फिल्म पद्मावती से रानी पद्मावती तक बढ़ता विवाद

आज संजय लीला भंसाली के कारण रानी पद्मावती  व् जौहर व्रत फिर से चर्चा में है | फिल्म पर बहसें जारी हैं | हालाँकि की जब तक फिल्म न देखे तब तक इस विषय में क्या कह सकते हैं ? ये भी सही है की कोई भी फिल्म बिलकुल इतिहास की तरह नहीं होती | थोड़ी बहुत रचनात्मक स्वतंत्रता होती ही है | जहाँ तक संजय लीला भंसाली का प्रश्न है उनकी फिल्में भव्य सेट अच्छे निर्देशन व् गीत संगीत , अभिनय के कारण काफी लोकप्रिय हुई हैं |  परन्तु यह भी सच है की वह भारतीय ऐतिहासिक स्त्री चरित्रों को हमेशा से विदेशी चश्मे से देखते रहे | ऐसा उन्होंने अपनी कई फिल्मों में किया है | उम्मीद है इस बार उन्होंने न्याय किया होगा | आज इस लेख को लिखने का मुख्य मुद्दा सोशल मीडिया पर हो रही वह बहस है जिसमें फिल्म पद्मावती के स्थान पर अब रानी पद्मावती को तुलनात्मक रूप से कमतर साबित करने का प्रयास हो रहा है | रानी पद्मावती इतिहास के झरोखे से प्राप्त ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार संझेप मे रानी  पद्मावती सिंघल कबीले के राजा गंधर्व और रानी चंपावती की बेटी थी | वो अद्वितीय सुंदरी थीं | कहते हैं की वो इतनी सुन्दर थीं की अगर पानी भी पीती तो उनकी गर्दन से गुज़रता हुआ दिखाई देता |पान खाने से उनका गला तक लाल हो जाता था |  जब वो विवाह योग्य हुई तो उनका स्वयंवर रचाया गया | जिसे जीत कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने रानी पद्मावती से विवाह किया | और उन्हें ले कर अपने राज्य आ गए |  यह १२ वी १३ वी शताब्दी का समय था | उस समय चित्तौड़ पर राजपूत राजा रतन सिंह का राज्य था | जो सिसोदिया वंश के थे | वे अपनी पत्नी पद्मावती से बेहद प्रेम करते थे | कहते हैं उनका एक दरबारी राघव चेतन अपने राजा  के खिलाफ हो कर दिल्ली के सुलतान अल्लाउदीन खिलजी के पास गया | वहां जा कर उस ने रानी की सुदरता का वर्णन कुछ इस तरह से किया की सुलतान उसे पाने को बेचैन हो उठा |उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी |राजा रतन सिंह  ने किले का दरवाजा बंद करवा दिया | खिलजी की सेना बहुत बड़ी थी | कई दिन तक युद्ध चलता रहा | किले के अन्दर खाने पीने का सामान खत्म होने लगा | तब राजा रतन सिंह ने किले का दरवाजा खोल कर तब तक युद्ध करने का आदेश दिया जब तक शरीर में प्राण रहे |  रानी पद्मावती जानती थी की की राजा रतन सिंह की सेना बहुत छोटी है | पराजय निश्चित है | राजपूतों को हरा कर सैनिक उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे | इसलिए उसने जौहर व्रत का आयोजन किया | जिसमें उसने व् किले की समस्त स्त्रियों ने अग्नि कुंड में कूदकर अपने प्राणों का बलिदान किया  | जब खिलजी व् उसकी सेना रतन सिंह की सेना को परस्त कर के अन्दर आई तब उसे राख के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला | रानी पद्मावती के ऐतिहासिक साक्ष्य रानी पद्मावती के बारे में लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य मालिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत नामक महा काव्य है | कर्नल टाड  ने भी राजस्थान के इतिहास में रानी पद्मावती के बारे में वर्णन  किया है | जो जायसी के माहाकव्य से मिलता जुलता है | जिसे उन्होंने जनश्रुतियों के आधार पर तैयार किया | इतिहासवेत्ता साक्ष्यों के आभाव में इसके अस्तित्व पर समय समय पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं | परन्तु एक पराधीन देश में ऐतिहासिक साक्ष्यों का न मिल पाना कोई असंभव बात नहीं है | साक्ष्य नष्ट किये जा सकते हैं पर जनश्रुतियों के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंची सच्चाई नहीं | ये अलग बात है की जनश्रुति के आधार पर आगे बढ़ने के कारण कुछ जोड़ – घटाव हो सकता है | पर इससे न तो रानी पद्मावती के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगता है न ही उसके जौहर व्रत पर … जिसे स्त्री अस्मिता का प्रतीक बनने  से कोई रोक नहीं पाया | रानी पद्मावती की सीता व् लक्ष्मी बाई से तुलना आश्चर्य है की फिल्म पद्मावती का पक्ष लेने की कोशिश में सोशल मीडिया व् वेबसाइट्स पर सीता पद्मावती और रानी लक्ष्मी बाई की तुलना करके रानी पद्मावती को  कमतर  साबित करने  का बचकाना काम  किया जा रहा है  | जहाँ ये दलील दी जा रही है की सीता रावण के राज्य में अकेली होकर भी आत्महत्या नहीं करती है व् रानी लक्ष्मी बाई अकेली  हो कर भी अंग्रेजों से लोहा लेती है तो रानी पद्मावती ने आत्महत्या (जौहर ) कर के ऐसा कौन सा आदर्श स्थापित कर दिया जो वह भारतीय स्त्री अस्मिता का प्रतीक बन गयी | हालांकि मैं दो विभिन्न काल खण्डों की स्त्रियों की तुलना के  पक्ष में नहीं हूँ | फिर भी यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ | इन तीनों की स्थिति अलग – अलग थी | जहाँ रावण ने  सीता की इच्छा के बिना उन्हें हाथ न लगाने का संकल्प किया था | वो केवल उनका मनोबल तोडना चाहता था | जिसे सीता ने हर विपरीत परिस्थिति में  टूटने नहीं दिया | कहीं न कहीं उन्हें विश्वास था की राम उन्हें बचाने अवश्य आयेंगे | वो राम को रावण से युद्ध में परस्त होते हुए देखना चाहती थी | यही इच्छा उनकी शक्ति थी | रानी लक्ष्मी बाई  का युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ था | अंग्रेज उनका राज्य लेना चाहते थे उन्हें नहीं | इसलिए उन्होंने अंतिम सांस तक युद्ध करने का निर्णय लिया | रानी पद्मावती   जानती थी की राजा रतनसिंह युद्ध में परस्त हो जायेंगे | वो भी अंतिम सांस तक युद्ध कर के वीरगति को प्राप्त हो सकती थी | लेकिन अगर वो वीरगति को प्राप्त न होकर अल्लाउदीन  खिलजी की सेना द्वारा बंदी बना ली जाती तो ? ये जौहर व्रत अपनी अस्मिता को रक्षा करने का  प्रयास था | आत्महत्या नहीं है रानी पद्मावती का जौहर व्रत कई तरह से रानी पद्मावती  के जौहर व्रत को आत्महत्या सिद्ध किया जा रहा है | जो स्त्री अस्मिता की प्रतीक रानी पद्मावती  व् चित्तौड़ की अन्य महिलाओं को गहराई से न समझ पाने के कारण है … Read more

बेगम अख्तर- मल्लिकाएं-ए-ग़ज़ल को सलाम

मल्लिकाएं ग़ज़ल पदम् श्री और पदम् विभूषण से सम्मानित बेगम अख्तर का असली नाम अख्तरी बाई फैजाबादी था | वो भारत की प्रसिद्द ग़ज़ल व् ठुमरी गायिका थीं | जिनकी कला के  जादू ने सरहदें पार कर पूरे विश्व को अपनी स्वर लहरियों में बाँध लिया |इस साल ग़ज़ल की महान गायिका बेगम अख्तर की जन्मशती मनाई जा रही है | गूगल ने भी डूडल बना कर उनको सम्मानित किया है | ठुमरी की सम्राज्ञी बेगम अख्तर के जीवन के उतार चढाव के  बारे में बहुत कम लोग जानते हैं |आइये हमारे साथ कुछ करीब से जानते हैं बेगम अख्तर को … बेगम अख्तर का जीवन परिचय ___________________________ बेगम अख्तर का जन्म 7  अक्टूबर 1914 को उत्तरप्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था |उनकी माता का नाम मुश्तरी बाई व् पिता का नाम असगर हुसैन था |उनके पिता वकील थे व् कहीं और शादी शुदा थे  | मुस्तरी बाई प्रसिद्द गायिका व् तवायफ थीं |जिन्हें उनके पिता ने दूसरी बेगम के रूप में अपनाया था | अपने स्वरों से रूहानी प्रेम को उत्पन्न करने वाली बेगम अख्तर अपनी माता – पिता के अलहदा प्रेम के फलस्वरूप अपनी जुड़वां बहन के साथ दुनिया में आई थीं | बेगम अख्तर का शुरूआती बचपन __________________________________ बेगम अख्तर का बचपन का नाम बिब्बी व् उनकी बहन का नाम जोहरा था | कहते हैं की दो बेटियाँ पैदा होने के बाद उनके पिता ने माँ व् बेटियों  को छोड़ दिया | उनकी माँ मुश्तरी बाई  बच्चियों के साथ संघर्ष मय जीवन जीने को अकेली रह गयीं | तभी दुःख का एक पहाड़ और टूटा | जब बच्चियों ने बचपन में ही भूल वश कुछ जहरीला खा लिया | बिब्बी तो बच गयीं पर जोहरा अल्लाह को प्यारी हो गयीं | अब बिब्बी अकेले ही माँ की जिम्मेदारी और माँ का सहारा बन गयीं | बचपन में चुलबुली थीं बेगम अख्तर ______________________________ जीवन संघर्ष कितना भी क्यों न हों पर बचपन की मासूमियम और चुलबुलापन बेगम अख्तर से कोई चुरा नहीं पाया | फूल तोड़ कर छुप जाना , तितलियाँ पकड़ना और शरारतें करना नन्ही  बिब्बी का शगल था | अलबत्ता पढाई में उनका मन नहीं लगता था | उनका मन लगता था ग़ज़ल और ठुमरी में जिसे वो घंटों सुना करती थीं |उनकी  माँ जरूर उन पर पढाई का दवाब बनाती पर बिब्बी कैसे न कैसे कर बच निकलती | एक बार तो उन्होंने मास्टर जी की चोटी ही काट ली | अब तो मुश्तरी बाई परेशांन  हों गयीं | उन्होंने बिब्बी से पूंछा तुम क्या करना चाहती हो | तो उन्होंने संगीत सीखने की इच्छा जाहिर की | हालांकि मुश्तरी बाई इसके पक्ष में नहीं थीं पर उनके चचा ने उनकी दिली ख्वाइश का साथ दिया और सात साल की उम्र में उनकी संगीत शिक्षा प्रारंभ  हो गयी | उन्होंने चन्द्राबाई थियेटर ज्वाइन किया | मामूली शिक्षित बेगम अख्तर का ग़ज़ल ठुमरी का ज्ञान आकाश की ऊँचाइयों की और बढ़ने लगा | बड़ा कठिन था बेगम अख्तर का शुरूआती सफ़र ______________________________________ बिब्बी ने गाना सीखना तो शुरू कर दिया | पर उनका शुरूआती सफ़र बहुत कठिन था |बेगम अख्तर पर किताब लिखने वाली रीता गांगुली ने एक जगह लिखा है की उनके गुरु ने गाना सीखाते समय कुछ गलत हरकत करने की कोशिश की |बेगम अख्तर ने उसका माकूल जवाब दिया | व् अन्य  छात्राओ को संगठित किया | सबने अपने दर्द बयान किये | फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी |  उन्होंने संगीत को कई उस्तादों से सीखा |  जब गुरु ने कहा मेरी बहादुर बिटिया हार नहीं मानेगी ——————————————————————– एक बार का वाकया  है की वो कोई सुर नहीं लगा पा रही थीं | गुरु बार – बार समझा रहे थे | पर उनसे सुर लग ही नहीं रहा था | आखिरकार वो रोने लगीं और बोली मैं कभी भी गाना नहीं सीख पाऊँगी | उनके गुरु ने उनको डाँटते हुए कहा बस अभी से हार मान गयी | फिर स्नेहपूर्ण शब्दों में बोले ,”मेरी बहादुर बिटिया हार नहीं मानेगी” | इन शब्दों का उन पर जादुई असर हुआ और वो फिर रियाज करने लगीं | तेरह साल की उम्र में बिब्बी अख्तरी बाई हो गयीं | इसी बीच उनका मन नाटकों की और आकर्षित हुआ | वो पारसी थियेटर से भी जुड़ गयीं | नाटक ज्वाइन करने के कारण उनके गुरु अता उल्ला खां उनसे नाराज़ हो गए | और उनसे कहा तुम नाटक करने लगी हो अब तुम संगीत नहीं सीख सकतीं | अख्तरी बाई ने गुरु से गुजारिश की ,कि वो एक बार आकर नाटक देख तो लें | फिर आप जो कहेंगे मै करुँगी |  गुरु अता उल्ला खान उनका नाटक देखने गए | वहां पर जब उन्होंने चल री मोरी नैया गाना गया तो गुरु की आँखों में आंसूं आ गए और वे बोले ,” तुम सच्ची अदाकारा हो | तुम चाहे जो करो तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता | हालांकि एक अकेली स्त्री होने के नाते उनका उनका उनका संघर्ष बहुत कठिन था | वह कई बार छेड़छाड़ की शिकार हुई | शोषण भी हुआ | उनके जीवन के यह दर्द भरे पन्ने बाद में कई मैगजींस में प्रकाशित हुए | संघर्ष कितने भी कठिन हों पर अख्तरी बाई ने हर संघर्ष से टकराकर नदी की तरह आगे बढ़ने की ठान ली और पीछे मुड  कर नहीं देखा | बेगम अख्तर की पहली स्टेज परफोर्मेंस ____________________________________________________ 15 साल की मासूम उम्र में बेगम अख्तर ने अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से पहली बार पहली बार स्टेज पर उतरीं | यह कार्यक्रम बिहार के भूकंप पीड़ितों के लिए कोलकाता में हुआ था | इसमें भारत कोकिला सरोजिनी नायडू भी आयीं थीं | कहतें हैं की उनकी आवाज़ में उनकी जिन्दगी भर का दर्द उतर आता था | ऐसा रूहानी माहौल बनता था की श्रोता मन्त्र मुग्ध हो जाते थे | उनको सामने से सुनने वाले बताते हैं की उनका गाना  सुनने के बाद न जाने कितनी आँखें भीग जाती थीं | फ़िल्मी  कैरियर की शुरुआत ________________________ बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत फिल्म “ फिल्म एक दिन का बादशाह से की | फिल्म असफल रही | उनका कैरियर भी रुक … Read more

‘‘अपने पास रखो अपने सूरजों का हिसाब, मुझे तो आखिरी घर तक दीया जलाना है’’-पंडित दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय – महेन्द्र सिंह, राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार), ग्रामीण विकास एवं स्वास्थ्य  उत्तर प्रदेश सरकार अति मेधावी छात्र के रूप में आपने पहचान बनायी:-             आपका जन्म 25 सितम्बर 1916 में मथुरा के छोटे से गांव ‘नगला चंद्रभान’ में हुआ था। तीन वर्ष की उम्र में आपकी माताजी का तथा 7 वर्ष की कोमल उम्र में आपके पिताजी का देहान्त हो गया। वह माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। किन्तु उन्होंने अपने असहनीय दर्द की दिशा को बहुत ही सहजता, सरलता तथा सुन्दरता से लोक कल्याण की ओर मोड़ दिया। वह हंसते हुए जीवन में संघर्ष करते रहे। आपको पढ़ाई का शौक बचपन से ही था। इण्टरमीडिएट की परीक्षा में आपने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक अति मेधावी छात्र होने का कीर्तिमान स्थापित किया। आप अन्तिम सांस तक जिन्दगी परम सत्य की खोज में लोक कल्याण से भरे जीवन्त साहित्य की रचना करने तथा उसे साकार करने जुटे रहे। ‘‘न जाने कौन सी दौलत थी उनके लहजे में, वो बोलते थे तो दुनिया खरीद लेते थे’’ मैं भंवर में तैरने का हौसला रखने लगा:- आपकी सीख थी कि जब आप जो कहते हैं, वही करते हैं, जो करते हैं, वही सोचते हैं और जो सोचते हैं, वहीं आपकी वाणी में आता है तब ईश्वरीय तथा प्रकृति की तमाम शक्तियाँ आपकी मदद करने के लिए चारों ओर से आ जाती हंै। भारत माता के इस जाबाज सपूत के सपने को पूरा करने के लिए आज देश अकुलित तथा संकल्पित है। देश-प्रदेश ऐसे भारत के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सर्वोपरि हो और प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान मिले। आपके जज्बे को सलाम करते हुए किसी शायर की यह दो शायरियाँ प्रस्तुत हंै – हाजब से पतवारों ने मेरी नाव को धोखा दिया, मैं भंवर में तैरने का हौसला रखने लगा। वतन की रेत, मुझे एड़ियां रगड़ने दे, मुझे यकीं है, पानी यहीं से निकलेगा। खुदा आपके सपनों को सलामत रक्खे, ये ज़मीं पे रह के फरिश्तों का काम करते थेः-             पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक प्रखर विचारक, अर्थचिन्तक, शिक्षाविद्, साहित्यकार, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक बहुमुखी प्रतिभा ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमता और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। आपके जुझारू व्यक्तित्व को यह शायरी पूरी तरह से अभिव्यक्त करती है – मंै कतरा हो के भी तूफां से जंग लेता हूं, मुझे बचाना समन्दर की जिम्मेदारी है। दुआ करें सलामत रहे मेरी हिम्मत, यह चराग कई आंधियों पे भारी है। सादगी जीवन के प्रतिमूर्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थेः-             विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पं. दीनदयाल जी की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली। इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। पंडित जी का जीवन हमें यह हिम्मत देता है – रख हौंसला वो मंजर भी आयेगा, प्यासे के पास चलकर समंदर भी आयेगा। ‘मानवीय एकता’ का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता हैः-             एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। पं. दीनदयाल जी द्वारा दिया गया मानवीय एकता का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। उनका कहना था कि जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगीः-             उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। आपके विचारों के भाव इन पंक्तियों द्वारा अभिव्यक्त होते हैं – काली रात नहीं लेती है नाम ढलने का, यही तो वक्त है ‘सूरज’ तेरे निकलने का। अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता हैः-             पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं … Read more

पंडित दीनदयाल उपाध्याय -एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा सत्यनिष्ठ नेता

– डाॅ. जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ पंडित दीं दयाल उपाध्याय ( जन्म २५ सितम्बर १९१६–११ फ़रवरी १९६८) महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ  के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत  की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को ” एकात्म मानववाद ” जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी।दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमत और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’।उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य  में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था।इस वर्ष उनके कार्यों को सम्मान देने के लिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्म शताब्दी को मनाया जा रहा है |  पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के सपनों के सच होने का समय अब आ गया है!अब वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व मंच पर पूरी दुनिया को राह दिखाने वाला होगा!आइये उनके बारे में और जाने … हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं:- पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ वे भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी कार्यक्षमत और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। सादगी जीवन के प्रतिमूर्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे:- विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पं. दीनदयाल जी की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली। इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था। पं. दीनदयाल उपाध्याय. पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की गणना भारतीय महापुरूषों में इसलिये नहीं होती है कि वे किसी खास विचारधारा के थे बल्कि उन्होंने किसी विचारधारा या दलगत राजनीति से परे रहकर राष्ट्र को सर्वोपरि माना। ‘मानवीय एकता’ का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है:- एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण। पं. दीनदयाल जी द्वारा दिया गया मानवीय एकता का मंत्र हम सभी का मार्गदर्शन करता है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है। उनका कहना था कि जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है। मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी:- उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है। वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है:- पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षितः किं न करोति पापं, क्षीणा जनाः निष्करुणाः भवन्ति. अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीड़ित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था। हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है। पं. दीन दयाल उपाध्याय जी के विचार देश ही नहीं, दुनिया का मार्गदर्शन कर सकते हैं:- हमारा मानना है कि पं. दीन दयाल उपाध्याय जी के विचार देश ही नहीं, दुनिया का मार्गदर्शन कर सकते हैं। उनका कहना था कि हमारी प्रगति का आंकलन सामाजिक सीढ़ी के सर्वोच्च पायदान पहुंचे व्यक्ति से नहीं बल्कि सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की स्थिति से होगा। उनका मानना था कि भारत … Read more

पूछने की आदत से शिक्षक परेशान होते थे – सत्या नडेला, माइक्रोसाॅफ्ट, सीईओ

संकलन – प्रदीप कुमार सिंह मेरे पिता आईएएस अधिकारी थे। मैंने बेगमपेट स्थित हैदराबाद पब्लिक स्कूल से अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की। बचपन से ही मैंने सोच लिया था कि मुझे टेक्नोलाॅजी के क्षेत्र में बड़ा काम करना है। मुझे अपनी मंजिल पता थी:-             मैं हर चीज को उसकी संपूर्णता में जानना-समझना चाहता था। मुझे याद है, मणिपाल इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाॅजी में आने के बाद मैं अपने भविष्य के बारे में बहुत सोचता था। क्लास में मैं अध्यापकों से लगातार सवाल करता था, जबकि मेरे दोस्त खामोश बैठे रहते थे। सवाल पूछने की मेरी आदत से अध्यापक भी कई बार परेशान हो जाते थे। वहां हम दोस्तों के बीच अपने भविष्य पर बात करते थे। मेरे दोस्त कहते थे कि हार्डवेयर का भविष्य तो सन माइक्रोसिस्टम्स में है। लेकिन मैं उन्हें कहता था कि मुझे साॅफ्टवेयर के क्षेत्र में जाना चाहिए, मुझे मार्केटिंग में होना चाहिए और माइक्रोसाॅफ्ट मेरी मंजिल होनी चाहिए। मेरे जीवन का टर्निंग पाॅइंट:-             1992 में मैंने अनुपमा से शादी की, जो मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी और मेरे पिता के दोस्त की बेटी थी। उसी साल मैंने माइक्रोसाॅफ्ट जाॅइन की। शादी ने मेरा जीवन बदल दिया और माइक्रोसाॅफ्ट ने मुुझे वैश्विक पहचान दिलाई। हालांकि मैं ‘हर घर, हर डेस्क पर एक कंप्यूटर’ के बिल गेट्स के लक्ष्य को एक छोटा और तात्कालिक लक्ष्य मानता था, क्योंकि वह लक्ष्य तो करीब एक दर्शक में ही पूरा हो चुका था। मैं उन चंद लोगों में से था, जिसने कंपनी को क्लाउड कम्यूटिंग के बारे में बताया। नतीजतन कंपनी ने इसमें निवेश करना शुरू किया और जल्दी ही माइक्रोसाॅफ्ट ने क्लाउड कम्प्यूटिंग की वह तकनीक विकसित की, जिसने आईटी क्षेत्र की तस्वीर तो बदली ही, इससे माइक्रोसाॅफ्ट की आय में बहुत उछाल आया। वर्ष 2014 में माइक्रोसाॅफ्ट का सीईओ बनना मेरे जीवन का एक बड़ा घटनाक्रम था। कविता अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है:-             खाली वक्त में मैं कविताएं और रूसी उपन्यास पढ़ना पसंद करता हूूं। मैं कविताओं को अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानता हूं। भारतीय और अमेरिकी कविताएं मैं खूब पढ़ता हूं। मैं बचपन में अपनी स्कूल की क्रिकेट टीम का हिस्सा था और अब भी समय मिलने पर टीवी पर टेस्ट मैच देखता हूं। मैं मानता हंू कि टीम वर्क की समझ और नेतृत्व करने की क्षमता मुझमें इसी खेल के कारण विकसित हुई है। हालांकि फुटबाॅल भी मेरा पसंदीदा खेल है। सिएटल स्थित पेशेवर फुटबाॅल टीम सी-हाॅक का मैं फैन हूं। मैं फिटनेस के प्रति सजग हूं और हमेशा दौड़ता हूं। मैं एक पारिवारिक आदमी हूं:-             मेरा स्वभाव मेरे काम के ठीक विपरीत है। मैं एक पारिवारिक आदमी हूं। आज भी काम के बाद मेरा वक्त पत्नी और तीन बच्चों के इर्द-गिर्द ही बीतता है। स्कूल और काॅलेज के दोस्तों के संपर्क में मैं आज भी हूं। पर मैं सोशल मीडिया पर सक्रिय नहीं हूं। वर्ष 2010 के बाद मैंने ट्वीट नहीं किया। हालांकि मुझे भाषण देना अच्छा लगता है। लेकिन रिजर्व रहना पसंद करता हूं। सत्या नडेला से विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार – अमर उजाला यह भी पढ़ें ……………. लक्ष्मी नारायण सिंह उर्फ़ लच्छु महाराज मेरे पिताजी का बोया पौधा गुलज़ार : राहुल देव बर्मन हेडी लेमर – ब्यूटी विद ब्रेन सुप्रसिद्ध शहनाई वादक – उस्ताद बिस्मिल्ला खान

पिता के नाम तरुण कार्ल मार्क्स का पत्र

19 वर्ष के कार्ल मार्क्स ने बर्लिन से अपने पिता को यह ख़त लिखा था जिसमें बर्लिन में बिताये अपने एक साल का लेखा-जोखा दिया था। मार्क्स के जीवनीकार फ्रांज़ मेहरिंग ने लिखा है, ‘इस पत्र के द्वारा हम मार्क्स के जीवन के उस एक साल को उनके जीवन के किसी भी और दौर के मुक़ाबले बेहतर तरीके़ से जान पाते हैं। यह दिलचस्प दस्तावेज़ अपनी तरुणार्इ से गुज़रते एक पूरे मनुष्य को उदघाटित करता है, नैतिक और शारीरिक रूप से चुक जाने की हद तक सत्य के लिए जद्दोजहद करता एक मनुष्य, ज्ञान के लिए उसकी कभी तृप्त न होने वाली प्यास, काम करने की अथक क्षमता, उसकी निर्मम आत्मालोचना, और वह भयंकर संघर्ष चेतना जो दिल को भी दरकिनार कर सकती थी, लेकिन तभी जब वह ग़लती करता प्रतीत हो। मूल पत्र बहुत लंबा है। यहां हम उसका अत्यंत संक्षिप्त रूप दे रहे हैं। हिंदी में शायद यह पहली बार पोस्ट हो रहा है। प्रिय पिताजी बर्लिन, 10 नवंबर, 1837 जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जो सीमा के पत्थरों की तरह एक काल की समाप्ति कोचिन्हित करते हैं, लेकिन साथ ही एक नयी दिशा की ओर इशारा भी करते हैं। संक्रमण के ऐसे बिंदु पर हमें अपने भूत और वर्तमान को विचार की तीक्ष्ण दृष्टि से जांचने की आवश्यकता महसूस होती है, ताकि हम अपनी वास्तविक सिथति से परिचित हो सकें। विश्व इतिहास स्वयं भी ऐसा सिंहावलोकन पसंद करता है, और हर तरफ़ अपनी निगाह डालता है, जिससे प्राय: प्रतिगमन या गतिहीनता का भ्रम होता है, जबकि वास्तव में होता यह है कि इतिहास की आत्मा आरामकुर्सी में जा बैठती है, ताकि वह अपने विचारों को एकाग्र कर सके, अपने ही क्रियाकलापों के ज्ञान से अपना मसितष्क उर्वर बना सके। किंतु ऐसे क्षणों में व्यक्ति काव्यात्मक हो जाता है, क्योंकि हर रूपांतरण (metamorphosis )कुछ हद तक अंतिम गान होता है और कुछ हद तक एक नयी महान कविता का पूर्व संगीत, जो धुंधली किंतु चटकदार आभा के साथ सुरताल साधने की कोशिश कर रहा होता है। किंतु हमारा जो अब तक का तजुर्बा रहा है, उसके लिए स्मारक बनाने की इच्छा हमारे अंदर होनी चाहिए, ताकि भावनाओं में उसकी वही जगह बन सके जो वह व्यावहारिक संसार में खो चुका है; और पिता के दिल से अधिक पवित्र स्थान इसके लिए कौन सा हो सकता है जो सबसे दयालु, निर्णायक, सबसे उत्साहपूर्ण सहभागी और प्रेम का ऐसा सूर्य है जिसकी अग्नि हमारे प्रयासों के आंतरिक केंद्र को ऊष्मा देती है। … जब मैं आपको छोड़ कर आया तो एक नया संसार मेरे सामने खुला ही था, प्रेम का संसार वास्तव में ऐसा प्रेम जो अपनी अभिलाषाओं में उन्मत्त और आशाहीन था। बर्लिन की यात्रा भी, जो मुझे दूसरी परिस्थितियों में आनंद देती, मुझे छू नहीं पायी।… जब मैं बर्लिन पहुंचा तो मैंने सभी संबंध तोड़ डाले, बहुत कम लोगों के यहां गया और सो भी अनिच्छापूर्वक और अपने आप को विज्ञान एवं कला में डुबो देने का प्रयत्न किया। कवितार्इ एक तात्कालिक सहचरी ही हो सकती थी, होनी चाहिए थी। मुझे कानून की पढ़ार्इ करनी थी और सर्वोपरि मैं दर्शनशास्त्र से जूझने की ज़रूरत महसूस कर रहा था। दोनों में इतना क़रीबी अंतर्संबंध है कि मैंने हाइनेकिसयस, थिबाट और अन्य स्रोतों को कमोबेश स्कूली लड़के की तरह पढ़ा, बिना आलोचना के, उदाहरणार्थ पन्डेक्टस के पहले दो खंडों का जर्मन में अनुवाद करते हुए; किंतु कानून की पढ़ार्इ करते हुए मैंने एक विधि -दर्शन स्थापित करने की कोशिश भी की। मैंने पहले भूमिका के रूप में कुछ तत्वमीमांसा संबंधीसमस्याएं रखीं और इस अभागे ग्रंथ में विचार-विमर्श को अंतर्राष्ट्रीय कानून तक ले गया कुल मिला कर क़रीब तीन सौ पृष्ठों की पुस्तक। जो वास्तव में है और जो होना चाहिए के बीच विरोध से मैं सबसे अधिक परेशान हुआ,जो कि आदर्शवाद की विशेषता है और इसने निम्नलिखित सर्वथा ग़लत वर्गीकरण को जन्म दिया; सबसे पहले सिद्धांत, विचार, निरर्थक धारणाएँ जिन्हें मैंने शालीनतापूर्वक’विधि का तत्वज्ञान कहा कानून के हर वास्तविक रूप से अलग और विछिन्न। यह फिख़्टे की पुस्तकों की भांति था, बस यह है कि मेरे मामले में इसने अधिक् आधुनिक और सारहीन रूप ले लिया था। इसके अतिरिक्त गणितीय हठधर्मिता (जहां विचारक विषय के इर्द-गिर्द घूमता है, इधर-उधर तर्क करता है, जबकि विषय को कभी इस रूप में सूत्रबद्ध नहीं किया जाता कि वह अपनी अंतर्वस्तु में समृद्ध और सचमुच जीवंत प्रतीत हो) शुरू से ही सत्य तक पहुंचने में अवरोध बनी थी। गणितज्ञ एक त्रिभुज बनाकर उसकी विशेषताएं दिखला सकता है; लेकिन वह ‘स्पेस में मौजूद एक विचार भर बना रहता है, और उसका आगे कोर्इ विकास नहीं होता। हम एक त्रिभुज के बग़ल में दूसरे को रखें, तब यह भिन्न अवस्थितियां धारण कर लेता है, और जो सारत: एक समान है, उनके बीच की ये भिन्नताएं त्रिभुज को भिन्न संबंध और सत्य मुहैया कराती हैं। दूसरी ओर, विचार के जीवित संसार की ठोस अभिव्यक्ति में जैसे कानून, राज्य, प्रकृति, संपूर्ण दर्शनशास्त्र में वस्तु का अध्ययन उसके विकासशील रूप में होना चाहिए; वहां कोर्इ मनमाना वर्गीकरण नहीं होना चाहिए; वस्तु के रैशनेल का अपने समस्त अंतर्विरोधों में सामने आना और स्वयं अपने में अपने एकत्व को तलाशना आवश्यक है। किंतु मैं उन चीजों से पन्ने क्यों रंगूं जो मैंने खारिज कर दी हैं? पूरा का पूरा त्रिभागीय वर्गीकरण से भरा है, उबाऊ विस्तार के साथ लिखा गया है, रोमन धारणाओं का उसमें बर्बरता से दुरुपयोग किया गया है ताकि वे मेरे तंत्र में शामिल किये जा सकें। किंतु फिर भी मुझे कुछ हद तक अपने विषय से स्नेह हो गया और मैंने इसकी विषय-वस्तु का एक सामान्य परिचय प्राप्त कर लिया। इस बीच मैंने अपनी पढ़ी जाने वाली हर पुस्तक से उद्धरण लिखने की आदत बना ली थी जैसे लेसिंग की लूकून, सोल्जर की अर्विन, विंकलमैन की कन्स्टगेसिकश्टे, लुडेन की डयूटस गेशिख्टे से और उन पर आलोचनात्मक टिप्पणियां लिखने लगा; इसी समय मैंने टैसिटस की जर्मेनिया और ओविड की टि्रसिटयम लिव्री का अनुवाद किया। मैंने अंग्रेज़ी और इटालियन की पढ़ार्इ भी शुरू की (उनके व्याकरणों की सहायता से) लेकिन अभी तक इसमें अधिक प्रगति नहीं हुर्इ है। मैंने क्लाइन की क्रिमिनलरेख्ट और उसकी एनाल्स पढ़ी और साथ ही काफ़ी सारा आधुनिक साहित्य भी पढ़ा, लेकिन यह … Read more

बहादुर शाह जफ़र के अंतिम दिन – इतिहासकार की एक उदास ग़ज़ल

बहुत पुरानी बात नहीं है। सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले भारत के इतिहास ने एक अप्रत्याशित करवट ली थी। अंग्रजी राज के खिलाफ एक बड़ी बगावत पूरे उत्तर भारत में वेगवती आंधी बन उठी थी । अंग्रजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया था। यह विद्रोह गांवों के किसानों और गढ़ियों के सामंतों तक फैल गया। अस्तंगत मुगल साम्राज्य के आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फर को विद्रोहियों ने अपना नेतृत्व दिया।ज़फर बूढ़े थे, बीमार और कमजोर भी। पर उनकी कुछ खासियतें भी थीं। औरंगजेब ने धार्मिक कट्टरता की जो गांठ इस देश पर लगा दी थी, उसकी कुछ गिरहें ज़फर ने खोली थीं। वे अकबर की परम्परा और सूफी मिजाज के शख्श थे। अपनी सीमित शक्तियों और मजबूरियों के बावजूद उन्होंने अपने कार्यकाल में जो भी करने की कोशिश की, उससे पता चलता है कि वे इस देश से सचमुच प्यार करते थे और नितंांत प्रतिकूल समय में भी वे उस परम्परा के वाहक थे, जो हिन्दुस्तान की माटी से उपजी और विकसित हुइ थी। बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था-जिसने हिंदूस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था – अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी। बहादुरशाह ज़फर के प्रति मेरे आकर्षण और मेरे मित्र और ‘अहा ज़िदगी’ के सम्पादक आलोक श्रीवास्तव के आग्रह और प्रतिआग्रह ने मुझे बादशाह पर लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है ‘अहा जिंदगी’ के दिसम्बर, 2010 अंक में प्रकाशित मेरा वह प्रयास) ******* आसमान में सितारे लटके हुए थे और हल्की ठण्डी बयार बह रही थी। सुबह के ठीक चार बजे का समय था। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। सन्नाटे को चीरती थी काफिले के साथ चल रहे बल्लम-बरदार सैनिकों के घोड़ों की टापें। पेड़ों पर बेचैन फुकदती चिड़ियों की आवाज में प्रतिदिन की भांति गाए जाने वाले सुबह के सुहाने गीत नहीं थे। वे विलाप कर रही थीं। यहां तक कि सड़क के दोनों ओर खड़ी झाड़ियों में झींगुर भी शोकगीत गा रहे थे। उनके सामने से गुजरने वाला काफिला उनके चहेते बादशाह बहादुरशाह ज़फर और उनके परिवार के सदस्यों का था जिसे अंग्रेज किसी अज्ञात स्थान की ओर ले जा रहे थे। वह 7 अक्टूबर, 1858 की सुबह थी। 6 अक्टूबर की रात बिस्तर पर जाते समय बादशाह ने कल्पना भी न की थी कि उन्हें भोर से पहले ही जगा दिया जाएगा और तैयार होकर प्रस्थान करने के लिए कहा जाएगा….कहां के लिए, यह पूछने का अधिकार भी अब उस पराजित बादशाह को नहीं था। वही नहीं, उनके साथ चल रहे काफिले के 31 सदस्यों में से किसी को भी यह भान नहीं था। अंग्रेजों ने सब कुछ अत्यंत गोपनीय रखा था। लेफ्टीनेंट ओमनी को बादशाह की सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसने ठीक 3 बजे बादशाह और अन्य लोगों को जगाकर एक घण्टे में तैयार हो जाने का फरमान सुनाया था। बाहर बल्लम-बरदार घुड़सवार सैनिक तैनात थे। बादशाह बहादुरशाह ज़फर को दिल्ली छोड़नी थी। जाना कहां था यह उन्हें नहीं बताया गया था। वे एक हारे हुए बादशाह थे। गनीमत यह थी कि उन्हें मौत के घाट नहीं उतार दिया गया था। सिर्फ देश-निकाला मिला था। वे वह जंग हार गए थे जिसका उन्होंने न एलान किया था, न आगाज। न रणभूमि में उतरे थे, न कमान संभाली थी। जिस तरह वे मुगलों की सिमटी हुई सल्तनत के प्रतीकात्मक बादशाह थे उसी तरह 1857 के विद्रोही सिपाहियों ने उन्हें अपना प्रतीकात्मक नेतृत्व दे रखा था। बहादुरशाह ज़फर मुगल सल्तनत का उजड़ा हुआ नूर थे। वह सल्तनत जिसने पूरे हिंदुस्तान में अपना परचम लहराया था – जिसने हिंदुस्तान को एक नए रंग में ढाल दिया था – अब देश तो दूर, दिल्ली में भी बस नाम भर की थी। हकीकत तो यह है कि वह लाल किले तक महदूद थी और लाल किले में भी कहां, वहां भी कौन सुनता था बादशाह की? किले के अपने षडयंत्र थे, अपनी राजनीति और दुरभिसंधियां! दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक का वारिस अपने ही मुल्क, अपनी राजधानी, अपने ही किले यहां तक कि अपने ही दीवाने-आम और दीवाने-खास में मजबूर और अकेला था। सूफी तबीयत के ज़फर के आखिरी दिनों को यह मजबूर अकेलापन हरम की रंगरेलियों में, कुछ त्योहारों के रंगों-रोशनियों में और बाकी ग़ज़लों के रदीफ-काफिए में कटता था। उधर अंग्रेजों की नीतियों और कारस्तानियों ने आम सिपाही,किसान और सामंत सभी में असंतोष व्याप्त कर रखा था। हिंदुस्तान के घायल जज्बात जाग रहे थे, एक अपमानित मुल्क,एक उत्पीड़ित देश अपनी रगों में बहते लहू को महसूस कर रहा था। वह साल कहर बनकर टूटा। उस महाविद्रोह की बाढ़ में न जाने कितने तख्तो-ताज बह गए, महल और गढ़ियां ध्वस्त हुए, प्राचीरें गिरीं। उठती शमशीरों ने अपनी चमक से गंगा-यमुना के दोआबे से लेकर गोदावरी-कृष्णा तक के पानियों में रवानी पैदा कर दी। ज़फर में हिचक थी, डर था, बेचारगी थी, पर थोड़ा आदर्शवाद और जज्बा भी थी। इन सबने उन्हें उस आँधी के आगे खड़ा कर दिया – जो 1857 की गर्मियों में पूरे देश को झिंझोड़ती घूमती रही। अब वह आंधी थम चुकी थी और हारा हुआ कैद बादशाह दिल्ली की सड़कों से आखिरी बार गुजर रहा था……. चंदोवादार पालकी में आगे बादशाह बहादुर शाह ज़फर और उनके जीवित दोनों छोटे पुत्र थे जिसे चारों ओर से घेरे सैनिक चल रहे थे। उसके पीछे पर्देवाली गाड़ी में जीनत महल, मिर्जा जवां बख्त की युवा पत्नी नवाब शाह ज़मानी बेगम और उसकी मां मुबारक उन्निशा और उसकी बहन थीं। तीसरी सवारी में बेगम ताज महल और ख्वाजा बालिश सहित उनकी परिचारिकाएं थीं। उनके पीछे पांच बैलगाड़ियों का काफिला था जिनमें प्रत्येक में चार पुरुष और महिला सहायक और ज़फर के हरम की महिलाएं थीं और इन गाड़ियों को भी सैनिक घेरकर चल रहे थे। काफिला यमुना नदी की ओर बढ़ रहा था जहां उसे नावों वाले पुल से नदी पार कर कानपुर की ओर प्रस्थान करना था। वहां से स्टीम बोट द्वारा उन्हें आगे कलकत्ता के लिए की यात्रा करना था। ओमनी ने 13 अक्टूबर को बादशाह के … Read more

हेडी लेमार – ब्यूटी विद ब्रेन

अपने समय की सबसे खूबसूरत स्त्री कही जाने वाली हौलीवुड अभिनेत्री हेडी लेमार का आज १०१ जन्म दिन है | आज गूगल डूडल देख कर आप के मन में प्रश्न जरूर उठा होगा की उनमें ऐसा क्या ख़ास है जिसके कारण गूगल उन्हें ये सम्मान दे रहा है |९ नवम्बर १९१७ में ऑस्ट्रिया में जन्मी हेडी ने १७ वर्ष की उम्र में जर्मन फिल्म में पहली बार परदे पर आई | बाद में वो हेडी लेमार नाम से हौलीवुड की अभिनेत्री बनी | उन्होंने अनेकों यादगार रोल निभाए व् सफल फिल्में दी |पर लेमार को केवल खूबसूरत चेहरे के लिए ही याद नहीं किया जाता |उन्होंने १९४२ में सीक्रेट कम्युनिकेशन सिस्टम के अपने आइडिया को पेटेंट कराया | जो आज मिलिटरी के प्राइवेट कम्युनिकेशन व् मोबाईल फोन की तकनीकी का आधार है | वह अपने मिलेट्री जानकारी के आधार पर द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिकों की मदद करना चाहती थी |वास्तव में वह शत्रुओ के द्वारा रेडियो कंट्रोल मिसाइल के सिग्नल ब्लाक करने की समस्या को दूर करना छाती थी | अपने कंपोजर दोस्त जोर्ज अन्थीयेल की मदद से उन्होंने पता लगाया कि प्यानो की ध्वनि तरंगे किस तरह से काम कर सकती है जब जर्मन सब मैर्रिन रेडियो सिंग्नल को ब्लाक कर रहा हो |” फ्रीकेंसी होपिंग ” के उनके आइडिया को उस समय वैसे ही संदेह से देखा गया जैसे आज ” टाइम मशीन ‘ को देखा जाता है | पर बाद में उसी आइडिया पर विचार करते -करते व् सुधार करते -करते जी . पी .एस , ब्लू टूथ व् वाई -फाई का आविष्कार हुआ , जो आज सभी क्षेत्रों की तकनीकी की जान है |सच का हौसला की टीम हेडी लेमार को उनके १०१ वे जन्म दिन पर हार्दिक अभिनन्दन करती है |जी हां एक ऐसी अभिनेत्री का जो अपनी प्रतिभा से न केवल होलीवुड में स्थापित हुई बल्कि उसने एक अभिनेत्री से एक अविष्कारक की यात्रा तय की | उसने हमें वो सिधांत या सूत्र दिए जिस तकनीकी रूप से परिमार्जन कर आज हमारे स्मार्ट फोन अस्तित्व में आये हैं | हेडी लेमार के अनमोल विचार १ ) हर लड़की ग्लैमरस दिख  सकती है बस उसे बिना हिले दुले खड़े रहना है और मूर्ख दिखना है |२ ) समझौता और सहनशक्ति दो जादुई शब्द हैं | जिनको सीख कर दार्शनिक बनने में मुझे ४० साल लग गए |३ )मेरी माँ मुझे सदा बदसूरत कहा करती थी | उस समय मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया | बाद में मुझे यह अहसास हुआ जब कोई आप को खूबसूरत अहसास कराता है तो साधारण से साधारण दिखने वाली लड़की भी खूबसूरत दिखने लगती हैं | यह जादुई असरदायक है |४ ) सारे रचनात्मक लोग वो करना चाहते हैं जिसे करने की कोई उनसे उम्मीद ही न करता हो |५ ) ज्यादातर लोग अमीर इसलिए नहीं हो पाते हैं क्योंकि वो पैसों को अपने काम सूपर रखते हैं | अगर वो काम को पैसों से ऊपर रखेंगे तो अवश्य पैसा उनका पीछा करेगा |

प्रिंसेस डायना : एक परी कथा का दुखद अंत

कहानियाँ किसे नहीं पसंद होती | शायद कहानियाँ ही हैं जिसकी चाह  में बच्चे नानी – दादी के आस – पास घूमते रहते हैं |और वो भी तो पूरे चाव से परियों की कहानी सुनाती है तो कभी राजकुमार-राजकुमारी की। ऐसी ही कहानियों के बीच हमारा बचपन निकलता है। लेकिन इतिहास के पन्नों में आज ही के दिन एक ऐसी कहानी दर्ज़ है जो राजकुमार और राजकुमारी के अलग होने के बाद राजकुमारी के बहद दुखद अंत की कहानी है | पर अफ़सोस एक कहानी ही नहीं एक सच्चाई है | ३१ अगस्त की वो काली रात जब स्वप्नों की दुनियां से आई किसी पारी की तरह खूबसूरत राजकुमारी का दुखद अंत हुआ | उनको श्रधांजलि देते हुए आज व्ही कहानी दोहरा रहे हैं | प्रिंसेस डायना : एक परी कथा का दुखद अंत  प्रिंस चार्ल्स रॉयल फैमेली से हैं,वे अपने लव अफेयर्स को लेकर काफी सुर्खियों में रहते थे। लेकिन शाही विवाह अधिनियम 1772 के तहत दुल्हन की प्रतिष्ठा को महत्वपूर्ण माना जाता था। इस अधिनियम के तहत प्रिंस को ऐसी दुल्हन चाहिए थी,जिसका शादी से पहले कोई अफेयर न हो। प्रिंस चार्ल्स जब पहली बार प्रिंसेस डायना से मिले तो वे अपनी बड़ी बहन सारा के दोस्त के रूप में मिले। उन्होंने पहले डायना को प्रेम या शादी की दृष्टि से नहीं देखा था। लेकिन धीरे-धीरे दोनों करीब आने लगे, दोनों एक दूसरे को डेट करने लगे।उनकी इसी डेटिंग के चलते वे प्रेस की नज़रों में भी आ गए लेकिन उनकी डेटिंग चलती रही। परिवार ने भी उन्हें इस रिश्ते के लिए सहमति दे दी तब प्रिंस चार्ल्स ने फरवरी 1981 में डायना के सामने शादी का प्रस्ताव रखा जिसे डायना ने स्वीकार किया। इसके बाद प्रिंस ने डायना के पिता से उनका हाथ मांगा और उन्हें मिल भी गया। इन सबकी मंजूरी के बाद क्वीन काउंसिल ने भी इस बात की सहमति दे दी। 29 जुलाई 1981 को ये दोनों शादी के बंधन में बंध गए। इनकी शादी काफी यादगार थी और पूरी दुनिया में इसको लेकर काफी दीवानापन था। रॉयल परिवार की इस शादी का प्रसारण 74 देशों में किया गया था। उस समय करोड़ों लोग टीवी पर इस शादी को देख रहे थे। इनके अलावा भी इस शादी में मेहमान के रूप में कई देशों के राष्ट्रपति और बड़े अफसर शामिल हुए थे।प्रिंस और प्रिंसेस की इस जोड़ी ने,शादी के बाद किंगस्टोन पैलेस के करीब हाईग्रुव हाउस पर अपना घर बनाया था। उस समय एक फेमस फोटोग्राफर जो जानी-मानी हस्तियों की फोटो खींचता था, वो उनका पीछा करने लगा। पपराजी नाम का ये फोटोग्राफर अपने कैमरे के द्वारा इनकी हर चाल पर नज़र रखता था और लोगों तक इनकी ख़बरें पहुंचाता था। शादी के बाद ये कपल दो बच्चों के माता-पिता बने जो प्रिंस विलियम और प्रिंस हैरी हैं। प्रिंस और प्रिंसेस की ये शादी ज़्यादा दिन नहीं चल सकी। शादी के कुछ सालों बाद दोनों में अलगाव होने लगा। अंत में इन दोनों ने अधिकारिक रूप से तलाक ले लिया। 29 जुलाई 1981 को हुई इस रॉयल शादी के 15 साल बाद प्रिंस चार्ल्स और प्रिंसेस डायना का डिवोर्स सभी के लिए आश्चर्यपूर्ण था। उस समय ये इंटरनेशनल मीडिया के लिए बहुत दिनों तक चलने वाला मसाला था। इनके तलाक के एक साल बाद 31 अगस्त 1997 को पेरिस में एक कार दुर्घटना में प्रिंसेस डायना की मौत हो गई। ये मौत अपने पीछे जाने कितने सवाल छोड़ गई।कथित तौर पर उस समय डायना अपने प्रेमी के साथ थीं और कोई उनका पीछा कर रहा था।उस पीछा करनेवाले शख़्स की वजह से ही उनकी कार की गति तेज़ हुई और अनियंत्रित होकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई। डायना का चले जाना सारी दुनिया में उनके चाहने वालों को स्तब्ध कर गया।

लता मंगेशकर उस संगीत का नाम है , जो कानों से सीधे रूह में उतरता है

अगर आप गायन की बात करते हैं और खास कर फ़िल्मी गायन की तो जो नाम सबसे पहले जेहन में उभर कर आता है वह है लता मंगेशकर |आज लता मंगेशकर महज एक व्यक्ति का नाम नहीं सुरों का पर्याय है | जिसमें शामिल हैं न जाने कितने आरोह – अवरोह , न सिर्फ हिंदी सिनेमा के बल्कि 20 भाषाओं में 30,000 से भी अधिक गानों के |यूँ ही हम उन्हें स्वर कोकिला की उपाधि नहीं देते | ये उनकी गायकी का ही कमाल  है की एक बार अमिताभ बच्चन ने किसी कार्यक्रम में कहा था की पकिस्तान हमसे दो ही चीजे मांगता है कश्मीर और लता मंगेशकर , और हम दोनों नहीं देंगे | भारत रत्न लता मंगेशकर भारत की सबसे लोकप्रिय और आदरणीय गायिका हैं जिनका छ: दशकों का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा पड़ा है। उनकी आवाज़ सुनकर कभी किसी की आँखों में आँसू आए, तो कभी सीमा पर खड़े जवानों को सहारा मिला। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की संगीत ही लता जी का जीवन है |उन्होंने स्वयं को पूर्णत: संगीत को समर्पित कर रखा है। जीवन परिचय कुमारी लता दीनानाथ मंगेशकर का जन्म 28 सितम्बर, 1929 इंदौर, मध्यप्रदेश में हुआ था।उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर एक कुशल रंगमंचीय गायक थे। दीनानाथ जी ने लता को तब से संगीत सिखाना शुरू किया, जब वे पाँच साल की थी। उनके साथ उनकी बहनें आशा, ऊषा और मीना भी सीखा करतीं थीं। लता ‘अमान अली ख़ान साहिब’ और बाद में ‘अमानत ख़ान’ के साथ भी पढ़ीं। लता मंगेशकर हमेशा से ही ईश्वर के द्वारा दी गई सुरीली आवाज़, जानदार अभिव्यक्ति व बात को बहुत जल्द समझ लेने वाली अविश्वसनीय क्षमता का उदाहरण रहीं हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण उनकी इस प्रतिभा को बहुत जल्द ही पहचान मिल गई थी। लेकिन पाँच वर्ष की छोटी आयु में ही आपको पहली बार एक नाटक में अभिनय करने का अवसर मिला। शुरुआत अवश्य अभिनय से हुई किंतु आपकी दिलचस्पी तो संगीत में ही थी।वर्ष 1942 में इनके पिता की मौत हो गई। इस दौरान ये केवल 13 वर्ष की थीं। नवयुग चित्रपट फिल्‍म कंपनी के मालिक और इनके पिता के दोस्‍त मास्‍टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने इनके परिवार को संभाला और लता मंगेशकर को एक सिंगर और अभिनेत्री बनाने में मदद की। फ़िल्मी सफ़र कहते है की सफलता यूँही आसानी से नहीं मिल जाती | लता जी को भी अपना स्थान बनाने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पडा़। कई संगीतकारों ने तो उनको शुरू-शुरू में पतली आवाज़ के कारण काम देने से साफ़ मना कर दिया था। उस समय की प्रसिद्ध पार्श्व गायिका नूरजहाँ के साथ लता जी की तुलना की जाती थी। उन्हें नूरजहाँ के स्टायल में गाने के लिए कहा जाता | पहले के उनके कुछ गीत उसी तरीके से गाये हुई हैं | पर बाद में लता जी ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर अपने ही स्वरों में गाने लगीं | शुरू में तो दिक्कत हुई | लेकिन धीरे-धीरे अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर लता जी को काम मिलने लगा। लता जी की अद्भुत कामयाबी ने लता जी को फ़िल्मी जगत की सबसे मज़बूत महिला बना दिया था। लता जी को सर्वाधिक गीत रिकार्ड करने का भी गौरव प्राप्त है। फ़िल्मी गीतों के अतिरिक्त उन्होंने ग़ैरफ़िल्मी गीत भी बहुत खूबी के साथ गाए हैं। लता जी की सफलता की शुरुआत हुई सन् 1947 में, जब फ़िल्म “आपकी सेवा में” उन्हें एक गीत गाने का मौक़ा मिला। इस गीत के बाद तो आपको फ़िल्म जगत में एक पहचान मिल गयी और एक के बाद एक कई गीत गाने का मौक़ा मिला। इन में से कुछ प्रसिद्ध गीतों का उल्लेख करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। सफलता के मार्ग में 1949 में गाया गया “आएगा आने वाला”,मील का पत्थर साबित हुआ | जिस के बाद आपके प्रशंसकों की संख्या दिनोदिन बढ़ने लगी। इस बीच आपने उस समय के सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ काम किया। अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, एस. डी. बर्मन, आर. डी. बर्मन, नौशाद, मदनमोहन, सी. रामचंद्र इत्यादि सभी संगीतकारों ने आपकी प्रतिभा का लोहा माना। लता जी ने दो आँखें बारह हाथ, दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, मुग़ल ए आज़म, आदि महान फ़िल्मों में गाने गाये है। आपने “महल”, “बरसात”, “एक थी लड़की”, “बडी़ बहन” आदि फ़िल्मों में अपनी आवाज़ के जादू से इन फ़िल्मों की लोकप्रियता में चार चाँद लगाए। इस दौरान आपके कुछ प्रसिद्ध गीत थे: “ओ सजना बरखा बहार आई” (परख-1960), “आजा रे परदेसी” (मधुमती-1958), “इतना ना मुझसे तू प्यार बढा़” (छाया- 1961), “अल्ला तेरो नाम”, (हम दोनो-1961), “एहसान तेरा होगा मुझ पर”, (जंगली-1961), “ये समां” (जब जब फूल खिले-1965) इत्यादि। ८० के दशक के मध्य में डिस्को के जमाने में लता ने अचानक अपना काम काफी कम कर दिया हालांकि “राम तेरी गंगा मैली” के गाने हिट हो गये थे। दशक का अंत होते होते, उनके गाये हुए “चाँदनी” और “मैंने प्यार किया” के रोमांस भरे गाने फिर से आ गये थे। तब से लता ने अपने आप को बड़े व अच्छे बैनरों के साथ ही जोड़े रखा। ये बैनर रहे आर. के. फिल्म्स (हीना), राजश्री(हम आपके हैं कौन…) और यश चोपड़ा (दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे, दिल तो पागल है, वीर ज़ारा) आदि। ए.आर. रहमान जैसे नये संगीत निर्देशक के साथ भी, लता ने ज़ुबैदा में “सो गये हैं..” जैसे खूबसूरत गाने गाये।यही नहीं अभी हाल में उनके द्वारा गया गया वीर – जारा का गीत भी अत्यंत लोकप्रिय हुआ है | लता के बारे में किसने क्या कहा – *नकी आवाज़ और गायन में मशक्कत नज़र आती। वह सहज है और भीतर से निकली हुई इबादत की तरह है। उनकी आवाज़ चांद पर पहुंची हुई आवाज़ है। फ़िल्मकार श्याम बेनेगल कहते हैं, उनके जैसा कोई और हुआ ही नहीं है। एक मिस्र की उम्मे कुल्सुम थीं और एक लता हैं- गुलज़ार *कभी-कभार ग़लती से ऐसा कलाकार पैदा हो जाता है – पंडित हरि प्रसाद चौरसिया * हमारे पास एक चांद है, एक सूरज है, तो एक लता मंगेशकर भी है!- जावेद अख्तर *हम शास्त्रीय संगीतकारों जिसे पूरा करने में तीन से डेढ़ घंटे लगते हैं, लता वह तीन मिनट पूरा कर देती हैं। जब तक लता है, तब तक हम सुरक्षित हैं।-शास्त्रीय गायक उस्ताद … Read more