अगस्त के प्रेत -अनूदित लातिन अमेरिकी कहानी

अगस्त का प्रेत

 भूत होते हैं कि नहीं होते हैं इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता |परन्तु भूतिया यानि की डरावनी फिल्में देखने का अपना एक अलग ही आनंद है | फिल्म का माध्यम दृश्य -श्रव्य वाला है वहां डर उत्पन्न करना थोडा सरल है पर कहानियों में यह उतना सहज नहीं | परन्तु कई कहानियाँ हैं जो इस कसौटी पर खरी उतरती हैं |ऐसी ही एक लातिन अमेरीकी कहानी हैं अगस्त के  प्रेत | मूल लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़की कहानी का अनुवाद किया है सुशांत सुप्रिय जी ने | तो आइये पढ़ते हैं … अगस्त के प्रेत —— मूल लेखक : गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ —— अनुवाद : सुशांत सुप्रिय   दोपहर से थोड़ा पहले हम अरेज़्ज़ो पहुँच गए , और हमने दो घंटे से अधिक का समय वेनेज़ुएला के लेखक मिगुएल ओतेरो सिल्वा द्वारा टस्कनी के देहात के रमणीय इलाक़े में ख़रीदे गए नवजागरण काल के महल को ढूँढ़ने में बिताया । वह अगस्त के शुरू के दिनों का एक जला देने वाला , हलचल भरा रविवार था और पर्यटकों से ठसाठस भरी गलियों में किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान नहीं था जिसे कुछ पता हो । कई असफल कोशिशों के बाद हम वापस अपनी कार के पास आ गए , और हम सरू के पेड़ों की क़तार वाली , किंतु बिना किसी मार्ग-दर्शक संकेत वाली सड़क के रास्ते शहर से बाहर निकल आए । रास्ते में ही हमें हंसों की देख-भाल कर रही एक वृद्ध महिला मिली , जिसने हमें ठीक वह जगह बताई जहाँ वह महल स्थित था । हमसे विदा लेने से पहले उसने हमसे पूछा कि क्या हम रात उसी महल में बिताना चाहते हैं । हमने उत्तर दिया कि हम वहाँ केवल दोपहर का भोजन करने के लिए जा रहे हैं , जो हमारा शुरुआती इरादा भी था । “ तब तो ठीक है , “ उसने कहा , “ क्योंकि वह महल भुतहा है । “ मैं और मेरी पत्नी उस वृद्धा के भोलेपन पर हँस दिए क्योंकि हमें भरी दुपहरी में की जा कही भूत-प्रेतों की बातों पर बिल्कुल यक़ीन नहीं था । लेकिन नौ और सात वर्ष के हमारे दोनों बेटे इस विचार से बेहद प्रसन्न हो गए कि उन्हें किसी वास्तविक भूत-प्रेत से मिलने का मौका मिलेगा । मिगुएल ओतेरो सिल्वा एक शानदार मेज़बान होने के साथ-साथ एक परिष्कृत चटोरे और एक अच्छे लेखक भी थे , और दोपहर का अविस्मरणीय भोजन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था । देर से वहाँ पहुँचने के कारण हमें खाने की मेज़ पर बैठने से पहले महल के भीतरी हिस्सों को देखने का अवसर नहीं मिला , लेकिन उसकी बाहरी बनावट में कुछ भी डरावना नहीं था । यदि कोई आशंका रही भी होगी तो वह फूलों से सजी खुली छत पर पूरे शहर का शानदार दृश्य देखते हुए दोपहर का भोजन करते समय जाती रही । इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल था कि इतने सारे चिर-स्थायी प्रतिभावान व्यक्तियों का जन्म मकानों की भीड़ वाले उस पहाड़ी इलाक़े में हुआ था , जहाँ नब्बे हज़ार लोगों के समाने की जगह बड़ी मुश्किल से उपलब्ध थी ।हालाँकि अपने कैरेबियाई हास्य के साथ मिगुएल ने कहा कि इनमें से कोई भी अरेज़्ज़ो का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं था । “ उन सभी में से महानतम तो ल्यूडोविको था , “ मिगुएल ओतेरो सिल्वा ने घोषणा की । ठीक वही उसका नाम था । उसके आगे-पीछे कोई पारिवारिक नाम नहीं जुड़ा था — ल्यूडोविको , सभी कलाओं और युद्ध का महान् संरक्षक । उसी ने वेदना और विपदा का यह महल बनवाया था । मिगुएल दोपहर के भोजन के दौरान उसी के बारे में बातें करते रहे । उन्होंने हमें ल्यूडोविको की असीम शक्ति , उसके कष्टदायी प्रेम और उसकी भयानक मृत्यु के बारे में बताया । उन्होंने हमें बताया कि कैसे ग़ुस्से से भरे पागलपन के उन्माद के दौरान ल्यूडोविको ने उसी बिस्तर पर अपनी प्रेमिका की छुरा भोंक कर हत्या कर दी , जहाँ उसने अभी-अभी उस प्रेमिका से सहवास किया था । फिर उसने ख़ुद पर अपने ख़ूँख़ार कुत्ते छोड़ दिए , जिन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए । मिगुएल ने पूरी गम्भीरता से हमें आश्वस्त किया कि अर्द्ध-रात्रि के बाद ल्यूडोविको का प्रेत प्रेम के इस दुखदायी , अँधेरे महल में शांति की तलाश में भटकता रहता है । महल वाक़ई विशाल और निरानंद था । लेकिन दिन के उजाले में भरे हुए पेट और संतुष्ट हृदय के साथ हमें मिगुएल की कहानी केवल उन कई विपथनों में से एक लगी जिन्हें सुना कर वे अपने अतिथियों का मनोरंजन करते थे । दोपहर का आराम करने के बाद हम बिना किसी पूर्व-ज्ञान के महल के उन बयासी कमरों में टहलते-घूमते रहे जिनमें उस महल की कई पीढ़ियों के मालिकों ने हर प्रकार के बदलाव किए थे । स्वयं मिगुएल ने पूरी पहली मंज़िल का पुनरुद्धार कर दिया था । उन्होंने वहाँ एक आधुनिक शयन-कक्ष बनवा दिया था जहाँ संगमरमर का फ़र्श था , जिसके साथ वाष्प-स्नान की सुविधा थी , व्यायाम करने के उपकरण थे और चटकीले फूलों से भरी वह खुली छत थी जहाँ हमने दोपहर का भोजन किया था । सदियों से सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी कथा में अलग-अलग काल-खंडों की सजावट वाले एक जैसे साधारण कमरे थे , जिन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था । लेकिन सबसे ऊपरी मंज़िल पर हमने एक कमरा देखा जो अक्षुण्ण रूप से संरक्षित था , जिसे समय भी भूल चुका था — ल्यूडोविको का शयन-कक्ष । वह पल जादुई था । पलंग वहाँ पड़ा था जिसके पर्दों में सोने के धागे से ज़रदोज़ी का काम किया गया था । बिस्तरें , चादरें आदि क़त्ल की गई प्रेमिका के सूखे हुए ख़ून की वजह से अकड़ गई थीं । कोने में आग जलाने की जगह थी जहाँ बर्फ़ीली राख और पत्थर बन गई अंतिम लकड़ी पड़ी हुई थी । हथियार रखने की जगह पर उत्कृष्ट क़िस्म के हथियार पड़े हुए थे और एक सुनहले चौखटे में विचारमग्न सामंत का बना तैल-चित्र दीवार की शोभा बढ़ा रहा था । इस तैल-चित्र को फ़्लोरेंस के किसी श्रेष्ठ चित्रकार ने बनाया था किंतु बदक़िस्मती से उसका नाम उस युग के बाद किसी को याद नहीं रहा । लेकिन जिस चीज़ ने मुझे वहाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह न जाने … Read more

ऊँटकी करवट

ऊँट किस करवट बैठता है यह बहुत ही प्रसिद्द मुहावरा है | ये एक संदेह की स्थिति है | दरअसल वो परिणाम जो हमें पता नहीं होते हैं | फिर भी मर्जी तो ऊँट की ही चलती है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं | जहाँ पुरुष या पितृसत्ता की तुलना ऊँट से की गयी है | कयास लगाए जाते हैं पर मर्जी उसी की चलती है | ये कहानी वैसे तो १९६१ की हैं पर स्त्री -पुरुष के समीकरण में बहुत अंतर नहीं आया है | आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की मार्मिक कहानी से … ऊँटकी करवट यह घटना सन् इकसठ की है किन्तु उसका ध्यान आते ही समय का बिन्दु-पथ अपना आधार छोड़ कर नए उतार-चढ़ाव ग्रहण करने लगता है. बीत चुके उन लोगों के साए अकस्मात् धूप समान उजागर हो उठते हैं और मेरे पीछे चलने की बजाय वे मेरे आगे चलने लगते हैं. और कई बार तो ऐसा लगता है उस घटना को अभी घटना है और बहुत बाद में घटना है….. अभी तो उस घटना के वर्तमान में मेरा आना बाक़ी है….. कौन कहता है कोई भी व्यक्ति समय से आगे या पीछे पहुँचकर भविष्य अथवा अतीत के अंश नहीं देख सकता? यदि प्रत्येक बीत रहे अनुभव का समय बोध वाले वर्तमान में घटना ज़रूरी हैं तो फिर तो स्मृति क्या है? अन्तर्बोध क्या है? “देखो” अपनागौना लाए जब खिलावन को दो सप्ताह से ऊपर हो गए तो माँ ने बागीचे से ढेर सारी अमिया तुड़वायीं और खिलावन से कहा, “गुलाब को आज इधर बँगले पर भेजना. अमिया कद्दूकस कर देगी. आज मैं मीठी चटनी बनाऊँगी.” उन दिनों बँगले पर तैनात हमारे दूसरे नौकरों की पत्नियों के ज़िम्मे माँ ने अनन्य काम सौंप रखे थे : माली हरिप्रसाद की पत्नी फ़र्श पर गीला पोंछा लगाती और रसोइए पुत्तीलाल की पत्नी घर का कपड़े धोया करती. “मैं बताऊँ मालकिन?” खिलावन थोड़ा खिसिया गया, “गुलाब के घर वालों ने मुझसे वादा लिया है उससे बँगले का काम न करवाऊँगा.” “ऐसा है क्या?” ‘न’ सुनने की माँ को आदत न थी किन्तु खिलावन उनका चहेता नौकर था. पाँच साल पहले सत्रह वर्ष की आयु में उसने यहाँ जो काम सीखना शुरू किया था सो अब वह बहुत काम का आदमी बन गया था. उसकी फुरती और कार्यकुशलता देखने लायक रही. मिनटों-सैकंडों में वह जूठे बर्तनों की ढेरी चमका देता, चुटकियों में पूरा बँगला बुहार लेता; तिस पर ईमानदार इतना कि सामने रखे सोने को देखकर भी उसका चित्त डुलाये न डोलता. “जी, मालकिन,” खिलावन ने अपने हाथ जोड़े, “गुलाब ग़रीब घर की ज़रूर है मगर उसके यहाँ औरत जात से बाहर का काम करवाने काप्रचलन नहीं.” दोपहर में माँ ने मेरे पिता से यह बात दोहरायी तो माँ की झल्लाहट में सम्मिलित होने की बजाय वे हँस पड़े, “देखने में ज़रूर अच्छी होगी.” मेरे पिता अत्यन्त सुदर्शन रहे जब कि माँ देखने में बहुत मामूली. मुझेयक़ीन है माँ मेरे धनाढ्य नानाकी यदि इकलौती सन्तान न रहीहोतीं तो मेरेपिता कदापि उनसे शादी न करते. “देखने में अच्छी है,” जवाबी वारमें माँ का जवाब नथा, “तभी तो काम में फिसड्डीहै.” काम के मामले में मेरे पिता खासे चोर रहे. साड़ियोंके विक्रेता मेरे नाना की दुकान पर वेकभी-कभार ही बैठते. बस, उनके हाथ बँटाने के नाम पर केवल साड़ियों को उठाने या पहुँचाने का कामही करते; वहभी इसलिए क्योंकि उस काम में हरतिमाही-छमाही रेलपर घूमनेका उन्हेंअच्छा अवसर मिल जाता. कभी बनारस तो कभी कलकत्ता और कभी हैदराबाद तो कभी त्रिवेन्द्रम. वरना इधर तो आधा दिन वे सजने-सँवरने मेंबिताते औरआधा रात की नींद पूरी करने में. रात को क्लबमें देरतक शराब पीनेऔर ब्रिज खेलने की उन्हें बुरी लत रही. रात का खाना वे ज़रूर घर पर लेते. कभीग्यारहबजेतोकभीसाढ़ेग्यारहबजे. अकेले. खिलावन की मदद लेकर माँ उन्हें खाना परोसतीं ज़रूर किन्तु स्वयं कुछ न खातीं. असल में माँका रात में रोज़ व्रतरहता. “भली मानस तेरी माँ तेरे पिता को तो दण्ड दे नहीं सकती,” रात में जल्दी सोने की आदत की वजह से विधुर मेरे नाना ठीक साढ़े आठ बजे मेरी बगल में खाने की मेज पर अपना आसन ग्रहण करते ही रोज़ कहते, “इसीलिए खुद को दंड दे रही है.” नौ साल पहले मेरे पिता को मेरे नाना के पास बी. ए. में पढ़ रही माँ ही लायी रहीं, “इनसे मिलिए. हमारे इलाके के एम. पी. के मँझले बेटे.” सन् बावन के उन दिनों में हाल ही में संगठित हुई देश की पहली लोक सभा का रुतबा बहुत बड़ा था और मेरे नाना उनके परिचय के‘क्या’, ‘कितना’ और‘क्यों’ के चक्कर में न पड़े थे. वैसे माँ मेरे पिता को क्लब के लॉन टेनिस टूर्नामेंट के अन्तर्गत मिली रहीं. उनकी तरह माँ भी टेनिस की बहुत अच्छी खिलाड़ी थीं. दोनों ने एक साथ मिक्स्ड डबल्स कीकई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया. आप चाहें तो सन् तिरपनकी कुछ अख़बारों में उन दोनों की एक तस्वीर भी देख सकते हैं. राजकुमारी अमृत कौर के हाथों एक शील्ड लेते हुए. “कहो जगपाल,” अगले दिन सुबह गोल्फ़ के लिए मोटर में सवार मेरे पिता ने ड्राइवर को टोहा, “खिलावन के क्या हाल हैं?” मोटर में उस समय मैं भी रहा. मेरे पिता का गोल्फ-ग्राउण्ड मेरे स्कूल के समीप था. “बंदर के हाथ हिरणीलग गयी,” जगपाल ने अपने दाँत निपोरे, “वह गुलाब नहीं गुलनार है, सरकार!” “दूर से ही लार टपकाते हो या कभी पार भी गए हो?” मेरे पिता और जगपाल के बीच असंयत ठिठोली का सिलसिला पुराना था. हरिप्रसाद और पुत्तीलाल की पत्नियों के बारे में लापरवाह बातें करते हुए भी मैं उन्हें अक्सर पकड़चुका था. हरिप्रसाद की पत्नी को वे ‘चिकनिया’ कहते और पुत्तीलाल की पत्नी को ‘लिल्ली घोड़ी’. “आप कहें तो आजमाइश करें, सरकार?” जगपाल ने अपना सिर पीछे घुमाया- मेरे पिताकी दिशा में- “आप के लिए यह भी सही-” “आजमाइश नहीं, तुम निगहबानी करना. पहरा रखना.” “रखवाली किसकी करनी है, सरकार? उसकी या आपकी?” स्कूल पर पहुँच जाने की मजबूरी के कारण उसी समय मुझे मोटर से उतरना पड़ा और अपने पिता का उत्तर मैं जान न पाया. मगर स्कूल से लौटते ही खाना खाने के उपरान्त मैं बाग़ीचे की तरफ़ आ निकला. हमारे नौकर लोगों के कमरे हमारे पिछवाड़े के बागीचे की तरफ़ रहे. हमारे निजी कुएँ के … Read more

मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट )

ये समय जब इतिहास में लिखा जाएगा तो शायद कोरोना काल के रूप में जाना जाएगा | साहित्य पर समय और समाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | आज कई कहानियाँ , कवितायें कोरोना को केंद्र में ले कर लिखी जा रही हैं | प्रस्तुत कहानी मे भी  कविता सिंह जी ने भी कोरोना को केंद्र में लिख कर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी बुनी है | हालांकि ये कहानी स्त्री मन की कोमल भावनाओं को इंगित करती है ..उसके मन की परतों को खोलती है | स्त्री ममत्व का दरिया है जो चाहकर भी उन रिश्तों के प्रति कठोर नहीं हो पाती जिन्हें उसने जीवन भर संजोया -संवारा है | यहाँ कोरोना मन की गांठों को खलने का कारण  बनता है …. मन की गाँठ (कोरोना इफेक्ट) साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला। “दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी। “अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं। ” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं। ” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?” ‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।” “तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया। “तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!” “हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।” “चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली– “क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?” “हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?” “बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया। सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।   सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।    उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से। आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।   पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते। सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, … Read more

कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का!

सुधांशु गुप्त जी की कई कहानियाँ पढ़ी हैं और पसंद भी की | उनकी कहानियों में एक खास बात है कि उसका एक बड़ा हिस्सा मन के अन्दर चलता |उनकी कलम किसी खास परिस्थिति में व्यक्ति के मन में चल रहे अंतर्द्वंद को पकडती हैं और उन्हें शब्दश: उकेर देती है | उनकी कहानियों में संवाद इतने नहीं होते जितने मन में बादलों की तरह घुमड़ते हुए विचार होते हैं |मन के अंदर का अंतर्दावंद बेपर्दा होता चलता है | कई बार पाठक हतप्रभ होता है कि अरे ऐसा ही तो सोचते हैं हम |  सच ही तो है कितनी कहानियाँ हमारे मन के अंदर चलती रहती हैं कुछ आगे बढती हैं और कुछ हथेली पर चाँद उगाने जैसे दुरूह स्वप्न की तरह दम तोड़ देती हैं | फिर भी उनका अंत मुक्कमल होता है, हकीकत के करीब | यूँ तो शब्द हमारी भावनाओं को व्यक्त करने में सहायक है पर जो कहा नहीं जाता वो ज्यादा शोर मचाता है …व्यक्ति के मन में भी और पाठक के मन में भी | ऐसी ही कहानी है “कॉफ़ी,  ताज और हरी आँखों वाला लड़का” | कॉफ़ी, ताज और हरी आँखों वाला लड़का तीनों ही इस कहानी के विशेष अंग हैं |  जितना खूबसूरत ये नाम है , कहानी भी उतनी ही खूबसूरत है | जहाँ प्रेम है पर अव्यक्त है, इंतज़ार है पर मैं पहले फोन क्यों करूँ का भाव भी है, कसक है पर शुभकामनायें भी | देखा जाए तो कॉफ़ी एक प्रतीक्षा है ताज एक रूमानी कल्पना तो हरी आँखों वाला लड़का एक हकीकत | कहानी में जान डालती हुई कहीं परवीन शाकिर की पंक्तियाँ हैं तो कहीं पुश्किन की | वैसे तो ये एक खूबसूरत शिल्प में सजी ये महज एक कहानी है पर हो सकता है कि फेसबुक इस्तेमाल करने वाले कई लोगों की हकीकत भी हो | तो आइये रूबरू होते हैं … कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का! तीन दिन हो गए उससे बात हुए। आमतौर पर ऐसा नहीं होता। एक दो दिन में वह ख़ुद फोन कर लेता है या उसका फोन आ जाता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। चाहता तो वह फोन कर सकता था। लेकिन परवीन शाकिर उसे फोन करने से रोकती रहीं। परवीन शाकिर मतलब उनकी कुछ लाइनें-मैं क्यों उसको फोन करूं, उसके भी तो इल्म में होगा, कल शब मौसम की पहली बारिश थी। इसमें पहली लाइन ही उसे काम की लगी। कई बार उसने मोबाइल करने की कोशिश भी कि फिर हाथ पीछे खींच लिए। सोचा क्या बात करेगा। यह भी सोचा कि शायद उसी का फोन आ जाए। जब भी वह ‘मैं क्यों उसको फोन करूं’ की जिद पालता है, उसका फोन आ जाता है। कोई भी गांठ पड़ने से पहले ही गांठ खुल जाती है। कई बार ऐसा भी हुआ कि उसके दिल ने चाहा कि उसका फोन आ जाए और उसका फोन आ गया। वह फोन को बड़ी शिद्दत से देख रहा है। उसका मन कह रहा है कि उसका फोन बस आने वाला ही होगा। पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है। उसके पास बताने के लिए कुछ ख़ास नहीं है। शायद इस बार बताने के लिए उसके पास ही कुछ हो। वह मोबाइल को देख रहा है। देखे जा रहा है। मानो मोबाइल को नहीं उसे ही देख रहा हो। अचानक उसे अहसास हुआ कि उसका फोन बज रहा है। साइलेंट पर होने की वजह से उसे आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। स्क्रीन पर उसका नाम फ्लेश हो रहा था-वन की देवी। ‘हैलो…कितनी देर से बेल जा रही है…आप कहीं बिजी हैं क्या…’ ‘अरे नहीं…वो फोन साइलेंट पर था, इसलिए ध्यान नहीं दिया। बताइये क्या हाल हैं, कैसा चल रहा है सब…’ ‘मैं अच्छी हूं और सब यथावत चल रहा है, नथिंग न्यू..आप बताओ’ ‘यहां भी सब ठीक ही चल रहा है…एक कहानी लिखने की सोच रहा हूं…’ ‘अरे मैं आपको बताना ही भूल गई…आपकी जो कहानी मैं उत्तर प्रदेश पत्रिका में भेजी थी, वह छप गई है…मैं अभी उसका फोटो आपको व्हाट्स अप पर भेज दूंगी…’ ‘थैंक्यू वैरी मच अन्वि जी…’ ‘सिर्फ थैंक्यू से काम नहीं चलेगा…एक कॉफी पिलानी पड़ेगी…’ ‘कॉफी का तो हमारा बहीखाता चल ही रहा है…उसमें जोड़ दो मेरी तरफ एक कॉफी ड्यू हो गई..’ ‘वो तो मैं जोड़ ही दूंगी…लेकिन कॉफी मेरी तरफ ही निकलेंगी…’ ‘उसमें कोई दिक्कत नहीं है…बस हिसाब बराबर नहीं होना चाहिए…’ ‘सच में हिसाब बराबर नहीं होना चाहिए…आपकी तरफ ड्यू हो या मेरी तरफ…लेकिन खाता चलते रहना चाहिए…’ ‘हां खाता तो चलना ही चाहिए….और बताइये कुछ नया लिखा…’ ‘नहीं, अभी तो पुराना ही एन्ज्वॉय कर रही हूं…आपने कोई कहानी लिखी…’ ‘मैंने भी नहीं लिखी, लेकिन सोच रहा हूं, जल्दी ही आपको नई कहानी पढ़ने को मिलेगी…’ ‘गुड…कहानी लिखकर सबसे पहले मुझे ही मेल करना…’ ‘बिल्कुल, आपको ही करूंगा…,’ और कौन है जिसे कहानी मेल की जा सके, यह उसने सोचा, कहा नहीं। ‘मैं तो आजकल पुश्किन की कविताएं पढ़ रही हूं…मुझे यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि महज 37साल की उम्र में वह मर गया और पूरी दुनिया में अपनी कविताओं के लिए जाना जाता है…’ ‘पुश्किन बड़े कवि हैं…उनकी कुछ पंक्तियां सुनाऊं..’ ‘बिल्कुल सुऩाइये…इसमें पूछने की भला क्या बात है’ ‘विदा, प्रिय प्रेम पत्र, विदा, यह उसका आदेश था, तुम्हें जला दूं मैं तुरंत ही, यह उसका संदेश था, कितना मैंने रोका ख़ुद को, कितनी देर न चाहा, पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह…’ ‘वाह…क्या बात है…बहुत सुंदर…’ ‘और भी बहुत सारी कविताएं हैं….’ ‘चलिए आप पढ़िए..और अच्छी कविताएं शेयर करिए…’ ‘वो तो करूंगी ही..अभी फिलहाल मैं आपकी कहानी भेज रही हूं व्हाट्स अप पर..’ ‘जी शुक्रिया…’ ‘शुक्रिया की कोई बात नहीं है आकाश…आपकी तरफ एक कॉफी लिख दी है मैंने….अब एक दो रोज़ में बात होगी…बॉय…’ ‘बॉय…’ उधर से फोन कट गया और वह फोन को हाथ में लिए इस तरह बैठा रहा मानो अभी बहुत कुछ कहना शेष हो। अब उसके पास करने को कुछ भी शेष नहीं है। आज उसकी छुट्टी है। अख़बार में नौकरी करने वालों के लिए छुट्टी  मुश्किल से बीतती है। वह दिल्ली में रहता है, सूचनाओं की नगरी में। एक अखबार में साहित्य का पेज देखता है। अन्वि आगरा में … Read more

मज़हब

प्रेम का कोई मजहब  नहीं होता |प्रेम अपने आप में एक मजहब  है | लेकिन क्या समज ऐसा होने देता है ? क्या धर्म की दीवारे दो प्रेमियों को एक होने से रोकती हैं | क्या धर्म परिवर्तन ही प्रेम को पा लेने का एक मात्र विकल्प है और अगर ये  विकल्प है तो अक्सर यह कारगर साबित नहीं होता | आइये पढ़ें इसी विषय पर मृणाल आशुतोष जी की हृदयस्पर्शी कहानी …. मज़हब ” ख़ुदा के वास्ते फोन मत रखना!” आवाज़ सुनते ही मैं समझ गया कि रुखसाना का फोन है। फिर भी बिना जवाब दिए मैं फोन काटने ही वाला था कि ‘ तुझे महादेव की सौगन्ध’ कानों में गूँज उठा और मेरे सामने काशी विश्वनाथ मन्दिर प्रकट से गये। उसका तीर निशाने पर बैठा और मुझे जबाब देना ही पड़ा,”बोलो, क्या चाहती हो तुम?” “अभी कहाँ हो तुम?” आदत अभी भी बदली नहीं थी। सवाल के जबाब में सवाल। ” यही शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर। मिश्रा केमिकल्स के कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है।” “आधे घण्टे रुको। मैं आ रही हूँ।” “क्यों आ रही हो?” “आखिरी बार तुमसे मिलने!” “मुझे लगता है कि हम दोनों आखिरी बार मिल चुके हैं। अब मिलने का कोई फायदा नहीं।” “यह आखिरी ही होगा अगर तुम मेरे न हो सके तो।” “अब यह मुमकिन नहीं।” पर उधर से फोन कट हो चुका था। मैं सोच में पड़ गया था कि रुखसाना को मेरा नम्बर आखिर मिला तो मिला कहाँ से? उसी से बचने के लिये तो मैने अपने दोनों नम्बर बन्द कराए। यहाँ तक कि घर भी बदल लिया। फिर उसे नम्बर मिला कहाँ से? यह उधेड़बुन चल ही रहा था कि पीठ पर धप्प से एक हाथ पड़ा। पता तो था ही कि यह हाथ उसके अलावा और किसी का नहीं हो सकता। “तुम यह सोच रहे होगे कि मैंने तुम्हारा नम्बर कैसे निकाला?” “हाँ। बिल्कुल, यही सोच रहा था।” “आखिरी बार मिलने के बाद तुम्हारा फोन लगातार बन्द आ रहा था। तुम्हारे घर पर भी गयी तो पता चला कि तुमने घर बदल लिया।” “हाँ, नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिये यह बहुत जरूरी था।” “बहुत अच्छा किया तुमने।” उसके दर्द को मैं महसूस कर रहा था। “नम्बर कहाँ से मिला? यह बता दोगी तो मेहरबानी होगी।” “सावन का महीना आ गया था। मुझे पता था कि तुम्हारी माँ सोमवार को विश्वनाथ मन्दिर जरूर आयेंगी तो सवेरे से ही मंदिर के गेट पर इंतज़ार कर रही थी। उनके आते ही पैर पकड़ ली और उनको कसम भी दे दी कि तुमको यह वाकया बताये नहीं। पर तुम इतने खडूस हो कि अलग अलग नम्बर से फोन करने के बाद भी फोन नहीं उठा रहे थे।” “अब हम कुछ मतलब की भी बात कर लें ताकि मैं भी अपने ऑफिस का कुछ काम कर सकूँ।” “तुम मुझसे शादी करोगे या नहीं?” “इसका जबाब तुमको पहले ही दे चुका हूँ।” “जब तुम्हारी माँ को कोई दिक्कत नहीं है तो तुम क्यों बड़े पण्डित बन रहे हो!” “माँ को तुमने कैसे पटाया है, मुझसे बढिया से पता है। पर मैं अपना धर्म नहीं बदलूँगा तो किसी भी कीमत पर नहीं बदलूंगा।” “मैं ही तुमसे एकतरफा मोहब्बत करती रही। सच तो यह है कि तुमने कभी मुझसे इश्क किया ही नहीं।” “तुम्हारी बातों में कितनी सच्चाई है, तुम्हरा दिल जानता है।” “मेरी खाला की ननद ने भी किसी पण्डित से प्यार किया था। फिर उसने निकाह के लिये धर्म बदला कि नहीं बदला! और एक तुम हो!” “मेरे लिये धर्म बदलना, बाप बदलने के बराबर है।” “सच तो यह है कि दोस्तों की सोहबत में आकर तुम्हें मेरे धर्म से नफरत हो गयी है।” “नफरत! हम किसी से नफरत नहीं करते।” मैं बात जल्दी से जल्दी खत्म करना चाह रहा था पर वह अपने शर्तों पर जीत हासिल करने की हरसम्भव कोशिश कर रही थी। जबकि उसे भी यह पता था कि यह मुमकिन नहीं! “अब तुम्हें पंडित होने का कुछ ज्यादा ही घमण्ड हो गया है।” “घमंड तो बिल्कुल नहीं है पर हाँ, गर्व जरूर है।” “क्या तुम मेरी खातिर, अपनी मुहब्बत की खातिर इतना भी नहीं कर सकते!” “आज़मा कर देख लेना। जरूरत पड़ने पर जान भी दे सकता हूँ!” “जान दे सकते हैं पर शादी के लिये धर्म नहीं बदल सकते। हुँह!” अब रुखसाना की आँखें नम होने लगी थीं। “एक बात बताओ। मैंने कभी तुमको कहा कि अपना धर्म बदल लो।” “तुम्हारे धर्म में ऐसी कट्टरता नहीं है न! मेरे मज़हब को तो तुम समझते हो न!” “हाँ, समझता हूं। तभी तो कह रहा हूँ  कि तुम अपने मज़हब का पालन करो और मुझे अपने धर्म का पालन करने दो।” “तो इसका मतलब यह हुआ कि आखिरकार तुम जीत ही गये “ “काश कि मैं जीत पाता! “…..” ” न मैं जीता और न ही तुम जीती! अलबत्ता मज़हब के जंग में मुहब्बत जरूर हार गई।” उसकी आँखें उसके अधरों को भिंगोने लगी थी। मेरे लिये यह देख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। बहुत हिम्मत जुटा कर उसके होंठ हिले,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे!” मुझे लगा कि अब मैं भी फूट पडूँगा पर बड़ी मुश्किल से अपने ऊपर काबू रख पाया। उसने फिर दोहराया,”आखिरी रुखसत से पहले गले नहीं मिलोगे क्या!” “गैर मर्द से गले मिलते हैं क्या?” अब आँसू बेकाबू हो गये और बोझिल कदमों से मैं ऑफिस की ओर भागा। एक चीख की आवाज़ सी आयी पर अब मुड़कर देखने की हिम्मत मुझमें न थी। *** मृणाल आशुतोष जिला-समस्तीपुर (बिहार) पिन-848210 मोबाईल: 91-8010814932 ईमेल- mrinalashutosh9@gmail.com यह भी पढ़ें … नया ज़माना आएगा नीलकंठ आपको कहानी ‘मजहब’ कैसी लगी| अपने विचारों से हमें जरूर अवगत करायें | filed under-love story, religion, hindu-muslim

“हाँ…नपुंसक हूँ मैं”

राजीव तनेजा जी एक ऐसे व्यंगकार जो आस पास की घटनाओं से ताना -बाना उठाकर व्यंग -कथा को बुनते हैं | उनकी हर व्यंग कथा हौले से एक तीखा प्रहार करती है | वो जितनी अच्छी व्यंग कथा लिखते हैं उतनी ही कहानी भी लिखते हैं | हम सब ने अपने जीवन में कभी न कभी आत्मसंवाद अवश्य किया होगा | इसी के माध्यम से हम सही निर्णय पर भी पहुँचते हैं | प्रस्तुत कथा “हाँ…नपुंसक हूँ मैं”में भी आत्मसंवाद के जरिये वह उस कमजोर व्यक्ति के पक्ष में खड़े होते है जो भले ही किसी अपराध को रोक पाने में सक्षम ना हो पर किसी भी परिस्थिति में स्वयं अपराध नहीं करता |आइये पढ़ते हैं उनकी कहानी … “हाँ…नपुंसक हूँ मैं” बचाओ…बचाओ…की आवाज़ सुन अचानक मैं नींद से हड़बड़ा कर उठ बैठा। देखा तो आस-पास कहींकोई नहीं था। माथे पर उभर आई पसीने की बूँदें चुहचुहा कर टपकने के मूड में थी।घड़ी की तरफ नज़र दौड़ाई तो रात के लगभग सवा दो बज रहे थे।पास पड़े जग से पानी का गिलास भर मैं पीने को ही था कि फिर वही रुदन…वही क्रंदन मेरे अंतर्मनमेंपुन:गूंज उठा।कई दिनों से बीच रात इस तरह की आवाजें मुझे सोने नहीं दे रही थी।अन्दर ही अन्दर मुझेअपराध भाव खाए जा रहा था कि उस दिन..हाँ..उस दिन अगर मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो शायद आज मैं यूँ परेशान ना होता।जो हुआ…जैसा हुआ…बहुतअफ़सोसहै मुझे लेकिन मैं अकेला…निहत्था उन हवस के भेड़ियों से उसे बचाता भी तो कैसे?   “क्यों!…शोर तो मचा ही सकते थे ना कम से कम?”मेरे  अन्दर का ज़मीर बोल पड़ा। “कोशिश भी कहाँ की थी तुमने?ज़बान तालू से चिपक के रह गई थी ना?बोल ही नहीं फूट रहे थे तुम्हारी ज़ुबान से।एक ही झटके मेंअपना पाँव छुड़ाक रचल दिए थे।क्यों!…यही सोचा था ना कि..कोई मरे या जिए…क्या फर्क पड़ताहै?” अंतर्मन का खुंदक भरा स्वर।   “हाँ!..नहीं पड़ता है कोई फर्क मुझे…कौन सा मेरी सगे वाली थी जो मैं फ़िक्र करता?”तैश में आ मुझेबोलनापड़ा।   “तुम में इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ है कि नहीं?वैसे!..अगर तुम्हारी सगे वाली होती तो तुम क्या करते?बचाते क्या उसे?” अंतर्मन पूछ बैठा।   “श्श…शायद नहीं।” अकबकाते हुए मैंने जवाब दिया।   “क्यों? क्या तुम्हारा फ़र्ज़ नहीं बनता था किसी मुसीबत में पड़े हुए की जान बचाना?   “हुंह!…तुमने कहा और हो गया?मुझे क्या ज़रूरत पड़ी थीकिसी के फटे में टांग अड़ानेकी?क्या मैंने कहा था उसेकि यूँ..देर रात…फैशन कर के बाहर सड़क पे आवारा घूमो?”मैंने तड़प कर जवाब दिया। “अब निबटो इन सड़क छाप लफूंडरों से खुद ही..मैं  तो चला अपने रस्ते।कौन पड़े पराए पचड़ेमें?” मेरे बड़बड़ाना जारी था।   “हुंह!…कौन पड़े पराए पचड़े में…ये सोच तुम तो पतली गली से खिसक लिए थे और वो बेचारी, बस दयनीय…कातर नज़रों से आँखो में आँसू लिए तुम्हें मदद को पुकारती रही।” अंतर्मन की आवाज़ में करुणा थी।   “तो?” मेरा अक्खड़ सा जवाब।   “तो से क्या मतलब?कुछ फर्ज़ नहीं बनता था तुम्हारा?”अंतरात्मा ने धिक्कारा।   “बिना बात के मैं पंगा क्यों मोल लूँ?”बिना किसी लाग लपेट के मैंनेजवाब दिया।   “अगर कोई बात होती तो क्या पंगा लेते?” अंतर्मन ने फिर सवाल दाग दिया।   “श्श…शायद नहीं।“   “क्यों?” प्रश्नचिन्ह की मुद्रा अपना अंतर्मन ने फिर सवाल किया।   “यही घुट्टी में घोल-घोल पिलाया गया है हमें बचपन से किअपने मतलब से मतलब रखो।दूसरे के फटे में खामख्वाह टांग ना अड़ाओ।तो तुम्हीं बताओ..कैसे मैं अड़ा देता?” अपनी बात को जायज़ ठहराने की कोशिश कीमैंने।   “ओह!…   “और वैसे भी किस-किस को और क्यों बचाता फिरूँ मैं?हर जगह तो यही हाल है।अब उस दिन की ही लो, क्या मैंने कहा था शर्मा जी से कि बैंक से मोटी रकम निकलवाओ और फिर पलाथी मार वहीं सड़क के मुहाने बैठ गिनती गिनने लगो?”   “हम्म!…   “अब यूँ शो-ऑफ करेंगे तो भुगतना तो उन्हें ही पड़े गाना?” मैंनेसफाई दी।   “हम्म!…   “पता भी है कि ज़माना कितना खराब है लेकिन फिर भी…पड़ गए थे ना गुण्डे पीछे?हो गई थी ना तसल्ली?जब पहले ही कुछ नहीं सोचा तो फिर बाद में बचाओ-बचाओ करकाहे मदद को चिल्लाते थे?मालुम नहीं था क्या कि कोई नहीं आएगा बचाने को। सबको अपनी जान प्यारी है।”   “ओह!…   “ऊपर से पागलपन देखो…लगे हाथ अपना आई फोन इलेवन निकाल 100 नम्बर घुमाने लगे। डॉक्टरने कहा था कि हर जगह अपनी शेखी बधारो?फोन का फोन गया और दुनिया भर के सवाल-जवाब अलगसे।“   “मतलब?”   “यही कि कितने का लिया था?बिल वाला है कि प्रीपेड? इंश्योरेंस है कि नहीं? वारेंटी है या नहीं और अगर हैतो कितने महीने की बची है? किश्तें सारी भर दी या कुछ अभी भी बाकीहैं?कोई प्राब्लम तो नहीं हैना? और अगर है तो अभी के अभी साफ़ साफ़ बोल दो।“   “अजी!…प्रॉब्लम किस बात की? अभी कुल जमा दो महीने पहले ही लिया है नंबर एक में पूरे पचहतर हज़ार काऔरकिश्तें?…किश्तें तो मेरे बाप-दादा ने भी आज तक कभी नहीं बनवाई किसी भी चीज़ की।“   “और कोई ख़ास बात?”   “हाँ!…है क्यों नहीं?इसकी कैमरा क्वालिटी तो बस पूछो मत…   “बस..बस पहले आराम से लुट पिट लो,बाद में तसल्ली से सारी खूबियाँ बताते रहना।“ लुटेरे बड़े इत्मीनान और कॉन्फिडेंस से बोले थे।   “ओह!…   “जब तक बात समझ आती तब तक वोसब वहाँ से फोन छीन के रफूचक्कर हो चुके थे।”   “ओह!…   “बाद में ‘पुलिस…पुलिस’ चिल्लाने से क्या फ़ायदा जब चिड़िया चुग गयी खेत?”   “हम्म!…कभी टाईम पे आई भी है पुलिस जो उस दिन आ जाती?”   “और नहीं तो क्या।जिसे पुकार रहे थे, उसी की शह पर तो होता है ये सब।“   “हम्म!…सैंया भए कोतवाल तो अबडर काहे का?”   “बिलकुल…फिक्स हिस्सा होता है इनका हर एकचोरी-चकारी..हर एक राहजनी में।हर जेब तराशी में..हर अवैध धन्धे में।”   “हाँ!..इन्हें पता तो सब रहता है कि फलानी-फलानी जगह पर फलाने-फलाने बंदेने फलानी-फलानी वारदात को अंजाम दिया है।”   “हम्म!…चाहें तो दो मिनट में ही चोर को माल समेत थाने में चाय-नाश्ते पे बुलवा लें।ये चाहें तो शहर में हर तरफ अमन और शांति का माहौल हो जाए।अपराधियों की जुर्म करने के नाम से ही रूह तक काँप उठे।” मेरा बड़बड़ाना जारी था।   “छोड़ोये बेकार में इधर-उधर की बातें…सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते … Read more

दोस्ती

  कोई भी रिश्ता हो अगर वहां दोस्ती का भाव हो तो वो रिश्ता अच्छा होता है | पति -पत्नी के रिश्तों में अक्सर अपेक्षाओं का बोझ होता है | क्या ही अच्छा हो कि दोनों एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त हों | ऐसी ही प्यारी सी कहानी ले कर आयीं हैं रश्मि वर्मा जी जहाँ  रिश्ता शादी की पहली रात ही अटक गया …लेकिन  फिर ऐसा क्या हुआ कि कहानी -दोस्ती  आकांक्षा अपने आप में सिमटी हुई सजी हुई दुल्हन बनी सेज पर पिया के इंतज़ार में घड़ियां गिन रही थी। अचानक दरवाज़ा खुला, आकांक्षा की धड़कनें और बढ़ गईं। पर यह क्या? अनिकेत अंदर आए। दूल्हे के भारी-भरकम कपड़े बदले और नाइटसूट पहन कर बोले, “आप भी थक गई होंगी। प्लीज़, कपड़े बदलकर सो जाएं. मुझे भी सुबह ऑफ़िस जाना है।” आकांक्षा का सिर फूलों और जूड़े से पहले ही भारी हो रहा था, आंखें बंद-बंद हो रही थीं। सुनकर झटका लगा, पर कहीं राहत की सांस भी ली। अपने सूटकेस से ख़ूबसूरत नाइटी निकालकर पहनी और वो भी बिस्तर पर एक तरफ़ लुढ़क गई। अजीब थी सुहागसेज। दो अनजान जिस्म जिन्हें एक करने में दोनों के परिवारवालों ने इतनी ज़हमत उठाई थी, बिना एक हुए ही रात गुज़ार रहे थे। फूलों को भी अपमान महसूस हुआ, वरना उनकी ख़ुशबू अच्छे-अच्छों को मदहोश कर दे। अगले दिन नींद खुली तो देखा कि अनिकेतऑफ़िस के लिए जा चुके थे। आकांक्षा ने एक भरपूर अंगड़ाई लेकर घर का जायज़ा लिया। दो कमरों का फ़्लैट, बालकनी समेत, अनिकेत को ऑफ़िस से मिला था। अनिकेत एयरलाइन में काम करता है। कमर्शियल विभाग में। आकांक्षा भी एक छोटी सी एयरलाइन में परिचालन विभाग में काम करती थी। दोनों के पिता आपस में दोस्त थे और उनका यह फ़ैसला था कि अनिकेत और आकांक्षा एक दूसरे के लिए परफ़ेक्ट मैच रहेंगे। आकांक्षा को पिता के फ़ैसले से कोई आपत्ति नहीं थी। पर अनिकेत ने पिता के दबाव में आकर विवाह का बंधन स्वीकार किया था। आकांक्षा ने ऑफ़िस से एक हफ़्ते की छुट्टी ली थी। सबसे पहले किचन में जाकर एक कड़क चाय बनाई, फिर चाय की चुस्कियों के साथ घर को संवारने का प्लान बनाया। शाम को अनिकेत के लौटने पर घर का कोना-कोना दमक रहा था। जैसे अनिकेत ने घर में क़दम रखा, एक सुरुचि से सजे घर को देखकर लगा क्या यह वही घर है जो रोज़ अस्तव्यस्त होता था। खाने की ख़ुशबू भी उसकी भूख को बढ़ा रही थी। आकांक्षा चहकते हुए बोली, “आपका दिन कैसा रहा?”“ठीक।” एक संक्षिप्त सा उत्तर देकर अनिकेत डाइनिंग टेबल पर पहुंचे। जल्दी से खाना खाया और सीधे बिस्तर पर। औरत ज़्यादा नहीं पर दो बोल दो तारीफ़ के चाहती ही है, पर आकांक्षा को वे भी नहीं मिले। पांच दिन तक यही दिनचर्या चलती रही। छठे दिन आकांक्षा ने सोने से पहले अनिकेत का रास्ता रोक लिया। “आप प्लीज़ पांच मिनट बात करेंगे?” “मुझे सोना है,”अनिकेत ने चिर-परिचित अंदाज़ में बोला। “प्लीज़, कल से मुझे भी ऑफ़िस जाना है। आज तो पांच मिनट निकाल लीजिए।” “बोलो, क्या कहना चाहती हो,”अनिकेत अनमने भाव से बोले। “आप मुझसे नाराज़ हैं या शादी से?” “क्या मतलब?” “आप जानते हैं मैं क्या जानना चाहती हूं।” “प्लीज़ डैडी से बात करो, जिनका फ़ैसला था।” “पर शादी तो आपने की है?” आकांक्षा को भी ग़ुस्सा आ गया। “जानता हूं। और कुछ?”अनिकेत चिढ़कर बोला। आकांक्षा समझ गई कि अब बात सुलझने की जगह बिगड़ने वाली है। “क्या यह शादी आपकी मर्ज़ी से नहीं हुई है?” “नहीं। और कुछ?” “अच्छा, ठीक है। पर एक विनती है आपसे।“ “क्या?” “क्या हम कुछ दिन दोस्तों की तरह रह सकते हैं?” “मतलब?”अनिकेत को आश्चर्य हुआ। “यही कि एक महीने बाद मेरा इंटरव्यू है। मुझे मेरा लाइसेंस मिल जाएगा, और फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चली जाऊंगी। तीन साल के लिए। उस दौरान आपको जो उचित लगे, वो फ़ैसला ले लीजिएगा। यक़ीन मानिए आपको कोई परेशानी नहीं होगी।” अनिकेत तो इसमें कोई आपत्ति नहीं लगी। हां, अब दोनों साथ-साथ नाश्ता करने लगे। शाम को घूमने भी जाने लगे। होटल, रेस्तरां, यहां तक कि सिनेमा भी।  आकांक्षा कॉलेज गर्ल की तरह ही कपड़े पहनती थी, न कि नई-नवेली दुल्हन की तरह। उन्हें साथ देखकर कोई युगल प्रेमी समझ सकता था, पर पति-पत्नी तो बिल्कुल नहीं। कैफ़े कॉफ़ी डे हो या काके दा होटल, दोस्तों के लिए हर जगह बातों का अड्डा होती हैं। और आकांक्षा के पास तो बातों का ख़ज़ाना था। धीरे-धीरे अनिकेत को भी उसकी बातों में रस आने लगा। उसने भी अपने दिल की बातें खोलनी शुरू कर दीं। एक दिन रात को ऑफ़िस से अनिकेत लेट आया और उसे ज़ोरों से भूख लगी थी। घर में देखा तो आकांक्षा पढ़ाई कर रही थी। खाने का कोई अता-पता नहीं था। “आज खाने का क्या हुआ?” “सॉरी। आज पढ़ते-पढ़ते सब भूल गई।“ “वो तो ठीक है। पर अब क्या?” “एक काम कर सकते हैं।” आकांक्षा को आइडिया आया। “मैंने सुना है मूलचंद फ़्लाईओवर के नीचे आधी रात तक परांठे और चाय मिलती है। क्यों न आज हम वही ट्राई करें?” “क्या?”अनिकेत का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। “हां, हां। मेरे ऑफ़िस के काफ़ी लोग जाते रहते हैं। आज हम भी चलते हैं।“ “ठीक है। कपड़े बदलो। चलते हैं।” “अरे, कपड़े क्या बदलने हैं? ट्रैक सूट में ही चलती हूं। बाइक पर बढ़िया रहेगा। हमें वहां कौन जानता है?” अनिकेत ने फ़टाफ़ट बाइक दौड़ाई। मूलचंद पर परांठे-चाय अनिकेत के लिए भी बिलकुल अलग अनुभव था। आख़िर वो दिन भी आ ही गया जब आकांक्षा का इंटरव्यू था। सुबह-सुबह घर का काम निबटाकर आकांक्षा फ़टाफ़ट डीजीसीए के लिए रवाना हो गई।वहां उसके और भी साथी पहले से ही मौजूद थे। नियत समय पर इंटरव्यू हुआ। आकांक्षा के जवाबों ने एफ़आईडी को भी ख़ुश कर दिया। उन्होंने कहा, “जाइए, अपने दोस्तों को भी बताइए कि आप सब पास हो गए हैं।” आकांक्षा दौड़ते हुए बाहर आई और फ़िल्मीअंदाज़ में टाई उतारकर बोली, “हे गाइज़! वी ऑलक्लियर्ड।” बस जश्न का माहौल बन गया। ख़ुशी-ख़ुशी सब बाहर आए। आकांक्षा सोच रही थी कि बस ले या ऑटो। तभी उसका ध्यान गया कि पेड़ के नीचे अनिकेत उसका इंतज़ार कर रहे हैं। आकांक्षा दौड़ती हुई … Read more

नया जमाना आयेगा

ज़माने के बारे में दो कथन आम तौर पर प्रचलन में हैं | एक तो “ज़माना बदल गया” है और दूसरा “नया  ज़माना आएगा”| पहले में जहाँ निराशा है, दूसरे में उत्साह …उनकी जिन्दगी में जहाँ बहुत कुछ थम गया है| काई सी जम गयी है, जरूरी है जीवन धारा के सहज प्रवाह के लिए  पुरानी रूढ़ियों और गलत परम्पराओं की सफाई | ऐसा ही “नया जामाना” ले कर आने की उम्मीद जाता रही है सशक्त कथाकार  सपना सिंह की कहानी | सपना जी की कहानियों में ख़ास बात ये है कि उनके पात्र हमारे आस -पास के ही होते हैं और वो बहुत सहजता से उन्हें अपने शब्दों में जीवंत कर देती हैं | प्रस्तुत कहानी में नए जमाने की आहट तो है ही …कहानी सास-बहु के संबंधों की भी नयी व्याख्या करती है |                  नया जमाना आयेगा पापा ,मम्मी ,चाचा ,चाची ,मझले मामा सभी हॉल में बैठे थे ।बीच-बीच में पापा की तेज आवाज हॉल की सीमा लांघ भीतरी बरामदे तक आ रही थी । ‘ आखिर दिखा दी ना अपनी औकात !हमें कुछ नहीं चाहिए, यही कहा था ना उन्होंने पहली मुलाकात में।’       ‘ मैंने तो पहले ही बताया था आपको जीजाजी। इस औरत ने अपने ससुराल वालों को कोर्ट में घसीटा था संपत्ति के लिए ।’मझले मामा की आवाज़ थी ” भला भले घर की औरतें ऐसा करती हैं”  ” आप लोग शांत हो जाइए “मम्मी की चिंतातुर आवाज,” आखिर क्या बात हुई है, कुछ बताइएगा भी” ” अरे बात क्या होगी ?वही नाक ऐसे ना पकड़ी वैसे पकड़ ली।”  ओफ हो ,आप साफ-साफ बताइए क्या कहा अपर्णा जी ने “अब मम्मी झल्ला गई थीं । ” बुढि़या सठिया गई है । हमने तो पहले ही कहा था अपनी मांग साफ-साफ बता दीजिए , जिससे बाद में कोई लफड़ा ना रहे ।पर तब तो बड़ी सॉफिस्टिकेटेड  बनकर बोली थी ,हमें सिर्फ लड़की चाहिए और कुछ नहीं ।” पापा ने तीखे स्वर में कहा । “तो फिर अब क्या हो गया?” ” अब ? अरे अपने IAS बेटे को भला ऐसे कैसे ब्याह देगी ।लगता है कोई ऊंची बोली लगा गया है इसलिए इतना बड़ा मुंह फाड़ रही है बुढि़या। ” चाचा की आवाज में चिढ़ और गुस्सा स्पष्ट था । ” हम लोग लड़की वाले हैं हमें शांति से काम लेना चाहिए । लड़का लाखों में एक है । फिर हम कब लड़की को ऐसे ही विदा करने वाले थे । भले ही उन्होंने लेने को मना किया हो पर हमें तो अपने सारे अरमान निकालने थे । हमारे एक ही तो बच्ची है । “चाची ने अपने शांत स्वभाव के अनुरूप ही शांति वाला प्रस्ताव रखा । बरामदे में बैठी मैं उनकी बातें सुनकर गुस्से से उबल रही थी । उठ कर अपने कमरे में आ गई ।अनुपम की मम्मी ऐसा करेंगी मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।  उन्होंने मेरी ,मेरी फैमिली की ऐसी इंसल्ट की । पापा तो वहां रिश्ता करने को तैयार ही नहीं थे । क्या हुआ जो लड़का IAS है ।कोई फैमिली बैकग्राउंड नहीं है । लड़के की मां भी बेहद तेज तर्रार औरत है ।पति की मौत वर्षों पहले हो गई थी । ससुराल से कोई रिश्ता नहीं रक्खा। मायके मे भी किसी से नहीं पटी। अकेले ही बच्चों को बडा़ किया, पढा़या लिखाया।   मोबाइल की घंटी ने मेरा ध्यान भंग कर दिया ।अनुपम का फोन था ,मैंने काट दिया। अफसोस भी हुआ । अपने व्यस्त शेड्यूल से किसी तरह समय निकालकर तो उसने फोन किया होगा ।पर अभी उससे बात करने का मन नहीं । क्या पता मां की इच्छा में बेटे की इच्छा भी शामिल हो । हिप्पोक्रेट मां बेटे ।  मुझे अनुपम की मम्मी से पहली मुलाकात याद हो आई ।अनुपम से मेरी अच्छी बनती थी ।उसके साथ में मै खुद को कंफर्टेबल और खुश महसूस करती थी । हमारी दोस्ती रिश्ते तक पहुंचेगी या हम भविष्य में साथ-साथ जीवन जीना चाहेंगे ,कॉलेज की पढ़ाई के दौरान हमने यह सब नहीं सोचा था । हम बस इतना ही जानते थे कि एक दूसरे के साथ हमें सुकून और साहस देता था । अनुपम का सुलझा हुआ जमीनी व्यवहार  मुझे बहुत अच्छा लगता। उसके व्यवहार मे एक ठहराव था। बीए के बाद अनुपम दिल्ली चला गया और मैं इलाहाबाद में ही रह गई । हम फोन द्वारा संपर्क में रहते । मैं उसे दिल्ली की लड़कियों को लेकर चिढ़ाती । वह इलाहाबाद आने पर मुझसे जरूर मिलता ।उसका एम ए. कंप्लीट हो गया था ।उसने मास कम्युनिकेशन ज्वाइन कर लिया था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी जोरों पर थी । उसी दौरान दिवाली की छुट्टी में सिर्फ 2 दिन के लिए इलाहाबाद आया था अनुपम । दिवाली की पूर्व संध्या पर हम सिविल लाइंस में टहल रहे थे ।अचानक उसने पूछा था  ‘मेरे घर चलोगी कवि , मेरी मम्मी से मिलने ?’ ‘हां क्यों नहीं’ उस दिन उसकी आवाज में जाने क्या था कि, पहली बार उसके बाइक पर पीछे बैठते में मैं संकोच से भर गई थी ।  दुबली पतली लड़कियों जैसी फिजिक वाली उसकी मम्मी ने सहज हंसी बिखेरकर मेरा स्वागत किया था । उनकी चमकदार आंखें और होठों पर खिली निश्चल मुस्कान किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की क्षमता रखते थे । पापा ,मामा और चाचा कैसे  उन्हें खडूस हिप्पोक्रेट बुढि़या की पदवी से नवाज रहे थे । कैसे अपशब्द बोल रहे थे । उनके वह शब्द और अनुपम की मम्मी का व्यक्तित्व कहीं से भी दोनों का कोई साम्य नहीं था । क्या उनका वह प्यार ,वह समझदारी और उदारता सिर्फ बाहरी आवरण था । भीतर से वह भी एक सनातन ,बेटे की मां थीं, एक लायक बेटे की मां , जो अपने सारे ख्वाब सारे सपने अपने बेटे की शादी में कैश कराना चाहती हैं । पर आखिर कितना बड़ा मुंह फाड़ा है उन्होंने, जो पापा लोग बौखला गए हैं । पापा तो कितनी दुलार से कहते थे ,मेरी शादी में वह इतना धूम मचा देंगे …सारा शहर वर्षों याद करेगा । आखिर पापा के बूते से बाहर क्या मांग रख दी अनुपम की मम्मी ने ।सोच-सोचकर मेरा सिर फटा जा रहा था ।  अनुपम … Read more

नीलकंठ

प्रेम, सृष्टि की सबसे पवित्र भावना, ईश्वर का वरदान, संसार की सबसे दुर्लभ वस्तु …कितनी उपमाएं दी गयीं हो प्रेम को पर स्त्री के लिए ये एक वर्जित फल ही हैं …खासकर विवाहित स्त्री के लिए | समाज द्वारा मान लिया है कि विवाह के बंधन में प्रेम का पुष्प खिल ही जाता है | परतु विवाहित स्त्री के रीते मन पर अगर ये पुष्प सामाजिक मान्यता के विपरीत  खिल जाए तो …तो ये एक हलाहल है जिसे अपने कंठ में रख निरंतर विष पीती रहती है स्त्री | हमारे आस –पास कितनी स्त्रियाँ के  गरल पिए हुए स्याह पड़े कंठ हम देख नहीं पाते |  आज अक्सर कहानियों में देह विमर्श की बात होती है, परन्तु देह से परे भी प्रेम है जो सिर्फ जलाता, सुलगाता है और उस विष के साथ जीवन जीने को विवश करता है| सच्चाई ये है कि तमाम देह विमर्शों के परे  स्त्री मन का यह बंद पन्ना दबा ही रह जाता है| इस पर पुरुष साहित्यकारों की दृष्टि बहुधा नहीं पड़ती और स्त्रियाँ भी कम ही कलम चलातीं हैं | आज पढ़ते हैं उसी गरल को पी नीलकंठ बनी स्त्री की दशा पर लिखी गयी सोनी पाण्डेय जी की मार्मिक कहानी …         नीलकंठ     अच्छा यह बताओ आप कि आज बात बे बात इतना मुस्कुरा क्यों रही हो ? प्रिया ने पायल को झकझोरते हुए कहा। पायल मुस्कुरा कर रह गयी।आदतन प्रिया ने दाँत कटकटाते हुए बनावटी गुस्से में चिल्ला कर पूछा- बता दो की तुम इतना क्यों मुस्कुरा रही हो? पायल अब पत्रिका से मुँह ढ़क कर हँसने लगी।प्रिया उसके पैरों पर सिर रख ज़मीन पर बैठ गयी…मेरी अम्मा, मेरी दीदी,मेरी बहन जी…प्लीज बता दो!..मनुहार करते उसकी आँखें भर आईं थीं। पायल को दया आ गयी,सिर पर हाथ रख कर दुलारते हुए कहा…तुम बहुत जिद्दी लड़की हो, हठ कर बैठ जाती हो किसी भी बात पर। उसका गाल सहलाते हुए वह फिरसे मुस्कुरा उठी। इस बार प्रिया ने तुनक कर कह ही दिया…आपको बताना ही होगा,ऐसे तो आपको पिछले आठ साल में अकेले बैठकर मुस्कुराते नहीं देखा।गले में हाथ डाल कर कहा….पता है, ऐसे लड़कियाँ प्रेम होने पर मुस्कुराती हैं। पायल को जैसे हजारों वॉल्ट का करेंट का झटका एक साथ लगा हो ,वह सिहर उठी , यह पच्चीस साल की लड़की इतनी अनुभवी है कि मन के कोने में उपजी एक मध्यम सी लकीर जो होठोंं तक अनायास खिंची चली आ रही है को पढ़ लेती है।वह झट पत्रिका को समेट पर्स में रख खड़ी हो गयी। प्रिया पैर पटकती उसके पीछे पीछे चलने लगी…बता दीजिए न प्लीज पायल मैम! पायल के चेहरे पर तनाव उभर आया था, उसने लम्बी साँस लेते हुए कहा, “आज एक कहानी पढ़ी,उसी को सोच-सोच कर मुग्ध हो रही हूँ प्रिया।” प्रिया ने मुँह बिचका लिया….बस इतना ही,बक्क! आप बहुत खराब हैं।मैंने तो सोचा… पायल उसके मुँह से अगला शब्द निकले उससे पहले ही टोकते हुए रोकने लगी।प्लीज प्रिया,एक भी फालतू शब्द मत बोलना,जानती हो यहाँ दीवारों के बहत्तर कान हैं और मैं खामाखां मुसीबत में पड़ जाउंगी। पायल  का दिल धौंकनी की तरह धड़क रहा था…माथे पर पसीने की बूदें चुहचुहाने लगीं,पेट में गुड़गुड़ाहट होने लगी…घबराहट और बेचैनी में वह सामने के खण्डहर हो चुके क्लास रूम में आकर दीवार की टेक ले खडी हो गयी।आज उसे झाड झंखाड से भरे इस कमरे में बिल्कुल डर नहीं लग रहा था…सैकडों साँपों का जमावडा जिस कमरे में बरसात में रहता आज उस भयानक से कमरे की दीवार से चिपकी रोए जा रही थी।उधर प्रिया उसे खोज कर जब थक गयी तो क्लास में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगी। आज मोहित स्कूल नहीं आया था,मोहित पिछले साल स्कूल में आया नया शिक्षक ,जैसा नाम वैसा ही स्वाभाव।सभी को अपने आकर्षक व्यक्तित्व और विनम्र स्वभाव से मोहित कर लेता।शुरू में सभी को लगा कि मोहित प्रिया को पसन्द करता है।पायल ने एक दिन कह भी दिया कि प्रिया तुम्हारी और मोहित की जोडी बहुत सुन्दर लगेगी.. प्रिया ने लम्बी साँस लेते हुए पायल से कान में कहा था उस दिन…मोहित आपको पसन्द करता है।पायल ने प्रिया को उस दिन बहुत डांटा था।वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह मोहित को कैसे समझाए कि वह जो कहता फिरता है सबके सामने वह एक दिन उसके जीवन में तूफान खड़ा कर सकता है।मोहित पायल से इतना प्रभावित रहता कि उसे दर्द निवारक मैम कह कर हँस पड़ता।चाहे कितनी मुश्किलें सामने हो पायल धैर्यपूर्वक उसका हल खोज निकालती।चाहे बच्चों की समस्या हो या शिक्षकों की वह कुछ न कुछ करके सब ठीक कर लेती।उसके पास हर समस्या का समाधान रहता..हर एक अपनी मुश्किल उसे सुना हल्का हो लेता ,ऐसी पायल अपने अन्दर के असीम तूफान को समेटे हर पल मुस्कुराते हुए सबसे मिलती और मोहित मुग्ध हो उसके गुन गाता फिरता।एक दिन तो इतना तक कह दिया कि यदि आप शादीशुदा नहीं होतीं तो आपसे ही शादी करता और परसों उसने सारी सीमाएँ तोड़ते हुए पायल से कह ही दिया..आई लव यू पायल।पायल ने उसे जोर से चांटा मारा था..वह कल से स्कूल नहीं आया था।पायल को छोड इस बात की जानकारी किसी को नहीं थी।हाँ प्रिया जरूर मोहित का पक्ष जानती थी और पायल को छेड़ती रहती थी। पायल के जीवन का यह साल भी अजीब था , शादी के एक दसक खत्म होने को है।चल रहा सब,जैसे हर आम औरत की दुनिया में चलता है।जिस उम्र में प्रेम के कोंपल फूटते हैं उस उम्र में कुछ बनने की धुन में वह लड़कों की तरफ देखती तक नहीं। दिल के बंजर ज़मीन पर कभी प्रेम के अंकुर नहीं फूटे.और अब जो घट रहा था वह अजीब था.।..शादी होनी थी, हुई…पति के लिए वह जरूरत थी,समाज के लिए एक सुखी परिवार, बच्चे ,पति ,घर परिवार से घिरी एक औरत जिसे जरूरत की किसी चीज की कमी नहीं थी वह आखिर क्यों नहीं खुलकर हँसती नहीं थी?उसे खुश रहना चाहिए… औरत को इसी में खुश रहना है और क्या चाहिए उसे।खाओ पहनो घूमो और चुपचाप सबकी जरूरतें पूरी करती रहो। उसे याद आता है कि काजल उसे देख कैसे बिफर पड़ी थी…क्या पायल! तुम्हारे जैसी जहीन लड़की ने अपना क्या हाल बना रखा है?जानती हो! … Read more

गीदड़-गश्त

गीदड़ एक ऐसा पशु है जो खंडहरों में गश्त लगाते हैं |कहानी में वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी ने अतीत में बार -बार जाने की बात की तुलना इसी गीदड़ गश्त से करी है | स्वाभाविक है कि हम अतीत में बार -बार तभी जाते हैं जब वहाँ कोई ट्रामा हो, गिल्ट हो, या कोई ऐसा सिरा हो जो अधूरा रह गया हो | जिसको खोजने मन बार -बार वहां पहुँच जाता है | आखिर क्या है कि कहानी का नायक बैंकुवर में बस जाने के बाद भी ४० साल पीछे की स्मृतियों में जाकर कर बार बार गश्त लगाता है |ये कहानी बहुत कम शब्दों में बहुत गहन संवेदना प्रस्तुत करती है |  आइये पढ़ते हैं किसी  के विश्वास को ठगे जाने की मार्मिक कहानी …. गीदड़-गश्त किस ने बताया था मुझे गीदड़, सियार, लोमड़ी और भेड़िये एक ही जाति के जीव जरूर हैं मगर उनमें गीदड़ की विशेषता यह है कि वह पुराने शहरों के जर्जर, परित्यक्त खंडहरों में विचरते रहते हैं? तो क्या मैं भी कोई गीदड़ हूँ जो मेरा चित्त पुराने, परित्यक्त उस कस्बापुर में जा विचरता है जिसे चालीस साल पहले मैं पीछे छोड़ आया था, इधर वैनकूवर में बस जाने हेतु स्थायी रूप से? क्यों उस कस्बापुर की हवा आज भी मेरे कानों में कुन्ती की आवाज आन बजाती है, ‘दस्तखत कहाँ करने हैं?’ और क्यों उस आवाज के साथ अनेक चित्र तरंगें भी आन जुड़ती हैं? कुन्ती को मेरे सामने साकार लाती हुई? मुझे उसके पास ले जाती हुई? सन् उन्नीस सौ पचहत्तर के उन दिनों मैं उस निजी नर्सिंग होम के एक्स-रे विभाग में टैक्नीशियन था जिस के पूछताछ कार्यालय में उसके चाचा किशोरी लाल क्लर्क थे| उसे वह मेरे पास अपने कंधे के सहारे मालिक, हड्डी-विशेषज्ञ डॉ. दुर्गा दास की पर्ची के साथ लाये थे| उसका टखना सूजा हुआ था और मुझे उसके तीन तरफ से एक्स-रे लेने थे| “छत का पंखा साफ करते समय मेरी इस भतीजी का टखना ऐसा फिरका और मुड़का है कि इस का पैर अब जमीन पकड़ नहीं पा रहा है,” किशोरी लाल ने कारण बताया था| तीनों एक्स-रे में भयंकर टूटन आयी थी| कुन्ती की टांग की लम्बी शिन बोन, टिबिया और निचली छोटी हड्डी फिबुला टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं, वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था| वे लिगामेंट्स, अस्थिबंध भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर का भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मजबूती मिलती है| छः सप्ताह का प्लास्टर लगाते समय डॉ. दुर्गादास ने जब कुन्ती को अपने उस पैर को पूरा आराम देने की बात कही थी तो वह खेद्सूचक घबराहट के साथ किशोरी लाल की ओर देखने लगी थी| जभी मैंने जाना था वह अनाथ थी मेरी तरह| मुझे अनाथ बनाया था मेरे माता-पिता की संदिग्ध आत्महत्या ने जिसके लिए मेरे पिता की लम्बी बेरोजगारी जिम्मेदार रही थी जबकि उसकी माँ को तपेदिक ने निगला था और पिता को उनके फक्कड़पन ने| अगर अनाथावस्था ने जहाँ मुझे हर किसी पारिवारिक बन्धन से मुक्ति दिलायी थी, वहीं कुन्ती अपने चाचा-चाची के भरे-पूरे परिवार से पूरी तरह संलीन रही थी, जिन्होंने उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाए उसे अपने परिवार की सेवा में लगाए रखा था| मेरी कहानी उस से भिन्न थी| मेरी नौ वर्ष की अल्प आयु में मेरे नाना मुझे अपने पास ले जरूर गए थे किन्तु न तो मेरे मामा मामी ने ही मुझे कभी अपने परिवार का अंग माना था और न ही मैंने कभी उनके संग एकीभाव महसूस किया था| मुझ पर शासन करने के उन के सभी प्रयास विफल ही रहे थे और अपने चौदहवें साल तक आते-आते मैंने सुबह शाम अखबार बांटने का काम पकड़ भी लिया था| न्यूज़ एजेन्सी का वह सम्पर्क मेरे बहुत काम आया था| उसी के अन्तर्गत उस अस्पताल के डॉ. दुर्गादास से मेरा परिचय हुआ था जहाँ उनके सौजन्य से मैंने एक्स-रे मशीनरी की तकनीक सीखी-समझी थी और जिस पर जोर पकड़ते ही मैंने अपनी सेवाएँ वहां प्रस्तुत कर दी थीं| पहले एक शिक्षार्थी के रूप में और फिर एक सुविज्ञ पेशेवर के रूप में| उस कस्बापुर में मुझे मेरी वही योग्यता लायी थी जिसके बूते पर उस अस्पताल से सेवा-निवृत्त हुए डॉ. दुर्गादास मुझे अपने साथ वहां लिवा ले गए थे| कस्बापुर उनका मूल निवास स्थान रहा था और अपना नर्सिंग होम उन्हीं ने फिर वहीं जा जमाया था| कस्बापुर के लिए बेशक मैं निपट बेगाना रहा था किन्तु अपने जीवन के उस बाइसवें साल में पहली बार मैंने अपना आप पाया था| पहली बार मैं आप ही आप था| पूर्णतया स्वच्छन्द एवं स्वायत्त| अपनी नींद सोता था और उस कमरे का किराया मेरी जेब से जाता था| जी जानता है कुन्ती से हुई उस पहली भेंट ने क्यों उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए मेरा जी बढ़ाया था? जी से? मेरे उस निर्णय को किस ने अधिक बल दिया था? किशोरी लाल की ओर निर्दिष्ट रही उस की खेदसूचक घबराहट ने? अथवा अठारह वर्षीया सघन उसकी तरुणाई ने? जिस ने मुझ में विशुद्ध अपने पौरुषेय को अविलम्ब उसे सौंप देने की लालसा आन जगायी थी? किशोरी लाल को मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं रही थी और मैंने उसी सप्ताह उस से विवाह कर लिया था| आगामी पांच सप्ताह मेरे जीवन के सर्वोत्तम दिन रहे थे| प्यार-मनुहार भरे….. उमंग-उत्साह के संग….. कुन्ती ने अपने प्लास्टर और पैर के कष्ट के बावजूद घरेलू सभी काम-काज अपने नाम जो कर लिए थे| रसोईदारी के….. झाड़ू-बुहारी के….. धुनाई-धुलाई के….. बुरे दिन शुरू किए थे कुन्ती के प्लास्टर के सातवें सप्ताह ने….. जब उस के पैर का प्लास्टर काटा गया था और टखने के नए एक्स-रे लिए गए थे| जिन्हें देखते ही डॉ. दुर्गादास गम्भीर हो लिए थे “मालूम होता है इस लड़की के पैर को पूरा आराम नहीं मिल पाया| जभी इसकी फ़िबुला की यह प्रक्षेपीय हड्डी में लियोलस और टिबिया की दोनों प्रक्षेपीय हड्डियाँ मैलिलायी ठीक से जुड़ नहीं पायी हैं| उनकी सीध मिलाने के निमित्त सर्जरी अब अनिवार्य हो गयी है| टखने में रिपोसिशनिंग पुनः अवस्थापन, अब मेटल प्लेट्स और पेंच के माध्यम ही से सम्भव हो पाएगा….. तभी ओ.आर.आए.एफ. (ओपन रिडक्शन एंड इन्टरनल फिक्सेशन) के बिना कोई विकल्प है … Read more