अदृश्य हमसफ़र -अव्यक्त प्रेम की प्रभावशाली कथा

        “अदृश्य हमसफ़र ” जैसा की नाम से ही प्रतीत होरहा है किये एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें प्रेम अपने मौन रूप में है | जो हमसफ़र बन के साथ तो चलता है पर दिखाई नहीं देता | ये अव्यक्त प्रेम की एक ऐसी गाथा है जहाँ प्रेम में पूर्ण समर्पण के बाद भी पीड़ा ही पीड़ा है पर अगर ये पीड़ा ही किसी प्रेमी का अभीष्ट हो उसे इस पीड़ा में भी आनंद आता हो … अदृश्य हमसफ़र   यूँ तो प्रेम दुनिया का सबसे  खूबसूरत अहसास है , पर जब यह मौन रूप में होता है तो पीड़ा दायक भी होता है,  खासतौर से तब जब प्रेमी अपने प्रेम का इज़हार तब करें जब उसकी प्रेमिका 54 वर्ष की हो चुकी हो और वो खुद कैंसर से अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहा हो | वैसे ये कहानी एक प्रेम त्रिकोण है पर इसका मिजाज कुछ अलग हट के है | प्रेम की दुनिया ही अलग होती | प्रेम  में कल्पनाशीलता होती है और इस उपन्यास में भी उसी का सहारा लिया गया है |  कहानी  मुख्य रूप से तीन पात्रों के इर्द -गिर्द घूमती है … अनुराग , ममता और देविका | अनुराग -चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर   जहाँ अनुराग  एक प्रतिभाशाली ब्राह्मण बच्चा है जिसे छुटपन में ही ममता के पिता गाँव से अपने घर ले आते हैं ताकि उसकी पढ़ाई में बाधा न आये | अनुराग स्वाभिमानी है वह इसके बदले में घर के बच्चों को पढ़ा देता है व् घर के काम दौड़ -दौड़ कर कर देता है | धीरे -धीरे अनुराग सबका लाडला हो जाता है | घर की लाडली बिटिया ममता को यूँ अपना सिंघासन डोलता अच्छा नहीं लगता औ वह तरह -तरह की शरारतें कर के अनुराग का नाम लगा देती है ताकि बाबा उसे खुद ही वापस गाँव भेज दें | ये पढ़ते हुए मुझे ” गीत गाता चल “फिल्म के लड़ते -झगड़ते सचिन सारिका याद आ रहे थे , पर उनकी तरह दोनों आपस में प्यार नहीं कर बैठते | यहाँ केवल एकतरफा प्यार है -अनुराग का ममता के प्रति |अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है | ये उसके प्रेम की ही पराकाष्ठा  है कि ममता के प्रति इतना प्रेम होते हुए भी वो बाबा से ममता का हाथ नहीं माँगता ताकि ममता के नाम पर कोई कीचड़ न उछाले | ममता के मनोहर जी से विवाह के बाद वो उससे कभी का फैसला करता है , फिर भी  वो अदृश्य हमसफ़र की तरह हर पल ममता के साथ है उसके हर सुख में , हर दुःख में | ममता -दिल -विल प्यार -व्यार मैं क्या जानू रे  ममता अनुराग के प्रेम को समझ ही नहीं पाती वो बस इतना जानती है कि अनुराग उसके पलक झपकाने से पहले ही उसके हर काम को कर देता  है | ममता अनुराग को अनुराग दा कह कर संबोधित करती है , पर रिश्ते की उलझन को वो समझ नहीं पाती कि क्यों उसे हर पल अनुराग का इंतज़ार रहता है , क्यों उसकी आँखें हमेशा अनुराग दा को खोजती है , क्यों उसके बार -बार झगड़ने में भी एक अपनापन है | वो मनोहर जी की समर्पित पत्नी है , दो बच्चों की माँ है , दादी है , अपना व्यवसाय चलाती है पर अनुराग के प्रति  अपने प्रेम को समझ नहीं पाती है | शायद वो कभी भी ना समझ पाती अगर 54 साल की उम्र में देविका उसे ना  बताती | तब अचानक से वो एक चंचल अल्हड किशोरी से गंभीर प्रौढ़ा बन जाती है जो स्थितियों को संभालती है | देविका -तुम्ही मेरे मंदिर …..तुम्ही देवता हो            अनुराग की पत्नी देविका एक ऐसी  पत्नी है जिसको समझना आसान नहीं है | ये जानते हुए भी कि अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है उसके मन में जो भी प्रेम है वो सिर्फ और सिर्फ ममता के लिए है देविका उसकी पूजा करती है उसे हर हाल में अपने पति का साथ ही देना है | वो ना तो इस बात के लिए अपने पति से कभी झगडती है कि जब ममता ही आपके मन में थी तो आपने मुझसे विवाह क्यों किया ? या पत्नी को सिर्फ पति का साथ रहना ही नहीं उसका मन भी चाहिए होता है | उसे तो ममता से भी कोई जलन नहीं | शिकायत नहीं है ये तो समझ आता है पर जलन नहीं है ये समझना मुश्किल है | देविका वस्तुत : एक लार्जर दे न  लाइफ ” करेक्टर है , जैसा सच में मिलना मुश्किल है | अदृश्य हमसफ़र की खासियत                        ये अलग हट के प्रेम त्रिकोण इसलिए है , क्योंकि इसमें ममता प्रेम और उसके दर्द से बिल्कुल् भी  प्रभावित नहीं है | हाँ अनुराग दा के लिए उसके पास प्रश्न हैं जो उसके मन में गहरा घाव करे हुए हैं , उसे इंतज़ार है उस समय का जब अनुराग दा उसके प्रश्नों का उत्तर दें | परन्तु प्रेम की आंच में अनुराग और देविका जल रहे हैं | ममता के प्रयासों से अन्तत : ये जलन कुछ कम होती है पर अब अनुराग के पास ज्यादा उम्र नहीं है , इसलिए कहानी सुखांत होते हुए भी मन पर दर्द की एक लकीर खींच जाती है और मन पात्रों में उलझता है कि ‘काश ये उलझन पहले ही सुलझ जाती | ‘ कहानी में जिस तरह से पात्रों को उठाया है वो बहुत  प्रभावशाली है | किसी भी नए लेखक के लिए किसी भी पात्र को भले ही वो काल्पनिक क्यों न हो विकसित करना कि उसका पूरा अक्स पाठक के सामने प्रस्तुत हो आसान नहीं है , विनय जी ने इसमें कोई चूक नहीं की है | कहानी  में जहाँ -जहाँ दृश्यों को जोड़ा गया है वहाँ इतनी तरलता है कि पाठक को वो दृश्य जुड़े हुए नहीं लगते और वो आसानी से तादाम्य बना लेता है | जैसी कि साहित्य का उद्देश्य होता है कि उसके माध्यम से कोई सार्थक सन्देश मिले | इस कहानी में भी कई कुरितियों  पर प्रहार … Read more

अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )

लघुकथा वो विधा है जिसमें थोड़े शब्दों में पूरी कथा कहनी होती है | आज के समय में जब समयाभाव के कारण लम्बी कहानी पढने से आम  पाठक कतराता है वहीँ लघुकथा अपने लघुआकार के कारण आम व् खास सभी पाठकों के बीच लोकप्रिय है | उम्मीद है आने वाले समय में ये और लोकप्रिय होगी | लोगों को लगता है कि लघुकथा लिखना आसान है पर एक अच्छी लघुकथा लिखना इतना आसान भी नहीं है | यहाँ लेखक को बहुत सूक्ष्म  दृष्टि की आवश्यकता होती है | उसमें उसे किसी छोटी सी घटना के अंदर छिपी बात समझना या उसकी सूक्ष्मतम विवेचना करनी होती है | और अपने कथ्य में उसे इस तरह से उभारना होता है कि एक छोटी सी बात जिसे हम आम तौर पर नज़रअंदाज कर देते हैं , कई गुना बड़ी लगने लगे | जिस तरह से नोट्स में हम हाईलाइटर का इस्तेमाल करते हैं ताकि छोटी सी बात को पकड़ सकें वहीँ काम साहित्य में लघुकथा करती है | विसंगतियां इसके मूल में होती हैं | लघुकथा में शब्दों का चयन बहुत जरूरी है | जहाँ कुछ शब्दों की कमी अर्थ स्पष्ट होने में बाधा उत्पन्न करती है वहीँ अधिकता सारे रोमच को खत्म कर देती है | यहाँ जरूरी  है कि लघुकथा का अंत पाठक को चौकाने वाला हो |  अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक ) आज में ऐसे ही लघुकथा संग्रह “अनुभूतियों के दंश “ की बात कर रही हूँ | डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ का यह संग्रह ई –बुक के रूप में है | कहने की जरूरत नहीं कि आने वाला जमाना ई बुक का होगा | इस दिशा में भारती जी का ये अच्छा कदम है , क्योंकि छोटे होते घरों , पर्यावरण के खतरे , बढ़ते कागज़ के मूल्य व् हर समय उपलब्द्धता के चलते एक बड़ा पाठक वर्ग ऑन लाइन पढने में ज्यादा रूचि ले रहा है | अंतरा शब्द शक्ति .कॉम  पर प्रकाशित इस संग्रह में १८ पृष्ठ हैं व् १२ लघुकथाएं हैं | सभी लघुकथाएं प्रभावशाली हैं | कहीं वो समाज की किसी विसंगति पर कटाक्ष करती हैं ….संतुष्टि , समझ , समाधान , मुखौटा आदि तो कहीं वो संस्कारों की जड़ों से गहरे जुड़े रहने की हिमायत करती हैं …टूटता मौन ,संस्कार , कहीं वो समस्या का समाधान करती हैं ….विजय और जूनून ,पहचान ,वहीँ कुछ भावुक सी कर देने वाली लघुकथाएं भी हैं जैसे … मायका प्रेरणा और पीली पीली फ्रॉक | पीली फ्रॉक को आप अटूट बंधन.कॉम में पढ़ चुके हैं | यूँ  तो सभी लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं पर एक महिला होने के नाते लघु कथा  मायका और जूनून ने मेरा विशेष रूप से ध्यान खींचा |जहाँ मायका बहुत ही भावनात्मक तरीके से  बताती है कि जिस प्रकार एक लड़की का मायका उसके माता –पिता का घर होता है उसी प्रकार लड़की के वृद्ध माता –पिता का मायका लड़की का घर हो सकता है | एक समय था जब लड़की के माता –पिता अपनी बेटी से कुछ लेना तो दूर उसके घर का पानी पीना भी नहीं  पीते थे | अपनी ही बेटी को दान में दी गयी वस्तु समझने का ये समाज का कितना कठोर नियम था | ये छोटी सी कहानी उस रूढी पर भी प्रहार करती है जो विवाह होते ही लड़की को पराया घोषित कर देती है | वहीँ ‘विजय’ कहानी एक महिला के अपने भय पर विजय है | एक ओर जहाँ हम लड़कियों को बेह तर शिक्षा दे कर आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दे रहे हैं वहीँ हम बहुओं को अभी भी घरों में कैद कर केवल परिवार तक सीमित रखना चाहते हैं | उसे कहीं भी अकेले जाने की इजाज़त नहीं होती | हर जगह पति व् बच्चे उसके संरक्षक के तौर पर जाते हैं | इससे एक तरफ जहाँ स्त्री घुटन की शिकार होती है वहीँ दूसरी तरफ एक लम्बे समय तक घर तक सीमित रहने के कारण वो भय की शिकार हो जाती है उसे नहीं लगता कि वो अकेले जा कर कुछ काम भी कर सकती है | ज्यादातर महिलाओं ने कभी न कभी ऐसे भय को झेला है| ये कहानी उस भय पर विजय की कहानी है |एक स्त्री को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस भय पर विजय पानी ही होगी |   भारती जी एक समर्थ लेखिका हैं | आप सभी ने atootbandhann.com पर उनकी कई रचनाएँ पढ़ी हैं | उनकी अनेकों रचनाओं को पाठकों ने बहुत सराहा है | उनके लेख त्योहारों का बदलता स्वरुप को अब तक 4408 पाठक पढ़ चुके हैं, और ये संख्या निरंतर बढ़ रही है | आज साहित्य जगत में भारती जी अपनी एक पहचान बना चुकी हैं व् कई पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं  | निश्चित रूप से आप को उनका ये लघुकथा संग्रह पसंद आएगा | लिंक दे रही हूँ , जहाँ पर आप इसे पढ़ सकते हैं | अनुभूतियों के दंश अपने लघुकथा संग्रह व् लेखकीय भविष्य के लिए भारती जी को हार्दिक शुभकामनाएं |   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है  कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर आपको  समीक्षा   “अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )”कैसी लगी ? अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                   filed under- E-Book, book review, sameeksha, literature

देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें

कविता लिखी नहीं जाती है , वो लिख जाती है , पहले मन पर फिर पन्नों पर ….एक श्रेष्ठ कविता वही है जहाँ हमारी चेतना सामूहिक चेतना को व्यक्त करती है | व्यक्ति अपने दिल की बात लिखता है और समष्टि की बात उभर कर आती है | वैसे भी देहरी के अन्दर हम स्त्रियों की पीड़ा एक दूसरे से अलग कहाँ है ? देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें  घर परिवार की धुरी वह फिर भी अधूरी वह मोनिका शर्मा जी के काव्य संग्रह ” देहरी के अक्षांश पर पढ़ते  हुए न जाने कितने दर्द उभर आये , न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं और न जाने कितने सपने जिन्हें कब का दफ़न कर चुकी थी आँखों के आगे तैरने लगे | जब किसी लड़की का विवाह होता है तो अक्सर कहा जाता है ,”एक संस्कारी  लड़की की ससुराल में डोली जाती और अर्थी निकलती है “| डोली के प्रवेश द्वार और अर्थी के निकास द्वार के बीच देहरी उसकी लक्ष्मण रेखा है | जिसके अंदर  दहेज़ के ताने हैं , तरह -तरह की उपमाएं हैं , सपनों को मारे जाने की घुटन है साथ ही एक जिम्मेदारी का अहसास है कि इस देहरी के अन्दर स्वयं के अस्तित्व को नष्ट करके भी उसे सबको उनका आसमान छूने में सहायता करनी है | इस अंतर्द्वंद से हर स्त्री गुज़रती है | कभी वो कभी वो अपने स्वाभिमान और सपनों के लिए संघर्ष करती है तो कभी अपनों के लिए उन्हें स्वयं ही कुचल  देती है | मुट्ठी भर सपनों और अपरिचित अपनों के बीच देहरी के पहले पायदान से आरभ होती है गृहणी के जीवन की अनवरत यात्रा                   अक्सर लोग महिलाओं को कामकाजी औरतें और  घरेलु औरतों में बाँटते है परन्तु मोनिका शर्मा जी जब बात  का खंडन करती हैं तो मैं उनसे सहमत होती हूँ  …. स्त्री घर के बाहर काम करे या न करें गृहणी तो है ही | हमारे समाज में घर के बाहर काम करने वाली स्त्रियों को घरेलु जिम्मेदारियों से छूट नहीं है | स्त्री घर के बाहर कहीं भी जाए घर और उसकी जिम्मेदारियां उसके साथ होती हैं | हर मोर्चे पर जूझ रही स्त्री कितने अपराध बोध की शिकार होती है इसे देखने , समझने की फुर्सत समाज के पास कहाँ है |                            विडम्बना ये है कि एक तरफ हम लड़कियों को शिक्षा दे कर उन्हें आत्मनिर्भर बनने के सपने दिखा रहे हैं वहीँ दूसरी और शादी के बाद उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो अपने सपनों को  मन के किसी तहखाने में कैद कर दें | एक चौथाई जिन्दगी जी लेने के बाद अचानक से आई ये बंदिशें उसके जीवन में कितनी उथल -पुथल लाती हैं उसकी परवाह उसे अपने सांचे में ढाल लेने की जुगत में लगा परिवार कहाँ करता है … गृहणी का संबोधन पाते ही मैंने किसी गोपनीय दस्तावेज की तरह संदूक के तले में छुपा दी अपनी डिग्रियां जिन्हें देखकर कभी गर्वित हुआ करते थे स्वयं मैं और मेरे अपने                             फिर भी उस पीड़ा को वो हर पल झेलती है … स्त्री के लिए अधूरे स्वप्नों को हर दिन जीने की मर्मान्तक पीड़ा गर्भपात की यंत्रणा सी है                                         एक सवाल ये भी उठता है कि माता -पिता कन्यादान करके अपनी जिम्मेदारियों से उऋण कैसे हो सकते हैं | अपने घर के पौधे को पराये घर में स्वयं ही स्थापित कर वह उसे भी पराया मान लेते हैं | अब वो अपने कष्ट अपनी तकलीफ किसे बताये , किससे साझा  करे मन की गुत्थियाँ | एक तरह परायी हो अब और दूसरी तरफ पराये घर से आई हो , ये पराया शब्द उसका पीछा ही नहीं छोड़ता | जिस कारण कितनी बाते उसके मन के देहरी को लांघ कर शब्दों का रूप लेने किहिम्मत ही नहीं कर पातीं | मोनिका शर्मा जी की कविता “देह के घाव ” पढ़ते हुए सुधा अरोड़ा जी की कविता ” कम से कम एक दरवाजा तो खुला रहना चाहिए ” याद आ गयी | भरत के पक्ष में खड़े मैथिलीशरण गुप्त जब ” उसके आशय की थाह मिलेगी की किसको , जनकर जननी ही जान न पायी जिसको ” कहकर भारत के प्रति संवेदना जताते हैं | वही संवेदना युगों -युगों से स्त्री के हिस्से में नहीं आती | जैसा भी ससुराल है , अब वही तुम्हारा घर है कह कर बार -बार अपनों द्वारा ही पराई घोषित की गयी स्त्री देहरी के अंदर सब कुछ सहने को विवश हो जाती है | अपनों के बीच अपनी उपस्थिति ने उसे पराये होने के अर्थ समझाए तभी तो देख , सुन ये सारा बवाल उसके क्षुब्ध मन में उठा एक ही सवाल देह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को वो ह्रदय के जख्म कहाँ देख पायेंगे ?                    संग्रह में आगे बढ़ते हुए पन्ने दर पन्ने हर स्त्री अपने ही प्रतिबिम्ब को देखती है | बार -बार वो चौंकती है अरे ये तो मैं हूँ | ये तो मेरे ही मन की बात कही है | माँ पर लिखी हुई कवितायें बहद ह्रदयस्पर्शी है | माँ की स्नेह छाया के नीचे अंकुरित हुई , युवा हुई लड़की माँ बनने के बाद ही माँ को जान पाती है | कितना भी त्याग हो , कितनी भी वेदना हो पर वो माँ  हो जाना चाहती है | तपती दुपहरी , दहलीज पर खड़ी इंतज़ार करती , चिंता में पड़ी झट से बस्ता हाथ में लेकर उसके माथे का पसीना पोछती हूँ अब मैं माँ को समझती हूँ                           देहरी स्त्री की लक्ष्मण रेखा अवश्य है पर उसके अंदर सांस लेती स्त्री पूरे समाज के प्रति सजग है | वो भ्रूण हत्या के प्रतिसंवेदंशील है , स्त्री अस्मिता की रक्षा … Read more

हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है

अभी कुछ दिन पहले  गीताश्री जी का उपन्यास ” हसीनाबाद”  पढ़ा है  | पुस्तक भले ही हाथ में नहीं है पर गोलमी मेरे मन -मष्तिष्क  में नृत्य कर  रही है | सावन की फुहार में भीगते हुए गोलमी  नृत्य कर  रही है | महिलाओं के स्वाभिमान की अलख जगाती गोलमी नृत्य कर रही है , लोकगीतों को फिर से स्थापित करती गोलमी नृत्य कर  रही है | आखिर कुछ तो ख़ास है इस गोलमी में जो एक अनजान बस्ती में जन्म लेने के बाद भी हर पाठक के दिल में नृत्य कर  रही है | ख़ास बात ये  है कि गोलमी ” सपने देखती नहीं बुनती है”| गोलमी की इसी खासियत के कारण गीता श्री जी का ” हसीनाबाद”  खास हो जाता है | हसीनाबाद -कथा गोलमी  की जो सपने देखती नहीं बुनती है  लेखक  के दिल में कौन सी पीर उठती है कि वो चरित्रों का गठन करता है , ये तो लेखक ही जाने पर जब पाठक रचना में डूबता है तो लेखक के मन की कई परते भी खुलती हैं | जैसा की गीताश्री जी इस उपन्यास को राजनैतिक उपन्यास कहतीं है परन्तु एक पाठक के तौर पर मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हो पाती | ये सही है कि उपन्यास की पृष्ठभूमी राजनैतिक है परन्तु  गोलमी के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा चरित्र रचा है जिसके रग -रग में कला बसी है | उसका नृत्य केवल नृत्य नहीं है उसकी साँसे हैं , उसका जीवन है …. जिसके आगे कुछ नहीं है , कुछ भी नहीं | हम सबने बचपन में एक कहानी जरूर पढ़ी होगी ,” एक राजकुमारी जिसकी जान तोते में रहती है ” | भले ही वो कहानी तिलिस्म और फंतासी की दुनिया की हो ,पर  कला भी तो एक तिलस्म ही है , जिसमें मूर्त से अमूर्त खजाने का सफ़र है | एक सच्चे कलाकार की जान उसकी कला में ही बसती है | उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मैं गोलमी  में हर उस कलाकार को देखने लगती हूँ जो कला के प्रति समर्पित है … हर कला और कलाकार के अपने सुर , लय , ताल पर नृत्य करते हुए भी एक एकात्म स्थापित हो जाता है | एक नृत्य शुरू हो जाता है , जहाँ सब कुछ गौढ़ है बस कुछ है तो साँस लेती हुई कला | “हसीनाबाद “एक ऐसे बस्ती है जो गुमनाम है | यहाँ ठाकुर लोग अपनी रक्षिताओं को लाकर बसाते है ….ये पत्नियाँ नहीं  हैं,न ही वेश्याएं हैं | धीरे-धीरे  एक बस्ती  बस जाती है दुनिया के नक़्शे में गायब ,छुपी जिन्दा बस्ती , जहाँ रक्स की महफिलें सजती है | दिन में उदास वीरान रहने वाली बस्ती रात के अँधेरे में जगमगा उठती है और जगमगा उठती है इन औरतों की किस्मत | इस बस्ती के माध्यम से गीता जी देह व्यापार में  जबरन फंसाई गयी औरतों की घुटन ,  दर्द तकलीफ को उजागर करतीं   हैं | अपने -अपने ठाकुरों की हैसियत के अनुसार ही इन औरतों की हैसियत है परन्तु बच्चों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है ये भले ही अपने ठाकुरों के प्रति एकनिष्ठ हो पर इनकी संतानें इसी बस्ती की धुंध में खो जाने को विवश हैं | उनका भविष्य  तय है …लड़कियों को इसी व्यापर में उतरना है और लड़कों को ठाकुरों का लठैत  बनना है | यूँ तो हसीनाबाद साँसे ले रहा है पर उसमें खलबली तब मचती है जब इस बस्ती पर दुनिया  की निगाह पड़ जाती है नेताओं की दिलचस्पी इसमें जगती है क्योंकि ये एक वोट बैंक है |  ठाकुरों की कारिस्तानी को छुपाने के लिए ठाकुरों के बच्चों के बाप के नाम के स्थान पर ठाकुरों के नौकरों का नाम लिखवाया जाने लगता है | नायिका गोलमी की माँ सुंदरी जो कि ठाकुर सजावल सिंह  की रक्षिता है | ठाकुर से ही उसके दो बच्चे हैं एक बेटी गोलमी और बेटा रमेश | यूँ तो सुन्दरी को ऐश आराम के सारे साधन प्राप्त हैं पर उसके अंदर एक घुटन है …. एक स्त्री जो अपने पति के नाम के लिए तरसती है , एक माँ जो अपनी बेटी के इस देह व्यापार की दुनिया में  जिन्दा दफ़न हो जाने के आगत भविष्य से भयभीत है दोनों का बहुत अच्छा चित्रण गीता श्री जी ने किया है | इसी बीच जब नन्हीं गोलमी  मन में नृत्य का शौक जागता है तो वो सुंदरी के मनोवैज्ञानिक स्तर पर गयीं हैं और उन्होंने यहाँ शब्दों के माध्यम से  एक माँ का मनोविज्ञान को जिया है जो अपनी बेटी को किसी भी हालत में एक रक्षिता नहीं बनाना चाहती है | इसके लिए वो हर ऐश आराम की कुर्बानी देने को तैयार है | यहाँ तक की अपने कलेजे के टुकड़े अपने बेटे को भी छोड़ने को तैयार है | वो मन कड़ा कर लेती है कि उसका बेटा कम से कम लठैत  बन जाएगा | उसकी गोलमी जैसी  दुर्दशा नहीं होगी | मौके की तलाश करती सुंदरी को भजन मंडली के साथ आये सगुन महतो में अपनी मुक्ति का द्वार दिखता है | वो गोलमी को ले कर सगुन महतो के साथ हसीना बाद  छोड़ कर भाग जाती है | सगुन महतो की पहले से ही शादी हो चुकी है उसके बच्चे भी हैं | थोड़े विरोध के बाद मामला सुलझ जाता है | सगुन महतो सुंदरी के साथ अपना घर बसाता है | यहीं अपने दोस्तों रज्जो , खेचरु और अढाई सौ  के साथ गोलमी  बड़ी होती है | बढ़ते कद के साथ बढ़ता है गोलमी  का नृत्य के प्रति दीवानापन | सुन्दरी की लाख कोशिशों के बावजूद गोलमी छुप-छुप  कर नृत्य करती है | जिसमें उसका साथ देती है उसकी बचपन की सखी रज्जो , उसका निश्छल मौन प्रेमी अढाई  सौ और आशिक मिजाज खेचरू | इन सब के साथ गाँव की पृष्ठ भूमि , आपसी प्रेम , संग -साथ के त्यौहार ,छोटी -छोटी कुटिलताओं को गीता श्री जी ने बखूबी प्रस्तुत किया है |क्योंकि गोलमी यहीं बड़ी होती है , इसलिए उसके व् उसके दोस्तों के मनोवैज्ञानिक स्तर पर क्या -क्या परिवर्तन होते हैं इसे भावनाओं के विस्तृत कैनवास पर बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है |लोक जीवन की … Read more

कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म

                                              जिन्दगी एक सफ़र ही तो है | लोग जुड़ते जाते हैं और कारवाँ बनता जाता है | नये कारवाँ होता है उन लोगों का जो हमें सफ़र में मिलते हैं , हमारी जिन्दगी का जरूरी हिस्सा न होते हुए भी  हमारे शुभचिंतक होते हैं | हमारी ख़ुशी और हमारे गम में साथ देने वाले होते हैं | ये थीम है फिल्म कारवाँ की जिसमें एक सफ़र में जुड़े हुए कारवाँ के साथ जीवन के कई सार्थक सन्देश छुपे हैं | जो बेहतरीन अदाकारी के साथ हँसते मुस्कुराते हुए आपके दिल में गहरे उतर जाते हैं | कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म   निर्माता -आर एस वी पी मूवीज  अभिनेता /अभिनेत्री -इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर  निर्देशक-आकर्ष खुराना कभी कभी खो जाना खुद को ढूंढना होता है ….. कारवाँ में तीन लोग जो एक यात्रा  में खुद को ढूंढते हैं वो  हैं इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर | रिश्ते हों , जीवन हो या सफ़र आपने जैसा सोचा होता है वैसा नहीं होता | जीवन इस रोलर कोस्टर की तरह होता है | कब खान क्या होगा , कब कहाँ रास्ते मुद जायेंगे , कोई नहीं जानता | ये फिल्म भी कुछ ऐसा ही बताती है | फिल्म शुरू होती है फिल्म के प्रमुख नायक  दिलकर सलमान से | फिल्म का नायक एक आई .टी कम्पनी में नौकरी करता है | उसका नौकरी में बिलकुल मन नहीं लगता | नौकरी क्या उसका जीवन में ही मन नहीं लगता | वो एक फ्रस्टेटिड इंसान हैं | ऑफिस में बॉस जो उसी की उम्र का है बार -बार उसको डांटता रहता है,  कि उसने अपने पिता की वजह से उसे नौकरी पर रखा है , वर्ना कब का निकाल देता | सब के बीच बार -बार अपमानित होकर  बस जीविका के लिए नौकरी करता है , और घरेलू  जिन्दगी यूँहीं  अकेलेपन के साथ गुज़ार रहा है | उसे लोगों की कम्पनी पसंद नहीं आती , लोगों से ज्यादा देर बात नहीं कर पाता , और पर्सनल बात तो बिलकुल ही नहीं | ये सारा कुछ पढ़ कर आप ये मत समझिएगा कि वो खडूस है , वो दिल का बहुत कोमल इंसान है | उसके इस व्यवहार के पीछे उसका एक दर्द है ….वो दर्द है अपने मन का काम न कर पाने का दर्द | वो फोटोग्राफर बनना चाहता था , परन्तु उसके पिता इसके खिलाफ थे | वो हमेशा यही दलील देते , ” कमाएगा नहीं , तो खायेगा क्या ?” मजबूरन उसे सॉफ्ट वेयर इंजिनीयर बनना पड़ा | यहाँ  उसके नंबर अच्छे आये और उसे के पिता ने अपने दोस्त की आई .टी कम्पनी में उसे लगवा दिया | इस बात से वो अपने पिता से नाराज़ था | सालों से उनकी बात नहीं हुई थी | जिंदगी यूँही खिंच रही होती है कि एक दिन नायक के पास फोन आता है की उसके पिता जो एक टूर पकेज बुक कर के तीर्थ यात्रा पर गए थे उनकी बस एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी है | उनका कॉफिन वो उस ट्रैवेल एजेंसी से कलेक्ट कर लें | वो शोक की अवस्था में फिर से ट्रैवेल ऐजेंसी को फोन लगता है , पर कोई उसकी बात सुनना नहीं चाहता | वो बस अपना नया प्लान बेचने में लगे हैं | कॉफिन कलेक्ट करने तक ” बस मैं और मेरी  रोजी रोटी ” की कई परते उधडती  हैं | जिसमें हास्य का पुट देते हुए सिस्टम और बढ़ते मानवीय स्वार्थ पर कटाक्ष किया है | नायक का अपने पिता से लगाव नहीं है फिर भी वो उनकी अंतिम क्रिया ठीक से करना चाहता है | वो कॉफिन ले कर विद्धुत शव दाह  गृह में ले जाता है | वहां उसे पता चलता है कि वो किसी  स्त्री की मृत देह ले आया है | दरसल कॉफिन बदल गए हैं | उसके पिता का शव कोच्ची पहुँच गया है | नायक उस महिला से बात करता है और दोनों बीच में कहीं मिलकर कॉफिन बदलने पर सहमत होते हैं | नायक अपने दोस्त इरफ़ान खान से मदद मांगता है | इरफ़ान खान अपनी वैन   में कॉफिन ले कर उसके साथ चल पड़ता है और शुरू होता है सफ़र ….. |  वो लोग रास्ते में ही होते हैं कि कोच्ची से उस महिला का फोन आता है कि उसकी बेटी ऊटी के हॉस्टल से फोन नहीं उठा रही है | नानी की मृत्यु से वो ग़मगीन है कृपया  ऊटी में उससे भी मिल लें | नर्म दिल नायक हाँ कर देता है | आगे के सफ़र में वो १८ -१९ साल की बेटी (मिथिला पारकर )भी साथ में है | यहीं से शुरू होता है नायक का अपने को खोजने का सफ़र | अपने पिता से हद दर्जे की नफ़रत करने वाला नायक उस लड़की के लिए पिता की भूमिका में आने लगता है | जैसा की एक फेमस कोट है … ” एक व्यक्ति को जब ये समझ में आने लगता है कि उसके पिता ने उसके साथ क्या -क्या किया है , तब तक उसका बेटा इतना बड़ा हो जाता है कि वो कहने लगता है … आपने मेरे साथ किया ही क्या है “|  उसके जीवन की गुत्थियां सुलझने लगती हैं | या यूँ कहे कि तीनों सफ़र में अपने को खोजते चलते हैं | मिथिला पारकर ने आठ साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया है और इरफ़ान का पिता शराबी था जिसकी वजह से उसने खुद को हमेशा अनाथ समझा | पिता और संतान का रिश्ता एक  कठिन रिश्ता है जिसके कारण खोजने का प्रयास फिल्म करती है | अंत बहुत ही खूबसूरत है , जहाँ फिल्म थोड़ी भावुक हो जाती है , जब उसे अपने पिता को अपने दोस्त को लिखा खत मिलता है | खत का मजनूँन बताना उचित नहीं .. पर इससे आज के यूथ की एक बहुत बड़ी समस्या का हल मिलता है | दरअसल माता -पिता को दोष देने से पहले हर बच्चे को उन परिस्थितियों को समझना चाहिए … Read more

लिव इन को आधार बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “

                       ” लिव इन ” हमारे भारतीय समाज के लिए एक नयी अवधारणा है | हालांकि बड़े शहरों में युवा वर्ग इसे तेजी से अपना रहा है | छोटे शहरों और कस्बों में ये अभी भी वर्जित विषय है | ऐसे विषय पर उपन्यास लिखने से पहले ही ‘वंदना गुप्ता ‘ डिस्क्लेमर जारी करते हुए कहती हैं कि लिव इन संबंधों की घोर विरोधी होते हुए भी न जाने किस प्रेरणा से उन्होंने इस विषय को अपने उपन्यास के लिए चुना | कहीं न कहीं एक आम वैवाहिक जीवन में किस चीज की कमी खटकती है क्या लिव इन उससे मुक्ति का द्वार नज़र आता है ?  जब मैंने उपन्यास पढना शुरू किया तो मुझे भी पहले गूगल की शरण में जाना पड़ा था ताकि मैं लिव इन के  बारे में जान सकूँ | जान सकूँ कि अनैतिक संबंधों और लिव इन  में फर्क क्या है ? साथ रहते हुए भी ये अलग -अलग अस्तित्व कैसे रह सकता है ये समझना जरूरी था | हम सब वैवाहिक संस्था वाले इस बुरी तरह से जॉइंट हो जाते हैं …जॉइंट घर , जॉइंट बैंक अकाउंट , सारे पेपर्स जॉइंट और यहाँ तक की दोष भी जॉइंट पति की गलती का सारा श्रेय पत्नी को जाता है कि उसी ने सिखाया होगा और पत्नी कुछ गलत करे तो पति का कोर्ट मार्शल ऐसे आदमी के साथ रहते हुए बिटिया बदल तो जायेगी | ऐसे में क्या सह अस्तित्व और अलग अस्तित्व  बनाये रखना संभव है | क्या ये पति -पत्नी के बीच की स्पेस की अवधारणा का बड़ा रूप है | इन सारे सवालों के उत्तर उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मिलते जाते हैं | लिव इन को माध्यम बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “ शायद ये सारे प्रश्न वंदना जी के मन में भी घुमड़ रहे होंगे तभी वो  रवि और शीना के माध्यम से इन सारे प्रश्नों को ले कर आगे  बढ़ती हैं और एक -एक कर सबका समाधान प्रस्तुत करती हैं | इसके लिए उन्होंने कई तर्क रखे हैं | कई ऐसे विवाहों की चर्चा की है जहाँ लोग वैवाहिक बंधन में बंधे अजनबियों की तरह रह रहे हैं , एक दूसरे से बहुत कुछ छिपा रहे हैं या भयानक घुटन झेल रहे हैं | उन्होंने ‘मैराइटल रेप की समस्या को भी उठाया है | इन सब बिन्दुओं पर लिव इन एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह लगता है जहाँ एक दूसरे के साथ खुल कर जिया जा सकता है | भारतीय संस्कृति के नाम पर  ‘ लिव इन ‘ शब्द से ही नाक भौ सिकोड़ते लोगों के लिए वंदना जी आदिवासी  सभ्यता से कई उदाहरण लायी हैं , जो ये सिद्ध करते हैं कि लिव इन हमारे समाज का एक हिस्सा रहे हैं | वो समाज  दो व्यस्क लोगों के बीच जीवन भर साथ रहने के वादे  से पहले उन्हें एक -दूसरे को जानने समझने  का ज्यादा अवसर देता था | ये प्रेम कथा है उन लोगों की जिन्हें आपसी विश्वास और प्यार के साथ रहने के लिए रिश्ते के किसी नाम की जरूरत नहीं महसूस होती | रवि और शीना जो अलग -अलग धर्म के हैं इसी आधार पर रिश्ते की शुरुआत करते हैं | अक्सर ये माना जाता है की लिव इन का कारण उन्मुक्त देह सम्बन्ध हैं पर रवि और शीना इस बात का खंडन करते हैं वो साथ रहते हुए भी दैहिक रिश्तों की शुरुआत  करने में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाते | एक दूसरे की भावनाओं को पूरा आदर देते हैं | एक दूसरे की निजता का सम्मान करते हैं |उनके दो बच्चे होते हैं जो सामान्य वैवाहिक जोड़ों के बच्चों की तरह ही पलते हैं | जैसे -जैसे कहानी अंत की और बढती है वो देह के बन्धनों को तोड़ कर विशुद्ध  प्रेम की और बढती जाती है | अंत इतना मार्मिक है जो पाठक को द्रवित कर देता है |  क्या हम सब ऐसे ही प्रेमपूर्ण रिश्ते नहीं चाहते हैं ? वंदना गुप्ता जी का उद्देश्य प्रेम के इस विशुद्ध रूप को सामने लाना है | दो आत्माएं जब एक ही लय -ताल पर थिरक रहीं हों तो क्या फर्क पड़ता है कि उन्होंने उसे कोई नाम दिया है या नहीं | सच्चा प्रेम किसी बंधन का, किसी पहचान का  मोहताज़ नहीं है | स्त्री  संघर्षों  का  जीवंत  दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले कुछ पाठक भर्मित हो सकते हैं पर ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘में वंदना जी का उद्देश्य लिव इन संबंधों को वैवाहिक संबंधों से बेहतर सिद्ध करना नहीं हैं | वो बस ये कहना चाहती हैं कि सही अर्थों में रिश्ते वही टिकते हैं जिनके बीच में प्रेम और विश्वास हो | भले ही उस रिश्ते को विवाह का नाम मिला हो या न मिला हो | सहस्तित्व शब्द के अन्दर किसी एक का अस्तित्व बुरी तरह कुचला न जाए | दो लोग एक छत के नीचे  एक दूसरे से बिना बात करते हुए सामाजिक मर्यादाओं के चलते विवाह संस्था के नाम पर एक घुटन भरा जीवन जीने को विवश न हों | वही अगर कोई इस प्रकार के बंधन के बिना जीवन जीना चाहता है तो समाज को उसके निर्णय का स्वागत करते हुए उसे अछूत घोषित नहीं कर देना चाहिए | उपन्यास में जो प्रवाह है वो बहुत ही आकर्षित करता है |  पाठक एक बार में पूरा उपन्यास पढने को विवश हो जाता है | वहीं वंदना जी ने  स्थान -स्थान पर इतने सुंदर कलात्मक शब्दों का प्रयोग किया है जो जादू सा असर करते हैं | जहाँ पाठक थोडा ठहर कर शब्दों की लय  ताल  के मद्धिम संगीत पर थिरकने को विवश हो जाता है | रवि और शीना के मध्य रोमांटिक दृश्यों का बहुत रूमानी वर्णन है | एक बात और खास दिखी जहाँ पर उपन्यास थोडा तार्किक हो जाता है वहीँ वंदना जी कुछ ऐसा दृश्य खींच देती है जो दिल के तटबंधों को खोल देता है और पाठक सहज ही बह उठता है | “काहे करो विलाप “गुदगुदाते पंचो में पंजाबी तडके का अनूठा समन्वय  ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ नाम बहुत ही सटीक है | जब … Read more

प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की

                        प्रेम … एक ऐसा शब्द जो , जितना कहने में सहज है , उतना होता नहीं है , उस प्रेम में बहुत  गहराई होती है जहाँ दो प्राणी आत्मा के स्तर पर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं | इस परलौकिक प्रेम से इतर दुनियावी  बात भी करें तो प्रेम वो है जो पहली नज़र के आकर्षण , डोपामीन रिलीज़ , और केमिकल केमिस्ट्री मिलने की घटनाओं को निथारने के बाद बचा रह जाता है वो प्रेम है |  प्रेम जितना जादुई है , उतनी ही जादुई है ” लाल फ्रॉक वाली लड़की” ,  जो अपनी खूबसूरत लाल फ्रॉक में गूथे हुए है कई प्रेम कहानियाँ  … जितनी बार वो इठलाती है, झड जाती है एक नयी प्रेम कहानी … अपने अंजाम की परवाह किये  बगैर | मैं बात कर रही हूँ ‘मुकेश कुमार सिन्हा’ जी के लप्रेक संग्रह “लाल फ्रॉक वाली लड़की की “ प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की                                                                   मुकेश कुमार सिन्हा जी कवितायें अक्सर फेसबुक पर पढ़ती रहती हूँ | उनका काव्य संग्रह हमिंग बर्ड भी पढ़ा है | उनकी यह पहली गद्य पुस्तक है , परन्तु इस पर भी उनका कवि मन हावी रहा है | शायद इसीलिये उन्होंने पुस्तक की शुरुआत ही  कविता से की है .. स्मृतियों की गुल्लक में  सिक्कों की खनक और टनटनाती हुई मृदुल आवाजों में  फिर से दिखी वो  ‘लाल फ्रॉक वाली लड़की “                                   उसके बाद शुरू होती है छोटी-छोटी प्रेम कहानियाँ |जो बताती हैं कि प्रेम  उम्र नहीं देखता , जाति धर्म नहीं देखता , समय -असमय नहीं देखता , बस हो जाता है …. और फिर और अलग-अलग चलने वाली दो राहे किसी एक राह पर मिलकर साथ चल पड़ती है | #प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi                        कहानियों में हर उम्र के प्रेम को समेटने की कोशिश की गयी है , कुछ कहानियाँ जो आज के युवाओं के फटफटिया प्रेम को दर्शाती है जो नज़र मिलते ही हो जाता है तो कुछ ‘अमरुद का पेड़ ‘ हंसाती हैं ,  ‘सोना-चाँदी ” जैसी  कुछ कहानियाँ है जो परिपक्व उम्र के प्रेम को दर्शाती हैं , “व्हाई शुड बॉयज हव आल द फन ‘ प्रेम की शुरुआत में ही उसका अंत कर देती हैं |           संग्रह में 119 प्रेम कहानियाँ (लप्रेक ) हैं | इसका प्रकाशन ‘बोधि प्रकाशन’ द्वारा हुआ है | कवर पेज बहुत आकर्षक है | लप्रेक की ख़ूबसूरती ही इसमें है की उसे कम शब्दों में कहा जाए , अगर आप छोटी -छोटी हँसती , मुस्कुराती , गुदगुदाती प्रेम कहानियाँ पढने के शौक़ीन हैं तो ये आप के लिए बेहतर विकल्प है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                                          

प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi

                            हम सब बहुत सोंच विचार कर निर्णय लेते हैं | फिर भी क्या हम सही निर्णय ले पाते हैं ? क्या हमारे निर्णय पर दूसरों का प्रभाव रहता है ?ऐसे कौन से फैक्ट्स हैं जो हमारे निर्णय को प्रभावित करते हैं ?ये बहुत सारे प्रश्न हैं जिनका उत्तर  MIT के Dan Ariely  की किताब  Predictably irrational में मिलता है | यह किताब विज्ञानं के सिद्धांतों पर आधारित है , जो बताती है कि कोई भी निर्णय लेते समय मनुष्य का दिमाग कैसे काम करता है और कैसे छोटी -छोटी चीजें उसके निर्णय को प्रभावित कर देती हैं | प्रिडिक्टेबली इरेशनल की पुस्तक समीक्षा book review of predictably irrational in Hindi                    मानव मष्तिष्क  के निर्णय लेने की क्षमता को वैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित करने वाली  किताब predictably irrational में Dan Ariely  कई प्रयोगों द्वारा मानव मन की गहराय में घुसते जाते हैं | ये वो गहराई है जो आपके निर्णय को प्रभावित करती है |                              कभी आपने सोंचा है एक रुपये की कैल्सियम की गोली के स्थान पर 40 रुपये की कैल्सियम की गोली का असर आप पर ज्यादा होता है | हम उस रेस्ट्रा का खाना खाना पसंद करते हैं जो एक बोतल कोक फ्री देता है बन्स्पत उसके जो उतने ही पैसे कम कर देता है | क्या आप ने गौर किया है कि ऐसा क्यों होता है ? यही नहीं काफी खरीदने से लेकर , वेट लोस के जिम तक , कोई सामान चुनने में , मित्र या जीवन साथी चुनने में  हमारा दिमाग एक खास तरीके से काम करता है .. जिसे Dan Ariely  ने predictably irrational का नाम दिया है | आइये जाने कि हमारा दिमाग कैसे काम करता है … 1) तुलना …                   हमारा दिमाग दो चीजों में तुलना  करता है फिर निर्णय लेता है | इसे  आप ने देखा होगा कि  एक समान आकर की दो मेजें अगर एक लम्बाई में राखी जाये व् दूसरी चौड़ाई में  , फिर आप से पूंछा जाए कि कौन सी बड़ी है तो आप कहेंगे कि जो लम्बाई में रखी है |                                चित्र brainden.com से साभार  इसी तरह से अगर दो समान आकार के गोले लें … अब एक गोले के चरों और बड़े -बड़े गोले लगा दें व् दूसरे के चरों ओर छोटे -छोटे गोले लगा दें , अब आप से पूंछा जाए कि  कौन सा गोला बड़ा है तो निश्चित रूप से सबका जवाब होगा जिसके चरों ओर छोटे गोले हैं … इसके पीछे एक साइंटिफिक कारण है .. वो ये की हमारा दिमाग अब्सोल्यूट में नहीं काम्पैरिजन में सोंचता है |  फोटो wikimedia commons से साभार                                        अब जानिये तुलनात्मक अध्यन की वजह से हमारे निर्णय किस तरह से प्रभावित होते हैं … एक प्रयोग … एक बार लोगों  के सामने  थ्री days ट्रिप के ३ ऑप्शन रखे गए … अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) ब) रोम ( बिना ब्रेकफास्ट के )  स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )                               ८५ % लोगों ने रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) के साथ चुना | क्या लोग रोम ही जाना चाहते थे पेरिस नहीं … ऐसा नहीं है एक दूसरे ग्रुप पर इस प्रयोग को उलट कर किया गया |  अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) ब) पेरिस  ( बिना ब्रेकफास्ट के ) स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )                          अबकी बार लोगों ने पेरिस फ्री ब्रेकफास्ट के साथ चुना | कारण स्पष्ट था लोगो ने उसे चुना जो उन्हें तुलना करने का अवसर दे रहा था व् उसे दरकिनार कर दिया जिसने तुलना करने का अवसर नहीं दिया | क्योंकि लोगों का दिमाग पहले तुलना पर जाता है | दूसरा उदाहरण एक मैगज़ीन है  “The Economist” उसने अपनी वेबसाइट पर मागज़ीन सबस्क्राइब करने के तीन तरीके बताये हैं … 1)Economist  times – वेब एडिशन $59 प्रिंट एडिशन -$ 125 प्रिंट & वेब एडिशन $  125                  अब  केवल १६ % लोगों ने वेब एडिशन व् 84 % लोगों ने प्रिंट व् वेब एडिशन वाला थर्ड ऑप्शन चुना  और सेकंड ऑप्शन किसी ने नहीं चुना | जाहिर सी बात है जब प्रिंट व् वेब दोनों $125 में मिल रहे थे तो कौन मूर्ख होगा जो केवल प्रिंट एडिशन $125  में लेगा | अब सोंचने वाली बात है कि economist मैगज़ीन ने ऐसा बेवकूफाना ऑफर क्यों रखा | दरअसल  यह ऑफर द्वारा किये गए एक प्रयोग के बाद लाया गया| ने इस प्रयोग में लोगों को दो ग्रुप्स में बांटा … दूसरे ग्रुप को ये ऑफर दिया गया और पहले ग्रुप को दिए गए ऑफर में बीच वाले ऑफर को हटा लिया गया , जिसकी वास्तव में कोई जरूरत ही  नहीं थी , तब परिणाम इस तरह से आये… वेब एडिशन $ 59….. 75 % लोगों ने लिया प्रिंट & वेब एडिशन $  125…. केवल 25 % लोगों ने लिया                      जाहिर है इससे कम्पनी को नुक्सान था | इसलिए उसने ऐसा ऑफर रखा | यह दोनों उदाहरण हमें ये बताते हैं कि हमारा दिमाग चीजों का तुलनात्मक अध्यन करके निर्णय लेता है | जिन दो चीजों में समानता ज्यादा होती है उनमें से वो  तुलना करके नतीजा निकालता है | उस समय उसका ध्यान तीसरे ऑप्शन पर नहीं रह जाता | उसका काम बस इतना होता है कि वो कहे कि मुझे देखो , मुझसे तुलना करो फिर वो चुनो जो कम्पनी चाहती है | रिश्तों में निर्णय  तुलना का ये नियम केवल सामान पर ही नहीं रिश्तों पर भी लागू होता है | इसके लिए भी एक … Read more

स्त्री संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले’

फ़रिश्ते निकले

  अनुभव अपने आप में जीवंत शब्द है, जो सम्पूर्ण जीवन को गहरई से जीये जाने का निचोड़ है। एक रचनाकार अपने अनुभव के ही आधार पर कोई रचना रचता है,चाहे वे राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक विषमातओं की ऊपज हों, या फिर निजी दुख की अविव्यक्ति। मैत्रैयी पुष्पा ऐसी ही एकरचनाकार हैं जिन्होनें स्त्रियों से जुडे मुद्दे शोषण, बलात्कार, समाज की कलुषित मन्यातओं में जकड़ी स्त्री के जीवंत चित्र को अपनी रचनाओं में उकेरने का प्रयास किया है। ‘फरिश्ते निकले‘ मैत्रेयी पुष्पा द्वरा रचित ऐसा ही एक नया उपन्यास है जो पुरुष द्वरा नियंत्रित पितृसतात्मक समाज में रुढ़ मन्यताओं का शिकार होती बेला बहू के संघषों की कहानी है। इस उपन्यास कि नायिका बेला बहू समाज के क्रूर सामंती व्यवस्था के तहत गरीबी और पितृविहीन होने के कारण बाल‌- विवाह और अनमेल- विवाह की भेंट चढ़ जाती है। विवाह के उपरांत बेला बहू का संघर्ष शुरु होकर डाकू के गिरोह में शामिल होने के बाद नैतिकता कि भावना से स्कूल खोलती है। आस-पास के कुछ बच्चें दो दिन पाठशाला में आकर मानवता की भावना को ग्रहण करें और समाज से शोषण को मिटाने के लिये नैतिकता का मार्ग अपनायें। इस तरह बेला बहू एक फरिशता बनकर आगे आने वाली पीढ़ी को समाज की कलुषित मन्याताओं से मुक्त कराकर मानवीय गरिमा का संचार कर उन्हें सही राह पर चलने कि प्रेरणा देती है। इस तरह बेला बहू विवाह के पश्चात और डाकू के गिरोह में शामिल होने  के बीच कई संघर्षों का सामना अदम्य जिजीविषा के करती हुई एक निडर स्त्री की छवि को भी अंकित करती है।                                           हमारा देश जहाँ विकास की अंधी दौड़ में आगे बढ़ रहा है वही कुछऐसे गाँव और अंचल भी हैं जहाँ अभी तक विकास के मायने तक पता नहीं हैं अर्थात विकास की चर्चा भी उनलोगों तक नहीं पहुँची है। ऐसे ही गाँव में जन्मी बेला अर्थात बेला बहू उपन्यास के कथा का आरम्भ पितृविहिन बालिका जिसने अभी- अभी अपने पिता को खो दिया है,उसकी माँ पर घर कीपूरी जिम्मेदारी मुँह बाये खड़ी है। बेला की माँ किसी तरह अपना और अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है। शुगर सिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति जब उन माँ और बेटी को आर्थिक लाभ पहुँचाना शुरु करता है, इसके पीछे उसकी मंशा तब समझ में आती है जब बेला के साथ उसकी सगाई हो जती है।इस तरह ग्यारह वर्ष की बेला का विवाह अधेड़ उम्र के शुगर सिंह के साथ हो जाता है। ना जाने कितने अनमेल विवाह के किस्सों को याद करती बेला ससुराल में निरंतर पति की हवस का शिकार होती है।अन्य लोगों के अनमेल विवाह के कृत्यों को दर्शाती बेला बहू के बारे में स्वय मैत्रैयी जी भी कहती हैं-” बेला बहू तुम्हारा शुक्रियाकि कितनी औरतों की त्रासद कथाएँ तुमने याद दिला दी।” ” ससुराल में बेला बहू पति के निरंतर हवस का शिकार होती रही धीरे-धीरे सुगर सिंह की नपुंसकता का पता बेला को लग जाता है क्योकि विवाह के चार वर्षोंबाद भी संतान का ना उत्पन्न होना और मेडिकल रिपोर्ट की जाँच में बेला के स्वस्थ और उर्वरा होने का प्रमाण मिल जाता है और शुगर सिंह की नपुंसकता बेला बहू के सामने आ जाती है।” विडम्बना तो देखिये गाँव के लोग और स्वयं सुगर सिंह भी बेला बहू कोही बाँझ मानते हैं। बेला बहू येह सोचती है कि – ” उम्र के जिस पड़।व से वह गुजर रही है उसकेउम्र के लड़कियों के हाथ अभी तक पीले नहीं हुये वहीं उसपर बाँझ का आरोप गले में तौंककि तरह डाला जा रहा है।”अजीब विडम्बना है ना पुरुषों के कमियों की सजा भी स्त्री को ही भूगतनी पड़ती है। इन सब सवालों से टकराती हुयी मैत्रैयी पुष्पा समाज की वास्त्विक स्थितियों से हमारा साक्षत्कार कराती हैं। “पति और गाँव के लोगों द्वरा उपेक्षित होने पर वह अपनी ज़िंद्गी को नये सिरे से जीने के लिये भरत सिंह के यहाँ जाकर रहती है, पर मुसीबतें वहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़्ती हैं,मानों परछायी की तरह उसके साथ-साथ चलती हैं।”                                                       “भरत सिंह का चरित्र गांव और कस्बों में उभरते उन दबंग नये राजनीतिक व्यवसायियों का है जो अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये अनैतिकता के किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।”5 बेला भरत सिंह और उसके भाइयों द्वारा निरंतर उनकी हवस का शिकार बनती जाती है। और अंत में आक्रामक रवैया अपनाते हुये भरत सिंह के भाइयों को आग के हवालेकर देती है। वह पूरे साहस के साथ अपने अत्याचार का बदला भी लेती है और जेल जाने से भी नहीं डरती। जेल में उसकी मुलाकात डाकू फूलन देवी से होती है औ रइस तरह दोनो के बीच बहनापा रिश्ता कायम हो जाता है शायद दोनों के ही दुख एक से हैं। बचपन के दोस्त बलबीर द्वारा जेल से छूटे जाने पर पर वह कुख्यात डाकू अजय सिंह के गिरोह में शामिल होती है। डाकू की गिरोह में बेला बहू का शामिल होना पाठकों को थोड़। अचम्भितज़रुर करता है पर बेला बहू का उद्देश्य महज़ डकू बनकर लुटपाट करना नहीं है। बल्कि वह उन लोगों का फरिश्ता बनकर साथ निभाती है, उसी की तरह सतालोलुप हवस प्रेमियों और कम उम्र में ही यौन शोषण का शिकार बनकर परिस्थितीवश गलत पगडंडियों पर चलनें को मज़बुर होतें हैं। बेला बहू के डाकू बनकर भी फरिश्ता बने रहने के उपरांत भी उपन्यास कि कहानी खत्म नहीं हो जाती बल्कि मैत्रैयी जीने कुछ और घटनाओं के ताने बाने को भी पिरोया है।जिनमें उजाला और वीर सिंह केप्रेम प्रसंग का चित्रण मर्मिक्ता से ओतप्रोत है। उजाला लोहापीटा की बेटी है जबकी वीर सिंह अमीर घराने में पला बढा। वीर सिंह के पिता को जब इस प्रेम प्रसंग का पता चलता है तो वह उजाला के मौत की साजिश तक रच डालतें हैं पर बेला बहू के सद्प्रयासों से उजाला मौत के भंवर से बाहर निकल आती है। कितनी अजीब बात है ना पुरुष प्रधान समाज स्त्री का जमकर शोषण करता है और उसे गुलाम बने रहने पर मज़बूर करता है। इस सम्बंध में रोहिणी अग्रवाल का कहना है-“यौन शोषण पुरुष की मानसिक विकृति है या पितृसतात्मक व्यवस्था के पक्षपाती तंत्र द्वारा पुरुष को मिला अभयदान? वह स्त्री को गुलाम बनाये रखने का षडयंत्र है या जिसकी लाठी उसकी … Read more

अंतस से -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें

                                   कवितायें वैसे भी भावनाओं के कुसुम ही हैं और जब स्वयं कुसुम जी लिखेंगी तो सहज ही अनुमान लागाया जा सकता है कि उनमें सुगंध कुछ अधिक ही होगी| मैं बात कर रही हूँ कुसुम पालीवाल जी के काव्य संग्रह “अंतस से “की | अभी हाल में हुए पुस्तक मेले में इसका लोकार्पण हुआ है | यह कुसुम जी का तीसरा काव्य संग्रह है जो ” वनिका पब्लिकेशन “से प्रकाशित हुआ है |मैंने कुसुम जी के प्रथम काव्य संग्रह अस्तित्व को भी पढ़ा है | अस्तित्व को समझने के बाद अपने अंतस तक की काव्य यात्रा में कुसुम जी का दृष्टिकोण और व्यापक , गहरा और व्यक्ति से समष्टि की और बढ़ा है | गहन संवेदन शीलता कवि के विकास का संकेत है | कई जगह अपनी बात कहते हुए भी  उन्होंने समूह की भावना को रखा है | यहाँ उनके ‘मैं ‘ में भी ‘हम ‘निहित है | ‘अंतस से’समीक्षा  -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें   यूँ तो संग्रह में 142 कवितायें हैं | उन पर चर्चा को सुगम करने के लिए मैं उन्हें कुछ खण्डों में बाँट कर   उनमें से कुछ चयनित रचनाओं को ले रही हूँ | आइये चलें  ‘अंतस से ‘ की काव्य यात्रा पर कविता पर …                  कवितायें मात्र भावनाओं के फूल नहीं हैं |ये विचारों को अंतस में समाहित कर लेना और उसका मंथन है | ये विचारों की विवेचना है , जहाँ तर्क हैं वितर्क  हैं और विचार विनिमय भी है |  इनका होना जरूरी भी है क्योंकि जड़ता मृत्यु की प्रतीक है | कविता जीवंतता है | पर इनका रास्ता आँखों की सीली गलियों से होकर गुज़रता है … देखिये –  अक्षर हूँ नहीं ठहरना चाहता रुक कर किसी एक जगह 2 … जहाँ विचार नहीं है वहां जड़ता है जहाँ जड़ता है वहाँ जीवन नहीं विचार ही जीवन है जीवन को उलझने दो प्रतिदिन संघर्षों से 3… कविता कोई गणित नहीं जो मोड़-तोड़ कर जोड़ी जाए गणित के अंकों का जोड़-गाँठ से है रिश्ता किन्तु कविता का गणित दिल से निकल कर आँखों  की भीगी और सीली गलियों से होकर गुज़रता है रिश्तों पर ….                     अच्छे रिश्ते हम सब के लिए जरूरी है क्योंकि ये हमें भावनात्मक संबल देते हैं | परन्तु आज के समय का सच ये है कि मकान  तो सुन्दर बनते जा रहे पर रिश्तों में तानव बढ़ता जा रहा है एकाकीपन बढ़ता जा रहा है | क्या जरूरी नहीं कि ह्म थोडा  ठहर कर उन रिश्तों को सहेजें – आजकल संगमरमरी मकानों में मुर्दा लाशें रहती हैं न बातें करती हैं न हँसती ही हैं उन्होंने बसा ली है दुनिया अपनी-अपनी एक सीमित दायरे में २…. ख्वाबों के पन्नों पर लिखे हुए थे जो बीते दिनों के अफ़साने आज दर्द से लिपटकर पड़पड़ाई हुई भूमि में वो क्यूँ तलाशते  रहते हैं दो बूंदों का समंदर 3 … सोंचती हूँ… जीवन की आपाधापी में ठिठुरते रिश्तों को उम्मीदों की सलाइयों से आँखों की भीगी पलकों पर ऊष्मा से भरे सपनों का एक झबला बुनकर मैं पहनाऊं नारी पर …                     नारी मन को नारी से बेहतर कौन जान सका है | जो पीड़ा जो बेचैनी एक नारी भोगती है उसे कुसुम जी ने बहुत सार्थक  तरीके से अपनी कलम से व्यक्त किया है |वहां अतीत की पीड़ा भी है , वर्तमान की जद्दोजहद भी और भविष्य के सुनहरी ख्वाब भी जिसे हर नारी रोज चुपके से सींचती है – दफ़न रहने दो यारों ! मुझे अपनी जिन्दा कब्र के नीचे बहुत सताई गयी हूँ मैं सदियों से यहाँ पर कभी दहेज़ को लेकर तो कभी उन अय्याशों द्वारा जिन्होंने बहन बेटी के फर्क को दाँव पर लगा बेंच खाया है दिनों दिन 2… तुम लाख छिपाने की कोशिश करो तुम्हारी मानसिकता का घेरा घूमकर आ ही जाता है आखिर में मेरे वजूद के कुछ हिस्सों के इर्द -गिर्द 3… तुम्हारी ख़ुशी अगर मेरे पल-पल मरने में और घुट -घुट जीने में विश्वास करती है तो ये शर्त मुझे मंजूर नहीं 4… चाँद तारों को रखकर अपनी जेब में सूरज की रोशिनी को जकड कर अपनी मुट्ठी में तितली के रंगों को समेट कर अपने आँचल में बैठ जाती हूँ हवा के उड़न खटोले पर तब बुनती हूँ मैं अपने सपनों के महल को 5 .. सतयुग हो या हो त्रेता द्वापर युग हो या हो आज सभी युगों में मैंने की हैं पास सभी परीक्षाएं अपनी तुम लेते गए और मैं देती गयी 6… छोटे – छोटे क़दमों से चलते हुए चढ़ना चाहती थी वो सपनों की कुछ चमकीली उन सीढ़ियों पर जिस जगह पहुँच कर सपने जवान हो जाते हैं और फिर … खत्म हो जाता है सपनों का आखिरी सफ़र 7 … मैं पूँछ ती हूँ इस समाज से क्या दोष था मेरी पाँच साल की बच्ची का लोग कह रहे हैं बाहर छोटे कपडे थे … रेप हो गया क्या दोष था उसका ! बस फ्रॉक ही तो पहनी थी पांच साल की बच्ची थी वो उम्र में भी कच्ची थी हाय …. कहाँ से ऐसी मैं साडी लाऊं जिसमें अपनी बच्ची के तन को छुपाऊं ! समाज के लिए ….                          किसी कवि के ह्रदय में समाज के लिए दर्द ही न हो , ऐसा तो संभव ही नहीं | चाहे वो आतंक वाद हो , देश के दलाल हो या भ्रस्टाचार हो सबके विरुद्ध कुसुम जी की कलम मुखरित हुई है | वो सहमी सी आँखें डरती है एक ख्वाब भी देखने से जो गिरफ्त में आ चुकी हैं संगीनों के साए में उनकी आँखों में भर दिए गए हैं कुछ बम और बारूद 2. ओ समाज के दलालों कुछ तो देश का सोंचो मत बेंचो अपनी माँ बहनों को इन्हीं पर तुम्हारी सभ्यता टिकी है और उइन्ही से तुम्हारी संस्कृति जुडी है 3. अंधेरों से कह दो चुप जाएँ कहीं जा कर कलम की धर … Read more