दम-दमड़ी

“दम–दमड़ी” ये कहानी है वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की, जो रुपये पैसों के ऊपर टूटते –बिखरते रिश्तों का नंगा सच प्रस्तुत करती हैं | एक कहावत है कि “चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाये” | वैसे तो ये कहावत कंजूस लोगों के लिए हैं पर प्रश्न फिर भी वही है कि क्या पैसा इंसान को इतना स्वार्थी बना देता है ? कहानी है एक गरीब कबाड़ी परिवार की जहाँ एक बच्चा अपनी माँ व् पिता के साथ रह रहा है | रेलवे लाइन के पास बसे इस घर में रहने वाली बच्चे की माँ बीमार है | इलाज के पैसे नहीं हैं | तभी उनके घर के सामने ट्रेन एक्सीडेंट होता है | जहाँ घायलों और लाशों के बीच फैला उनका सामान वहां बसने वाले लोगों के मन में नैतिकता के सारे मायने भुला देने को विवश कर रहा है | ऐसे में उस बच्चे के घर में क्या होगा ? आइये जानते हैं ….   दीपक शर्मा की कहानी -दम-दमड़ी रेलवे लाइन के किनारे बप्पा हमें पिछले साल लाए थे. “उधर गुमटी का भाड़ा कम है,” लगातार बिगड़ रही माँ की हालत से बप्पा के कारोबार ने टहोका खाया था, “बस, एक ख़राबी है. रेल बहुत पास से गुजरती है.” लेकिन रेल को लेकर माँ परेशान न हुई थीं. उलटे रेल को देखकर मानो ज़िन्दग़ी के दायरे में लौट आई रहीं. बहरेपन के बावजूद हर रेलगाड़ी की आवाज़ उन्हें साफ़ सुनाई दे जाती और वह कुछ भी क्यों न कर रही होतीं, रेल के गुज़रने पर सब भूल-भूला कर एकटक खड़ी हो जातीं- छत पर, खिड़की पर, दरवाज़े पर. बल्कि कभी-कभी तो बाहर ही लपक लेतीं- किसी न किसी सवारी का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने. कभी-कभार उनकी यहकोशिश सफ़ल भी हो जाती और भेंट में उन्हें कभीखाने की कोई पोटली मिल जाती तो कभी पानी की ख़ाली बोतल. एक-दो बार तो उनकी तरफ़ किसी ने अपना रुमालही फेंक डाला तो किसी दूसरे ने रेज़गारी. रेल के लिए माँ की यही लपक देखकर बप्पा ने अपना नया शाप गढ़ा था, ‘ठठरी ज़रूर रेलगाड़ी के नीचे कट कर मरेगी.’ “देख, गोविंदा, इधर देख,” उस दोपहर में माँ ने मुझे सोते से जगाया था, “इत्ते रुपएतूने देखे हैं कभी?” अनगिनत रुपयों के वे पुलिन्दे मेरी आँखों तले क्या आए मेरी आँखें फ़ैल गईं.   एक जनाना बटुआ माँ की गोदी में टिका था और उनके सूखे हाथ उन रुपयों की गड्डियों की काट पकड़ने में उलझे थे. कुछ रुपए मैंने भी उठा लिए. लाल रंग का हज़ार रुपए का नोट और हरे रंग का पाँच सौ का नोट उस दिन मैंने पहली बार देखा और छुआ. “कहाँ से लिए?” इशारे से मैंने माँ से पूछा. “संतोषी माता ने अपनी बच्ची के इलाज की लागत भेजी है.” अपनी शादी के बाद लगातार ग्यारह-बारह साल तक माँ ने जो बप्पा के छँटे हुए कबाड़ की मँजाई की, सोवह उनकी गलफाँसी साबित हुई थी. गुदड़ी-बाज़ार ले जाने से पहले बोरा-भर अपना कबाड़ बप्पा सीधे घर लाया करते. यहीं उसमें से मरम्मत के क़ाबिल सामान छाँटतेऔरउसके रोगन या जंग-मैल छुड़ाने का ज़िम्मा माँ पर डालदेते. डॉक्टर के मुताबिक़ माँ की उँगलियों के गलके, मसूड़ोंकी नीली परत, उदर-शूल,जीभ का धात्विक स्वादऔर बहरापन सब उस सीसेकेज़हर की दूरमार थे जो बप्पा केअंगड़-खंगड़को तेज़ाब और रेगमाल से कुरेदते-खुरचते वक़्त या रगड़ते-चमकाते वक़्त माँ की नसों और अंतड़ियों ने सोख लिया था. “कहाँ से लिए?” मैं चिल्लाया. “बाहर टक्कर हुई,” माँ ने गाल बजाया. “मुई, इस बटुए वाली जनानी ने ज़ेवर भी ख़ूब क़ीमती पहन रखेथे. लेकिन निकम्मे मेरे हाथ उन्हें अलग न करपाए……” दो छलाँग में गुमटी पारकर मैं दरवाज़े पर जा पहुँचा. बाहर कुछ ही क़दम परअजीब अफ़रा-तफ़री मची थी. लहूफेंकरही, बिलबिलाती-हुहुआती सवारियों और लोहे, काँच, लकड़ीऔर रोड़ी-मिट्टीकी छिपटियों और किरचों कीटूट-फूट के बीच दो एयरकंडीशन्ड कोच इधर लुढ़के पड़े थे. स्कूल की अपनी तीसरी जमात तक आते-आते अँगरेज़ी के अक्षर जोड़ कर पढ़ने के क़ाबिलतो मैं रहाही. उसी हो-हल्ले के बीच एक भगदड़ और पड़ी रही. हमारे अड़ोस-पड़ोस में सभी अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे- पहले-पहल, ख़ाली हाथ….. दूसरे पल, अंकवार-भर. “बोरा लाऊँ?” माँ मेरे पास चली आईं, “मौका अच्छा है.” “न,” मैंने सिर हिलाया. सामने एक पुलिस जीप आ खड़ी हुई. सिपाहियों ने नीचे उतरने में फुरती दिखाई. “मालूम? उधर कितना सामान लावारिस पड़ा है?” –माँ ने मुझे उकसाना चाहा. “न,” मैं काँपने लगा और अपने टाट पर लौट आया. “इन्हें गिन तो,” माँ ने रुपए फिर मेरी तरफ़ बढ़ाने चाहे, “मेरे इलाज का बन्दोबस्त तो ये कर ही देंगे. डॉक्टर कहता था पूरी ठीक होने में मुझे साल-दो साल लग जाएँगे.” “न,” मैंने सिर हिलाया और रुपए पकड़ने की बजाय कोने में पड़ा, अपने स्कूल का बस्ता अपनी गोदी में ला धरा. मेरी कँपकँपी जारी रही. “चल, भाग चलें,” रुपयों के बण्डल माँ ने एक थैली में भर लिए, “तेरे बप्पा ने मुझे मेरा इलाज नहीं कराने देना. इन रुपयों को देखते ही वह इन्हें अपने कब्ज़े में लेलेगा.” “न,” मैंने सिर हिलाया और अपने बस्ते से हिन्दी की क़िताब निकालकर माँ को इशारे से समझाया, “मेरी पढ़ाई है यहाँ.” इस इलाके के स्कूल में जाकर ही मैंने जाना था किसी भी कविता, किसी भी कहानी को ज्यों का त्यों दोहराने में मेरे मुक़ाबले कोई न था. पिछले आठ महीनों में मेरी क्लास टीचर मुझे सात बार बाहर प्रतियोगिताओं में लेकर गई थी और हर बार मैं इनाम जीत कर लौटता रहा था. “यह क्या वहाँ नहीं मिलेगी?” माँ गुलाबी नशे में बहकने लगीं, “वहाँ इससे भी बड़े स्कूल में तुझे पढ़ाई कराऊँगी….. एक बार, बस मेरा इलाज हो जाए. फिर देख कैसे मैं काम में जुटती हूँ….. सिलाई मशीन खरीदूँगी….. अपनी टेलरिंग की दुकान खोलूँगी मैं.” उधर कस्बापुर में माँ के पिता टेलरिंग का काम करते थे. दिहाड़ी पर. मरते दम तक सिलाई की अपनी मशीन उन्हें नसीब न हुई. “न,” कबाड़ की तरफ़ इशारा कर मैं रोने लगा- हमारी गुमटी का एक-तिहाई हिस्सा कबाड़ के हवाले रहा- “यहाँ बप्पा हैं.” बप्पा मुझे बहुत प्यारे रहे. उनके कन्धों की सवारी में कहाँ-कहाँ न मैं घूमा करता. उनके घुटनों के झूले पर बैठकर कितनी-कितनी पेंग न मैं लेता. अपने मज़बूत हाथों से जब वे मुझे ज़मीन से ऊपर उठाकर उछालते तो उस ऊँचाई से नीचे … Read more

भनक

टिनीटस एक बीमारी है जिसमें कानों में अजीब अजीब सी आवाजें आती हैं | ऐसा कान का पर्दा सूज जाने के कारण होता है | आम भाषा में इसे काम का भनभनाना भी कहते हैं | क्या किसी को भविष्य की भनभनाहट भी सुनाई देती है | पढ़िए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी … भनक  नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा….. जब भी उसकी बायीं दिशा से कोई कर्णभेदी कोलाहल उसके पास ठकठकाता और वह अपने बाएँ कान को ढँक लेती तो उसके दाएँ कान के परदे पर एक साँय-साँय क्यों चक्कर काटने लगती? अन्दर ही अन्दर! मन्द और मद्धम! कभी पास आ रही किसी मधुमक्खी की तरह गुँजारती हुई…..  तो कभी दूर जा रही किसी चिखौनी की तरह चहचहाती हुई. नहीं, बीणा को नहीं मालूम रहा- उसके विवाह के तदनन्तर वह साँय-साँय उसके अन्दर से आने की बजाय अब बाहर से क्यों धपकने लगी थी? तेज़ और तूफ़ानी! मानो कोई खुपिया बाघ अपनी ख़ोर से निकलकर उसकी ओर एकदिश धारा में अब लपका, तब लपका. उस समय भी लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर में जैसे ही किसी एक सुपर-फ़ास्ट ट्रेन की तड़ातड़ तड़तड़ाहट ने उसे अपने बाएँ कान को अपने हाथ से ढँकने पर मजबूर कर रखा था और उसका दाहिना कान उस जान्तव चाप की चपेट में था जब उसके जेठ उसके मायके से आए एक टेलीफ़ोन-सन्देश की सूचना देने अपने लोको वर्कशॉप से उस लोको क्वार्टर पर दोपहर में आए थे : बीणा की माँ अस्पताल में दाख़िल है. पिछले दस घंटे में उसे होश नहीं आया है. बीणा के मायके वाले बीणा को बुला रहे हैं. “तुम हमारे काम की चिन्ता न करो,” जेठानी ने उदारता दिखाई थी, “कौन जाने तुम्हें फिर अपनी माँ देखने को मिले, न मिले. तुम मायके हो आओ…..” बीणा और उसके पति को उसके जेठ-जेठानी ने अपने क्वार्टर का छोटा कमरा दे रखा था. बीणा के पति पिछले दो साल से रेलवे की भरती के इम्तिहान में बैठते रहे थे और फ़ेल हो जाते रहे थे. पैसे की तंगी को देखते हुए फिर पिछले साल उनकी शादी बीणा से कर दी गई थी ताकि घर में टेलीविज़न और स्कूटर जुटाया जा सके. बीणा अपने पाँच भाइयों की अकेली बहन थी और उसके बप्पा अभी डेढ़ वर्ष पहले ही एक सरकारी दफ़्तर की अपनी चालीस साल की ड्राइवरी से सेवानिवृत्त हुए थे. बीणा की माँ ने लोको कॉलोनी के उस क्वार्टर को रेलगाड़ियों की निरन्तर आवाजाही की धमक से पल-पल थरथराते हुए जब देखा था तो पति से विनती कर बैठी थी, ‘लड़की को इधर न ब्याहिए. रेलगाड़ियों की यह गड़गड़ाहट, लड़की का बाँया कान भी बहरा कर देगी.’ मगर बप्पा को लड़के की बी.ए. की डिग्री चकाचौंध कर देने में सक्षम रही थी और उन्हें दृढ़ विश्वास था कि वह डिग्री किसी रोज़ उनके दामाद को रेलवे क्लर्की ज़रूर दिला देगी. “कौन?” एमरजेन्सी वार्ड के सत्ताइस नम्बर बेड से माँ बुदबुदाईं. “जूजू,” कहते-कहते बीणा ने अपनी ज़ुबान अपने तालू से चिपका ली. ‘जूजू’ उसकी ख़रमस्ती का नाम था जो दस वर्ष पहले एक तपती दोपहरी में उसने माँ के साथ खेलते समय अपने लिए रखा था. उस दोपहर के सन्नाटे में जिस समय बप्पा अपनी ड्यूटी पर रहे और चटाई पर भाई सोए रहे, बीणा की बाँह अपनी गरदन से अलग कर माँ उठ ली थीं. इस भ्रम में कि बीणा भी सो रही थी. लेकिन बीणा जाग रही थी और उसने माँ का पीछा किया था और माँ उसे घर की बरसाती में मिली थीं. हिचकियाँ लेकर सुबकती हुईं. वह अपना मुख उनके कान के पास ले गई थी और आँधी बनकर उसमें हवा फूँकने लगी थी. ‘कौन है?’ चौंककर माँ ने सिसकना छोड़ दिया था. ‘जूजू’ कहकर बीणा माँ से लिपट ली थी. ‘चल हट’, माँ हँस पड़ी थीं, ‘कैसे डरा दिया मुझे?’ बीणा ने अपनी बाँह माँ की गरदन पर फिर जा टिकाई थी : ‘और तुम जो हरदम डराती रहती हो? जूजू आया, जूजू आया?’ उनके छह भाई-बहनों को अपनी बात मनवाने हेतु माँ अक्सर ‘जूजू’ का हवाला दिया करती थीं. हँस रही माँ अकस्मात् रोने लगी थीं. ऐसा अक्सर होता था. माँ जब भी हँसतीं, बीच में ही अपनी हँसी रोक कर रोने लगतीं. बीणा के पूछने पर कहतीं, ‘चल हट. मैं रोई कब रही? ये आँसू तो हँसी के बढ़ जाने से आए रहे.’ वह चुप हो जाती. “कौन?” माँ के होंठ फिर हिले और एक कम्पन उन्हें झकझोर गया. माँ की बेहोशी का यह चालीसवाँ घंटा था. बीणा ने माँ का हाथ पकड़ लिया. उसके दोनों कान एक साथ बज रहे थे. चलन के विरुद्ध. आहट पीछे से नहीं सामने से आ रही थी. चरपरी और तीक्ष्ण. कड़ी और कठोर. दुरारोह और दुर्बोध. आगे ही आगे बढ़ती हुई. माँ के बराबर आ पहुँचने. “नहीं, नहीं,” बीणा ने डरकर अपनी आँखें बन्द कर लीं. माँ ने बचपन में उसे जो यमराज की कहानी सुनाई थी वही यमराज अपने उस रूप में सामने खड़े थे….. सुर्ख़ परिधान में….. लाल आँखें लिए….. भैंसे पर सवार….. हाथ में मृत्युफंदा….. गदा पर कपाल….. चार-चार आँखों वाले दो कुत्ते भी उसे दिखाई दिए जो माँ के कहे अनुसार यमराजपुरी के प्रवेशद्वार पर पहरा दिया करते थे….. “नहीं, नहीं, नहीं,” अपनी पूरी ताक़त के साथ बीणा ने मृत्युदेव से प्रार्थना की, “दक्षिण दिशा के दिक्पाल, मानव जाति के इतिहास के प्रथम पुरुष, हे मृत्युदेव, मेरी माँ की मृत्यु टाल जाइए. बदले में मुझे ले जाइए, मुझे ले जाइए…..” एमरजेन्सी वार्ड के काउन्टर पर तैनात दोनों डॉक्टरों और चारों नर्सों ने बीणा को सत्ताइस नम्बर बेड पर लुढ़कते हुए देखा तो तत्काल उधर लपक लिए. “कौन?” बीणा की माँ को एक दूसरा कम्पन दुगुने वेग से झकझोर गया और उनकी बेहोशी टूट गई. मरते-मरते वे जी उठीं. एमरजेन्सी वार्ड के स्टाफ ने शीघ्र ही बीणा के लिए एक दूसरे बेड की व्यवस्था कर दी और उन्हीं के चेकअप के दौरान बीणा को मालूम हुआ उस रोग का नाम टिनाइटस था जिसके अन्तर्गत उसके बाएँ कान का परदा भी उसके दाहिने कान के परदे की तरह पूरा-पूरा सूज गया था और इसीलिए पथ से हटकर विसामान्य ध्वनियाँ सुनने लगा था. आजकल बीणा के दोनों कानों का इलाज चल रहा है….. … Read more

मजबूरी

जैसे एक झूठ  की वजह से सौ झूठ बोलने पड़ते हैं वैसे ही एक गलत कदम  कारण एक के बाद एक कई गलत कदम उठ  जाते हैं | जिन्दगी की पूरी धरा ही बदल जाती है | मजबूरी चंदा की भी थी और शिवम् की भी | आखिर शिवम् ने ऐसा क्या गलत कदम उठाया कि उसकी मजबूरी का सिलसिला बढ़ता ही चला गया | आइये जानते हैं कहानी मजबूरी में  मजबूरी  चंदा ओ चंदा सरला की आवाज में गुस्सा था, चंदा दौड़कर आई जी बोलिए,बस शुरू हो गई सरला, आज तूने अभी तक क्या किया है घर कितना बिखरा पड़ा है डस्टिंग नहीं हुई, सब्जी साफ नहीं की, बाथरूम गंदे पड़े हैं आखिर तू कर क्या रही है अभी तक। चंदा रोने लगी।रोता देखकर एक मिनट को सरला भी सहम गई क्या हुआ? अपने गुस्से को शांत करके चंदा को पानी पिलाया। फिर प्यार से पूछा क्यों रो रही हो। बात सुनकर सरला भी तनाव में आ गई। पड़ोस में रहने वाले बड़ी उम्र के शर्मा जी ने चंदा को लिफ्ट में गलत तरीके से छूने की कोशिश की थी यह सुनकर सरला ने अपने पति को फ़ोन किया और बात बताई। घर आकर देखते हैं कहते हुए दिनेश ने फोन रख दिया।शाम को जब दिनेश घर आया तो शर्मा जी नीचे  ही मिल गये बोले यार तुम अपनी नौकरानी को समझाते नहीं हो कि बड़ों से कैसे बात करनी चाहिए।दिनेश सकते में आ गया अरे ये क्या यहां तो माजरा ही अलग है।उपर आकर सरला को बताया कि शर्मा जी ऐसा बोल रहे थे।सरला ने चंदा को पूछा कि तुमने क्या बोल दिया??, लेकिन चंदा की बात सुनकर सरला भी परेशान होकर शर्मा जी के यहां जाने की जरूरत महसूस कर रही थी। उसने जाकर पूछा आपने हाथ क्यों लगाया चंदा को???  शर्मा ने मना कर दिया मैंने कुछ नहीं किया। एक थप्पड़ जड़ दिया सरला ने बगैर सोचे। और घर आ गई। थोड़ी देर बाद प्यार से पूछने पर चंदा ने बताया कि शर्मा जी ने मेरी छाती पर हाथ रख दिया था इसलिए मैंने हाथ उठाया।शाबाश सरला ख़ुश होकर बोली। आगे से भी ये ही करना। एक दिन सरला ने चंदा की शादी की बात चंदा के जीजाजी से करने का फैसला लिया। क्योंकि चंदा की बहन डिलेवरी में बच्चे को जन्म देकर भगवान को प्यारी हो गई थी।सो बच्चे को सम्हालने और बहन का घर बसाने का फैसला लिया ।अब सरला ने थोड़ी हेल्प लेकर और थोड़ा अपना पैसा लगाकर शादी की तैयारी की। वक्त आने पर शादी करके चंदा ससुराल आ गई ।अपनी बहन की जगह लेने में थोड़ा वक्त लगेगा यही सोचते हुए एक हफ्ता बीत गया। जीजाजी में पति को देखना,सहज नहीं था।रात को सोने के लिए अपना बिस्तर लगा रहे जीजाजी को देखते हुए चंदा सोचने लगी कि यह क्या हो रहा है। धीरे से बोली आप उपर सो जाइए मैं नीचे  सो जाउंगी। मनाने पर मान गया मधुर। रात को थोड़ी देर बाद मधुर उपर आ गया चंदा के साथ सोने के लिए आखिर पुरुष था अपने पुरुषत्व को नीचा  नहीं दिखा सकता था।सुबह अलसाई हुई चंदा उठी और नहाने चली गई बदन टूट रहा था।नल के नीचे खड़ी हो गई,सारे अरमान जो शिवम् के साथ रहने के लिए सजाए थे,सब बिखर गए थे।शिवम् किराने की दुकान चलाता था,जब चंदा सामान लाने जाती थी,तब बातों में अपना प्रेम प्रगट कर चुका था। लेकिन सरला का कहना मानकर जीजाजी से शादी का फैसला मन मारकर लिया था चंदा ने। थोड़े दिन बाद चंदा सरला के घर आईं। सरला ने गरम पकोड़े,और चाय लाने के लिए चंदा को आवाज दी।बुझी हुई चंदा और भी चुप हो गई थी। अब तो सामान लाने के लिए भी आनाकानी करने लगी। लेकिन कब तक नहीं जाती।एक दिन दुकान पर जाकर सामान की लिस्ट शिवम् को देकर‌ नजरें हटा लीं उसने, लेकिन आंखों में आसूं आ ही गये। शिवम् ने भी देखकर कुछ कहना चाहा मगर और भी लोग खड़े थे,सो चुप ही रहा। १५ दिन में बहुत बार जाना हुआ दुकान पर। लेकिन कोई बात नहीं हुई शादी के बारे में।आज तो बात करूंगी यह सोचकर दुकान से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गई और इशारे से शिवम् को बुलाया और अपने मन की बात कही कि तुम्हारे साथ शादी करना चाहती थी बचपन से आ रही हूं तुम्हारी दुकान पर लेकिन ना तुमने कुछ कहा ना मैंने कुछ बोला। सुनकर शिवम् बहुत उदास हो गया अब तो कुछ नहीं होगा। तुम खुश रहो बोलकर चला गया।दो साल बीत गए।अब बच्चा चलने लगा था।एक दिन घर के बाहर खेल रहा था एक लड़का आकर बच्चे को उठा कर ले गया। चंदा को जब काम खत्म होने पर ख्याल आया कि मुन्ना कहां है सो बाहर भागी लेकिन मुन्ना नहीं मिला थोड़ी देर बाद जब ढूंढते हुए थक‌ गई तो पति को फ़ोन किया और बताया कि मुन्ना नहीं मिला कोई उठा ले गया है। दोनों पुलिस को रिपोर्ट लिखवाने थाने जाने लगे। रास्ते में भीड़ थी देखा कि कोई दुर्घटना हुई है।अरे यह तो मुन्ना है और साथ में शिवम् ।चंदा को कुछ नहीं सूझा उसने मुन्ना को गोद में उठा लिया और हिलाने लगी आवाज दी लेकिन वह भगवान को प्यारा हो गया था। शिवम् को किसी ने अस्पताल पहुंचाया। थोड़े दिन बाद शिवम् ठीक हो गया।  उसने चंदा के दूर चले जाने के बाद अपनी दुकान बन्द कर दी थी। कोई काम नहीं कर सकता था।सो खर्च बढ़ने से गलत लोगों के संगत में पड़ गया। बच्चों को अपहरण करके उनकी किडनी निकालने बेचने का काम किया करता ।उसको मलाल था कि चंदा को उसकी वजह से कितना दुःख हुआ है लेकिन पैसे की कमी और खर्च ज्यादा होने से बच्चों को उठाकर किडनी निकालने बेचने वाले गिरोह से सम्बन्ध होने की वजह से आज शिवम् को कितना कुछ देखना पड़ा। रात को नींद नहीं आ रही थी बहुत सोचने के बाद अस्पताल में उपर छत पर जाकर नीचे छलांग लगा दी और अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। ग़रीबी के कारण क्या,क्या नहीं सहना पड़ता है लोगों को। अपने से प्यार करने वाले से ना शादी की,। जैसा मालकिन ने कहा किया … Read more

पापा मर चुके हैं

” पापा मर चुके हैं ” एक ऐसी कहानी है जो संवेदना के स्टार पर आपको झकझोर देगी | चाइल्ड अब्यूज कोई नयी बात नहीं है | अक्सर इसके शिकार मासूम बच्चे हो जाते हैं | ये केवल एक बार घट जाने वाली घटना नहीं है | मानसिक ट्रोमा से बच्चा आजन्म नहीं निकल पाता | ऐसी ही एक बच्ची की मार्मिक कहानी जिसने खुद को इनसे कैसे मुक्त किया … पापा मर चुके हैं  आज एकबार फिर अरनव को बिस्तर पर उसकी इच्छाओं के चरम क्षण में अचानक छोडकर मै उठ आयी थी। अब बाथरूम के एकांत में पीली रोशनी के वृत के नीचे खड़ी आईने में प्रतिबिंबित अपनी सम्पूर्ण विवस्त्र देह की थरथराती रेखाओं की तरफ देखने की त्रासदी झेलने के लिए मैं बाध्य भी थी और अभिशप्त भी… अपने अंदर के उन्माद के इस पल को मैं धैर्य से गुजर जाने देना चाहती थी, मगर जानती थी, यह इतना सहज नहीं होगा! पूरी देह में रेंगती हुई चीटियों की कतारें जैसे अब धीर–धीरे गले के अंदर थक्के बाँधने लगी थीं। भीतर सनसनाकर उठते हुए आंतक के गहरे नीले बवंडर को मैंने आप्राण घुटककर पसलियों में वापस धकेलने का प्रयास किया था, मगर वह निरंतर बना रहा था– अपनी सम्पूर्णता में, पूरी भयावहता के साथ! कुछ न सोच पाने की मनःस्थिति में मैं बेसिन का नल खोलकर अपने चेहरे पर पानी छपकती चली गयी थी। सामने जीवित दुःस्वप्न की तरह खड़े आईने की मटमैली धुंध में सुलगता हुआ चेहरा पिघलते हुए आहिस्ता से खो गया था। अब बचे रह गये थे बस वे आँसू जो अभी–अभी पलकों के किनारे तोडकर  बह आये थे- सिंके हुए गालों पर संवेदनाओं की आड़ी–तिरछी लकीरें खींचते हुए, ठोढ़ी से छाती तक की उघरी त्वचा को एक ही क्षण में पूरी तरह से भिगोते हुए। अपने नग्न घुटनों में चेहरा छिपाये मैं फर्श पर बैठ गयी थी – हे ईश्वर! कबतक… यह नर्क कबतक…! मैंने आज अपने उन्माद के अतिरेक में अरनव के चेहरे पर अपने नाखून खुबा दिये थे! अंधेरे में दर्द से छटपटायी हुई उसकी आवाज से मैं स्वयं आहत हो उठी थी– अब ये क्या हो गया मुझसे…!  क्या सचमुच मैं अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही हूँ ? आज अरनव का हमेशा का मान–मनुहार एक जिद्द में बदल गया था। वह किसी भी सूरत में मेरी ’न’ सुनने के लिेए राजी नहीं था। आपस की छीना–झपटी में मेरा नाइट गाउन पूरी तरह से फट गया था– अपनी टीसती देह पर उसके गर्म होंठ, जीभ, दाँतों की जबर्दस्ती को मैं सह नहीं पा रही थी। जांघों के बीच उसकी अबाध्य उंगलियाँ उद्दंड हुई जा रही थीं… वही शराब की गंध में डूबा हुआ खौफनाक अंधेरा, वही मुझमें बलात् प्रविष्ट करती हुई पशुवत् मर्दानी कठोरता… मेरी देह का पत्येक अणु यकायक अपने अंदर के खौलते हुए लावे की जद में आ गया था – नहीं! अब यह दुबारा मेरे साथ नहीं होगा…! अरनव मेरी जानुओं को अपने दोनों घुटनों से चांपते हुए एक गर्म सलाख की तरह मेरे अंदर आमूल धंस आया था। मेरी साँसें रूक गयी थीं, अंदर एकबार फिर तहस–नहस हो जाने का तूफान था। ‘पापा…!‘ अपनी यातना के चरम क्षण में भी मैंने उसे ही पुकारा था जिससे भागते हुए आज उन्माद के इस कगार पर आ पहुँची थी! तेज नाखून से तड़पकर अरनव मुझसे अलग हो गया था– ‘ यू मैड वुमन…!‘ झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ ये प्रत्याशित शब्द मेरे वजूद पर गाज की तरह गिरे थे। अंदर का एक बहुत बडा हिस्सा अनायास अवश हो आया था। मेरे भीतर के बार–बार नकारे हुए सत्य को आज अरनव ने एक स्पष्ट नाम दे दिया था। एक आदमकद आईने की तरह सामने खड़ा होकर वह जानलेवा सच बोलने पर उतारू था… मेरे अंदर सहने की सारी शक्ति जैसे यकायक चुक आयी थी, इसलिए खुद को समेटकर मै चुपचाप उसके सामने से हट गयी थी। आईने में अपने गालों पर टंकी हुई सुलगती अंगुलियों की छाप को देखते हुए मैं रोना नहीं चाहती थी, मगर बस वही किया…रोती रही…! कोई और विकल्प नहीं था मेरे इस अछोर दर्द के पास। बाथरूम के गीले फर्श पर अपनी ही सिसकियों से टूटती हुई मेरे लिए आज भी सबसे बडी तकलीफ यही थी कि मैं अपने जीवन के इतने बडे क्राइसिस के पल में अपने पापा को पुकार नहीं पा रही थी, हालांकि मैं कहीं गहरे जानती थी, आज भी मेरी सबसे बडी रूहानी जरूरत वही हैं…!  उनका मेरे जीवन से जाना अभाव की एक पूरी दुनिया ले आया है… इसी अभाव से जन्मी है रिश्तों की एक लंबी फेहरिस्त– दोस्तों की, दुश्मनों की, प्यार की और नफरत की…मगर कोई भी, कुछ भी तो उस उस अभाव का पूरक नहीं बन पाया…! मन के अंदर एक भायं–भायं करता हुआ अंधा कुआं है और उसके सीलन भरे अंधकार में कैद मेरा सहमा हुआ बचपन… वह आज भी बड़ा नहीं होना चाहता! बडों की इस बहुत छोटी दुनिया में तो कभी नहीं… यह स्तब्ध अकेलापन मेरी ढाल भी है और कारावास भी! मैं इससे छूटना चाहकर भी छूटना नहीं चाहती… एक सर्द, स्याह रात के सूने में मेरे हाथ से उनकी उंगली छूट गयी थी… और तभी से मैं उजालों की इस दुनिया में खो गयी हूँ। अबतक खुद को नहीं ढूँढ पायी हूँ, औरों की क्या कहूँ…                                                     पापा की उस छूटी हुई उंगली के साथ खो गया है मेरा सबसे बडा संबल– मेरी आस्था, मेरा होना, मेरे पाँव की जमीन, मेरे सर का आसमान… अपने एकमात्र आश्रय से निकल कर जाना था, बेघर हो जाने की वास्तविक विडंबना क्या होती है! उसके बाद आस्था–अनास्था के मारक द्वन्द्व से जूझती यातना के एक अन्तहीन अन्तरिक्ष में भारहीन होकर न जाने कब से भटक रही हूँ– स्वयं को समेटने के असफल प्रयास में… एक विराट शून्य के सिवाय हाथ में अबतक कुछ भी नहीं आया है। सब में डूबकर उनको भूलाने की कोशिश और फिर उनसब में उन्ही को ढूँढने की कोशिश… और अंततः पा लेने का आतंक… हर टूटे रिश्ते में वास्तव में वही-वही रिश्ता एक नये सिरे से जुड़ा है जिसे पूरी तरह से तोड़कर नष्ट कर देने का प्रयास मैंने बार–बार किया है।                                                         आज आँखों के सामने सायास भुलाये … Read more

मेंढकी

मेंढकी -एक उभयचर जीव, कभी पानी में , कभी थल पर और कभी कूद कर पेड़ पर चढ़ जाना | जीवन की कितनी कलाएं उसे पता है | हर परिस्थिति से सामंजस्य स्थापित करने की उसकी क्षमता है | एक ऐसे ही मेंढकी तो थी निम्मो, फिर ऐसा क्या हुआ कि …| ये कहानी निम्मों के साथ आगे बढती है और पाठकों के मानस पर एक रहस्य तारी रहता है | उसे मेंढकी पर भरोसा है | यही भ्रम बनाए रखना ही कथाकार की रचनाशीलता का कौशल | कहानी के अंत में ही पता चलता है कि अंतत : कौन साबित हुआ उभचर  जिसने विपरीत परिस्थिति का ग्रास बनने से पहले साम-दाम , दंड भेद से दूसरी दिशा में छलांग लगा ली  | आइये पढ़ते हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की वो कहानी जिसे भोपाल विश्वविध्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है |  मेंढकी  निम्मो उस दिन मालकिन की रिहाइश से लौटी तो सिर पर एक पोटली लिए थी, “मजदूरी के बदले आज कपास माँग लायी हूँ…” इधर इस इलाके में कपास की खेती जमकर होती थी और मालिक के पास भी कपास का एक खेत था जिसकी फसल शहर के कारखानों में पहुँचाने से पहले हवेली के गोदाम ही में जमा की जाती थी। “इसका हम क्या करेंगे?” हाथ के गीले गोबर की बट्टी को अम्मा ने दीवार से दे मारा। “दरी बनाएंगे…” “हमें दरी चाहिए या रोकड़?” मैं ताव खा गया। मालिक के कुत्ते की सेवा टहल के बदले में जो पैसा मुझे हाथ में मिलता था, वह घर का खरचा चलाने के लिए नाकाफ़ी रहा करता। “मेंढकी की छोटी बुद्धि है। ज्यादा सोच-भाल नहीं सकती”, गुस्से में अम्मा निम्मो को मेंढकी का नाम दिया करती। तभी से जब छह महीने पहले वह इस घर में उसे लिवा लायी थीं। निम्मो की आँखें उन्हें मेंढकी सरीखी गोल-गोल लगतीं, ‘कैसे बाहर की ओर निकली रहती है!’ और निम्मो की जीभ उन्हें लंबी लगती, ‘ये मुँह के अंदर कम और मुँह से बाहर ज़्यादा दिखाई दिया करती है…’ “अम्माजी, आप गलत बोल रही हो”-निम्मो हँसी-जब भी वह अम्मा से असहमत हो, हँसती ज़रूर “मेंढकी की बुद्धि छोटी नहीं होती। बहुत तेज होती है। जिसे वह अपने अंदर छिपाये रहती है। जगजाहिर तभी करती है जब उसकी जुगत सफल हो जाए और जुगती वह बेजोड़ है। चाहे तो पानी में रह ले और चाहे तो खुश्की पर। चाहे तो पानी में रह ले और चाहे तो कूद कर पेड़ पर जा चढ़े। और यह भी बता दूँ, मेंढकी जब कूदने पर आती है तो कोई अंदाजा नहीं लगा सकता वह कितना ऊँचा कूद लेगी…” “कूदेगी तू?” निम्मो की पीठ पर मैंने लात जा जमायी टनाटन- “कूद कर दिखाना चाहती है तो कूद… कूद… अब कूद…” मेंढकों की कुदान के साथ मेरे कई कसैले अनुभव जुड़े थे। अपने पिता के हाल-बेहाल के लिए मैं मेंढक को भी उतना ही जिम्मेदार मानता था जितना मालिक को जिसके पगला रहे बीमार कुत्ते ने मेरे पिता की टाँग नोच खायी थी और जब डाक्टर ने इलाज, दवा, टीके मँगवाने चाहे थे तो मालिक ने मुँह फेर लिया था। ऐसे में बेइलाज चल रहे मेरे पिता का दर्द बेकाबू हो जाता तो वह मेंढकों की खाल के जहरीले रिसाव का सहारा ले लिया करते। उस रिसाव को अपने घाव पर लगाते-लगाते चाट भी बैठते। कभी कभी तो मेंढक की खाल को सुखा कर धुँधाते भी। अपने नशे की खातिर। ताल से मेंढक पकड़ने का काम मेरा रहा करता, उनकी इकलौती संतान होने के नाते। दरी बनाने का भूत, निम्मो के सर से उतरा नहीं। अगले दिन, बेशक मजदूरी ही लायी, कपास नहीं। हाँ, अपने कंधों पर एक चरखा जरूर लादे रही, “मालकिन का है। उसे लोभ दे कर लायी हूँ, पहली दरी उसी के लिए बिनुंगी…” “मतलब?” अम्मा की त्योरी चढ़ आयी। “अब तुझे दरियाँ ही दरियाँ बनानी हैं? घर का काम-काज मेरे मत्थे मढ़ना है?” “घर का पूरा काम काज पहले जैसी ही करती रहूँगी। दरियाँ मैं अपनी नींद के टाइम बिनुंगी…” और रसोई से छुट्टी पाते ही वह अपनी पोटली वाली रुई से जा उलझी उसे धुनकने और निबेड़ने ताकि उसे चरखे पर लगाया जा सके। रातभर उसका चरखा चलता रहा और सुबह हम माँ-बेटे को रुई की जगह सूत के वह दो गोले नज़र आए जिनके अलग अलग सूत को वह एक साथ गूँथ रही थी एक मोटी डोरी के रूप में। अगला वक्त हमारे लिए और भी नये नज़ारे लाया। कभी वह हमें सूत के लच्छों को सरकंडों के सहारे हल्दी या फिर मेंहदी या फिर नील के घोल में डुबोती हुई मिली तो कभी उन रंगे हुए लच्छों के सूख जाने पर उनकी डोरी बँटती हुई। सब से नया नज़ारा तो उस दिन सामने आया जब हमने एक सुबह लगभग चार फुटी दो बाँसों के सहारे नील-रंगी सूत को लंबाई में बिछा पाया। जमीन से लगभग ६ इंच की ऊँचाई पर। अपने आधे हिस्से में हल्दी रंगी चोंच और पैर वाली मेंहदी रंगी चिड़ियाँ लिए जिन्हें निम्मो लंबे बिछे अपने ताने पर इन दो धागों को आड़े तिरछे रख कर पार उतार रही थी। “रात भर जागती रही है क्या?” अम्मा मुझसे भी ज़्यादा हैरान हो आयी थी। “हाँ। मुझे यह दरी आज पूरी कर ले जानी है मालकिन को दिखाने के वास्ते कि उधार ली गयी उसकी कपास मेरे हाथों क्या रूप रंग पाती है। जभी तो उससे और कपास ला पाऊँगी…” “मगर दूसरी दरी क्या होगी? किधर जाएगी?” मैंने पूछा। “बाज़ार जाएगी। मेरी मेहनत का फल लायेगी…” निम्मो ने अपनी गरदन तान ली। उसके सर में एक अजानी मजबूती थी, एक अजाना जोश। ऐसी मजबूती और ऐसा जोश उसने हमारे नजदीकी के पलों में भी कभी नहीं दिखाया था। “कितना फल?” मैं कूद गया। एक अजीब खलबली मेरे अंदर आन बैठी थी। “साठ से ऊपर तो ज़रूर ही खींच लाएगी। मेरे बप्पा के हाथ की इस माप की दरी का दाम तो सौ से ऊपर जा पहुँचता…” “एक दरी का सौ रूपया?” अम्मा की उँगली उसके दाँतों तले जा पहुँची। हम माँ-बेटा उसके जुलाहे बाप से कभी मिले नहीं थे।हमारी शादी से पाँच साल पहले ही वह निमोनिया का निवाला बन चुका था अपने पीछे सात … Read more

कब्ज़े पर

हिस्टीरिया  एक ऐसी बिमारी है जिसमें व्यक्ति अपने ऊपर नियंत्रण खो देता है | ऐसा उनके साथ होता है जो बहुत ही दवाब में जीते हैं | कई बार आम लोग इसे मिर्गी समझ लेते हैं | परन्तु उससे अलग है | महिलाएं इसकी शिकार ज्यादा है |जब मन एक सीमा से ज्यादा दवाब नहीं सह पाता तो हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं | या मरीज स्वयं ही इन दौरों को लाने की कोशिश करता है | ऐसा वो दूसरों को अपने कब्जे में लेने या उनसे अपनी बात मनवाने के लिए करता है | परन्तु यहाँ बात मानने वाले लोग अपने होते हैं जो भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं | परन्तु अगर ये जुड़ाव ना हो …? किसी दूसरे इंसान को अपने कब्जे पर लेने की चाहत क्या -क्या करवाती है …पढ़िए दीपक शर्मा जी की कहानी कब्जे पर में … कब्ज़े पर अपनी दूसरी शादी के कुछ समय बाद पापा मुझे मेरी नानी के घर से अपने पास लिवा ले गए. “यह तुम्हारी स्टेप-मॉम है,” अपने टॉयलेट के बाद जब मैं लाउन्ज में गई तो पापा ने मुझे स्टेप-मॉम से मिलवाया. वे मुस्करा रही थीं. “हाऊ आर यू?” अजनबियों से पहचान बढ़ाना मैं जानती हूँ. “हाथ की तुम्हारी अँगूठी क्या सोने की है?” स्टेप-मॉम मेरी माँ की एक अच्छी साड़ी में मेरी माँ के गहनों से लकदक रहीं. “यह अँगूठी माँ की है,” मैंने कहा. माँ के अंतिम स्नान के समय जब माँ की अँगुली से यह अँगूठी उतारी गई थी तो फफक कर मेरी नानी ने यह अँगूठी मेरे बाएँ हाथ के बीच वाली बड़ी अँगुली में बैठा दी थी- “इसे अब उतारना मत.” “तुम्हारी उम्र में सोना पहनना ठीक नहीं,” स्टेप-मॉम ने अपने हाथ मेरी अँगूठी की ओर बढ़ाए, “कोई भी सोने के लोभ में तुम्हारे साथ कैसा अनर्थ कर सकता है.” “न, मैं इसे न उतारूँगी.” मैंने अपने दाएँ हाथ से अपनी अँगूठी ढक ली. “आज रहने दो.” पापा ने कहा. “रहने कैसे दूँ?” स्टेप-मॉम ने अपनी मुस्कान वापस ले ली, “आपने नहीं कहा था, आशु के हाथ वाली अँगूठी मेरी है?” “आज रहने दो.” पापा ने दोहराया, “आओ खाना खाएँ.” हमारे खाने की मेज हमारे लाउन्ज के दूसरे कोने में रही. खाना मेज पर पहले से लगा था. खाने की मेज पर हम तीनों एक साथ बैठे. “तुम्हारे लिए तुम्हारी स्टेप-मॉम ने खाना बहुत मेहनत से तैयार किया है,” पापा ने मेरी प्लेट में चावल परोसे. “थैंक यू, पापा. मैंने कहा. माँ की ज़िद थी जब भी पापा मेरे साथ नरमी दिखाएँ, मुझे ज़रूर ‘थैंक यू’ बोलना चाहिए. “मुझे नहीं अपनी स्टेप-मॉम को थैंक-यू बोलो.” पापा ने अपनी टूटरूँ-टू शुरू की, “तुम्हारी स्टेप-मॉम बहुत ही अच्छी, बहुत ही भली, बहुत ही सुशील और बहुत ही सुंदर लड़की हैं…..” “थैंक यू,” न चाहते हुए भी मैंने स्टेप-मॉम की तरफ़ अपने बोल लुढ़का दिए. माँ कहती थीं पापा का कहना मानना बहुत ज़रूरी है. “बहुत अच्छा अचार है.” स्टेप-मॉम ने नींबू का अचार दोबारा लिया….. अकस्मात् मुझे अचार बना रही माँ दिखाई दे गईं. माँ का पुराना सूती धोती का वह टुकड़ा दिखाई दे गया जिसे मैंने झाड़न बनाकर नींबू पोंछने के लिए इस्तेमाल किया था….. “ये नींबू मैंने गिने थे,” मैंने कहा, “वन टू वन हंडरड एंड फोर……” “तुम्हें गिनती आती है?” स्टेप-मॉम ने अपनी भौंहें ऊपर कीं, “मुझे बताया गया था तुमने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा है.” “माँ ने सिखाई थी.” मैंने कहा. “आशु तुम्हारे काम में भी तुम्हारी मदद करेगी,” पापा ने स्टेप-मॉम को ख़ुश करना चाहा. “जब तक आशु मुझे अपनी अँगूठी न देगी, मैं उससे कोई मदद न लूँगी,” स्टेप-मॉम अपनी ज़िद भूली नहीं. खाना छोड़कर मैं अँगूठी की तरफ़ देखने लगी. अँगूठी की दिशा से एक हिलकोरा उठा और मुझे हिलाने लगा. मेरे समेत मेरी कुर्सी लड़खड़ाई. “तुम खाना खाओ,” पापा अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, “आशु को अपनी माँ की तरह मिरगी के दौरे पड़ते हैं. मैं आशु को सोफ़े पर लिटाकर अभी आया. खाने की कुर्सी से पापा ने मुझे नरमी से उठाया और लाउन्ज के सोफ़े पर धीरे से लिटा दिया. माँ की बड़बड़ाहट मैं हूबहू अपनी ज़बान पर ले आई, “नर्क, नर्क, नर्क, मैं यहाँ न रहूँगी. यह नर्क है, नर्क, नर्क, नर्क……” “क्या वे भी ऐसा बोलती थीं?” स्टेप-मॉम सहम गई. “तुम खाना खाओ,” खाने की मेज पर लौटकर पापा ने दोहराया, “मिरगी के रोगी को अकेले छोड़ देना बेहतर रहता है……” “मैं खाना नहीं खा सकती,” स्टेप-मॉम की आवाज़ फिर डोली, “ऐसी हालत में कोई खाना खा सकता है भला?” लेकिन अपनी बड़बड़ाहट के बीच मैं जानती रही, पापा ज़रूर खाना खा सकते थे….. पापा ज़रूर खाना खा रहे थे….. माँ की मिरगी के दौरान पापा हमेशा खाना खाते रहे थे…… अगले दिन स्टेप-मॉम ने पापा के ऑफिस जाते ही मुझे मेरे कमरे में आ घेरा, “यह अँगूठी उतार दो.” “मैं नहीं उतारूँगी,” मैंने कहा, “इसमें माँ की रूह है इसे मैं अपने से अलग नहीं कर सकती.” “देख लो. नहीं उतारोगी, मिरगी का दौरा डाल लोगी तो मैं तुम्हें यहाँ न रहने दूँगी. अस्पताल में फेंक आऊँगी. वहाँ डॉक्टर तुम्हें बिजली के ऐसे झटके लगाएँगे कि तुम अपने झटके भूल जाओगी.” “ठीक है. मैं डॉक्टर के पास जाऊँगी. यहाँ नर्क है, नर्क, नर्क, नर्क, मैं यहाँ न रहूँगी.” “तेरे कूकने से मैं नहीं डरती,” स्टेप-मॉम मुझ पर झपटीं. “आज मैं तुझसे यह अँगूठी लेकर रहूँगी.” हूबहू पापा के अंदाज़ में मैंने स्टेप-मॉम के बाल नोच डाले. माँ को नोचते-खसोटते समय पापा हमेशा माँ के बालों से शुरू करते. फ़िरक कर स्टेप-मॉम ने एक फेरा लिया और मुझे जबरन ज़मीन पर पीठ के बल उल्टा कर दिया. ज़मीन को छूते ही हूबहू माँ की तरह मैं काँपी और बड़बड़ाई, “मौत-मौत, मौत, मुझे मौत चाहिए. मौत, मैं मौत चाहती हूँ, मौत, मौत, मौत……” तभी मैंने माँ को देखा. कुछ स्त्रियाँ माँ को स्नान दे रही थीं. हाथ में साबुन लगाए स्टेप-मॉम के हाथ माँकी अँगूठी उतारना चाह रहेथे, लेकिन अँगूठी माँ की अँगुली पर जा बैठी, सो बैठी रही थी, टस से मस न हुई थी. “अँगूठी उतरी क्या?” पापा ने पूछा. “नहीं.” स्टेप-मॉम ने कहा. “मैं देखता हूँ.” पापा फलवाली छुरी उठा लाए, सफ़ेद दस्तेवाली छुरी. अँगूठी की जगह … Read more

ख़ुशी

ख़ुशी क्या है ? मुट्ठी में पकड़ी रेत सी जो उँगलियों के बीच से रिसती चली जाती है | फिर भी इसी ख़ुशी की तलाश में हम सारा जीवन लगा देते हैं | ऐसी तो थी मुनिया | कभी उसकी ख़ुशी खिलौनों में थी कभी चूड़ियों में कभी पति , बेटे , बहु में | हर रिश्ते में देती चली गयी | पर क्या उसके हिस्से में ख़ुशी आ पाई … कहानी -ख़ुशी  शाम होने आई, पिताजी के आने का इन्तजार करती मुनिया को भूख  लगी थी फिर भी वह खेलने में मस्त थी। मां ने आवाज लगाई मुन्नी आजा खाना खा ले, लेकिन मुन्नी के कान तांगे की आवाज सुनने को बेताब थे। इतने में घोड़े की ठकठक की आवाज आई तांगे से पिताजी को उतरते हुए देख रही मुन्नी भागकर पिताजी से लिपट गई। क्या लाये, जानने के लिए भूखी  मुनिया टुकटुकी लगाए पिताजी के इधर उधर घूमती रही। कलाकंद का डिब्बा और मोती की चूड़िया मुन्नी को देकर‌ पिताजी नहाने चले गए। मुन्नी अपने ख्यालों में खो गई कि मां ने कहा था बस तेरा ब्याह करके हम बेफिक्र होकर शहर में रहेंगे। चू ड़ियों को हाथों में लेकर मुन्नी खुश होकर सपने में खो गई।   मुन्नी के पिता (मगन) ने अच्छा लड़का देखकर शादी करने का दिन निश्चित किया। तैयारी होते देख मुन्नी भी सपने संजो रही थी। आखिर शादी के बाद ससुराल आई मुन्नी १६साल की अल्हड़ उम्र के बदलाव के कारण मन में पति के साथ रहने के सपनों में खोती चली गई लेकिन किस्मत का फैसला कुछ और ही था। बड़ी बहू होने के कारण सारे फर्ज उसी के हिस्से में आए। कर्तव्य पूरे किए गए ,लेकिन खुशीयों से दूर रहने के कारण मन विद्रोही हो गया।अब पति के साथ अनबन रहती लेकिन अपने बेटे के लिए सहन कर लेती।एक ही संतान के रूप में बेटे अजय में अपना सुख ढूंढ रही थी।बेटा बड़ा हो गया, पढ़ाई के साथ कहीं नौकरी करने के लिए चक्कर लगा रहा था।एक दिन साइकल टिकाकर अजय घर में आते हुए मां पिताजी की बात सुनकर चिंतित हो गया। पिताजी को टीबी के इलाज के लिए पैसे चाहिए थे।वह मां से गहने ना बेचने की बात कर रहे थे,पर मां बेचकर इलाज के लिए रुपए इकट्ठे करने की जिद कर रही थी।यह वही मुन्नी थी जो बचपन में मोती की चूड़िया देखकर अपनी खुशी सहेली से बांटती थी,और आज अपना दुःख अपने बेटे को भी नहीं बता पाई थी। बहुत दिनों तक इलाज किया पर मुनिया का भाग्य साथी छूटा,साथ ही पैसे के अभाव में रिश्ते कम होते गए या करने पड़े।बेटा नौकरी करके मां के साथ अपने सपने पूरे करने की जी तोड़ कोशिश में लगा था। मुनिया ने भी अपने अन्दर के कलाकार को दुनिया के सामने लाने की तैयारी कर ली। किराए से सिलाई मशीन ली।घर घर जाकर काम मांगने लगी। कपड़े सिलकर थोड़ी सहायता करना चाहतीं थीं।काम अच्छा होने के कारण पैसा भी मिलने लगा और सभी आसपास के मोहल्ले में नाम होने लगा। धीरे धीरे बेटे ने किराए पर बुटिक ले लिया मशीन खरीदी। धीरे धीरे गरीब औरतों को काम करने का मौका दिया,अब तो मुनिया पैसे वाली हो गई। बेटे की शादी के लिए रिश्ते आने लगे। अच्छी लड़की देखकर बेटे की शादी की।अब घर की जवाबदारी बहू को देकर मुनिया चिंता से मुक्त हो गई। लेकिन बहू को भी अपनी पढ़ाई पर गर्व था वह भी कुछ करना चाहती थी। मुनिया के समझाने पर साथ में काम करने को राजी हो गई बहू।अब बड़े बड़े घरों से काम मांगने नहीं जाना पड़ता बल्कि लोग  कपड़े सिलवाने खुद आते।बहू नया डिज़ाइन बना कर देती।एक दिन बहू को चक्कर आने लगे डॉक्टर ने खुश खबरी दी। टाइम पर एक बेटी को जन्म दिया बहू ने।  मुनिया ने अब अकेले काम संभाला पर उम्र बढ़ने के कारण दिखाई कम देने लगा। कमर दर्द, रक्त चाप के साथ शक्कर बढ़ने से मुनिया और भी बीमार हो गई।वह बेटे बहू को अपने कारण परेशान नहीं करना चाहती थी ।एक दिन चुपचाप घर से निकल कर आश्रम में आ गई। हुलिया और नाम बदल लिया।बेटे बहू ने ढूंढा भी लेकिन हुलिया बदलकर रहने से वह कुछ नहीं कर पाए। धीरे धीरे मुनिया गंभीर रोग से पीड़ित हो गई।  अन्तिम समय आने पर आश्रम के माध्यम से बेटे को ख़बर की। मुनिया बड़बड़ाते हुए बचपन में चली गई पिताजी क्या लाए चुड़ियों को देख कर बोली देखो कितनी सुन्दर है। मैं सहेली को दिखाकर आती हूं,और बिस्तर से उठ कर जाने लगी। कौनसी इच्छा शक्ति से वह चार क़दम चली लेकिन अंत में प्रभू के पास चली गई। बेटे बहू को भरा-पूरा घर सौंप कर नवीन  शरीर नई ख़ुशी की तलाश में चली गई, मुनिया। प्रेमलता तोंगिया  यह भी पढ़ें … वो प्यार था या कुछ और था कुंजी नीम का पेड़ डॉ.सिताबो बाई -समीक्षा (उपन्यास ) आपको कहानी  “ ख़ुशी  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under –story, hindi story, emotional hindi , happy

नीम का पेड़‘

दो घरों के बीच अपनी शाखाएं फैला कर खड़ा हुआ नीम का पेड़ उन के बीच विवादों की जड़ था | शाखें भी छटवाई गयीं पर वो फिर किसी शैतान बच्चे की तरह अपनी नन्ही -नहीं टाँगे बढ़ता हुआ दो घरों के बीच की एल .ओ .सी पार कर शान से मुस्कुराने लगता | इस नीम के पेड़ की वजह से ना जाने क्या -क्या सितम हुए पर आखिरी वार इतना मारक था की …जानिये आशा सिंह जी की कहानी से  नीम का पेड़  पिता जी को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ा, लिहाजा बाबा हम लोगों को बनारस ले आये। सरकारी बंगले में रहने वाले हम बच्चों के लिए कोठी अजूबा थी।तिमंजला भवन जिसके आगे पीछे के दरवाजे दो गलियों में खुलते थे। बनारस की गलियां चमत्कारी है, कौन सी गली कहां खुलेगी, बनारस वाले ही जाने।कहते हैं कि चौसठ योगिनियां भी गलियों के जाल में फंस गई।लार्ड हेस्टिंग्स की सेना गलियों से बाहर नहीं निकल सकी। पीछे का दरवाजे से बेनियाबाग पहुंच जाते थे सामने वाला बेहद मजबूत दरवाजा था।उसे सदर दरवाजा कहा जाता था।चोरी के भय से दादी अपने सामने बंद करवाती।बीच में बड़ा आंगन, जिसमें कथा और शादी का मंडप लगता। चारों तरफ कमरे थे। प्रथम तल पर भी इसी प्रकार कमरे बने हुए थे।तीनो ओर कमरे थे,जो स्थान खाली रखा गया था,उसे धूल कहते थे। यहां पापड़ बड़ी और अचार सुखाये जाते।धूल पर नीम के पेड़ की शाखाएं आती थीं,जो दादी को नागवार गुजरती। पेड़ पड़ोसी डा.पन्ना लाल के आंगन में लगा हुआ था।अब पेड़ को अपनी हद में कहां रहना आता है।पशु पक्षी और वृक्ष प्रकृति की उन्मुक्त रचना है। मनुष्य ही जगह जगह सीमा रेखा बनाता है। पेड़ है तो पात झड़ेंगे, पंछी बीट करेंगे। सुबह सुबह दादी का प्रवचन प्रारंभ हो जाता।महरी झाड़ू लगाते हुए हां में हां मिलाती। बाबा चुपचाप पेपर पढ़ने लगते।हम बच्चों को बहुत आनंद आता।पर महाराजिन की डांट सुनकर खाना खाकर स्कूल के लिए तैयार होना पड़ता। कभी कभी दादी के गले में लाउडस्पीकर लग जाता, उधर डाक्टराईन चाची की जबाबी कारवाही शुरू हो जाती।पर सिर फुटौव्वल नहीं हुआ।हम बच्चों को एक दाई आकर स्कूल ले जाती।यह गरीब महिला थी,जिसे कुछ मेहनताना घरों से मिल जाता।हम लड़कियों पर पुलिस कप्तान की तरह रौब गांठती।मजाल है,कोई कन्या इधर उधर ताका झांकी कर ले।डा.पन्नालाल की बेटी सावित्री हमारे साथ जाती थी।मेरी अच्छी दोस्ती हो गई।यह बंधन केवल कन्याओं के लिए था। लड़के ठाठ से स्कूल जाते।शाम को मैदान में खेलने निकल जाते। सुबह के वाक्युद्ध के कारण लौटते समय मैं और सावित्री दूरी बनाए रखते। घर पहुंच कर देखा,सारी महिलाएं गलचौरा कर रही है।उनमे दादी चाची बुआ सब शामिल है।हंसी ठठ्ठा चल रहा था। दादी अक्सर पिताजी के विवाह का किस्सा सुनाया करती। इसी बहाने एक तीर से दो को घायल करतीं।डा.पन्नालाल के पिता बटुक सिंह मेरे पिता जी की बारात में शामिल हुए थे।जेवनार के समय आम का गुरम्मा(मुरब्बा)परसा गया। मुरब्बे का कालाजाम समझ कर गप से मुंह में भर लिया। बहुत गर्म था, मुंह से मय नकली बत्तीसी के बाहर आ गया।गांव की महिलाओं को बड़ा आनंद आया, गीतों में इस बात को पिरोकर गीत गाती रहीं। दादी एक तीर से दो शिकार करतीं,पन्ना चाची और मेरी मम्मी चुटियल हो जाते। दादी कमर पर हाथ रख हमारे ननिहाल वालो पर छींटाकशी करती -अरे वे लोग क्या मिठाई खिलाना जाने। मिठाई तो बस बनारस की।बात सही थी,पर चोट गलत। खुद तो बेहद गरीब परिवार से थीं। बाबा की दूसरी पत्नी थीं। पिता जी की मां की मृत्यु के बाद विधुर बाबा जी से ब्याह हुआ था। एक दिन दादी और पन्ना चाची में भयंकर वाक्युद्ध हुआ। युद्ध का केन्द्र बिन्दु वही नीम का पेड़।इस बार गंभीर समस्या थी घर में चोरी हो गई थी। इतनी सफाई से चोर सामान लेकर निकल गए,किसी को भी पता नहीं चला।वह तो सबेरे बिखरे सामान को देख कर हल्ला मचा। नीचे के दरवाजेपर मजबूत ताले लगाकर सुरक्षित समझ लिया जाता।अब चोर महोदय आकाश मार्ग से आया,इसका अनुमान नहीं था।महाराजिन ने गूढ़ रहस्य बताया कि चोर मसान की राख छिड़क देते हैं,तभी घरवाले मुर्दयी(गहरी)नींद में सो जाते हैं।वरना बाबा उनको छोड़ते।बंदूक है, पिस्तौल है।येशंकर ही लठिया देता।शंकर सेवक थे,अपने बाहुबल पर घमंड था।महाराजजिन के कारण सब पुरुषों की जान में जान आई। मैंने डरते डरते पूछा-‘वे राख कहां से लाते हैं।‘ ‘लो बच्चा।काशी में राख की कमी।लोग दूर दूर से यहां मरने आते हैं, क्योंकि यहां मरने पर स्वर्ग मिलता है। मणिकर्णिका घाट हरिश्चंद्र घाट से लाते हैं।मुझ पर ज्ञान की बौछार कर दादी के साथ अन्वेषण मे लग गई। दादी पुलिस कप्तान की तरह निरीक्षण कर रही थी, पीछे तीनों बुआ सिपाही की तरह मार्च कर रहीं थीं। आखिर दादी का प्यारा रेडियो भी अन्य चोरी हुए सामान में शामिल था। खोज के बाद निष्कर्ष निकाला कि-‘सब डाक्टरिन का किया धरा है।नीम को छांटने नहीं देती।डंगाल हमारे छत पर आती है।उसी पर चढ़ कर चोर छत पर कूदा। आराम से चोरी करके पीछे वाले दरवाजे से बेनियाबाग निकल गया।‘शरलाक होम को भी मात कर दिया।सब लोगों ने सहमति जताई। अब दादी हाथ नचा नचा घर पन्ना की दुल्हन को कोसने लगीं।अब पन्ना चाची ने भी मोर्चा संभाला। दोनों ओर से जबरदस्त मुंहा चाई होने लगी।हम बच्चों को बार बार अंदर धकेला जाता, इस आनंद को कोई छोड़ नहीं रहा था।दादी गरजी-‘हम पेड़ कटा देब।‘ प्रत्युत्तर आया-‘हाथ लगाकर तो देख‘बस वाक्युद्ध ही चला, क्योंकि दादीजी ऊपरी तल पर थीं,चाची नीचे से गला फाड़ रही थी।अब पुरुष वर्ग मैदान में उतरा समझौता कराया गया। वृक्ष की शाखाएं काटी गई।पर जड़ गहरी थी, पुनः हरिया गया।   कुछ दिनो से सावित्री उदास रहने लगी।बताया कि अम्मा की तबियत ठीक नहीं है। घर का काम भी उसी पर पड़ गया। तभी वाक्युद्ध नहीं हो रहा।मैने दादी को बताया। सारे मतभेद भुलाकर वे देखने जाने लगीं। सावित्री का स्कूल आना कम हो गया।बड़े भाई महेंद्र पिता के औषधालय में दवा कूटने लगे।कई डाक्टरों को दिखाया गया,पर लाभ नहीं हुआ।चाची ने संसार से विदा ली।दादी ने आंसू बहाये-भागों वाली थी,पति के कंधे पर चढ़ कर चली गई।‘ मैं अपनी मां से सट गई, कैसे रहेंगे मां के बिना। छोटा भाई डेढ़ बरस का था। मां ने समझाया … Read more

दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल

ये कहानी पढ़कर फिल्म पाकीजा का एक गीत ख्यालों में चला आ रहा है |  “ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते -जलते”           दीपावली का मौका है और बुझते चिरागों की बात करना अच्छा नहीं लगता | फिर भी ये एक ऐसी स्त्री की कहानी है  जिसकी जिन्दगी के बुझते चिराग को बचाने की कोशिश किसी ने नहीं की …ना पति ने न पिता या भाई ने और भाभी ने …उसको तो खैर जाने ही दीजिये |  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की ये कहानी है एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसको एक बिमारी पति से मिली है पर मायका उसके साथ इसलिए नहीं खड़ा है क्योंकि आखिरकार सम्बन्ध टूटने की वजह लोगों को बताएँगे क्या ? स्त्री स्वास्थ्य की उपेक्षा का गंभीर मुद्दा उठाते हुए ये कहानी भावनाओं के गुल होते हुए चिरागों के बारे में बहुत कुछ कह  जाती है … चिराग़-गुल बहन की मृत्यु का समाचार मुझे टेलीफोन पर मिला. पत्नी और मैं उस समय एक विशेष पार्टी के लिए निकल रहे थे. पत्नी शीशे के सामने अपना अन्तिम निरीक्षण कर रही थी और मैं तैयार कबाबों से भरे दो हॉट-केस व बर्फ़ की तीन बाल्टियों को गाड़ी में टिका कर पत्नी को लिवाने कमरे में लौटा था. “टेलीफ़ोन सुनें या रहने दें?” टेलीफ़ोन की घंटी की ओर मेरा ध्यान पत्नी ने ही आकर्षित किया था. “तुम बताओ.” आधुनिक यन्त्रों में मैं सबसे अधिक टेलीफ़ोन से घबराता हूँ. “चलो, सुन लेते हैं,” पत्नी मुस्करायी, “रेणु का हुआ तो कह देना बस पहुँच ही रहे हैं.” पार्टी पत्नी की बड़ी बहन के घर पर आयोजित थी. पत्नी की बड़ी बहन के पति मुझसे सर्विस में आठ साल सीनियर हैं तथा मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ. “हलो,” मैंने टेलीफ़ोन उठाया. “मैं राजेश बोल रहा हूँ,” उधर से आवाज़ आयी, “आपको यहाँ तुरन्त पहुँचना चाहिए. शशि की आज अस्पताल में मृत्यु हो गयी है…..” “कैसे?” मैं चीख पड़ा. “सब खैरियत तो है?” पत्नी ने लपक कर मेरे हाथ से टेलीफ़ोन ले लिया, “हलो….. हाँ….. हाँ….. मैं समझ रही हूँ…..” बाक़ी समाचार पत्नी ने ही ग्रहण किए. मैं अपना मुँह छिपा कर रोता रहा. “राजेश ने क्या कहा?” मैंने थूक निगला. “बोला, शशि का पैलविक एब्सैस (श्रोणीय फोड़ा) उसके पेट में फूट गया था और खून में जहर भर जाने से उसकी हालत बहुत ख़राब…..” “तो उस धूर्त ने हमें क्यों नहीं बुलाया?” क्रोधावेश में मैं अपना सन्तुलन खो बैठा. “कल सब अचानक ही तो हुआ. शशि ने पेट में दर्द की शिकायत की तो उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया…..” पत्नी बहन से आठ साल छोटी रही मगर पत्नी के समाज में बच्चों को छोड़कर सब लोग – मर्द क्या, औरत क्या, बड़े क्या, छोटे क्या – सबके सब एक-दूसरे को नाम से अथवा सर या मै’म के सम्बोधन से पुकारते हैं- ‘जीजी’, ‘भैया’, ‘चाचा’, ‘काकी’ जैसे सभी आदरसूचक शब्द प्रयोग करने की उन्हें सख्त मनाही है. “जरूर उस नीच ने अपनी सरगरमी फिर से शुरू करनी चाही होगी और बेचारी शशि अपना बचाव करने में असमर्थ रही होगी…..” पिछले चार वर्षों में बहन मुझे केवल दो बार ही मिली थी : एक बार दो वर्ष पहले मेरी शादी पर तथा दूसरी बार चार महीने पहले माँ की मृत्यु पर. दोनों बार ही राजेश उसके साथ रहा था और परिस्थितियाँ असामान्य! मेरे विवाह का आयोजन एक सार्वजनिक क्लब में होने के कारण बहन एक औपचारिक अतिथि से अधिक कुछ न रही थी और माँ की मृत्यु पर अतिथि मैं रहा था. पत्नी का संक्रामक गर्भ-सुख मुझे अपने शहर में शीघ्र लौटा ले गया था. हाँ, इधर, जब से अपने निरन्तर बिगड़ रहे गले के इलाज के लिए बाबूजी कस्बापुर से मेरे पास चले आए थे, बहन फोन पर अक्सर मुझसे भी दो-चार बात करती रही थी. बाबूजी के गले को लेकर वह बहुत चिंतित रहने लगी थी. “मुझे डर है, मैं फिर बीमार हो रही हूँ,” पिछले सप्ताह बहन की जब मुझसे फोन पर बात हुई थी तो उसने मुझे चेताया था. “तुम घबराना नहीं,” मैंने उसे ढाँढस बँधाया था, “इधर रेवा अस्पताल में है. जैसे ही वह कुछ ठीक हुई मैं आकर तुम्हें यहाँ अपने पास ले आऊँगा…..” “रेवा को क्या हुआ?” बहन घबरा उठी थी. “उसका केस बिगड़ गया है,” एक लेट-पार्टी के बाद पत्नी का गर्भपात हो गया था, “डॉक्टर बच्चे को नहीं बचा पायी और रेवा को अस्पताल में अभी दो-तीन दिन गुज़ारने पड़ेंगे.” “तुम अभी रेवा को देखो,” बहन शोकार्त्त होकर रो पड़ी थी, “उसे कहना, निराश न होए, भगवान के घर में उसके नाम का टोकरा बहुत बड़ा है….. उसकी झोली में सब कुछ आएगा….. वह धीरज रखे…..” जिन दिनों बहन की शादी हुई थी, मैं आई. ए. एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. भूगोल में एम. ए. कर लेने के बाद बहन लखनऊ के एक महिला कॉलेज में पढ़ाने लगी थी. अख़बार के एक विज्ञापन द्वारा ही बहन को राजेश का परिचय मिला था. राजेश जर्मनी से इंजीनियरिंग की एक उच्च डिग्री लेकर अभी हाल ही में लौटा था तथा उत्तर प्रदेश में ही स्थित किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी करने का इरादा रखता था. एक प्राइवेट इंटर कॉलेज के प्रिंसीपल के पद से रिटायर हो रहे बाबूजी को राजेश व राजेश का परिवार बहन के लिए ठीक-ठाक ही लगा था. बहन ने विवाह की तिथि निश्चित होते ही अपने प्रॉविडेंट फण्ड के लोभ में नौकरी छोड़ दी थी और अपनी मनपसन्द साड़ियाँ बटोरनी शुरू कर दी थीं. राजेश के भयंकर छुतहा रोग का रहस्य तो शादी के बाद ही उद्घाटित हुआ था जब हमें शादी के दसवें दिन बहन की रुग्णावस्था का तार मिला था. बाबूजी और माँ बहन को तुरन्त घर पर लिवा भी लाए थे, परन्तु अभी बहन स्वास्थ्य लाभ ही ग्रहण कर रही थी कि राजेश अनेक डॉक्टरी सर्टिफिकेटों के साथ हमारे घर पर आ धमका था. राजेश के डॉक्टरों ने उसे पूर्णरूपेण निरोग बताते हुए विवाहित जीवन के योग्य घोषित किया था. डॉक्टरोंकी इस घोषणा के साथ राजेश ने अपनी मृदुल विनयशीलता जोड़ ली थी और बाबूजी बहन को राजेश के साथ वापस भेजने के लिए सहमत हो गए थे. आने वाले अमंगल का पूर्वसंकेत … Read more

कुनबेवाला

“तुम बिलकुल जानवर हो ?”यह कह कर किसी इंसान का अपमान कर देना हम इंसानों की आदत में शुमार है | पर क्या जानवर इंसान से गया बीता है ? अगर वफादारी की बात करें तो नहीं | जहाँ इंसानी रिश्ते कदम -कदम पर ठगते हों वहां जानवर का हर हाल में रिश्ता निभाना मन को भावुक कर देता है | दीपक शर्मा जी की कहानी भी इंसान और जानवर (डॉग ) के रिश्तों को परिभाषित करी हुई कहानी है …. कुनबेवाला “ये दिए गिन तो|” मेरे माथे पर दही-चावल व सिन्दूर कातिलक लगा रही माँमुस्कुराती है| वह अपनी पुरानी एक चमकीली साड़ी पहने है| उस तपेदिक से अभी मुक्त है जो उसने तपेदिक-ग्रस्त मेरे पिता की संगति में पाया था| सन् १९४४ में| जिस वर्ष वह स्वर्ग सिधारे थे| “भाई को गिनती आती है,” साथ में बहन खड़ी है| रिबन बंधी अपनी दो चोटियों व नीली सलवार कमीज़ में| वैधव्य वाली अपनी उस सफ़ेद साड़ी में नहीं, जो सन् १९६०से ले कर सन् २०१० में हुई उस की मृत्यु तक उस के साथ लगी रही थी| “मुझसे सीखी है| आएगी कैसे नहीं?” कुछ ही दूरी पर बैठे नाना अपनी छड़ी घुमाते हैं| वह उसी स्कूल में अध्यापक थे जहाँ से हम बहन भाई ने मैट्रिक पास की थी| मैं ने, सन् १९४९ में| और बहन ने सन् १९५३ में| पिता के बाद हम नाना ही के घर पर पले-बढ़े थे| माँ की मृत्यु भी वहीं हुई थी| सन् १९५० में| “चौरासी हैं क्या?” मेरे सामने विशुद्ध बारह पंक्तियों में सात सात दिए जल रहे हैं| “हैप्पी बर्थडे, सर,” इधर मैं गिनती ख़त्म करता हूँ तो उधर माँ, बहन व नाना के स्थान पर आलोक आन खड़ा हुआ है| मेरे हर जन्मदिन पर मुझे बधाई देने आना उसे ज़रूरी लगता है| उस स्नेह व सत्कार के अन्तर्गत जिसे वह सन् १९७६ से मुझे देता आया है, जिस वर्ष उस की आगे की पढ़ाई का बीड़ा मैं ने ले लिया था| कुल जमा अठारह वर्ष की आयु में वह उस कॉलेज में बतौर लैब असिस्टेन्ट आया था, जिस की अध्यापिकी सैंतीस साल तक मेरी जीविका रही थी- सन् १९५३ से सन् १९९० तक- और आज वह उसी कॉलेज का प्रिंसीपल है| “गुड मॉर्निंग, सर,” जभी नंदकिशोर आन टपकता है| वहमेराभांजा है जिसे बहन ने मेरे हीघर पर बड़ा किया है और जिस के बड़े होने पर मैंने उसे अपने कॉलेज में क्लर्की दिलवायी रही| पढ़ाई में एकदम फिसड्डी जो रहा| साथ ही आलसी व लापरवाह भी| “तुम ने चौरासी पूजा नहीं रखवायी?” आलोक उसका बॉस तो है ही, उससे सवाल जवाब तो करता ही रहता है, “सर का चौरासीवाँ जन्मदिन है…..” “रौटी का शौक जो रहा,” प्रणाम की मुद्रा में मालती आन जुड़ती है| नंद किशोर की पत्नी| गंवार व फूहड़| बहन उसे अपनी ससुराल से लायी रही| उधर भी अपना सम्बन्ध बनाए रखने के निमित्त| वहां वाली ज़मीन में बेटे के हिस्से की खातिर| “रौटी का शौक?” आलोक मेरा मुँह ताकता है| “रौटी मेरा रौट व्हीलर है जिसे आलोक ही ने मुझे भेंट किया है| बहन की मृत्यु पर खेद प्रकट करने आया तो बोला मेरी रौट व्हीलर ने अभी पिछले ही सप्ताह पांच पप्सजने हैं| उन में से एक पप मैं आपको देना चाहूँगा| शायद वह आप की क्षति पूरी कर दे| उस के प्रस्ताव से मैं चौंका तो था, बहन की खाली जगह वह पप भर सकेगा भला? किन्तु प्रस्ताव आलोक की ओर से रहा होने के कारण मैं ने हामी भर दी थी और यकीनमानिए वह हामी यथा समय मेरे लिए विलक्षण उपहार ही सिद्ध हुई है| “इस युगल ने उसे मार डाला,” मैं कहता हूँ, “और अब यह मुझे मार डालने की तैयारी कर रहे हैं| अपने बेटे की दुल्हन के लिए इन्हें मेरा कमरा चाहिए…..” “धिक! धिक!” आलोककी धिक्कार तो मैं सुन पा रहा हूँ किन्तु उसे देख नहीं पा रहा….. वह लोप हो चुका है….. दृष्टिक्षेत्र में आ रहे हैं नंद-किशोर व मालती….. मेरे कमरे की वही खिड़कियां खोलते हुए, जिन्हें मैं हमेशा बंद रखता रहा हूँ….. मोटे पर्दों के पीछे…..  पर्दों के आगे विशालकाय मेरी टी.वी. जो रहा करती है, जिस का आनन्द लेने की इस युगल व इसके बेटे को सख़्त मनाही रही है….. मगर टी.वी. अब वहां है ही नहीं….. नही मेरी मेज़-कुर्सी जहाँ बैठ कर मैं अपना पढ़ता-लिखता हूँ….. न ही मेरा पलंग जहाँ मैं सोता हूँ….. मेरा कमरा मेरे होने का कोई प्रमाण नहीं रखता….. मैं वहां कहीं नहीं हूँ….. कमरा अब मेरा है ही नहीं….. (२) दु:स्वप्न के बारे में लोग-बाग सही कहते हैं, दु:स्वप्न निद्रक में केवल त्रास-भाव जगाता है, उसे कार्यान्वित नहीं करता| नो थर्ड एक्ट| तीसरा अंक नहीं रखता| बल्कि यूनानी देव-कथाएँ तो स्वप्न-दुस्वप्न लाने वाली एक त्रयी की बात भी करती हैं, जो निद्राजनक मिथक हिपनौज़ के पंखधारी त्रिक बेटे हैं : भविष्य-सूचक मौरफ़ियस, दु:स्वप्न-वाहक फ़ौबिटरवकल्पना-धारकफैन्टोसौस – जो विभिन्न छवियाँ लेकर पिता की घुप्प अँधेरी गुफ़ा सेचमगादड़ों की भांति निकलते हैं और उन्हें निद्रक पर लाद जाते हैं| कभी सामूहिक रूप से तो कभी पृथक हैसियत से| परिणाम: स्वप्न-चित्र कब अतीत को आन अंक भर ले, भविष्य – कब वर्तमान को निगल डाले, कोई भरोसा नहीं| दु: स्वप्न कब किसी मीठे सपने को आन दबोचे, कुछ पता नहीं| (३) मैं जाग गया हूँ| अपने बिस्तर पर हूँ| कमरे में कहीं भी कुछ यत्र-तत्र नहीं| मेरी पढ़ने वाली मेज़-कुर्सी खड़ी है| यथावत| खिड़कियाँ भी बंद हैं| यथा-नियम| रौटीमेरे पलंग की बगल में बिछेअपने बिस्तर पर ऊंघ रहा है|यथापूर्व| उसे मैं अपने कमरे ही में सुलाता हूँ| छठे साल में चल रहा रौटीअपना पूरा कदग्रहण कर चुका है : अढ़ाई फुट| वजन भी: साठ किलो| ठोस व महाकाय उस की उपस्थिति मेरामनोबल तो बढ़ाती ही है साथही मेरे अकेलेपन को भी मुझ से दूर रखती है| मेरी माँ और बहन के अतिरिक्त यदि किसी तीसरे ने मुझे सम्पूरित प्रेम दिया है तो इसी रौटी ने| विवाह मेरा हो नहीं पाया था| विवाह-सम्बन्धी अनुकूल अनेक वर्ष नाना के इलाज व सेवा- सुश्रुषा ने ले लिए थे जिन्हें कैन्सर ने आन दबोचा था| सन् १९५८ में| जिस वर्ष बहन की शादी की गयी थी| हमारी माँ नाना की इकलौती सन्तान थीं और ऐसे में मुझे छोड़ कर … Read more