काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|” मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?” “इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा| मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, “नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|”  काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और ‘नीत्से’ को वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई | मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक – एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो ?  इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो | मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक –छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस “ खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद| यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े “अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|   मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |” ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या – क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |” शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था “ काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर – कर के कम करना ही पड़ेगा | एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को | मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने –अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता | अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से … Read more

भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में

हमारी पौराणिक कथाओं को जब नए संदर्भ में समझने की कोशिश करती हूँ तो कई बार इतने नए अर्थ खुलते हैं जो समसामयिक होते हैं l अब भस्मासुर की कथा को ही ले लीजिए l क्या थी भस्मासुर की कथा  कथा कुछ इस प्रकार की है कि भस्मासुर (असली नाम वृकासुर )नाम का एक असुर दैत्य था l क्योंकि असुर अपनी शक्तियां बढ़ाने के लिए भोलेनाथ भगवान शिव की पूजा करते थे l तो भस्मासुर ने भी एक वरदान की कह में शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की l आखिरकार शिव प्रसन्न हुए l शिव जी उससे वरदान मांगने के लिए कहते हैं l तो वो अमर्त्य का वरदान माँगता है l भगवान शिव उससे कहते हैं कि ये तो नहीं मिल सकता क्योंकि ये प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है l तुम कोई और वरदान मांग लो l ऐसे में भस्मासुर काफी सोच-विचार के बाद उनसे ये वरदान माँगता है कि मैं जिस के भी सर पर हाथ रखूँ  वो तुरंत भस्म हो जाए l भगवान शिव  तथास्तु कह कर उसे ये वरदान दे देते हैं l अब शिवजी ने तो उसकी तपस्या के कारण वरदान दिया था पर भस्मासुर उन्हें ही भस्म करने उनके पीछे भागने लगता है l अब दृश्य कुछ ऐसा हो जाता है कि भगवान भोले शंकर जान बचाने के लिए आगे-आगे भागे जा रहे हैं और भस्मासुर पीछे -पीछे l इसके ऊपर एक बहुत बहुत ही सुंदर लोक गीत है, “भागे-भागे भोला फिरते जान बचाए , काँख तले मृगछाल दबाये भागत जाए जाएँ भोला लट बिखराये, लट बिखराये पाँव लंबे बढ़ाए रे, भागत जाएँ … अब जब विष्णु भगवान ने भस्मासुर की ये व्यथा- कथा देखी l तो तुरंत एक सूदर स्त्री का मोहिनी रूप रख कर भस्मासुर के सामने आ गए l भस्मासुर उन्हें देख उस मोहिनी पर मग्ध हो गया और उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया l मोहिनी  ने तुरंत माँ लिया पर उसने कहा कि तुम्हें मेरे साथ नृत्य करना होगा l भस्मासुर ने हामी भर दी l उसने कहा कि नृत्य तो मुझे नहीं आता पर जैसे-जैसे तुम करती जाओगी मैं पीछे-पीछे करता जाऊँगा l नृत्य शुरू हुआ l जैसे- जैसे मोहिनी नृत्य करती जाती भस्मासुर भी नृत्य करता जाता l नृत्य की एक मुद्रा में मोहिनी अपना हाथ अपने सिर पर रखती है तो उसका अनुसरण करते हुए भस्मासुर भी अपना हाथ अपने सिर पर रखता है l ऐसा करते ही भस्मासुर भस्म हो जाता है l तब जा के शिव जी की जान में जान आती है l   भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में असुर और देव को हमारी प्रवृत्तियाँ हैं l अब भस्मासुर को एक प्रवृत्ति की तरह ले कर देखिए l तो यदि एक गुण/विकार को लें तब मुझे मुझे तारीफ में ये अदा नजर आती है l एक योग्य व्यक्ति कि आप तारीफ कर दीजिए तो भी वो संतुष्ट नहीं होगा l उसको अपनी कमजोरियाँ नजर आएंगी और वो खुद उन पर काम कर के उन्हें दूर करना चाहेगा l कई बार तारीफ करने वाले से भी प्रश्न पूछ- पूछ कर बुराई निकलवा लेगा और उनको दूर करने का उपाय भी जानना चाहेगा l कहने का तात्पर्य ये है कि वो तारीफ या प्रोत्साहन से तुष्ट तो होते हैं पर संतुष्ट नहीं l   परंतु अयोग्य व्यक्ति तुरंत तारीफ करने वाले को अपने से कमतर मान लेता है l उसके अहंकार का गुब्बारा पल भर में बढ़ जाता है l अब ये बात अलग है कि  तारीफ करने वाला भी शिव की तरह भस्म नहीं होता क्योंकि उसे उसकी मोहिनी यानि की कला, योग्यता बचा ही लेती है l   अलबत्ता भस्मासुर के बारे में पक्का नहीं कहा जा सकता l वो भस्म भी हो सकते हैं या कुछ समय बाद उनकी चेतना जागृत भी हो सकती है lऔर वो अपना परिमार्जन भी कर सकते हैं l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. यह भी गुज़र जाएगा ( motivational story in Hindi ) भविष्य का पुरुष जब राहुल पर लेबल लगा छिपा हुआ आम आपको लेख “भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में “कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन में प्रकाशित रचनाएँ और हमारा प्रयास पसंद आता है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें ताकि हमेंऔर अच्छा काम करने की प्रेरणा मिल सके l

दो पौधे

दो पौधे

बोध कथाओं में जीवन की जल्तिल बातों को सच्चे सरल ढंग से सुनाने का प्रचलन रहा है | अब जीवन की जटिलता बढ़ी है और नयी बोध कथाओं की भी | दो पौधे एक ऐसी ही कथा है | दो पौधे  या कहानी है दो बच्चों सोहन और मोहन की जो पड़ोस में रहते थे |  दोनों के घर एक गुरूजी आया करते थे | एक बार गुरूजी ने दो छोटे -छोटे गमले दोनों बच्चों को दिए | और उनके शयन कक्ष की खिड़की के बाहर रखवा दिए | गुरूजी ने कहा कि रोज सुबह जो पौधा पसंद हो उस पर पानी दो और जो ना पसंद हो उसे छोड़ दो, ताकि व्ही पौधा बढे जो तुम्हे पसंद हो | पर खिड़की से ही पानी डालना है | दोनों बच्चों ने हाँ में सर हिला दिया | मोहन ने ध्यान से पौधों के देखा और पसंद के पौधे पर रोज पानी डालने लगा | सोहन को ये काम बेकार सा लगा उसने सोचा कोई भी पौधा बढे है तो पौधा ही क्या  फर्क पड़ता है | वो रोज अनजाने में अंदाज से ही पानी दाल देता | एक रात जब वो सो रहा था तो उसके हाथ में बहुत तेजी से कुछ चुभा | उसने लाईट जला कर देखा नागफनी का पौधा खिड़की से निकल कर उसके कमरे में आ गया था | उसने काँटा निकाल कर दवाई लगा ली | दूसरे दिन जब वो मोहन को रात की घटना बताने गया तो देखा मोहन की खिड़की पर सूरज मुखी का फूल लहलहा  रहा है | और मिओहन उसे बहुत प्रेम से देख रहा है | सोहन का मन उदास हो गया | उसे लगा अगर गुरूजी उसे पहले ही बता देते तो वो भी सूरजमुखी के पौधे को पानी देता और उसे  चोट भी नहीं लगती | अगली बार जब गुरूजी आये तौसने यही बात गुरूजी से कही |गुरूजी ने कहा की जाओ मोहन को भी बुला लाओ तब बताता हूँ | सोहन दौड़ कर मोहन को बुला लाया | गुरूजी ने मोहन से कहा कि तुम्हे भी मैंने एक पौधा नागफनी का दिया था और एक सूरज मुखी का फिर तुम्हारा नागफनी का पौधा क्यों नहीं उगा | मोहन ने उत्तर दिया कि जब पौधे थोड़े थोड़े बड़े हो रहे थे तभी मैंने देख लिया और उसे पानी देना  छोड़  दिया | सोहन ने सर झुका कर कहा, ” मैं बिना देखे ही पानी देता रहा” | गुरूजी ने कहा कि ये पौधों में पानी देना तो मैंने एक गंभीर बात समझाने के लिए किया था | जिस तरह बिना देखे गलत पौधा बढ़ जाता है उसी तरह हमारा जीअवन भी गलत दिशा में बढ़ सकता है | नागफनी के पौधे की तरह चुभ सकता है | “वो कैसे?” दोनों बच्चों ने पूछा | अगर हम गलत विचारों भावनाओं को पानी देते चले जायेंगे तो वैसे ही लोग हमारे चरों और इकट्ठे होते जायेंगे | दुश्मनी के विचारों को पानी देने पर दुश्मन इकट्ठे होंगे | प्रेम के विचारों को पानी देने पर दोस्त आस पास इकट्ठे होंगे | “पर विचारों को पानी कैसे दिया जाता है गुरूजी ?” बच्चों ने पूछा | उनके बारे में निरंतर सोच कर, उन पर फोकस कर के | २४ घंटे जो ज्यादा सोचते हो जीवन वैसा ही होता चला जाएगा | मेहनत पर फोकस करोगे और म्हणत करने के अवसर सामने आयेंगे और आलस पर तो हाथ का काम भी छिन जाएगा | दोस्त पर फोकस करोगे तो दोस्त बढ़ेंगे और दुश्मनों पर फोकस करोगे तो दुश्मन |घन पर फोकस करोगे तो धन आएगा और निर्धनता पर ( यानी ककी धन खो जाने के भय से ग्रस्त ) फोकास करोगे तो निर्धनता आएगी | बच्चों को बात समझ में आने लगी कि केवल सही पौधे को पानी ही नहीं देना है ….सही विचारों को भी पानी देना है | ( यथा दृष्टि तथा सृष्टि के आधार पर ) आपको प्रेरक कथा “दो पौधे” कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराये | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो साइट को सबस्क्राइब करें और हमारा फेसबुक पेज लाइक करें ताकि रचनाएँ सीधे आपको मिल सकें | filed under- motivational stories, friends, focus, thought, thought of life  

सच्चा कलाकार

बात 2015 की है मुझे दिल्ली के लवली पब्लिक स्कूल के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर बच्चों और उनके पेरेंट्स को संबोधित करना था । अपनी बात में मैने बच्चों को एक प्रेरणादायक कहानी सुनाई । जिसे बाद में अध्यापिकाओं ने होमवर्क के तौर पर लिख कर लाने को कहा। कहानी इस प्रकार है..   एक समय की बात है,चार श्रेष्ठ गायक थे । दूर दूर तक उनकी ख्याति थी। लोग उन्हें अपने शहरों में बुलाया करते थे । वो भी जाते और मन से गायन करते । एक बार उन्हें एक जगह से गायन का मौका मिला। उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी । भाग्य की बात उस दिन बहुत तेज आंधी तूफान आया,ओले पड़े । आसपास के पेड़ उखड़ गए । कार्यक्रम का समय हो गया और केवल चार श्रोता आये । अब जब चारों प्रस्तुति देने मंच पर गए तो केवल चार लोगों को देख कर निराश हुए ।उनमें से तीन ने यह कह कर प्रस्तुति देने से मना कर दिया कि इन चार लोगों के लिए हम अपना गला क्यों दुखाएं लेकिन चौथे का दृष्टिकोण सकारात्मक था । उसने कहा कि जो चार व्यक्ति इतने आंधी तूफान के बावजूद मुझे सुनने आये हैं वो कितने बड़े कला प्रेमी होंगे । में कला के प्रति उनके प्रेम का सम्मान करता हूँ और में उनका हृदय नहीं तोड़ सकता । उसने मंच की प्रस्तुति दी । झूम झूम कर वैसे ही गाया जैसे हॉल भरा होने पर गाता । कर्यक्रम समाप्त हुआ । अगले दिन वो जाने की तैयारी कर रहे थे कि एक व्यक्ति चिट्ठी ले कर आया । उसने मंच पर प्रस्तुति देने वाले व्यक्ति को ढेर सारे उपहार देते हुए चिट्ठी दी कि आप को राजा ने अपने दरबार में प्रस्तुति के लिए बुलाया है । दरसल कल हमारे राजा भेष बदल कर आपका गायन सुनने आये थे। यह बात बच्चों से से इसलिये कही की जब हम अपना काम पूरी श्रद्धा व ईमानदारी से कर रहे होते हैं तो कभी न कभी कोई ना कोई पारखी मिल ही जाता है । वंदना बाजपेयी 

नव वर्ष यानी आपके हाथ में हैं नए 365 दिन

जब भी नव वर्ष  आता है तो अपने साथ लाता है नए 365 दिन | एक नया कोरा पन्ना  …जिसे हम अपने हिसाब से रंग सकते हैं | लेकिन इस रंगने के लिए जरूरी है संकल्प फिर इच्छाशक्ति और फिर मेहनत …जानते हैं कैसे ? नव वर्ष यानी आपके हाथ में हैं नए 365 दिन  सबसे पहले तो मैं आप को सुना रही हूँ …एक प्रेरक कथा | ये कहानी हैं एक साधू और एक नास्तिक की | एक गाँव में एक साधू आये थे | वो रोज शाम को प्रवचन देने | अच्छे बुरे का ज्ञान देते | वो कोई चमत्कार नहीं करते थे | ना ही किसी की बिमारी ठीक करते थे | परन्तु उनकी वाणी में ओज होने के कारण लोग उनकी बाते सुनते थे | वो मुख्यत : लोगो को सोच बदलने की प्रेरणा देते थे | लोगों को उनकी बातें बहुत अच्छी लगतीं | शुरू -शरू में तो उनके पास दो चार आदमी ही बैठते लेकिन धीरे -धीरे भीड़ बढ़ने लगी | शाम को लगभग पूरा गाँव उनको सुनने जाने लगा | दिन में भी उन्हीं के बारे में बातें होती  थी | गाँव में बस एक नास्तिक आदमी था, जो उनके पास नहीं जाता था | उसे उनकी बातें अच्छी नहीं लगती थीं }| वो चाहता था कि गाँव के लोग भी उनकी बातें नहीं सुने |  उसने बहुत बार समझाने का प्रयास भी किया पर वही ढ़ाक  के तीन पात | कोई उस्की बात मानता ही नहीं | आखिरकार उसे एक युक्ति सूझी | उसने सोचा कि इसका इस्तेमाल करके वो साधू को गाँव वालों के सामने झूठा सिद्ध कर देगा | इसके लिए वो एक कबूतर लेकर साधू के पास गया | उसने कबूतर को हल्का सा नशीला पदार्थ खिलाया हुआ था | जिसने कारण कबूतर थोडा सुन्न सा था | उसने कबूतर की गर्दन पकड रखी थी | उसने सोचा था कि वो साधू से पूछेगा कि “ये कबूतर जिन्दा है या नहीं ?” अगर साधू कहेगा जिन्दा है तो वो उसकी गर्दन दबा देगा और कहेगा कि ये तो मरा हुआ है | अगर साधू कहेगा तो वो उसे मक्त कर देगा और जब वो थोड़े पर फडफडायेगा तो कहेगा कि ये तो जिन्दा है | उसकी जीत निश्चित थी | साधू को सबके सामने झूठा सिद्ध करना निश्चित था | वो बहुत मन से गया | और साधू के पास जाकर वही प्रश्न पूछा | साधू ने उसकी तरफ देखा और कहा, ” बेटा ये तेरे हाथ में है | तू चाहे तो जिन्दा है, ना छह तो मृत |” नास्तिक साधू की बात के आगे निरुत्तर हो गया | …………… नए साल पर ये कहानी इसलिए कि हमारे हाथ में ३६५ दिन हैं हम चाहे तो उन्हें आबाद करें …चाहे तो बर्बाद करें | अगर             हर जाता हुआ साल अच्छे-बुरे अनुभवों की एक थाती हमें सौंप जाता है | हर आने वाला साल हमें यह अवसर देता है कि हम उन अनुभवों का लाभ उठाकर पहले से बेहतर बनें, संवेदनशील बने और रचनात्मक बनें | ऐसी ही आशा, उम्मीदों के साथ, एक नए प्रयास की शुरुआत करता ये नया  वर्ष आप सभी को मुबारक हो |  

कड़वा सच

कहने वाले कहते हैं कि जब शेक्सपीयर ने लिखा था कि नाम में क्या रखा है तो उसने इस पंक्ति के नीचे अपना नाम लिख दिया था | वैसे नाम नें कुछ रखा हो या ना रखा हो नाम हमारे व्यक्तित्व का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है | इतना की कि इसके आधार पर नाम ज्योतिष नामक ज्योतिष की की शाखा भी है | कई माता -पिता कुंडली से अक्षर विचारवा कर ही बच्चे का नाम रखते हैं | लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो फैशन के चलन का नाम रख देते हैं तो कुछ लीक से अलग रखने की | ऐसा ही एक नाम मैंने एक बार सुना था ‘विधुत’ सुन कर अजीब सा लगा था | खैर नाम रखना अलग बात है और नाम का अर्थ जानकार नाम  रखना अलग बात |  इस विषय पर काका हाथरसी की कविता नाम -रूपक भेद की कुछ कुछ पंक्तियाँ  पढने के बाद ही पढ़िए , नाम के बारे में एक कडवा सच … मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप  श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप  जैसे खिलती धूप , सजे बुशर्ट पैंट में  ज्ञानचंद छ: बार फेल हो गए टेंथ में  कह काका ज्वालाप्रसाद जी बिलकुल ठंडे  पंडित शान्तिरूप चलाते देखे डंडे  कड़वा सच  शुक्रवार ,1 नवम्बर 2019  को अपने कार्य से मैं एस बी आई बैंक के मैनेजर से जब मिली,उस समय एक नौजवान , जिसकी उम्र मेरे अनुमान से करीब चौबीस वर्ष के आस – पास रही होगी ,मैनेजर से कह रहा था कि उसै बैंक के लिए आवास बनाने हैं ,अतः उसे लोन चाहिए। मैनेजर उसे उस आॅफीसर का पता एवं फोन नम्बर बता रहीं थीं जिनके द्बारा उसे लोन मिल सकता था। इसी संदर्भ में उन्होने उससे उसका नाम पूछा।उसने अपना नाम मीनाशुं बताया। जब मैनेजर ने उससे उसके नाम का अर्थ जानना चाहा तो उसका उत्तर सुनकर मैं चौंक गई । उसने कहा उसे इस नाम का अर्थ नहीं मालूम। उसे इतना पता है कि उसके नाम का सम्बन्ध उसकी माँ से है ।यह सुनकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे पूँछ ही लिया ‘तुम्हारी माँ का क्या नाम है?’ उसने कहा ,’मीना।’ मैंने कहा मीना + अंशु = मीनांशु । अंशु मायने सूर्य होता है। यानी तुम अपनी माँ के लिए सूर्य के समान हो। फिर मैंने उससे कहा कि हम हिन्दुस्तानी हैं , हिन्दी भाषी हैं ,हमें अपने नाम का अर्थ तो पता होना ही चाहिए । अब किसी से यह मत कहना कि तुम्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम? वह मुस्करा दिया।                         किन्तु इस घटना ने मुझे कितना कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। हमारे यहाँ ऐसे भी नौजवान हैं ,जिन्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम?यह मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं था । कभी घर के लोगों ने या कभी किसी शिक्षक ने भी नहीं पूछा ? निश्चय ही नहीं। हमें याद आया हमारी शिक्षिकाओं ने भी तो कभी हमसे हमारे नाम का अर्थ नहीं पूछा। सब यह मान कर ही चलते होगें कि यह तो बच्चे जानते ही होगें या फिर इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया।और तो और मैनेजर साहिबा ने भी इस बात पर कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। उन्हे इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ा ,जब कि कुछ दिनों पहले ही हिन्दी दिवस मनाया गया है। शायद उन्हे भी इसका अर्थ मालूम न हो अथवा यह उनके कार्य का हिस्सा नहीं।         मुझे अभिभावकों से  यह कहना है कि वह ही बच्चे का नाम रखते हैं ,अतः उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह जानें कि बच्चे को उसके नाम का अर्थ मालूम है कि नहीं ? शिक्षकों से भी मैं कहना चाहूँगी कि वह इस बात पर गौर करें। उषा अवस्थी                                                                           यह भी पढ़ें … बचपन की छुट्टियाँ और नानी का घर अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको  संस्मरण  “ कड़वा सच    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Name, memoirs, what is the meaning of name, advice

धनतेरस पर करें आरोग्य की कामना

चलो जलाए आज हम , सखि द्वारे पर दीप। तम को जो मेटे सदा , उजला सौम्य प्रदीप। उजला सौम्य प्रदीप , स्वास्थ्य का सुख धन लाये । रोग-व्याधि हों दूर , कमलिनी मन हर्षाये । देख स्वास्थ्य सुख शांति , पास यमदूत न आयें। धन्वंतरि को पूज , चलो हम दीप जलायें।। धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी

डूबते को तिनके का सहारा

कहते हैं ‘डूबते को तिनके का सहारा होता है |” कई बार हमारी छोटी सी मदद, छोटी सी बात , या छोटा सा सहयोग किसी दूसरे की जिन्दगी बदल सकता है | ये ऐसे होता है कि हमें पता भी नहीं चलता | संभावना इस बात की भी नहीं होती कि अनजाने हमने जिसकी मदद कर दी है वो कभी हमें मिलेगा भी | फिर भी कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो दूसरों की मदद कर उनकी जिन्दगी संवारने के हमारे विश्वास को दृण कर देते हैं |  डूबते को तिनके का सहारा  कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं आपकी सोच को एक दिशा देती हैं | कल भी एक ऐसी ही घटना घटी | घटना का जिक्र करने के लिए दो साल  पीछे जाना पड़ेगा |  मैं अपनी बेटी के साथ डॉक्टर के यहाँ ब्लड टेस्ट के लिए गयी हुई थी | वहाँ  अन्य महिलाएं भी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहीं थी | उन्हीं में से वो महिला भी थी | जो अपनी फर्स्ट प्रेगनेंसी के लिए अल्ट्रासाउंड कराने आई थी | वो महिला बहुत खूबसूरत और साधारण परिवार से थी | महिला रंग गहरा साँवला या काला कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा, था | बगल में बैठा उसका पति जो काफी गोरा चिट्टा था, लगभग हर गोरी महिला को घूर रहा था | ये घूरना इतना स्पष्ट था की उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था | बीच –बीच में वो उपेक्षा से अपनी पत्नी से कुछ कह देता जो हम लोग सुन नहीं पा रहे थे पर समझ रहे थे | हालाँकि वो हौले –हौले मुस्कुरा रही थी | क्योंकि हम सब को समय काटना था | तो कोई किताब पढने लगा कोई बातों में व्यस्त हो गया | मेरी बेटी एक कागज़ पर स्केचिंग करने लगी | कुछ फूल पत्ती बनाने के बाद उसने उस महिला का स्केच बनाया | हमारी बारी पहले आई और हम जाने लगे तो बेटी ने वो स्केच उसे देते हुए कहा, “आप बहुत ही खूबसूरत हैं, इसलिए मैं ये स्केच बनाने से खुद को रोक नहीं पायी | आप अपनी स्माइल को हमेशा बनाए रखियेगा |”  उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी के भाव छोड़कर हम घर आ गए | अभी कल वो अचानक से मिल गयी | दूर से देख कर जोर से हाथ हिलाया | मुझे पहचानने में थोड़ा वक्त लगा, उतने में वो मेरे पास आ कर बोली, “नमस्ते आंटी बेटी कैसी है आपकी ? मेरे भी बेटी हुई है |” मैंने उसे बधाई दी | वो फिर मुस्कुराते हुए बोली, “उस दिन आप की बेटी ने मेरा स्केच बनाया था | उसको धन्यवाद भी नहीं दे पायी | रंग की वजह से मैं अपने को काफी बदसूरत समझती थी | मेरे पति और परिवार वाले भी यही समझते थे |कई बार ताने मिलते थे | मेरा आत्मसम्मान और आत्मविश्वास बहुत लडखडाया हुआ था | उस दिन पहली बार महसूस हुआ कि मैं भी सुंदर लग सकती हूँ | ऐसा ही शायद मेरे पति को भी लगा | उनके ताने कम होने लगे | आज भी वो स्केच मेरे पास है | जब कभी आत्मविश्वास डिगता है तो उसे देख लेती हूँ और “अपने चहेरे पर ये स्माइल बनाए रखियेगा” ये शब्द याद कर लेती हूँ | मेरी तरफ से उसे धन्यवाद दे दीजियेगा |” कई बार हमारा आत्मविश्वास हमारे अपने तोड़ते हैं | ऐसे में किसी के शब्द बहुत हिम्मत दे जाते हैं | कल से महसूस हुआ कि जब भी जहाँ भी मौका लगे ये तिनका बननेकी कोशिश करनी चाहिए |  जीना इसी का नाम है … वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … माँ के सपनों की पिटारी भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको संस्मरण   “डूबते को तिनके का सहारा  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:help people, help someone, helping hand, healing, confidence, self worth

मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा

फोटो क्रेडिट -आउटलुक इंडिया .कॉम गाँधी जी आज भी प्रासंगिक है | गाँधी जी के विचार आज भी उतने ही सशक्त है | हम ही उन पर नहीं चलना चाहते | पर एक नन्ही बच्ची मुन्नी ने उन पर चल कर कैसे अपने अधिकार को प्राप्त किया आइये जाने इस काव्य कथा से … मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा  मुन्नी के बारे में आप नहीं जानते होंगे कोई नहीं जानता कितनी ही मुन्नियाँ हैं बेनाम सी पर एक नाम होते हुए भी ये मुन्नी थी कुछ अलग जो जमुनापार झुग्गीबस्ती में रहती थी अपनी अम्मा-बाबूजी और तीन बहनों के साथ अम्मा के साथ झुग्गी बस्ती में रोज चौका -बर्तन करते बड़े घरों की फर्श चमकाते जब ब्याह दी गयीं थी तीनों बहने तब मुन्नी स्लेट पट्टी पकड़ जाती थी पास के स्कूल में पढने मुन्नी की नज़रों में था पढने का सपना एक -एक बढती कक्षा के साथ इतिहास की किताब में  मुन्नी ने पढ़ा था गाँधी को , पढ़ा था, आमरण अनशन को, और जाना था अहिंसा की ताकत को वो अभी बहुत पढना चाहती थी, पर मुन्नी की माँ की आँखों में पलने  लगा सपना मुन्नी को अपने संग काम पर ले जाने का  कद हो गया है ऊँचा, भर गया है शरीर , सुनाई देने लगी खनक उन पैसों की जो उसे मिल सकते थे काम के एवज में चल जाएगा घर का खर्चा, जोड़ ही लेगी खुद का दहेज़ अपनी तीनों बहनों की तरह …आखिर हाथ तो पीले करने ही हैं बिठा कर थोड़ी ना रखनी है लड़की अम्मा की बात पर बापू ने सुना दिया फरमान बहुत हो गयी पढाई , अब कल से जाना है अम्मा के साथ काम पर दिए गए प्रलोभन उन बख्शीशों के जो बड़े घरों में मिल जाती है तीज त्योहारों पर मुन्नी रोई गिडगिड़ाई ” हमको पढना है बापू, हमको पढना है अम्मा, पर बापू ना पसीजे और अम्मा भी नहीं ठीक उसी वक्त मुन्नी को याद आ गए गाँधी और बैठ गयी भूख हड़ताल पर शिक्षा  के अधिकार के लिए एक दिन,  दो दिन, पाँच दिन सात दिन गले के नीचे से नहीं उतारा निवाला अम्मा ने पीटा , बापू ने पीटा पर मुन्नी डटी रही अपनी शिक्षा  के अधिकार के लिए आखिरकार एक दिन झूके बापू और कर दिया ऐलान मुन्नी स्कूल जायेगी , शिक्षा  पाएगी मुन्नी स्कूल जाने लगी … और करने लगी फिर से पढाई इस तरह वो मुन्नी हो गयी हज़ारों मुन्नियों  से अलग बात बहुत छोटी  है पर सीख बड़ी गर संघर्ष हो सत्य  की राह पर तो टिके रहो , हिंसा के विरुद्ध भूख के विरुद्ध सत्ता के विरुद्ध यही बात तो सिखाई थी गांधी ने यही तो था कमजोर की जीत का मन्त्र कौन कहता है कि आज गाँधी प्रासंगिक नहीं … सरबानी सेन गुप्ता यह भी पढ़ें …  रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, gandhi jayanti, Mahatma Gandhi, 2 october, gandhigiri, गाँधी , गाँधीवाद 

श्राद्ध की पूड़ी

श्राद्ध  पक्ष यानी अपने परिवार के बुजुर्गों के प्रति सम्मान प्रगट करने का समय | ये सम्मान जरूरी भी है और करना भी चाहिए | पर इसमें कई बार श्रद्धा के स्थान पर कई बार भय हावी हो जाता है | भय तब होता है जब जीवित माता -पिता की सेवा नहीं की हो | श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा के साथ -साथ जो भय रहता है ये कहानी उसी पर है | श्राद्ध की पूड़ी  निराश-हताश बशेसरी  ने आसमान की ओर देखा | बादल आसमान में मढ़े  हुए थे | बरस नहीं रहे थे बस घुमड़ रहे थे | उसके मन के आसमान में भी तो ऐसे ही बादलों के बादल घुमड़ रहे थे , पर बरस नहीं रहे थे | विचारों को परे हटाकर उसने हमेशा की तरह लेटे -लेटे पहले धरती मैया के पैर छू कर,”घर -द्वार, परिवार  सबहीं की रक्षा करियो धरती मैया ” कहते हुए  दाहिना पैर जमीन पर रखा | अम्मा ने ऐसा ही सिखाया था उसको | एक आदत सी बना ली है | पाँच -छ : बरस की रही होगी तब से धरती मैया के पाँव छू कर ही बिस्तरा छोड़ती है | पर आज उठते समय चिंता की लकीरे उसके माथे पर साफ़ -साफ़ दिखाई दे रहीं थी | आज तो हनाय कर  ही रसोई चढ़ेगी | रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध जो है | पाँच  बरस हो गए उन्हें परलोक गए हुए |  पर एक खालीपन का अहसास आज भी रहता है | श्राद्ध पक्ष  लगते ही जैसे सुई से एक हुक सी  कलेजे में पिरो देता है | पिछले साल तक तो सारा परिवार मिल कर ही श्राद्ध करता था | पर अब तो बड़ी बहु अलग्ग रहने लगी है | कितना कोहराम मचा था तब | मझले गोविन्द से अपनी  बहन के ब्याह की जिद ठाने है | अब गोविन्द भी कोई नन्हा लला है जो उसकी हर कही माने | रहता भी कौन सा उसके नगीच है | सीमापुरी में रहता है | वहीँ डिराइवरी का काम मिला है | रोज तो मिलना होता नहीं | मेट्रो से आने -जाने में ही साठ रुपैया खर्चा हो जाता है | दिन भर की भाग -दौड़ सो अलग | ऐसे में कैसे समझाए | फिर आज -कल्ल के लरिका-बच्चा मानत हैं क्या बुजर्गन की | अब उसकी राजी नहीं है तो वो बुढ़िया क्या करे ? पर बहु को तो उसी में दोष नज़र आता है | जब जी आये सुना देती है | सात पुरखें तार देती है | यूँ तो सास -बहु की बोलचाल बंद ही रहती है पर मामला श्राद्ध का है | मालिक की आत्मा को तकलीफ ना होवे ई कारण कल ही तो उसके द्वारे जा कर कह आई थी कि,  “कल रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध है , घरे आ जइयो, दो पूड़ी तुम भी डाल दियो तेल में | रामनाथ तो करिए ही पर रामधुन  बड़का है , श्राद्ध  कोई न्यारे -न्यारे थोड़ी ही करत है | आखिर बाबूजी कौरा तो सबको खिलाये रहे | पर बहु ने ना सुनी तो ना सुनी | घर आई सास को पानी को भी ना पूछा | मुँह लटका के बशेसरी अपने घर चली आई | बशेसरी ने स्नान कर रसोई बनाना शुरू किया | खीर,  पूड़ी , दो तरह की तरकारी, पापड़ …जब से वो और रामनाथ दुई जने रह गए हैं तब से कुछ ठीक से बना ही नहीं | एक टेम का बना कर दोनों टेम  का चला लेती है | हाँ रामनाथ की चढ़ती उम्र के कारण कभी चटपटा खाने का जी करता है तो ठेले पर खा लेता है | उसका तो खाने से जैसे जी ही रूसा गया है | खैर  विधि-विधान से रामनाथ के हाथों श्रद्ध कराया | पंडित को भी जिमाया | सुबह से दो बार रामधुन की बहु को भी टेर आई | पर वो नहीं आई | इंतज़ार करते -करते भोर से साँझ हो आई | पोते-पोती के लिए मन में पीर उठने लगी | बाबा को कितना लाड़ करते थे | अब महतारी के आगे जुबान ना खोल पा रहे होंगे | बहुत देर उहापोह में रहने के बाद उसने फैसला कर लिया कि वो खुद ही दे आएगी  उनके घर | न्यारे हो गए तो क्या ? हैं तो इसी घर का हिस्सा |  बड़े-बड़े डोंगों में तरकारी और खीर भर ली | एक बड़े से थैले में पूरियाँ भर ली | खुद के लिए भी नहीं बचायी | रामनाथ तो सुबह खा ही चुका  था | लरिका -बच्चा खायेंगे | इसी में घर की नेमत है | दिन भर की प्रतीक्षारत आँखें बरस ही पड़ीं आखिरकार | जाते -जाते सोचती जा रही थी कि कि बच्चों के हाथ में दस -दस रूपये भी धर देगी | खुश हो जायेंगे | दादी -दादी कह कर चिपट पड़ेंगे | जाकर दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगायी, ” रामधुन, लला , तनिक सुनो तो …” रामधुन ने तो ना सुनी | बहु चंडी का रूप धर कर अवतरित हो गयी | “काहे-काहे चिल्ला रही हो |” ” वो श्राद्ध की पूड़ी देने आये हैं |” ” ले जाओ, हम ना खइबे | लरिका-बच्चा भी न खइबे | बहु तो मानी  नहीं हमें | तभी तो हमारी बहिनी से गोविन्द का ब्याह नहीं कराय रही हो | अब जब तक हमरी  बहिनी ई घर में ना आ जाए हमहूँ कुछ ना खइबे तुम्हार घर का | ना श्राद्ध, न प्रशाद | कह कर दरवाजे के दोनों कपाट भेड़ लिए | बंद होते कपाटों से पहले उसने कोने में खड़े दोनों बच्चे देख लिए थे | महतारी के डर से आये नहीं | बुढ़िया की आँखें भर आयीं | पल्लू में सारी  लानते -मलालते समेटते हुए घर आ आई | बहुत देर तक नींद ने उससे दूरी बनाये रखी | पुराने दिनों  की यादें सताती रहीं | क्या दिन थे वो जब मालिक का हुकुम चलता था | मजाल है कि बहु पलट कर कुछ कह सके | आज मालिक होते तो बहु की हिम्मत ना होती इतना  कहने की | सोचते -सोचते पलकें झपकी ही थीं कि किसी  द्वार खटखटाने की आवाज़ आने लगी | … Read more