एक छोटी सी कोशिश

हमारे देश में बड़ी -बड़ी बातों को  लोक कथाओं के माध्यम  से समझाया गया है | आज ऐसी ही एक लोक कथा पर नज़र पड़ी | जो एक बहुत खूबसूरत सन्देश दे रही थी | तो आज ये  छोटी सी लोक कथा आप सब के लिए … एक छोटी सी कोशिश  एक नन्हीं चिड़िया थी | वो जंगल में रहती थी | रोज सुबह वो दाना ढूँढने निकलती | उसके रास्ते में एक ऋषि का आश्रम पड़ता था | वहां पेड़ पर बैठ वो थोड़ी देर सुस्ताती | इसी बीच ऋषि के प्रवचन उसके कान में पड़ जाते |धीरे –धीरे उसको उन प्रवचनों में आनंद आना लगा और वो ध्यान से सुनने लगी | जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन आने लगा | एक दिन जंगल में आग लग गयी | सभी जानवर इधर उधर भागने लगे | किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करा जाए | तब वो नन्हीं चिड़िया उस जंगल के सरोवर से अपनी चोंच में पानी भरभर के लाने लगीऔर आग पर डालने लगी | उसे देखकर अन्य चिड़ियों ने उसे समझाया, “ यहाँ क्यों समय बर्बाद कर रही हो | उड़ जाओ, शायद तुम्हारा जीवन बच जाए | वैसे भी तुम्हारे इन प्रयासों से ये आग तो बुझेगी नहीं | तब चिड़िया ने कहा,  “ आप ठीक कहती हैं पर मैं चाहती हूँ कि जब इतिहास लिखा जाए तो मेरा नाम मदद करने वालों में लिखा जाए तमाशा देखने वालों में नहीं |” यूँ तो ये कहानी बहुत छोटी सी है पर बात बहुत गहरी है | जब भी कोई विपत्ति या समस्या आती है, तो हमें लगता है, हमारी क्षमता तो बहुत कम है | हम तो अकेले हैं | ऐसे में हम क्या मदद कर सकते हैं | कई बार किसी एक्सीडेंट के होने पर  हम सब भीड़ में खड़े होकर शोर तो मचाते हैं पर सोचते हैं मदद के लिए शायद कोई दूसरा हाथ आगे आये | कई बार अपनी क्षमता पर संदेह भी होता है कि क्या हम कर पायेंगे | साइकोलॉजी की भाषा में इसे bystander effect कहते हैं | जब किसी घटना या दुर्घटना में बहुत सारी भीड़ इकट्ठी हो जाती है पर हर किसी को लगता है कि वो अकेले कोई क्या कर पायेगा, मदद कोई दूसरा करे | ऐसे में जितनी ज्यादा भीड़ होती है, ये भावना उतनी ही प्रबल होती है | कई बार इस कारण जरूरतमंद को मदद मिल ही नहीं पाती | लेकिन हर एक व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी होती है …. 1)      पर्यावरण बिगड़ रहा है पर एक मेरे पौधा ना लगाने से क्या  होगा ? 2)      खाली मैं पॉलीथीन बैग ले भी जाऊ तो क्या होगा ? 3)      आखिर मेरे कार रोज धो लेने से कितना पानी खर्च होगा ? 4)      सड़क पर सिर्फ मेरे कूड़ा फेंक देने से पूरी सड़क थोड़ी ही न गन्दी हो जायेगी ? 5)      अगर मैं दुर्घटना के समय वीडियो बना रहा था तो क्या हुआ , दूसरे तो थे मदद करने को ? 6)      अगर मैंने आज कश्मीर की लड़कियों का मजाक बना दिया तो क्या हुआ इतने लोग तो है जो उन्हें इज्जत दे रहे हैं ? 7)      धारा 370 हटने पर मैं बहुत खुश हूँ पर ये सिर्फ मेरी जिम्मेदारी नहीं है कि कश्मीरियों का दिल जीतने या उनके साथ अच्छे रिश्ते बनाने की पहल करूँ ? किसी बात, नियम व्यवस्था पर खुश होना और जिम्मेदार होना दो अलग बातें हैं हमें तय करना होगा कि हम क्या चाहते हैं जब इतिहास  लिखा जाए तो हमारा नाम तमाशा देखने वालों में दर्ज हो या मदद करने वालों में ? हमें भीड़ के bystander effect को समझना होगा | भीड़ में हमारी ही तरह बहुत से लोग अपने को छोटा और कमजोर समझ कर पहल नहीं करते | पर भीड़ का हिस्सा होते हुए भी हम सब का अलग –अलग बहुत महत्व है | जरूरत है बस अपने हिस्से भर की छोटी सी कोशिश करने की …     यह भी पढ़ें … मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ एक छोटी सी कोशिश “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:bystander effect, personal role, effort, effect of cumulative efforts

भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधायक की पुत्री साक्षी के भागकर अजितेश से विवाह करने की बात मीडिया में छाई हुई है | भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के लिए ही इस्तेमाल होता है | जब लड्का अपने मन से विवाह करता है तो भागना शब्द इस्तेमाल नहीं होता है | लेकिन इस प्रकरण ने स्त्री जीवन के कई मुद्दों को फिर से सामने कर दिया है | मुद्दा ये भी उठ रहा है कि लड़कियों को विवाह की अपेक्षा अपना कैरियर बनाने के लिए भागना चाहिए |  आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती हैं कि, ” जब लड़की भागती है तो उसका उद्देश्य विवाह ही होता है अपने सपनों के लिए तो लड़की अकेले ही घर से निकल पड़ती है |”  तो .. भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  सपनों के पीछे भागती लडकियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं | ऐसी ही एक लड़की है राखी,  जो मेरी घरेलु सहायिका आरती  की बेटी है | रक्षा बंधन के दिन पैदा होने के कारण उसका नाम राखी रख दिया गया | राखी का कहना है कि मैं घर में सबसे बड़ी हूँ इसलिए सबकी रक्षा मुझे ही तो करनी है | बच्ची का ऐसा सोचना आशा से मन को भरता है | समाज में स्त्री पुरुष का असली संतुलन तो यहीं से आएगा |  राखी की माँ आरती निरक्षर है, लेकिन राखी सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं | अभी तक हमेशा प्रथम आती रही है, जिसके लिए उसे स्कूल से ईनाम भी मिलता है | कभी –कभी मेरे पास पढ़ने  आती है, तो उसकी कुशाग्र बुद्धि देख कर ख़ुशी होती है | आसान नहीं होता गरीबी से जूझते ऐसे घर मे सपने देखने की हिम्मत करना | जब कि हम उम्र सहेलियां दूसरों के घर में सफाई बर्तन कर धन कमाने लगीं हो और उनके पास उसे खर्च करने की क्षमता भी हो | तब तमाम प्रलोभनों से मन मार कर पढाई में मन लगाना |  फिर भी राखी की आँखों में सपना है | उसका कहना है कि  बारहवीं तक की पढाई अच्छे नंबरों से कर के एक साल ब्यूटीशियन का कोर्स करके अपने इलाके में  एक पार्लर खोलेगी | पार्लर ही क्यों ? पूछने पर कहती है कि , “पार्लर   तो घर में भी खोला जा सकता है, महिलाएं ही आएँगी, माँ कहीं भी शादी कर देगीं तो इस काम के लिए कोई इनकार नहीं करेगा |” बात सही या गलत की नहीं है उसकी स्पष्ट सोच व् अपने सपने को पूरा करने की ललक है |  मैंने अपनी सहायिका  को सुकन्या व् अन्य  सरकारी, गैर सरकारी  योजनाओं के बारे में बताया है | कई बार साथ भी गयी हूँ |आरती को मैं अक्सर ताकीद देती रहती हूँ उसकी पढ़ाई  छुडवाना नहीं | वो भी अब शिक्षा के महत्व को समझने लगी है | कई बार जरूरी कागजात बनवाने के लिए वो छुट्टी भी ले लेती है , जिससे बर्तनों की सफाई का काम मेरे सर आ जाता है, पर उस दिन वो मुझे जरा भी नहीं अखरता | एक बच्ची के सपने पूरे होते हुए देखने का सुख बहुत बड़ा है |  खूब पढ़ो, मेहनत करो राखी तुम्हारे सपने पूरे हों | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  नोट – भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के ही साथ जुड़ा है , वैसे भी इसके सारे दुष्परिणाम लड़कियों के ही हिस्से आते हैं | मामला बड़े लोगों का हो या छोटे लोगों का, मायके के साथ संबंध तुरंत टूट जाते हैं | भागते समय अबोध मन को यह समझ नहीं होती कि कोई भी रिश्ता दूसरे रिश्ते की जगह नहीं ले सकता | फिल्मे चाहे कुछ भी कहें पर वो रिश्ते बहुत उलझन भरे हो जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति पर सारे रिश्ते निभाने का भार हो | माता -पिता भाई बहन के रिश्ते खोने की कसक जिन्दगी भर रहती है | जिसके साथ गयीं हैं उसके परिवार वाले कितना अपनाएंगे कितना नहीं इसकी गारंटी नहीं होती | जिसको जीवनसाथी के तौर पर चुना है उसके ना बदल जाने की गारंटी भी नहीं होती | ऐसे में अधूरी शिक्षा के साथ अगर लड़की ऐसा कोई कदम भावावेश में उठा लेती है और परिस्थितियाँ आगे साथ नहीं देतीं तो उसके आगे सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | लड़कियों के लिए बेहतर तो यही होगा पहले आत्मनिर्भर हों , अपना वजूद बनाएं फिर अपनी पसंद के जीवन साथी के बारे में सोचें | ऐसे में ज्यादातर माता -पिता की स्वीकृति मिल ही जाती है और अगर नहीं मिलती तो भी भागना जैसा शब्द नाम के आगे कभी नहीं जुड़ता | एक कैद से आज़ाद होने के ख्याल से दूसरी कैद में मत जाओ | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी जब राहुल पर लेबिल लगा भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:key to success , girls, dreams, sakshi mishra, motivation

मेरा पैशन क्या है ?

                                           मेरा पैशन क्या है    पैशन यानि वो काम जिसे हम अपने दिल की ख़ुशी के लिए करते हैं | लेकिन जब हम उस काम को करते हैं तो कई बार महत्वाकांक्षाओं के कारण या अतिशय परिश्रम और दवाब के कारण हम उसके प्रति आकर्षण खो देते हैं | ऐसे में फिर एक नया पैशन खोजा जाता है फिर नया …और फिर  और नया | ये समस्या आज के बच्चों में बहुत ज्यादा है | यही उनके भटकाव का कारण भी है | आखिर कैसे समझ में आये कि हमारा पैशन क्या है और कैसे हम उस पर टिके रहे | प्रस्तुत है ‘अगला कदम’ में नुपुर की असली कहानी जो शायद आपको और आपके बच्चों को भी अपना पैशन जानने में मदद करे |      मेरा पैशन क्या है ?   धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता  धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता                                                 मैं अपना बैग लेकर दरवाजे के  बाहर निकल रही हूँ , पर ये आवाजें मेरा पीछा कर रही हैं | ये आवाजें जिनमें कभी मेरी जान बसती थी , आज मैं इन्हें बहुत पीछे छोड़ कर भाग जाना चाहती हूँ | फिर कभी ना आने के लिए |                                              मेरी स्मृतियाँ मुझे पांच साल की उम्र में खींच कर ले जा रही हैं |    नुपुर …बेटा नुपुर , मास्टरजी आ गए | और मैं अपनीगुड़ियाछोड़कर संगीत कक्ष में पहुँच जाती और   मास्टर जी मुझे नृत्य और संगीत की शिक्षा देना शुरू कर देते | अक्सर मास्टर जी माँ सेकहा करते, “बहुत जुनूनी है आप की बिटिया , साक्षात सरस्वती का अवतार | इसे तो नाट्य एकादमी भेजिएगा फिर देखना कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी |” माँ का चेहरा गर्व से भर जाता | रात को माँ खाने की मेज पर यह बात उतने ही गर्व से पिताजी को बतातीं | हर आने -जाने वालों को मेरी उपलब्द्धियों के बारे में बताया जाता | कभी -कभी उनके सामने नृत्य कर के और गा कर दिखाने को कहा जाता | सबकी तारीफ़ सुन -सुन कर मुझे बहुत ख़ुशी मिलती और मैं दुगुने उत्साह से अपनी सपने को पूरा करने में लग जाती | कितनी बार रिश्तेदारों की बातें मेरे कान से टकरातीं , ” बहुत जुनूनी है तभी तो स्कूल, ट्यूशन होमवर्क सब करके भी इतनी देर तक अभ्यास कर लेती हैं | कोई साधारण बच्चा नहीं कर सकता | धीरे -धीरे मुझे भी अहसास होने लगा कि ईश्वर ने मुझे कुछ ख़ास बना कर भेजा है | यही वो दौर था जब मैं एक अच्छी शिष्य की तरह माँ सरस्वती की आराधिका भी बन गयी | पिताजी के क्लब स्कूल, इंटर स्कूल , राज्य स्तर के जाने जाने कितनि प्रतियोगिताएं मैंने जीती | मेरे घर का शो केस मेरे द्वारा जीती हुई ट्रोफियों से भर गया | १८ साल की होते -होते संगीत और नृत्य मेरा जीवन बन गया और २० वर्ष की होते -होते मैंने एक बड़ा संगीत ग्रुप ज्वाइन कर लिया | ये मेरे सपनों का एक पड़ाव था , जहाँ से मुझे आगे बहुत आगे जाना था | परन्तु … “नुपुर  रात दस बजे तक ये नृत्य ातैयार हो जाना  चाहिए | “ ” नुपुर १२ बज गए दोपहर के और अभी तक तुमने इस स्टेप पर काम नहीं किया |” ” नुपुर ये नृत्य तुम नहीं श्रद्धा करेगी |”  ” नुपुर श्रद्धा बीमार है आज रात भर प्रक्टिस करके कल तुम्हें परफॉर्म करना है |” “नुपुर , आखिर तुम्हें हो क्या गया है ? तुम्हारी परफोर्मेंस बिगड़ क्यों रही है ?” “ओफ् ओ ! तुमसे तो इतना भी नहीं हो रहा |” ” नुपुर मुझे नहीं लगता तुम कुछ कर पाओगी |” और उस रात तंग आकर मैंने अपने पिता को फोन कर ही दिया , ” पापा , मुझसे नहीं हो हो रहा है | यहाँ आ कर मुझे समझ में आया कि नृत्य मेरा पैशन नहीं है | मैं सबसे आगे निकलना चाहती हूँ | सबसे बेहतर करना चाहती हूँ | लें मैं पिछड़ रही हूँ | “ ” अरे नहीं बेटा, तुम्हें तो बहुत शौक था नृत्यु का , बचपन में तुम कितनी  मेहनत करती थी | तुम्हें बहुत आगे जाना है |मेरा बच्चा ऐसे अपने जूनून को बीच रास्ते में नहीं छोड़ सकता |” पिताजी ने मुझे समझाने की कोशिश करी | मैंने भी समझने की कोशिश करी पर अब व्यर्थ | मुझे लगा कि मैं दूसरों से पिछड़ रहीं हूँ | मैं उनसे कमतर हूँ | मैं उन्हें बीट नहीं कर सकती | ऐसा इसलिए है कि म्यूजिक मेरा पैशन नहीं है | और मैं ऐसी जिन्दगी को नहीं ओढ़ सकती जो मेरा पैशन ना हो | मैंने अपना अंतिम निर्णय पिताजी को सुना दिया | वो भी मुझे समझा -समझा कर हार गए थे | उन्होंने मुझे लौट आने की स्वीकृति दे दी | घर आ कर मैंने हर उस चीज को स्टोर में बंद कर दिया जो मुझे याद दिलाती थी कि मैं नृत्य कर लेती हूँ | मैंने अपनी पढाई पर फोकस किया  और बी .ऐड करने के बाद मैं एक स्कूल में पढ़ाने लगी | मैं खुश थी मैंने अपना जूनून पा लिया था | समय तेजी से आगे बढ़ने लगा | ————————————– इस घटना को हुए पाँच वर्ष बीत गए | एक दिन टी. वी पर नृत्य का कार्यक्रम देखते हुए मुझे नृत्यांगना के स्टेप में कुछ गलती महसूस हुई | मैंने स्टोर से जाकर उस स्टेप को करके देखा …एक बार , दो बार , दस बार | आखिरकार मुझे समझ आ गया कि सही स्टेप क्या होगा | मुझे ऐसा करके बहुत अच्छा लगा | अगले दिन मैं फिर स्टोर में गयी और अपनी पुरानी डायरी निकाल लायी | उसमें एक नृत्य को कत्थक और कुचिपुड़ी के फ्यूजन के तौर पर स्टेप लिखने की कोशिश की थी | … Read more

माँ के सपनों की पिटारी

सूती धोती उस पर तेल -हल्दी के दाग , माथे पर पसीना और मन में सबकी चिंता -फ़िक्र | माँ तो व्रत भी कभी अपने लिए नहीं करती | हम ऐसी ही माँ की कल्पना करते हैं , उसका गुणगान करते हैं …पर क्या वो इंसान नहीं होती या माँ का किरदार निभाते -निभाते वो कुछ और रह ही नहीं जाती , ना रह जाते हैं माँ के सपने  माँ के सपनों की पिटारी  कल मदर्स डे था और सब अपने माँ के प्यार व् त्याग को याद कर रहे थे | करना भी चाहिए ….आखिर माँ होती ही ऐसी हैं | मैंने भी माँ को ऐसे ही देखा | घर के हज़ारों कामों में डूबी, कभी रसोई , कभी कपड़े कभी बर्तनों से जूझती, कभी हम लोगों के बुखार बिमारी में रात –रात भर सर पर पट्टी रखती, आने जाने वालों की तीमारदारी करती | मैंने माँ को कहीं अकेले जाते देखा ही नहीं , पिताजी के साथ जाना सामान खरीदना , और घर आ कर फिर काम में लग जाना |अपने लिए उनकी कोई फरमाइश नहीं , हमने माँ को ऐसी ही देखा था …बिलकुल संतुलित, ना जरा सा भी दायें, ना जरा सा भी बायें |  उम्र का एक हिस्सा निकल गया | हम बड़े होने लगे थे | ऐसे ही किसी समय में माँ मेरे व् दीदी के साथ बाज़ार जाने लगीं | मुझे सब्जी –तरकारी के लिए खुद मोल –भाव करती माँ बहुत अच्छी लगतीं | कभी –कभी कुछ छोटा-मोटा सामान घर –गृहस्थी से सम्बंधित खुद के लिए भी खरीद लेती , और बड़ी ख़ुशी से दिखातीं | उस समय उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी | मुझे अभी भी याद है कि हम कानपुर में शास्त्री नगर बाज़ार में सब्जियां लेने गए थे , वहाँ  एक ठेले पर कुछ मिटटी के खिलौने मिल रहे थे | माँ उन्हें देखने लगीं | मैं थोड़ा पीछे हट गयी | बड़े मोल –तोल से उन्होंने दो छोटे –छोटे मिटटी के हाथी खरीदे और मुझे देख कर चहक कर पूछा ,” क्यों अच्छे हैं ना ?” मेरी आँखें नम हो गयीं |  घर आने के बाद पिताजी व् बड़े भैया बहुत हँसे कि , “ तुम तो बच्चा बन गयीं , ये क्या खरीद लायी, फ़ालतू के पैसे खर्च कर दिए | माँ का मुँह उतर गया | मैंने माँ का हाथ पकड़ कर सब से कहा, “ माँ ने पहली बार कुछ खरीदा है , ऐसा जो उन्हें अच्छा लगा , इस बात की परवाह किये बिना कि कोई क्या कहेगा,ये बहुत ख़ुशी का समय है कि वो एक माँ की तरह नहीं थोड़ा सा इंसान की तरह जी हैं |”  लेकिन जब मैं खुद माँ बनी , तो बच्चों के प्रेम और स्नेह में भूल ही गयी कि माँ के अतिरिक्त मैं कुछ और हूँ | हालांकि मैं पूरी तरह से अपनी माँ की तरह नहीं थी , पर अपने लिए कुछ करना बहुत अजीब लगता था | एक अपराध बोध सा महसूस होता |  तब मेरे बच्चों ने मुझे अपने लिए जीना सिखाया | अपराधबोध कुछ कम हुआ | कभी -कभी लगता है मैं आज जो कुछ भी कर पा रही हूँ , ये वही छोटे-छोटे मिटटी के हाथी है ,जो माँ के सपनों से निकलकर मेरे हाथ आ गए हैं |   ये सच है कि बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं तब उन्हें २४ घंटे माँ की जरूरत होती है , लेकिन एक बार माँ बनने के बाद स्त्री उसी में कैद हो जाती है , किशोर होते बच्चों की डांट खाती है, युवा बच्चे उसको झिडकते, बहुत कुछ छिपाने लगते हैं ,और विवाह के बाद अक्सर माँ खलनायिका भी नज़र आने लगती है | तमाम बातें सुनती है , मन को दिलासा देती है ,  पर वो माँ की भूमिका से निकल कर एक स्त्री , इक इंसान बन ही नहीं पाती | क्या ये सोचने की जरूरत नहीं कि माँ के लिए दुनिया इतनी छोटी किसने कर दी है ?   माँ के त्याग और स्नेह का कोई मुकाबला नहीं हो सकता, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनका भी फर्ज है कि खूबसूरत शब्दों , कार्ड्स , गिफ्ट की जगह उन्हें , उनके लिए जीवन जीना भी सिखाये | घर की हथेली पर बूँद भर ही सही पर उसके भी कुछ सपने हैं , या किसी ख़ास तरह से जीने की इच्छा ,बस थोडा सा दरवाजा खोल देना है , खुद ही वाष्पीकृत हो कर अपना रास्ता खोज लेंगे |  मेरी नानी ने एक पिटारी दी थी मेरी माँ को, उसमें बहुत ही मामूली चीजें थी , कुछ कपड़ों की कतरने , कुछ मालाएं , कुछ सीप , जिसे खोल कर अक्सर माँ रो लिया करती | सदियों से औरतें अपनी बेटियों को ऐसी ही पिटारी सौंपती आयीं है, जो उन्होंने खोली ही नहीं होती है …उनके सपनों की पिटारी | कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि कोई भी माँ ये पिटारी बच्चों को ना सौंप कर अपने जीवन काल में ही खोल सके | मदर्स डे का इससे खूबसूरत तोहफा और क्या हो सकता है | क्या आप अपनी माँ को ये तोहफा नहीं देना चाहेंगे |  यह भी पढ़ें … महिला सशक्तिकरण –नव सन्दर्भ , नव चुनौतियाँ विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ? पुलवामा हमला -शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यव्हार बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको लेख    “माँ के सपनों की पिटारी  “  कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-mother’s day, mother, mother-child, daughter

वंदना कटोच – 60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल

फोटो -पंजाब केसरी से साभार फेसबुक पर एक माँ ने अपने बेटे को 60 % मार्क्स लाने पर बधाई दी , तब उन्हें नहीं पता था कि उनकी यह पोस्ट लाखों लोगों की जुबान बन जायेगी | उनकी यह पोस्ट वायरल हुई है | इस पोस्ट के 7000 से ऊपर शेयर , एक हज़ार से ज्यादा कमेन्ट व दस हज़ार से ज्यादा लैक आ चुके हैं | दरअसल बहुत  से लोग ऐस कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते क्योंकि बच्चों पर अच्छे नंबर लाने का सामाजिक दवाब हमीं ने बनाया है और अब हम और हमारे बच्चे ही इसका शिकार हो रहे हैं | ऐसे में बहुत जरूरत है ऐसी माँओं  के आगे आने की जो कम प्रतिशत लाने वाले अपने बच्चों के साथ खड़ी हो सकें |  वंदना कटोच –  60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल  वंदना कटोच ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि .. मैं ओने बेटे पर गर्व महसूस कर रही हूँ | जिसने दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में 60 % मार्क्स हासिल किये हैं | ये 90 % मार्क्स नहीं हैं , लेकिन मेरी भावनाएं नहीं बदली हैं |  मैंने अपने बेटे का संघर्ष देखा है , जहाँ वो कुछ विषयों को छोड़ने की स्थिति में था |जिसके बाद पढाई को लेकर उसने काफी संघर्ष किया | बेटा आमेर जैसे मछलियों से पेड़ पर चढ़ने की उम्मीद की जाती है ,  लेकिन ठीक इससे उल्ट तुम अपने दायरे के भीतर ही एक बड़ी उपलब्द्धि हासिल करो | तुम मछली की तरह पेड़ पर नहीं चढ़ सकते लेकिन बड़े समुद्र को अपना लक्ष्य बना सकते हो| मेरा प्यार तुम्हारे लिए | अपने भीतर अच्छे जिज्ञासा और ज्ञान को हमेशा जीवित रखो ,  और हाँ ! अपना अटपटा सेंसोफ़ ह्यूमर भी |” इस पोस्ट के बाद बहुत से लोगों ने उनके साहस और प्रेरणादायक पोस्ट के लिए उन्हें बधाई दी है | वंदना कहतीं हैं कि मैंने ९७ -९८ प्रतिशत लाने वाले बच्चों के माता -पिता को भी रोते हुए देखा है | बच्चे रोते हैं तब तो समझ में आता है पर माता -पिता क्यों रोते हैं ? उन्होंने अपनी खुशियाँ बच्चों के नंबरों से जोड़  रखी हैं | ये एक बहुत ही खतरनाक परंपरा  हो गयी है | बच्चे पर दवाब डालने के लिए माता -पिता के आँसू ही काफी हैं … और ये आँसू ही कई बार बच्चे के उस अंतिम खत का कारण बनते हैं ,” ये मेरा आखिरी खत है , मुझे दुःख है कि मैं आप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका |” बहुत से लोगों ने उनकी पोस्ट पर यह भी लिखा कि की इतने कम नंबर लाने वाले बच्चे भविष्य में क्या कर पायेंगे |  इसके जवाब में उन्होंने कहा कि रिजल्ट आते ही कम प्रतिशत लाने वाले बच्चों के प्रति दया दिखाते लोग कहने लगते हैं कि ये बच्चा कैसे सर्वाइव करेगा …ऐसा लगता है कि बच्चे के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण उसके मार्क्स हो गए हैं | और फिर हर बच्चा कुछ ना कुछ तो कर ही लेगा | पर नंबरों का दवाब उसे उस काम को करने से भी रोक देता है जिसमें वो अच्छा है | बहुत से लोग फोटोग्राफी में जाते हैं , नृत्य -कला के क्षेत्र मे जाते हैं वहां विज्ञानं और गणित के नंबरों की जरूरत नहीं होती | उनका बेटा इन्हीं विषयों में कमजोर रहा है , अब वो अपने मन के विषय चुनेगा और उसमें निश्चित तौर पर अच्छा करेगा |  कुछ लोगों ने ये भी भी सवाल उठाया कि जब एक -डेढ़ महीने पढने से ये रिजल्ट रहा तो सारा साल पढने से बेहतर होता  इस के उत्तर में वंदना कहतीं हैं कि लोगों को लगता है कि जो बच्चे अच्छे नंबर नहीं लायें हैं उन्होंने साल भर ऐय्याशी की हैं | जबकि ऐसा नहीं है | कुछ बच्चों का कुछ और इंटरेस्ट होता है वो उसे करते हैं या फिर कुछ उन विषयों में जूझने में अपनी ज्यादा ऊर्जा जाया करते हैं जो उन्हें रुचिकर नहीं लगते | उनके बेटे को मैथ्स व् साइंस में मुश्किल होती थी | उसने बहुत मेहनत की पर रिजल्ट अनुकूल नहीं रहा | वो अवसाद से घिर गया | हमारे लिए भी वो बहुत मुश्किल वक्त था | फिर हमने हिम्मत की सब्जेक्ट को छोटे -छोटे टुकड़ों में बांटा और उस को तैयार करवाया | एक समय ऐसा था जब उनके बेटे आमेर ने इन सब्जेक्ट्स की परीक्षा ना देने का मन बनाया पर एक -डेढ़ महीने पहले उसने हिम्मत कर सभी विषयों की परीक्षा देने का मन बनाया और हमने उसका साथ दिया | हर बच्चा जो नंबर कम ला रहा है वो पढ़ा नहीं हो , ऐसनाहीं है |  नंबर और रूचि किसी विषय को समझने की क्ष्त्मा में अंतर जीवन में उसके सफल या असफल होने की गारंटी नहीं हैं | कुछ लोगों ने पूछा जब वो 90 % वाले बच्चों को देखतीं है तो अपने बच्चे को कहाँ पाती हैं ? इसके जवाब में वंदना कहती हैं कि वो बच्चों की तुलना नहीं करती | हर बच्चा खास है | जिन्होंने ज्यादा नंबर पाए हैं वो भी खास हैं और उनका बेटा आमेर भी | दोनों की तुलना नहीं हो सकती | आज जब कम प्रतिशत लाने वाले बच्चे समाज की नज़रों में खुद को कमतर , नाकारा , बेकार सिद्ध किये जाने से अवसाद में आ रहे हैं तब वंदना जैसी माँओं की बहुत जरूरत है जो डटकर अपने बच्चे के साथ खड़ी हो |  अटूट बंधन  यह भी पढ़ें … खराब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव   बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें बस्तों के बोझ तले दबता बचपन क्या हम  बच्चों में रचनात्मकता विकसित कर रहे हैं  बच्चों में बढती हिंसक प्रवत्ति आपको  लेख “वंदना कटोच –  60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  … Read more

प्रधानमंत्री मोदी -अक्षय कुमार इंटरव्यू से सीखने लायक बातें

फोटो –दैनिक भास्कर से साभार  व्यक्ति कोई भी हो क्षेत्र कोई भी हो जब कोई व्यक्ति सफल होता है तो उसके पीछे उसकी कुछ ख़ास आदतें या गुण होते हैं | atootbandhann.com का प्रयास रहा है कि अपने पर्सनालिटी डीवैलपमेंट सेक्शन में उन शख्सियतों के गुणों की भी चर्चा की जाए , जिससे हम सब सब उन गुणों को अपने व्यक्तित्व में शामिल कर सकें | यहाँ पर ये बाध्यता नहीं है कि हम व्यक्ति को पसंद करते  हैं कि नहीं पर आत्म विकास की राह में गुण ग्राही होना पहली शर्त है | प्रधानमंत्री मोदी जी के आलोचक भी उनकी लोकप्रियता और एक चायवाले से प्रधान मंत्री बनने की सफल यात्रा से इनकार नहीं कर सकते | अक्षय कुमार द्वारा लिए गए इंटरव्यू से कुछ ऐसेही आत्मविकास और  सफलता के सूत्र ले कर आई हैं नीलम गुप्ता जी …. प्रधानमंत्री मोदी -अक्षय कुमार  इंटरव्यू से सीखने लायक बातें    फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार द्वारा लिया गया प्रधानमंत्री मोदी का इंटरव्यू आजकल चर्चा में हैं | वैसे तो ये गैर राजनैतिक इंटरव्यू है पर इसका प्रभाव राजनैतिक दृष्टि से भी पड़ेगा इस संभावना  से इनकार नहीं किया जा सकता | ये  वीडियो वायरल हो गया है | जाहिर है पक्ष –विपक्ष वाले दोनों इसे देख रहे हैं और अपने –अपने हिसाब से आकलन कर रहे हैं | लेकिन मैं ये कहना चाहूँगी कि आप मोदी जी के पक्ष में हो या विपक्ष में लेकिन अगर इस इंटरव्यू से कुछ बातें सीखने को मिल रही हैं है तो उनसे सीखने में क्या हर्ज है | हम और आप में से बहुत से लोग फेंकू कह कर मोदी जी पर हंस सकते हैं पर उन शिक्षाओं पर अगर धयन दें तो अपने निजी जीवन में कुछ गुण जोड़ सकते हैं | तो आइये सीखते हैं … जिन्न पर नहीं कर्म पर भरोसा रखो प्रधानमंत्री मोदी के इंटरव्यू में अक्षय कुमार का एक प्रश्न और उसका जवाब मुझे बहुत अच्छा लगा |  प्रश्न था कि अगर आपके हाथ में अलादीन का चिराग आ जाए तो आप क्या माँगेंगे | आम तौर पर इसी उत्तर की उम्मीद की जा सकती है कि ये मांगेंगे वो माँगेगे और क्योंकि बात मोदी जी कई है चुनाव का माहौल है तो मुझे उम्मीद थी कि वो कहेंगे कि अपने देश की खुशहाली मांगेंगे , बच्चों की शिक्षा या जवानों और किसानों के लिए कुछ मांगेंगे | परन्तु मोदी जी का उत्तर इन सबसे जुदा था | उन्होंने कहा कि , “ वो जिन्न से मांगेंगे कि जहाँ कहीं भी लिखी हैं उन सब को मिटा दो , कि कोई ऐसे शक्ति होगी जो हमें बैठे –बैठे सब कुछ दिला देगी , ऐसी कहानियाँ बच्चों को नकारा बनाती हैं | उन्हें सिर्फ ऐसी कहानियाँ सुनानी चाहिए कि जितनी मेहनत करोगे उतना ही फल मिलेगा | मुझे याद है कि कुछ समय पहले ऐसी ही एक फिल्म बनी थी सीक्रेट … उसके ऊपर सीरिज़ में किताबें भी आयीं , बेस्टसेलर बनी खूब बिकीं | “Law of attraction” का नशा यूथ के सर चढ़ कर बोलने लगा | ऐसी ही मेरी एक रिश्तेदार की बेटी है जो उन दिनों कहा करती थी कि उसने सीक्रेट से लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन सीख लिया है जिसे वो प्रयोग में लाती है , उसका IIT में अवश्य चयन हो जाएगा | वो ज्यादा पद्थी नहीं थी पर उसे उस किताब की विज्युलाइजेशन टेक्नीक पर भरोसा था | वो रात को सोते समय रोज सोचती की वो IIT दिल्ली में पढ़ रही है , उस थ्रिल को , उस ख़ुशी को महसूस करती और सो जाती |  मैंने उसे समझाया भी कि जितने लोग सेलेक्ट हुए हैं उन्हें उस परिणाम से तो प्यार् था ही , वो सपनों में तो अपने को वहाँ देखना चाहते ही थे पर उसके लिए कड़ी मेहनत  भी करते थे | क्या तुमने कभी किसी चयनित उमीदवार  का इंटरव्यू नहीं सुना ? उनमें से किसी ने नहीं कहा कि वो सब उन्हें सपने देखने से मिल गया | सबने एक ही सूत्र बताया , मेहनत , मेहनत  और मेहनत | “वो मूर्ख थे “कहते हुए उसने मेरी बात काट दी | अगर यह सब कुछ बिना मेहनत के ही मिल जाए तो वो मूर्ख ही तो कहलायेगा जिसने उसके लिए जान झोंक दी | कुछ समय बाद जब रिजल्ट निकला तो उसका कहीं चयन नहीं हुआ था , साथ ही बारहवीं के बोर्ड एग्जाम में भी उसके बहुत कम नंबर  आये थे | उसने मुझसे कहा कि मैंने विज्युलाइजेशन टेक्नीक तो अपनाई थी पर मेरे मन में कहीं न कहीं यह विश्वास भी था कि मैं पढ़ तो रही नहीं हूँ , क्या ये टेक्नीक वर्क करेगी | मैंने कहाँ यहीं पर किताब में झोल है , वो विश्वास पढने से या मेहनत करने से ही आता है | हमारे दिमाग की कार्यविधि ही ऐसे है | कहते हैं कि हमारे दिमाग का एक हिस्सा रेपटीलियन ब्रेन होता है | जिसे सुस्त  और आलसी रहना पसंद हैं | कभी देखा है घड़ियाल या मगरमच्छ को घंटों एक जैसा पड़े हुए … वैसे ही हमारा दिमाग हर चीज यूँ ही पड़े –पड़े प्राप्त कर लेना चाहता है, या थोडा सा परिश्रम करने के बाद फिर अपने आलसी मोड में आ जाता है | जो लोग बहुत मेहनत करते हैं वो सब अपनी विल पॉवर का इस्तेमाल करते हैं | ऐसी कहानियाँ , किताबें फिल्में हमारी विल पॉवर को कमजोर करती हैं और दिमाग को फिर सुस्त हो जाने  को विवश करती हैं | बेहतर हो हमारे बच्चे , युवा , बुजुर्ग भी ऐसी कल्पनाओं से बचें ताकि जीवन के यथार्थ को समझ सकें … और मेहनत  में विश्वास कर सकें |  सामूहिक खेलों से बढती है टीम भावना                           आजकल बच्चे टी वी या फिर फोन में उलझे रहते हैं | पार्क में खेलने के स्थान पर बच्चे वीडियो गेम्स की ओर झुक रहे हैं | लेकिन ये एकांत प्रियता उनके सर्वंगीड विकास में बाधा है |  बच्चे जब वो खेल खेलते हैं जिसमें टीम हो तो वो बहुत सी चीजें सीखते हैं | जैसे … उनमें परस्पर सहयोग … Read more

भविष्य का पुरुष

एक शब्द है संस्कार … ये कहने को तो महज एक शब्द है पर इस पर किसी व्यक्ति का सारा जीवन टिका होता है | एक माँ के रूप में हर स्त्री के लिए जरूरी है कि अपने बेटों को संस्कारित करें , तभी भविष्य का पुरुष एक संतुलित व्यक्तित्व के रूप में उभरेगा | भविष्य का पुरुष  नलनी के हाथ तेजी से बर्तनों को रगड़   रहे थे | उसे सिंक भर बर्तन धोने में पन्द्रह मिनट से ज्यादा का समय नहीं लगता | करीब दस  घरों में काम करती हैं | सुबह सात बजे की निकली रात सात बजे घर पहुँचती हैं | दम मारने की फुर्सत नहीं हैं , करे भी तो क्या , अकेली कमाने वाली है | तीनों बच्चे पढने वाले हैं और पति ….उसे तो वो खुद ही छोड़ आई हैं | अक्सर अपना किस्सा सुनाती है , मेरा आदमी बहुत पीटता था भाभी , गांजे के नशे का आदी हो गया था ,अपनी कमाई और मेरी सभी उड़ा देता था | फिर भी इस आशा में पिटती रही किएक दिन सब ठीक हो जाएगा | बच्चे बड़े हो रहे थे और मेरी प्रतीक्षा धैर्य छोड़ रही थी | एक दिन फैसला कर लिया कि अब नहीं पिटना है |बस तीनों बच्चों को लेकर चली आई | अब तो अकेले ही काम करके बच्चों को पाल रही हूँ | ऐसा कहते हुए उसकी आँखों में स्वाभिमान की चमक दिखाई देती |  कितनी भी तेजी से उसके हाथ काम करें पर नलिनी हर घर की भाभियों , दीदीयों , आंटियों से बात करने का समय निकाल ही लेती है | बात भी कैसी ? … ज्यादातर उसे अपने घर के किस्से सुनाने होते | उसके घर के किस्सों में किसी की रूचि हो न हो पर उन्हें कह -कह कर कभी उसका दुःख निकल जाता तो कभी ख़ुशी दोगुनी हो जाती |  अधिकतर घरेलु औरतें से उसका एक दोस्ती का रिश्ता हो जाता , ठाक वैसे ही जैसे ऑफिस में काम करते समय हम अपने साथ काम करने वालों से घुल -मिल जाते हैं चाहें वो बॉस ही क्यों ना हो |  उस दिन नलिनी अपने छोटे बेटे और बेटी के झगड़ने का किस्सा सुना रही थी | उसकी आवाज़ में उत्साह था , ” भाभी कल मेरे बेटे ने बिटिया को इतना मारा कि पूछो मत , दोनों भाई बहन में बहुत ही कुत्तम -कुत्ता हुई |  “क्यों मारा ?” शालिनी ने दाल का कुकर खाली  करते हुए पूछा  ” क्या बताये भाभी , चार घर छोड़ के अम्मां रहती हैं , आजकल वहां छोटी बहन आई हुई है | बिटिया ने जिद पकड़ ली कि जब तक मौसी हैं मैं वहीँ रहूंगी | अब छोटा बेटा जो उससे पांच साल छोटा है उसी का पाला हुआ है उसे उसके बिना घर में अच्छा नहीं लग रहा था , तो लगा रोकने | अब रोकने का सही तरीकतो आता नहीं … चोटी पकड के खींच दी , यहीं रह , नहीं जायेगी तू  नानी के घर | बिटिया भी कहाँ कम है , जिद पकड ली कि वो तो जायेगी ही | अब तो बेटे का गुस्सा सर चढ़ कर बोलने लगा | मारते -मारते बिटिया को जमीन पर गिरा दिया …पीटता जाये और बोलता जाए , तुझे नानी के घर नहीं जाने दूंगा | मुझे यहाँ तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता , देखें कैसे जायेगी |  बिटिया किसी तरह से निकल कर भाग कर नानी के यहाँ पहुँच गयी | तो पीछे -पीछे पहुँच गया … नहीं रहेगी तू यहाँ , मुझे अकेल घर में अच्छा नहीं लगता … फिर खींच के  ले ही आया |  भाभी हमारे हाते में सब कह रहे थे , ” देखो कितना प्यार करता है अपनी बड़ी बहन से , अकेले अच्छा नहीं लगता है बहन के बिना , बेटे के प्रति गर्व माँ की आँखों में उतर आया |  प्यार या … शालिनी के लब थरथरा उठे| क्या भाभी जी ? ” ये प्यार नहीं है , अधिकार की भावना है , और अधिकार भी कैसा कि मार के पीट के चाहें जैसे रह मेरी इच्छा के अनुरूप ही रहे  | इसे अभी से रोको नलिनी , जो हाथ बहन पर उठ रहा है कल बीबी पर उठेगा … क्योंकि उसने प्यार की यही परिभाषा समझ रखी है | ११ साल का हो गया है इतना बच्चा भी तो नहीं है अब | समझाओ उसे , नहीं तो अपने पिता जैसा ही निकलेगा |” नलिनी ने शालिनी की तरफ घूर कर देखा , फिर चुपचाप बर्तन साफ़ कर चली गयी |  दो दिन तक नलिनी काम पर नहीं आई | शालिनी ने फोन करके उसकी माँ से पूछा |  ” उसने आपके यहाँ काम छोड़ दिया है , कह रही थी कि मेरे मासूम बेटे में ऐब ढूँढतीं हैं | भाई बहन के प्यार में पति -पत्नी की तकरार खोजतीं हैं | कहिये तो मैं आपके यहाँ काम करूँ | “ “बताउंगी” कहकर शालिनी ने फोन रख दिया |एक सवाल उसके सामने आ कर खड़ा हो गया | भविष्य का पुरुष कैसा होगा इसकी जिम्मेदारी एक माँ की होती है और अक्सर माएं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाती हैं |  …………………….                    ………………….                      …………….. पितृसत्ता को कोसने से ही काम नहीं चलेगा , पितृसत्ता के इस विकृत स्वरुप में स्त्रियों का भी योगदान है | एक पुरुष को स्त्री जन्म ही नहीं देती , उसे आकर भी देती है , बहनों से उसकी मारपीट पर स्वीकृति , घर में काम ना करने की स्वीकृति और बहने से ज्यादा अच्छा भोजन में स्वीकृति देकर वो भावी पुरुष अहंकार को पोषित करती है | अगर हम चाहते हैं कि भविष्य में हमारी बेटियों को अच्छे सुलझे विचारों वाले पति मिलें तो उसका निर्माण हर माँ को आज ही करना होगा |  नीलम गुप्ता  यह भी पढ़ें … कोई तो सुनले मक्कर पेंशन का हक़ जब झूठ महंगा पड़ा ब्रेकअप के बाद जिन्दगी आपको  लघु कथा  “भविष्य का पुरुष  “कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | … Read more

जब राहुल पर लेबल लगा

“यार अपने रंग का कुछ तो करो, थोड़ी फेयर एंड लवली ही लगा लिया करो , ये रंग तो तेरा उलटे तवे जैसा हो रहा है … रात को बच्चों को डराने के काम आएगा “कोई एक किसी महफ़िल में ऐसा कहता है और सब हंस पड़ते हैं, इस बात की चिंता किये बिना कि सुनने वाले को कैसा लगा रहा है | क्या वो अपने ऊपर लगे काले रंग या कम सुंदर होने के लेबल को आसानी से धो पायेगा या सारी जिन्दगी उसका आत्मविश्वास इस लेबल के नीचे दबा हुआ रह जाएगा …रंग का तो नहीं पर एक लेबल राहुल पर भी लगा था …आइये जाने उसने क्या किया … प्रेरक कथा –जब राहुल पर लेबल लगा “बेटा राहुल ,राहुल, चलो जल्दी तैयार हो जाओ आज हम सब को तुम्हारे स्कूल जाना है |क्लास फोर में पढने वाले राहुल ने उनींदी आँखें खोली, कहना तो चाहता था कि आज नहीं मम्मी पर कह ना सका ,जानता था जाना तो पड़ेगा ही, इसलिए चुपचाप उठ कर ब्रश करने लगा | राहुल की स्कूल टीचर ने आज उसके माता -पिता को स्कूल में बुलाया है | वो समझ रहा था कि उसकी कोई कोई शिकायत करने के लिए उसकी टीचर ने उसके माता -पिता को बुलाया है | पर क्या ? वो तरह -तरह के ख्याल करता रहा कि उसमें कुछ तो कमी है | पता नहीं टीचर माता -पिता को क्या बतायेंगी ? पता नहीं माता -पिता को कैसा लगेगा ? क्या पता आज मेरे -माता -पिता का सर मेरे कारण झुक जाए | सोचते ही वो उदास हो गया | नियत दिन पर राहुल अपने पेरेंट्स के साथ स्कूल गया | टीचर ने राहुल के मार्क्स दिखाते हुए कहा , “देखिये हर सब्जेक्ट में कम नंबर आये हैं , यहाँ तक की अंग्रेजी में भी , जबकि आज कल इंग्लिश मीडियम स्कूल में बच्चों के इंलिश में बहुत कम पढ़ कर भी इससे ज्यादा मार्क्स आ जाते हैं क्योंकि पूरा एनवायरमेंट इंग्लिश का ही होता है … फिर भी “ टीचर ने उसके पेरेंट्स की आँखों में आँखे डालकर सहानुभूति से कहा , ” माफ़ कीजियेगा, मुझे कहना पढ़ रहा है कि आप का बेटा धीमे सीखता है |” उफ़ , slow learner, यानि उसका माइंड और बच्चों से कम है , राहुल का सर शर्म से झुक गया | पता नहीं ये सुन कर उसके पेरेंट्स को कैसा लगा होगा ये जानने के लिए उसने पहले ने माँ की तरफ देखा , फिर पिता की तरफ …. उसने सोचा था कि दोनों के सर झुके हुए होंगे पर उसकी आशा के विपरीत दोनों मुस्कुरा रहे थे , | पढ़ें –मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ मदद के नहीं रास्ते भर उसके दिमाग में वो शब्द घूमता रहा …. धीमे सीखने का सीधा -सीधा मतलब वो मूर्ख है , वो सीख ही नहीं सकता, वो पढ़ ही नहीं सकता, घर आ कर वो अपने बिस्तर पर लेट कर खुद को कोसने लगा |मम्मी पापा के बुलाने के बाद भी उसने खाना नहीं खाया | पर उन्होंने उस समय उससे कुछ कहा नहीं , ना ही खाना खाने की जबरदस्ती की | शाम को मम्मी -पापा उसके कमरे में गए | उनके हाथ में एक कागज़ था | उन्होंने कहा , ” राहुल आज हम जानते हैं कि तुम परेशान हो, हमें भी तुम्हारी टीचर के कहे के बारे में तुसे बात करनी है | वही कि मैं धीमे सीखता हूँ , मैं मूर्ख हूँ , मैं अपनी जिन्दगी में कुछ नहीं कर पाऊंगा , राहुल ने तपाक से कहा | हाँ , कहकर उन्होंने उस कागज़ पर ‘धीमा सीखना’ लिखा , फिर उसके दो … चार , कई टुकड़े तब तक किये जब तक कागज़ चिंदी -चिंदी नहीं हो गया | राहुल को आश्चर्य में देखते हुए देखकर वे बोले , ” राहुल हम तुम्हारी टीचर की इस बात से सहमत नहीं हैं कि तुम धीमा सीखते हो | हम इस बात को गलत सिद्ध करना चाहते हैं , क्या तुम हमारा साथ दोगे ? राहुल ने ‘हाँ’कहा | अब उन्हने राहुल को रोज पढाना शुरू किया राहुल ने भी मेहनत बढ़ा दी | अगले रिजल्ट में राहुल पूरी क्लास में सेकंड आया | राहुल ने टीचर को गलत सिद्ध कर दिया | ऐसा उसके माता -पिता की समझदारी की वजह से हुआ की वो अपने ऊपर लगे लेबल से बाहर निकल पाया | ——————————————————————- मित्रों , इस कहानी का दूसरा अंत भी हो सकता था … राहुल फेल हो जाता … उसका मन पढने से हट जाता, वो पढाई ही छोड़ देता … या निराश होते होते एक दिन … जरा सोचिये , हममे से कितने लोग हैं जो दूसरों द्वारा खुद पर लगाए लेबल को सही मान लेते हैं और प्रयास ही छोड़ देते हैं ? और उनकी बात को सही सिद्ध कर देते हैं | लोग कहते हैं रंग दबा है … हम असुन्दर मान लेते हैं लोग कहते हैं ये काम तुमसे नहीं होगा …हम प्रयास छोड़ देते हैं | लोग कहते हैं तुम तो बोल ही नहीं पाते … हमें दूसरों के सामने बोलने से डर लगने लगता है | क्या येसही है ? यकीनन नहीं फिर भी हम सब लोग दूसरों द्वारा अपने ऊपर लगाए गए लेबल को स्वीकार कर लेते हैं , कोई प्रतिकार नहीं करते … एक युद्ध बिना लड़े हार जाते हैं | याद रखिये हर समय राहुल के माता -पिता जैसे लोग साथ नहीं होंगे | हमें खुद ही ये लेबल हटाने हैं | कोई भी हमारे बारे में कुछ भी कहे , उससे ज्यादा जरूरी है कि हम अपने बारे में क्या कहते या सोचते हैं | नीलम गुप्ता यह भी पढ़ें …… डॉक्टर साहब वो भी नहीं था  यकीन  दूसरी गलती   आपको  कहानी  ”  जब राहुल पर लेबल लगा “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- short stories, Hindi stories, short stories in Hindi, motivational stories, label, personalty tags

रीता की सफलता

सफलता और असफलता केवल एक सिक्के के दो पहलू हैं | आपके माता -पिता के लिए आपकी सफलता से कहीं ज्यादा आप अनमोल हो | आखिर रीता को ऐसी क्या बात समझ में आ गयी जिससे  उसके जीवन की सफलता के मायने ही बदल गए | प्रेरक कथा -रीता की सफलता  ये उस ज़माने की बात है जब हाईस्कूल  रिजल्ट ऑनलाइन नहीं निकलते थे | छात्रों  को मात्र एक संभावित तिथि पता होती थी | उस दिन से एक दो दिन पहले से बच्चों के दिल की धड़कने बढ़ जाया करती थीं | बच्चों और उनके घरों में रिजल्ट की प्रतीक्षा  बढ़ जाती |रिजल्ट के F, S और Th बस तीन अक्षर बच्चों की ख़ुशी मात्र को निर्धारित करते | फेल  होने वाले छात्रों का रोल नंबर नहीं चाप होता था | वो बच्चे निराशा में डूब जाते , तब घर वाले तरह -तरह के प्रयास कर उन्हें , ” अरे तो क्या हुआ अगले साल पास हो जाओगे कहकर सँभालने का प्रयास करते | ये वो समय था जब रिजल्ट माता -पिता की प्रेस्टीज का इशु नहीं हुआ करता था | पर बच्चे तो उत्साहित या निराश हुआ ही करते थे |   “निकल गया भाई निकल गया , हाई स्कूल  का रिजल्ट निकल गया ” कहते हुए  जब सड़क  से होकर गुजरता था तो ना जाने  कितनी घरों की साँसे थम जाया करती थीं | बच्चे जिन्होंने हाईस्कूल  का एग्जाम दिया है वो ना रात देखते ना दिन उसी समय सड़क पर दौड़ लगा पड़ते | लडकियाँ जो रात -बिरात घर से नहीं निकल पातीं | भाइयों की चिरौरी में लग जातीं | भाई पहले तो भाव खाते फिर  मान मनव्वल करके निकल पड़ते साइकिल वाले लड़के की खोज में जिसके पास होता उसी समय  प्रकाशित हुए परीक्षाफल वाला अखबार | उसी दौर में एक लड़की थी रीता  | जिसने पूरे साल फर्स्ट डिवीजन  लाने के लिए बहुत मेहनत की थी | सारे इम्तिहान सही जारहे थे  , बस विज्ञान का पर्चा बचा था |  उस दिन हिंदी का पर्चा था |  पर्चा बहुत ही अच्छा हुआ था | घर लौटते हुए वो इम्तिहान खत्म होने के बाद मौसी के घर जा कर , अपने मौसेरे भाई -बहनों के साथ खूब मस्ती की योजनायें बना रही थी |  तभी तवे की  टनटनाहट ने उसका ध्यान खींचा | गोलगप्पे उसकी जुबान में खट्टा चटपटा स्वाद उतर आया | गोलगप्पे की तो वो दीवानी थी |  एक रुपये के पांच गोलगप्पे मिला करते थे उन दिनों और वो  दो तीन रुपये से कम के तो खाती ही नहीं थी | भैया दो रुपये के गोलगप्पे दो कहते हुए उसे ख्याल तक नहीं आया कि माँ ने मना किया है कि इम्तिहान वाले दिन बाहर की चीज मत खाना , तबियत खराब हो गयी तो पछताना पड़ेगा | धडाधड गोलगप्पे खाए और निकल पड़ी घर की ओर | शाम से ही पेट में दर्द होने लगा | उलटी और दस्त का जो सिलसिला शुरू हुआ वो एग्जाम रुका नहीं | जैसे -तैसे एग्जाम देने गयी | पर ठीक से पर्चा लिखा नहीं जा रहा था | जितना कुछ लिख पायी , लिख दिया |फेल होने की पूरी सम्भावना थी | रोते हुए घर लौटी | माँ से  लिपट करतो घिग्घी  ही बंध गयी | रोते हुए बोली , ” माँ मुझे माँ कर देना , मैं पास नहीं हो पाउंगी |” रीता को सबसे ज्यादा दुःख था अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे ना उतर पाने का | माँ बचपन से ही उसे अच्छे नंबर लाने को कहती थीं , और पिताजी ने ट्यूशन , किताबों आदि पर अपनी सीमा से ज्यादा खर्च किया था | और वो … वो उनको क्या दे रही है | माँ ने उसे सीने लगा लिया | अकेली बेटी थी बड़ी मन्नतों बाद हुई थी | उसको यूँ निराश देखकर शब्द ही साथ छोड़ रहे थे | दो महीने बहुत ही निराशा से कटे | माँ कोे बेटी के दुःख का अंदाजा था | वो खुद ही हर रोज उसकी सफलता की दुआएं मांगती , पर रिजल्ट से कुछ दिन पहले माँ ने ये सोच कर उसे मौसी के यहाँ भेज दिया कि अचानक से फेल की खबर पर वहां भाई -बहन उसे संभल लेंगे | उसने तय कर लिया था कि वो रिजल्ट निकलने के अगले दिन ही घर आ जायेगी | तय तिथि पर रिजल्ट निकला | शाम को अपने मौसेरे  भाई के साथ घर आते ही वो माँ से चिपक गयी | माँ … ओ माँ मेरी फर्स्ट डिविजन आई है | लगता है और पेपर में नंबर इतने अच्छे आये कि  विज्ञान का पेपर ख़राब होने के बाद भी फर्स्ट डिविजन बन  गयी | माँ ने भी हुलस कर उसे गले से लगा लिया | रीता ने  अंदर आ कर देखा | खाने की मेज पर तरह -तरह के व्यंजन लगे हुए हैं | जैसे घर में कोई पार्टी हो | उसने डोंगों की प्लेट हटा कर देखा , सारे उसी के पसंद के व्यंजन थे | वो समझ गयी कि पार्टी उसी के लिए हैं | तभी उसने एक डोंगा खोला , उसमें एक परचा रखा हुआ था | जिसमें कुछ लिखा हुआ था | मेरी प्यारी बेटी रीता ,                       मुझे पता था कि तुम जरूर सफल होगी | आखिर तुमने मेहनत जो इतनी की थी | एक पेपर बिगड़ क्या तो भी तुम्हारी सफलता तय थी  | ये तुम्हारे जीवन की पहली सफलता है | इस पहले कदम को अपनी सफलता के भवन की नींव समझो और कदम दर कदम आगे बढ़ो |                                                                                 ढेर सारे प्यार के साथ                                                                                    तुम्हारी … Read more

ब्रेकअप के बाद जिन्दगी

ब्रेकअप यानि किसी रिश्ते का खत्म होना , ये प्रेम का खत्म होना बिलकुल भी नहीं है |  अक्सर लोग निराश हो जाते हैं और जिंदगी ही खत्म करने की सोचने लगते हैं | एकता के साथ भी ऐसा ही हो रहा था फिर ऐसी क्या समझदारी दिखाई एकता ने ब्रेकअप के बाद…. ब्रेकअप के बाद  जिन्दगी  इलाहाबाद में पली बढ़ी  एकता की साँसों में इलाहाबादी अमरूदों की खुशबु मिली हुई थी और    और जुबान में अमरुद् सी मिठास  | माँ -बाबूजी के प्यार का  संगम  , घर में रोज ढेर सारे रिश्तेदारों का आना -जाना , दीदी . भैया से रूठना , मनाना , खट्टे -मीठे झगडे और उनके पीछे छिपा ढेर  सारा प्यार और अपनापन  जीवन की यही परिभाषा जानती थी एकता | दुःख तो दूर से भी नहीं छू गया था उसे | नटखट चंचल एकता पढाई में भी शुरू से बहुत होशियार थी | एक दिन उसकी मेहनत रंग लायी और उसका चयन मुंबई के मेडिकल कॉलेज में हो गया | घर में ख़ुशी की लहर दौड़ उठी | दूर -दूर से रिश्तेदारों के फोन आने लगे | खुशियाँ जैसे खुद ही उसके दामन में भर जाना चाहती थीं | पर यही वो समय था जब उसे अपने परिवार से दूर जाना था | स्नेह के आंचल में पली -बढ़ी एकता घबरा तो बहुत रही थी परिवार से दूर रहने के नाम पर | लेकिन अपने कैरियर के लिए जाना तो था ही | उसका  का सामान बांधा जाने लगा | माँ ने ढेर सारे लड्डू , आचार , पंजीरी आदि भी बाँध दिए | क्या पता उनकी लाडली को वहां का खाना पसंद आये या ना आये | बाबूजी ढूँढ -ढूंढ के सामान ला कर ले जाने वाले सामानों के साथ रखने लगे | कई सामानों को ढूँढने में तो उन्होंने सारा इलाहाबाद छान मारा था | कितना हँसी  थी वो , ” अरे  आप लोग तो ऐसे तैयारी कर रहे हैं जैसे ससुराल जा रही हूँ , हॉस्टल ही तो जा रही हूँ |” जवाब में माता -पिता के साथ खुद उसकी आँखें भी गीली हो गयी थीं | मुंबई नया शहर ,नयी पढाई , नया जीवन | कभी माँ के खाने की याद आती , कभी भाई -बहनों के साथ की शरारतों की , तो कभी पिता का विश्वास , ” परेशांन  क्यों होती हो , मैं हूँ ना ” मन को भिगो देता था | धीरे -धीरे उसने खुद को संभाल  ही लिया | कुछ लड़कियों से दोस्ती भी हुई | सबकी आँखों में एक ही सपना था पढने का , आगे बढ़ने का | हॉस्टल में तो नहीं , हाँ कॉलेज में उसे थोड़ी दिक्कत आती थी | को. एड. जो था | अभी तक तो गर्ल्स स्कूल में ही पढ़ी थी वो | फिर इलाहाबाद शहर भी तो ऐसा था , जहाँ खुलापन इतना नहीं था , भाई लोग भी थे जिनके साथ आना -जाना हो ही जाता था | लड़कों को भैया के अतिरिक्त दोस्त भी समझा जा सकता है ये उसकी परिभाषा में नहीं था | लड़कों से बात करने में एक स्वाभाविक हिचक से गुज़रती थी वो | उसी के क्लास में एक लड़का था सौरभ | अपने नाम की तरह अपनी हँसी की खुशबु  लुटाता हुआ |  सौरभ ने ही उसके आगे दोस्ती का हाथ बढाया था , पर उत्तर में अपने में ही सिमिट गयी थी वो | समय के साथ वो लड़कों से थोडा -थोडा बात करने लगी पर सौरभ के सामने आते ही हकला जाती | इसी तरह पूरे दो साल बीत गए | सौरभ रोज उससे मिलना और बात करना नहीं भूलता | क्लास में उनके दबे -छुपे चर्चे होने लगे | खुद उसका मन भी प्रेम के रेशमी अहसास से खुद को कहाँ मुक्त कर पा रहा था | अब तो अकेले कमरे में भी सौरभ हमेशा साथ रहता , भले ही यादों के रूप में | थर्ड इयर के फाइनल सेमिस्टर के बाद  जब सौरभ ने उससे  साथ में कॉफ़ी पीने को कहा तो वो इनकार ना कर सकी | बातों  ही बातों में सौरभ बोला , ” अरे मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा तुम ने मुझ से I Love You कहा |” एकता ने हतप्रभ होते हुए कहा , ” अरे , ऐसा कैसे , मैंने ऐसा तो  नहीं कहा |” सौरभ मुस्कुराया , “तो अब कह दो ना !!!” एक दिलकश हँसी के साथ प्रेम की पहली बयार की खुशबु वातावरण में फ़ैल गयी | अगले दो साल …. प्रेम के दिन थे और प्रेम की रातें | वो एक दूसरे से घंटों बातें करते | साथ -साथ घूमने जाते | एक दूसरे  की तस्वीरे खींचते , प्रेम पत्र लिखते | कॉलेज में उनके प्रेम की किस्से सब को को पता थे | कॉलेज के फेयर वेल  के बाद जब उन्हें अपने -अपने घर जाना था तो उन्होंने एक दूसरे से वादा किया कि जल्द ही अपने माता -पिता को मना लेंगे और हमेशा के लिए एक दूसरे के हो जायेंगे | इलाहाबाद लौट तो आई थी वो पर मन सौरभ के ही पास रह गया था | उसने सौरभ से कह रखा था , पहले तुम अपने माता -पिता से बात कर लेना , फिर मैं कर लूंगी | सौरभ ने भी तो हामी भरी  थी पर मुंबई से कलकत्ता जाने के बाद ना जाने क्यों वो इस सवाल को टालने लगा था | धीरे -धीरे उसके फोन ही आने कम हो गए | एकता के हिस्से में केवल इंतज़ार था | नटखट चंचल एकता मौन हो गयी | गुलाब के फूल सा चेहरा मुरझाने लगा | माँ -पिताजी पूंछते तो काम का प्रेशर बता कर बात टालती थी | हालांकि कि वो जानती थी कि हॉस्पिटल के लम्बे घंटों की ड्यटी भी उसे उतना नहीं थकाती , जितना एक पल का ये ख्याल कि कहीं सौरभ उसे भूल तो नहीं गया |उसका फोन सौरभ उठाता नहीं था , खुद उसका फोन आता नहीं था | मन अनजानी आशंकाओं से घिरने लगा था | सौरभ ठीक तो है ना ? लम्बे इंतज़ार के बाद वो दिन भी आया जब एकता को मेडिकल कांफ्रेस … Read more