प्रेम भरद्वाज –शोकाकुल कर गया शब्दों के जादूगर का असमय जाना

    प्रेम भरद्वाज -25 अगस्त 1965-10 मार्च 2020 प्रेम भरद्वाज, एक ऐसा नाम जिनका जिक्र आते ही ध्यान में जो पहली चीज उभरती है वो है मासिक साहित्यिक पत्रिका “पाखी” में लिखे हुए उनके सम्पादकीय| शब्दों के जादूगर प्रेम भरद्वाज इसे पूरी निष्ठा और हृदय से लिखते थे| जिनके बारे में वो खुद कहते थे कि, “इन्हें मैंने मैंने सम्पादकीय की तरह से ना लिख कर रहना की तरह लिखा है और खूब दिल से लिखा है| लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले प्रेम भरद्वाज जी से मेरा परिचय ‘पाखी’ के संपादक के तौर पर हुआ था|  और पहली मुलाकात उनके सम्पादकीय संग्रह”हाशिये पर हर्फ़” के विमोचन के अवसर पर हिंदी भवन में| अपने इस संग्रह के बारे में वो  इस किताब में लिखते हैं … “मेरी चिंताओं में साहित्य का सीमित संसार ना होकर समग्र संस्कृति और समाज में बह रही बदलाव की आंधी के बीच का ‘इत्यादि’ है जो एक साथ कई मोर्चों पर जूझता हुआ हाशिये पर अकेला है| पत्रकारिता ने मुझे घटनाओं को खबरों में ढालना सिखाया, तो साहित्य ने तात्कालिक सवालों से मुठभेड़ करते हुए समय में धंसना | इस दुनिया और जिन्दगी को ‘जलसाघर’ ना मानने के कारण मेरे भीतर एक जद्दोजहद जारी है इसमें सत्य-असत्य की फांक   उनके सम्पादकीय में एक ख़ास बात होती थी …वो बहुत निराशा और अँधेरे से उसकी शुरुआत करते थे और ऐसा लगता था कि वो हाथ में एक छोटी सी टॉर्च  थामे पाठक को किसी अँधेरी सुरंग में ले जारहे हैं| पाठक कई बार बीच में घबराता है, तड़पता है और अंत में वो उसे सुरंग से बाहर ला कर सच्चाई के सूरज के सामने खुली हवा में खड़ा कर देते हैं| तमाम इफ एंड बट के झूलते मन के बीच यह एक सुकून भरी साँस होती थी| पाठकों के बीच में उनका यह स्टाइल बहुत लोकप्रिय था| निराशा की प्रतिध्वनि उनके कहानी संग्रह ‘फोटो अंकल’ की कहानियों से भी आती है| उनका जीवन भी इसी निराशा में एक टॉर्च जला कर कुछ सकारात्मक ढूँढने जैसा था |उनकी कहानियों के विषय में नामवर सिंह जी ने कहा था … प्रेम भरद्वाज की भाषा काबिले तारीफ़ है, इनकी अधिकतर कहानियाँ विषय में वैविध्य के साथ उपन्यास की सी सम्वेद्नालिये रहती हैं|  हाशिये पर हर्फ़ में उनका जीवन परिचय मिलता है … 25 अगस्त, १९६५ में बिहार के छपरा जिले में गाँव विक्रम कौतुक में जन्म| शिक्षा वहीँ के टूटे फूटे विध्यालाओं में दरख्तों के साए में टाट बोरा बीचा कर| छठी कक्षा सेफौजी पिता केसाथ गाँव से विस्थापित| जीवन के डेढ़ दशक विभिन्न शहरों दार्जिलिंग, दिल्ली, इलाहबाद और पटना में बीते| पिता की असहमति के बाद साहित्य के बिरवे को मन में रोप, माँ ने गढ़ा और पत्नी ने परवान चढ़ाया|   उन्होंने  निजी जीवन में भी अभी कुछ वर्ष पहले अपनी माँ व् पत्नी का वियोग झेला था | अपनी पत्नी की मृत्यु पर लिखे गए उनके सम्पादकीय के कुछ अंश … स्त्री पुरुष के लिए पगडंडी, सीढ़ी और पुल… होती है जिनसे होकर पुरुष गुजरता, पार होता है। जयी होता है। और फिर भूल जाता है पगडंडी, सीढ़ी, पुल जो उसकी कामयाबी के कारण थे। स्त्री मायने पत्नी ही नहीं- मां, बहन, प्रेमिका और दोस्त भी। उत्सर्ग का दूसरा नाम है स्त्री। औरत जल है, पुरुष उसमें तैरती मछली। पुरुष जहां सबसे पहले तैरता है वह स्त्री का गर्भ होता है जहां पानी भरा रहता है। बेशक नौ महीने बाद पुरुष उस जल से बाहर आ जाता है। मगर रहता है ताउम्र औरत के स्नेह-जल में ही। जब कभी भी वह उससे बाहर आता है, जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगता है या मछली से हिंसक मगरमच्छ बन जाता है वह भी मेरे लिए जल थी। अब मैं जल से बाहर हूं, मछली की तरह छटपटाता। प्रत्येक स्त्री दिल की तरह होती है जो हर पुरुष के भीतर हर घड़ी धड़कती रहती है। मगर पुरुष इस बात से अनजान रहता है। उसे उसकी अहमियत का पता भी नहीं होता है। पहली बार उसे फर्क तब पड़ता है जब दिल बीमार हो जाता है। जीवन खतरे के जद में दाखिल होता है। जिंदगी खत्म हो सकती है, इस डर से दिल का ख्याल। अक्सर होने और खत्म हो जाने के बाद भी हम इस बात से अनजान रहते हैं कि हमारे भीतर कोई दिल भी था जो सिर्फ और सिर्फ हमारी सलामती के लिए बिना थके, बिना रुके, बगैर किसी गिले-शिकवे के हर पल धड़कता रहा।   पाखी और प्रेम भरद्वाज               प्रेम भरद्वाज जी ने एक लम्बा समय पत्रकारिता में गुज़ारा …लेकिन पाखी उनकी पहचान बन गयी और वो पाखी की | राजेन्द्र यादव जी के समय में अगर कोई साहित्यिक पत्रिका हंस का मुकाबला कर पा रही थी तो वो पाखी ही थी| इसका कारण था प्रेम भरद्वाज जी का रचनाओं काचयन, लेखकों और पाठकों से उसको जोड़ने का प्रयास और सबसे ऊपर उनका सम्पादकीय| उनके सम्पादकीय के बारे में स्वयं राजेन्द्र यादव जी ने कहा था कि … “ मैं प्रेम भरद्वाज जी के सम्पादकीय लेखों का फैन हूँ| ये सम्पद्कीय सचमुच पढ़े जाने लायक है| पढने से ज्यादा मनन करने लायक| मुझे लगता है प्रेम जिस उन्मुक्तता व् पैशन के साथ लिखते हैं, उस तरह कम लोग लिख रहे हैं|” संसाधनों की कमी से जूझती साहित्यिक पत्रिकाओं में असर संपादक रचनाओं से समझौता  कर लेते हैं पर उन्होंने अपने संपादन काल में ऐसा नहीं होने दिया और सोशल मीडिया पर सुनने  में आया कि कई बार उन्होंने अपनी सेलेरी भी नहीं ली, पर पत्रिका की गुणवत्ता में कमी नहीं आने दी| हंस और राजेन्द्र यादव के नक़्शे कदम पर चलते हुए उन्होंने विवादों का इस्तेमाल पाखी की लोकप्रियता बढ़ाने  में किया| अक्सर किसी बात पर वो पक्ष विपक्ष की मुठभेड़ करा देते थे| जिसे पाखी में प्रकशित भी करते थे| इसने पाखी को ऊँचाइयों  पर भी पहुँचाया और विवाद में भी फँसाया| अभी हालिया विश्वनाथ त्रिपाठी जी का विवाद अमूमन सबको याद होगा | कुछ ऐसे भी विवाद थे जिनके बारे में तब पता चला जब उनका  और पाखी का साझा सफ़र समाप्त हुआ| इस अँधेरे में फिर से टॉर्च जला कर आगे की यात्रा करते हुए उन्होंने एक नयी … Read more

कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार

कृष्णा सोबती समय से आगे रहने वाली हिंदी साहित्य की ऐसी अप्रतिम साहत्यिकार थीं जिन्होंने नारी अस्मिता को उस दौर में रेखांकित किया था जब नारी विमर्श की दूर दूर तक आहट भी नहीं थी। उन्होंने सात दशक तक लगातार लिखा और एक से बढ़कर एक कई कालजयी रचनाएं दीं। उनकी कृतियों में एक ओर जिंदगीनामा जैसा विशाल काव्यात्मक उपन्यास है तो वहीं उनकी रचना-सूची में मित्रो मरजानी और ऐ लड़की जैसी छोटी कृतियां भी हैं। उनकी रचनाओं ने नए शिखर बनाए। उनकी रचनाओं में इतनी विविधता रही है कि उन पर व्यापक विमर्श किसी एक आलेख में कठिन है। हम कह सकते हैं कि उनकी रचनाओं में समय का अतिक्रमण है। विविधता और प्रासंगिकता ऐसी चीजें हैं, जो लंबे समय तक उनके साहित्य की महिमा बनी रहेगी। उन्होंने साहित्य में इतना योगदान किया है कि लंबे समय तक वह अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेंगी। कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार कृष्णा सोबती ने अपनी रचनाएं बेबाकी से भी लिखीं। उनकी रचनाओं मे बोल्ड भाषा अपनाए जाने और भदेस होने के आरोप भी लगे। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और अपनी सृजनात्मकता को नया आयाम देती रहीं। उन्होंने साबित कर दिया कि वह नारी अस्मिता से सरोकार रखने वाली संभवतः पहली साहित्यकार हैं। उनकी खूबियों में स्वाभिमान, स्वतंत्रता, निर्भीकता आदि भी शामिल हैं। अपनी जिद को लेकर वह अमृता प्रीतम के साथ लंबे समय तक मुकदमे में भी उलझी रहीं। उम्र बढ़ने के बाद भी समसामयिक घटनाओं से उनका सरोकार कायम रहा और वह असहिष्णुता का विरोध करने वालों में प्रमुखता से शामिल रहीं। व्हील चेयर पर होने के बाद भी उन्होंने असहिष्णुता के विरोध में 2015 में नयी दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया जहां उनके संबोधन की खासी प्रशंसा हुयी। उनकी भाषा हिंदी-उर्दू-पंजाबी का अनोखा मिश्रण है। अपनी तमाम आलोचनाओं के बीच उन्होंने जता दिया था कि वह अपनी शर्तों पर लिखेंगी और साहित्य जगत में अपना अलग स्थान बनाएंगी। उन्होंने अपने सृजन, साहस और मानवीय संवेदना से जुड़े सरोकारों के दम पर न सिर्फ मूर्धन्य और कालजयी रचनाकारों में अपना स्थान सुनिश्चित किया बल्कि हिंदी साहित्य को एक नयी दिशा भी दिखायी। उनकी शैली में लगातार बदलाव दिखा। इसका असर पाठकों पर भी दिखा और लेखिका तथा कई पीढ़ी के पाठकों के बीच आत्मीय नाता बना रहा। कृष्णा सोबती भारत के उस हिस्से से आती थीं जो बाद में पाकिस्तान बना। इसका असर उनकी रचनाओं में दिखता है और पंजाबियत उनकी भाषा में सहज रूप से दिखती है। हर बड़े रचनाकार की तरह ही उनकी एक अलग भाषा है जिसकी अलग ही छटा दिखती है। उनकी रचनाओं में विविधता भी खूब है। पंजाब से लेकर राजस्थान, दिल्ली और गुजरात का भूगोल उनकी कृतियों में है। वह लिखने के पहले काफी तैयारी या यों कहें कि होमवर्क करती थीं। दिल ओ दानिश कहानी इसका जीवंत उदाहरण है। पुरानी दिल्ली की संस्कृति, आचार-व्यवहार, भाषा, परंपरा आदि को शामिल कर ऐसी रचना की कि पाठक पात्रों के साथ उसी दौर में पहुंच जाता है। उनकी कृति हम हशमत ऐसी रचना है जिसमें उन्होंने अपने समकालीनों के बारे में आत्मीयता के साथ ही बेबाकी से लिखा है। इस रचना के जरिए उन्होंने एक नयी दिशा को चुना। सममुच यानी यथार्थ के पात्रों का ऐसा बारीक चित्रण किया कि लोगों ने उनकी इस किताब को अपने समय की चित्रशाला करार दिया। सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर वह हमेशा सजग रहतीं। कई मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उन्होंने समाचार पत्रों में लेख भी लिखे। भारत का विभाजन उन्हें हमेशा खलता रहा। संभवतः यही कारण था कि वह सामाजिक समरसता की पक्षधर थीं। वह स्वयं बंटवारे का शिकार थीं। संभवतः इसी वजह से वह समाज को विभाजित करने वाली गतिविधियों से वाकिफ थीं और ऐसी गतिविधियों के विरोध में लगातार आवाज बुलंद करती रहीं। वह संभवतः हिंदी साहित्य की ऐसी रचनाकार रहीं जिन्होंने सबसे ज्यादा ऐसे नारी चरित्रों को गढ़ा जो न सिर्फ नारी की पारंपरिक छवि को तोड़ने वाली थीं बल्कि स्वाधीनता, संघर्ष और सशक्तता के मामले में पुरूषों के समकक्ष खड़ी थीं। कृष्णा सोबती ऐसी लेखिका थीं जिन्होंने शायद ही कभी अपने को दोहराया। उनकी रचनाओं में तथ्य के साथ ही वस्तु और शिल्प का बेहतरीन प्रयोग दिखता है। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि पाठकों को उनकी अगली कृति का इंतजार रहता। पाठकों को उम्मीद रहती कि उनकी नयी कृति में कुछ नया पढ़ने को मिलेगा और कुछ नयी चीज प्राप्त होगी। साहित्यकारों से पाठकों की ऐसी उम्मीद विरले ही दिखती है। समय के साथ साथ उनकी रचनाएं और उनका व्यक्तित्व दोनों यशस्वी होते गए। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाली कृष्णा सोबती मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहीं। यही वजह है कि समय के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ती रहीं। किसी लाभ या लोभ के लिए वह कभी अवसरवादी नहीं रहीं। उनके व्यक्तित्व के बारे में कहा जा सकता है कि वह समकालीन हिंदी साहित्य की माॅडल यानी आदर्श रचनाकार थीं। उनके जीवन, उनकी लेखनी से युवा काफी कुछ सीख सकते हैं और अपनी नियति तय कर सकते हैं। कृष्णा सोबती ने आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर भी कलम चलायी और उनके अधिकारों को बचाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी लेखकीय गरिमा से लोगों को शक्ति देने की कोशिश की और जताया कि लेखन एक लोकतांत्रिक कार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और भारतीय संविधान में गहरी आस्था रखने वाली कृष्णा सोबती लेखकों के लिए किसी विशेष अधिकार की पक्षधर नहीं थीं। लेकिन उनका मानना था कि लेखक को संविधान से आजादी और नागरिकता के अधिकार मिले हैं। किसी व्यवस्था, सत्ता या समुदाय को इसमें कटौती करने का अधिकार नहीं है। बहरहाल, कृष्णा सोबती 94 साल की लंबी उम्र जीने के बाद अब हमारे बीच नहीं हैं। हमें इस सचाई को आत्मसात करना होगा। सिनीवाली कृष्णा सोबती के बारे में और पढ़ें .. .कृष्णा सोबती -जागरण कृष्णा सोबती को मिला ज्ञानपीठ कृष्णा सोबती -विकिपीडिया फोटो क्रेडिट –DW.COM आपको   लेख “ कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट … Read more

विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद छोटी-छोटी सी बात …

फोटो क्रेडिट -इंडियन एक्सप्रेस ना जाने क्यों होता है ये जिन्दगी के साथ , अचानक ये मन  किसी के जाने के बाद , करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …                          ये गीत फिल्म ‘छोटी सी बात’ में विद्या सिन्हा पर फिल्माया गया था | विद्या सिन्हा के अभिनय की तरह ये गीत भी मुझे बहुत पसंद था | बरसों पहले अक्सर ये गीत गुनगुनाया भी करती थी | फिर जैसे -जैसे विद्या सिन्हा ने फिल्मों से दूरी बना ली वैसे -वैसे मैंने भी इस गीत से दूरी बना ली | परन्तु आज  जैसे ही विध्या सिन्हा की मृत्यु की खबर आई … ये गीत किसी सुर लय ताल में नहीं , एक सत्य की तरह मेरे मन में उतरने लगा और विद्या सिन्हा की फिल्में उनसे जुडी तमाम छोटी बड़ी बातें स्मृति पटल पर अंकित होने लगीं | विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …                           साधारण शक्ल सूरत लेकिन भावप्रवण अभिनय वाली विद्या सिन्हा ने ‘रजनीगंधा फिल्म से अपन फ़िल्मी कैरियर शुरू किया | ये फिल्म मन्नू भंडारी जी की कहानी ‘यही सच है ‘पर आधारित थी | ये कहानी एक ऐसी पढ़ी -लिखी शालीन लड़की की कहानी है जो अपने भूतपूर्व और वर्तमान प्रेमियों में से किसी एक को चुनने के मानसिक अंतर्द्वंद में फंसी हुई है |  बासु दा निर्देशित इस कहानी में विद्या सिन्हा ने अपने अभिनय से प्राण फूंक दिए |  उन पर फिल्माया हुआ गीत ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके जैसे आँगन में  / यूँही महके प्रीत पिया की मेरे अनुरागी मन में “बहुत लोकप्रिय हुआ | उनकी सादगी ने दरशकों को मोहित कर दिया | उसके बाद उन्होंने कई फिल्में करीं | ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने ग्लैमर की जगह सादगी और भावप्रवण अभिनय पर ध्यान केन्द्रित किया | शीघ्र ही उनकी पहचान एक सशक्त अभिनेत्री के रूप में होंने लगीं | उन्होंने ज्यादातर सेमी आर्ट फिल्मों में अपना योगदान दिया | फिर भी छोटी सी बात और पति पत्नी और वो की लड़की सायकल वाली को कौन भूल सकता है |  फ़िल्मी जीवन उनका चाहें जैसरह हो पर निजी जीवन बेहद दुखद था | जिसका असर फ़िल्मी जीवन पर भी पड़ा | और उन्होंने निराशा में बहुत जल्दी फिल्मों से दूरी बना ली | अभी हाल में वो फिर से एक्टिव हुईं थी पर ईश्वर ने उन्हें तमाम साइन प्रेमियों से छीन कर अपने पास बुला लिया |  उनका जन्म 15 नवम्बर १९४७ में हुआ था | उन्हें जन्म देते ही उनकी माँ की मृत्यु हो गयी | उनके पिता एस .मान सिंह प्रसिद्द  सहायक निर्देशक  थे | पर माके बिना उनका लालन -पालन उनके नाना मोहन सिन्हा के याहन हुआ जो प्रसिद्द निर्देशक थे | मोहन सिन्हा को ही मधुबालाको सुनहरे परदे पर लाने का श्रेय  जाता है |  विद्या सिन्हा का एक्टिंग को कैरियर बनाने का इरादा नहीं था परतु उनकी एक आंटी ने उन्हें मिस बॉम्बे प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए मना लिया | उन्होंने १७ वर्ष की आयु में इस प्रतियोगिता को जीता | उसके बाद उनका मोड्लिंग का सफ़र शुरू हो गया १८ वर्ष की आयु तक वो कई मैगजींस के कवर पर आ चुकी थीं | उसी समय उनकी मुलाकात वेंकेटश्वरन अय्यर से हुई | ये मुलाकात प्रेम में बदली और उन्होंने १९६८ में उनसे विवाह कर लिया | विवाह के बाद भी वो मोडलिंग करती रहीं | बासु दा ने उन्हें एक मैगजीन के कवर पर देख कर अपनी फिल्म के लिए उनसे कांटेक्ट किया | १९७४ में उन्होंने रजनीगंधा में काम किया जो बहुत हित फिल्म साबित हुई उसके बाद बासु दा उनके मेंटर और शुभचिंतक के रूप में उनका साथ देने लगे |  १२ साल तक उन्होंने अभिनय क्षेत्र की ऊँचाइयों को छुआ | फिर उन्होंने एक बच्ची जाह्नवी को गोद लिया और उसकी परवरिश के लिए उस समय फ़िल्मी दुनिया को विदा कह दिया जब उनका कैरियर पीक पर था | अपने पति और बच्ची के साथ उन्होंने थोडा सा ही जीवन शांति से गुज़ार पाया होगा कि उनके पति की मृत्यु (1996 ) हो गयी | उसके बाद वो अपनी बेटी के साथ (2001)ऑस्ट्रेलिया चली गयीं ताकि इन दर्दनाक यादों से दूर रह कर अपनी बेटी की अच्छी परवरिश कर सकें | यहीं पर उनकी मुलाक़ात भीमराव शालुंके  से हुई |कुछ समय बाद दोनों ने शादी कर ली | शालुंके का व्यवहार उनके प्रति अच्छा नहीं था | शारीरिक व् मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर उन्होंने (२००९ ) में तलाक ले लिया | जिसके खिलाफ उन्होंने FIR भी दर्ज की थी |  बेटी के समझाने पर उन्होंने फिर से अभिनय की दुनिया में कदम रखा | 2004 में एकता कपूर के सीरियल काव्यांजलि से उन्होंने टीवी में अभिनय की शुरुआत की | हालांकि अभिनय उन्होंने इक्का दुक्का फिल्मों और सीरियल में ही किया |  वो काफी समय से वो वेंटिलेटर पर थी और आज  १५ अगस्त 2019 को  ७१ वर्ष की आयु में उन्होंने अपने इस जीवन के चरित्र का अभिनय पूरा कर उस लोक में प्रस्थान किया | भले ही आज वो हमारे बीच नहीं है पर अपने सादगी भरे अभिनय के माध्यम से वो अपने चाहने वालों के बीच में सदा रहेंगी |  *सत्यम शिवम् सुन्दरम में पहले रूपा का रोल उन्हें ही ऑफर किया गया था जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि वो कम कपड़ों में सहज  महसूस नहीं करती |  यह भी पढ़ें … हैरी पॉटर की लेखिका जे के रॉलिंग का अंधेरों से उजालों का सफ़र लोकमाता अहिल्या बाई होलकर डॉ .अब्दुल कलाम -शिक्षा को समर्पित थी उनकी जीवनी स्टीफन हॉकिंग -हिम्मत वालें कभी हारते नहीं आपको  फिल्म समीक्षा    “विद्या सिन्हा – करे फिर उसकी याद   छोटी-छोटी सी बात …“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under -vidya sinha                   … Read more

अमृता प्रीतम – मुक्कमल प्रेम की तलाश करती एक बेहतरीन लेखिका

सुप्रसिद्ध पंजाबी कवियत्री अमृता प्रीतम, जिनके लेखन का जादू बंटवारे के समय में भी भारत और पकिस्तान दोनों पर बराबर चला | आज उनके जन्म दिवस पर आइये उन्हें थोडा करीब से जानते हैं |  अमृता प्रीतम – मुक्कमल प्रेम की तलाश में करती  एक बेहतरीन लेखिका  ३१ अगुस्त १९१९ को पंजाब के गुजरावाला जिले में पैदा हुई अमृता प्रीतम को पंजाबी  भाषा की पहली कवियत्री माना  जाता है | उनका बचपन लाहौर में बीता व् प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा भी वहीँ हुई | उन्होंने किशोरावस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था | कहानी , कविता , निबंध , उपन्यास हर विधा में उन्होंने लेखन किया है | उनकी महत्वपूर्ण रचनायें अनेक भाषाओँ में अनुवादित हो चुकी हैं | अमृता प्रीतम जी ने करीब १०० किताबें लिखीं जिसमें उनकी चर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट भी शामिल है |  रचनाओं व् पुरूस्कार का संक्षिप्त परिचय उनकी चर्चित कृतियाँ निम्न हैं … उपन्यास –पांच बरस लम्बी सड़क , पिंजर ( इस पर २००३ में अवार्ड जीतने वाली फिल्म भी बनी थी ) , अदालत , कोरे कागज़ , उनचास दिन , सागर और सीपियाँ आत्म कथा –रसीदी टिकट कहानी संग्रह – कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं , कहानियों के आँगन में संस्मरण –कच्चा आँगन , एक थी सारा अमृता जी के सम्पूर्ण  रचना संसार के  बारे में विकिपीडिया से जानकारी ले सकते हैं  प्रमुख पुरुस्कार – १९५७ –साहित्य अकादमी पुरूस्कार १९५८- पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरुस्कृत १९८८ -बैल्गारिया वैरोव पुरूस्कार १९८२ – ज्ञानपीठ पुरूस्कार अपने अंतिम दिनों में उन्हें पदम् विभूषण भी प्राप्त हुआ जो भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा सम्मान है | उन्हें अपनी पंजाबी  कविता “अज्ज आँखा वारिस शाह नूं”  के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी। अमृता प्रीतम की शादी                     छोटी उम्र में ही अमृता प्रीतम की मंगनी हो गयी थी और जल्द ही सन १९३५ में उनका प्रीतम सिंह से विवाह हो गया |  वे अनारकली बाज़ार में होजरी व्यवसायी के बेटे थे | उनके दो बच्चे हुए | बंटवारे के बाद भारत आ कर  रिश्तों के दरकन से आजिज आ कर दोनों ने १९६० में  तलाक ले लिया किन्तु  अमृता प्रीतम ताउम्र  अपने पति का उपनाम “प्रीतम ” अपने नाम के आगे लगाती रहीं | अमृता प्रीतम और साहिर लुधियानवी   अमृता जी जितना अपने साहित्य के लिए जानी जाती हैं उतना ही  साहिर लुधयानवी व् इमरोज से अपनी मुहब्बत के कारण जानी जाती है | कहने  वाले तो ये भी कहतें ही कि अमृता साहिर लुध्यानवी  से बेपनाह मुहब्बत करतिन थी  और इमरोज अमृता से | हालांकि ये दोनों मुहब्बतें पूरी तरह से एकतरफा नहीं थीं | जहाँ साहिर लुधियानवी ने अपने प्यार का कभी खुल कर इज़हार नहीं किया वहीँ अमृता ने इस पर बार –बार स्वीकृति की मोहर लगाई | उनकी दीवानगी का आलम ये थे कि वो उनके लिए अपने पति को भी छोड़ने को तैयार थीं | हालांकि बाद में उनके पति से उनका अलगाव हो ही गया | एक समय ऐसा भी आया जब वो साहिर के लिए दिल्ली में लेखन से प्राप्त तमाम प्रतिष्ठा भी छोड़ने को तैयार हो गयीं पर साहिर ने उन्हें कभी नहीं अपनाया |  उन्होंने साहिर से पहली मुलाकात को कहानी के तौर पर भी लिखा पर साहिर ने खुले तौर पर उस बारे में कुछ नहीं कहा | जानकार लोगों के अनुसार साहिर लुधयानवी की माँ ने अकेले साहिर को पाला था | साहिर पर  उन बहुत प्रभाव था | वो साहिर के जीवन में आने –जाने वाली औरतों पर बहुत ध्यान देती थी | उन्हें अपने पति को छोड़ने वाली अमृता बिलकुल पसंद नहीं थी | साहिर ने अमृता को कभी नहीं अपनाया पर वो उन्हें कभी भुला भी नहीं पाए | जब भी वो दिल्ली आते उनके बीच उनकी ख़ामोशी बात करती | इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते थे | “ रसीदी टिकट “में एक जगह अमृता ने लिखा है … जब हम मिलते थे तो जुबां खामोश  रहती थी बस नैन बोलते थे , हम दोनों बस एक –दूसरे को देखा करते थे |  साहिर के जाने के बाद ऐश ट्रे से साहिर की पी हुई सिगरेट की राख अमृता अपने होठों पर लगाती थीं और साहिर के होठों की छूअन  को महसूस करने की कोशिश करती थीं | ये वो आदत थी जिसने अमृता को सिगरेट की लत लगा दी थी।  यह आग की बात है ,  तूने ये बात सुनाई है ये जिन्दगी की सिगरेट है  तूने जो कभी सुलगाई थी चिंगारी तूने दी थी  ये दिल सदा जलता रहा वक्त  कलम पकड़ कर  कोई हिसाब लिखता रहा जिन्दगी का अब गम नहीं ,  इस आग को संभाल ले तेरे हाथों की खैर मांगती हूँ ,  अब और सिगरेट जला ले साहिर ने अमृता से प्यार का इजहार कभी खुलेआम नहीं किया पर उनकी जिन्दगी में अमृता का स्थान कोई दूसरी महिला नहीं ले सकी | उन्होंने ताउम्र शादी नहीं की | संगीतकार   जयदेव द्वारा सुनाया गया एक किस्सा बहुत मशहूर है …. जयदेव , साहिर के घर गए थे | दोनों किसी गाने पर काम कर रहे थे | तभी जयदेव की नज़र एक कप पर पड़ी वो बहुत गन्दा था | जयदेव बोले , “ देखो ये कप कितना गन्दा हो गया है लाओ इसे मैं साफ़ कर देता हूँ | साहिर ने उन्हें रोकते हुए कहा , “ नहीं उस कप को हाथ भी मत लगाना , जब अमृता आखिरी बार यहाँ आयीं थी तब उन्होंने इसी कप में चाय पी थी | ना मिलने वाले दो प्रेमियों  का एक ये ऐसा अफसाना था  जिसे साहिर व् अमृता ने दिल ही दिल से निभाया | जहाँ साहिर लिखते हैं … किस दर्जा दिल शिकन थे मुहब्बत के हादसे हम जिंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके वहीँ अमृता को मिलने की आस है वो लिखती हैं … यादों के धागे कायनात के लम्हों की तरह होते हैं मैं उन लम्हों को चुनूंगी उन्धागों को समेट लूंगी मैं तुम्हें फिर मिलूँगी कहाँ , कैसे पता … Read more

लोकमाता अहिल्या बाई होल्कर

अनेक महापुरूषों के निर्माण में नारी का प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान रहा है। कहीं नारी प्रेरणा-स्रोत तथा कहीं निरन्तर आगे बढ़ने की शक्ति रही है। भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही नारी का महत्व स्वीकार किया गया है। हमारी संस्कृति का आदर्श सदैव से रहा है कि जिस घर नारी का सम्मान होता है वहाॅ देवता वास करते हंै। भारत के गौरव को बढ़ाने वाली ऐसी ही एक महान नारी लोकमाता अहिल्या बाई होल्कर हैं |  31 मई को महारानी अहिल्या बाई होल्कर की जयन्ती के अवसर पर विशेष लेख अहिल्याबाई होलकर का जन्म 31 मई, 1725 को औरंगाबाद जिले के चैड़ी गांव (महाराष्ट्र) में एक साधारण परिवार में हुआ था।इनके पिता का नाम मानकोजी शिन्दे था और इनकी माता का नाम सुशीला बाई था। अहिल्या बाई होल्कर के जीवन को महानता के शिखर पर पहुॅचाने में उनके ससुर मल्हार राव होलकर मुख्य भूमिका रही है। फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया कॉमन्स देवी अहिल्या बाई होल्कर ने सारे संसार को अपने जीवन द्वारा सन्देश दिया कि हमें दुख व संकटों में भी परमात्मा का कार्य करते रहना चाहिए। सुख की राह एक ही है प्रभु की इच्छा को जानना और उसके लिए कार्य करना। सुख-दुःख बाहर की चीज है। आत्मा को न तो आग जला सकती है। न पानी गला सकता है। आत्मा का कभी नाश नही होता। आत्मा तो अजर अमर है। दुःखों से आत्मा पवित्र बनती है।                   मातु अहिल्या बाई होल्कर का सारा जीवन हमें कठिनाईयों एवं संकटों से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। हमें इस महान नारी के संघर्षपूर्ण जीवन से प्रेरणा लेकर न्याय, समर्पण एवं सच्चाई पर आधारित समाज का निर्माण करने का संकल्प लेना चाहिए। अब अहिल्या बाई होल्कर के सपनों का एक आदर्श समाज बनाने का समय आ गया है। मातु अहिल्या बाई होल्कर सम्पूर्ण विश्व की विलक्षण प्रतिभा थी। समाज को आज सामाजिक क्रान्ति की अग्रनेत्री अहिल्या बाई होल्कर की शिक्षाओं की महत्ती आवश्यकता है। वह धार्मिक, राजपाट, प्रशासन, न्याय, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कार्याे में अह्म भूमिका निभाने के कारण एक महान क्रान्तिकारी महिला के रूप में युगों-युगों तक याद की जाती रहेंगी। पहाड़ से दुखों के आगे भी नहीं टूटी अहिल्याबाई होलकर   माँ अहिल्या बाई होल्कर ने समाज की सेवा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। उन पर तमाम दुःखों के पहाड़ टूटे किन्तु वे समाज की भलाई के लिए सदैव जुझती रही। वे नारी शक्ति, धर्म, साहस, वीरता, न्याय, प्रशासन, राजतंत्र की एक अनोखी मिसाल सदैव रहेगी। उन्होंने होल्कर साम्राज्य की प्रजा का एक पुत्र की भांति लालन-पालन किया तथा उन्हें सदैव अपना असीम स्नेह बांटती रही। इस कारण प्रजा के हृदय में उनका स्थान एक महारानी की बजाय देवी एवं लोक माता का सदैव रहा। अहिल्या बाई होल्कर ने अपने आदर्श जीवन द्वारा हमें ‘सबका भला जग भला’ का संदेश दिया है। गीता में साफ-साफ लिखा है कि आत्मा कभी नही मरती। अहिल्या बाई होल्कर ने सदैव आत्मा का जीवन जीया। अहिल्या बाई होल्कर आज शरीर रूप में हमारे बीच नही है किन्तु सद्विचारों एवं आत्मा के रूप में वे हमारे बीच सदैव अमर रहेगी। हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेकर एक शुद्ध, दयालु एवं प्रकाशित हृदय धारण करके हर पल अपनी अच्छाईयों से समाज को प्रकाशित करने की कोशिश निरन्तर करते रहना चाहिए। यही मातु अहिल्या बाई होल्कर के प्रति हमारी सच्ची निष्ठा होगी। मातु अहिल्या बाई की आत्मा हमसे हर पल यह कह रही है कि बनो, अहिल्या बाई होल्कर अपनी आत्मशक्ति दिखलाओ! संसार में जहाँ कही भी अज्ञान एवं अन्याय का अन्धेरा दिखाई दे वहां एक दीपक की भांति टूट पड़ो।                 मातु अहिल्या बाई होल्कर आध्यात्मिक नारी थी जिनके सद्प्रयासों से सम्पूर्ण देश के जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों, घाटों एवं धर्मशालाओं का सौन्दर्यीकरण एवं जीर्णोद्धार हुआ। देश में तमाम शिव मंदिरों की स्थापना कराके लोगों धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। नारी शक्ति का प्रतीक महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा दिखाये मार्ग पर चलने के लिए विशेषकर महिलाओं को आगे आकर दहेज, अशिक्षा, फिजुलखर्ची, परदा प्रथा, नशा, पीठ पीछे बुराई करना आदि सामाजिक कुरीतियों का नाम समाज से मिटा देना चाहिए। जिस तरह अहिल्या बाई होल्कर एक साधारण परिवार से अपनी योग्यता, त्याग, सेवा, साहस एवं साधना के बल पर होल्कर वंश की महारानी से लोक नायक बनी उसी तरह समाज की महिलाओं को भी उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। मातु अहिल्या बाई होल्कर सम्पूर्ण राष्ट्र की लोक माता है। जिस तरह राम तथा कृष्ण हमारे आदर्श हैं उसी प्रकार लोकमाता आत्म रूप में हमारे बीच सदैव विद्यमान रहकर अपनी आत्म शक्ति दिखाने की प्रेरणा देती रहेगी। लोक माता अहिल्या बाई होल्कर की आध्यात्मिक शक्तियों से भावी पीढ़ी परिचित कराना चाहिए।                  लोकमाता अहिल्या बाई होलकर ने अपने कार्यो द्वारा मानव सेवा ही माधव सेवा है का सन्देश सारे समाज को दिया है। अहिल्या बाई होल्कर के शासन कानून, न्याय एवं समता पर पूरी तरह आधारित था। कानूनविहीनता के इस युग में हम उनके विचारों की परम आवश्यकता को स्पष्ट रूप से महसूस कर रहे है। मातेश्वरी अहिल्या बाई होल्कर के शान्ति, न्याय, साहस एवं नारी जागरण के विचारों को घर-घर में पहुँचाने के लिए सारे समाज को संकल्पित एवं कटिबद्ध होना होगा। आइये, हम और आप समाज के उज्जवल विकास के लिए देवी अहिल्याबाई के ‘सब का भला – अपना भला’ के मार्ग का अनुसरण करें। अहिल्या बाई होलकर अमर रहे। अहिल्याबाई होलकर के जीवन के कुछ प्रसंग                                              होलकर वंश के मुख्य कर्णधार श्री मल्हार राव होलकर का जन्म 16 मार्च, 1693 में हुआ। इनके पूर्वज मथुरा छोड़कर मराठा के होलगाॅव में बस गये। इनके पिताश्री खण्डोजी होलकर गरीब परिवार के थे इसलिए मल्हार राव होलकर को बचपन से ही भेड़ बकरी चराने का कार्य करना पड़ा। अपने पिता के निधन के पश्चात् इनकी माता श्रीमती जिवाई को अपने बेटे का भविष्य अन्धकारमय लगने लगा। और वह अपने पुत्र को लेकर अपने भाई भोजराज बारगल के यहाॅ आ गयी। अब वह अपने मामा की भेड़े चराने जंगल में जाने लगे। एक दिन बालक के थक जाने पर उसे नींद आ गयी तो पास के बिल से एक सांप ने आकर अपने फन … Read more

ब्रेल लिपि के जनक लुई ब्रेल

              ये दुनिया कितनी सुंदर है … नीला आकाश , हरी घास , रंग बिरंगे फूल , बड़े -बड़े पर्वत , कल -कल करी नदिया और अनंत महासागर | कितना कुछ है जिसके सौन्दर्य की हम प्रशंसा करते रहते हैं और जिसको देख कर हम आश्चर्यचकित होते रहते हैं | परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी दुनिया अँधेरी है …  जहाँ हर समय रात है | वो इस दुनिया को देख तो नहीं सकते पर समझना चाहे तो कैसे समझें क्योंकि काले  अक्षरों को पढने के लिए भी रोशिनी का होना बहुत जरूरी है | दृष्टि हीनों की इस अँधेरी दुनिया में ज्ञान की क्रांति लाने वाले मसीहा लुईस ब्रेल स्वयं दृष्टि हीन थे | उन्होंने उस पीड़ा को समझा और दृष्टिहीनों के लिए एक लिपि बनायीं जिसे उनके नाम पर ब्रेल लिपि कहते हैं | आइये जानते हैं लुईस ब्रेल के बारे में … ब्रेल लिपि के जनक लुई ब्रेल लुईस ब्रेल का जन्म फ़्रांस केव एक छोटे से गाँव कुप्रे  में ४ फरवरी सन १८०९ में हुआ था | उनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोड़ों के लिए जीन और काठी बनाने का कार्य करते थे |  उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | लुई ब्रेल की बचपन में  आँखे बिलकुल ठीक थीं | नन्हें लुई  पिता के साथ उनकी कार्यशाला में जाते और वहीँ खेलते | तीन साल के लुईस के खिलौने जीन सिलने वाला सूजा , हथौड़ा और कैंची होते | किसी भी बच्चे का उन चीजों  के प्रति आकर्षण जिससे उसके पिता काम करते हो सहज ही है | एक दिन खेलते -खेलते  एक सूजा  लुई की आँख में घुस गया | उनकी आँखों में तेज दर्द होने लगा  व् खून निकलने लगा | आप भी कर सकते हैं जिन्दिगियाँ रोशन उनके पिता उन्हें घर ले आये | धन के आभाव व् चिकित्सालय से दूरी के कारण उन लोगों  डॉक्टर  को न दिखा कर घर पर ही औषधि का लेप कर के उनकी आँखों पर पट्टी बाँध दी | उन्होंने सोचा कि बच्चा छोटा है उसका घाव स्वयं ही भर जाएगा | परन्तु ऐसा हुआ नहीं | लुई की एक आँख की रोशिनी जा चुकी थी | दूसरी आँख की रोशिनी भी धीरे -धीरे कमजोर होती जा रही थी | फिर भी उनके घर वाले उन्हें धन के आभाव में चिकित्सालय ले कर नहीं गए | आठ साल की आयु में उनकी दूसरी आँख की रोशिनी भी चली गयी | नन्हें लुई की दुनिया में पूरी तरह से अँधेरा छा गया | ब्रेल लिपि का आविष्कार                                   लुईस ब्रेल बहुत ही हिम्मती बालक थे | वो इस तरह अपनी शिक्षा को रोक कर परिस्थितियों  के आगे हार मान कर नहीं बैठना चाहते थे | इसके लिए उन्हने पादरी बैलेंटाइन से संपर्क किया | उन्होंने  प्रयास करके उनका दाखिला ” ब्लाइंड स्कूल ‘में करवा दिया | तब नेत्रहीनों को सारी  शिक्षा बोल-बोल कर ही दी जाती थी | १० साल के लुई ने पढाई शुरू कर दी पर उनका जन्म कुछ ख़ास करने के लिए हुआ था | शायद भगवान् को जब किसी से बहुत कुछ कराना होता है तो उससे कुछ ऐसा छीन लेता है जो उसके बहुत प्रिय हो | नेत्रों को खोकर ही लुई के मन में अदम्य  इच्छा उत्पन्न हुई कि कुछ ऐसा किया जाए कि नेत्रहीन भी पढ़ सकें | वो निरंतर इसी दिशा में सोचते | ऐसे में उन्हें पता चला कि सेना में सैनिको के लिए कूट लिपि का इस्तेमाल होता है | जिसमें सैनिक अँधेरे में शब्दों को टटोल कर पढ़ लेते हैं | इस लिपि का विकास कैप्टेन चार्ल्स बर्बर ने किया था | ये जानकार लुईस की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा , वो इसी पर तो काम कर रहे थे कि नेत्रहीन टटोल कर पढ़ सकें |  वे कैप्टन से मिले उन्होंने अपने प्रयोग दिखाए | उनमें से कुछ कैप्टन ने सेना के लिए ले लिए | वो उनके साहस को देखकर आश्चर्यचकित थे क्योंकि उस समय लुईस की उम्र मात्र १६ साल थी | मर कर भी नहीं मरा हौसला                                        लुइ ब्रेल पढने में बहुत होशियार थे | उन्होंने आठ वर्ष तक कठिन परिश्रम करके १८२९ में ६ पॉइंट वाली ब्रेल लिपि का विकास किया | इसी बीच उनकी नियुक्ति एक शिक्षक के रूपमें हुई | विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय ब्रेल की ब्रेल लिपि को तत्कालीन शिक्षा विदों ने नकार दिया | कुछ का कहना था की ये कैप्टन चार्ल्स बर्बर से प्रेरित  है इसलिए इसे लुई का  नाम नहीं दिया जा सकता तो कुछ बस इसे सैनिकों द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली लिपि ही बताते रहे | लुई निराश तो हुए पर उन्होंने हार नहीं मानी |  उन्होंने जगह -जगह स्वयं इसका प्रचार किया | लोगों ने इसकी खुले दिल से सराहना की पर शिक्षाविदों का समर्थन न मिल पाने के कारण इसे मान्यता नहीं मिल सकी | अपनी लिपि को मान्यता दिलाने की लम्बी लड़ाई के बीच वो क्षय रोग ग्रसित हो गए और ६जन्वरी  १८५२ को जीवन की लड़ाई हार गए | पर उनका हौसला मरने के बाद भी नहीं मरा वो टकराता रहा शिक्षाविदो से , और , अन्तत : जनता के बीच अति लोकप्रिय उनकी लिपि को शिक्षाविदों ने गंभीरता से आंकलन करना शुरू किया | अब उन्हें उसकी खास बातें समझ आने लगीं | पूरे विश्व में उसका प्रचार होने लगा और उस लिपि को आखिरकार मान्यता मिल गयी |                                              फोटो क्रेडिट –shutterstock.com क्या है ब्रेल लिपि                   ब्रेल लिपि जो नेत्रहीनों के लिए प्रयोग में लायी जाती  है उसमें प्रत्येक आयताकार में ६ उभरे हुए बिंदु यानी कि डॉट्स होते हैं |  यह दो पक्तियों में बनी होती है इस आकर में अलग -अलग 64 अक्षरों को बनाया जा सकता है | एक  … Read more

हैरी पॉटर की लेखिका जे के रॉलिंग का अंधेरों से उजालों का सफ़र

                            अगर यह प्रश्न पूँछा जाए कि क्या कोई लेखक मेलेनियर बन सकता है, तो सबसे पहले जिसका नाम आपके जेहन  में आएगा वो होगा जे के रोलिंग  का , जिन्होंने हैरी पॉटर लिख कर वो इतिहास रचा जिसकी कल्पना तक इससे पहले किसी लेखक  ने नहीं की थी | इस इतिहास को रचने वाली जे के रोलिंग  के लिए रातों -रात मिलने वाली सफलता नहीं थी | इसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष झेला है | उनकी असली जिंदगी की कहानी दुःख , दर्द भावनात्मक टूटन , रिजेकशन , तनाव व् अवसाद से भरी पड़ी है | पर  इस गहन अन्धकार के बीच जिस ने उनका हाथ थामे रखा वो थी उनकी रचनात्मकता और अपने काम के प्रति उनका पूर्ण विश्वास | और इसी के साथ शुरू हुआ उनका अँधेरे से उजालों का सफ़र | हैरी पॉटर की लेखिका जे के रोलिंग  का अंधेरों से उजालों तक  का सफ़र                             फैंटेसी की दुनिया मल्लिका जेके रोलिंग का पूरा नाम जुआने जो रॉलिंग (joanne ‘jo’ rawling) है जबकि उनका पेन नेम जे के रोलिंग है | उनका जन्म 31 जुलाई 1965 को इंग्लैण्ड के येत शहर में हुआ था | उनके पिता  पीटर जेम्स रोलिंग एयरक्राफ्ट इंजिनीयर व् माँ एनी रोलिंग साइंस टेक्नीशियन थीं | उनसे दो वर्ष छोटी एक बहन भी थी , जिसका नाम डियाना रोलिंग है | जब वो बहुत छोटी थीं तब ही उनका परिवार येत के पास के गाँव में बस गया | जहाँ उनकी प्रारंभिक शिक्षा -दीक्षा हुई | कहते हैं की पूत के पाँव पालने में ही देखे जाते हैं | छोटी उम्र से ही उन्हें फैंटेसी का बहुत शौक था | उनके दिमाग में काल्पनिक कहानियाँ उमड़ती -घुमड़ती रहती | अक्सर वो अपनी बहन को सोते समय अपनी बनायीं काल्पनिक कहानियाँ सुनाया करती | उनके मुख्य पात्र चंपक की कहानियां की तरह जीव -जंतु व पेड़ पौधे होते थे |  उनकी कहानियों में  जादू  था , हालांकि शब्द कच्चे -पक्के थे , या यूँ कहे की एक बड़ी लेखिका आकर ले रही थी | उन्होंने ६ वर्ष की उम्र में अपनी पहली कहानी ‘रैबिट ‘लिखी थी व् ११ वर्ष की उम्र में पहला नॉवेल लिखा था जो सात अभिशापित राजकुमारों के बारे में थी |  जब वो किशोरावस्था में कदम रख रहीं थी तो उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें जेसिका मिड्फोर्ट की ऑटो बायो ग्राफी ” होन्स एंड रेबल्स ” पढने को दी | इसको पढ़कर वो जेसिका के लेखन की इतनी दीवानी हो गयीं की उन्होंने उनका लिखा पूरा साहित्य पढ़ा | फिर किताबों का प्रेम ऐसा जागा कि ” बुक रीडिंग ” का एक अंतहीन सिलसिला चल पड़ा | शिक्षा व् प्रारंभिक जॉब                              जे के रोलिंग के अनुसार उनका प्रारंभिक जीवन अच्छा नहीं था | उनकी माँ बहुत बीमार रहती थीं व् माता -पिता में अक्सर झगडे हुआ करते थे | हालांकि वो एक एक अच्छी स्टूडेंट थीं | उन्हें इंग्लिश , फ्रेंच व् जर्मन का अच्छा ज्ञान था | पर घर के माहौल का असर उनकी शिक्षा पर पड़ा और स्कूल लेवल पर उन्हें कोई विशेष उपलब्द्धि नहीं प्राप्त हुई | उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए परीक्षा दी पर वो सफल न हो सकीं |बादमें उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ अक्सीटर से फ्रेंच और  क्लासिक्स में BA किया | ग्रेजुऐशन के बाद उन्होंने ऐमिनेस्टी इन्तेर्नेश्नल और चेंबरऑफ़  कॉमर्स में छोटी सी जॉब की | हैरी पॉटर का आइडिया                        रोलिंग की माता स्कीलोरोस की मरीज  थीं | 1990 में उनकी मृत्यु हो गयी | रोलिंग अपनी माँ के बहुत करीब थीं | माँ की मृत्यु से वो टूट गयीं | पिता ने दूसरी शादी कर ली व उनसे बातचीत करना भी छोड़ दिया | फिर  उनका मन उस शहर में नहीं लगा | वो इंग्लैड छोड़ कर पुर्तगाल चली गयीं और वहां इंग्लिश पढ़ाने लगीं | हैरी पॉटर की कल्पना के जन्म की कहानी भी किसी फैंटेसी से कम नहीं है |  एक बार रोलिंग कहीं जा रहीं थी | ट्रेन चार घंटे लेट हो गयी | उसी इंतज़ार के दौरान रोलिंग के मन में एक ऐसे बच्चे की कल्पना उभरी जो जादू के स्कूल में पढने जाता है | दुःख -दुःख और दुःख                                  पुर्तगाल में आने के बाद रोलिंग की मुलाक़ात टी वी जर्नलिस्ट जोर्ज अरांट्स से हुई | दोनों में प्रेम हो गया | और दोनों ने शादी कर ली | एक वर्ष बाद उन्होंने अपनी बेटी जेसिका को जन्म दिया | उनका शादीशुदा जीवन बहुत ही खराब रहा | उनका पति उनके साथ बहुत बदसलूकी करता था | वो घरेलू हिंसा की शिकार रही | और एक सुबह पाँच  बजे उनके पति ने उन्हें उनकी बेटी के साथ घर से निकाल  निकाल दिया | उस समय जेसिका सिर्फ एक महीने  की थी | रोलिंग अपनी बहन के घर आ गयी | उनके पास सामान के नाम पर सिर्फ एक सूटकेस था जिसमें हैरी पॉटर की पाण्डुलिपि के तीन चैप्टर थे | यह उनके जीवन का कष्टप्रद  दौर था | पति से तलाक के बाद बहन के घर में रहती हुई रोलिंग सरकारी सहायता पर निर्भर थीं | मन भले ही दुखी हो पर उनके लिए हैरी पॉटर की वो पाण्डुलिपि डूबते को तिनके का सहारा थी | उन्होंने तय किया की वो इस कहानी को पूरा करेंगी |वो अपनी बच्ची को प्रैम में डाल कर पास के कैफे में चली जातीं और जब बच्ची सो जाती तो वो कहानी को आगे बढ़ने लगतीं | इस तरह से उन्होंने हैरी पॉटर और पारस पत्थर को पूरा किया | उन्होंने इसे एक हाथ से टाइप किया क्योंकि उनके दूसरे हाथ में उनकी बेटी  होती थी | नोवेल पूरा करने के बाद उन्होंने टीचर्स ट्रेनिग का कोर्स पूरा किया | हैरी पॉटर का प्रकाशन                      … Read more

स्वामी विवेकानंद जयंती पर विशेष : जब स्वामी जी ने डायरी में लिखा , ” मैं हार गया हूँ “

स्वामी विवेकानंद हमारे देश का गौरव हैं| बचपन से ही उनके आम बच्चों से अलग होने के किस्से  चर्चा में थे | पर कहते हैं न की कोई व्यक्ति कितना भी महान  क्यों न हो, कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है| स्वामी विवेकानंद जी के भी कुछ पूर्वाग्रह थे , जो उनको एक सच्चा संत बनने के मार्ग में बाधा बन रहे थे| परन्तु अन्तत: उन्होंने उस पर भी विजय पायी, परन्तु ये काम वो अकेले न कर सके इसके लिए उन्हें दूसरे की मदद मिली | क्या आप जानते हैं स्वामी विवेकानंद के पूर्वाग्रह तोड़ कर उन को पूर्ण रूप से महान संत का दर्जा दिलाने वाली कौन थी? उत्तर जान कर आपको बहुत आश्चर्य होगा… क्योंकि वो थी एक वेश्या |आइये पूरा प्रकरण जानते हैं – स्वामी विवेकानंद जयंती पर विशेष प्रसंग                           ये किस्सा है जयपुर का, जयपुर के राजा स्वामी राम कृष्ण परमहंस व् स्वामी विवेकानंद के बहुत बड़े अनुयायी थे| एक बार उन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपने महल में आमंत्रित किया| वो उनका दिल  खोल कर स्वागत करना चाह्ते थे | इसलिए उन्होंने अपने महल में उनके सत्कार में कोई कमी नहीं रखी| यहाँ तक की भावना के वशीभूत हो उन्होंने स्वामी जी के स्वागत के लिए नगरवधुएं (वेश्याएं ) भी बुला ली| राजा ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि स्वामी के स्वागत के लिए वेश्याएं बुलाना उचित नहीं है |  उस समय तक स्वामी जी पूरे सन्यासी नहीं बने थे| एक सन्यासी का अर्थ है उसका अपने तन –मन पर पूरा नियंत्रण हो| वो हर किसी को जाति , धर्म लिंग से परे केवल आत्मा रूप में देखे| स्वामी जी वेश्याओं को देखकर डर गए| उन्हें उनका इस तरह साथ में बैठना गंवारा नहीं हुआ| स्वामी जी ने अपने आप को कमरे में बंद कर लिया| जब राजा को यह बात पता चली तो वो बहुत पछताए| उन्होंने स्वामी जी से कहा कि आप बाहर आ जाए, मैं उन को जाने को कह दूँगा | उन्होंने सभी वेश्याओं को पैसे दे कर जाने को कह दिया| एक वेश्या जो जयपुर की सबसे श्रेष्ठ वेश्या थी| उसे लगा इस तरह अपमानित होने में उसका क्या दोष है| वह इस बर्ताव से बहुत आहत हुई| वेश्या ने भाव -विह्वल होकर गीत गाना शुरू किया  उस वेश्या ने आहात हो कर एक गीत गाना शुरू किया| गीत बहुत ही भावुक कर देने वाला था| उसके भाव कुछ इस प्रकार थे … मुझे मालूम  है मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो करुणा  दिखा सकते थे मुझे मालूम है मैं राह की धूल  सही , पर तुम तो अपना प्रतिरोध मिटा सकते थे मुझे मालूम है , मैं कुछ नहीं हूँ, कुछ भी नहीं हूँ मुझे मालूम है, मैं पापी हूँ, अज्ञानी हूँ पर तुम तो हो पवित्र, तुम तो हो महान, फिर भी मुझसे क्यों भयभीत हो  जब स्वामी जी ने डायरी में लिखा , ” मैं हार गया हूँ “                  वो वेश्या आत्मग्लानि से भरी हुई रोते हुए ,बेहद दर्द भरे शब्दों में गा रही थी | उसका दर्द स्वामी जी की आँखों से बरसने लगा| उनसे और कमरे में न बैठा गया वो दरवाजा खोलकर बाहर आ कर बैठ गए| बाद में उन्होंने डायरी में लिखा,मैं हार गया| एक विसुद्ध आत्मा से हार गया | डरा हुआ था मैं,लेकिन इसमें उसका कोई दोष नहीं था, मेरे ही अन्दर कुछ लालसा रही होगी, जिस कारण मैं अपने से डरा हुआ था| उसकी विशुद्ध आत्मा और सच्चे दर्द से मेरा भय दूर हो गया| विजय मुझे अपने पर पानी थी, किसी स्त्री का सामना करने पर नहीं| कितनी विशुद्ध आत्मा थी वह, मुझे मेरे पूर्वाग्रह से मुक्त करने वाली कितनी महान थी वो स्त्री |                      मित्रों अपनी आत्मा पर विजय ही हमें सच में महान बना ती है| जब कोई लालसा नहीं रहती , तब हमें कोई व्यक्ति नहीं दिखता, केवल आत्मा दिखती हैं .. निर्दोष पवित्र और शांत     प्रेरक प्रसंग से  टीम ABC  यह भी पढ़ें … विश्वास ओटिसटिक बच्चे की कहानी लाटा एक टीस सफलता का हीरा आपको आपको  लेख “ स्वामी विवेकानंद जयंती पर विशेष : जब स्वामी जी ने डायरी में लिखा , ” मैं हार गया हूँ ”   “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया कॉमन्स KEYWORDS :Swami Vivekanand,Swami Vivekanand jaynti

कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और …

जब – जब उर्दू शायरी की बात होगी तो ग़ालिब का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता | जिसको  दूर – दूर तक शायरी में रूचि न हो उससे भी अगर किसी शायर का नाम पूंछा जाए तो वो नाम ग़ालिब का ही होगा | अगर उन्हें शायरी का शहंशाह  कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी | दरसल ग़ालिब की शायरी महज शब्दों की जादूगरी नहीं थी उसमें उनके जज्बात की मिठास ऐसे ही घुली  थी जैसे पानी में शक्कर … जो पीने वालों को एक सुकून नुमा अहसास कराती है | हालांकि ग़ालिब की जिंदगी बहुत दर्द में गुज़री , ये दर्द उनके जज्बातों में घुलता – मिलता उनकी शायरी  में पहुँच गया | ग़ालिब बुरा न मान जो वैज बुरा कहे  ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे   मिर्जा ग़ालिब की जीवनी /Biography of Mirza Ghalib अपनी शायरी से लोगों के दिलों में राज करने वाले ग़ालिब का असली नाम मिर्जा असद उल्ला बेग खान था | जो उर्दू और फ़ारसी में शायरी करते थे | वो अंतिम भारतीय शासक बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि थे | उनके मासूम दिल ने उस समय का ग़दर व् मुग़ल काल का पतन अपनी आँखों से देखा था | एक संवेदनशील शायर का ह्रदय उस समय के यथार्थ , प्रेम और दर्शन का मिला जुला रूप  में बिखरने लगा | हालांकि उस समय उन्हें कल्पना वादी बता कर उनकी शायरी का बहुत विरोध हुआ |इतने विरोधों के बाद भी उनकी ग़ालिब की शायरी आज भी शायरी क शौकीनों  की पहली पसंद बनी हुई है तो कुछ तो खास होगा ग़ालिब में | हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे  कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और ..  ग़ालिब का आरंभिक जीवन मिर्जा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 179७ को आगरा में हुआ था | ग़ालिब मूलत : तुर्क थे | उनके दादा मिर्जा कोबान बेग खान समरकंद के रहने वाले थे जो अहमद शाह के शाशन काल में भारत आये थे | हालाँकि मात्रभाषा तुर्की होने के कारण अपने आरम्भिक प्रवास के दौरान उन्हें बड़ी दिक्कते आई | क्योंकि वो हिन्दुस्तानी के कुछ टूटे फूटे शब्द ही बोल पाते थे | कुछ दिन लाहौर रहने के बाद वो दिल्ली चले आये | उनके चार बेटे व् तीन बेटियाँ थी |उनके बेटे अब्दुल्ला बेग ग़ालिब के वालिद थे | उनकी माँ इज्ज़त –उत –निशा –बेगम कश्मीरी मुल्क की थी | जब ग़ालिब मात्र पांच साल के थे तभी उनका इंतकाल हो गया | कुछ समय बाद ग़ालिब के एक चाचा का भी इंतकाल हो गया | उनका जेवण अपने चाचा की पेंशन पर निर्भर था | ग़ालिब जब मात्र 11 साल के थे तब उन्होंने शायरी लिखना शुरू कर दिया | उनकी आरम्भिक शिक्षा उनकी शिक्षित माँ द्वारा घर पर ही हुई | बाद में उन्होंने जो कुछ सीखा सब स्वध्याय व् संगति का असर था | कहने की जरूरत नहीं की ग़ालिब के सीखने की ललक व् काबिलियत इतनी ज्यादा थी की वो फ़ारसी भी यूँ ही सीख गए | ईश्वर के रहमो करम से वो जिस मुहल्ले में रहे वहां कई शायर रहते थे | जिनसे उन्होंने शायरी की बारीकियां सीखीं | हमको मालूम  है जन्नत की हकीकत लेकिन  दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है  मात्र १३ साल की उम्र में उन्होंने उमराव बेगम से निकाह कर लिया | बाद में वो उनके साथ दिल्ली आ कर बस गए | यहीं उनके साथ उनका छोटा भाई भी रहता था | जो दिमागी रूप से अस्वस्थ था | सन १८५० में ग़ालिब अंतिम मुग़ल शासक  बहादुर शाह जफ़र के दरबार में उन्हें शायरी सिखाने  जाने लगे | बहादुर शाह जफ़र को भी शायरी का बहुत शौक था | उन्हें ग़ालिब की शायरी बहुत पसंद आई | इसलिए वो वहां दरबारी कवि बन गए | शायरी  की दृष्टि से वो एक बहुत ही अच्छा समय था |आये दिन महफिलें सजती और शेरो शायरी का दौर चलता | ग़ालिब को दरबार मे बहुत सम्मान हासिल था | उनकी ख्याति दूर दूर तक पहंचने लगी | इसी समय उन्हें दो शाही सम्मान “ दबीर उल मुल्क “ और नज़्म उद  दौला” का खिताब मिला |  पर समय पलटा  ग़ालिब के भाई व् उनकी सातों संतानों की मृत्यु हो गयी | बहादुर शाह के शासन का अंत और उन्हें मिलने वाली पेंशन भी बंद हो गयी | थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे  देखने हम भी गए पर तमाशा न हुआ  ग़ालिब का व्यक्तित्व  अपनी शायरी की सुन्दरता की तरह ही ग़ालिब एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थी | ईरानी होने के कारण बेहद गोरा रंग , लम्बा कद , इकहरा  बदन व् सुडौल नाक उनके व्यक्तिव में चार – चाँद लगाती थी | ग़ालिब की ननिहाल बहुत सम्पन्न थी | वो खुद को बड़ा रईसजादा  ही समझते थे | इसलिए अपने कपड़ों पर बहुत ध्यान देते थे |कलफ लगा हुआ चूड़ीदार पैजामा व् कुरता उनकी प्रिय पोशाक थी | उस पर सदरी व् काली टोपी उन पर खूब फबती  थी |ग़ालिब हमेशा कर्ज में डूबे  रहे पर उन्होंने अपनी शानो शौकत में कोई कमी नहीं आने दी |जब घर से बाहर जाते तो कीमती लबादा पहनना नहीं भूलते | मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का  उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले  ग़ालिब का रचना संसार ग़ालिब ने गद्य लेखन की नीव रखी इस कारण उन्हें वर्तमान  उर्दू गद्य का जनक  का सम्मान भी दिया जाता है | इनकी रचनाएँ “लतायफे गैबी”, दुरपशे कावयानी ”, “नाम ए  ग़ालिब” , “मेह्नीम आदि गद्य में हैं | दस्तंब में उन्होंने १८५७ की घटनाओं का आँखों देखा विवरण लिखा है | ये गद्य फारसी में है | गद्य में उनकी भाषा सदा सरल और सुगम्य रही है | तोडा उसने कुछ ऐसे ऐडा से ताल्लुक ग़ालिब  कि सारी  उम्र हम अपना कसूर ढूंढते रहे   “कुलियात”में उनकी फ़ारसी कविताओं का संग्रह है |उनकी निम्न  लोकप्रिय किताबें  हैं .. उर्दू ए  हिंदी उर्दू ए मुअल्ला “नाम ए ग़ालिब “लतायफे गैबी”, दुरपशे कावयानी                       इसमें उनकी कलम से देश की तत्कालीन , सामजिक , राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है … Read more

सब कुछ संभव है : बिना -हाथ पैरों वाले निक व्युजेसिक कि प्रेरणादायक कहानी

फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया कॉमन्स ईश्वर से शिकायतें करना सबसे आसान काम है | हम सब इसे बड़ी कुशला से करते भी हैं | क्या आप को नहीं लगता की हममें  से सबकी शिकायत रहती है की हम इसलिए सफल नहीं हो पाए क्योंकि हमारे पास ये ये या वो वो नहीं था | जो दूसरे सफल व्यक्तियों के पास है | पर जब आप एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानेगे जिसके हाथ पैर ही नहीं हैं |और वो व्यक्ति सफल मोटिवेशनल स्पीकर है | जिसने अपनी शारीरिक कमियों के बावजूद न सिर्फ अपनी जिन्दगी को संवारा बल्कि वो अनेकों जिन्दिगियों  को सफल जीवन जीने की प्रेरणा दे रहा है | यकीनन आप उसके बाद उसके साहस को नमन करते हुए कहेंगे की    “सब कुछ संभव है” …… निकव्युजेसिक  शारीरिक रूप से विकलांग है | जब वो पैदा हुए थे तभी से उनके हाथ – पैर नहीं थे | डॉक्टरों ने जन्म के समय उन्हें वेजिटेटिव घोषित कर दिया था |अपने छोटे से पैर और दो अँगुलियों के बल पर तन और मन की जंग जीतने वाले  निक आज एक सफल मोटिवेशनल स्पीकर हैं | उनकी कहानी है कठिन संघर्ष पर महान विजय की | आज हम “ a man without limbs “ प्रेरणा दायक कहानी आप के साथ साझा कर रहे हैं जो आपको सोंचने पर विवश कर देगी … चमत्कार आसमानी खुदाओं की जादुई छड़ी से नहीं अपनी इच्छा शक्ति पर निर्भर होते हैं | आइये जानते हैं बिना हाथ पैरों वाले निक व्युजेसिक के बारे में  निक व्युजेसिक का पूरा नाम निकोलस जेम्स व्युजेसिक है |निक उनका “ निक नेम है | उनका जन्म 4 दीसंबर 1982 को ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न शहर में हुआ था | निक की माँ का नाम दुशांका व् पिता का नाम बोरिस्लाव व्युजेसिक है | निक के माता – पिता सर्बिया के मूल निवासी थे | वो ऑस्ट्रेलिया में आ कर बस गए थे |  उनके पिता अकाउंटेंट व् माँ हॉस्पिटल में नर्स का काम करती थी | निक के जन्म से पहले उसकी माँ भी वैसे ही उत्त्साहित थीं जैसे कोई सामान्य माँ होती है | परन्तु निक का जन्म एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं हुआ | वो टेट्रा अमेलिया सिंड्रोम से पीड़ित थे | टेट्रा एमिलिया सिंड्रोम एक ग्रीक शब्द है जहाँ टेट्रा का अर्थ चार व् एमिलिया का अर्थ एब्सेंस ऑफ़ आर्म्स है | ये एक बहुत रेयर डिसीज है | जिस कारण उनके उनके हाथ पैर थे ही नहीं | जन्म के समय निक के एक पैर में कुछ जुडी हुई अंगुलियाँ थीं | इस बिमारी के साथ पैदाहुए ज्यादातर बच्चे स्टील बोर्न पैदा होते हैं या जन्म के कुछ समय बाद ही मर जाते हैं |       निक को देखने के बाद नर्स ने उसकी माँ को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए उन्होंने उसे एकदम से देखने भी नहीं दिया | वो बहुत निराश हुई हालंकि बाद में उसके माता – पिता सामान्य हो गए | डॉक्टर्स ने निक की जुडी हुई अंगुलियाँ अलग – अलग करने के लिए ओपरेशन किया ताकि निक उनसे चीजों को पकड़ सके व् उनका इस्तेमाल हाथ की अँगुलियों की तरह कर सके | निक व्युजेसिक का प्रारंभिक निराशा से भरा जीवन निक के दो भाई – बहन और थे | जो सामान्य थे | निक से पहले दिव्यांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ नहीं पढने दिया जाता था | परन्तु निक के समय में कानून में परिवर्तन हुआ और निक उन शुरूआती बच्चों में रहे जो सामान्य बच्चों के साथ स्कूल में पढ़ सकते थे |क्योंकि उनकी माँ की इच्छा थी की निक जीवन को सामान्य नज़रिए से ही देखें |  हालांकि निक का स्कूली  जीवन सामान्य नहीं था | बिना हाथ – पैर वाले बच्चे को देखकर सारे बच्चे उनका मजाक उड़ाते | जिस से मासूम निक अवसाद में घिर गए | उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की और एक बार बाथ टब  में खुद को डुबाने का भी प्रयास किया | पर अपने माता – पिता के प्रेम को देख कर बाद में उन्होंने आत्महत्या का प्रयास छोड़ दिया | और जीवन का संघर्ष करने का मन बनाया |  निक ने अपने म्यूजिक वीडियो “ समथिंग मोर “अपने बचपन के दर्द का वर्णन किया हैं | निक शुरू से काफी आस्थावान रहे हैं | वो ईश्वर से रोज प्रार्थना करते थे कि उनके हाथ पैर उग आये | एक बार तो उन्होंने ईश्वर को अल्टीमेटम भी दे दिया कि अगर वो उनके हाथ पैर नहीं उगायेंगे तो वो ज्यादा दिन तक उनकी पूजा नहीं कर पायेंगे | हालांकि निक अब कहते हैं की ईश्वर को उन्हें कुछ ख़ास देना था इसलिए वो उनकी प्रार्थनाओं को अनसुना कर रहे थे |इसकी शुरुआत उन्होंने उस दिन करी जब उनकी माँ ने उन्हें न्यूज़ पेपर का एक आर्टिकल पढवाया | वो एक ऐसे दिव्यांग व्यक्ति के बारे में था जो अपने जीवन से शारीरिक रूप से लड़ रहा था  परन्तु हार नहीं मानी और मानसिक शक्ति के बल पर सफलताएं अर्जित की | इस लेख ने निक को बहुत प्ररणा दी | उन्हें लगा की जिन्दगी भर अपने अभावों पर रोने के स्थान पर अपने इसी शरीर के साथ भी कुछ अच्छा कर सकते हैं | ऐसा करके वो बहुतों को प्रेरणा भी दे सकते हैं | उनका कहना था … अगर आप के साथ चमत्कार नहीं हो सकता तो खुद चमत्कार बन जाइए | असंभव को संभव करती निक की जिंदगी की लड़ाई                       निक की आत्मनिर्भर बनने  की लड़ाई में उनके माता – पिता ने उनका भरपूर साथ दिया | निक ने अपनी दो अँगुलियों से वो सब कुछ करना सीखा जो एक सामान्य व्यक्ति करता है | इसकी शुरुआत उन्होंने छोटी सी उम्र में तैराकी सीखने से की | उन्होंने दो नन्हीं अँगुलियों की मदद से चम्मच पकड़ना व् टाइपिंग करना सीखा | विशेषज्ञों की मदद से उनके लिए एक ऐसी चीज बनवाई गयी जिसे वो अपनी अँगुलियों में पहन कर आसानी से लिख सकते थे |आप को जान कर आश्चर्य होगा की निक अपनी दो अँगुलियों के सहारे न सिर्फ पढ़ – लिख सकते हैं बल्कि फुटबॉल ,गोल्फ खेल सकते हैं , मछली … Read more