विश्वास

                                                                                      ईश्वर है की नहीं इस बात पर भिन्न भिन्न मत हो सकते हैं | और मत के अनुसार फल भी अलग – अलग होते हैं |   जो लोग ईश्वर पर ही नहीं किसी भी चीज पर अटूट विश्वास करते हैं  | उनके काम अवश्य पूरे होते हैं | आधुनिक विज्ञानं इसे subconscious mind  की चमत्कारी शक्ति के रूप में परिभाषित करती है |हमारा विश्वास हमारे आगे परिस्तिथियों का सृजन करता है | अविश्वास के कारण जीवन के हर क्षेत्र में नुक्सान उठाना पड़ता है और कभी – कभी खुद जीवन से भी | ऐसी ही एक कहानी है विशाल मल्होत्रा की |  hindi motivational story on faith विशाल मल्होत्रा को पहाड़ पर चढने का बहुत शौक था |बर्फ से ढके ऊँचे  – ऊँचे पर्वत उसे बहुत लुभाते थे |   यूँ तो विशाल दिल्ली में रहता था | पर उसने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लिया था | अक्सर वो हिमालय की वादियों में अपने दल के साथ गर्मी की छुट्टियों में हिमालय पर फतह करने जाता था | इस दल के अटूट विश्वास  और उत्साह के कारण हिमालय भी कितनी बार दयालु हो कर उनके लिए रास्ते बना देता था | विशाल का कांफिडेंस बढ़ता जा रहा था | इस बार अपने घरेलू कार्यक्रमों में व्यस्त होने के कारण मई के पर्वतारोहण  शिविर में अपने दोस्तों के साथ नहीं  जा सका था | दिसंबर  में एक दूसरा दल जाने वाला था | विशाल ने उनके साथ जाने की हामी भर दी | हालांकि दोस्तों ने समझाया था कि वो ज्यादा प्रशिक्षित दल है | वो जा सकता है | पर तुम्हारा अभी सर्दी के दिनों में पहाड़ों पर चढ़ने का प्रशिक्षण इतना नहीं हुआ है | पहाड़ों पर दिसंबर में बर्फ गिरने लगती है | मौसम खराब होने के कारण चढ़ना मुश्किल होता है | पर विशाल ने उनकी एक न सुनी | उसने कह मैंने उतना नहीं सीखा है तो क्या मैं कोशिश तो कर सकता हूँ | हम सब साथ में रहेंगे तो डर कैसा ? नियत समय पर विशाल अपने दल के साथ पर्वत पर चढ़ाई करने चला गया |एक दिन जोर का बर्फीला तूफान आया | सारा दल तितिर- बितिर हो गया | शाम घनी हो चली थी | अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था | विशाल पागलों की तरह अपने साथियों को ढूंढ रहा था | अचानक से एक तेज हवा का झोंका आया | विशाल अपना संतुलन नहीं बनाये रख सका | वो अपने रस्सी के सहारे हवा में झूल गया | अब सुबह तक कुछ नहीं हो सकता था | मृत्यु निश्चित थी | विशाल जोर जोर से ईश्वर को रक्षा के लिए पुकारने लगा | तभी आसमान से आवाज़ आई | मैं तुम्हारी अवश्य रक्षा करूँगा | पहले तुम बताओ तुम मुझ पर कितना विश्वास करते हो | विशाल लगभग रोते हुए बोला ,” हे ईश्वर मुझे बचा लो | मैं आप पर पूरा विश्वास करता हूँ | आसमान से फिर आवाज़ आई ,” क्या तुम सच कह रहे हो ?” हाँ मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ ,कृपया मुझे बचा लो , विशाल ने लगभग गिडगिडाते हुए कहा | आसमान से फिर आवाज़ आई ,” ठीक है तो तुम अपनी रस्सी काट दो |” विशाल का हाथ अपनी रस्सी पर गया नीचे खाई की गहराई सोंच कर उसे अजीब सी सिहरन हुई |  उसने आसमान की और देखा फिर रस्सी को छुआ … सुबह जब पर्वतारोही बचाव दल हेलीकाप्टर से कल के तूफ़ान में फँसे  हुए लोगों को निकालने आया तो उन्हें रस्सी से झूलता हुआ विशाल का शव मिला जो रात की सर्दी बर्दाश्त नहीं कर पाया था और बुरी तरह अकड  गया था | दल ने देखा की विशाल जमीन से सिर्फ १० फुट ऊपर था | अगर वो रस्सी काट देता तो उसकी जान बच जाती | दोस्तों , अगर विशाल ने आकाशवाणी की बात मान कर अपनी रस्सी काट दी होती तो उसकी जान बच सकती थी | बात सिर्फ ईश्वर पर विश्वास या अविश्वास की नहीं है | हमें जिस जिस चीज पर जैसा – जैसा विश्वास होता है वही परिणाम हमारे जीवन में आते हैं | जिनको विश्वास होता  है की वो जीवन में कुछ कर सकते हैं वो कर सकते हैं | जिनको विश्वास होता है नहीं कर सकते वो नहीं कर पाते हैं | कई लोगों ने विश्वास के दम पर असाध्य रोग भी ठीक किये हैं और अनेकों लोग अविश्वास के कारण छोटे छोटे रोगों में बहुत तकलीफ पाते है व् परेशान  रहते हैं | दरसल अटूट विश्वास ईश्वर पर हो , खुद पर , डॉक्टर पर या किसी अन्य पर | यह हमारी आत्म शक्ति को बढ़ा देता है | हमारी आत्म शक्ति कोई भी चमत्कार कर सकती है | नीलम गुप्ता आपको  motivational story “विश्वास ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

मास्टर जी

द्वारका प्रसाद जी पेशे से सरकारी विद्यालय में मास्टर थे । रायगढ़ नाम के छोटे से गाँव में उनकी पोस्टिंग हो गयी थी । पोस्टिंग हो क्या गयी थी यूँ समझिए कि ले ली थी । उन्होंने स्वयं ही माँग  की थी कि उन्हें उस छोटे से गाँव में तबादला  दे दिया जाए । गाँव में कोई इकके -दुक्के लोग ही थे जिन्हें पढ़े -लिखे लोगों की श्रेणी में रखा जा सकता था । बाकी की गुजर-बसर तो खेती , सुथारी या लुहारी पर ही चल रही थी ।  सभी हैरान थे कि द्वारका प्रसाद जी को इस छोटे से गाँव में क्या दिलचस्पी थी ?  कि वहाँ जा कर बस ही गयेखैर वह तो उनका निजी मामला था ।  गाँव के हर घर में उनकी ख़ासी पहचान थी । सारे गाँव के बच्चे उनके विद्यालय में पढ़ने आते । और अगर कोई न आता तो  मास्टर जी ढूँढ कर उन बच्चों के माता-पिता से बात करते और उन्हें समझाते कि वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें । किंतु गाँव के लोग बहुत ग़रीब थे वे बच्चों को  पढाना तो दूर  की बात अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी भी न जुटा पाते सो अपने बच्चों को कुछ न कुछ काम धंधे में लगा रखा था ।  मास्टर जी ने सरकारी दफ़्तरों में जा-जा कर अफसरों से बात कर विद्यालय में खाने का भी प्रावधान करवा दिया ताकि गाँव के लोग खाने के लालच में अपने बच्चों को विद्यालय में दाखिला तो दिलाएँ । अब गाँव के अधिकतर बच्चे विद्यालय में पढ़ रहे थे ।    शाम के समय मास्टर जी गाँव के बीचों-बीच लगेनीमके पेड़ के गट्टे पर बैठ जाते।और अपने आस-पास गाँव के सारे लोगों को जमा कर लेते । किसी न किसी बहाने बात ही बात में वे उन्हें  पढ़ने के लिए प्रेरित करते ।  लेकिन गाँव के लोग तो पढ़ाई का मतलब समझते ही न थे । उन्हें तो बस हाथ का कुछ काम करके दो वक़्त की रोटी मिल जाए बस इतनी ही चिंता थी । और औरतों की शिक्षा के बारे में तो बात उनके सिर के उपर से ही जाती थी । दो टुक जवाब दे देते मास्टर जी को । कहते ” इन्हें तो बस चूल्हा-चौका करना है , उसमें पढ़ाई का क्या काम ” ? रही बात गाँव की बेटियों की , पढ़-लिख गयी तो पढ़ा-लिखा लड़का भी तो ढूँढना पड़ेगा ?  मास्टर जी बार-बार उन्हें समझाते कहते ” पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती” । दो अक्षर पढ़ लेंगे तो जेब से कुछ जाने वाला नहीं है । किंतु गाँव के लोग आनाकानी कर जाते ।किंतु जब किसी को कोई चिट्ठी लिखनी होती या कोई सरकारी दफ़्तर का कार्य होता तो मदद के लिए मास्टर जी के पास ही आते । मास्टर जी उनको मदद करने के लिए सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाते , उनकी चिट्ठियाँ लिखते व उनके अन्य कार्यों में भी सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद करते ।धीरे-धीरे सभी लोगों का मास्टर जी पर विश्वास जमने लगा था । और मास्टर जी की प्रेरणा से प्रेरित हो कर मास्टर जी से थोड़ा- थोड़ा पढ़ना-लिखना सीखने लगे थे । और तो और गाँव की महिलाएँ भी चूल्हा-चौका निपटा कर रोज एक घंटा मास्टर जी से पढ़ने लगी थीं । मास्टर जी उन्हें थोड़ा शब्द ज्ञान देते और थोड़ा अन्य नयी-नयी जानकारियाँ देते । यह सब कार्य मास्टर जी मुफ़्त ही करते ।  समय बीतता गया , मास्टर जी के बच्चे बड़े हो गये और आगे की शिक्षा के लिए शहर चले गये । शहर की चमक-दमक बच्चों को बड़ी भा गयी । वे बार-बार मास्टर जी को गाँव छोड़ शहर आने की ज़िद करने लगे । पर मास्टर जी थे कि टस से मस न होते । सो मास्टर जी की पत्नी भी मास्टर जी को छोड़ अपने बच्चों की सार​–संभाल करने के लिए शहर चली गयीं । मास्टर जी अब कहने को अकेले थे किंतु गाँव अब परिवार मे परिवर्तित हो गया था । ज़्यादा से ज़्यादा समय मास्टर जी गाँव के लोगों के साथ ही बिताते ।  तभी एक दिन मास्टर जी को दिल का दौरा पङ गया । मास्टर जी का पड़ौसी सुखिया उन्हें झट से गाँव के वैद्य के पास ले गया । वैद्य जी उन्हें प्राथमिक उपचार दे कर बोले ” अच्छा होता कि मास्टर जी को शहर ले जाते और बड़े अस्पताल में दिखा देते , नब्ज़ थोड़ी तेज ही चल रही है ।  गाँव के लोगों ने तुरंत ही  उनके पत्नी व बच्चों को सूचित कर शहर ले जाने की तैयारी कर ली । शहर जाते ही उन्हें वहाँ के बड़े अस्पताल में भरती कर दिया गया । गाँव का उनका पड़ौसी सुखिया उनके साथ में था । बड़े अस्पताल में डॉक्टर ने दवाइयों की लंबी लिस्ट और अस्पताल के खर्चे का बिल उनकी पत्नी के हाथ में थमा दिया । इतना पैसा मास्टर जी की पत्नी के पास न था सो लगी अपने भाई व अन्य रिश्तेदारों को फोन करने ,सोचा शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए । किंतु आजकल किसको पड़ी है दूसरे की मुसीबत के बारे में सोचने की । सुखिया मास्टर जी व उनकी पत्नी की हालत बखूबी  समझ रहा था । मास्टर जी की पत्नी  स्वयं से ही अकेले में बड़बड़ा रही थी।” समय रहते सोचते तो ये दिन न देखना पड़ता , कभी दो पैसे न बचाए , लुटा दिए गाँव वालों पर ही ”  कभी कोई ऊपर की कमाई न की ” । बच्चे भी बोल रहे थे कितनी बार कहा था शहर आ जाओ किंतु हमारी एक न सुनी । कम से कम यहाँ रहते तो ट्यूशन कर अतिरिक्त कमाई तो करते , फालतू ही गाँव के लोगों के साथ वक़्त जाया  किया । सुखिया अब मास्टर जी की माली हालत से वाकिफ़ हो गया था । उसने झट से गाँव फोन किया और अगले ही दिन गाँव से एक आदमी आया जिसे मास्टर जी ने ही पढ़ाया था और उनके ही विद्यालय में नयी नियुक्ति मिली थी उसे । साथ में वह एक पोटली लाया था और कुछ रुपये भी । वह पोटली उसनेमास्टर जी  की पत्नी को थमा दी … Read more

ओटिसटिक बच्चे की कहानी -लाटा

                                                                 ओटिसटिक बच्चे की कहानी -लाटा    को पढने से पहले जरूरी है कुछ बात आटिज्म पर की जाए | आटिज्म एक कॉम्पेक्स न्यूरोबेहेवियरल स्थिति है | जो जन्मजात बिमारी है | जिसमें सोशल इंटरेक्सन बाधित होता है | भाषा भी पूर्ण विकसित नहीं हो पाती | बातचीत में समस्या आती है |व् rigid repetitive behaviour आदि शामिल हैं | वस्तुत : इसके सारे लक्षणों को मिला कर इसे autism spectrum disorder (ASD)कहते हैं | ASD से ग्रस्त बच्चे इसकी मौजूदगी के अनुपात में पूर्ण विकलांग  से ले कर काफी कुछ अपने आप कर लेने की क्षमता वाले होते हैं | हालांकि उन्हें स्पेशल केयर की जरूरत होती है | ASDसे ग्रस्त बच्चों के लिए यह समझना मुश्किल होता है की दूसरे लोग क्या सोंच व् महसूस कर रहे हैं | इस कारण वो खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत कठिनाई महसूस करते हैं चाहें वो शब्दों से हो , फेसिअल एक्सप्रेशन के द्वारा हो | फिर भी भावनाएं तो होती हैं और ऐसी ही भावनाएं जिन्हें अभिव्यक्त करने की कशमकश से जूझता रहा लाटा  ओटिसटिक बच्चे की भावनात्मक कहानी -लाटा सब उसे ‘लाटा’ कहते थे.. आज की बात होती तो उसे ओटिसटिक (autistic) कहा जाता, पर उन दिनों तो ऐसे बच्चों को नीम पागल ही समझा जाता था.. कुछ बोलने में उसकी जीभ अक्सर किसी न किसी शब्द में उलझ जाती.. मन करता हलक में हाथ डाल उसकी मुश्किल आसान कर दूँ.. जब तक वह शब्द पूरा होकर बाहर नहीं आ जाता , उसकी सांस तो मुश्किल होती न होती, हमारी हो जाती.. माँ बाप ने उसके पढने पढ़ाने की कोई आवश्यकता ना समझी.. वह तो लाटा था ना, नीम पागल ! .. उसे क्या स्कूल भेजना ! माँ के सीने का बोझ था, बाप के सर का ! .. उसे वे दोनों ही पसंद नहीं थे.. उसकी तो बस दादी थीं, वो ही उसपर जान छिड़कती.. सबसे छुपा कर घी का बड़ा सा ढेला उसके भात में छुपा देतीं.. वह भी भात की तहें खोलकर देखता, और खुश होकर लबेड के खा लेता.. दादी उसके सर पर हाथ फेरतीं प्यार से.. उन्ही के कमरे में सोता वह.. उसे दादी की भूत की कहानियां बहुत पसंद थीं.. वह उनके साथ लेटकर कहानी सुनता और उनके थुलथुले पेट पर हाथ फेरता जाता |  वैसे उसके चार बड़े भाई और एक छोटा भाई भी था, जिन पर माता पिता की विशेष कृपा रहती.. उनके लिए कभी कभार नए कपडे भी सिल जाते, पर इस बेचारे को मिलती उतरन.. जब तक बच्चा था, सब ठीक रहा, जैसे बड़ा हुआ उसने भी नए कपड़ों की जिद करनी शुरू कर दी.. ना मिले तो वह गुस्से में चीज़ें पटकने लगता.. उम्र के साथ उसका गुस्सा और मुखर होने लगा.. भाई जब स्कूल चले जाते तो वह  भी पिता के साथ खेतों की तरफ निकल जाता.. पहले छोटा मोटा काम करता था अब खेती बाड़ी की तकनीकी भी समझने लगा.. शारीरिक श्रम में उसका मन खूब लगता.. धुप में तपकर पसीना बहाना उसे अच्छा लगता था |  तीन भाई पढ़ाई के लिए शहर जा पहुंचे और फिर वहीं के हो लिए.. एक भाई वहीं गाँव में मास्टरी करने लगा.. एक एक कर सबके ब्याह भी हो गए, परिवार बस गए.. यहाँ तक छोटे भाई की भी गृहस्थी बस गयी.. पर वह वैसा ही रहा.. उसके ब्याह का कौन सोचे, वह तो लाटा था.. अपने घर में ही बेगाना सा.. वह अब सयाना हो चला था.. बोलता वह पहले ही कम था.. खुद किसी के मुह नहीं लगता, लेकिन कोई कुछ कह दे तो ऐसी गालियों के बम गोले दागता की सबके ढेर हो जाते.. वह अब अकेला घर भर का बोझ संभालने लगा .. माँ बाप बूढ़े हो चले थे.. लेकिन अब माँ बाप को उसका बोझ हल्का लगने लगा था.. उसके रहते वह निश्चिन्त थे.. खेत खलिहान और गाय भैंस की ज़िम्मेदारी उसने स्वतः ओढ़ ली थी.. दादी स्वर्ग सिधार गयीं.. दादी का आखिरी वक़्त खासा कष्टकारी था.. उनका कष्ट देख कर कहता “दादी तू मर जा “..दादी मुस्कुरा देतीं.. जानती थीं उनका दर्द, वह सह रहा है.. इधर दादी ने आखिरी हिचकी ली, उधर वह लापता ! .. उसकी ढूंढ मची तो वह खेत के किनारे छुपा बैठा मिला.. सबने मनुहार की, पर वह ना हिला.. आखिर दादी को उसके काँधे बिना ही जाना पड़ा.. पर दादी, जो उसके मन की हर बात समझती थीं, क्या यह ना समझी होंगी? दादी तो चल बसी, पर अब उसकी भाभी ने उनका स्थान ले लिया.. वह उसीप्रकार अपने देवर पर स्नेह बरसातीं.. उसके खाने पीने, कपडे का ज़िम्मा सब भाभी ने ले लिया.. माता पिता भी समय के साथ पूरे हो गए.. फिर एक दिन ऐसा वज्रपात हुआ, उसका मास्टर भाई एक्सीडेंट में मारा गया.. उसकी सबसे प्यारी भाभी अब सोग की मूर्ती बन गयी.. छोटी भांजी के आंसू सूखते ना थे.. वह भाभी और भांजी की ओर देखता और दहाड़ें मार कर रो उठता .. उसका विलाप सुन कर गाँव के बच्चे, बड़े, द्रवित हो उठे.. तेहरवीं के बाद भाभी के भाई लेने आये, पर वे ना गयीं.. बोलीं “हरी भाई हैं ना, मैं यहीं रहूँगी”.. सच कितनी अच्छी हैं भाभी.. कितना डर रहा था वो.. अब वह भी तन मन से उनकी सेवा करेगा.. कोई आंच ना आने देगा  अब वह घर का सतर्क प्रहरी बन गया था.. रात बेरात हल्का सा खटका भी हो तो वह दरांती ले पूरे घर का चक्कर लगा डालता.. गली में कोई जोर से बोले भी तो वहीं से ऐसी घुड़की लगाता की लोग चुपचाप खिसक लेते.. वह घर की ऐसी मज़बूत ड्योढ़ी था जिसके होते गरम हवा, ठंडी हो कर गुज़रती..   आज उसकी गुडिया की विदाई थी.. वह फिर लापता था.. पर वह उसे ढूंढ ही लाई.. और जब तक उसने गुडिया को गोद में उठाकर डोली में न बिठाया, गुडिया भी विदा ना हुयी.. जाते जाते गुडिया ने प्यार से उसके कान में “ मेरा लाटा चाचू” कह दिया..  अच्छा लगा उसे.. पूनम … Read more

शब्दों के घाव

क्या शब्दों के भी घाव हो सकते हैं ? जी हाँ , दोस्तों पर इस बात से अनजान  हम दिन भर बोलते रहते हैं … बक बक , बक  बक | पर क्या हम इस बात पर ध्यान देते हैं की जो भी हम बोल रहे हैं उनसे किसी के दिल में घाव हो रहे हैं | मतलब उसका दिल दुःख रहा है | कहा जाता है की सुनने वाला उन श्ब्दों के दर्द को जिंदगी भर ढोता रहता है | जब की कहने वाला उन्हें कब का भूल गया होता है | तो आज  हम एक ऐसी ही कहानी ले कर आये हैं | जो हमें शब्दों को सोंच समझ कर बोलने की शिक्षा देती है … प्रेरक कहानी शब्दों के घाव  एक लड़का था मोहन , उसके पिता जी का भेड़ों का एक बाड़ा था | उसमें कई लोग काम करते थे | पर मोहन को गुस्सा बहुत आता था | वह बात – बेबात पर सबको बुरा – भला कह देता | लोगों को बुरा तो लगता पर वो मालिक का बेटा समझ कर सुनी अनसुनी कर देते |मोहन के पिता जानते थे की बाड़े में काम करने वाले उसकी वजह से सुनी अनसुनी कर देते हैं पर मोहन की बातों का बोझ उनके दिल पर रहता होगा |  वो मोहन को कई बार समझाते ,” बेटा तुम गुस्सा न किया करो | सबसे प्यार से बोला करो | पर मोहन के कानों पर जूं तक  न रेंगती | आखिरकार मोहन के पिता ने मोहन को सुधारने का एक तरीका निकाल ही लिया |  एक दिन वो मोहन को बाड़े पर ले गए | वहां एक दीवार दिखा कर बोले ,” मोहन बेटा मैं जानता हूँ गुस्से पर कंट्रोल करना तुम्हारे लिए मुश्किल है | मैंने तुमको कई बार कहा की गुस्सा न करो तब भी तुम गुस्सा रोक नहीं पाए | हालांकि मैं जानता हूँ की तुमने प्रयास जरूर किया होगा | इसलिए मैंने तुम्हारा गुस्सा दूर करने का एक खेल बनाया है | जिससे तुम्हारा गुस्सा भी दूर होगा और एक खेल भी हो जाएगा | आखिरकार तुम भी तो गुस्सा दूर करना ही चाह्ते होगे |  मोहन पिता की तरफ देखने लगा | उसको भी जानने की बड़ी उत्सुकता हो रही थी की आखिरकार पिताजी ने क्या खेल बनाया है |  मोहन के पिता कुछ रुक कर बोले ,” मोहन ये लो कीलों का डिब्बा और हथौड़ा | अब जब भी तुम्हें गुस्सा आये | इस पर एक कील ठोंक देना | मोहन ने हां में सर हिलाया | उसने सोंचा इसमें क्या कठिनाई हैं | कील ही तो ठोंकनी है | ठोंक देंगे | पर धीरे धीरे मोहन का उत्साह जाता रहा | अब खाना खा रहे हो तो खाना छोड़ के कील ठोंकने जाओ , खेल रहे हो तो खेल छोड़ के कील ठोंकने जाओ | उफ़ ! ये तो बहुत बड़ी सजा है |  पर इस खेल या सजा जो भी हो उससे  धीरे – धीरे मोहन अपने गुस्से पर कंट्रोल करने लगा ताकि उसे कील न ठोंकनी पड़े | पर गुस्से पर कंट्रोल इतना आसान तो था नहीं | लिहाजा कील ठोंकने का काम चलता रहा |  धीरे – धीरे कर के पूरी दीवाल भर गयी | उसने ख़ुशी ख़ुशी अपने पिता को दिखया कि देखिये पिताजी ये तो पूरी दीवाल भर गयी है | अब मैंने गुस्सा करना भी कम कर दिया है | पिताजी ने दीवाल देख कर कहा ,” हां ये तो भर गयी | पर अभी तुम्हारा गुस्सा पूरी तरह से कंट्रोल में नहीं आया है | तो ऐसा करो जिस दिन पूरा दिन तुम्हें गुस्सा न आये एक कील उखाड़ देना | मोहन ने पिता की बात मान ली | उसे लगा ये तो आसान है , क्योंकि उसे गुस्सा कम जो आने लगा था |  मोहन रोज गुस्से पर कंट्रोल करता और दूसरे दिन सुबह एक कील निकाल देता | धीरे – धीरे सारी  कीलें निकल गयीं | वो ख़ुशी ख़ुशी अपने पिता को बताने गया | उसके पिता ने खुश हो कर कहा ,” ये तो तुमने अच्छा किया की सारी कीलें निकाल दी| चलो तुम्हारे साथ चल कर देखते हैं की बाड़े की उस दीवाल का कील निकलने के बाद क्या नया रूप रंग है | मोहन पिता के साथ चल पड़ा | पर दीवाल का हाल देखकर वो सकते में आ गया | जहाँ – जहाँ से कीले निकाली थीं वहां – वहां उन्होंने छेद बना दिए थे | च च च … करते हुए मोहन के पिता ने कहा उफ़ इस दीवाल में कितने छेद हो गए | पर ये तो निर्जीव दीवाल थी | जब तुम किसी इंसान पर गुस्सा करते होगे | तो भी उसके दिल में ऐसे ही घाव हो जाते होंगे | जो कभी भरते नहीं हैं | ओह बेटे तुमने तो न जाने कितने लोगों को अनजाने ही अनगिनत घाव दे दिए |  पिता की बात सुनकर मोहन रोने लगा | उसने पिता से कहा ,” पिताजी मुझे बिलकुल पता नहीं था की शब्दों से भी घाव हो जाते हैं | मैंने अनजाने ही सबको घाव दिए | अब मैं अपने शब्दों का बहुत ध्यान रखूँगा | और गुस्सा नहीं करूँगा |  मोहन के पिता ने उसे गले से लगा कर कहा ,” अब मेरा बेटा समझदार हो गया है | वो अपने शब्दों का सोंच – समझ कर इस्तेमाल करेगा व् उनसे किसी को घाव नहीं देगा |  अर्चना बाजपेयी  रायपुर ,छतीसगढ़  ————————————————————————————————————————- मित्रों प्रेरक कहानी शब्दों के घाव आपको कैसी लगी | हमें जरूर बताये | पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज  लाइक करें | अगर आप को “अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब करें | जिससे हम सीधे  लेटेस्ट  पोस्ट  आपके ई मेल पर भेज सकें | यह भी पढ़ें … अधूरापन अभिशाप नहीं प्रेरणा है 13 फरवरी 2006 इमोशनल ट्रिगर्स – क्यों चुभ जाती है इत्ती सी बात असफलता से सीखें

असफलता से सीखें

क्या आप को पता है की असफलता भी हमें सिखाती है | सफलता का एक महत्वपूर्ण सूत्र है असफल व्यक्तियों से या अपनी असफलता से  सीखना  | जी हाँ , जिंदगी के पाठ्य क्रम में सफलता व् असफलता दोनों ही शिक्षक हैं | जहाँ जरूरी है सफल ही नहीं असफलता या असफल व्यक्तियों से सफल होने के तरीके सीखना | आप भी आश्चर्य में पड़ गए होंगे | कभी आपने बचपन में किसी रस्सी को पकड़ कर उसका एक सिरा दरवाजे में बाँध कर दूसरा पकड़ कर हिलाया है | आपने महसूस किया होगा रस्सी में एक तरंग  चलने लगती है | ऊपर नीचे , ऊपर नीचे | हमारी जिंदगी भी बिलकुल ऐसी ही हैं | कभी सफलता के शिखर कभी विफलता के गर्त |अंतर केवल इतना है की असली जीवन में जो लोग एक बार गर्त में आते ही प्रयास छोड़ देते हैं वो असफल कहलाते हैं | जो गर्त में जा कर फिर से उठने का प्रयास करते हैं वो सफल कहलाते हैं | वही रस्सी के दूसरे छोर  या सफलता के शिखर तक पहुँच पाते हैं | इसके लिए असफल होने पर निराश न होकर अपनी असफलताओं से सीख लेनी पड़ती है | कैसे सीखें असफलता से   अपनी बात को समझाने के लिए मैं एक छोटी सी कहानी आपसे शेयर करना चाहता हूँ | रोहित और उसके मित्र की | रोहित एक असफल व्यक्ति था | वह अपने एक अति सफल जानकार के पास सफलता के गुर सीखने गया | जाते ही उसने प्रश्न किया | आप सफलता के गुर सिखाइए | सफल मित्र ने कहा ,” मैं क्या सिखाऊ , मैं तो खुद सीखता हूँ | आप किससे सीखते हैं , रोहित  ने उत्साह से पूंछा | असफल व्यक्तियों से , सफल व्यक्ति ने सीधा सादा  उत्तर दिया | वो कैसे ? रोहित ने आश्चर्य से पूंछा | सफल व्यक्ति बोला , “ खैर ! वो बाद में पहले तुम मुझे ये बताओ की तुम असफल कैसे हुए | रोहित बोला , “ मैं बहुत जल्दी सफलता पाना चाहता था | मैंने एक कम्पनी खोली वो ठीक से जम भी न पायी की दूसरी खोल दी  | अब पहली में घाटा  होने लगा | तो उसे पूरा करने के लिए मैंने अपने सारे पैसे लगा कर तीसरी कम्पनी खोल ली | ताकि उसकी कमाई  से दोनो का घाटा पूरा कर सकूँ | पर हुआ उल्टा | काम के अत्यधिक दवाब के चलते एक –एक कर के मेरी तीनों कम्पनियां बिक गयी | और मैं सड़क पर आ गया | मैं कर्जे में डूबा हुआ हूँ | देखो तुम्हारी बातों  से मैंने दो बातें सीखी | जिन्हें तुम सफलता के सूत्र भी कह सकते हो | पहला जब तक एक काम ठीक से न जम जाए दूसरे में हाथ न डालो |दूसरी बात कभी अपना सारा पैसा कम्पनी में न  लगा दो ताकि घाटे की स्तिथि में दिवालिया होने की नौबत न आये | आप भी सीख सकते हैं असफलता से  जैसे रोहित के मित्र ने असफलता से सीखा वैसे हम सब असफल व्यक्तियों से सीख सकते हैं की क्या नहीं करना चाहिए | फलाना व्यक्ति ने ऐसा क्या किया जिससे वो असफल हुआ | यहाँ एक खास बात और हैं आप अपनी असफलता  से भी सीख सकते हैं | ज्यादातर होता यह है की जब हम असफल होते हैं तो इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते की हम से कुछ गलती हुई है | इस कारण हम दूसरों पर दोष लगाने लगते हैं |  मसलन फलां ने काम सही नहीं किया |फलां दोस्त उस समय पैसे देने से मुकर गया | या फलां व्यक्ति को परखने में मुझसे भूल हो गयी | अगर कोई भी कारण नहीं मिलता है तो हम भाग्य को दोष देने लगते हैं | अरे , मेरा तो भाग्य ही खराब है | मैं कुछ भी करूँ काम बनता ही नहीं है | पर अगर आप अपने अहंकार को जरा हटा कर सोंचेंगे तो आपको  अपनी कमियाँ स्वीकारने का साहस आएगा | असफलता से सीखने के लिए करें सेल्फ एनालिसिस                              दोस्तों , कठिन है पर अपनी असफलता से सीखने के लिए सेल्फ एनालिसिस की जरूरत होती है |जैसे … मैंने पढाई नहीं की इसलिए नंबर कम आये टीचर के फेवरेटिज्म नहीं मेरे नम्बर मेरे दोस्त से कम इसलिए आये क्योंकि इस सा उत्तर देने के बावजूद मैं स्पेलिंग मिस्टेक ज्यादा की थीं | मेरी दोस्त मुझसे ज्यादा टेलेंटेड हैं | उससे प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए मुझे ज्यादा समय सीखने में लगाना होगा अगर मैं ऑफिस में प्रमोशन नहीं पा  रहा हूँ | जबकि मैं काम सबसे बेहतर करता हूँ तो हो सकता है मैं अपने काम को ठीक से रीप्रेजेंट नहीं कर पा  रहा हूँ | अगर फलां व्यक्ति जिसे मैंने नौकरी पर लगाया था | ठीक से काम नहीं कर रहा तो भी मेरी गलती है | क्योंकि मैं योग्य व्यक्ति का चयन करने में असफल हो गया |  अगर मेरी टीम योग्य होते हुए भी सही काम नहीं कर पा  रही है तो जरूरी मुझसे टीम कोलीद करने में कुछ गलतियाँ हुई होंगी  बिजनेस में फेल होने की वजह मेरे प्रोडक्ट में ये कमी हो सकती है या फिर मेरी कस्टमर से डीलिंग सही नहीं है | या मैं प्रोडक्ट का प्रमोशन सही तरीके से नहीं कर पा रहा हूँ |  ये तो कुछ उदाहरण हैं | हर काम और उसमें असफलता के अलग –अलग कारण होते हैं | जरूरी है हम उनकी एनालिसिस करें | अपनी गलतियों को स्वीकारें | यही उन्हें सुधार  कर आगे बढ़ना  सफलता की ओर ले जाने वाला पहला कदम होता है | जितने भी सफल व्यक्ति हुए हैं वो कई बार असफल हुए पर उन्होंने सफलता इसलिए पायी क्योंकि उन्होंने प्रयास नहीं छोड़ा अपनी असफलता को स्वीकार किया असफलता के लिए स्वयं को जिम्मेदार माना पूरे जी जान  उस कमी को दूर करने का प्रयास किया और निरंतर ये प्रयास करते रहे |   दोस्तों अगर आप सफल हैं तो उस सफलता को बरकरार रखने या युस मुकाम से आगे बढ़ने के लिए और यदि असफल हैं तो … Read more

रधिया अछूत नहीं है

रधिया सुबह उठ, अपने घर मे, गुनगुनाते हुए, चाय का पानी रख चुकी थी।तभी उसकी बहन गायत्री ने उसे टोका, क्या बात है, कहे सुबह-सुबह जोर जोर से गाना गा रही है? कोई चक्कर है क्या? हाँ! है तो, आंख तरेरते हुए रधिया बोली, सबको अपनी तरह समझा है न? और दोनों बहनें खिलखिला कर हँस दी। रधिया, गायत्री, निम्न वर्ग की, साधारण शक्ल सूरत की लड़कियां, सांवली अनाकर्षक,पर हंसी शायद हर चेहरे को खूबसूरत बना देती है। अब उनका घर वैसा निम्न वर्ग भी नही रह गया था,जैसा गरीबों का घर होता है। जबसे रधिया, गायत्री, बड़ी हुई थी, पूनम को मानो दो बाहें मिल गई थी।तीनो ही घरों में खाना बनाने से लेकर झाड़ू, पोछें और बर्तन का काम करती, और कोठी वालों की कृपा से उनको हर वो समान मिल चुका था, जो कोठियों में अनावश्यक होता, मसलन, डबल बेड, पुराना फ्रिज, गैस का चूल्हा, सोफे भी। तीज, त्योहार के अलावा, वर्ष भर मिलने वाले कपड़े,बर्तन और इनाम इकराम अलग से।मौज में ही गुज़र रही थी सबकी ज़िंदगी। पूनम का पति रमेसर चाय का ठेला लगाता था,और रात में देसी दारू पीकर टुन्न पड़ा रहता। गाली गलौज करता पर तीनो को ही उसकी परवाह न थी। अगर वो हाथ पैर चलाता, तो तीनों मिलकर उसकी कुटाई कर देती,और वो पुनः रास्ते पर।     दिन भर तीनों अपने अपने बंगलों में रहती। रधिया का मन,अपने मालिक,जिनको वो अंकल जी कहती थी,वहां खूब लगता। अंकल जी लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे,सो रधिया को निरंतर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। और उन्ही की प्रेरणा के कारण वो हाई स्कूल और इंटर तृतीय श्रेणी में पास कर सकी थी। इस घर मे पहले उसकी मां काम करती थी, तब वो मुश्किल से 3,4 वर्ष की रही होगी। नाक बहाती ,गंदी सी रधिया। पर बड़े होते होते उसे  कोठियों में रहने का सलीका आ चुका था और कल की गंदी सी रधिया, साफ सुथरी रधिया में बदल चुकी थी। अंकल जी का एक ही बेटा था। जो मल्टीनेशनल में काम करता था। रधिया बचपन से ही उसे सुधीर भइया कहती थी। सुधीर की शादी में दौड़ दौड़ कर काम करने वाली रधिया, प्रिया की भी प्रिय बन चुकी थी।अपने सारे काम वो रधिया के सर डाल निश्चिन्त रहती। क्योंकि वो भी एक कार्यरत महिला थी और उसका लौटना भी रात में देर से ही होता।बाद में बच्चा होने के बाद उस बच्चे से भी रधिया को अपने बच्चे की तरह ही प्यार था। उसे  घर मे उसे 15 वर्ष हो चले थे। प्यार उसे इतना मिला था कि अपने घर जाने का मन ही न करता। सुधीर की आंखों के आगे ही बड़ी हुई थी रधिया। सो उसे चिढ़ाने से लेकर उसकी चोटी खींच देने से भी वो परहेज न करता। रधिया भी भइया भइया कहते हुए सुधीर के आगे-पीछे डोलती रहती। आज भी रोज की भांति कार का हॉर्न सुन रधिया बाहर भागी। सुधीर के हाथों ब्रीफ़केस पकड़ वो अंदर चली। उसे पता था अब सुधीर को अदरक, इलायची वाली चाय चाहिए। जब चाय का कप लेकर वो सुधीर के कमरे में पहुंची, तो सुधीर टाई की नॉट ढीली कर के आराम कुर्सी पर पसरा था,और उसके हाथों में था एक ग्लास, जिसमे से वो घूंट घूंट करके पीता जा रहा था। रधिया के लिए ये कोई नया दृश्य न था। बगैर कुछ कहे वो पलटी, और थोड़ी ही देर में दालमोठ और काजू, एक प्लेट में लाकर, सामने की मेज पर रख दिया। भइया, थोड़े पकौड़े बना दूं? हाँ बना दे, कह कर सुधीर पूर्ववत पीता रहा। थोड़ी देर में ही पकौड़ी की प्लेट के साथ पुनः लौटी रधिया, इस बार सुधीर को टोकती हुई बोली,ठीक है भइया, पर ज्यादा मत पिया करो वरना भाभी से शिकायत कर दूंगी। अच्छा??? इस बार सुधीर की आंखों में कौतुक के साथ, होंठों पर मंद स्मित भी था। कर देना शिकायत भाभी से— कहते हुए उसने रधिया को अपनी ओर खींच लिया। दरवाजा बंद हो चुका था और लाइट ऑफ। आश्चर्य! रधिया की तरफ से कोई प्रतिवाद न था। उस दिन के बाद से उसका मन उस कोठी में और लगने लगा था। आखिर “अछूत” से छुए जाने योग्य जो बन गई थी और ये उसके लिए एक अवर्चनीय सुख था। रश्मि सिन्हा  यह भी पढ़ें … लली  वो क्यों बना एकलव्य  टाइम है मम्मी काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता

तो मैं तो

तुलना हमेशा नकारात्मक नहीं होती | कई बार जब हम दुःख में होते हैं | तो ऐसा लगता है जैसे सारा जीवन खत्म हो गया | पर उसी समय किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर जो हमसे भी ज्यादा विपरीत परिस्थिति में संघर्ष कर रहा है | मन में ये भाव जरूर आता है कि जब वो इतनी विपरीत परिस्तिथि में संघर्ष कर सकता हैं तो मैं तो …. आज इसी विषय पर एक बहुत ही प्रेरक लघु कथा लाये हैं कानपुर  के सुधीर द्विवेदी जी | तो आइये पढ़ते हैं  … motivational short story – तो मैं तो  अँधेरे ने रेल पटरी को पूरी तरह घेर रखा था । वो सनसनाता हुआ पटरी के बीचो-बीच मन ही मन सोचता हुआ बढ़ा जा रहा था । ‘ हुँह आज दीवाली के दिन कोई ढंग का काम नहीं मिला …पूरे दिन में पचास रुपये कमाए थे वो भी उस जेबकतरे ने..। हम गरीबों के लिए क्या होली क्या दीवाली ..साला जीना ही बेकार है अपुन का..।‘  सोचते हुए उसनें पटरी पर पड़े पत्थर पर जोर से लात मारी । अँगूठे से रिसते घाव ने उसका दर्द और बढ़ा दिया था । तभी पटरी पर धड़धड़ाती आती हुई रेलगाड़ी को देख उसका चेहरा सख्त हो गया । शायद मन ही मन वो कोई कठोर निर्णय ले चुका था । रेलगाड़ी और उसके बीच की दूरी ज्यूँ-ज्यूँ दूरी घटती जा रही थी उसकी बन्द आँखों में दृश्य चलचित्र की तरह चल रहे थे । भूखे बेटे का मासूम चेहरा , घर में खानें के लिए कुछ न होने पर खीझती पत्नी ,गली से निकलते सब्जी वाले की आवाज़ …। खट से उसकी आँखें खुल गयी  “जब वो सब्जी वाला एक हाथ कटा होनें पर भी जिंदगी से लड़ रहा है तो मैं तो… ?”अपनें दोनों मजबूत हाथो को देखते हुए वो फुसफुसाया । सीटी बजाती हुए रेलगाड़ी धड़-धड़ करती हुई अब उसके सामनेँ से गुजर रही थी । उसका चेहरा तेज़ रोशनी में दमक उठा था । सुधीर द्विवेदी जो परिस्थितियाँ हमें मिली हैं हमें उन्हीं में संघर्ष करना चाहिए विषय पर सुधीर द्विवेदी जी की  motivational short story – तो मैं तो आपको कैसी लगी | पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आप को “अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद हैं तो कृपया हमारा फ्री ई मेल सब्स्क्रिप्शन लें ताकि हम लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके ई मेल पर भेज सकें |  यह भी पढ़ें ……. मिटटी के दिए झूठा एक टीस आई स्टिल लव यू पापा

मिट्टी के दिए

दीपावली पर मिट्टी के दिए जलाने की परंपरा है | भले ही आज बिजली की झालरों ने अपनी चकाचौंध से दीपावली की सारी  जगमगाहट अपने नाम कर ली हो | फिर भी अपनी परंपरा और अपने पन से जुड़े रहने का अहसास तो मिटटी के दिए ही देते हैं | आइये पढ़ें …  emotional hindi story-मिट्टी के दिए  मैं मंदिर के पास वाली दुकान में नीचे जमीन पर पड़े मिट्टी के दीयों में से दिए छांट रही थी | एक – एक देखकर  कि कहीं कोई चटका या टूटा तो नहीं है , करीने से अपनी डलिया  में भर रही थी | हाथ तो अपना काम कर रहे थे पर दिमाग में अभी कुछ देर पहले अपनी पड़ोसन श्रीमती जुनेजा के साथ हुआ वार्तालाप चल रहा था | श्रीमती जुनेजा  कह रही थीं  ,” कमाल है , तुम दिए लेने जा रही हो ?क्या जरूरत है मिट्टी  के दिए लाने की , बिजली की झालरों की झिलमिल की रोशिनी के आगे दिए की दुप – दुप कितनी देर की है | परंपरा के नाम पर बेकार में  पैसे फूंको | मैं जानती थी की कुम्हार , उसका रोजगार , बिज़ली की  बर्बादी ये सब उन्हें समझाना व्यर्थ है | इसलिए मैंने धीमें से मुस्कुरा कर कहा ,मैं इसलिए लाऊँगी क्योंकि मुझे दिए पसंद हैं | कई बार जब हम बहुत कुछ कहना चाहते हों और कह न सकें तो वो बातें दिमाग में चलती रहती हैं |किसी टेप रिकार्डर की तरह |  मेरा भी वही हाल था | हाथ दिए छांट रहे थे और दिमाग मिटटी के दीयों के पक्ष में पूरा भाषण तैयार कर रहा था | तभी एक सुरीली सी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी | भैया , थोड़े से फूल , थोड़े से इलायची  दाने और … और आज जिस गॉड की पूजा होती है उनका कोई कैलेंडर हो तो दे दीजियेगा  मैंने पलट कर देखा , यही कोई 25 -26 साल की लड़की खड़ी थी | आधुनिक लिबास ,करीने से कटे बाल ,  गले में शंखों की माला , कान में बड़े – बड़े शंखाकार इयरिंग्स और मुँह में चुइंगम | मैंने मन ही मन सोंचा ,ये और पूजा … हम कितनी सहजता से किसी के बारे में धारणा बना लेते हैं | मुझको अपनी ओर देखते हुए बोली ,” आंटी , आज किस गॉड की पूजा होती है | शायद धन्वंतरी  देवी की | जिनका आयुर्वेद से कुछ कनेक्शन है | मैंने मुस्कुरा कर कहा ,” धन्वंतरी देवी नहीं , देवता | उन्हें आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है |धनतेरस पर उनकी पूजा होती है | क्योंकि स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है | मैं बोल तो गयी पर मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा ही बोल रही हूँ  | क्या ये बढती हुई उम्र का असर है कि हर किसी को प्रवचन देते चलो | या जैसा की मैंने कहीं पढ़ा था की जब सुपात्र मिल जाए तो ज्ञान अपने आप छलकने लगता है | खैर , वो मुझे कहीं पलट कर कुछ बेतुका  जवाब न दे दे | यह सोंच कर मैंने अपना ध्यान फिर से मिटटी के दिए चेक करने में लगा दिया | मेरी आशा के विपरीत वो मेरे पास आ गयी और ख़ुशी से चिहक कर बोली ,” वाओ ! मिटटी के दिए , मैं भी लूँगी | आंटी आज तो कुछ स्पेशल डिजाइन का दिया जलता है | हाँ , पर तुम्हें इतना कैसे पता  है , मैंने प्रश्न किया | मैंने नेट पर पढ़ा है | मैंने पूजा की पूरी विधि भी पढ़ी है | मैं अपने फ्रेंड्स के साथ पूरे रिचुअल्स मनाऊँगी | बहुत मज़ा आएगा | मेरी उत्सुकता बढ़ी | बातें होने लगीं | बातों  ही बातों में उसने बताया कि मात्र सोलह साल की थी जब डेल्ही कॉलेज ऑफ़ इंजीनीयरिंग में घर छोड़ कर पढाई करने आ गयी थी | फिर यहीं से M .B .A किया | फिर जॉब भी यही लग गया | इंजीनीयरिंग कॉलेज में सेलेक्शन से बरसों पहले ही  जीवन में बस किताबें ही थी |खेलना कूदना और त्योहारों की मस्ती जाने कब की छूट गयी |  सेलेक्शन और फिर जॉब के बाद परिवार , त्यौहार और घर बार सब छूट गया | अभी P .G में रहती है , कई लडकियां हैं | सब ने डिसाइड किया है कि त्यौहार पूरी परंपरा  के अनुसार ही मानायेंगे | इंटरनेट से जानकारी ली और चल दीं  खरीदारी करने | लम्बी सांस भरते हुए उसने आगे कहा ,” आंटी , हम सब … न्यू  जनरेशन जो आत्म निर्भर है , आज़ाद ख्याल है | फिर भी हम परंपरागत तरीके से हर त्यौहार मनाना चाहते हैं | जानती हैं क्यों ? क्योंकि इतना सब होते हुए भी हम सब अकेलेपन का शिकार हैं | इसी बहाने ही सही थोडा सा अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास होता है | लगता है अभी भी “इस मैं में कहीं हम बस रहा है |” मेरे अन्दर माँ बस रही हैं , बाबूजी बस रहे हैं और दिल्ली की बड़ी इमारतों के बीच में मेरा छोटा सा क़स्बा बस रहा है | ओ . के . आंटी , मेरा तो हो गया , बाय …कहकर वो चली गयी | मैं भावुक हो गयी | मुझे अभी और दिए लेने हैं …मिटटी के दिए , जो बिजली की झालरों के सामने भले ही दुप -दुप् जलते हों , पर इसमें जो अपनेपन के अहसास की चमक है  उसका मुकाबला ये बिजली की झालरे  कर पाएंगी भला ? वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. उसकी मौत झूठा एक टीस आई स्टिल लव यू पापा

एक टीस

दीपावली की रात थी । पूरा शहर चाईनीज़ झालरों की रोशनी से जगमगा रहा था, पर जग्गी कुम्हार के छप्पर में जीरो वाट का बल्ब टिम टिमा कर उजाला फैलाने की नाकाम कोशिश कर रहा था।  रात के नौं बज चुके थे। अब और ग्राहक आने की उम्मीद न बची तो, जग्गी की घरवाली रज्जो अपन बचे हुए दीयों को समेट कर बोरे में भरने लगी। ” बिक लिये जितने बिकने हे ” इस बार तो ऐसा लगै है , चौथाई बी ना बिके ” । दियों को समेटती जा रही थी और धीरे धीरे बड़बडा़ रही थी। ” आग लगै इन बिदेसी झाल्लरों को, जब सै ये देस मैं बिकने लगी हैं, सहर तो जगमगा दिया, पर म्हारे घर मैं तौ अन्धेरा कर दिया इन्होंनै,! म्हारा तो धन्धा ही चौपट हो गया! साल भर मे येयी तो दिन हे, जब दो पैसे कमा लेवै हे, अब वे भी गये। अब तौ कोई दीये खरीदता ही नहीं, बस नेग के लियों खरीदैं हैं पांच सात दीये। और तौ और, लुगाइयां भी इतनी सुघड़ हो गीं हैं कि होई, करवा चौथ पै बी इस्टील के लोटे रक्खन लगीं, जैसै दस रुपे के करवे खरीदने मैं लुट जात्ती होंये”, बजार में तौ दो सौ रुपे की चाट पकोडी़ एक मिनट में गड़प करके भाव भी ना पूच्छैं । सारी तिजौरी उन दस रुपों में ही भर लेंगी जैसै “।  तभी पीछे से उसका छः साल क बेटा कन्नू दौड़ता हुआ आया और मां पल्ला खींचने लगा “माँ माँ! देख!! बाहर कितनी रोसनी हो री है! सारा चमचम हो रा है, । पर…. हमारे घर मैं तो अन्धेरा क्यूँ हो रा है, फिर कुछ सोच कर कहने लगा ” माँ हमारे पास तो इतने दीये हैं… सब से ज्यादा.. तूभी जला ना! माँ !! भौत सारे दीवे”!!  बेटे को मचलते देख मां का दिल रोने लगा, ” कैसे बताऊं उसे कि बेटा , दीये तो बहुत हैं पर!!! उनमें डालने को तेल कहां से लाऊं।  सुनीता त्यागी मेरठ। यह भी पढ़ें ……… उसकी मौत झूठा सफलता का हीरा पापा ये वाला लो

आई स्टिल लव यू पापा

अंतर्राष्ट्रीय बिटिया दिवस पर एक बेटी की मार्मिक गाथा प्यारे पापा अंतर्राष्ट्रीय बिटिया दिवस पर न जाने क्यों आपसे कुछ कहने का मन हो रहा है लड़के मांगें जाते हैं मांग – मनौतियों से , बेटियाँ पैदा हो जाती हैं | वैसे ही जैसे गेंहूँ के खेत में खर – पतवार उग आती है | वैसे ही लडकियां आ जाती हैं कोख में अनचाही सी | कोसी जाती हैं दिन रात की  खा रहीं है मेरे बेटे के हिस्से का खाद – पानी | तभी तो बढ़ नहीं पाती हैं अपनी पूरी ताकत भर | फिर काट कर फेंक दी जाती हैं एक दिन ये सोंचे बिना की क्या होंगा उनका | पापा आप भी सोंच रहे होंगे मैं ऐसा क्यों लिख रही हूँ | वो भी अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस के दिन | एक बेटी जो अपने पिता से इतना प्यार करती है वो ऐसे कैसे लिख सकती है | फिर भी कुछ तो है जो कहने को मन बेचैन हो रहा है | आई लव यू पापा , इससे बेहतर शुरुआत मेरी दास्तान की कुछ और नहीं हो सकती | ये शब्द मैंने शायद तब कहा था जब मैंने पापा कहना भी नहीं सीखा था | जब मेरी नन्ही – नहीं अंगुलियाँ आप की दाढ़ी छूती और आप मेरा हाथ झटक देते तब भी मेरे मन से आई लव यू पापा निकलता | उस समय मुझे ये भी नहीं पता था की आप और दादी  बेटी नहीं बेटा  चाहते थे |  और आ गयी मैं , अनचाही सी | उस पर भी मेरे जन्म के समय माँ का गर्भाशय फट जाने के कारण किसी दूसरी संतान की गुंजाइश ही नहीं रही |  ताने उलाहनों से आजिज़ आ कब मेरी माँ ने मुझे इस दुनिया की सारी  सजाये भोगने के लिए अकेला छोड़ कर दूसरे लोक जाने का फैसला कर लिया , मुझ अबोध को पता ही नहीं चला |माँ मुक्त हो गयीं मैं कैद | जब पता चला तो मैंने माँ को ही कमजोर समझा था | जो अपनी लड़ाई लड़ नहीं पायीं | और उस नन्हीं सी उम्र में मैंने निर्णय ले लिया था की चाहें जितनी विपरीत परिस्तिथियाँ आये मैं उनके आगे झुकुंगी नहीं |  आप दूसरी माँ ले आये | जिन्होंने आपको कुल दीपक दिया | सौतेली माँ  के अत्याचार और भेदभाव के साथ मेरा गहरा काला रंग मेरे दुखों का कारण  बना | माँ तो सौतेली थी पर आप  तो मेरे अपने थे पापा | आप ने क्यों नहीं समझा मेरा दर्द जब आप माँ के साथ मेरे रंग पर टिप्पड़ी करते हुए कहा करते थे की इसको कौन ब्याहेगा | इसका तो रंग ही देख कर लड़के वाले डर  जायेंगें | मैं सोंचती शायद मेरा रंग इतना काला है इस कारण ये मेरे पिता की ईमानदार टिप्पड़ी है | मुझे अफ़सोस होता की मेरे कारण मेरे पिता को मेरे लिए वर खोजने में  परेशानी उठानी पड़ेगी | मैं रातों को कितना तड़फ – तड़फ कर रोती पर तब भी कहती , आई लव यू पापा आप मेरी वजह से परेशान  न हों मैं शादी नहीं करूँगीं | एक दिन हिम्मत करके यही ऐलान मैंने सबके सामने कर दिया | मेरी उम्मीद के विपरीत सब बहुत खुश हुए | दहेज़ के पैसे बचे | मैं खुश थी की सब खुश हैं | मैं अपने सरकारी स्कूल में टॉप करती रही व् छोटा भाई महंगे इंगलिश मीडियम में फेल होता रहा | कितनी बार उसने एक क्लास को दुबारा पढ़ा | तब तक किसी को कोई दिक्कत नहीं थी | दिक्कत तब हुई जब मैंने कॉलेज जाने की फीस के पैसे  मांगे  |  आपने इनकार कर दिया | घर के तमाम खर्चे गिना दिए | ये जानते हुए भी की आप झूठ बोल रहे हैं मैंने आप की बात पर पूरा विश्वास करने की कोशिश की | क्यों ?  क्योंकि आइ लव यू पापा | मैंने  फीस के लिए छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का निर्णय लिया | पढ़ लिख कर मुझे नौकरी मिल गयी | उसी शहर में मैं किराए के घर में रहने लगी | आप और माँ चाहते थे की इन पैसों से मैं परिवार की मदद करूँ , आखिर अकेले का मेरा खर्चा ही कितना था | पर मैंने ऐसी लड़कियों को अपने पास रखने और पढ़ाने का जिम्मा उठाया जो अपनों के होते हुए भी अनाथ थीं | जो सारा भेदभाव झूठे आई लव यू पापा के शब्दों के अन्दर दफनाये हुई थी | मेरी ये पहल सबको नागवार गुज़री और मेरा उस घर में आप सब से मिलने आना अवांछित हो गया | फिर भी मैं आती रही | कुछ नहीं तो अपने बचपन को छू लेने के लिए , सहेज लेने के लिए | समय कब पंख लगा के उड़ गया |दूसरी  माँ भी राम जी को प्यारी हो गयीं | भैया आप को आपके हाल पर छोड़ अपने परिवार के साथ खुश रहने लगा | ऐसे समय में आप गंभीर रूप से बीमार पड़े | अब आप को अपनों की सख्त जरूरत थी | तब आपके पास कोई अपना नहीं था | मैं … मैं कैसे न जाती … आफ्टर आल आई लव यू पापा | आप की बीमारी ओपरेशन और देखभाल का जिम्मा मैंने ख़ुशी – ख़ुशी निभाया | आने जाने वालों की आव – भगत की | सब कह रहे थे की बेटी हो तो ऐसी | आपकी आँखों में भी प्रशंसा के भाव थे | पर आपने कहा कभी नहीं | आप ठीक हो गए मैं बहुत खुश थी | उस दिन जल्दी घर  आने के लिए स्कूल से निकली | रास्ते में कुछ  फूल ले लिए | यूँ ही आप को देने के लिए | दरवाजे से किसी के साथ आप की बात करने की आवाज़ सुनाई दी | आप कह रहे थे ,” वकील साहब , ये सही है की बिटिया ने मेरी बहुत सेवा की है | मुझे मरते से बचाया है | पर जमीन जायदाद तो वंश में जाए तो ठीक है | बिटिया ने इतनी सारी  बच्चियों की जिम्मेदारी ले रखी है | क्या पता मेरे मरने के बाद लालच आ जाए | वैसे दिल की अच्छी है |पर जिम्मेदारी के लिए … Read more