बचपन की छुट्टियाँ: नानी का घर

              कई दिनों से मन में स्मृतियों के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, गरज रहे थे पर बरसने का नाम नहीं ले रहे थे। बहुत बेचैन था मन बरसने को आतुर, पर बरसे कहाँ जाकर? माँ-पापा के कंधे तो कब के छूट चुके.. जहाँ मौसम-बेमौसम कभी भी सुख-दुःख में जाकर सिर रख बरस सकते थे। ऐसे में आज”बचपन की छुट्टियाँ:नानी का घर” शीर्षक ने तो जैसे मन को बरसने का अवसर प्रदान कर दिया और मैं चल दी स्मृतियों के नगर के गलियारों में इधर-उधर धींगामस्ती करने के लिए के लिए। आप सब भी तो चल रहें हैं न साथ! संस्मरण -बचपन की छुट्टियाँ: नानी का घर             बचपन में जैसे ही छुट्टियाँ होती तो नानी का घर ही सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र होता था। नानी और मामा के निश्चल प्रेम की गंगा में जी भर गोते लगाने को जो मिलता था। माँ जब जाने की तैयारी में कपड़े रखने को तैयार होती तो मैं अपने कपड़ों को समेट उनके सामने ढेर लगा कर रख देती थी इस हिदायत के साथ… कि पहले मेरे कपड़े रखना ताकि कोई छूट न जाए।                पापा हमें नानी के घर छोड़ने जाते। उसी दिन शाम को और बहुत कहने पर रात को रुक सुबह देहरादून लौट आते। नानी का घर चोहड़पुर( पहले यही नाम था,पर अब विकासनगर है) की पहाड़ी गली में था। एक बड़ी सी हवेली थी, जिसमें चार परिवार नीचे और पाँच परिवार ऊपर रहा करते थे। नानी का घर हवेली की दूसरी वाली मंजिल पर था। तीसरी मंजिल पर कभी तीन तो कभी दो परिवार रहते ही थे। बाक़ी खुली छत थी, जिसका गर्मी-सर्दी में लोग भरपूर उपयोग किया करते थे। छुट्टियों में ऊपर वाले परिवारों में कम ही जाना होता क्योंकि वे अधिकतर व्यापारियों के ही घर होते थे। हाँ, दूसरी और नीचे वाली मंजिल के सभी परिवार आते-जाते बात किए बिना नहीं रहते थे।          शौचालय ऊपरी मंजिल पर था। बस यही मेरी एक समस्या का कारण था। सीढ़ियाँ चढ़ कर शौचके लिए या छत पर चली तो जाती, पर उतरते समय नीचे देखते ही सिर चकराने लगता। इसलिए ऐसे समय किसी का साथ पकड़ना मेरे लिए बहुत ही जरुरी होता था।           जब पापा हमें छोड़ कर लौट जाते तो उस हवेली को, जिसे सब बगड़ कहते थे, उस पूरे बगड़ में खबर हो जाती कमला ( मेरी माँ ) अपनी बेटी के साथ आ गई है। एक-एक कर सब मिलने आते, गले मिलते, मेरे सिर पर हाथ फेर कर,अपने सीने से लगा कर प्यार करते। शकुंतला मौसी, मैना मौसी, नन्हे की बीबी, सुलोचना मौसी की माँ सब मिलने आते। दो-चार दिन बीतते-बीतते सुलोचना मौसी और बिमला मौसी भी छुट्टियों में अपने बच्चों को लेकर आ जाती। शकुंतला मौसी नानी की सखी थी। पर सब उन्हें मौसी कह कर ही बुलाते थे।वे जैसे सबकी मौसी थी।         नीचे की मंजिल में एक सहजो मौसी थी। उनके सहजो नाम पड़ने के पीछे भी एक मनोरंजक कहानी थी। वे कोई भी काम बहुत ही सहज-सहज करती थी। चाहे जल्दी भी हो, उनके काम करने की गति वही सहज-सहज ही रहती। तो धीरे-धीरे उनका नाम ही सहजो पड़ गया। उनका वास्तविक नाम सब भूल गए। जीवन भर वे सबको नाम से ही जानी गई।           नीचे ही मैना मौसी का बेटा प्रवेश उन्हें भाभी कह कर बुलाता था। मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय होता था। वो तो उसकी माँ हैं, तो वो भाभी क्यों कहता है? तब तो मैं भी माँ को भाभी कह सकती हूँ। उसकी देखा-देखी मैंने अपनी माँ को एक-दो बार भाभी भी कह दिया। तब नानी और माँ ने बताया था कि प्रवेश के चाचा उन्हें भाभी कह कह कर बुलाते थे इसलिए प्रवेश भी उन्हें भाभी कहने लगा, पर वो उनकी माँ ही है। 13 फरवरी 2006                नानी के घर छुट्टियों का एक-एक दिन मूल्यवान होता था। अपने नाना की मैं बहुत लाड़ली थी। वे आर्य समाज से जुड़े थे। रविवार को हवन के लिए और जब भी वे आर्यसमाज भवन जाते तो उनके साथ मैं अवश्य जाती थी। उनसे पहले मैं तैयार हो जाती थी। आते-जाते पाँच पैसे की ( उस समय पाँच पैसे में बहुत सारी नमकीन आती थी ) मूँग की दाल वाली नमकीन लेना मैं कभी नहीं भूलती थी। आज इतनी हल्दीराम, बिकानो  आदि न जाने कितने नामों वाली नमकीन बाजार में मिलती है, पर जो स्वाद उस पाँच पैसे में मिलने वाली मूँग की दाल वाली नमकीन में था, वो कहीं भी ढूँढे नहीं मिलता।               नानी के घर में एक आकर्षण वहाँ का आढ़त बाजार था। उसमें खूब सब्जियाँ, फल और भी बहुत सी चीजें आती।नाना कभी तरबूज, कभी खरबूजे,लीची, आड़ू, पुलुम (plum), आम, गन्ने,नाशपाती,कठहल,सिंबल डोडे( सेमल की कलियाँ) रोज कुछ न कुछ लेकर आते थे। गुड़ की भेलियाँ आती, बूरा, घी लाया जाता था।खूब मौज रहती।              रोज या तो माँ से कोई मिलने आता या हम नानी के साथ उनकी किसी सखी के यहाँ कभी नारायण गढ़, तो कभी बाबूगढ़ जाते। नानी की कोई न कोई सखी हमें हर दूसरे-तीसरे दिन खाने पर बुलाते। मक्की, बाजरे की रोटी खूब घी लगाई हुई, साग में घी तैरता हुआ तो खिलाते ही, साथ में पूछ-पूछ कर मनपसंद सब्जी, दाल, खीर,चावल,घी- बूरा भी खिलाते थे। चलते समय माँ को और मुझे रुपए भी देते थे। नानी की एक सखी मुझे कुंता की दादी के नाम से ही याद हैं।वो नानी बिलकुल अपनी नानी की तरह मुझे प्यार करती थी। मैं तो दिन में उनके पास एक चक्कर तो लगा ही आती थी।                  नानी के बगड़ के सब लोग ही मुझे अच्छे लगते। किसके यहाँ आज क्या पका है सबको मालूम रहता। जिस घर के बच्चे को अपने घर में बनी दाल-सब्जी पसंद नहीं आती तो वो अपनी कटोरी लेकर आता और जहाँ मनपसंद बना होता वो कटोरी में भर कर ले जाता।       … Read more

सीख

         यूँ तो हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढना दूसरे की चाहते हैं | लेकिन आज मैं अपनी ही जिंदगी की एक ऐसी कहानी साझा कर रही हूँ जो बेहद दर्दनाक है पर उस घटना से मुझे जिंदगी भर की सीख मिली | जब एक दुखद घटना से मिली जिंदगी की बड़ी सीख बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी | स्कूल जाने के रास्ते में एक रेलवे गेट पड़ता था| दरअसल रेलवे गेट के दूसरी तरफ तीन स्कूल थे | तीनों का टाइम सुबह 8 बजे था| अक्सर  7:40 पर गेट बंद हो जाता था | हम तीनों स्कूल के बच्चे कोशिश करते थे कि 7 : 40 से पहले ही रेलवे लाइन क्रॉस कर लें , क्योंकि अगर एक बार गेट बंद हो गया तो वो ८ बजे ही खुलता | उस गेट से स्कूल की दूरी करीब 5-7 मिनट थी पर  फिर भी हमें लेट मान लिया जाता | हमारे स्कूल की प्रिंसिपल  बच्चों को गेट के अन्दर तो घुसने देतीं पर दो पीरियड क्लास में पढने को नहीं मिलता | लेट होने पर हम बच्चे स्कूल के प्ले ग्राउंड में किताब ले कर बैठ जाते व् खुद ही पढ़ते | कॉन्वेंट स्कूल होने के कारण बच्चों पर कोई टीचर हाथ नहीं उठती थी |  रेलवे गेट और रूपा से दोस्ती  वहीँ दूसरे स्कूल में सख्ती कम थी वहाँ  बच्चों को डांट  खा कर अन्दर जाने मिलता था | हम लोगों को सख्त हिदायत थी कि रेलवे लाइन क्रॉस न करों, इसलिए कभी लेट हो जाने पर हमें इंतजार करने और स्कूल में सजा पाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था | बच्चे तो बच्चे ही होते हैं , २० मिनट शांति से बैठना मुश्किल था | तीन स्कूल के कई बच्चे इकट्ठे हो जाते, कुछ पैदल जाने वाले बच्चे भी रुक जाते | बच्चों की बातचीत व् खेल शुरू हो जाते | ऐसे में हमारी दोस्ती दूसरे रिक्शे में जाने वाली नेहा व् रूपा से हो गयी | कभी जब हम साथ –साथ लेट होते तो आपस में बाते करते , कभी लंच का आदान –प्रदान भी हो जाता | रूपा से मेरी कुछ ज्यादा ही बनती थी| तब  फोन घर-घर नहीं थे , हमारा स्कूल भी एक नहीं था , इसलिए जितनी दोस्ती थी उतनी ही देर की थी|   बहुत देर तक रेलवे गेट का बंद रहना  मैं  क्लास 4 थी ,उसी  समय नेहा और रूपा की क्लास में बहुत सख्त क्लास टीचर आयीं , वो लेट आने वाले बच्चों को सारा दिन क्लास के बाहर खड़ा रखती | अनुशासन की दृष्टि से ये अच्छा प्रयास था पर बच्चे लेट होने  से डरने लगे | कई बार बच्चे रिक्शे से उतर कर तब रेलवे लाइन क्रॉस कर लेते जब ट्रेन दूर होती| बच्चे ही क्यों बड़े भी रेलवे लाइन पार कर लेते | ऐसे ही एक दिन रेलवे गेट बंद था| नेहा रूपा और हम सब गेट खुलने का इंतज़ार कर रहे थे | 7:55 हो गया था | ट्रेन अभी तक नहीं आई थी| लेट होना तय था | कुछ बच्चे रेलवे लाइन पार कर स्कूल पहुँच चुके थे | कुछ बच्चे डांट खाने के भय से वापस लौट गए थे | हमारी उलझन बढ़ रही थी |  तभी नेहा ने रूपा  से कहा ,” चलो , रेलवे लाइन क्रॉस करते हैं , वर्ना मैंम  बहुत  डांटेंगी |  ट्रेन आने का समय हो चुका था | रूपा रेलवे लाइन क्रॉस नहीं करना चाहती थी | उसने कहा , छोड़ो , अब क्या फायदा ? नेहा जोर देते हुए बोली ,” अभी ट्रेन आ रही हैं फिर पाँच मिनट तक ट्रेन पास होगी , फिर जब गेट खुलेगा तो भीड़ बढ़ जाएगी हम पक्का लेट हो जायेंगे | रूपा ने स्वीकृति में सर हिलाया | नेहा आगे बढ़ गयी और लाइन तक पहुँच गयी | रूपा भी अधूरे मन से उसके पीछे -पीछे पहुँच गयी | ट्रेन आती हुई दिख रही थी | लोग बोले हटो बच्चों ,ट्रेन आ रही है, पर सवाल पाँच मिनट देरी का था | रूपा ने कहा रहने दो , नेहा बोली जल्दी से भाग कर पार कर लेंगें , मैं तो जा रही हूँ | नेहा पार हो गयी | हम लोगों को एक दर्दनाक चीख सुनाई दी |  ट्रेन के गुज़रते ही नेहा रोती हुई दिखाई दी , रूपा का कहीं पता नहीं था | हम कुछ समझ पाते तब तक रिक्शे वाले ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया |घबराए से हम स्कूल पहुंचे |  वो दर्दनाक खबर  स्कूल पहुँचते ही खबर आ गयी कि दूसरे स्कूल की एक बच्ची ट्रेन से कट गयी है | ट्रेन उसे २०० मीटर तक आगे घसीटते हुए ले गयी है | ओह रूपा … क्या अब वो हमें दुबारा नहीं दिखेगी | हम सब लेट हुए बच्चे जो स्कूल ग्राउंड में थे रूपा को याद कर रोने लगे | थोड़ी देर में कन्डोलेंस मीटिंग हुई , इस हृदयविदारक घटना  के कारण  रूपा  को श्रद्धांजलि देते हुए स्कूल की छुट्टी  कर दी गयी | अपनी स्पीच में प्रिंसिपल सिस्टर करेसिया ने कहा कि ये घटना बहुत दुखद है पर ट्रेन के इतना करीब आने पर रेलवे लाइन क्रॉस करना उस बच्ची की गलती थी | आप सब लोग थोडा पहले घर से निकलिए पर रेलवे लाइन तब तक क्रॉस ना करिए जब तक ट्रेन न निकल जाए |   मेरे अनुत्तरित प्रश्न  मेरे आँसू थम नहीं रहे थे | दुःख की इस घडी में बाल मन में एक अजीब सा प्रश्न उठ गया, नेहा जाना चाहती थी , रूपा  नहीं जाना चाहती थी , वो तो गलत काम नहीं कर रही थी , फिर ईश्वर ने उसे अपने पास क्यों बुला लिया | अगर दोनों गलत थे तो भी दोनों को पास बुलाते सिर्फ रूपा का क्यों ? मैंने ये बात अपनी क्लास टीचर को बतायी | उन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा ,” बेटा ये ईश्वर की मर्जी होती है , कब किसको बुलाना है , किसको बचाना है वो जानता है | तो क्या ईश्वर अन्याय करता है ? मैंने पश्न किया , वो बोलीं , ” सब पहले से लिखा होता है | … Read more

पापा की वो डांट: जिन्दगी की परीक्षा में पास होने का मंत्र

                                      जीवन में जो सबसे कीमती चीज हमें माता -पिता देते हैं वो है जीवन मूल्य | आज अपने पिता की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए एक ऐसी ही घटना   दिमाग में बार – बार घूम रही है , जिसे मैं आप सबके साथ शेयर करना चाहती हूँ | उन दिनों गाँव से शहर आ कर बसे परिवार गाँव तो छोड़ आये थे पर अन्धविश्वास अपने साथ लेकर आये थे | आखिरी रोटी बड़ी होनी चाहिए उससे परिवार बढ़ता है , रात को सिल और बटना पास – पास नहीं रखना चाहिए नहीं तो लड़के दूर रहते हैं , घर से निकलते समय टोंकते नहीं हैं या दूध , हल्दी आदि का नाम नहीं लेते हैं और भी न जाने क्या -क्या ? पर उन सब लोगों के विपरीत पापा जो खुद गाँव से आकर बसे थे , इन सारे  अंधविश्वासों के खिलाफ थे और उन्होंने हमें बचपन इन बातों  को पता भी नहीं चलने दिया | जाहिर सी बात है हम इन सब से दूर थे | हालांकि बड़े होने पर मुझे पता चला कि अंधविश्वास  केवल वही नहीं होते जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं कई बार हम अपने कुछ नए अन्धविश्वास स्वयं गढ़ लेते हैं | अपनी जीवन में घटने वाली घटनाओं के कारण शुभ -अशुभ  अच्छा बुरा का हमारा एक निजी घेरा भी न चाहते हुए बनने  लगता है, हम जिसकी कैद में आने लगते हैं | इससे निकलने के लिए आत्मबल की जरूरत होती है | जब पापा की डांट बनी   जिन्दगी की परीक्षा में पास होने का मंत्र                                               बात उन दिनों की है जब मैं B.Sc पार्ट वन में पढ़ती थी |  हमारे एग्जाम चल रहे थे | उस दिन केमिस्ट्री का फर्स्ट पेपर था|  जब मैं कॉलेज पहुंची तो सब सहेलियाँ पढने में लगी थी , मैं भी अपनी किताब खोल कर पढने लगी| तभी मेरी एक सहेली स्वाति  आई | ( आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि स्वाति हमारे कलास  की वो लड़की थी जो सबके हाथ देख कर भविष्य बताती थी , कुंडली देखने का भी उसको ज्ञान था और सिक्का खिसका कर भूतों से बात करने का भी, स्वाति लड़कियों से घिरी रहती, मेरी उससे कोई खास दोस्ती नहीं थी , फिर भी हम क्लास मेट थे तो बात तो होती ही थी ) स्वाति मेरे पास आ कर  मुझसे बोली ,  ” यार , वंदना आज का तुम्हारा पेपर बहुत अच्छा होगा|  इससे पहले की मैं कुछ कह पाती , सभी सहेलियां कहने लगीं हाँ, इसने बहुत पढाई की है |  स्वाति बोली , पढाई तो की ही होगी, पर आज इसने जो येलो कलर का सूट पहना है वो इसके लिए बहुत लकी है | मैंने आश्चर्य से उसकी तरह देखा | उसने मुस्करा कर अपनी बात सिद्ध करते हुए कहा , ” देखो तूने ये सूट साइंस क्विज में पहना था , तो हमारे कॉलेज को फर्स्ट प्राइज़  मिला | फिर तुमने केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में ये सूट पहना था , क्या वायवा गया था तुम्हारा | और तब भी जब हम सब लोग क्लास में शोर मचा रहे थे तो दिव्या मैम की डांट तुम्हें छोड़ कर हम सब को पड़ी , मानो न मानो तुम्हें दिव्या मैम की  डांट से इस सूट ने बचाया |”                             मैं उसकी बात पर हँस कर बोली , ” क्या फ़ालतू सोंचती रहती है , इतने ध्यान से सबके सूट मत देखा करो |” | उस दिन का मेरा पेपर बहुत अच्छा गया | कॉलेज से निकलते समय स्वाति बोली , ” देखा मैंने कहा था ना ‘|  अन्धविश्वास का एक बीज उसने मेरे मन की माटी  में रोप दिया था|                          अगले पेपर  ओरगेनिक केमिस्ट्री का था | तीन दिन का गैप था|  मैंने अच्छी तैयारी  की थी | पर पता नहीं क्यों कुछ कमी से लग  रही थी | लग रहा था कि पेपर देखते ही बेंजीन रिंग्स आपस में रिंगा-रिंगा रोजेज खेलते हुए मिक्स न हो जाएँ | खैर मैं पेपर देने जाने के लिए तैयार होने लगी | कपड़ों की अलमारी खोलते ही वो पीला सूट दिख गया | एक ख्याल आया ट्राई करने में हर्ज ही क्या है , चलो इसे ही पहन लेते हैं | इस बार जानबूझ कर पीला सूट पहना | स्वाति द्वारा रोप गए बीज में अंकुर फूटने लगे थे |                   अपनी आदत के अनुसार पापा मुझे एग्जाम के दिनों में खुद कॉलेज छोड़ने जाते थे |  उन्होंने गाडी निकाल ली थी , मैं जा कर बैठ गयी | पापा ने गाडी स्टार्ट की और हमेशा की तरह मेरी प्रेपरेशन के बारे में बात करने लगे | बातों  ही बातों में मैंने उन्हें कह दिया ,  ” पापा आप जानते हैं आज मैंने वही सूट पहना है जो फर्स्ट पेपर में पहना था , वो अच्छा गया , तो ये भी अच्छा ही जाएगा |”                            इतना सुनते ही पापा ने गाडी में ब्रेक लागाया और बैक कर घर की ओर जाने लगे | पापा का कठोर  चेहरा देख कर मेरी उनसे पूंछने की हिम्मत नहीं पड़ी | मुझे लगा पापा शायद गाडी के पेपर घर में भूल आये हैं | मन ही मन बुदबुदा रही थी , ‘ओह पापा , एग्जाम में ही आपको गाडी के पेपर भूलने थे ?”       घर आकर पापा ने गाडी रोक दी | फिर बहुत गंभीर आवाज़ में मुझसे कहा , ” जाओ सूट बदल के आओ “|पापा की आवाज़ इतनी सख्त थी कि मेरी उनसे प्रश्न करने की हिम्मत ही नहीं हुई | मैं चुपचाप घर के अंदर  जा कर सूट बदल कर आ गयी | पापा ने मुझे कॉलेज छोड़ दिया … Read more

रानी पद्मावती और बचपन की यादें

आज पद्मावत फिल्म के  रिलीज होने की तिथि पास आती जा रही है| चारों तरफ पद्मावत और  रानी पद्मावती की चर्चा हैं | ऐसे में मुझे रानी पद्मावती के नाम से जुदा अपने बचपन का एक वाकया  याद आ रहा है|  बात उस समय की है जब मैं क्लास 5 th में थी | हमारे स्कूल में पांच मिनट के एक्शन के साथ झांकी कॉम्पटीशन था | हमारी  क्लास ने भगत सिंह द्वारा असेम्बली में बम फेंकने का एक्ट लिया था | हमारी क्लास के ही दूसरे सेक्शन ने रानी पद्मावती के जौहर व्रत की झाँकी का | जिस दिन कॉम्पटीशन होना था | हम सब तैयार हो कर पहुँच गए | क्योंकि हम लोगों को कोर्ट में बैठना था | हमारे कपडे नार्मल थे व् पडोसी क्लास की लडकियाँ ढेर सारे गहने ,लहंगा –चुन्नी में लकदक करते इतरा रही थी |  बाल सुलभ हंसी मज़ाक चल रहा था | जहाँ हम लोग कह कह रहे थे … तुम्हारा एक्ट बढ़िया है,  कितना सज के आये हो तुम लोग, हमें तो कितने सिंपल कपड़े  पहनने पड़  रहे हैं,  और वो खिलखिलाते हुए  बच्चे हम लोगों को जौहर के लिए बनाये गए कुंड में कुदा  रहे थे , साथ में कहते जा रहे थे, ” तुम भी कूद जाओ, तुम भी कूद जाओ| माहौल बहुत हंसी मज़ाक भरा था | अपने सेक्शन का एक्ट खत्म होने के बाद हम प्रिंसिपल व् टीचर्स की टीम के साथ उस सेक्शन का एक्ट देखने पहुँच गए | क्योंकि उस एक्ट के चर्चे बहुत थे| एक्ट शुरू हुआ| रानी पद्मिनी ने स्त्री स्वाभिमान के लिए प्राणों का बलिदान करने की बात की, एक-एक कर के लडकियां उसमें कूदने लगीं | एक्ट खत्म हो गाया| तालियों की जगह एक सन्नाटा पसर गया, जैसे दिल में कुछ गड़ सा गया| हम सब रो रहे थे |  एक्ट के बाद थोड़ी देर पहले खिलखिलाती हुई अपनी ड्रेस पर इतराती रानियाँ बनी लड़कियाँ  बेतहाशा रो रही थी | पद्मिनी बनी लड़की तो कुछ पल के लिए बेहोश हो गयी | प्रिंसिपल , टीचर्स सब रो रहे थे | हमारी वाइस प्रिंसिपल जो विदेशी मूल की थीं | उन्होंने आँखों में आँसू भर कर सैल्यूट किया |  थोड़ी देर पहले हँसते खिलखिलाते बच्चे रो रहे थे | किसी को उस समय भारतीय सवाभिमान , विदेशी आक्रांता व् स्त्री अस्मिता जैसे शब्द नहीं पता थे | हम सब को मन में था तो एक सम्मान ऐसी स्त्रियों के लिए जिन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए| निश्चय ही रानी पद्मावती हमारे देश का गौरव हैं, और हर भारतीय को उन पर गर्व हैं|    वंदना दुबे   यह भी पढ़ें … इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं 13 फरवरी 2006 बीस पैसा हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको आपको  लेख “ रानी पद्मावती और बचपन की यादें  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                  फोटो क्रेडिट –wikimedia commons

जिंदगी का चौराहा

                            यूँ तो चौराहे थोड़ी- थोड़ी दूर पर मिल ही जाते हैं |  जहाँ चार राहे मिलती हैं , वहीँ चौराहा बन जाता है , इसमें खास क्या है , जो इस पर कुछ कहा जाए |  जरूर आप यही सोंच रहे होंगे| मैं भी ऐसा ही सोंचती थी , जब तक थोड़ी देर ठहर कर किसी चौराहे  पर इंतज़ार करने की विवशता नहीं  आ गई | कितना कुछ सिखाता है जिंदगी का चौराहा                          वाकया अभी थोड़े दिन पहले का है , बेटे को कोई एग्जाम दिलाने जाना था | दो घंटे का समय था , मैंने सोंचा इंतज़ार कर लेते हैं , साथ ही वापस चले जायेंगे| पर सेंटर के पास बहुटी ठण्ड थी , सुबह का समय था , तो प्रकोप भी कुछ ज्यादा था | आस -पास नज़र दौड़ाई , थोड़ी दूर पर एक चौराहा था , जहाँ धूप  ने झाँकना  शुरू कर दिया था | धूप  देखते ही मैं उस तरफ ऐसे बढ़ी जैसे गुड़ को देखकर मक्खी  बढती है |खैर वाहन  से चौराहे की चारों राहों का नज़ारा साफ़ – साफ़ दिख रहा था |                           जीवन क्षण  प्रतिक्षण कैसे बदलता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अगर देखना हो तो चौराहा सबसे मुफीद जगह है |  हर पल चारों दिशाओं  में भागते लोग, कितनी ख़ूबसूरती से कह जाते हैं कि हर किसी की मंजिल एक नहीं है , जो किसी ने छोड़ा है वही दूसरे के लिए सबसे सही चुनाव हैं | हम सबको चुनने का मौका है| यहाँ हर कोई चुनता है और आगे बढ़ता है| यहाँ कोई शिकायत नहीं होती, मैंने ये क्यों चुना , उसने वो क्यों चुना , शिकायत  चुनाव के बाद होती है , जब अपने द्वारा चुने गए रास्ते से बेहतर दूसरे का रास्ता लगता है| क्यों जिंदगी के हर चौराहे पर हम जरा ठहर कर चुनाव नहीं करते | काश ऐसा कर पाते तो सब अपनी जिन्दगी उसी तरह से जी पाते जैसी जीना चाहते हैं | चौराहे पर गाड़ियों और लोगों की भागदौड़ में एक संतरे वाला उधर से निकला , एक संतरा जिसमें उसने बड़े ही कलात्मक ढंग से एक फूल लगाया हुआ था , ठेले से निकल कर गिर गया , उसने उठा कर रख लिया | आगे बढ़ने पर वो दोबारा गिर गया , उसने फिर उठा कर रख लिया | तभी किसी ने उसे आवाज़ दी , वो आवाज़ की दिशा में चला , तो वो संतरा फिर गिर गया , इस बार उसका ध्यान नहीं गया , वो आगे बढ़ गया , वह  फूल लगा संतरा वहीँ पड़ा रह गया | कितना सच है , जिसको हमसे मिलना होता  है और जिसको बिछड़ना दोनों को कितना भी प्रयास कर लो,रोका नहीं जा सकता | परन्तु संतरे का भाग्य को क्या कहें ,  जो यूँ ही चौराहे पर किनारे पड़ा हुआ था | उसे कोई उठा कर ले नहीं रहा था | लोग आते उससे बच कर निकल जाते , कारण समझ नहीं आ रहा था| कारण समझ आया,जब एक छोटा बच्चा जो अपनी माँ के साथ जा रहा था , उसने संतरे को  पैर से  ठोकर मार दी | उसकी माँ ने यह देख कर बच्चे को चपत लगायी ,फिर डांटते हुए बोली, ” अरे बीच चौराहे पर किसने जाने कौन सा मन्त्र करके डाल दिया होगा | कितनी बार मना  किया है कि चौराहे पर पड़ी चीज को नहीं छूते, पता नहीं कौन सी अलाय-बाले ले कर आ जाएगा| भाग्य केवल मनुष्यों का ही नहीं होता, मेरी आँखों के सामने चौराहे पर गिर पड़ा वो संतरा मनहूस घोषित हो चुका था | हम सब अपने भविष्य से कितना डरे रहते हैं, हर चौराहा इसका प्रमाण है| वही पास कुछ कबूतर दाने चुगने में लगे थे| सब साथ- साथ खा रहे थे| किसी को परवाह नहीं कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान, कौन अमीर ,गरीब , कौन बड़ी जाति का, कौन छोटी जाति का| काश ये गुण हम कबूतरों से सीख सकते| ये धर्म ये जातियाँ हमें कितना जुदा कर देती हैं | एक खास नाम एक खास पहचान से जुड़ कर हम भले ही कुछ खास हो जाते हों , पर इंसान नहीं रह जाते| उन्हीं कबूतरों में से एक कबूतर का दाना चुगने में कोई इंटरेस्ट नहीं था , वो लगा था तिनका बीनने में … उसे नन्हे मेहमान के आने से पहले अपना घोंसला बनाना था | एक सुखद भविष्य की कल्पना ही शयद इतनी मेहनत  करने की प्रेरणा देती है| शायद  इसी आशा से पान वाला अपनी गुमटी लगा रहा .. आज ज्यादा पान बिकेंगे , फिर ..  अरररे … ये क्या? एक  साइकिल वाले की  साइकिल कार  से जरा छू गयी , छोटा सा स्क्रेच आ गया| कार  वाले ने आव- देखा न ताव , झट से गाडी से उतर दो झापड़ लगा दिए | इतने पर भी संतोष नहीं हुआ उसे माँ -बहन की तमाम गालियाँ देता हुआ गाडी ले कर चला गया| अब  साईकिल वाले ने अपनी साइकिल उठायी , इधर -उधर देखा फिर उस कार  वाले को माँ -बहन के तामाम्  गालियाँ देता हुआ विजयी भाव से चला गया | भले ही कार वाले ने न सुना हो , पर ये चौराहा साक्षी था , ये कबूतर साक्षी थे , हवा साक्षी थी , सूरज साक्षी था ,  कि उसने अपने अपमान का बदला ले लिया है| गरीब हो या अमीर , अहंकार पर चोट कौन सह सकता है?  और मैं एक बार फिर साक्षी बनी कि  पुरुषों की लड़ाई में महिलाएं अपमानित होती रही हैं … होती रहेंगी | हर चौराहे पर सबकी माँ बहने हैं अदृश्य … अपमानित | तभी एक झाड़ू वाला आया , वो  अपनी लम्बी झाड़ू से सब कुछ साफ़ कर देता है | वो चौराहा अब भी वही है बस पहले की धूल  साफ़ हो गयी , अब वो फिर से तैयार है कुछ नया लिखने को , मौका दे रहा है हमें एक बार फिर से अपनी राह चुनने को | … Read more

अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते हुए हाथ नहीं जलते

                                                                                     मकर संक्रांति में तिल के लड्डुओं का बहुत महत्त्व है | इसमें तिल के लड्डू बनाये , खाए और दान में दिए जाते हैं |मकर संक्रांति में तिल  स्नान भी होता है | तिल पौष्टिक और तासीर में गर्म होता है | सर्दी के दिनों में इसे खाने से सदीं से सुरक्षा होती है | तिल  के और भी बहुत लाभ हैं पर फिलहाल हम लाये हैं तिल से जुदा एक किस्सा – पढ़िए अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते हुए हाथ नहीं क्यों जलते    मेरी उम्र उस समय 10 या 11 साल रही होगी | संक्रांति आने वाली थी| माँ तिल के लड्डू बना रही थीं| मैंने जिद की ,कि मैं भी मदद करुँगी| माँ ने मना  किया पर मैंने हाथ तिल में डाल दिए | टेढ़े-मेढ़े  दो तीन लड्डू बनाने के बाद मेरी हिम्मत टूट गयी | हथेलियाँ लाल हो गयी| दौड़ते -दौड़ते पिताजी के पास पहुंची ,” देखिये पापा , कहकर अपनी हथेलियाँ फैला दी | पीछे से माँ भी आ रही थीं | पापा को देखते ही बोलीं,” देखिये मानी ही नहीं , हाथ जला लिए| पिताजी ने भी माँ को उलाहना देते हुए कहा ,” तुम्हें रोकना चाहिए था| ठीक से कराती, देखो कैसे हाथ लाल हो गए हैं | नहीं बानाएगी मेरी बेटी लड्डू -वद्दू , तुम ही बनाओं ,उसे तो अपनी कलम से देश बनाना है |                     उसके बाद जो भी घर आता  सबको मेरे हाथ लाल हो जाने और कलम से देश बनाने के किस्से सुनाये जाते | जो भी घर आता , सब कहते , अरे मेरी बिटिया के हाथ जल गए , तुम लड्डू न बनाना , तुम पढाई करो | मैं इस दुलार से इतरा जाती | उस समय मुझे बहुत सेलिब्रिटी सा महसूस होता |                                       उस समय का लाड , उम्र के साथ जिम्मेदारी के अहसास में बदल गया | मुझे कलम से देश बनाना है |  ढेरों किताबें , मेरी  अलमारी में सजती जा रही थीं, वो कहते हैं न जितना ज्यादा पढोगे लेखन में उतना ही निखार आएगा|  हाँ , माँ जरूर लड्डू बनाने के पीछे पड़ी रहती | सीख लो हमें ही थुकाओगी, ससुराल -ससुराल ही होती है | मैं सोंचती थी कि ससुराल की ये परिभाषा सही नहीं है |  मैं तोडूंगी ये भ्रम और अपनी कलम के माध्यम से लिखूंगी नयी परिभाषा |  माँ का मन रखने के लिए लड्डू तो क्या सीना , पिरोना सब सीखती चली गयी |  लड्डू सिखाते समय अबकी बार माँ ने कोई गलती नहीं की | उन्होंने एक बड़े कटोरे में पानी रख दिया | लड्डू बनाते हुए जैसे ही हाथ लाल हों, झट से उसमें डाल दो , थोड़ी जलन कम हो जायेगी , फिर लड्डू बनाओं |                                                 समय बीता , विवाह हुए ६ महीने ही बीते थे | पहली मकर संक्रांति थी| उससे कुछ रोज पहले ही मैंने  सार्वजानिक लेखन की इच्छा अपने पति के आगे व्यक्त की थी | उन्होंने तुरंत इनकार कर दिया | छूटते ही कहा था ,” अपने विचार और अपना ये शौक अपने पास रखो, किसी के लिखने से देश नहीं बदलता | तुम्हें ही बस नाम का शौक होगा , सेलेब्रिटी बनने  का शौक ,ये मेरे घर में बिलकुल नहीं होगा |”                    मुझे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी |  मनाने की बहुत कोशिश की , पर वो नहीं माने | मैं रात भर तडपती रही, तकिया गीला होता रहा और वो आसानी से सोते रहे|  मन में बहुत उहापोह थी , लेखन की शुरुआत हुई नहीं थी , क्या पता सफल होऊं  या न हो सको , फिर लोग क्या कहेंगे? इतनी सी बात पर घर भी तो नहीं छोड़ा जा सकता |  यूँ ही उधेड़बुन में सुबह हो गयी |  तिल के लड्डू बनाने थे | बेखयाली में कटोरे में पानी रखना भूल गयी | दो -तीन लड्डू बनाए ही थे की हाथ जल उठे, उफ़ ! कहते हुए ध्यान गया तो दोनों हथेलियाँ लाल हो चुकी थीं | तभी सासू माँ रसोई में आई | मुझे देखते ही बोलीं ,” क्या किया हाथ जला लिए , अम्मां ने इतना भी नहीं सिखाया | बनती तो बहुत हैं , मेरी बेटी ये जानती है , वो जानती है …. वो बोले जा रही थीं ,मैंने सुनना बंद कर दिया| उठ कर एक कटोरे में पानी रख लिया , उसमें हाथ डुबोये , जलन  थोड़ी शांत हो गयी | फिर लड्डू बनाना शुरू कर दिए |                             इस घटना को बरसों बीत गए| लेखन का ख्वाब अधूरा  रह गया | अब मकर संक्रांति में लड्डू बनाते समय हाथ नहीं जलते | मकर संक्रांति ही क्यों , माँ के एक कटोरा पानी की सीख अभी भी मेरे साथ है | जब भी किसी दर्द से दिल दुखी होता है , गम की तपिश से लाल हो जाता है , तो झट से  पानी में हाथ दे देती हूँ | थोड़ी तपिश शांत हो जाती है और लग जाती हूँ , काम पर |                                         अगर आप पुरुष हैं तो सोंच रहे होंगे ,तो अवश्य सोंच रहे होंगे , आखिर ये कटोरा ले -ले कर कहाँ -कहाँ घूमती है ? और अगर स्त्री हैं तो जानते ही होंगे कि आँखों के कटोरे जब तब भर ही तो जाते हैं , निकलते पानी में हाथ डाल थोड़ी जलन शांत हो जाती है और हम … Read more

इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं

उस समय हम दिल्ली में नए-नए आये थे| मैं घर पर ही रहती थी| वो तब मेरे फ्लोर के ऊपर रहती थी| सुप्रीम कोर्ट में वकील थीं |  उनसे जान- पहचान हुई , फिर दोस्ती | उस समय उनका बेटा  2 -2 1/2 साल का रहा होगा |वो मेरे साथ हिल-मिल गया |  वो दुबारा कोर्ट जाना चाहती थीं|  पर बेटे की देखरेख को किस पर छोडें ये सोंच कर शांत हो जाती थीं| अक्सर मेरे पास आ कर अपनी समस्या कहतीं, ” ये फुल टाइम मेड भी नहीं मिलती | क्या करू? कोर्ट जाना चाहती हूँ पर  इसकी जिम्मदारी किस पर छोडू? मैं उन्हें कुछ मेड के नंबर देती जो दिन भर घर में रह कर बच्चे की देख रेख कर सके|  उन्होंने उनमें से एक से बात कर उसे दिन भर के लिए लगा लिया|                          उस दिन उनका कोर्ट जाने का पहला दिन था | बच्चा मेड के पास रहना था|जाहिर है एक माँ को अपने बच्चे को यूँ छोड़ते समय तकलीफ तो होती होगी | वो मेरे पास आयीं, और आँखों में आंसूं भर कर बोलीं,  ” भाभी जी दिल तो यहीं रखा रहेगा| पता नहीं मेड बच्चे को कैसे ट्रीट करेगी? आप एक दो चक्कर ऊपर के लगा लेना|देख लेना प्लीज | मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा,” आप क्यों चिंता करती हैं , मैं हूँ ना , देख लूंगी | मैंने कई चक्कर ऊपर के लगाए| बच्चा क्योंकि मुझसे हिला हुआ था, मुझे देख कर मेरे साथ चलने की जिद करता| कभी मैं वहीँ बैठ कर उसे खिलाती तो कभी नीचे अपने साथ ले आती| इस तरह से कई दिन बीत गए| मेड को भी आराम हो जाता |                        उस समय मेरे बच्चे भी बहुत बड़े नहीं थे| स्कूल जाते थे| एक माँ के लिए जब बच्चे स्कूल जाते हैं उस समय जो समय बचता है वो बहुत कीमती होता है| ऐसा लगता है कि ये समय सिर्फ मेरा है| मैं इस समय की रानी हूँ, जो चाहे करूँ | अब मेरा वो समय उस छोटे बच्चे के साथ कटने लगा| छोटे बच्चे को रखना आसान काम नहीं है | कब सुसु कब पॉटी या फिर कब काहना और सामान फैला दे ,  कहा नहीं जा सकता | फिर भी एक लगाव की वजह से मैं  उसकी बाल सुलभ शैतानियों में लगी रहती| बीच – बीच में उसकी मम्मी उस मेड की बुराई करती रहती ,जैसे मिठाई वगैरह  खा लेती है, उनकी क्रीम पोत लेती है आदि -आदि | मैं उन्हें वो चीजे ताले में रखने की हिदायत दे देती |                    एक दिन वो मेरे पास आई और बोली ,” अब मैं इस मेड को नहीं रखूँगी| बहुत परेशांन  करती हैं|  पैसे भी दो और परेशानी भी सहो| मेरा बेटा आप से हिला हुआ है| आप भी उसे बहुत प्यार करती हैं| ऐसा करिए आप ही उसे रख लीजिये| मैं जो पैसे मेड को देती हूँ वो आप को दे दूंगीं |                             यह सुनते ही मैं सकते मेरी  आ गयी| मेरी भावना का मोल लगाया जा रहा था| आँखे डबडबा उठी|  हालाँकि उनकी बॉडी लेंगुएज ये बता रही थी कि ये बात उन्होंने मेरा अपमान करने के लिए नहीं कहीं थी |उनकी सोंच प्रैक्टिकल थी| उन्हें लगा दिन भर घर में रहती हैं , ख़ुशी -ख़ुशी  हाँ  कर ही देंगी|                           उनकी आशा के विपरीत बहुत मुश्किल से मैंने अपने को संयत कर के कहा , ” मेरा स्वास्थ्य इतना ठीक नहीं रहता| मुझे क्षमा करें मैं बच्चे को नहीं रख पाऊँगी| इट्स ओके कह कर वो चली गयीं| उन्होंने दूसरी मेड रख ली| कुछ दिक्कतों को वो जिक्र करती रही पर मेरा ऊपर के फ्लोर पर जाना कम हो गया| शायद वो मुझसे कहतीं भाभी जी प्लीज आप रख लीजिये, मैं भी निश्चिन्त रहूंगी तो मैं इनकार न कर पाती|                  भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती पर आजकल प्रैक्टिकल सोंच का जमाना है| वो प्रैक्टिकल सोंच जो पैसे से बनती बिगडती है| जहाँ खाली बैठना गुनाह है| जो भी समय है कुछ करने के लिए कमाने के लिए हैं | इसी लिए तो ह भावना रहित रोबोट बनते जा रहे हैं| अन्दर के तालाब को सोख पैसों के ढेर पर बैठे कैक्टस होते इंसानों इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं हैं |          वंदना बाजपेयी कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार happy birthday भैया – अटूट होता है रिश्तों का बंधन हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको आपको  लेख “ इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं हैं “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                    

तुम्हारे पति का नाम क्या है ?

                                           आज सुबह सुबह श्रीमती जुनेजा से मुलाक़ात हो गयी | थोड़ी – थोड़ी देर में कहती जा रही थीं | रमेश की ये बात रमेश की वो बात | दरसल रमेश उनके पति हैं | वैसे भी आजकल पत्नियों द्वारा  पति का नाम लेना बहुत आम बात है | और क्यों न लें अब पति स्वामी नहीं बेस्ट फ्रेंड जो है | लेकिन श्रीमती जुनेजा जी ने मुझे अपनी प्यारी रिश्ते की भाभी जी का किस्सा याद याद दिला दिया | उनकी तकलीफ का महिलाएं आसानी से अनुमान लगा सकती हैं | ये उस समय की बात है जब पत्नियों द्वारा पति का नाम लेना सिर्फ गलत ही नहीं अशुभ मानते थे | तो भाभी  की कहानी उन्हीं की जुबानी … क्या – क्या न सहे सितम … पति के नाम की खातिर   भारतीय संस्कृति में पत्नियों  द्वारा पति का नाम लेना वर्जित है।मान्यता है नाम लेने से पति की आयु घटती है। ,अब कौन पत्नी इतना बड़ा जोखिम लेना चाहेगी ?इसलिए  ज्यादातर पत्नियाँ पति  का नाम पूछे जाने पर बच्चों को आगे कर देती हैं “बेटा  बताओं तुम्हारे पापा का नाम क्या है ?”या आस -पास खड़े किसी व्यक्ति की तरफ बहुत  याचक दृष्टि से देखती हैं, वैसे ही जैसे गज़ ,ग्राह  के शिकंजे में आने पर श्री हरी विष्णु की तरफ देखता है “अब तो तार लियो नाथ “.  इस लाचारी को देखते हुए कभी -कभी इनीसिअल्स से काम चलाने के अनुमति धर्म संविधान में दी गयी है। परंतु जरा सोचिये .. आप नयी -नयी बहू हो ,सर पर लम्बा सा घूंघट हो , और आपके साथ मीलों दूर -दूर तक कोई न हो ,ऐसे में परिवार का कोई बुजुर्ग आपसे ,आपके पति का नाम पूँछ दे तो क्या दुर्गति या सद्गति होती हैं इसका अंदाज़ा हमारी बहने आसानी से लगा सकती हैं।  आज हम अपने साथ हुए ऐसे ही हादसे को साझा करने जा रहे है। जब मुझसे पति का नाम पूंछा गया                                                          जाहिर है बात तब की जब हमारी नयी -नयी शादी हुई थी।  हमारे यहाँ लडकियाँ मायके में किसी के पैर नहीं छूती ,पैर छूने का सिलसिला शादी के बाद ही शुरू होता है। नया -नया जोश था , लगता था दौड़ -दौड़ कर सबके पैर छू  ले कितना मजा आता था जब आशीर्वाद मिलता था।  लड़कपन में में तो नमस्ते  के जवाब में हाँ, हाँ नमस्ते ही मिलता था।  हमारी भाभी ने शादी से पहले हमें बहुत सारी  जरूरी हिदायतें दी बहुत कुछ समझाया पर ये बात नहीं समझायी की पारिवारिक समारोह में किसी बुजुर्ग के पैर छूने अकेले मत जाना।अब इसे भाभी की गलती कहें या हमारी किस्मत… शादी के बाद हम एक पारिवारिक समारोह में पति के गाँव गए, तो हमने घर के बाहर चबूतरे पर बैठे एक बुजुर्ग के पाँव छू  लिए। पाँव छूते ही उन्होंने पहला प्रश्न दागा  “किसकी दुल्हन हो “? जाहिर सी बात है गर्दन तक घूँघट होने के कारण वो हमारा चेहरा तो देख नहीं सकते थे |हम  पति का नाम तो ले नहीं सकते और हमारी सहायता करने के लिए मीलों दूर -दूर तक खेत -खलिहानों और उस पर बोलते कौवों के अलावा कोई नहीं था ,लिहाज़ा हमारे पास एक ही रास्ता था की वो नाम ले और हम सर हिला कर हाँ या ना में जवाब दे। उन्होंने पूछना शुरू किया ………….                            पप्पू की दुल्हन हो ?हमने ना में सर हिला दिया।                          गुड्डू की ?                          बंटू की ?                         बबलू की ?                                         मैं ना में गर्दन हिलाती जा रही थी ,और सोच रही थी की वो जल्दी से मेरे पति का नाम ले और मैं चलती बनू। पर उस दिन सारे ग्रह -नक्षत्र मेरे खिलाफ थे। वो नाम लेते जा रहे थे मैं ना कहती जा रही थी , घडी की सुइयां आगे बढ़ती जा रही थी ,मैं पूरी तरह शिकंजे में फसी  मन ही मन  पति पर बड़बड़ा रही थी “क्या जरूरत थी इतना ख़ास नाम रखने की ,पहला वाला क्या बुरा था ?  पर वो बुजुर्ग भी हार मानने को तैयार नहीं थे| उनकी यह जानने की अदम्य इक्षा  थी की उनके सामने खड़ी जिस निरीह अबला नारी ने अकेले में उनके पैर छूने का दुस्साहस किया है वो आखिर है किसकी दुल्हन ?असली घी खाए वो पूजनीय एक के बाद एक गलत नामों की सूची बोले जा रहे थे और मैं ना में गर्दन हिलाये जा रही थी। पति के नाम के अतरिक्त ले डाले सारे नाम                                                   धीरे -धीरे स्तिथि यह हो गयी की उन्होंने मेरे पति के अतिरिक्त अखिल ब्रह्माण्ड के सारे पुरुषों के नाम उच्चारित कर दिए। जून का महीना ,दोपहर का समय ,भारी कामदार साड़ी सर पर लंबा घूँघट ,ढेर सारे जेवर पहने होने की वजह से मुझे चक्कर आने लगे। अब मैंने मन ही मन दुर्गा कवच का पाठ शुरू कर दिया “हे माँ ! अब आप ही कुछ कर सकती हैं ,त्राहि मांम ,त्राहि माम ,रक्षि माम रक्षि माम।                                                             और  अंत में जब माँ जगदम्बा की कृपा से उन्हें मेरे पति का नाम याद आया तो मेरी गर्दन इतनी अकड़ गयी थी  की न हाँ में हिल सकती थी ना ,ना में ………                             … Read more

ओ री गौरैया !

 कई दिनों से वो गौरैया उस रोशनदान पर घोसला बनाने में लगी थी | वो एक-एक तिनका अपने चोंच में दबा कर लाती और उस रोशनदान में लगाने की कोशिश करती पर उसकी हर कोशिश नाकाम हो जा रही थी कारण ये था कि उसी रोशनदान से डिश का तार कमरे के भीतर आ रहा था इस लिए उसके द्वारा रखे जा रहे तिनके को आधार नही मिल रहा था और वो तिनका नीचे गिर जा रहा था पर इस बात से बेखबर गौरैया लगातार तिनका अपनी चोंच में लाती जा रही थी | नीचे गिरे हुए तिनकों का ढेर उठा-उठा कर मै फैंकती, थोड़ी देर बाद फिर से ढेर लग जाता |  गौरैया का परिश्रम देख कर मै परेशान हो रही थी उसका घोसला बनने लगता तो मुझे खुशी होती पर उसके द्वारा लाया गया हर तिनका नीचे आ रहा था | मै दो दिन से यही देख कर परेशान थी पर उसके लिए मै कुछ भी नहीं कर पा रही थी, अचानक ही मेरे मन में एक ख्याल आया, मैंने घर के सामने लगे पेड़ से कुछ पतली-पतली शाखाएँ तोड़ी और पत्तियों सहित ही उसे मोड़ कर छुप कर कमरे में स्टूल पर चढ़ कर खड़ी हो प्रतीक्षा करने लगी कि गौरैया अपना तिनका रख कर उड़े तो मै जल्दी से उसे रोशनदान में फँसा दूँ ताकि उसके द्वारा रखे गये तिनके को नीचे से सहारा मिल जाय और वो घोसला बना सके (गौरैया तिनका कमरे के बाहर की तरफ से लगा रही थी ) | वो ज्यों ही तिनका रख कर उड़ी मैं कमरे के भीतर से उन पतली मुड़ी हुयी डंडियों को रोशनदान में फंसाने लगी मै हटने ही वाली थी कि गौरैया तिनका ले कर वापस आ गई और वहाँ पर हलचल देख कर घबरा कर चीं-चीं-चीं-चीं करते हुए वापस उड़ गई, शायद वो डर गई थी | एक क्षण के लिए मै भी सकते में आ गई पर फिर सोचा कि अभी वापस आ जायेगी और अबकी बार वो अपना घोसला बनाने में सफल हो जायेगी पर देखते-देखते पूरा दिन बीत गया वो वापस नही आई, बाहर उसका दाना-पानी भी यूँ ही रखा रहा | दूसरा दिन भी बीत गया, अब मुझे अपराधबोध हो रहा था | कहाँ से कहाँ मैंने उसके काम में हस्तक्षेप किया पर अब क्या करूँ ? कैसे बुलाऊं उसे ? कोई इंसान हो तो उससे क्षमा मांग लूँ, उसकी मनुहार कर उसे मना कर ले आऊँ पर अब क्या करूँ ? मेरी समझ में नही आ रहा था कि उस नन्हें परिंदे को मै कैसे बुलाऊँ ..? मेरा मन अब किसी काम में नही लग रहा था | बार-बार मै बाहर झाँक कर देखती कि शायद वो पानी पीने ही चली आये; पर वो नही आई | तीन दिन बीत गये अब मेरा मन बहुत उदास हो गया, उसके साथ एक रिश्ता सा बन गया था | मै उसके लिए रोज दाना-पानी रख देती, वो आ कर तुरंत ही दाने चट कर जाती, पानी पीने तो वो दिन में कई-कई बार आती |  कई बार उसके साथ पूरी फ़ौज होती, तब वो लड़ते झगड़ते दाना चुनतीं और कई बार तो पानी का कटोरा ही उलट देतीं | मै फिर से कटोरा भर कर रख देती | इन परिंदों के साथ बहुत सुख मिलता मुझे, उन्हें पानी पीते और दाना चुनते देख कर मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती थी पर अब मै उसकी आवाज सुनने को तरस रही थी | उसे कैसे बुलाऊँ ? कई दिन बीत गये, मुझे अपनी बेबसी पर रोना आ गया..अपनी गलती कैसे सुधारूँ ? मुझे कुछ समझ नही आ रहा था अचानक ही मुझे धीरे से चीं-चीं की आवाज सुनाई दी | मैंने जल्दी से अपनी आँखें पोंछी और दबे पाँव जा दरवाजे की ओट से देखने लगी, मै सावधान थी इस बार कि कहीं मेरी आहट पा कर वो फिर से ना उड़ जाय | मैंने देखा, वो पानी पी रही थी, मेरा मन खिल उठा, असीम सुख की अनुभूति हुयी जैसे कोई रूठा हुआ वापस आ गया हो | मै धीरे से वापस अपनी जगह आ कर बैठ गई और उनकी उपस्थिति को महसूस करने लगी, धीरे-धीरे कई गौरैया आ गईं थीं |  उनकी आवाजें बता रही थीं कि पानी पीने कई गौरैया आ गयीं हैं | मेरा मन चहक उठा अचानक ही पानी का कटोरा छन्न से गिरा इस बार मै दौड़ कर बाहर आई मेरी और उनकी नजरें जैसे ही चार हुईं वो चीं-चीं करते हुए फुर्र से उड़ गयीं, मेरे मन में खुशी की फुलझडियाँ सी फूटने लगीं, मै मुस्कुरा कर उनका कटोरा उठा कर दोबारा भरने के लिए भीतर आ गई | मेरी नन्ही सखी ने मुझे माफ़ कर दिया था, अब वो फिर मेरे घर में चहक रही है और उसके साथ मै भी……… मेरी प्यारी सखी तुम यूँ ही आती रहना क्यों कि तुम्हारे बिना ये घर, घर नही लगता………….| मीना पाठक कानपुर (एक निवेदन—कृपया गौरैया के लिए अपने घर की छत पर या अपने छोटे से बगीचे में या अपने खुले बरामदे में दाना-पानी आवश्य रखें | रख कर देखिये अच्छा लगेगा |) यह भी पढ़ें …………. कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको  लेख “ओ री गौरैया !“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन

भतीजी की दूसरी वर्षगांठ पर अपने मायके बलिया जाने की तैयारी करते हुए पिछले वर्ष के स्मृति वन में खग मन विचरण रहा है ! पिछले वर्ष तीन दिनों के अंदर तीन जगह (  बलिया, जबलपुर, तथा हल्द्वानी ) आने का न्योता मिला था ! तीनों में किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था! 21नवम्बर को बलिया  ( मायके ) में भतीजी का पहला जन्मदिन, 23, 24 नवम्बर जबलपुर में चचेरे देवर के बेटे का विवाह और तिलक, और 24, 25 नवम्बर को मेरे फुफेरे भाई के बेटे ( भतीजे ) का तिलक और विवाह !  काफी माथापच्ची तथा परिजनों के सुझावों के बाद हम निर्णय ले पाये कि कहाँ कैसे जाना है!  बलिया तो मात्र तीन चार घंटे का रास्ता है इसलिए वहाँ निजी वाहन से ही हम 21 नवम्बर के सुबह ही चलकर पहुंच गये ! चुकीं भतीजी का पहला जन्मदिन था तो बहुत से लोगों को आमन्त्रित किया गया था! सभी रिश्तेदार तो आये ही थे गाँव से गोतिया के चाचा चाची भी आये थे! उन लोगों से मिलकर काफी अच्छा लग रहा था क्योंकि कभी कोई चाची अपने पास बुला कर बात करतीं तो कभी कोई , ऐसा लग रहा था मानो मैं पुनः बचपन में लौट आई हूँ!  एक चाची तो बहुत प्रेम से अपने पास बुला कर कहने लगीं.. ऐ रीना अब बेटा के बियाह कर ! मैंने कहा हाँ चाची करूंगी अभी बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है तो सोची कि कुछ टाइम दे ही दूँ! तो चाची समझाते हुए कहने लगीं रीना तू पागल हऊ, कवनो लइका लइकी अपने से बियाह करे के कहेला?  अब तू क द पतोहिया तोहरा संगे रही नू ( तुम बुद्धू हो, कोई लड़का लड़की खुद शादी करने को कहता है क्या..? शादी कर दोगी तो बहु तुम्हारे साथ रहेगी न..?)  चाची की ये बात सुनकर तो मुझे हँसी भी आने लगी कि जब बेटा ही बाहर रहता है तो  बहु कैसे मेरे साथ रह सकती है, लेकिन उनकी बातों को मैं हाँ में हाँ मिलाकर सुन रही थी और मजे ले रही थी !  खैर यात्रा का पहला पड़ाव जन्मदिन बहुत ही अच्छी तरह से सम्पन्न हुआ और मैं अपने साथ सुखद स्मृतियाँ लिये 22 नवम्बर को सुबह – सुबह ही पटना के लिए चल दी!  फिर 22 नवम्बर रात के ग्यारह बजे से दूसरी यात्रा जबलपुर के लिए ट्रेन से रवाना हुए हम और 23 नवम्बर को सुबह के करीब एक बजे पहुंचे!  तिलक शाम सात बजे से था ! बात ससुराल की थी इसलिए हम पाँच बजे ही तैयार वैयार होकर पहुंच गये विवाह स्थल पर ! वहाँ पहुंचते ही बड़े, बुजुर्गों तथा बच्चों के द्वारा स्नेह और अपनापन से जो स्वागत सत्कार हुआ उसका वर्णन शब्दों में कर पाना थोड़ा कठिन लग रहा है बस इतना ही कह सकती हूँ कि वहाँ मायके से भी अधिक अच्छा लग रहा था!  जैसे ही घर के अंदर पहुंच कर ड्राइंग रूम में सभी बड़ों को प्रणाम करके सोफे पर बैठी आशिर्वाद की झड़ी लग गई थी जिसे समेटने के लिए आँचल छोटा पड़ रहा था!  अभी चाय खत्म भी नहीं हुआ था कि एक चचिया सास आकर ए दुलहिन तबियत ठीक बा नू.. मैंने कहा हाँ…. तो बोलीं तनी ओठग्ह रह ( थोड़ा लेट लो ) मैने कहा नहीं नहीं बिल्कुल ठीक हूँ और मन में सोच रही थी कि ठीक न भी होती तो क्या तैयार होकर लेटने जाती.. अन्दर अन्दर थोड़ी हँसी भी आ रही थी..! तभी फिर से पाँच मिनट बाद आकर उसी बात की पुनरावृत्ति.. ए दुलहिन तनी ओठग्ह रह.. और फिर मैं मना करती रही…. यह ओठग्ह रह वाला पुनरावृति तो मैं जब तक थी हर पाँच दस मिनट बाद होता रहता था..यह कहकर कि तोहार ससुर कहले बाड़े कि किरन के तबियत ठीक ना रहेला तनी देखत रहिह (  किरण की तबीयत ठीक नहीं रहती है थोड़ा देखते रहना ) बस इतना ही तक नहीं  उस कार्यक्रम में मैं जहाँ जहाँ जाती वो चचिया सास जी बिल्कुल साये की तरह मेरे साथ होती थीं! और हर थोड़े अंतराल के बाद ओठग्ह रह और पानी चाय के लिए पूछने का क्रम चलता रहता था !  तिलक के बाद घर के देवी देवताओं की पूजा, हल्दी मटकोड़ आदि लेकर रात बारह बजे तक कार्यक्रम चला !  फिर हम सुबह जनेऊ में सम्मिलित होकर उन लोगों से बारात में सम्मिलित न हो पाने की विवशता बताकर क्षमा माँगते हुए  एयरपोर्ट के लिए निकल तो गये क्यों कि हल्द्वानी जाने के लिए दिल्ली पहुंचकर ही ट्रेन पकड़ना था लेकिन मन यहीं रह गया था! रास्ते भर वहाँ का अपनापन और प्रेम की बातें करके आनन्दित होते रहे हम!  हल्द्वानी भी पहुंचे!इतनी व्यस्ता और मना करने के बाद भी फुफेरे भैया हमें खुद स्टेशन से लेने आये थे ! यहाँ तो और भी इसलिए अच्छा लग रहा था कि बहुत से रिश्तेदारों से तीस बत्तीस वर्ष बाद मिल रही थी मैं इसलिए बात खत्म ही नहीं हो पा रही थी, सबसे बड़ी बात कि इतने अंतराल के बाद भी अपनापन और स्नेह में कोई कमी नहीं आई थी बल्कि और भी ज्यादा बढ़ गई थी!  मैं जब पहुंची थी तो मटकोड़ का कार्यक्रम चल रहा था!मैं जाकर भाभी का जब पैर छुई तो व्यस्त तो थीं ही बस यूँ ही खुश रहो बोल दीं! लेकिन जब ध्यान से देखीं तो बोलीं अरे रीना और आकर मुझसे लिपट गईं ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है बताने को फिर कभी लिखूंगी !  सच में खून अपनी तरफ़ खींचता ही है चाहे कितनी ही दूरी क्यों न हो!  इतना जरूर कहूंगी कि अपने फैमिली फंक्शन को मिस नहीं करनी चाहिए ! किरण सिंह  फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया यह भी पढ़ें ……… कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको  लेख “रिश्तों में मिठास घोलते  फैमिली फंक्शन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |