वो प्यार था या कुछ और था

जो मैं ऐसा जानती कि प्रीत किये दुःख होय , नगर ढिंढोरा पीटती , की प्रीत न करियो कोय                                                प्रेम , यानि हौले से मन के ऊपर दी गयी एक दस्तक और बावरा मन न जाने कैसे अपने ऊपर ही अपना हक़ खो देता है | आज कहा जा रहा है कि प्यार दो बार तीन बार …कितनी भी बार हो सकता है पर पहला पहला प्यार आज भी ख़ास है | पहले प्यार का अहसास ताउम्र साथ रहता है | तभी तो निशा एक ब्याहता होते हुए भी बार -बार बचपन की गलियों में उजास की तलाश में भटकती फिरती है | वो प्यार था या कुछ और था  दिल की गलियाँ सूनी हैं राहों पर ये कैसा अंधकार सा छाया आज ..तू ..! तू मुझे बहुत याद आया ……… “ कमला ! कैसा लगा मेरा ये शेर तुझे …बता न … “ निशा ने कमला से पूछना चाहा और अपने पास बुला कर बैड पर बैठने का इशारा किया । कमला जानती थी कि आज बीबी जी का मूड फिर कोई पुरानी बात या घटना का जिक्र करना चाहता था उससे ….फिर अपनी वही पुरानी घिसी पिटी कहानी …… “ कमला..! वो अक्सर आता था हमारे घर । अक्सर ..! नही .. नही , लगभग रोज ही । …… वो रोज ही हमारे घर आता था । मैं नही जानती थी कि क्यों आता था । लेकिन उसका आना मेरे मन को बहुत भाता था । ये बात बहुत पुरानी है कमला जब मैं छोटी थी । जब ये भी समझ नही थी मुझे ..कि प्यार क्या होता है “ निशा ने बैड पर पड़े -पड़े अपने अतीत के सुनहरे पलों को कमला से फिर बताना चाहा था । निशा न जाने कितनी ही बार बता चुकी थी कमला को ये सब बातें ..लेकिन आज फिर कहना शुरु कर दिया था उसने । “ कमला ..! मैं जब भी उदास होती हूँ न ! तो न जाने वो कहाँ से मेरे ज़हन में चुपके से आ कर, मुझ पर पूरी तरह से छा जाता है “ “ बीबी जी ! अब बस करो ! कब तक पीती रहोगी । देखो न ! क्या हाल कर लिया है अपना । अब हो गयी न आपकी शादी जीतू साहब जी से , पुरानी बातें काहे नही भूल जाती हो “ कमला ने पास आकर निशा का हाथ पकड़ कर प्यार से कहा । “ कमला ! तुझे क्या मालुम प्यार क्या होता है ? तू क्या समझेगी …ये तो मैं अब जाकर समझी हूँ ..पगली … तूझे नही मालूम कमला… आज जि़न्दगी दुबारा फिर मुझे वहाँ पर बहाए ले जा रही है । जिस उम्र में न कोई चिंता होती है , और न ही किसी बात की फिकर “ ये कहते हुए निशा फिर विस्की से अपने गिलास को भरने लगी थी । आज निशा की आँखों से नींद कोसों दूर थी । वो डुबो देना चाहती थी अपने को पूरी तरह से रीतेश की यादों में । रात का तीन बज चुका था । जीतू अभी तक नही आये थे अपनी ड्यूटी से …। पुलिस वालों को अक्सर देर हो ही जाती है । वो भी तब …..जब , वो जिम्मेदार पोस्ट पर होते हैं । “ बस करो बीबी जी ! भगवान के नाम पर बस …करो ..” कमला ने निशा के हाथ से गिलास लेना चाहा तो निशा ने उसे परे धकेल दिया था । निशा के ऊपर विस्की का पूरा असर हो चुका था । वो पूरा रौब दिखाते हुए कमला से कह उठी थी । “ तू ..तू ! कौन है री .. मुझे रोकने वाली .. जिसको मेरा ध्यान रखना चाहिए जब वो नही रखता …तो तू कौन है मेरी .. बता तो सही “ निशा कमला से पूछना चाहती थी । लेकिन कमला को बहुत गुस्सा आ रहा था निशा पर ..और आये भी क्यों न !.. बचपन से साथ है । वो निशा पर अपना पूरा अधिकार रखती थी । तभी तो तपाक से बोल उठी थी । “ जीबन है तो सब कुछ है बीबी जी । क्यों न रोके तुमको दारू पीने से ? तुम्हारे बिना हमारा है कौन ? छुटपन से तुमने ही तो हमारा ध्यान रखा है । हम नही देख सकते तुमको इस तरह से घुट- घुट कर मरते हुए “ कमला ने निशा की बात का तुरन्त जवाब तो दिया पर निशा के पास आ कर खड़ी हो गयी थी । कमला अच्छी तरह समझने लगी थी कि उसकी बीबी जी को अकेलापन खाये जा रहा है ।साहब जी को काम काज से फुर्सत नही है । अगर एक दो बच्चे होते तो शायद ध्यान भी बंटा रहता बीबी जी का । अब तक तो बच्चे भी बड़े हो चुके होते । हमारी बीबी जी की किस्मत में भी ईश्वर ने न जाने क्या लिखा है । सब कुछ तो है भगवान का दिया उनके पास ,लेकिन उनकी उदासी से ऐसा लगता है जैसे कुछ है ही नही उनके पास …। कमला के मुँह से एक लम्बी और ठंडी साँस निकली थी । कमला को खूब याद है वो अक्सर देखती थी …,कि पहले शौकिया साथ दे देती थीं बीबी जी पीने में साहब जी का ….लेकिन अब तो मुँह से ऐसी लगी है कि अकेलेपन से जब भी दुखी होती हैं तो अपने को भुलने के लिए पूरा डुबो देती हैं नशे में । साहब जी ने कितना मना किया था पर वो अब नही मानती हैं । शौक कब आदत बन जायेगा ये मालूम नही था उनको…….। कमला पास जा कर उसके बालों को सहराने लगी थी । निशा को लग रहा था कि उस पर नशा चढ़ने सा लगा है पर कमला को पास पा कर उसकी सुप्त भावनाएँ फिर जागने लगी थीं । उसने फिर कमला से अपने अतीत की बातें दोहरानी शुरु कर दी थीं ।…. “ मालुम है कमला ! मुझे और रीतेश दोनों को ..शाम का इन्तज़ार रहता था । कब शाम आये और … Read more

सावन में लग गई आग , दिल मेरा …

                                                                                                       नरिंदर कुमार रोमांटिक और भावुक क़िस्म का आदमी था । उसे एक लड़की से इश्क़ हो गया । भरी जवानी में इश्क़ होना स्वाभाविक था । अस्वाभाविक यह था कि उस समय पंजाब में आतंकवाद का ज़माना था । नरिंदर कुमार हिंदू था । जिस लड़की से उसे इश्क़ हुआ , वह जाट सिख थी । पर यह तो कहीं लिखा नहीं था कि एक धर्म के युवक को दूसरे मज़हब की युवती से इश्क़ नहीं हो सकता । लिहाज़ा नरिंदर कुमार ने इन बातों की ज़रा भी परवाह नहीं की । इश्क़ होना था , हो गया ।  सावन में लग गई आग , दिल मेरा …               शुरू में उसका इश्क़ ‘ वन-वे ट्रैफ़िक ‘ था । लड़की उसी के मोहल्ले में रहती थी । नाम था नवप्रीत कौर संधू । नरिंदर को लड़की पसंद थी । उसका नाम पसंद था । उसकी भूरी आँखें पसंद थीं । उसकी ठोड़ी पर मौजूद नन्हा-सा तिल पसंद था । उसका छरहरा जिस्म पसंद था ।                लड़की को नरिंदर में कोई दिलचस्पी नहीं थी । लड़की को इश्क़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी । यह नरिंदर के इश्क़ की राह में एक बड़ी बाधा थी । पर वह मजनू ही क्या जो अपनी लैला को पटा न सके ! लिहाज़ा नरिंदर तन-मन-धन से इस सुकार्य में लग गया । बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं कि यदि किसी कार्य में सफल होना है तो अपना सर्वस्व उसमें झोंक दो । इसलिए नरिंदर ‘ मिशन-मोड ‘ में आ गया । वह उन दिनों अमृतसर के गुरु नानक देव वि.वि. से अंग्रेज़ी में एम. ए. कर रहा था ।  ‘ रोमांटिक पोएट्री ‘ पढ़ रहा था । वह इश्क़ की उफ़नती नदी में कूद गया और हहराते मँझधार में पहुँच कर हाथ-पैर मारने लगा ।                नवप्रीत को यदि ख़ूबसूरत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । तीखे नैन-नक़्श , गेंहुआ रंग , छरहरी कमनीय काया , सलोना चेहरा । नरिंदर ने जवानी में क़दम रखा और विधाता की इस गुगली के सामने क्लीन-बोल्ड हो गया । लेकिन आलम यह कि इश्क़ के खेल में आउट हो कर भी वह खुश था । दिल हाथ से जा चुका था पर अगली इनिंग्स का इंतज़ार था । मन में निश्चय था कि अगली बार वह इश्क़ के मैदान में डबल सेंचुरी ठोक कर ही लौटेगा । अगली बार मौक़ा मिलते ही वह धैर्य के साथ इश्क़ के मैदान की क्रीज़ पर डट गया । उसने एक साथ सचिन तेंदुलकर , राहुल द्रविड़ और वी. वी. एस. लक्ष्मण की ख़ूबियों को आत्म-सात करके  विधाता की बॉलिंग खेलनी शुरू कर दी ।                पहले कुछ ओवर बेहद ख़तरनाक थे । नवप्रीत-रूपी नई गेंद बहुत स्विंग कर रही थी । मेघाच्छादित आकाश में गेंद उसे बार-बार छका कर बीट कर जाती । वह नवप्रीत-रूपी गेंद को स्क्वेयर-कट मारना चाहता लेकिन स्विंग हो रही गेंद हवा में थर्ड-मैन की दिशा में चली जाती । लेकिन यहीं नरिंदर ने राहुल द्रविड़ की शैली में इश्क़ की क्रीज़ पर लंगर डाल दिया । ठुक-ठुक , ठुक-ठुक करते हुए वह मनचाहे स्कोर की ओर बढ़ने लगा । उसने अपनी बहन हरलीन को प्रेरित किया कि वह नवप्रीत से दोस्ती करे । दोनों एक ही उम्र की थीं । उधर इन दोनों की मित्रता हुई ,  इधर नरिंदर को लगा जैसे विकट परिस्थितियों में एक हरी घास वाली उछाल भरी पिच पर उसने जूझते हुए पचास रन बना लिए हैं ।                फिर नवप्रीत हरलीन से मिलने उनके घर आने लगी । नरिंदर तो कब से ताक में था ही । नवप्रीत से ‘ हलो-हाय ‘ हुई । फिर बातचीत होने लगी । नरिंदर को पता चला कि नवप्रीत खालसा कॉलेज से एम.ए. ( पंजाबी ) कर रही है । फिर तो नरिंदर और नवप्रीत के बीच अकसर साहित्य-चर्चा होने लगी । नरिंदर ने प्रसिद्ध पंजाबी कवि सुरजीत पातर की कविताएँ पढ़ी थीं । नवप्रीत के प्रिय कवि भी सुरजीत पातर ही थे । इधर दोनों को बातचीत के लिए ‘ कॉमन ग्राउंड ‘ मिल गया , उधर नरिंदर को लगा जैसे उसने इश्क़ के मैच में विधाता की गेंद को ‘ टेम ‘ कर लिया है ।  उसे लगा जैसे उसने इस खेल में शतक ठोक डाला है ।                सावन का महीना था । काली घटाएँ आकाश में उमड़-घुमड़ रही थीं । ऐसे मौसम में नवप्रीत एक दिन हरलीन ले मिलने उनके घर आई । उसने फ़ीरोज़ी रंग का पटियाला सूट पहना हुआ था । इत्तिफ़ाक़ से घर के सभी लोग एक रिश्तेदार की शादी में गए थे । नरिंदर की परीक्षा चल रही थी । लिहाज़ा वह पढ़ाई करने के महती कार्य के नाम पर घर पर ही था । अब यह बात नवप्रीत को तो पता नहीं थी । या यह भी हो सकता है कि उसे यह बात अच्छी तरह पता थी । कुछ भी हो , नवप्रीत आई और नरिंदर ने उसकी आव-भगत की । साहित्य-चर्चा होने लगी । रोमांटिक कविता की विशेषताओं की चर्चा करते-करते हमारे नायक ने बेहद रोमानी अंदाज़ में अपनी नायिका का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया । यदि यह कथा कालांतर में घटी होती तो नरिंदर गायक मीका की शैली में अपनी नायिका के सामने गा उठता — ” सावन में लग गई आग , दिल मेरा …। ” ऐसा इसलिए क्योंकि बरसों बाद उसे मीका का गाया यह गाना बेहद पसंद आया था ।                 पर उस समय तो नवप्रीत नाराज़ हो गई । या कम-से-कम उसने नाराज होने का अभिनय ज़रूर किया । नरिंदर घुटनों के बल बैठ कर रोमियो की शैली में अपने सच्चे प्यार … Read more

सिर्फ अहसास हूँ मैं…….. रूह से महसूस करो

फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी  करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ?                 मैं प्रेम हूँ ….. चौक गए …सच! मैं वहीं प्रेम हूँ जिसे तुम सदियों से ढूंढते आ रहे हो ,कितनी जगहों पर कितने रिश्तों में कितनी जड़ और चेतन वस्तुओं  में तुमने मुझे ढूँढने का प्रयास किया है…..यहाँ वहाँ इधर –उधर सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी मैं सदा तुम्हारे लिए एक अबूझ पहेली ही रहा जिसको तुम तरह –तरह से परिभाषित करते रहे और जितना परिभाषित करते रहे उतना उलझते रहे ये लुका –छिपी मुझे दरसल भाती  बहुत है मैं किसी  कमसिन अल्हड नायिका की तरह मुस्कुराता हूँ  जब तुम  मुझे पा के अतृप्त , भोग कर अभोगे ,जान कर अनजान रह जाते हो  …आश्चर्य  जितना तुम मुझे परिभाषाओं से बाँधने का प्रयास करते हो उतना ही मैं परिभाषा से रहित हो जाता हूँ क्योकि बंधन मुझे पसंद नहीं |मैं तुम्हारे हर रिश्ते में हूँ कहीं माता –पिता का प्यार ,कहीं बहन –भाई का स्नेह ,कहीं बच्चों की किलकारी तो कहीं पति –पत्नी का दाम्पत्य |इतने रिश्तों में होते हुए भी तुम अतृप्त हो क्यों ?उत्तर सरल है जब भी तुम किसी रिश्ते में अधिकार और वर्चस्व की भावना ले आते हो ,मेरा दम घुटने लगता है ,बस सतह पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़ मैं निकल कर भाग जाता हूँ ,और सतह के जल से तुम तृप्त नहीं होते | फिर तुम मुझे प्रकृति में सिद्ध करते हो कि मैं झरनों  की झम –झम में नदियाँ की कल –कल में फूलों की खुश्बूँ में हूँ तो मैं पाषाण प्रतिमा में  प्रवेश कर साक्षात् ईश्वर बन जाता हूँ ,जब तुम  मुझे सुख –सुविधाओं में  सिद्ध करते हो तो मैं अलमस्त कबीर की फटी झोली बन जाता हूँ ….तुम हार नहीं मानते तुम मुझे देह को भोगते हुए देहातीत होने को सिद्ध करते हो |मैं फिर मुस्कुरा कर कहता हूँ अरे ! मैं तो वो राधा हूँ,जो प्रेम की सम्पूर्णता में  पुकारती है “आदि मैं न होती राधे –कृष्ण की रकार पे ,तो मेरी जान राधे –कृष्ण “आधे कृष्ण” रहते “ राधा  किसी दूसरे की पत्नी बच्चों की माँ , अपने कृष्ण हजारों मील दूर ,कहाँ है देह ?यहाँ तो देह का सानिध्य नहीं है ….राधा के लिए कृष्ण देह नहीं हैं अपतु राधा  के लिए कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरी देह ही नहीं है ,न जड़ न चेतन |तभी तो जब एक चाकर ने  कृष्ण के परलोक पलायन का दुखद समाचार  राधा को दिया ,हे राधे कृष्ण चले गए … मुस्कुरा  कर कह उठी राधा “परिहास करता है ,कहाँ गए कृष्ण ,कहाँ जा सकते हैं वो तो कण –कण में हैं ,पत्ते –पत्ते  में हैं ,उनके अतिरिक्त कुछ है क्या ? राधा के लिए कृष्ण ,कृष्ण नहीं हैं ,अपितु कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ,स्वयं राधा भी राधा नहीं रहीं वो कृष्ण हो गयी …. सारे  भेद ही मिट गए…. लोक –काल से परे हो गया ,पूज्य हो गया ये प्रेम |  पर ठहरो नहीं, यहीं पर मत अटको अभी मेरे पिटारे में बताने को और भी बहुत कुछ है ….. मैं तुलसी का वो पत्ता हूँ जो कृष्ण के वजन से भी गुरु हो गया ,हाँ !उस कृष्ण के वजन से जिनके पलड़े को  सत्यभामा का अभिमान व् अहंकार मिश्रित प्रेम अपने व् सारे द्वारिका के स्वर्ण आभूषणों के भार  से जरा भी न झुका सका |                                         विज्ञान ने भी मुझे जानने  समझने की कोशिश की है…कभी कहता है मैं मष्तिष्क के हाइपोथेलेमस में हूँ तो कभी कहता है मैं मात्र एक रसायन हूँ ….मैं फिर मुस्कुरा उठता हूँ ….जनता हूँ विरोधाभास मेरा स्वाभाव है …. जितना गूंढ उतना सुलभ  , जितना सूक्ष्म उतना व्यापक, जितना जटिल उतना सरल …. तभी तो लेने में नहीं देने में बढ़ता हूँ ….. इतना कि व्यक्ति में क्या समष्टि में न समाये …. ज्ञानी जान न पाए मुझे पर कबीर गा उठते हैं “पोथी पढ़ी –पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय ,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय “|ये ढाई अक्षर समझना ही तो दुष्कर है क्योंकि इसके बाद ज्ञान के सारे द्वार खुल जाते हैं ,आनद के सारे द्वार खुल जाते हैं |कितने विचारक तुम्हे मेरा अर्थ समझाने का प्रयास करते हैं …. पर मैं गूंगे का गुड हूँ जिसने जान लिया उसके लिए समझाना आसान नहीं ….  फिर भी प्रयास जारी रखे गए क्योंकि जिसने पा लिया उसने जान लिया प्रेम को पाना मतलब आनंद को पाना उसे बांटने में आनन्द आने लगा …. अरे ! मैं ही तो वो प्याला हूँ जो एक बार भर जाए तो छलकता रहता है युगों –युगों तक कभी रिक्त नहीं होता |रिश्तों के बंधन हैं मर्यादाएं पर मैं कोई बंधन नहीं मानता …. अपने शुद्ध रूप में जो सात्विक है मैं सबके लिए एक सामान हूँ रिश्तों –नातों के लिए ही नहीं समस्त सृष्टि के लिए |कभी अनुभव किये हैं अपने आंसूं ,सुख के मीठे से ,दुःख के जहरीले ,कडवे से और तीसरे स्नेह के ,कुछ अबूझ से जो आत्मा को तृप्त करते हैं एक विचित्र सा आनंद प्रदान करते हैं जैसे किसी ने आत्मा को छू  लिया है…. क्योकि यहाँ सिर्फ देना ही देना है लेने की भावना नहीं |मेरे इस शुद्ध  सात्विक रूप को ही ऋषि मुनियों ने जाना है ,आनंद का अनुभव किया है  किसी ने तुम्हे यह कह कर  समझाने का प्रयास  किया है सबमें स्वयं को देखो तभी परस्पर झगडे –फसाद ,सीमाओं को तोड़ कर मुझे पा सकोगे |तो किसी ने यह कह कर समझाने का प्रयास किया है अपने अन्दर गहरे उतरो ,सबको खुद में देखो …उस बूँद की तरह जो सागर का हिस्सा भी है ,और स्वयं सागर भी …. क्योकि असली … Read more