया करो पर मंडी में घुसते ही मुझे भूलकर सब्जियों के प्रेम में पड़ जाते हैं! पालक,मेथी, बथुआ, सरसों और धनिया साफ करके और धो कर अलग-अलग टोकरियों में पानी निथरने के लिए रख दिए गए हैं और गाजर, पत्तागोभी, फूलगोभी एक टोकरी में रखी है।अब मटर छीले जाएंगे। आज सरसों का साग और बथुए का रायता बनेगा। कल सुबह मेथी के परांठे और शाम को मटर पनीर! हरी सब्जियों को ठिकाने लगाने की पूरी योजना बन चुकी थी। अपने लिए चाय बनाकर सुमन मटर छीलने बैठी।मटर छीलते हुए मां बहुत याद आती हैं! भैया और मैं आधी मटर तो खा ही जाते थे। फिर मम्मी खाने के लिए अलग से मटर लाने लगी और कहतीं कि पहले खालो फिर छीलना और तब बिल्कुल मत खाना। मम्मी ने सब्जी-सुब्जी साफ करने के काम शायद ही कभी किए होंगे। संयुक्त परिवार में पहले देवर-ननदें फिर बच्चे और सास-ससुर ही बैठे बैठे ऐसे काम कर देते थे। एक हम हैं कि कोई सहारा नहीं! एकल परिवार अनूप की नौकरी के कारण मजबूरी रही! बार-बार स्थानांतरण के चलते कोई स्थाई साथ भी नहीं बन पाया। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और हॉबी क्लासेज से फुर्सत नहीं मिली फिर बाहर पढ़ने चले गए और अब दोनों की शादी हो गई, नौकरी में बाहर रह रहे हैं। हम फिर दोनों अकेले रह गये घर में! सुमन के विचारों की चक्की अनवरत चलती रहती है! उसने तय कर लिया है कि जो दुख उसने उठाया वो बहूओं को नहीं उठाने देगी! अनूप की सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ रहेगी, बच्चे पालेगी और काम में मदद करेगी। अभी भी कभी कभी सुमन उनके साथ रहने चली जाती है। बहुएं भी उसका इंतज़ार ही करती रहती हैं। अभी तक तो बहुत अच्छी पट रही है और वो प्रार्थना करती है कि आगे भी भगवान ऐसे ही बनाए रखे। मटर भी छिल गये हैं। भैया का फोन आ गया। “हां सुमी!कब पहुंच रही है?” “आती हूं भैया एक-दो दिन पहले पहुंच जाऊंगी।” “अरे पागल है क्या? तुझे तो हफ्ते दस दिन पहले आना चाहिए। कल ही चल दे। अनूप को छुट्टी मिले तो दोनों ही आ जाओ वरना तू तो कल ही आ जा। तीन घंटे का तो रास्ता है। सुबह ही चल दे।”( अनूप भैया के बचपन के दोस्त हैं इसलिए भैया उनको नाम से ही बुलाते हैं) “देखती हूं भैया! अनूप तो बाद में ही आएंगे। मैं पहले आ जाऊंगी। यहां से कुछ लाना हो तो बताओ।” “रावत की मावे की कचौड़ी ले आना सबके लिए!” “ठीक है भैया। मैं रात को सब पक्का करके बताती हूं।” सुमन का मन सब्जियों में अटका हुआ था। इतनी सब्जियां आई पड़ी हैं। छोड़ जाऊंगी तो खराब हो जाएंगी और फिकेंगी! वहां ले जाऊं, इतनी भी नहीं हैं! परसों जाऊं तो केवल गाजर और गोभियाँ बचेंगी। काट-पीट कर रख जाऊंगी। अनूप बना लेंगे। मन ही मन सब तय करके सुमन रसोई में खाना बनाने में लग गयी।दो दिन अनूप की छुट्टी होती थी। शनिवार को सुबह सब्जी मंडी जाते हैं। फिर बैंक और बाज़ार के काम निपटाते हैं और खूब सोते हैं। रविवार का दिन सुमन के साथ बिताते हैं। सुमन इसलिए रविवार को कहीं और का कोई काम नहीं रखती। ज़िन्दगी अच्छी भली चल रही है बस ये सर्दियों में सब्जियां ही सौतन सी लगती हैं सुमन को! खैर… शादी से निपटकर सुमन और अनूप वापस आ गये दोनों बेटे-बहू भी आए थे। सीधे वहीं आए और वहीं से चले गए। खूब मौज-मस्ती के बीच भी सुमन के पीरियड्स आने की धुकधुकी लगी रही जिसके चलते वो थोड़ी असहज रही। भाभी ने टोका भी तो भाभी को बताया। भाभी भी खुशखबरी के लड्डू मांगकर छेड़छाड़ करती रही। आज सुबह अनूप के ऑफिस जाने के बाद सुमन फिर डॉ के गयी। जाते ही डॉ ने भी बच्चे की संभावना के बारे में पूछा। सुमन ने … Read more

एक्शन का रिएक्शन

रश्मि तारिका

न्यूटन का तीसरा नियम ऐक्शन का रिऐक्शन प्रकृति में ही इंसानी जिंदगी में भी काम करता है | अब आम औरतों की जिंदगी को ही लीजिए,”सारा दिन तुम करती ही क्या रहती हो ?” के ताने झेलने वाली स्त्री दिन भर चक्करघिननी बनी सारे घर को ही नहीं सारे रिश्ते नातों,परंपराओं का बोझ अपने नाजुक कंधों पर उठाए रहती है |लॉकडाउन के समय में उसका काम और घरवालों की अपेक्षाएँ और बढ़ गईं हैं |ऐसे में खुद के शरीर के प्रति लापरवाह हो जाना और शरीर की दिक्कतें बढ़ जाना स्वाभाविक ही है | आखिर इंसान समझे जाने की दिशा में क्या हो उसका ऐक्शन ..  पढिए रश्मि तारिक जी की कहानी .. एक्शन का रिएक्शन दरवाज़े की आहट से शिल्पा उठ गई।सामने निखिल खड़े थे ,माथे पर त्योरियाँ चढ़ाए। “क्यों ,आज खाना नहीं बनेगा क्या ?दो बजने को हैं ,और तुम आराम से बैठी हो।”निखिल का स्वर बाहर के तापमान की तरह ही गर्म था। “सुनिए ,मेरी कमर में बहुत दर्द है।आप आज मांजी से कह दीजिये न ।बस चपाती ही तो बनानी है।सब्जी कढ़ाई में बना कर रखी है।” “मैं नहीं कह पाऊँगा उन्हें..और माँ की तबीयत तो तुम जानती ही हो।”कहते हुए निखिल कमरे से निकल गए। उफ़्फ़ ..! बारह बजे सब को भारी भरकम नाश्ता करवाकर सोचा था दो घण्टे अब आराम कर पायेगी।पर यहाँ तो दो बजते ही फिर लंच की पुकार।कई बार लगता कि घर के सभी सदस्य पेट की भूख नहीं मानसिक भूख के सहारे जीते हैं।पेट भरा  हो तो भी नाश्ते का समय हो ,लंच का समय ,शाम की चाय से रात के खाने तक सब कुछ समय पर आधारित। न आधा घण्टा पहले न आधा घण्टा बाद में।शिल्पा को वह बात बेकार लगती कि इंसान के दिल का रास्ता पेट से होते हुए जाता है।यहाँ तो दिमाग की घण्टी बजती थी तो पेट से आवाज़ आती थी।दिल तो बीच राह कहीं था ही नहीं।खुद वह भी उन सब के पेट तक पहुंचते हुए अपने दिल की राह भूल जाती थी।उसकी अपनी  ज़रूरतें और इच्छाएँ भी कोने में पड़ी डस्टबीन में पड़ी चिढ़ा रही होती थीं ।कभी बच्चों के समय तो कभी पति के हुकुमनामों के बीच वह जूझ रही होती थी और पेन किलर खाकर फिर अगले काम के लिए जुट जाती।आज तो पेनकिलर से भी आराम नहीं आया था। निखिल का जवाब सुन एक लंबी साँस लेकर शिल्पा उठ गई।दर्द और बेरुखी से उपजे आँसूं समेटते हुए रोटी बेलने लगी ।जैसे तैसे निखिल को खाना दे कर ,बाकी सब की रोटी बनाकर फॉयल में लपेट कर रख दी ।थोड़ी सी सब्जी और अमूमन दो लोइयों की एक मोटी अधपकी सी ,ठंडे तवे और ठंडे मन की रोटी लेकर बैठ गई मानो शरीर रूपी गाड़ी में इस रोटी का डीज़ल ही भरना है ताकि रात तक उसकी गाड़ी सुचारू रूप से चलती रहे। बेदिली से दो कौर खा कर पानी पी लिया मानो उसे ज़बरन गले से उतारना हो। पास पड़ा मोबाइल उठाया ,देखा निशा की मिस कॉल थी।दर्द की वजह से हिम्मत तो नहीं थी लेकिन एक निशा ही तो है जिससे बात करके दिल हल्का हो जाता था।अपनी इस दोस्त को अपना दर्द निवारक मानती थी।पलकों में उपजी नमी होठों पर मुस्कान बन खिल गई। “हाँ ,बोल निशु…!” “क्या कर रही है शिल्पा ? काम हो गया क्या ?”निशा ने पूछा। “हाँ लगभग।बस अभी निखिल को खाना दिया। बाकी सब का बनाकर रख दिया।पर देखो न ..आधे घण्टे बाद निखिल की चाय की आवाज़ और उसके आधे घण्टे बाद मम्मी पापा जी की चाय का समय।फिर बच्चों की फरमाइशें..! सबके अलग अलग समय निश्चित हैं।चाय के बाद रात के खाने की चिंता।दिन भर बर्तन ,सफाई ,कपड़े कितने काम और हैं ।थक जाती हूँ।” “इस लॉक डाउन में भी कोई समझता क्यों नहीं कि बाई तो है नहीं तो एक ही वक़्त पर सब खा पी लें ?मैंने तो घर के सभी लोगों से कह दिया कि मेरे हिसाब से नहीं चलना तो फिर खुद ही बना लें ।बस खामोशी से सब जब बना दो खा लेते हैं।उस पर भी सब के काम के बंटवारे कर दिये हैं।सारे काम का ठेका हमने नही  लिया भई।हम भी इंसान हैं ,कोई नमशीन नहीं।” “हुँह ..!! यहाँ तो लॉक डाउन से पूर्व भी यही हाल था और यही हमेशा रहेगा। कोई सहयोग नहीं ।सब अपने अपने कमरों में और मेरा तो कमरा ही यह रसोई है बस।”एक ठंडी आह के साथ शिल्पा ने मन की एक परत को खोलते हुए कहा “जानती हो निशु  ,एक बार किसी झगड़े में निखिल ने मुझे तलाक देने की धमकी दी तो सासू माँ ने कहा “नहीं ,बेटा ! ऐसा हरगिज़ मत करना। तलाक मत देना,मुझसे तो काम न होगा। तुम्हीं बताओ ,कोई इत्ता भी स्वार्थी हो सकता है ? यह नहीं कि बेटे को उसकी गलती समझाएँ या डाँटें कि बात बात पर तलाक की धमकी देना सही नहीं । पर नहीं केवल अपनी मजबूरी का हवाला देते रहेंगे।” “हद है यार ! चलो उन्होंने बुढ़ापे की वजह से उन्होंने कह भी दिया होगा।पर निखिल जी ? व्यापार में घाटा देख फेक्ट्री बंद कर दी, तब से घर बैठे हैं।समझ सकती हूँ कि ऐसे में व्यवहार में चिड़चडाहट हो जाती है।लेकिन तुम तो कब से सब झेल कर भी उनकी सेवा में दिन रात एक किये बैठी ही हो ,फिर भी तलाक की धमकी ?”निशा के स्वर में रोष उभर आया था । ” वही तो ! यह सब देख पहले मैं सोचा करती थी कि ये दुख सुख तो अपने कर्मों का लेखा है।जितनी श्वासें ईश्वर ने हमें दी हैं ,उन्हें जीना पड़ेगा।रो कर जिये या हंस कर ,हम पर निर्भर करता है।पर अब लगता है कि कभी तो अंत हो इन दुखों का।अब तो हर पल यही दुआ करती हूँ कि मुझे भी कोरोना हो जाये।जान छूटे मेरी।”कहते हुए आवाज़ भर्रा गई शिखा की। “दिमाग खराब है क्या ? फालतू बातें सोचती रहोगी ।क्या होगा इससे ? जिन लोगों को तुम्हारी दुख तकलीफ से वास्ता ही नहीं ,उन्हें क्या फर्क पड़ेगा।यदि बच गई तो भी उपेक्षित ही रहोगी।बोलने से पहले सोचा तो करो।” “क्या और क्यों सोचूँ ? आखिर इन सब को मालूम … Read more

अधजली

सिनीवाली शर्मा

हिस्टीरिया तन से कहीं अधिक मन का रोग है | तनाव का वो कौन सा बिंदु है जिसमें मन अपना सारा तनाव शरीर को सौप देता है …यही वो समय है जब रोगी के हाथ पैर अकड़ जाते हैं, मुँह भींच जाता है और आँखें खुली घूरती सी हो जाती है | हिस्टीरिया का मरीज ज्यादातर लोगों ने देखा होगा …दुनिया से बेखबर, अर्धचेतन अवस्था  में अपने सारे तनाव को शरीर को सौपते हुए, किसी ऐसे बिंदु पर जहाँ चेतन और अवचेतन जगत एकाकार हो जाते हैं |   ऐसी ही तो थी कुमकुम …सुन्दर , सुशील सहज जिसकी ख़ुशी की खातिर  उसके बेरोजगार भाई ने पकडूआ ब्याह (बिहार के कुछ हिस्सों  की एक प्रथा जिसमे लड़कों को पकड कर जबरदस्ती विवाह करा दिया जाता है )के तहत ब्याह दिया एक नौकरी वाले लड़के से |जिसने उसे कभी नहीं अपनाया | बरसों बिंदी, चूड़ी और सिंदूर के साथ प्रतीक्षारत कुमकुम के तन  का तनाव मन पर उतर आया, उसे खुद भी पता नहीं चला | जिसका गुनहगार भाई ने खुद को माना और सजा मिली एक और निर्दोष स्त्री को, भले ही वो कुमकुम की भाभी हो पर उसके साथ बहनापा भी था उसका | अधजली  कहानी है मन की उलझन की, तन और मन के रिश्ते की …बहनापे और इर्ष्या के द्वन्द की और स्त्री की अपूर्ण इच्छाओं की | स्त्री यौनिकता की बात करती ये कहानी भाषा के स्तर पर कहीं भी दायें बाये नहीं होती | आइये पढ़ें सिनीवाली शर्मा जी की कहानी …. अधजली   इस घर के पीछे ये नीम का पेड़ पचास सालों से खड़ा है। देख रहा है सब कुछ। चुप है पर गवाही देता है बीते समय की! आज से तीस साल पहले, हाँ तीस साल पहले ! इस पेड़ पर चिड़ियाँ दिन भर फुदकती रहती, इस डाल से उस डाल। घर आँगन इनकी आवाज से गुलजार रहता। आज सुबह सुबह ही चिड़ियों के झुंड ने चहचहाना शुरू कर दिया था, चीं…चीं… चूं…चूं…! बीच बीच में कोयल की कूहू की आवाज शांत वातावरण में संगीत भर रही थी कि तभी कई पत्थर के टुकड़े इस पेड़ पर बरसने लगे! चिड़ियों के साथ उनकी चहचहाहट भी उड़ गई, रह गई तो केवल पत्थरों के फेंकने की आवाज के साथ एक और आवाज, ‘‘ उड़, तू भी उड़…उड़ तू भी! सब उड़ गईं और तू…तू क्यों अकेली बैठी है…तू भी उड़ !‘‘ ‘‘ क्या कर रही हो बबुनी ? यहाँ कोई चिड़िया नहीं है… एक भी नहीं, सब उड़ गईं, चलो भीतर चलो‘‘ , शांति कुमकुम का हाथ खींचती हुई बोली। ‘‘ नहीं, वो नहीं उड़ी ! मेरे उड़ाने पर भी नहीं उड़ती। उससे कहो न उड़ जाए, नहीं तो अकेली रह जाएगी मेरी ही तरह !‘‘ बोलते हुए उसकी आवाज काँपने लगी, भँवें तनने लगीं और आँखें कड़ी होने लगीं। वो तेजी से भागती हुई बरामदे पर आई और बोलती रही, ‘‘ अकेली रह जाएगी, अकेली…उड़, तू भी उड़…उड़…!‘‘ बोलते बोलते कुमकुम वहीं बरामदे पर गिर गई। सिंदूर के ठीक नीचे की नस ललाट पर जो है वो अक्सर बेहोश होने पर तन जाती है उसकी। हाथ पैर की उंगलियां अकड़ जाती हैं। कभी दाँत बैठ जाता है तो कभी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती है। शांति कुमकुम की ये हालत देखकर दरवाजे की ओर भागी और घबराती हुई बोली, ‘‘ सुनिएगा !‘‘ ये शब्द महेंद्र न जाने कितनी बार सुन चुका है। शांति की घबराती आवाज ही बता देती है कि कुमकुम को फिर बेहोशी का दौरा आया है। कितने डॅाक्टर, वैध से इलाज करा चुका है, सभी एक ही बात कहते हैं, मन की बीमारी है! ‘‘आ…आ ‘‘ ‘‘तुम…तुम, मैं…मैं…!‘‘ ये सब देखकर महेंद्र के भीतर दबी अपराध बोध की भावना सीना तानकर उसके सामने खड़ी हो जाती। कुमकुम की बंद आँखों से भी वो नजर नहीं मिला पाता। सिरहाने बैठकर वो उसके माथे को सहलाने लगता और शांति कुमकुम के हाथ पैर की अकड़ी हुई उंगलियों को दबा कर सीधा करने की कोशिश करने लगती। महेन्द्र पानी का जोर जोर से छींटा तब तक उसके चेहरे पर मारता जब तक कुमकुम को होश नहीं आ जाता। होश आने के बाद कुछ देर तक कुमकुम की आँखों में अनजानापन रहता। वो चारों ओर ऐसे शून्य निगाहों से देखती जैसे यहाँ से उसका कोई नाता ही न हो। धीरे धीरे पहचान उसकी आँखों में उतरती। कुमकुम धीरे से बुदबुदायी, ‘‘ दादा…दादा !‘‘ महेंद्र के भीतर आँसुओं का अथाह समुद्र था पर आँखें सूखी ! वो कुमकुम का माथा सहलाता रहा। ‘‘ दादा, क्या हुआ था मुझे ?‘‘ कुमकुम की आवाज कमजोर थी। ‘‘कुछ नहीं…बस तुम्हें जरा सा चक्कर आ गया था।ये तो होता रहता है। अब तुम एकदम ठीक हो।‘‘ ‘‘ हाथ पैर में दर्द हो रहा है, लगता है देह में जान ही नहीं हो, जैसे किसी ने पूरा खून चूस लिया हो‘‘ ‘‘ तुम आराम करो, भौजी पैर दबा रही है।‘‘ ‘‘ पता नहीं क्यों…मैं बराबर चक्कर खा कर गिर जाती हूँ !‘‘ महेंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ‘‘ इसका ध्यान रखना‘‘, इतना बोलकर उसका माथा एक बार बहुत स्नेह से सहला कर वो चला गया। महेंद्र के जाने के कुछ देर बाद तक कुमकुम, शांति को गौर से देखती रही। ‘‘भौजी, दादा कुछ बताते नहीं, मुझे क्या हुआ है ! डाक्टर क्या कहता है मुझे बताओ तो !‘‘ ‘‘ तुम्हें आराम करने के लिए कहा है‘‘, कुमकुम का हाथ सहलाती हुई शांति बोली। ‘‘ भौजी, क्या डाक्टर सब समझता है, मुझे क्या हुआ है ?‘‘ ‘‘ हाँ, बबुनी ! वो डाक्टर है न !‘‘ ‘‘तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वो डाक्टर नहीं भतार हो !‘‘ शांति के चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी महीन सी लकीर खिंच गई। ‘‘ जाओ भौजी, तुम्हें भी काम होगा। मैं भी थोड़ी देर में आती हूँ…अभी उठा नहीं जाता !‘‘ ‘‘ मैं तो कहती हूँ थोड़ी देर सो जाओ, रात में भी देर तक जगना होगा।‘‘ ‘‘ क्यों ?‘‘ ‘‘ याद नहीं कल गौरी का ब्याह है और आज रात मड़वा ( मंडपाच्छादन ) है। मैं तो जा नहीं सकती, तुम्हें ही जाना पड़ेगा, नहीं तो कल कौन…!‘‘ बोलते बोलते शांति बिना बात पूरी किए तेजी से बाहर निकल गई। … Read more

निगोड़ी

स्मृतियाँ हमें तोडती भी हैं हमें जोडती भी हैं | ये हमारी जीवन यात्रा की एक धरोहर है | हम इन्हें कभी यादों के गुद्स्तों की तरह सहेज कर रख लेना चाहते हैं तो कभी सीखे गए पाठ की तरह |स्मृति का जाना एक दुखद घटना है | पर क्या कभी कोई व्यक्ति स्वयं ही स्मृति लोप चुन लेता है | ऐसा क्यों होता है अत्यधिक तनाव के कारण उपजी एक मानसिक अस्वस्थता या फिर जीवन के किसी से भागने का एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम | आखिर क्या था रूपक्रांति  की जिंदगी में जो वो इसका शिकार हुई |जानते हैं दीपक शर्मा जी की एक सशक्त कहानी से … निगोड़ी  रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी| उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों परअपनेशोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप कीरोगिणी के रूप में कराया गया था| मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में| अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते| स्मृति केबाहर वह स्वेच्छा सेनिकलीथी| शीतलताईकी खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था| क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी| (१) “किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने| “कैसे? किससे?” वहहक-बकायी थी| किरणमयीरूपकान्तिकी बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथबेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले| “मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलालतनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था| “मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जोअभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था| “वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था| “बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी| जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था| “उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| औरदामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहताथा| “उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है…..” “मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी…..” “देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्तिने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे| (२) “जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था| रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी| कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी| चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखेंविशालतथा और चमकीली हो आयी थीं| नाकऔर नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित| सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी| “मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी| जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा| रूपकान्तिअभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापाजोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थींऔर सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है…..’ “यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था| “नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी| “काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझेइस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?” “जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था| “मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी| “बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयीडहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तोउसने आपत्ति जतलायी थी, मुझेइस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घरमें एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की … Read more

स्लीप मोड

वंदना गुप्ता

“आज कल मुझे कुछ याद नहीं रहता” कितनी बार हम खुद ये शब्द कहते हैं और कितनी बार अपनों के मुँह से सुनते हैं | पर क्या एक कदम ठहर कर सोचते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? क्या हम रोगी के साथ उस तरह से जुड़ पाते हैं जिस तरह से जुड़ना चाहिए | मेडिकल भाषा में कहें तो dissociative disorder के अंतर्गत आने वाला memory loss (amnesia) दो प्रकार का होता है | एक अचानक से और एक धीरे -धीरे | धीरे -धीरे यानी कि भूलने की बिमारी | आज इसी भूलने की बिमारी पर आज हम पढेंगे वंदना गुप्ता जी की कहानी स्लीप मोड | बहुत लोगों ने इस कहानी को पढने की इच्छा व्यक्त की थी | इस कहानी की खास बात है कि ये कहानी एक रोगी की डायरी का हिस्सा है | रोगी किस तरह से एक एक चीज भूलते जाने की अपनी व्यथा कथा डायरी में अंकित करता जाता है | आइये पढ़ें बेहद मार्मिक कहानी … स्लीप मोड   रो पड़ी श्वेता माँ की डायरी का ये पन्ना पढ़कर .  ‘उफ़ , ममा आपको पहले से ही बोध हो गया था अपनी इस दशा का और एक हम बच्चे हैं जिन्होंने कभी भी आपकी बातों को सीरियसली नहीं लिया . ममा आप तो हमारे लिए हमारी ममा थी न . हमें कभी लगा ही नहीं कि आपको कुछ समस्या हो सकती है . शायद हमारी ये सोच होती है ममा सब हैंडल कर सकती हैं और कर लेंगी . और आप इतना अन्दर तक खुद को जान गयीं . इस हद तक कि भविष्य इंगित कर दिया और हम अपने स्वप्न महलों में सोये रहे .‘    “रोहित , रोहित देख , पढ़ इसे और जान , ममा पहले ही जान गयी थीं उन्हें क्या होने वाला है ” रोते हुए श्वेता ने जब डायरी रोहित को पढवाई उसका हाल भी अपनी बहन से कम न था . बिना पतवार की नाव सी हिचकोले खा रही थी उनकी नैया . वो वहां हैं जहाँ न शब्दों का महत्त्व है न अर्थों का . न माँ की ममता न दुलार . सब अतीत का पन्ना हो गए . दोनों ने अगला पन्ना पल्टा जहाँ लिखा था :   आज श्वेता दौड़ती दौड़ती आई और मुँह बना बना कर कहने लगी ,” ममा जानती हो आज क्या हुआ ?”  “क्या हुआ ?” आँखें चौड़ी कर फाड़ते हुए बोली , “ममा आज अलुमनाई मीट थी न तो सभी पुराने दोस्तों से मिलकर बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन तभी एक आकर मेरे गले लगी और बहुत प्यार से बतियाने लगी . मैं बात करने लगी उससे लेकिन उसका नाम ही याद नहीं आ रहा था . चेहरा तो पहचानती ही थी लेकिन उसका नाम क्या था सोच सोच परेशान भी हो रही थी तभी किसी ने उसे आवाज़ दी ,अरे रूही , वहीँ मिलती रहेगी या हमसे भी मिलेगी ? तब जाकर याद आया सिर पर हाथ मारते हुए जब उसने बताया तो मेरी सोच के काँटे फिर अपने अस्तित्व की ओर उठ गए . ‘ओह ! तो इसका मतलब ये सभी के साथ होता है फिर मैं क्यों नाहक परेशान होती हूँ . जबकि सच ये है मुझे चेहरे याद नहीं रहते . यदि चेहरे याद रहते हैं तो नाम भूल जाती हूँ . जब तक उनसे २-४ बार मिलकर बात न कर लूँ , स्मृतिकोष में फीड ही नहीं होते .‘    रोहित अगला पन्ना पलटता है , आज मिसेज गुप्ता बता रही थीं जब वो बाज़ार जा रही थीं तो कोई उनका पीछा करने लगा. वो तेज तेज चलने लगीं तो पीछे चलने वाले ने भी गति पकड़ ली . किसी तरह वो बाज़ार पहुँची तो साँस में साँस आई . बहुत सुन्दर हैं मिसेज गुप्ता . लगता ही नहीं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हैं . यूं लगता है अभी रिश्ता करवा दिया जाए . उस पर वेस्टर्न ड्रेस में तो उम्र और छोटी दिखने लगती है ऐसे में वो क्या कहते हैं ………..और सोच की बत्ती गुल हो गयी . शब्द किसी बीहड़ में जाकर दफ़न हो गया . मैं सोचती रहती हूँ और सोचती ही रहती हूँ उस अंग्रेजी नाम को मगर सिरे से नदारद . हाँ हाँ जानती हूँ , दिमाग से निकल गया है , अभी आएगा याद मगर हर कोशिश नाकाम हो जाती है . मैं उनके साथ इस बातचीत में शामिल होना चाहती थी क्योंकि वो बार बार उसी घटना को दोहरा रही थीं मगर इतनी सी देर में ही शब्द स्मृति से फिसलकर जाने किस खाई में खो गया कि मैंने हिंदी में ही बात करना ठीक समझा . वैसे भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना मेरी आदत में शुमार है इसलिए गाडी वहीँ अटक गयी . लेकिन अब याद आ गया हाँ , स्टाकर(stalker). जैसे ही याद आता है बच्चे सी खिल उठती हूँ जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो . जाने वो क्या करता सोच परेशान जो थी . बस उतर गयी पटरी से गाड़ी . सोचती हूँ कब तक चलेगी या चल पाएगी ऐसे भी ज़िन्दगी . जब जरूरत हो वांछित शब्द मेरे पास नहीं आते जाने कहाँ स्मृति तकिया लगाकर सो  जाती है . शायद नियति किसी तथ्य से वाकिफ कराना चाह रही हो जो अभी समझ से परे है .    अगला पन्ना    पटाक्षेप जल्दी नहीं होता लाइलाज बीमारियों का . सुना है लाइलाज है . तो क्या मुझे भूलने की बीमारी हो गयी है . चलो अच्छा ही है . भूल जाऊँ सब कुछ . करता है मन कभी कभी ऐसा . एक बिल्कुल शांत , अलौकिक आनंद में उतर जाऊँ . खुद को डूबा डालूँ तो स्मृति लोप अभिशाप से वरदान बन जाए . मगर हकीकत की बेड़ियों ने इस कदर जकड़ा है कि सोचती हूँ , क्या याद रहेगी  मुझे वो अलौकिक आनंद की अनुभूति ? समस्या तो यही है . समाधान सिर्फ दवाइयों और दिनचर्या में …….. कहा था डॉक्टर ने . चलने लगी खींची गयी पगडण्डी पर . शायद बदल जाए जीवन और लिखे एक नयी इबारत . मगर क्या संभव है अकेले के बलबूते पहाड़ चढ़ना . जरूरत … Read more

परछाइयों के उजाले 

प्रेम को देह से जोड़ कर देखना उचित नहीं पर समाज इसी नियम पर चलता है | स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों को शक की निगाह से देखना समाज की फितरत है फिर अगर बात प्रेम की हो …शुद्ध खालिस प्रेम की , तब ? आज हम भले ही प्लैटोनिक लव की बात करते हैं पर क्या एक पीढ़ी पीछे ये संभव था | क्या ये अपराध बोध स्वयं प्रेमियों के मन में नहीं था | बेनाम रिश्तों की इन पर्चियों के उजाले कहाँ दफ़न रह गए | आइये जानते हैं कविता वर्मा जी की कहानी से … परछाइयों के उजाले    सुमित्रा जी है? दरवाजे पर खड़े उन सज्जन ने जब पूछा तो में बुरी तरह चौंक पड़ी। करीब साठ बासठ की उम्र ऊँचा पूरा कद सलीके से पहने कपडे,चमचमाते जूते, हाथ में सोने की चेन वाली महँगी घडी, चेहरे पर अभिजात्य का रुआब, उससे कहीं अधिक उनका बड़ी माँ के बारे में यूं नाम लेकर पूछना. यूं तो पिछले एक महिने से घर में आना जाना लगा है, लेकिन बड़ी माँ, जीजी, भाभी, बुआ, मामी, दादी जैसे संबोधनों से ही पुकारी जाती रहीं हैं, ये पहली बार है की किसी ने उन्हें उनके नाम से पुकारा है और वो भी नितांत अजनबी ने। मैं  अचकचा गयी.हाँ जी हैं आप कौन? उनका परिचय जाने बिना मैं बड़ी माँ से कहती भी क्या? उनसे कहिये मुरादाबाद से सक्सेना जी आये हैं. उन्हें ड्राइंग रूम में बैठा कर मैंने पंखा चलाया और पानी लाकर दिया. क्वांर की धूप में आये आगंतुक को पानी के लिए इंतज़ार करवाना भी तो ठीक नहीं था. आप बैठें मैं बड़ी माँ को बुलाती हूँ. लगभग एक महिने की गहमा गहमी के बाद बस कुछ दो-चार दिनों से ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर आया है.पापा भैया काम पर गए हैं घर में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है.मम्मी भाभी सुबह की भागदौड के बाद दोपहर में कुछ देर आराम करने अपने अपने कमरों में बंद हैं.बड़ी माँ तो वैसे भी अब ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती हैं.मैं भी खाली दुपहरी काटने के लिए यूं ही बैठे कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी,तभी गेट खोल कर इन सज्जन को अन्दर आते देखा.घंटी बजने से सबकी नींद में खलल पड़ता इसलिए पहले ही दौड़ कर दरवाजा खोल दिया. बड़ी माँ के कमरे का दरवाज़ा धीरे से खटखटाया वह जाग ही रहीं थीं। कौन है?अन्दर आ जाओ। कुर्सी पर बैठी वह दीवार पर लगी बाबूजी और उनकी बड़ी सी तस्वीर को देख रहीं थीं.मुझे देखते ही उन्होंने अपनी आँखों की कोरें पोंछी।  मैंने पीछे से जाकर उनके दोनों कन्धों पर अपने हाथ रख दिए. बड़ी माँ को ऐसे देख कर मन भीग जाता है। एक ऐसी बेबसी का एहसास होता है जिसमे चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ नहीं रे बस ऐसे ही बैठी थी. उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की.तू क्या कर रही है सोयी नहीं? बड़ी माँ आपसे मिलने कोई आये हैं। कौन हैं?उन्होंने आश्चर्य से पूछा माथे पर सलवटें उभर आयीं शायद वह याद करने की कोशिश कर रहीं थी की अब कौन रह गया आने से? कोई सक्सेना जी हैं मुरादाबाद से आये हैं.बड़ी माँ के चेहरे पर अचानक ही कई रंग आये और गए। ऐसा लगा जैसे वह अचानक ही किसी सन्नाटे में डूब गयीं हों। वह कुछ देर बाबूजी की तस्वीर को देखती रहीं फिर उन्होंने पलकें झपकाई और गहरी सांस छोड़ी. उन्हें बिठाओ कुछ ठंडा शरबत वगैरह बना दो में आती हूँ. कुछ नाश्ता और शरबत लेकर जब मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो दरवाजे पर ही ठिठक गयी। वह अजनबी सज्जन बड़ी माँ के हाथों को अपने हाथों में थामे बैठे थे। मेरे लिए ये अजब ही नज़ारा था जिसने मेरे कौतुक को फिर जगा दिया, आखिर ये सज्जन हैं कौन? पहले उन्होंने बड़ी माँ को नाम से पुकारा फिर अब उनके हाथ थामे बैठे हैं. बाबूजी के जाने के बाद पिछले एक महिने में मातम पुरसी के लिए आने जाने वालों का तांता लगा था.दूर पास के रिश्तेदार जान पहचान वाले कई लोग आये।कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़ दें जो बड़ी माँ के गले लगे बाकियों में मैंने किसी को उनके हाथ थामे नहीं देखा। तो आखिर ये हैं कौन? मैंने ट्रे टेबल पर रख दी। उन सज्जन ने धीरे से बड़ी माँ का हाथ छोड़ दिया। बड़ी माँ वैसे ही खामोश बैठी रहीं। जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहीं कोई संकोच कोई हडबडाहट नहीं। जैसे उनका हाथ पकड़ना कोई नया या अटपटा काम नहीं है। बड़ी माँ को मैंने हमेशा एक अभिजात्य में देखा है. उन्हें कभी किसी से ऐसे वैसे हंसी मजाक करते नहीं देखा।छुट्टियों में जब बुआ, मामी, भाभी सब इकठ्ठी होती तब भी उनकी उपस्थिति में सबकी बातों में हंसी मजाक की एक मर्यादा होती थी।फिर उनकी अनुपस्थिति में सब चाहे जैसी चुहल करते रहें। बाबूजी के साथ भी वह ऐसे हाथ पकडे कभी ड्राइंग रूम में तो नहीं बैठी। एक बार छुटपन में छुपा छई खेलते मैं उनके कमरे का दरवाजा धडाक से खोल कर अन्दर चली गयी थी बाबूजी ने बड़ी माँ का हाथ पकड़ रखा था। लेकिन मुझे देखते ही उन्होंने तेज़ी से अपना हाथ छुड़ा लिया था जैसे उनकी कोई चोरी पकड़ा गयी हो।लेकिन आज वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप बैठी हैं,मानों उन सज्जन का उनका हाथ पकड़ना बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन वे सज्जन आखिर हैं कौन? मैं इसी उहापोह में खड़ी रही तभी बड़ी माँ ने मेरी ओर देखा हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं लेकिन उन नज़रों का आशय में समझ गयी। वे कह रहीं थीं मैं वहां क्यों खड़ी हूँ?   बड़ी माँ, मम्मी को बुला लाऊं? मैंने अपने वहां होने को मकसद दिया? नहीं रहने दो। संक्षिप्त सा उत्तर मिला जिसका आशय मेरे वहां होने की अर्थ हीनता से था।   मैं वहां से चुपचाप चल पड़ी लेकिन वह प्रश्न भी मेरे साथ ही चला आया था की आखिर वे सज्जन हैं कौन? एक बार नाश्ते की ट्रे उठाने मैं फिर वहां गयी। उनके बीच ख़ामोशी पसरी थी शायद उनका वहां होना ही बड़ी माँ के लिए बहुत बड़ी सान्तवना थी और उसके लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी। बड़ी माँ कुछ और लाऊं? उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया और मैं खाली ट्रे में अपने कौतुक के साथ वापस आ गयी।वे … Read more