हिंदी – लौटना है ‘व्हाट झुमका’ से ‘झुमका गिरा रे’ तक

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हिंदी  – बोली-बानियों की मिठास का हो समावेश                                  अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी, “रॉकी और रानी की प्रेम कहानी” उसका एक गीत जो तुरंत ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया वो था “व्हाट झुमका” l इस गीत के साथ ही जो कालजयी गीत याद आया, वो था मेरा साया फिल्म का “झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में”l  मदन मोहन के संगीत, राजा मेहंदी आली खान के गीत और आशा भोंसले जी की आवाज में ये गीत आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ हैl  इसके साथ ही ट्विटर पर बहस भी छिड़ गई कि इन दोनों में से बेहतर कौन है, और निश्चित तौर पर पुराना गीत विजयी हुआ l उसने ना सिर्फ अपने को इतने समय तक जीवित रखा बल्कि हर नए प्रयोग के बाद वो गीत याद आया l गीत-संगीत के अतिरिक्त  इसके एक कारण के तौर पर गीत के फिल्मांकन में हमारी ग्रामीण संस्कृति, लोक से जुड़ाव और स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग l लौटना है ‘‘व्हाट झुमका’ से झुमका गिरा रे” तक   जब मैं इसी तराजू पर तौलती हूँ तो मुझे लगता है कि हमारी हिंदी भाषा को भी “व्हाट झुमका” से उसी देसी मिठास की ओर लौटने की जरूरत है l यूँ भाषा एक नदी कि तरह होती है और बोलियाँ, बानियाँ उस नदी को जीवंत करता परिस्थिति तंत्र हैं l क्योंकि भाषा सतत प्रवाहशील और जीवंत है तो उसमें विदेशी शब्दों की मिलावट को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो उसकी सार्थकता और प्रासंगिकता को बढ़ावा देते हैं l आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी में अंग्रेजी ही नहीं फ्रेंच, कोरियन, स्पैनिश शब्दों का मिलना उसके प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है l आम बोलचाल की भाषा के आधार पर साहित्य में भी नई वाली हिन्दी का समावेश हुआ और तुरंत ही लोकप्रिय भी हुई l इसने भाषा के साथ- साथ साहित्य की पुरानी शैली, शिल्प और उद्देश्य की परिधि को भी लाँघा l     किसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा की जरूरत है? नई किताबों पर हिंगलिश की फसल लहलहा रही है l इस हिंगलिश के लोकप्रिय होने की वजह हमें अपने घरों में खँगालनी होगी l हाल ये है कि ना अंग्रेजी ही अच्छी आती है ना हिंदी l शहरी क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा घर अब बचा हो जहाँ पाँच पंक्तियाँ पूरी-पूरी हिंदी में बोली जाती हों l यही नहीं हमारी डॉटर को सब्जी में गार्लिक बिल्कुल पसंद नहीं है, जैसे हास्यास्पद प्रयोग भी सुनने को खूब मिलते हैं l किसी दीपावली पर मैंने अपनी घरेलू सहायिका के लिए दरवाजा खोलते हुए कहा, “दीपावली की शुभकामनायें” l उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा, “हैप्पी दीपावली भाभी, हैप्पी दीपावली l” गली की सफाई करने वाला “डस्टबिन” बोलता है, सब्जी वाला सेब को एप्पल ही कहता है l    जिसे जितना आत्म विश्वास अपने ऊपर होगा उतना ही आत्म विश्वास अपनी भाषा पर होगा अक्सर अंग्रेजी के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये अन्तराष्ट्रीय भाषा है और इसे सीखना विकास के लिए जरूरी है l परंतु हमारे सब्जी वाले, गली की सफाई करने वाले, घरेलू सहायिकाओं, आम नौकरी करने वाले मध्यम वर्गीय परिवारों को कौन से अन्तराष्ट्रीय आयोजन में जाना है ? यह मात्र हमारी गलत परिभाषाओं का नतीजा है, जहाँ सुंदर माने गोरा और पढ़-लिखा माने अंग्रेजी आती है माना लिया गया l   अंग्रेजी का यह धड़ाधड़ गलत-सही प्रयोग हमारे अंदर आत्म विश्वास की कमी को दर्शाता है l आज कल के प्रसिद्ध आध्यात्मिक आचार्य, आचार्य प्रशांत कहते हैं कि जब वो नौकरी करने के जमाने में हिन्दी में हस्ताक्षर करते थे, तब कंपनी की ओर से उँ पर बहुत दवाब डाला जाता था कि हस्ताक्षर अंग्रेजी में हों l जबकि अंग्रेजी पर उनकी पकड़ अच्छी थी l यहाँ पर दवाब केवल हीन भावना का प्रतीक था l   भाषा होती है का कला और संस्कृति की वाहक भाषा केवल भाषा नहीं होती, वो कोई निर्जीव वस्तु नहीं है l वो कला संस्कृति, जीवन शैली की वाहक होती है l जब हम हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी चुनते हैं तो हम लस्सी के ऊपर पेप्सी चुनते हैं, समोसे के ऊपर बर्गर चुनते हैं और आध्यात्म को छोड़कर क्लब संस्कृति चुनते हैं l बाजार को इससे फायदा है वो अंग्रेजी के रैपर में ये सब बेच रही है l हर देश, हर संस्कृति एक मूल सोच होती है l हम “थोड़े में संतोष” करने वाली जीवन शैली के बदले में सुख सुविधाओं के बीच अकेलापन खरीद रहे हैं l हम ना सिर्फ स्वयं उस दौड़ में दौड़ रहे हैं बल्कि हमने अपने उन बच्चों को भी इस रेस में दौड़ा दिया है जिनहोने अभी अपने पाँव चलना भी नहीं सीखा है l   लिपि को भी संरक्षण की जरूरत है बाल साहित्य पर विशेष ध्यान देना होगा l  ताकि बच्चे प्रारंभ से ही अपनी भाषा से जुड़े रहें  आज एक बड़ा खतरा हिंदी की देवनागिरी लिपि को भी हो गया है l आज इंटरनेट पर यू ट्यूब पर, व्हाट्स एप पर नई पीढ़ी हिन्दी में बोलती तो दिखाई दे रही है पर लिपि रोमन इस्तेमाल करने लगी है l इससे देवनागिरी लिपि को खतरा हुआ है l हमारा प्रचुर साहित्य, हमारा आध्यात्म, दर्शन जो हमारे भारत की पहचान है, अंग्रेजी में अनुवाद हो कर हमारी अगली पीढ़ियों तक पहुंचेगा l अनुवादक की गलती पीढ़ियों पर भारी पड़ेगी l   कुछ कदम सुधार की ओर   भाषा को बचाना केवल भाषा को बचाना संस्कृति, संस्कार, देश की मूल भावना को बचाना है, उस साहित्यिक संपदा को बचाना है जिसमें हमारी मिट्टी से जुड़ी जीवन गाथाएँ हैं l कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं है l पर जो समर्थ हैं, दो चार भाषाएँ जानते हैं, हिन्दी के प्राचीन वैभव को उत्पन्न कर सकते हैं l इस काम का बीड़ा उन पर कहीं ज्यादा है l उन्हें देखकर आम जन भी अपनी भाषा पर गर्व कर पाएगा l जिन-जिन कामों को करने में अंग्रेजी की  जरूरत नहीं है, उनके प्रश्न पत्र हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में होने चाहिए l रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर उपलबद्ध कराने होंगे l यू ट्यूब और अब फेसबूक इंस्टाग्राम पर भी ये के साधन … Read more

जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा

जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका

लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को अलग-अलग खेमे में रखे जाने पर अब प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गए है ? और बीच का रास्ता निकालने की मांग जोर पकड़ने लगी है क्योंकि साहित्य का उद्देश्य अगर जन जीवन में रूढ़ियों को तोड़ एक तर्कपरक दृष्टि विकसित करना है तो उसका जन में पहुंचना बहुत आवश्यक है l परंतु लोकप्रिय साहित्य के दो जॉनर ऐसे हैं जो अपने तबके में अपनी बादशाहत  बनाए हुए हैं … ये हैं हॉरर और जासूसी उपन्यास l जासूसी उपन्यास की बात करें तो इसमें एक बात खास होती है, वो है हत्या l  हत्या मुख्यतः केन्द्रीय भूमिका में रहती है और क्या रहता है खास बता रहीं हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी …. जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका मृत्यु एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई तत्त्वज्ञान, कोई पुराण-विद्या, कोई मिथक-शास्त्र, कोई विज्ञान पूर्ण रूप से समझ नहीं पाया। शायद इसी कारण यह चिरकाल से रूचि का विषय रहा है। अपराध-लेखन की महारानी मानी जाने वाली पी.डी. जेम्ज़ (1920-2014) स्वीकार करती थीं कि मृत्यु में उनकी रूचि बहुत छोटी उम्र ही से रही थी और जब उन्होंने बचपन में हम्पटी-डम्पटी वाला नर्सरी गीत सुना: हम्पटी-डम्पटी सैट औन अवौल, एन्ड हैड आ ग्रेट फौल। औल द किन्गज़ हौर्सिस एन्ड औल द किन्गज़ मेन कुडन्ट पुट हम्पटी टुगेदर अगेन। ( हम्पटी-डम्पटी एक दीवार पर बैठा था और दीवार से नीचे गिर गया। और राजा के घोड़े और राजा के दरबारी सभी उसे वापिस लाने में असफल रहे) तो तत्क्षण उन के दिमाग में प्रश्न कौंधा था: हम्पटी-डम्पटी गिरा था ? या उसे गिराया गया था ? जासूसी उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता व श्रेष्ठता यही है कि मृत्यु वहां हत्या के रूप में आती है और मृत्यु का बोध सरक कर हत्यारे की पहचान में आन निहित होता है। अच्छे-बुरे के प्रथागत विवेक के साथ शुरू हुआ व निर्णायक रूप से हत्यारे को दंड दिलाने पर खत्म हुआ प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक ओर जहां पाठक की न्यायपरायणता को संतुष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर हत्या की गुन्थी को नीर्ति-संगत निष्कर्ष के साथ परिणाम तक पहुंचा कर उसकी जिज्ञासा को भी शान्त करता है। युक्तियुक्त तर्क-अनुमिति के संग । विचारणा के साथ। जसूसी लेखक रेमण्ड शैण्डलर के अनुसार जासूसी उपन्यास ’आ टैªजिडी विद अ हैप्पी एन्डिग’ है। एक दुखान्त को सुखान्त में बदल देने वाली कृति है। उपन्यास में पहले हम किसी हत्या का सामना करते हैं और बाद में उस के साथ हो लेने के अपराध से स्वयं को मुक्त भी कर लेते हैं। मृत्यु की उपस्थिति से दूर जा कर। कुछ पक्षधर तो यह भी मानते हैं कि जासूसी कथा-साहित्य हमारे अवचेतन मन के अपराध-भाव व सम्भाव्य खटकों के भय को छितरा देने में हमारे काम आता है।  तीन संघटक लिए प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक हत्या, उसकी छानबीन व उसका समाधान पाठक के सामने रखता है और प्रत्येक पृष्ठ पर एक ही प्रश्न-हत्यारा कौन-छोड़ता चला जाता है और उसका उत्तर अंतिम पृष्ठ पर जा कर ही देता है। सच पूछें तो पूरा किस्सा ही पाठक को ध्यान में रख कर गढ़ा जाता है। उसे रिझाने-बहलाने के लिए। बहकाने-खिझाने के लिए। आशंका व उल्लास के बीच दूबने-उतराने के लिए। धीमी गति से चल रही नीरस व घटनाविहीन उस की दिन-चर्य्या से उसे बाहर निकाल कर उसे कागज़ी ’हाय-स्पीड, थ्रिल राइड’ देने के लिए। आज़माने-जताने के लिए कि यदि वह लेखक के साथ हत्यारे को चिह्मित करने की होड़ में बंधने का प्रयास करते हुए अंत पर पहुंचने से पहले ही उस तक पहुंच जाता है तो भी हत्या का उत्प्रेरक व परिवाहक तो वह लेखक स्वयं ही रहेगा। क्योंकि वह जानता है पाठक मृत्यु जैसे रहस्य में गहरी रूचि रखता है और उपन्यास में रखी गयी मृत्यु तो हुई भी अस्वाभविक थी, अनैतिक थी, आकस्मिक थी, संदिग्ध थी तो ऐसे में जिज्ञासु पाठक उस के महाजाल में कैसे न खिंचा चला आएगा। लोकप्रिय जासूसी लेखक मिक्की स्पीलैन कहते भी हैं, किसी भी जासूसी पुस्तक का पहला पृष्ठ उस का अंतिम पृष्ठ उस लेखक की अगली लिखी जाने वाली पुस्तक को बिकवाता है। कथावस्तु सब की सर्वसामान्य है। पुर्वानुमानित है। सुख-बोध देने वाली है। सभी में प्रश्न भी एकल। उत्तर भी एकल। जासूस भी एकल। हत्यारा भी एकल। हां, मगर पात्र ज़रूर एक से अधिक हैं। ताकि हर दूसरे तीसरे पृष्ठ पर संदेह की सुई अपनी जगह बदलती रहे और हत्यारे की पहचान टलती चली जाए। और पाठक की उत्सुकता बढ़ती रहे। कहना न होगा सरल-स्वभावी पाठक सनसनीखेज़ इस घात में फिर जासूस के साथ हो लेता है क्योंकि वह भी जासूस की भांति हत्या के घटनाक्रम से बाहर ही रहा था तथा अब उसे भी हत्या के अनुक्रम व उदभावन का पता लगाने हेतु जासूस के साथ साथ समकालिक अपने समय के पार विगत पूर्व व्यापी पृष्ठभाग को बझाना है, पकड़ना है। समय से आगे भी बढ़ना है और पीछे भी जाना है। अचरज नहीं जो सार्वजनिक पुस्तकालयों में जासूसी उपन्यासों की मांग सवार्धिक रहा करती है। फुटपाथों से लेकर बड़े बाज़ारों, रेलवे प्लेटफार्म से ले कर पुस्तक मेलों तक इन की पहुंच व बिक्री उच्चतम सीमा छू लेती है। यह अकारण नहीं। इन उपन्यासों में न तो कोई भाव-प्रधान घटना ही रहती है और न ही कोई दर्शन अथवा चिन्तन।   भाषा भी इनकी प्रचलित व सपाट रहा करती है। घुमावदार अथवा तहदार नहीं। सारगर्मित नहीं। इन्हें पढ़ने के बाद पाठक को लगता है प्रश्न अपने उत्तर रखते हैं, दुष्ट पकड़े जाते हैं और दंडित होते हैं। कानून व व्यवस्था का भंग अल्पकालिक है। अन्ततः सुव्यवस्था का प्रभाव-क्षेत्र ही फलता-फूलता है। यहां यह जोड़ना अत्यावश्यक है कि हत्या की यह उपस्थिति जासूसी किस्सों को लोकप्रियता ही दिलाती है, उन्हें गंभीर साहित्य की श्रेणी में स्थान नहीं। चेखव का कहना था कि लेखक का काम प्रश्न पूछना है, उस का उत्तर देना नहीं। और गंभीर साहित्य में केवल वही प्रश्न नहीं पूछे जाते जिन के उत्तर हमारे पास रहते हैं। वही समस्याएँ नहीं उठायी जातीं जिन के हल हम दे सकें। समाधानातीत समस्याओं तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे पात्र गंभीर साहित्य प्रेमियों को अधिक भाते हैं क्योंकि वह पुस्तकों के पास केवल समय काटने नहीं जाते, वहां मनोरंजन ढूंढने नहीं जाते, वहां … Read more

भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी

संसार अपनी धुन में लगातार चलते हुए मारक पदचिह्न छोड़ता चलता है। जिस रास्ते को वह तय कर लेता है, उस पर कभी मुड़कर नहीं देखता। न ही किसी चट्टान पर बैठकर ये प्रतीक्षा करता है कि कोई प्रबुद्ध-समृद्ध व्यक्ति आकर उसके पाँव की छाप लेकर धरोहर के रूप में सुरक्षित कर ले। लेकिन इस सबके बावजूद भी सब कुछ लिखा जाता है। कोई है, जिसके इशारे पर हवा चलती है और सूरज दहकता है। उसके यहाँ जितना हाथी का मोल है, उतना ही चीटीं का। जितनी बरगद की आवश्यकता है, उतनी ही छुईमुई की ज़रूरत है। कहने का मतलब जो कुछ भी पृथ्वी पर क्रियात्मकता के साथ घट रहा होता है, उसको कलमबद्ध करने का काम लिपिक स्वयं करता चलता है। तो फिर इस संसार का लिपिक है कौन ? जब सवाल उठा तो पता चला कि संसार का लिपिक और कोई नहीं काल स्वयं है। वही उसके निहोरा घूमता है, या हो सकता है कि संसार स्वयं अपने लिपिक के प्रति निहोरा हो! कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि कला और काल को कोई मात देकर यदि बाँध लेता है, वह और कोई नहीं, जाग्रत चेतना का लेखक ही होता है। लेखक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और संवेदना से लबालब हृदय की कलम से बाह्य और अंतर जगत को लिख डालता है। लेखक की कलम में आकाश-पाताल, सागर-गागर, नदियाँ-कुँए,सूरज-चाँद-सितारे और समस्त प्रकृति एक साथ और एक समय में छिपकर रहते हैं और साथ में रहती है उसकी अपनी मौलिक तार्किकता,समाज को समझने की समझ और सही बात कहने की छटपटाती दृढ़ता। उसी की दम से एक जगा हुआ लेखक सात कोने के भीतर की घटनाओं-दुर्घटनाओं को घसीटते हुए संसार के सम्मुख शब्दों में लपेटकर रख देता है। भानपुरा की लाड़ली बेटी- मन्नू भंडारी मैं जिसकी बात कहने जा रही हूँ, वे भी बेहद निर्भीक तटस्थ लेखिका थीं। उनका नाम ‘मन्नू भंडारी’ लेते हुए मन श्रद्धा से भर जाता है। अभी हाल ही में भारत की प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित कथा लेखक मन्नू भंडारी जी का निधन हो गया है। साहित्य सरोवर के महान तट से उनका तम्बू उखड़ जरूर गया है लेकिन उनके अनेक पाठक हैं, जिनके मन में उनकी अमिट छाप अभी भी अंकित है और बनी रहेगी। मन्नू जी के गोलोक धाम जाने की खबर जिसने सुनी उसकी आँखें नम हो गयीं। लेखिका के प्रति भावुक होने के सभी के पास दो कारण हैं। एक तो उनका भावनात्मक समृद्ध-सुदृढ़ रचना संसार जिसमें मानव-पीड़ा की कहानियाँ भरी पड़ी हैं। दूसरे उनके विशालकाय एकाकीपन की जंगम नीरवता का लगा उनके कोमल मन पर दंश था। वे जितनी बड़ी और महान लेखिका थीं उतनी ही बड़ी मानवीय पीड़ा की भोग्या भी रहीं। लेखकीय जीवन के विस्तार के बाद उनके हिस्से आया उनका अवसादीय जीवन जो घट-घटकर भी कभी घट न सका। अन्ततोगत्वा उनको इस निस्सार संसार को उसके हवाले छोड़कर जाना ही पड़ा। हालाँकि सुनने में ये भी आया कि मन्नू जी ‘मरने’ के नाम पर कहती थीं कि “मेरे पास मौत के लिए वक्त नहीं, अभी लिखना बहुत बाकी है।” लेकिन काल के गाल से कौन बच सका है। ईश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करें। उन्हें उनके अगले जन्म में अपनों का बेहद स्नेह मिले। वैसे तो जो बात मैं लिखने जा रही हूँ, कोई नई नहीं है; फिर भी आपको बता दूँ कि हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश में मंदसौर ज़िले के भानुपुरा गाँव में हुआ था। उनका बाल्यकाल भानुपुरा की मिट्टी ने ही सिरजा था। आज जब लेखिका हमारे बीच नहीं हैं तो हम सबके साथ-साथ उनकी जन्मभूमि भी कितनी उदास होगी क्योंकि उसने भी तो अपनी लाड़ली बेटी को खोया है। दिल्ली की हवा ने मंदसौर भानुपुरा की हवा को जब उनके जाने की चिट्ठी सुनाई होगी तो सारे वायु मंडल में कैसा शोक व्याप्त गया होगा। कभी वहाँ की आबोहवा को अपने होने की महक से मन्नू जी ने ही महकाया था। वह स्थान भी महान होता है जिस पर महान आत्माएँ जन्म लेती हैं। ऐसा सुना जाता है कि मन्नू जी के बचपन का नाम ‘महेंद्र कुमारी’ था। उनके पिता का नाम सुख संपत राय था। सुख संपत राय जी उस दौर के विचारवान व्यक्ति थे। जब स्त्रियों को सात कोठे के भीतर उनकी खाल सड़ने के लिए बंद रखा जाता था। सीधे मुँह स्त्रियों से कोई बात नहीं करना चाहता था। उस समय के जाने-माने लेखक और समाज सुधारक संपत राय ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लड़कियों को ये चेताया कि उनकी जगह रसोई नहीं विद्यालय में है। उनकी दृष्टि में लडकियाँ सिर्फ वंश-बेल बढ़ाने का माध्यम न होकर शिक्षा की अधिकारिणी भी हैं, बताया गया। ये बातें सुनते-समझते हुए तो यही लगता है कि मन्नू जी के दबंग और प्रखर व्यक्तित्व निर्माण में उनके पिता का भरपूर योगदान रहा होगा। वहीं मन्नू जी की माता का नाम अनूप कुँवरी था। जो धीर-गम्भीर स्त्रीगत स्वाभाव की धनी महिला थीं। उदारता, स्नेहिलता, सहनशीलता और धार्मिकता जैसे गुण जो लेखिका के अंतर्मन को हमेशा सहेजते रहे, उन्हें अपनी माँ से ही मिले होंगे। इस सब के अलावा मन्नू जी के परिवार में उनके चार-बहन भाई थे। बचपन से ही उन्हें, प्यार से ‘मन्नू’ पुकारा जाता था इसलिए उन्होंने अपनी लेखनी के लिए जो नाम चुना वह ‘मन्नू’ था। पुस्तकें ऐसा बताती हैं कि मन्नू भंडारी ने अजमेर के ‘सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त की और कोलकाता से बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने एम.ए.तक शिक्षा ग्रहण की और वर्षों-वर्ष तक अध्यापनरत रहते हुए कितनी ही महिलाओं को स्त्री की अपनी भूमिका में सशक्त रहने की प्रेणना दी है। अंगेज़ी हुकूमत के बाद देश आज़ाद तो हुआ था लेकिन रूढ़ीवादी सोच के साथ आंतरिक रूप से जकड़ता चला गया। स्त्री दुर्दशा की झंडे गढ़ गये। जाति-धर्म और लैंगिक असमानता जैसे चंगुल में फँकर शारीरिक स्वतंत्र समाज फिर से कराहने लगा। शारीरिक गुलामी से ज्यादा मानसिक दासता खटकती है। और भयाभय मानसिक दैन्यता से उबरने का साधन यदि कुछ है तो वह है साहित्य। उस कठिन रूढ़िवादी समय में जब क्रांतिकारी लेखकों ने अपनी कलमें उठाईं और समाज की अंधी दम घोंटू … Read more

हिंदी कविता में आम आदमी

हिंदी कविता में आम आदमी

हिंदी कविता ने बहुधर्मिता की विसात पर हमेशा ही अपनी ज़मीन इख्तियार की है। इस बात की पुष्टि हर युग के कवियों द्वारा की गई कृत्यों से प्रतीत होती रही है। हिंदी कविता ने रामधारी सिंह दिनकर की क्षमता का उपयोग कर के राष्ट्र आह्वान का मार्ग प्रशस्त किया और साथ ही साथ आम आदमियों की दिक्कतों और रोज़मर्रा की समस्याओं को भी बेहद गंभीरता से उजागर किया है। अगर कोई साहित्य उस वर्ग की  बात नहीं कर पाता जो मूक और बधिर है तो फिर साहित्य को अपने नज़रिये को बदलने की महती आवश्यकता होती है। रामधारी सिंह दिनकर सरीखे कवियों ने अपनी लेखनी में जनमानस की विपरीत परिस्थितियों का सजीव चित्रण ही नहीं किया बल्कि धनाढ्य और रसूखदारों पर करारा प्रहार भी किया और यह प्रश्न अक्षुण्ण रखा कि गरीबी और लाचारी के लिए क्या गरीब स्वयं जिम्मेदार है या फिर वह वर्ग भी जमीदार है जिसकी वजह से वे गरीब हैं। प्रजातंत्र में राजतंत्र को हावी होते देख कर वह बोलते हैं- “अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली !तू क्या कहती है ? तू रानी बन गई , वेदना जनता क्योँ सहती है ? सबके भाग दबा रक्खे है किसने अपने कर में ? उतरी थी जो विभा , हुई बंदिनी ,बता , किस घर में ?” हिंदी कविता में आम आदमी जब आज़ादी की खुमार में देश के माई-बाप खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, तब उन्हें इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि आज़ादी सिर्फ किसी ख़ास वर्ग की जागीर नहीं है और इस विसंगति से उत्पन्न रोष और असंतोष में कितने ही लोग दो जून की रोटी की तलाश करने के लिए बाध्य हैं। इसी श्रेणी में सुदामा पांडेय धूमिल आम आदमी की पीड़ा को आम आदमी की भाषा में ही लिखते हैं और शासक वर्ग पर कुशाग्र व्यंग्य भी करते हैं। उनकी कविता में राजनीति पर जबरदस्त आघात है। आजादी के बाद सालों गुजरे पर आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, अतः सारा देश मोहभंग के दुःख से पीड़ित हुआ। इन पक्तियों में धूमिल की मूल काव्य संवेदना में से समानता की मांग, आम आदमी का नजरिया, सजग होने का आवाहन, परिवर्तनीयता, शोषित-पीड़ित व्यक्ति का बयान, सामनेवाले व्यक्ति को आंकने की क्षमता, अनुभव से परिपूर्णता है। आम आदमी के सामने धूमिल की कविता जीवन सत्य उघाड़कर रख देती है। “आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है, फिर भी मुझे ख़याल यह रहता है कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है।” धूमिल की वाणी में दम गोंडवी के तेवर ने और ज्यादा तेज़ और धार प्रदान की। हिंदी कविता को आम आदमी के चबूतरे तक ले जाने वाले कवियों में दम गोंडवी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अदम गोंडवी ने अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना। अदम की कालजयी रचनाएं, बेबाक शैली, सामंतवाद के खिलाफ बगावत की लेखनी तथा शोषितों की आवाज को बुलंद करने का जज्बा जीवन पर्यंत याद आती रहेंगी। अदम जी में जितनी छटपटाहट थी, गरीबी और मुफलिसी के प्रति चिंता थी, जितना जोश था, वह उनके काव्य में भी है। उनकी शायरी, आम आदमी के सुख-दुख की मुखर अभिव्यक्ति है। इसी कारण वे बगावती तेवर भी अपनाते हैं। वास्तव में यह इस देश की जनता ही है जिसने गोरखनाथ, चंडीदास, कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, सुब्रमण्यम भारती, रबींद्रनाथ टैगोर, निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन की रचनाओं को बहुत प्यार से सहेज कर रखा है। वह अपने सुख-दुख में इनकी कविताएं गाती है। अदम गोंडवी भी ऐसे ही कवि थे। उन्होंने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, कोई काव्य नायक सृजित नहीं किया बल्कि अपनी ग़ज़लों में इस देश की जनता के दुख-दर्द और उसकी टूटी-फूटी हसरतों को काव्यबद्ध कर उसे वापस कर दिया। आज़ादी के बाद के भारत का जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुभव है, वह अदम की कविता में बिना किसी लाग-लपेट के चला आता है। उन्होंने अपने कहन के लिए एक सरल भाषा चुनी, इतनी सरल कि कुछ ही दिनों में उत्तर भारत में किसी भी कवि सम्मेलन की शोभा उनके बिना अधूरी होती। उन्होंने लय, तुक और शब्दों की कारस्तानी से हटकर जनता के जीवन को उसके कच्चे रूप में ही सबके सामने रख दिया। वे जनता के दुख-दर्द को गाने लगे। “आइए, महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर मर गई फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर” कविता के द्वारा सटीक व्यंग्य करने की ताकत क्या होती है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है बाबा नागार्जुन की विद्रोह के स्वर में लिपटी कविताओं में। बाबा का व्यंग्य ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और व्यंग्य आसान नहीं है। कहा जाता है कि बाबा को इस दिशा में महारथ हासिल थी। व्यंग्य का इससे अच्छा स्वरुप क्या होगा कि जब कोई आपसे मिलने आए तो आप मेहमान का स्वागत व्यंग्य से करिए।  स्वागत और व्यंग्य पर भी बाबा से सम्बंधित एक प्रसंग जुड़ा है। कहते हैं कि जब आजादी के बाद ब्रिटेन की महारानी अपने भारत के दौरे पर आई तो उनके स्वागत में बाबा ने एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा था। बाबा ने कहा था कि “रानी आओ हम ढोयेंगे पालकी यही हुई है राय जवाहर लाल की रफू करेंगे फटे पुराने जाल की आओ रानी हम ढोएंगे पालकी” बाबा नागार्जुन को एक कड़वा कवि माना जा सकता है।  बाबा नागार्जुन की कवितों का मूल स्वर जनतांत्रिक है, जिसे उन्होंने लोक संस्कार, मानवीय पीड़ा और करुणा से लगातार सींचा है। वे ऐसे कवि थे जो अपने स्वरों को खेतों-खलिहानों, किसानों–मजदूरों तक ले गए हैं। जिसने उनके दर्द को जिया और उसे कागज पर उकेरा। बाबा अपनी रचनाओं से बार बार हम पर चोट करते दिखे. उन्होंने बार- बार हमारी मरी हुई संवेदना को जगाने का प्रयास किया। आम आदमी को हिंदी कविता में सशक्त पहचान देने में दुष्याणी कुमार का योगदान अविस्मरणीय रहा है। दुष्यंत की ग़ज़लों की मूलतः दो उपलब्धियां रहीं। एक तो यह कि उन्होंने शायरी को मुल्क से जोड़ा और मुल्क की हालिया परिस्थितियों पर शायर की … Read more

समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ

क्या आज जो साहित्य लिखा जा रहा है वो सत्य के पक्ष में है या कुछ पूर्व धारणाओं को निरुपित करने के असंभव प्रयास में लगा हुआ है | क्या यही कारण तो नहीं कि पाठक साहित्य से दूर हो रहा है | जानिये सुप्रसिद्ध लेखिका बीनू भटनागर जी प्रभावशाली विचार समकालीन साहित्य :कुछ विसंगतियाँ समकालीन साहित्यकारों के कुछ प्रिय विषय हैं,,जिन्हे बार बार लिखकर उन्हे सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है।सार्वभौमिक सत्य वह होते हैं जो हर काल में, हर स्थान पर खरे उतर सकते हों एक ही बात को बार बार कहा जाय तो वह सार्वभौमक सत्य लग सकती है, हो नहीं सकती ।कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर जिन पर लिख लिख कर वो न थके हों पर कुछ पाठक पढ़ पढ़ कर ऊब चुके हैं, जैसे पूर्व में सब कुछ अच्छा है पश्चिम सब बुरा, पूर्व के गुणगा गा गा करकर साहित्यकारों ने  अपनी बात को सार्वभौमिक सत्य बना देने का पूरा प्रयास किया है।हर सभ्यता का मूल्यांकन हम नहीं कर सकते हैं। सभ्यताओं में मिश्रण भी होना स्वाभाविक है, कोई पूछे कि क्या  देवदासी प्रथा, वेश्या वृत्ति ,दहेज़ प्रथा महिलाओं पर  अत्याचार उनका शोषण पश्चिम की देन है!पश्चिम से हमने विज्ञान और तकनीक ली है, वहाँ से थोड़ा स्वच्छ रहने का भी ज्ञान ले लेते। सड़क पर थूकना, दीवार से सटकर पुरुषों का……., पालतू कुत्तों के लियें सार्वजनिक स्थानों को शौचालय बना देना तो कम से कम पश्चिम की देन नहीं है।जब तक हम अपने मुंह   मियाँ मिट्ठू बनना और कमियों को स्वीकारना नहीं  सीखेंगे ,अतीत में जीते रहेंगे तब तक सामाजिक स्तर पर कोई सुधार नहीं कर सकेंगे।हमारे साहित्यकारों को पश्चिमी पहनावे पर ऐतराज़ है, ये सारी बुराइयों की जड़ है। पश्चिमी पहनावा अब वैश्विक पहनावा बन चुका है, क्योंकि वह अवसर के अनुकूल होता है।पुरुषों ने तो न जाने कब से पैंट शर्ट सूट पहनना शुरू कर दिया क्योंकि वह सुविधाजनक है पर औरतों ने जब बदलाव किया तो संसकृति आड़े आ गई।हमेशा साड़ी मे सजी मांथे पर बड़ी सी बिंदी लगाये महिला बहुत सुदृढ़ चरित्र की होगी और यदि पश्चिमी पहनावा पहनती है तो वह दंबग किस्म की हो सकती है……कमसे कम वह एक आम गृहणी नहीं होगी।आप किसी व्यक्ति के पहनावे मात्र से उसके पूरे व्यक्तित्व का आकलन कर सकते है। एक बहू को समाज पश्चिमी वेशभूषा में स्वीकार कर ले पर साहित्यकार ऐसी बहू को कभी  अच्छी या सामान्य बहू नहीं दिखायेंगे। अच्छा बुरा होना नज़रिये की बात हो सकती है इसलिये मैने सामान्य कहा। भारत में जितना बुज़ुर्गों का सम्मान होता है कहीं नहीं होता पर हमारे साहित्यकार बुजुर्गों को लेकर इतने संवेंदनशील कि पूरी जवान पीढ़ी को अपराधबोध से ग्रस्त कराना चाहते हैं। किसी जवान का विदेश जाना अपराध ही की तरह पेश किया जाता रहा है। यदि जवान कहीं मौज मस्ती करें तो भी अपराध बोध से ग्रस्त रहें क्योंकि साहित्यकार के अनुसार उस चरित्र को माता पिता की सेवा करनी चाहिये थी, या उन्हे तीर्थ पर ले जाना चाहियेथा।  अपने लिये कुछ करना भारत में स्वार्थी होने के बराबर ही माना जाता है। बहू तो कभी अच्छी हो ही नहीं सकती  ये सब इस तरह से पेश करते हैं जैसे ये सार्वजनिक सत्य हों।जबकि एक हजार परिवारों में कंहीं कोई एक होगा जिसने अपने बुजुर्गों को संरक्षण ना दिया हो ,पर समाचार जिस तरह नकारात्मक ही होते हैं, साहित्यकार की कहानी भी वहीं से नकारात्मक कथानक चुनती है।ख़ुश युवा पीढ़ी साहित्यकारों को पसन्द नहीं, वो इसलिये ख़ुश हैं कि क्योंकि वो कर्तव्यों को भूल चुके हैं, परम्परा को भुला चुके हैं पर ये सार्वभौमिक सत्य नहीं है।  जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये।  वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी। मैने जीवन में इसके विपरीत घटनायें भी देखी हैं, ऐसे पिता देखे हैं जो अपने सपने बच्चों पर थोपते है, जैसे पिता गायक नहीं बन सके तो वो अपनी पूरी शक्ति बेटे को गायक बनाने में लगा देंगे, यदि बेटे के अभिरुचि है तब तो ठीक है अन्यथा पिता का सपना पूरा करने के लिये न वो गायक बन पायेगा न कुछ और।बस जो वो चाहते वह बच्चे को बनाकर छोड़ेगें, बच्चे की रुचि उसमे है या नहीं, ये जानना ज़रूरी नहीं है, बच्चे के दिमाग़ मे बचपन से कूट कूट कर भर दिया जायेगा कि तुझे ये बनना है, तो बनना है। अच्छा होने और आदर्शों की दुहाई देने में फर्क होता है। संबध सफेद या काले नहीं होते हैं ग्रे ही होते एक तरफ़ बेचारगी दूसरी तरफ आदर्श का ढ़ोग लिखना चाहे जितना अच्छा लगे पर पाठक की कोरी संवेदना जगाता है जिसका कोई  सकारात्मक असर नहीं होता।ऐसी बहुएं भी जो व्यस्त होने के बावजूद सास ससुर की देखभाल करती हैं पर अगर सास ससुर की उम्मीदें आसमान छूने लगें तो  बहू के क़दम पीछे हटेंगे , स्वाभाविक है।रिश्तों में कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं होता । माता कुमाता हो सकती है।परिवार के मान की रक्षा के नाम पर अपने बच्चों को मारने वाले माता पिता की बातें तो आये दिन अख़बारों में आती हैं।हमारी कहानियां और उपन्यास केवल संबधों को एक तरफ़ा सार्वभौमिक सत्य की तरह स्थापित करने में लगे हैं।लीक से हटकर कुछ पढ़ने को मिलता ही नहीं है।शराबी पिता जिसने परिवार को दुख ही दुख दिये, फिरभी वृद्धावस्था में उनका समुचित ध्यान रखा गया, ऐसे कथानक जीवन में दिखते हैं साहित्य में नहीं।  प्रेम भी एक ऐसा ही विषय है जिसे कवि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं पर जो प्रेम साहित्य मे या सिनेमा में दिखाया जाता है वह आम आदमी की ज़िन्दगी … Read more

हिंदी दिवस पर विशेष : भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं

                                                   आज विश्व हिंदी दिवस है|  हमेशा की तरह सभाएं होंगी, गोष्ठियां होंगी और हिंदी की दुर्दशा का वर्णन होगा| क्या ये सच है ? क्या हमारी हिंदी इतनी दयनीय अवस्था में है| शायद नहीं| यह उत्तर मुझे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में जा कर मिला|  जी हाँ, इन दिनों दिल्ली में, अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला चल रहा है|  जहाँ जा कर हिंदी की किताबें बिकते देखना बड़ा ही सुखद अनुभव लगा| एक आम प्रचार के विपरीत आज हिंदी और हिंदी किताबों के प्रति लोगों की रूचि बढ़ी है| इसका श्रेय  निश्चित रूप से इंटरनेट  को जाता है|  जिसने हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है| लोगों का हिंदी के प्रति रुझान बढ़ा है| वो हिंदी पढना चाहते हैं … पर क्या उसी रूप में जिस रूप में अभी तक पढ़ते आये हैं? या हिंदी में जो देशी और विदेशी भाषा के शब्दों की मिलावट हुई है, उससे उसकी लोकप्रियता बढ़ी हैं| हिंदी का प्रचार हर्ष का विषय है पर प्रश्न ये भी है कि क्या इससे हिंदी को या हिंदी साहित्य को खतरा है?| देशी विदेशी शब्द अपना कर हिंदी का अस्तित्व विरत हुआ है  हिंदी में देशी, विदेशी शब्दों के मिलने से मुझे बचपन की एक बात याद आ गयी |                                          मैं एटलस में गंगा  की धारा कहाँ -कहाँ जाती है बड़े ध्यान से देख रही थी | गोमुख से निकलने के बाद शुरू शरू में कुछ पतली धाराएं गंगा में मिली उन पर तो मैंने ध्यान नहीं दिया पर जब प्रयाग में गंगा जमुना और सरवती के संगम के बाद भी उसे गंगा ही नाम दिया गया | तब मन में स्वाभाविक से प्रश्न उठे …..अब ये गंगा कहाँ रही … अब तो इसका नाम जंगा  या गंग्जमुना होना चाहिए | मैं अपना प्रश्न लेकर पिताजी के पास गयी | तब उन्होंने मुझे समझाया जो दूसरों को अपनाता चलता है उसका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता अपितु और विशाल विराट होता जाता है|  चाहे यह बात परिवार  की हो ,समाज की सम्प्रदाय  की या पूरी मानव प्रजाति की संकीर्ण दायरा विनाश का प्रतीक है और विविधता को अपनाना विकास का |  आज हिंदी दिवस पर यही बात मुझे रह -रह कर याद आ रही है | विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद कुछ लोगों में रोष है पर भाषा को नए -नए शब्दों से लैस ,तकनीकी रूप से उन्नत बनाने का अभिप्राय साहित्य विरोध से कदापि नहीं है|                                      एक तरफ तो हम वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से भी आगे निकलकर अन्तरिक्ष के अन्य ग्रहों और उपग्रहों में मानव  बस्तियाँ बसाने के सपने देख रहे हैं दूसरी तरफ हम अपनी भाषा को तकनीकी रूप से समृद्ध करने की बात को संशय से देख रहे हैं | कभी हमने इस बात पर गौर किया है हिंदी का अस्तित्व इसी बात पर कायम है की बृज  भाषा ,अवधी ,आदि न जाने कितनी भाषाओँ को हिंदी ने अपने दायरे में समेटा हैं | मीरा के पद व् तुलसी की रामचरित मानस साहित्य की अप्रतिम धरोहर हैं, जो खड़ी  बोली वाली  हिंदी में नहीं लिखे गए हैं| उत्तर प्रदेश में तो हिंदी और उर्दू इतनी घुलमिल गयी है कि आम आदमी के लिए ये बता पाना कठिन है कि  की रोजमर्रा की जिंदगी में जिन शब्दों का इस्तेमाल करता है उसमें से अनगिनत उर्दू के हैं | ऐसे में जब हिंदी को विज्ञान सम्मत ,तकनीकी सम्मत बनाया जाएगा तो उसका विकास ही होगा ,विनाश नहीं | साहित्य में विभिन्न विचारों का समावेश जरूरी            रही बात साहित्य की तो उसे भी केवल एक चश्मे से देखने की आवश्यकता नहीं है | जितने भिन्न -भिन्न विचारों का समावेश होगा साहित्य उतना ही समृद्ध होगा | साहित्य कार की कोई डिग्री नहीं होती | मसि कागद छुओ नहीं वाले अनपढ़ कबीर दास भी साहित्यकार हैं |                                   आज़ाद भारत में साहित्य में मठाधीशी परंपरा को जन्म दिया |   दुर्भाग्य से आज़ाद भारत में साहित्य एक खास विचार धारा में कैद हो गया | जहाँ केवल छपने छपाने और सहमति का प्रसाद पाने के लिए एक ख़ास विचारधारा को आगे बढ़ाया जाने लगा | विरोधी विचारों को नकारा जाने लगा | साहित्य समाज का दर्पण है जिसमे  हर वर्ग,  हर विचारधारा का प्रतिनिधित्व होना चाहिये |   पर एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व न कर पाने के कारण साहित्य समाज से कटने लगा | जनता के ह्रदय को न छू पाने के कारण बड़ी -बड़ी नाम ,ईनामधारी  साहित्यिक पुस्तकें ,पुस्तकालयों की शोभा बन कर रह गयी | फिर हमी ने चिल्लाना शुरू किया की पाठक साहित्य से दूर हो  रहा है | समेलन ,सेमीनार भाषणबाजी कर के सारा दोष पाठक के सर मढ़ दिया |  आत्ममुग्धा की अवस्था में   यहाँ तक कहना शुरू कर दिया ” हम तो अच्छा लिखते हैं पर पाठक ही विवेक से फैसला न लेकर चलताऊ सामग्री  पढता है | जब की अंग्रेजी साहित्य धड़ल्ले से पढ़ा जा रहा था |  वहाँ नए -नए प्रयोग हो रहे हैं | हम मुँह में अँगुली  दबा कर आश्चर्य से देखते हैं ………. फिर वही अँगुली मुँह से निकाल कर पाठक पर उठा देते हैं,  ” पाठक हिंदी नहीं पढना चाहता “| बेचारी हिंदी जिसे हम घरों में ( चाहे किसी भी रूप में ) बोलते पढ़ते लिखते हैं बिला वजह सूली पर चढ़ा दी जाती है | हिंदी में नए विचारों का स्वागत हो                                       चेतन भगत कहते हैं ” या तो आप लोकप्रिय हो सकते हैं या साहित्यकार |वास्तव में यह दर्द हर उस व्यक्ति का है जो कुछ नया देना चाहता  है|  बहुत समय पहले जब हिंदी साहित्य में स्त्री … Read more

एक चिट्ठी :साहित्यकार /साहित्यकारा भाइयों एवं बहनो के नाम

किरण सिंह  बहुत दिनों से कहना चाह रही थी तो सोंची आज कह ही दूँ… अरे भाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो मैं क्यों चुप रहूँ भला! बात बस इतनी सी है कि यह मुख पोथी जो है न आजकल की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिका है जहाँ हर प्रकार के साहित्यिक तथा असाहित्यिक रचना को थोक भाव में मुफ्त में स्वयं प्रकाशित किया जा सकता है तथा नाम या बदनाम कमाया जा सकता है ! इतना ही नहीं आजकल तो लाइव आकर अपनी रचनाएँ सुनाया भी जा सकता है यहाँ! फिर काहे को छपने छपाने की मृगतृष्णा में पैसा देकर इक्का दुक्का रचना छपवाई जाये जिसके कि पाठक तो मिलने से रहे हाँ आलमारियों की शोभा अवश्य बढ़ेगी ! अच्छा तो यह रहेगा कि अपनी रचनाओं को बेहतर से बेहतरीन करने का प्रयास किया जाये  तत्पश्चात अच्छे पत्र पत्रिकाओं तथा ब्लागों में प्रकाशन के लिए भेजी जाये जहाँ प्रकाशन के लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती है और लोग आपको पढ़ते भी हैं! आप चाहें तो अपना स्वयं का भी बलाॅग बना सकते हैं!  पढ़िए – समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य यदि हम गौर फरमायेंगे तो पायेंगे कि नवोदित साहित्यकार अपने अति महत्वाकांक्षा की वजह से साहित्यक माफियाओं के द्वारा स्वयं ही शोशित हो रहे हैं ! जरा सोंचिये साझा संग्रह छपवाने के लिए रचनाएँ हमारी, पैसा हमारा, और नाम और पैसा कमाकर महिमामंडन करवाये कोई और सिर्फ आपको आपके ही पैसे से मेडल , कप, तथा सर्टिफिकेट का झुनझुना थमाकर ! कुछ साहित्यिक संस्थाओं में तो ऐसा भी सुनने में आया है कि नवोदित साहित्यकार अपनी रचना लेकर गये हैं और उसी रचना में थोड़ा बहुत फेर बदल कर स्वयंभू  ( उनसे कुछ बड़े साहित्यकार ) अपने नाम से मंच पर उद्घोष कर देते हैं और नवोदित साहित्यकार किंकर्तव्य विमूढ़ देखते रह जाते हैं!  फिर भी बहुत से साहित्यकार तथा साहित्यिक संस्थाएँ आज भी साहित्य हित के उद्देश्य से कार्यरत हैं सिर्फ आवश्यकता है परखने की!  इस लेख  का उद्देश्य सिर्फ साहित्यकारों को जागरूक करना है न तो किसी को नीचा दिखाना है और न ही किसी को हतोत्साहित करना है | मेरा उद्देश्य सिर्फ उनके समय और पैसे को बचाते हुए उनकी प्रतिभा को सही दिशा देना है |  यह भी पढ़ें ……. फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? कवि और कविता कर्म व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा फेसबुक और महिला लेखन Attachments area

समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य

 किरण सिंह  जिन भावों में हित की भावना समाहित हो वही साहित्य है तथा उन भावों को शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत करने वाला ही साहित्यकार कहलाता है  | ऐसे में साहित्यकारों पर सामाजिक हितों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी पड़ जाती है जिसका निर्वहन उन्हें पूरी निष्ठा व इमानदारी से करना होगा ! साथ ही सरकार को भी नवोदित साहित्यकारों के उत्थान के लिए भी कदम उठाना होगा! पत्र पत्रिकाओं अखबारों आदि ने तो साहित्यकारों की कृतियों को समाज के सम्मुख रखते ही आये हैं साथ ही सोशल मीडिया ने भी इस क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसके परिणाम स्वरूप आज हिन्दी साहित्य जगत में रचनाकारों की बाढ़ सी आ गई है  ( खास तौर से महिलाओं की ) जो निश्चित ही साहित्यक क्रांति है!  बहुत सी महिलायें ऐसी हैं जिन्होंने पूर्ण योग्यता तथा क्षमता रखने के बावजूद भी अपने परिवार तथा बच्चों की देखरेख हेतु स्वयं को घर के चारदीवारी के अन्दर कैद कर लिया  उनकी भावनाओं के लिए सोशल मीडिया जीवन दायिनी का काम किया है! निश्चित ही उनके लेखन से समाज को एक नई दिशा मिलेगी!आज की पीढ़ी का भी हिन्दी साहित्य की तरफ रुझान बढ़ रहा है जिन्हें प्रेरित करने तथा मार्गदर्शन में भी सोशल मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है!  किन्तु अफसोस के साथ यह भी कहना पड़ रहा है कि साहित्य जगत भी भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से अछूता नहीं रह गया है! यहाँ भी नये नये रचनाकाकारों से साहित्य हित के नाम पर मनमानी पैसे ऐठे जा रहे हैं जिनके प्रलोभनों के जाल में नये साहित्यकार आसानी से फँस रहे हैं! भला छपने तथा सम्मान की चाहत किसे नहीं होगी…. इसी लालसा में रचनाकार कुछ साहित्य मठाधीशों के मनमानी के शिकार हो कर अपनी महत्वाकांक्षा को तुष्ट कर रहे हैं जिससे साहित्य हित की परिकल्पना कभी-कभी वीभत्स  सी लगने लगती है!  फिर भी समाज में यदि बुराई व्याप्त है तो अच्छाई भी है इसलिए निराश होने की आवश्यकता नहीं है! अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित रखना है सामाजिक हित की भावना से!  लेखिका परिचय :  नाम – किरण सिंह  पति का नाम – श्री भोला नाथ सिंह  सम्प्रति – कवियत्री एवं लेखिका  अनेकों  प्रतिष्ठित पत्रिकाओं व् समाचारपत्रों में कवितायें ,  कहानियाँ लेख आदि प्रकाशित  प्रकाशित पुस्तक – मुखरित संवेदनाएं  निवास – पटना , बिहार  यह भी पढ़ें ……. मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर स्त्री विमर्श का दूसरा पहलू  अपरिभाषित है प्रेम दोषी कौन जब अस्पताल में मनाया वैलेंटाइन डे

लेकिन वो बात कहाँ – कहाँ तक सच है ?

दो लोगों की तुलना नहीं हो सकती | जो रास्ता आपके लिए सही है , हो सकता है दूसरे के लिए गलत हो |हर किसी की अपनी विशेष यात्रा है |हम सब की यात्रा न सही है न गलत न अच्छी है न बुरी …. बस अलग है – डैनियल कोपके                             तुलना का इतिहास बहुत पुराना है | शायद जब से प्रकृति में दूसरा मानव बना तब से तुलना करना शुरू हो गया होगा | ये तुलना भले ही सही  हो या गलत पर जीवन के हर क्षेत्र में होती है | तुलना करने से किसको क्या मिलता है , पता नहीं पर तुलना रंग –  रूप में होती है , आकार प्रकार में होती है | सफलता असफलता में में होती है |हालांकि तुलना करना न्याय संगत  नहीं है | क्योंकि दो लोगों की परिस्तिथियाँ व् सोंच , दृष्टिकोण अलग – अलग हो सकता है | उनके संसाधन भी अलग – अलग हो सकते हैं |  उस पर भी अगर बात दो पीढ़ियों की तुलना की हो , वो भी उनकी सफलता की  तो ?                                              कला हो  , विज्ञानं , साहित्य , खेल या कोई और क्षेत्र दो पीढ़ियों की तुलना करना बड़ा कठिन काम है | क्योंकि दोनों पीढ़ियों की परिस्तिथियाँ अलग – अलग  होती हैं | उनका संघर्ष और उनके साथ के पतिस्पर्धा करने वालों की काबिलियत भी अलग | पुरानी पीढ़ी के सफल लोग इस  प्रश्न को दो तरह से लेते हैं  | कुछ तो नए लोगों के संघर्ष और उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हैं और कुछ उन्हें सिरे से नकार देते हैं | उन्हें लगता है की अब तो इस क्षेत्र  में लोगों की “बाढ़ “सी आ गयी है | कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा है | उदहारण के तौर पर अब तो क्रिकेट ही क्रिकेट हो रहा है | हमारे ज़माने में पांच दिन के मैच होते थे अब तो टी – २० रह गया | कैसे कोई बेहतर खिलाड़ी सिद्ध करेगा | हमारे ज़माने में  आई . आई टी की हज़ार सीटे  भी नहीं होती थी | अब तो ५००० सीटे हैं , exam का पैटर्न भी अलग है वैसा  दिमाग कैसे पता चलेगा | लेखन में तो इतने लोग आ रहे हैं पर अब गहराई रह ही नहीं गयी है , सब फ़ास्ट फ़ूड है | भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं                इन सब के बावजूद नयी प्रतिभाएं हर क्षेत्र में आ रही हैं |उनके अपने संघर्ष हैं , अपनी लड़ाई है और सफलता की अपनी दास्ताँ है |  “बाढ़ ” शायद बढ़ी हुई जनसँख्या , बढ़ी हुई शिक्षा और अपने पैशन को अधिक समय देने की लालसा के कारण है | जिसे नकारात्मक रूप में नहीं देखना चाहिए | ये स्वागत  करने वाली बात है | जो कोई भी कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहा है उसके प्रयास  का उपहास नहीं उड़ाया जाना चाहिए | हर ज़माने में  अपनी कला को , प्रतिभा को आम लोगों तक पहुचाने के लिए प्रचार किया जाता रहा है | हां उसके तरीके अलग होते थे | पर वो तरीके सर्वसुलभ नहीं थे | आज टीवी पर तमाम प्रतिभा खोज कार्यक्रम इस बात के गवाह है की हमारे देश में गांवों – गाँवों में प्रतिभा छुपी हुई है |  तकनीकी बढ़ी है जिससे सफ़र आसान भी हुआ है और कठिन भी | क्योंकि अब अपनी कला को आम लोगों तक पहुँचाना आसान हुआ है | परन्तु अब हजारों के बीच में अपनी एक अलग पहचान बनाना उतना ही मुश्किल |                                             अब आती हूँ अपने प्रिय विषय लेखन पर | अगर लेखन की बात करें तो आज लेखन में बहुत प्रयोग हो रहे हैं | क्योंकि आज केवल साहित्य ही नहीं वुभिन्न विषयों से शिक्षित लोग लिख रहे हैं है | चाहे  वो डॉक्टर हो , इंजिनीयर , विज्ञानं के छात्र  सब ने अपने भीतर छिपे लेखक की कुलबुलाहट को शब्द देना शुरू कर दिया | लेखन की पहली शर्त ही विचार हैं | जब विभिन्न  तरह के विचार सामने आयेंगे तो नयी संभावनाएं बनेगी |  कबीर अनपढ़ थे | फिर भी साहित्य की ऊँची कक्षाओं में पढाये जाते हैं | पर आज किसी दूसरे विषय से शिक्षित व्यक्ति को साहित्यकार का दर्जा देने में आनाकानी करना साहित्य के नहीं व्यक्ति के  हित में हो सकता है | अगर पाठकों की बात करें तो पाठकों की पसंद भी बदली है उनके पास समय का आभाव भी है | अब गाँव में भी चौपाल या बरगद  तले लेट कर घंटों पढने का समय नहीं है |  पढने वाला भी एक पैराग्राफ घुमाते हुए बात पर आने की जगह टू दी पॉइंट पढना चाहता है |ये समय  फ़ास्ट फ़ूड कल्चर को जन्म दे रहा है |क्या इस पर गौर किया गया है की ये लेखक या पाठक की ख़ुशी नहीं विवशता भी हो सकती है | व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा                                                 अगर हम स्त्री विमर्श या महिला लेखन की ही बात करें  तो आज महिलाएं बड़ी संख्या में लिख रही हैं | भले ही इसे “बाढ़ “का दर्जा दिया जाए पर विभिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | जबसे  दादी का संघर्ष  घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती … Read more

“अंतर “- अभिव्यक्ति का या भावनाओं का – ( समीक्षा – कहानी संग्रह : अंतर )

सही अर्थों में पूछा जाए तो स्वाभाविक लेखन अन्दर की एक बेचैनी है जो कब कहाँ कैसे एक धारा  के रूप में बह निकलेगी ये लेखक स्वयं भी नहीं जानता | वो धारा तो  भावनाओं  का सतत प्रवाह हैं , हां शब्दों और शैली के आधार पर हम उसे कविता कहानी लेख व्यंग कुछ भी नाम दें | ये सब मैं इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि अशोक परूथी जी से मेरा पहला परिचय एक व्यंग के माध्यम से हुआ था | “ राम नाम सत्य है “ नामक व्यंग  उन्होंने हमारी पत्रिका “ अटूट बंधन “ के लिए भेजा था | रोचक शैली में लिखे हुए व्यंग को हमने प्रकाशित भी किया था | हमें पाठकों की प्रसंशा  के कई ई मेल मिले | उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया | और अशोक जी के व्यंग मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ व् हमारे दैनिक समाचार पत्र “ सच का हौसला “ में नियमित अंतराल पर प्रकाशित होने लगे | उन्हें  व्यंग विधा में एक बडे  पाठक वर्ग से सराहना मिली | उसके बाद परूथी जी की हास्य कविताओं से रूबरू होने का मौका मिला और अब ये कहानी संग्रह “ अंतर  “ | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है की परूथी जी लेखन की हर विधा में प्रयोग करते हैं और अपनी एक खास शैली में भावों का खाका खींच देते हैं | ठीक वैसे ही जैसे किस चट्टान को काटकर भावनाओं की ये धारा  किस रूप में निकलेगी यह नदी भी नहीं जानती | अंतर कहानी संग्रह में विभिन्न भावों को दर्शाती कहानियों का समावेश किया गया है | कुछ कहानियों में जहाँ हास्य का पुट है वहीँ कुछ कहानियाँ एक अजीब कसमसाहट ,बेचैनी और वेदना से घिरी हुई हैं | विशेष रूप से मैं उल्लेख करना चाहूंगी कहानी अंतर , पिंजरे का पंक्षी व् उसकी मौत का जहाँ अंतस की बेचैनी पाठक स्पष्ट रूप से महसूस करता है | संग्रह की पहली व्  मुख्य कहानी ” अंतर ” पति व् प्रेमी के अंतर ती तुलना करती स्त्री के मनोभावों को ख़ूबसूरती से उकेरती है | उसका मुख्य केंद्र बिंदु है प्रेम की अभिव्यक्ति के अंतर पर , भावनाओं के अंतर पर और उसके हिस्से में आया अंतहीन इंतज़ार , जिसे वो पहले कर न सकी परन्तु बाद में विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया | जिस पर रेंगते हुए ही उसे जीवन काटना है | मैं  विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कहानी ” उसकी मौत ” का जिसे हमें अपने दिनक समाचार  पत्र ” सच का हौसला ” में प्रकाशित किया है |ये कहानी नशे की लत से जूझती युवा पीढ़ी के इर्द – घूमती है | जहाँ नशे की लत से साथी की मृत्यु के उपरान्त  अन्य दोस्त अपने नशे की आदत को छोड़ देते हैं | ” उसकी मौत ” उन्हें हिला कर रख देती है | कहानी जहाँ समस्या उठती है वहीँ समाधान के साथ बहुत भावुक भी कर देती है | यह ही नहीं  संग्रह की अधिकतर कहानियाँ समाज की किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू को उठाती हैं व् उसमें डूबते उतराते पाठक को कुछ सोचने में विवश अवस्था में छोड़ देती हैं | वहीँ कुछ कहानियों में हास्य का पुट दे  कर परूथी जी पाठक को निराशा में डूबने से भी उबार लेते हैं | सभी कहानियाँ हमारे आस –पास के परिवेश से उठायी गयी हैं इसलिए उनके पात्र अपने जाने पहचाने से लगते  हैं | साथ ही कहानियों का ताना – बाना सरल –सहज भाषा में बुना गया है | हालांकि यह परूथी जी का पहला कथा संग्रह है पर जिस तरह से उन्होंने कहानियों को उकेरा  है व् उनमें संवेदनाओं का संप्रेषण किया है उसको पढ़कर उनके लेखन के क्षेत्र में सफल होने का सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है | और जैसा की परूथी जी के जीवन परिचय से मुझे ज्ञात हुआ की उन्होंने छोटी उम्र से लिखना प्रारंभ कर दिया था जिसे जीवन की व्यस्ताओं के कारण स्थगित करना पड़ा और  एक लम्बे अंतराल के बाद पुन : लेखन प्रारंभ किया | पर उनके लेखन से  सिद्ध होता है की प्रतिभा कभी मरती नहीं , उसको  जब सही जमीन मिलती है , अंकुर फूट ही पड़ते हैं मुझे विश्वास है की उनका यह संग्रह लोगों को पसंद आएगा | मैं लेखन के क्षेत्र में उनके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ |                              वंदना बाजपेयी                          कार्यकारी संपादक                                                         अटूट बंधन