करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें

    डेज़ी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” जो की ” विश्वगाथा” प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है,  की  कवितायें पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे कवियत्री के संवेदनशील मन में एक गंभीर चिंतन चल रहा है , जिसे वो कविता के माध्यम से आम पाठकों के लिए सरल से सरल शब्दों में कहना चाहती  है, परन्तु जब बात मन की हो तो इसके आयाम इतने विस्तृत होते हैं कि पाठक उस गहराई में बहुत देर तक घूमता रह जाता है, और प्रवेश करता है एक ऐसी सुरंग में जहाँ मानव मन की गुत्थियाँ खुलती चली जाती हैं | कम शब्दों गहरी बात कह देना डेजी जी की विशेषता है | उनके लघुकथा संग्रह ‘कटघरे’ में ये कला और उभर  कर आई है | दोनों ही पुस्तकों में मानव मन पर उनकी सूक्ष्म पकड़ दिखाई पड़ती है | हम आपके लिए  डेजी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” से कुछ लागु कवितायें लाये हैं | आप भी थोड़े शब्दों में गहरी बात का आनंद लीजिये | करवटें मौसम की – गहरी बात कहती कुछ लघु कवितायें  1)मौसम कुदरत ने  तो भेजा था हर मौसम हर एक के लिए फिर जाने…  बटोरने वालों ने किया जुर्म या मौसमों ने स्वयं ही किया पक्षपात किसी की झोली में झरे पतझड़ सारे किसी के हिस्से खिले वसंत ही वसंत 2 )पंख पंख आते -जाते रहते मेरी दुनिया में मौसमों के साथ यही भला है वर्ना … मैं भूल न जाता जमीं पे पैर रखना पढ़ें – कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद ३)जिंदगी उलझे रहे तो है जिंदगी वरना ‘सजा’है बस विश्वास है तो है ‘बंदगी’ वरना ‘खता ‘है बस उबर गए तो है ‘मुक्ति’ वरना ‘तपस्या’है बस 4)मुस्काने हमारी मुस्काने … पहले भी थी स्वत :ही बेवजह किशोरावस्था में मुस्काने…. अभी भी हैं कढ़ी-गढ़ी दमदार परिपक्वता में 5)हर साल सुना है करते हो आत्मावलोकन हर वर्ष के अंत में लेते हो नया प्रण हर बार , प्रारम्भ में , इन दो दिनों को छोड़ क्या करते हो सारा साल ? 6 )परिवर्तन वक्त बदलता है संग ‘सब’ नियम है, सुना है तुम बदलें रंग ‘सब’ फिर मैंने ही ये पड़ाव क्यूँ चुना है ? 7)आस  अब गम न हो कोई तुमसे लो!  छोड़ दी हर ख़ुशी की आस जो जुडी है तुम से 8)शुक्रिया सपनों की वादी से सच की छाती तक अमृत की हंडिया से विष की नदिया तक ले आये तुम तुम्हारा शुक्रिया !! कि … इंसान की हार से जीवन के सार से परिचय जो करवा दिया इतनी जल्दी 9)…मान लेती हूँ तुझमें साँसे मेरी  जानती हूँ मुझमें साँसे तेरी ‘मान’लेती हूँ कि … बनी रहूँ मैं बनाएं रखूँ तुझको 10)रंग इन्द्रधनुषी  रंगों से परे भी होते हैं कई रंग दिखा दिए सारे ही मुझको शुक्रिया जिन्दगी वरना काली-सफ़ेद भी कोई जिंदगी होती ? 11)श्रेष्ठ योनि जब सब होकर भी कुछ नहीं तुम्हारे पास अपनों से मिली बेरुखी जी करती हताश नाउम्मीद, अकेला और बदहवास  ‘मन ‘ ठोकर सी मारता है इस जीवन को जिसे कभी योनियों में श्रेष्ठ स्वयं माना था उसने यह भी पढ़ें … बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने काहे करो विलाप -गुदगुदाते पंचों और पंजाबी तडके का अनूठा संगम मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “ करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                       

प्रीत की पाती – किसी किशोरी के अनगढ़ प्रेमपत्र नहीं ,एक साहित्यिक कृति

                          “प्रीत की पाती” , जैसा की नाम से ही स्पष्ट है ये प्रीत की मधुर भावनाओं से ओत-प्रोत प्रेम पत्र हैं जो प्रेयसी अपने प्रियतम को लिखती है, पर नाम से जो नहीं समझा जा सकता वो है प्रेम की वो बेचैनी वो छटपटाहट जो ” प्रीत की पाती” लिखने को विवश करती है|                                                  भारतीय समाज की विडंबना ही कही जायेगी कि एक 18 वर्षीय किशोरी , जिसकी आँखों में सपने हैं, जो अपने कॉलेज में होने वाले हर अन्याय के खिलाफ बोलती है ,जो समाज को बदलना चाहती है वो अपने पिता द्वारा विवाह की बात करने पर गुहार लगाती है                         बाबा मोहे दान मत दीजिये                           जीती जागती साँस लेती हुई                             संतान आपकी मैं भी हूँ                             स्वप्न हमारे भी हैं कुछ                             सोंचती समझती मैं भी हूँ                            जब भी घुटन हो पीहर मैं                              नैहर का कोना मेरा दीजिये                              बाबा मोहे …                                                                    पिता के उत्तरदायित्व के आगे हार मान कर दुनिया को बदलने की चाह रखने वाली किशोरी  पिया के घर में जा कर खुद बदल जाती है| सृजन यहाँ भी रुकता नहीं है … मांग सिंदूर  , चूड़ी , कंगन और आलते में रचती है अपने  घर का संसार | पर वो कहते है ना ,कि सपने मरते नहीं हैं , वो तो बस दब जाते हैं | यहाँ भी ठीक ऐसा ही हुआ | पर यही दबे हुए सपने  बच्चों के बड़े होते ही फिर खाली समय की गीली मिटटी पा कर पनप गए और उन्होंने  रचना करवाई  “ प्रीत की पाती ” की |   परन्तु  ये “प्रीत की पाती” किसी किसी किशोरी के अनगढ़ प्रेम पत्र नहीं एक साहित्यिक कृति बन जाती है |                                        किसी भी रचनाकार की कृति उसके व्यक्तित्व का आइना होती है | ” प्रीत की पाती” को पढ़ते हुए किरण सिंह जी के उस  व्यक्तित्व को आसानी से पढ़ा जा सकता है , जो प्रेम , करुणा , दया और ममता आदि गुणों से भरा हुआ है |                              प्रीत की पाती में 53 प्रेम रस से भीगे पत्र है , चार घनाक्षरी व् कुछ मुक्तक सवैया दोहा आदि हैं | पत्र लिखने का कारण बेचैनी है , आकुलता है , जो पहले ही पत्र में स्पष्ट हो जाती है |  अक्षर-अक्षर शब्द-शब्द से रस की गगरी छलक रही है|  सच तो ये हैं व्यथा हमारी नेह-नयन  से झलक रही है ||                                                 व्यथा तो है पर प्रीत का बहुत पुनीत रूप है , जहाँ प्रीत उन्मुक्तता का प्रतीक नहीं , एक सुहागन नारी का समर्पण है | तभी तो  प्रियतम को याद दिलाती हैं … सिंदूर का ये नाता गहरा बहुत होता है , भर मान प्रीत रंग से अपना बना लेता है | ——————————— लिखकर उर के पन्नों पर अधरों को मैंने सी लिया,  तुम तो समझते हो मुझे मैं न कहूँ या हां कहूँ | ——————————— टूट जाती है तन्द्रा पग थाप  से  ह्रदय का है नाता मेरा आपसे  प्रेम तो है पर प्रेम का उलाहना भी है,  … मान लिया मैंने तुमको बहुत काम हैं मगर , कैसे तुम्हें मेरी याद नहीं आई | ——————————— कभी शब्दों के तीर चलाते  कभी चलाते गोली  आज तुम्हारी काहे प्रीतम  मीठी हो गयी बोली .. —————————— छल  कपट भरे इस जगत में  तुम भी तो प्रिय छली हो गए  प्रेम में रूठना मनाना न हो यह तो संभव ही नहीं , परन्तु एक स्त्री कभी उस तरह से नहीं रूठ सकती जैसे पुरुष रूठते हैं , उसके रूठना में भी कोमलता होती है |- क्यों इस दिल को यूँ सताते हैं  आप क्यों मुझसे रूठ जाते हैं  ——————————– मांग रही हूँ उत्तर तुझसे , क्यों रूठे हो प्रिय तुम मुझसे  कह दो तो दिन को रात कहूँ  मैं कैसे अपनी बात कहूँ  ——————————– छोड़ देती मैं भी , बात करना मगर,  मुझे रूठ जाने की , आदत नहीं है | ———————————-                  और जैसा कि सदा से होता आया है , प्रेम की अभिव्यक्ति है , प्रतीक्षा है ,ताने -उलाहने हैं, रूठना मानना है ,  फिर अंत में समर्पण … जहाँ इस बात की स्वीकारोक्ति है कि रूठे हो , सताते हो छलिया हो कुछ भी हो पर मेरे हो , मैं  सदा तुमसे प्रेम करुँगी , तुम्हारी प्रतीक्षा करुँगी क्योंकि मैं तुम्हारे बिना जी न सकूँगी … नैन बसी जो मूरत सजना , तोरी सूरत  बार -बार लिखने को मुझी से कह जात है  ——————————————- तुम आओ या ना आओ  यह तो तेरी है इच्छा  मैं तो करुँगी प्रतीक्षा  ———————- प्रिय तुम रह न सकोगे मुझ बिन , मैं भी तुम बिन रह न सकूँगी  छोड़ो यह सब झगडा -रगडा  अब यह सब मैं सह न सकूँगी |  यह उदाहरण  प्रेम की विशालता , उसका समर्पण उसकी गहनता व् उसके हर रूप गहरी पकड को दर्शाते  … Read more

कटघरे – हम सब है अपने कटघरों में कैद

                         कटघरे शब्द पढ़ते ही आँखों के सामने एक दृश्य उभरता है कटघरे में खड़े एक मुजरिम का और उसके पक्ष और विपक्ष में लड़ते वकीलों का| तभी आर्डर-आर्डर कहते हुए जज साहब एक फैसला दे देते हैं, फिर या तो कटघरे में खड़ा व्यक्ति बरी हो जाता है या उसे सजा हो जाती है| पर जिंदगी की अदालत ऐसी नहीं होती , यहाँ हम सब कटघरे में खड़े हैं , कहीं किसी ने हम को खड़ा कर रखा है तो कहीं हम ने ही खुद का खड़ा कर लिया है | यहाँ कोई जज नहीं है, पक्ष विपक्ष पेश करते वकील भी नहीं, इसलिए कोई फैसला नहीं होना है हम सब अपने – अपने कटघरों में फंसे जीवन  घसीटने को अभिशप्त हैं | इसलिए कोई मुक्ति भी नहीं है | इसीलिये शायद हर इंसान परेशान  है | कटघरे के अन्दर की पीड़ा, छटपटाहट और बेचैनी को भोगने के लिए विवश भी |                                         इस  नयी सोंच के साथ एक खूबसूरत कहानी संग्रह ” कटघरे ” के साथ हम सब को कटघरे में खड़ा करने के बावजूद इस की लेखिका डेजी नेहरा जी  पाठकों  का दिल जीत ले जाती हैं | मानव मनोविज्ञान की गहराई में उतर कर नया प्रयोग करते हुए अपने पहले कहानी संग्रह “कटघरे ” के माध्यम से इस  आरोप का खंडन करने में भी सफल हुई हैं कि हिंदी साहित्य में नए प्रयोग नहीं हो रहे हैं |                                                    एक संवेदनशील मन के अन्दर ही इतना मनोवैज्ञानिक विचार आ सकता है| बिना किसी भूमिका के, बिना किसी लाग-लपेट के बहुत ही सरल शैली में डेजी जी छोटी- छोटी कहानियों के माध्यम से गहरी बात करती चली जाती हैं | कठिन को सरल बना देना उनके लेखन की ख़ूबसूरती है|                       मुग्धा, अविश्वास की मारी हुई है| पति पर शक करके एक खूबसूरत रिश्ता खो देती है | इस पर उस पर शक करते हुए आगे बढती जाती  है और अकेली होती जाती है| यहाँ तक की रिटायरमेंट में भी उसके साथ कोई इंसान  नहीं आता , आता है तो उसका कटघरा , अविश्वास का कटघरा| किशोर बेटी के प्रति पिता के बदलते व्यवहार के लिए एक पिता कटघरे में खड़े हैं | बहुत पहले किसी के बच्चे के जन्म पर मैंने एक बुजुर्ग महिला को कहते सुना था इसके संतान योग नहीं है | मैंने अपवाद किया कि ,”बेटी तो है “तो उन्होंने कहा, ” बेटियाँ तो बस पैदा हो जाती हैं संतान तो बेटे ही होते हैं | वही दर्द “माँ “कहानी पढ़ कर उभर आया जहाँ तीन बेटियों की माँ सिर्फ इसलिए माँ नहीं है क्योंकि उसने बेटे को जन्म नहीं दिया| माँ होते हुए भी माँ का दर्जा  प्राप्त करने के लिए वो कटघरे में खड़ी है | सेतु सुन्दर नहीं है ,पति और बच्चे को दुर्घटना में खो चुकी है , जाने कितनों की बुरी नज़र से खुद को बचाती है फिर भी वो सकारात्मक रहने व् खुश रहने का प्रयास करती है | समाज ने उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है | उस पर आरोप है इतने दुखों के बीच खुश रहने का … “ जरूर कोई बात है “ मोहा , जो बच्चों के लिए दिन भर खटती हैं उसे उसके बच्चों ने ही कटघरे में खड़ा कर दिया | साँवली बेटी ने इंटरनेट से पढ़ कर उस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि तुमने गर्भावस्था में अपने खाने -पीने का ध्यान नहीं रखा इसलिए मैं सांवली पैदा हुई | उम्र बढ़ने के साथ बेटी का अवसाद बढ़ता है और मोहा की उलझन | अवसाद ग्रस्त बेटी आत्महत्या करती है और मोहा को  एक बेबुनियाद आरोप के साथ जिंदगी भर के लिए कटघरे में खड़ा कर जाती है | जहाँ से उसकी मुक्ति संभव नहीं है | नकली भक्त में देवी पूजन में बालिकाओं का सम्मान करती व् अगले ही दिन से कामवाली की छोटी बेटी को काम पर बुलाती भक्त चाची ” नकली भक्त” के कटघरे में खड़ी  हैं | डेजी जी ने  आधुनिक माँ को भी कटघरे में खड़ा किया है , जो अपने फिगर पर ध्यान देती हैं बच्चों पर नहीं | शहर के बन्दर में वो नगर , निगम वन विभाग और सरकार सबको कटघरे में खड़ा करती है | जब जंगल काट दिए जायेंगे तो बेचारे बंदर क्या करें ?                                    संग्रह में 62 कटघरे हैं जहाँ हम , आप जैसे सब लोग खड़े हैं व् 11 अन्य  कहानियाँ हैं | डेजी जी बड़ी ही सरलता से शुरुआत में घोषणा करती हैं –                                    कहानी हैं , संस्मरण हैं या किस्से हैं                                             सब जीवन के तो  हिस्से हैं                                       ज्ञानी है , अज्ञानी हैं या मसखरे हैं                                       सबके देखो तो अपने -अपने कटघरे हैं                                      कटघरे की हर कहानी  सरलता के साथ बुनी हुई छोटी सी कहानी  है , पर इसका प्रभाव बहुत व्यापक है | ये छोटी – छोटी से कहानियाँ पाठक को बहुत देर तक सोंचने पर विवश कर देती हैं | ” संग्रह विश्वगाथा  प्रकाशन ने निकाला है | इसका कवर पेज  भी बहुत सुंदर व् प्रतीकात्मक है | सरल भाषा में कुछ गंभीर पढने की चाह रखने वाले पाठकों … Read more

बहुत देर तक चुभते रहे “काँच के शामियाने “

इसे सुखद संयोग ही कहा जाएगा की जिस दिन मैंने फ्लिपकार्ट पर रश्मि रविजा जी का उपन्यास ” कांच के शामियाने आर्डर किया उस के अगले दिन ही मुझे “कांच के शामियाने” को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा “जैनेन्द्र कुमार पुरस्कार” दिए जाने की घोषणा की  सूचना मिली | अधीरता और बढ़ गयी | दो दिन बाद उपन्यास मेरे हाथ में था | बड़ी उत्सुकता से उपन्यास पढना शुरू किया ….”झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी”और शुरू हुआ मेरा जया  के साथ एक दर्द भरा सफ़र , ये  सफ़र था  एक मासूम लड़की , एक शोषित पत्नी और संघर्ष करती माँ के साथ | जितना पढ़ती गयी जया  के साथ घुलती मिलती गयी | और क्यों न हो ? ऐसी कितनी जयायें मैंने जिंदगी में देखी थी | पड़ोस की बन्नो , सरला मौसी गाँव की तिवारीं चाची | एक साथ न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं |मन अधीर हो उठा … नहीं , नहीं ये जया हारेगी नहीं | मन दुआ करने लगा जो हकीकत में देखा था कम से कम जया  के साथ न हो | और मैं बिना रुके पढ़ती चली गयी … जया  के साथ जुडती चली गयी | चुभते है गड़ते है  “काँच के शामियाने “                                काँच के शामियाने एक स्त्री की हकीकत है | एक ऐसी दर्दनाक हकीकत जिसमें रिसते , गड़ते घावों का दंश झेलती महिला महफूज मानी जाती है | किसने बनाया है औरत के लिए सब सहने में खुश होने का अलिखित कानून ? और क्यों बनाया है ?  जया एक आम मध्यम  वर्गीय  महिला का प्रतिनिधित्व करती है | जो  ये जानते हुए कि उसका शोषण हो रहा है …. शायद कल सब कुछ अच्छा हो जाए सोंचकर सब कुछ सहती रहती है | पर ऐसा दिन परी कथाओं में तो होता है असली जिन्दगी में नहीं | वो घर में कैद कर ली जाती है , अपने मायके की औकात के ताने झेलती है और जिस सामाज के सामने वो फ़रियाद ले कर जाती है वो इसे पति – पत्नी का झगडा बता कर बीच में पड़ने से मना  कर देता है | नतीजा पति  राजीव व् ससुराल वालों के अत्याचार दिन पर दिन बढ़ते ही जाते है | यहाँ पर एक प्रश्न मन में उठता है कि ” लोग क्या कहेंगे “के नाम पर औरत के पैरों में कितनी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं | जिन्हें झेलने को वो विवश है पर यही लोग पति के अत्याचारों पर पति – पत्नी का मामला बता कर मौन धारण  कर लेते हैं | स्त्री के शोषण के पीछे केवल ससुराल वाले व् पति ही जिम्मेदार नहीं है | पूरा समाज जिम्मेदार है | वही समाज जो हमसे आपसे मिलकर बनता है | सामाज का ये गैर जिम्मेदाराना रवैया हम को और आपको सोंचने और बदलने की वकालत करता है | स्त्री का साथ नहीं देता मायका                                                     कहते हैं लड़की का कोई घर नहीं होता है | होता है तो एक मायका और एक ससुराल | इस पर ससुराल में पीड़ित महिलाएं अपनी फ़रियाद लेकर कहाँ जाए | कौन है जो उन्हें इस दर्द से जूझने की क्षमता देगा ?  ” काँच के शामियाने ” से  कुछ पंक्तियाँ जया द्वारा कही गयीं  आपसे साझा करना चाहती हूँ … किरण दीदी जब भी ससुराल आती मुहल्ले में खबर फ़ैल जाती कि उनके ससुराल वाले बहुत मारते – पीटते हैं , सताते हैं पड़ोस की औरते एक दूसरे से आँख के इशारे से कहती ,” आ गयी फिर से , जरूर फिर से कुछ हुआ होगा ” फिर दस एक दिनों में उनके बाबूजी या भैया उन्हें वापस ससुराल पहुंचा आते | पिछले कुछ सालों से किरण दी ने मायके आना बंद कर दिया | तब भी लोग उन्हें को दोषी ठहराते | कहते ,” कैसी पत्थरदिल है | माँ – बाबूजी को देखने का भी मन नहीं करता | उन दिनों गहराई से समझ नहीं पायी थी |कब तक झूठी मुस्कान ओढ़े अपने माता – पिता की लाडली होने का दिखावा करती | उनका भी मन दुखता होगा जब अकेले में सब सहना है तो क्यों वो किसी झूठे दिलासे की उम्मीद में मायके का रुख करें | क्या बेटा  भी किसी दुःख मुसीबत में होता तो वो उसे यूँ ही अकेला छोड़ देते |                             हम सब जानते हैं की ये हमारे समाज की सच्चाई है | माता – पिता बेटी की शादी कर  अपना बोझ उतार देते हैं | फिर चाहे बेटी कितना बोझ ढोती रहे | इसी पर सुविख्यात लेखिका सुधा अरोड़ा जी की लोकप्रिय कविता ‘ कम से कम एक दरवाजा खुला होना  चाहिए” का जिक्र करना चाहूंगी | जब तक हम स्वयं अपनी बेटियों के लिए ढाल बन कर खड़े नहीं होंगे वो ससुराल में इसी तरह का शोषण झेलने को विवश होंगी | जया  का प्रश्न वाजिब है अगर बेटे के साथ यही होता तो क्या माता – पिता उसे दुःख में अकेले छोड़ देते फिर बेटियों को क्यों ? ये उत्तर हम सब को खोजना है | दर्द का हद से गुज़र जाना दवा बन जाना                                          कहते  हैं की दर्द जब हद से गुज़र जाए तो वो दवा बन जाता है |जया के जीवन में भी दर्द बढ़ते बढ़ते इस हद तक पहुँच गया  कि उसमें राजीव का घर छोड़ने का साहस आ गया | संघर्ष का ये रास्ता कठिन रास्ता था | राजीव उसके आय के हर श्रोत को बंद कर देना चाहता था | हर तरह से उसे अपने आगे घुटने टेकने को मजबूर करना चाहता था | एक हारे हुए पुरुष के पास स्त्री के चरित्र पर कीचड उछालने के अतरिक्त कोई बाण नहीं होता | राजीव ने भी बहुत तीर चलाये जिसने जया को … Read more

रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं |                                        प्रेम और श्रृंगार                                      स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है  शमीम रहती थी  कभी सामने नीम के——— एक घर था, जिसमें मेंरी शमीम रहती थी। वे महज़——— एक खूबसुरत लड़की नही, मेंरी चाहत थी। बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया, फिर काॅलोनी बन गई, हाय!री कंक्रिट——– तेरी खातिर नीम कटा, वे घर ढ़हा——– जिसमें मेरी शमीम रहती थी। अब तो बीमार सा बस, डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर, यहाँ आता हूँ! शुकून मिल जाता है इतने से भी, ऐ,रंग———– कि यहाँ कभी, मेरे दिल की हकिम रहती थी! कभी सामने नीम के——– एक घर था, जिसमें मेरी शमीम रहती थी।   पतझड़ की तरह रोई  बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——– रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई। कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द—— मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई। सब ठहरते गये—————- अपनी अपनी मील के पत्थर तलक, मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई। लोग सावन में भीग रहे थे, ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।         सखी हे रे बदरवा  तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा, करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा। सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत, मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी, बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू, जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा, मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। पपीहा मुआ  मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ, वे भी तो तड़पे है मेरी तरह, वे पी पी करे और मै पी पी पिया। मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। वे रोये है आँखो से देखे है बादल, मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल, वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी, देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया, मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ। हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी? वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी, की भुल हमने शायद कही पे, या कि भुल हमने जो दिल दे दिया, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। चल रे पपीहे हुई शाम अब तो, ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ, मांगो ना अब और रब से दुआ, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।                                उन्होंने मुझको चाँद कहा था  पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। तब से लेकर अब तक मै—– वे करवा चौथ नही भुली। मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी, फिर नजर उठाकर देखा तो, वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे, मैने उनकी पूजा की——- फिर तोड़ा करवे से व्रत! उन्होनें अपने दिल से लगा के—– मुझको अपनी जान कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै, यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै, फिर शर्मा उठु कर याद वे पल, जब पहली बार पिया ने मुझको—- छत पर अपना चाँद कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—- उन्होनें मुझको चाँद कहा था। चूड़ियाँ ईद कहती है चले आओ———- कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। तीन तलाक पर एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे बेजा तलाक न दो  ख्वा़हिशो को खाक न दो! एै मेरे शौहर———– सरिया के नाम पे, मुझे बेजा तलाक न दो। बख्श दो——— कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे, मुझ बेगुनाह को——- इतना भी शाॅक न दो, बेजा तलाक न दो। न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे, मुझ बांदी को सजा तुम——– इतनी खौफ़नाक न दो, बेजा तलाक न दो। न छिनो छत,न लिबास खुदा के वास्ते रहने दो, मेरी बेगुनाही झुलस जाये——- मुझे वे तेजाब न दो, बेजा तलाक न दो। सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा, लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत, मै उफ न करुंगी! बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा, इस्लामी हलाक न दो——- बेजा तलाक न दो। तीन मर्तबा तलाक  एक औरत——— किसी सरिया के नाम पे कैसे हो सकती है मजाक। कैसे———– लिख सकता है कोई शौहर, अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके, मोबाइल के वाट्सप पे——— तीन मर्तबा तिलाक। नही अब … Read more

समीक्षा – “काहे करो विलाप” गुदगुदाते ‘पंचों’ और ‘पंजाबी तड़के’ का एक अनूठा संगम

हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं में से व्यंग्य लेखन “एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!” कारण स्पष्ट है – भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल| आज के युग की गला काट प्रतियोगिता में जैसे – जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे – वैसे ये कार्य और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| “आप थोडा सा हँस ले” – तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की तरह उगे “लाफ्टर क्लब” इस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़ हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ – साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य – संग्रह “काहे करो विलाप” मेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका “अटूट बंधन” व् दैनिक समाचार पत्र “सच का हौसला” में प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी जहाँ होंठो पर मुस्कुराहट के साथ दिमाग के लिए सन्देश भी था| इसी कलात्मकता ने मुझे इस व्यंग्य – संग्रह पर कुछ शब्द लिखने को विवश किया| शुरुआत करना चाहूंगी संग्रह के पहले ही व्यंग्य “पापी पेट का सवाल है” से – कटाक्ष शैली में लिखे गए इस व्यंग में अशोक जी ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से सारे पापों, सारे घोटालों, सभी समस्याओं, रोटी की तालाश में विदेश गए लोगों व् मात्र पेट को भरने की जुगत में लगे लोगों का समय का सार्थक उपयोग न कर पाने की विवशता का कारण पेट को माना है| जब वो ‘पेट देना‘ भगवान् की सबसे बड़ी गलती करार देते हैं तो पाठक अपने पेट पर हाथ फेरते हुए उनसे सहमत हो ही जाता है| “हाय, मेरी बत्तीसी!” मेरे पसंदीदा व्यंगों में से एक है| इसे हमने “सच का हौसला” में प्रकशित भी किया था| मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि जो भी व्यक्ति सौभाग्य या दुर्भाग्य से दांत के डॉक्टर के पास गया होगा वह इस व्यंग्य को पढ़ कर अपनी व्यथा-कथा का स्मरण कर मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता| दूध में पानी की मिलावट से जहाँ हम सब भारतीय विशेकर महिलाएं परेशान होती हैं, वहीँ अशोक जी इसे व्यंग्य का मुद्दा बनाते हैं| यही नहीं अपने व्यंग्य –लेख “बस, थोड़ी यही तकलीफ है” में तुलनात्मक अध्धयन से सिद्द कर देते हैं कि भारतीय दूधवाला विदेशी शुद्ध दूध या पानी की मात्रा बता कर मिलावटी दूध बेचने वाली कम्पनियों से ज्यादा बेहतर है क्योंकि वह आप को दिल, जिगर और गुर्दे आदि की तमाम बीमारियों से बचा कर आप पर अहसान करता है| अशोक जी दूध वाले की कृपा से पैर की नस खींच कर दिल में लगाने में होने वाले खर्चे की बचत जैसे खूबसूरत पंच का प्रयोग करते हैं जो पाठक को गुदगुदाता है| “लाल परी वाली पार्टी” में देशी शादियों में पीने – पिलाने के रिवाज़ पर हास्य का शानदार प्रयोग है| “बोलो जी, आज क्या बनाऊ?” घरेलू जिंदगी में हास्य पैदा करता है| इस व्यंग्य की शैली रोचकता उत्पन्न करती है और पाठक एक सांस में पढता जाता है| हालांकि, एक महिला होने के नाते मैं इसका समर्थन नहीं करूंगी, पाठक खुद ही पढ़ कर निर्णय लें| हममे से ज्यादातर लोग अतीत को वर्तमान से बेहतर मानते हैं और उसी में खोये रहते हैं और अगर बात फेसबुक प्रोफाइल पर फोटो लगाने की हो तो निश्चित तौर पर अतीत ही बेहतर होता है| मानवीय स्वाभाव की इस कमजोरी पर लिखा गया ये व्यंग्य “कोई लौटा दे मेरे वो दिन” बेहद शानदार बन पड़ा है| अंत में, मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अशोक जी चाहे वर्षों से विदेश में बसे हुये हैं, उनकी हिंदी पर पकड़ बहुत अच्छी है| हिंदी के साथ – साथ पंजाबी को गूंथ कर जो भाषाई स्तर पर उन्होंने प्रयोग किया है वह बेहद ही सफल रहा है| उनका यह व्यंग्य – संग्रह व्यंग्य विधा के हर मानक को पूरा करता है| अशोक जी एक बेहतरीन लेखक के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं| उनमें असीम संभावनाएं हैं| यदि आप भी व्यंग्य के नाम पर कुछ अच्छा, कुछ सार्थक और कुछ चुटीले पंच युक्त-लेख पढना चाहते हैं जो दिल और दिमाग दोनों के लिए बेहतर हो तो आप को अशोक जी का व्यंग्य संग्रह “काहे करो विलाप“ अवश्य पढना चाहिए| हार्दिक शुभकामनाओं के साथ – ******************वंदना बाजपेयी, ****************कार्यकारी सम्पादक, **********अटूट बंधन व् सच का हौसला 

मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर

                                                     लेखिका एवम कवयित्री     किरण सिंह  जी का प्रथम काव्य संग्रह ” मुखरित संवेदनाएं ” एक नज़र में ही मुझे विवश करने लगा  की मैं उस पर कुछ लिखूँ , और पूरा पढने के बाद मैं अपने आप को रोक न सकी | वैसे किरण सिंह जी के आत्मीय स्वाभाव व् उनकी कविताओं से मैं फेसबुक के माध्यम से पहले से ही परिचित थी | उनकी कई  कवितायें व् कहानियां हमारे अटूट बंधन ग्रुप की मासिक पत्रिका ” अटूट बंधन ” व् दैनिक समाचारपत्र ” सच का हौसला में प्रकाशित हो चुकी हैं व् पाठकों द्वारा सराही जा चुकी हैं | इस भावनात्मक जुड़ाव के कारण उनके पहले काव्य संग्रह पर कुछ लिखना  मुझे आल्हादित कर  रहा है | शुरुआत करती हूँ संग्रह के पहले अंश ” अपनी बात से ” जैसा की किरण जी ने लिखा है की छोटी उम्र में विवाह व् घर गृहस्थी के ताम – झाम में वो भूल ही गयी की उनके अन्दर जाने कितनी कवितायें सांस ले रही हैं | जो जन्म लेना चाहती है | जाहिर सी बात है जब कांपते हाथों से उन्होंने कलम थामी तो उदेश्य बस उस बेचैनी का समाधान ढूंढना था जो हर रचनात्मक व्यक्ति अपने अन्दर महसूस करता है | तभी तो अपनी पहली कविता में वह प्रश्न करती हैं ” किस पर  लिखूँ मैं ?” वास्तव में जब मन में इतना कुछ एक साथ चल रहा हो तो एक विषय का चयन कितना दुष्कर हो जाता है | पर वो शीघ्र ही इस झिझक से बाहर आ कर मजबूती से अपनी बात रखती हैं | उन्होंने अपनि सम्वेद्नाओ को कई भागों में बांटा है जिस पर मैं क्रम से प्रकाश  डालना चाहूंगी | मुखरित संवेदनाएं                       यहाँ किरण जी ने अपने लेखकीय जीवन  के शुरूआती दौर  की कवितायें रखी हैं | जहाँ एक अनजानी राह पर जाने की झिझक भी है , संकल्प भी है और सब से बढ़कर कर स्वयं को ढूँढने की बेचैनी है | इस खंड की अंतिम कविता ” मैं ” तक आते – आते वो इसका हल भी ढूढ़ लेती हैं  और उद्घोष करती हैं ………                ” किरने आशाओं  की मैं                     मैं स्वयं की स्वामिनी  हूँ “|  नारी संवेदना के स्वर                                     किरण जी के काव्य संग्रह के दूसरे व् प्रमुख खंड  ” नारी संवेदना के स्वर ” की कविताओं को बार – बार पढने पर उसमें उस स्त्री का अक्स दिखाई देता है जो हमारे देश के छोटे शहरों , गांवों और कस्बों से निकल कर आई है | जो महानगरों की स्त्री की तरह पुरुष विरोधी नहीं है | या यूँ कहिये वो मात्र विरोध करने के लिए विरोध नहीं करती | वो पुरुष से लड़ते – लड़ते पुरुष नहीं बनना चाहती है | उसे अपने  स्त्रियोचित गुणों पर गर्व है | दया ममता करुणा  हो या मेहँदी चूड़ी और गहने वो सब को सहेज कर आगे बढ़ना चाहती है | या यूँ कहें की वो अपनी जड़ों से जुड़े रह कर अपने हिस्से का आसमान चाहती है | वो अपने पिता पति और पुत्र को कटघरे में नहीं घसीटती बल्कि  सामाजिक व्यवस्था  और अपने ही कोमल स्वाभाव के कारण स्वयमेव अपना प्रगति रथ रोक देने के कारण उन्हें दोष मुक्त कर देती है | वो कहती है ……….. क्यों दोष दूं तुम्हे  मैं भी तो भूल गयी थी  स्वयं  तुम्हारे प्रेम में                    आज स्त्री विमर्श के नाम पर जो लिखा जा रहा है  | वो बहुत उग्र है | जिस  तरह से स्त्री खून के बदले खून मांगती है , लिव इन या बेवफाई से उसे गुरेज नहीं है | वो पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलने में यकीन नहीं करती बल्कि सत्ता पलट कर पुरुष  से ऊपर हो जाना चाहती हैं | जिस को पढ़ कर सहज विश्वास नहीं होता | क्योंकि हमें अपने आस – पास ऐसी स्त्रियाँ नहीं दिखती | हो सकता है ये भविष्य हो पर किरण जी की कवितायें आज का यथार्थ लिख रही हैं | जहाँ संवेदनाएं इतनी इस कदर मरी नहीं हैं | पर किरण जी की कवितायें एक दबी कुचली नारी के स्वर नहीं है | वो अपने हिस्से का आसमान भी मांगती हैं पर प्रेम और समन्वयवादी दृष्टिकोण के साथ ………. भूल गयी थी तुम्हारे प्रेम में अपना  अस्तित्व और निखरता गया मेरा  स्त्रीत्व  खुश हूँ आज भी  पर  ना जाने क्यों  लेखनी के पंख से उड़ना चाहती हूँ  मुझे मत रोको  मुझे  स्वर्ण आभूषण  नहीं   आसमान चाहिए  युग चेतना एवं उद्बोधन                                           काव्य संग्रह के इस खंड में उनकी आत्मा की बेचैनी व् समाज के लिए कुछ करने की चाह स्पष्ट रूपसे झलकती है | ……… सीख लें हम बादलों से  किस पर गरजना है  किस पर बरसना है  किसको दिखाना है  किसको छुपाना है  और ……….. पीढा चढ़ कर ऊंचा बन रहे  आत्म प्रशंसा आप ही कर रहे  झाँक रहे औरों के घर में  नहीं देखते अपनी करनी  सूप पर हंसने लगी है चलनी  भक्ति आध्यात्म                                             काव्य संग्रह के इस खंड में अपने हिस्से का आसमान मांगने वाली और समाज की कुप्रथाओं से लड़ने वाली कवयित्री एक भावुक पुजारिन में तब्दील हो जाती है | जहाँ वो और उसके आराध्य के अतरिक्त कोइ दूसरा नहीं है | न जमीन न आसमान न घर न द्वार | यहाँ पूर्ण  समर्पण  की भावना है | भक्ति रस में डूबे ये गीत आत्मा को आध्यात्म की  तरफ मोड़ देते हैं | ……….. जाति  धर्म में हम उलझ कर  मिट रहे … Read more

“अंतर “- अभिव्यक्ति का या भावनाओं का – ( समीक्षा – कहानी संग्रह : अंतर )

सही अर्थों में पूछा जाए तो स्वाभाविक लेखन अन्दर की एक बेचैनी है जो कब कहाँ कैसे एक धारा  के रूप में बह निकलेगी ये लेखक स्वयं भी नहीं जानता | वो धारा तो  भावनाओं  का सतत प्रवाह हैं , हां शब्दों और शैली के आधार पर हम उसे कविता कहानी लेख व्यंग कुछ भी नाम दें | ये सब मैं इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि अशोक परूथी जी से मेरा पहला परिचय एक व्यंग के माध्यम से हुआ था | “ राम नाम सत्य है “ नामक व्यंग  उन्होंने हमारी पत्रिका “ अटूट बंधन “ के लिए भेजा था | रोचक शैली में लिखे हुए व्यंग को हमने प्रकाशित भी किया था | हमें पाठकों की प्रसंशा  के कई ई मेल मिले | उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया | और अशोक जी के व्यंग मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ व् हमारे दैनिक समाचार पत्र “ सच का हौसला “ में नियमित अंतराल पर प्रकाशित होने लगे | उन्हें  व्यंग विधा में एक बडे  पाठक वर्ग से सराहना मिली | उसके बाद परूथी जी की हास्य कविताओं से रूबरू होने का मौका मिला और अब ये कहानी संग्रह “ अंतर  “ | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है की परूथी जी लेखन की हर विधा में प्रयोग करते हैं और अपनी एक खास शैली में भावों का खाका खींच देते हैं | ठीक वैसे ही जैसे किस चट्टान को काटकर भावनाओं की ये धारा  किस रूप में निकलेगी यह नदी भी नहीं जानती | अंतर कहानी संग्रह में विभिन्न भावों को दर्शाती कहानियों का समावेश किया गया है | कुछ कहानियों में जहाँ हास्य का पुट है वहीँ कुछ कहानियाँ एक अजीब कसमसाहट ,बेचैनी और वेदना से घिरी हुई हैं | विशेष रूप से मैं उल्लेख करना चाहूंगी कहानी अंतर , पिंजरे का पंक्षी व् उसकी मौत का जहाँ अंतस की बेचैनी पाठक स्पष्ट रूप से महसूस करता है | संग्रह की पहली व्  मुख्य कहानी ” अंतर ” पति व् प्रेमी के अंतर ती तुलना करती स्त्री के मनोभावों को ख़ूबसूरती से उकेरती है | उसका मुख्य केंद्र बिंदु है प्रेम की अभिव्यक्ति के अंतर पर , भावनाओं के अंतर पर और उसके हिस्से में आया अंतहीन इंतज़ार , जिसे वो पहले कर न सकी परन्तु बाद में विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया | जिस पर रेंगते हुए ही उसे जीवन काटना है | मैं  विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कहानी ” उसकी मौत ” का जिसे हमें अपने दिनक समाचार  पत्र ” सच का हौसला ” में प्रकाशित किया है |ये कहानी नशे की लत से जूझती युवा पीढ़ी के इर्द – घूमती है | जहाँ नशे की लत से साथी की मृत्यु के उपरान्त  अन्य दोस्त अपने नशे की आदत को छोड़ देते हैं | ” उसकी मौत ” उन्हें हिला कर रख देती है | कहानी जहाँ समस्या उठती है वहीँ समाधान के साथ बहुत भावुक भी कर देती है | यह ही नहीं  संग्रह की अधिकतर कहानियाँ समाज की किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू को उठाती हैं व् उसमें डूबते उतराते पाठक को कुछ सोचने में विवश अवस्था में छोड़ देती हैं | वहीँ कुछ कहानियों में हास्य का पुट दे  कर परूथी जी पाठक को निराशा में डूबने से भी उबार लेते हैं | सभी कहानियाँ हमारे आस –पास के परिवेश से उठायी गयी हैं इसलिए उनके पात्र अपने जाने पहचाने से लगते  हैं | साथ ही कहानियों का ताना – बाना सरल –सहज भाषा में बुना गया है | हालांकि यह परूथी जी का पहला कथा संग्रह है पर जिस तरह से उन्होंने कहानियों को उकेरा  है व् उनमें संवेदनाओं का संप्रेषण किया है उसको पढ़कर उनके लेखन के क्षेत्र में सफल होने का सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है | और जैसा की परूथी जी के जीवन परिचय से मुझे ज्ञात हुआ की उन्होंने छोटी उम्र से लिखना प्रारंभ कर दिया था जिसे जीवन की व्यस्ताओं के कारण स्थगित करना पड़ा और  एक लम्बे अंतराल के बाद पुन : लेखन प्रारंभ किया | पर उनके लेखन से  सिद्ध होता है की प्रतिभा कभी मरती नहीं , उसको  जब सही जमीन मिलती है , अंकुर फूट ही पड़ते हैं मुझे विश्वास है की उनका यह संग्रह लोगों को पसंद आएगा | मैं लेखन के क्षेत्र में उनके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ |                              वंदना बाजपेयी                          कार्यकारी संपादक                                                         अटूट बंधन 

ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा –

” तिराहा “एक ऐसा शब्द जो रहस्यमयी तो है ही  सहज ही आकर्षित भी करता है | हम सब अनेक बार अपने जीवन में इस तिराहे पर खुद को खड़ा पाते हैं | किसी भी मार्ग का चयन जीवन के परिणाम को ही बदल देता है | पर यहाँ  मैं बात कर रहीं हूँ वीणा वत्सल जी के उपन्यास “ तिराहा “की | जिसको मैंने अभी -अभी पढ़ा हैं | और पढने के बाद उस पर कुछ शब्द लिखने की गहरी इच्छा उत्पन्न हुई | “ तिराहा “   वीणा वत्सल सिंह जी का पहला उपन्यास है परन्तु कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ता | कथा में सहज प्रवाह है व् लेखन में कसाव जिसके कारण पाठक उपन्यास  को पन्ने दर पन्ने पढता जाता है | आगे क्या हुआ जानने की इच्छा बनी रहती हैं |मेरा अपना मानना  है की किसी उपन्यास का सरल होना उसके लोकप्रिय होने की पहली शर्त है |                “ तिराहा “ की कहानी तीन महिला पत्रों के इर्द गिर्द घूमती है | जहाँ एक ओर मुख्य नायिका अमृता है जो डॉक्टर होने के साथ साथ सभ्य , शालीन महिला भी है | और बेहद संकोची भी | सिद्धार्थ का प्रेम उसकी छुपी हुई प्रतिभाओं को निखारने में सहायक होता है | वहीँ उसका  संकोच प्रेम की स्वीकारोक्ति नहीं कर पाता | पाठक नायक , नायिका का शीघ्र मिलन देखना चाहता है पर दोनों ही अपने मन की बात अस्वीकार किये जाने के भय से कह नहीं पाते हैं | अंत तक उनकी स्वीकारोक्ति का रोमांच बना रहता है | वहीँ दूसरी ओर झुनकी नाम की महिला है | जो मेहतर  टोले  में रहने वाली किसी सवर्ण की अवैध संतान है | पर वह स्वाभिमानी लड़की प्रेम में कोई आतुरता नहीं दिखाती बल्कि अपने सवर्ण प्रेमी को विवश करती है की वो मेहतर टोले के विकास के लिए कुछ करे | कहीं न कहीं झुनकी स्त्री के उस आत्मबल का प्रतीक है जो विपरीत परिस्तिथियों में टूटती नहीं अपितु  त्याग , सेवा व् आत्मसम्मान के चलते परिस्तिथियों को  बदल देती है |ये पात्र मुझे बहुत प्रभावित करता है |  तीसरा और सबसे जरूरी किरदार है सुधा का … जिसमें न स्वाभिमान है न संकोच जिसके पास है तो बस असंख्य स्वप्न बेलगाम हसरते जिनको पाने के लिए वो कुछ भी , कुछ भी कर सकती है और … करती भी है | उसका पतन और अंत  किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिभा और योग्यता से ज्यादा पाने की दुखद गाथा  है |ऐसे अति महत्वकांक्षी स्त्रियों के उत्थान व् पतन को हम अपने समाज में अक्सर देखते हैं |                       वैसे तो कहानी के अन्य पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | वस्तुत : उपन्यास को समाज के तीन स्तरों पर साधा गया है |उच्च वर्ग , माध्यम वर्ग व् निम्न वर्ग | सबकी अपनी जीवन शैली , अपनी समस्याएं व् अपने ही प्रकार की राजनीति और सब का एक कहानी के माध्यम से सुन्दर समन्वय  | पर कहीं न कहीं मुझे लगता है कि उपन्यास की लेखिका जो स्वयं एक स्त्री हैं इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं की हर स्त्री एक तिराहे पर  खडी है | वो स्त्री भले ही समाज के किसी वर्ग या जाति  से आती हो ये उसका चयन है वो किस रास्ते पर चलती है | उसी पर उसका जीवन निर्भर करता है |  हम ऐसी स्त्रियों को जानते हैं जो  पढ़ी लिखी हैं , स्वाबलंबी हैं पर संकोच की लक्ष्मण रेखा उन्हें ह्रदय की बात कहने से रोकती है | जो प्रेम तो करती है पर प्रेम को स्वीकार करने में झिझकती है … वो भाग्यशाली हो सकती है की उसे  अपना प्रेम पति रूप में मिले या कहीं तन और कहीं मन की चक्की में पिसते हुए जीवन काटने को विवश भी | दूसरी तरफ एक स्वाभिमानी स्त्री अपने आत्मबल व् स्पष्ट सोंच के चलते विपरीत परिस्तिथियों को अपनी  इच्छा के अनुरूप बदल सकती है | या तीसरी तरफ  वह अपनी हसरतों के आगे हथियार डाल  कर पतन के उस गहरे गर्त में गिर सकती है | अमृता , झुनकी और सुधा तो केवल प्रतीक हैं | ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा | इस तिराहे में उसे कौन सी राह चुननी है इस का फैसला स्त्री को स्वयं करना होगा |  वीणा वत्सल जी को उनके पहले उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई व् उनके लेखन के भविष्य के लिए शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक  अटूट बंधन                                                    

डॉ. रमा द्विवेदी के साहित्य में “भविष्य की नारी कल्पना” – शिल्पी “मंजरी”

“स्त्री विमर्श” एक ज्वलंत विषय के रूप में प्राचीन काल से ही किसी न किसी बहाने, प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचर्चा का बिन्दु रहा है- समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए भी। तथापि पिछले ५०-६० वर्षों से यह स्त्री विमर्श, “नारी मुक्ति आन्दोलन” के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है जिसे यूरोप में अस्तित्ववादी चिन्तक सीमोन-दि-वाउवा और अमेरिका में बेट्टी फ्रीडन जैसी प्रतिभाशाली और नारी अधिकारों की प्रखर प्रवक्ताओं से इस “नारी मुक्ति आन्दोलन” को पर्याप्त बल मिला और वैचारिक आयत के रूप में यह आन्दोलन अपना विस्तार करता हुआ पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य वेश-भूषा और पाश्चात्य सोच का स्वरूप धारण कर इस देश के युवा वर्ग में लोकप्रिय हुआ जिसे न्यूनाधिक समर्थन समाज से भी मिला एक समानांतर नवीन वैचारिक चिंतन, लेखन और राजनीतिक स्तर पर, साथ ही क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्चस्वर उठते रहे और लगभग एक दशक से यह विमर्श “नारी सशक्तिकरण” के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का प्रमुख बिन्दु रहा है जिसमें किशोर मनोविकृति ने आग में घी का कार्य किया। यह स्त्री विमर्श अब अपने परंपरागत स्वरूप तक ही सीमित न रहा, सत्ता की राजनीति ने इसे संसद में भी गुंजायमान कर दिया और दिल्ली की “दामिनी प्रकरण” से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी। भविष्य की फसल वर्तमान के बीज में गुम्फित होती है, अतएव भविष्य की योजनाओं और परिकल्पनाओं की एक भावी योजनाओं की रूपरेखा सर्वत्र अब एक आकार लेती दीखने लगी है– समाज में भी, राजनीति में भी और साहित्य में भी। जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से “भविष्य की नारी” पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, इसीवर्ष २०१३ में प्रकाशित सम्वेदनशील रचनाकार डॉ.रमा द्विवेदी का हाइकु-संग्रह “साँसों की सरगम” जिसमें कवियित्री ने नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, गर्भस्थ भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) से भी वार्तालाप किया है। यह वार्तालाप भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो “भविष्यति की नारी” के रूप मेंस्त्री -विमर्श की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। “साँसों की सरगम” से पूर्व कवियित्री के दो काव्य संग्रह “दे दो आकाश” और “रेत का समंदर” प्रकाशित होकर समाज में, विशेष रूप से नारी समाज में अलख जगा रहे हैं। इन तीनों ही काव्य संग्रहों में नारी चेतना, नारी अस्मिता और नारी जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर अभिव्यक्त किया गया है। इस सन्दर्भ में श्री अशोक शुभदर्शी जी ने अपनी समीक्षा में सारगर्भित टिपण्णी की है कि”डॉ. रमा द्विवेदी की कविताएँ उनके अंतर्मन की पाकशाला में खूब पकी हैं,1। इसका निहितार्थ है कि जो अच्छी तरह पकता है वही सुपाच्य भी होता है और विषाणु मुक्त भी। अपनी बात को समाज तक और नारी समुदाय तक ग्राह्य और पोषक बनाने के लिए अंतर्मन की बातों का सुपाच्य होना और विषाणु मुक्त होना अनिवार्य है और इस मर्म को एक पाकशास्त्री नारी से बेहतर भला कौन जान सकता है? इसी का प्रभाव है कि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं में युगीन समस्याएँ उजागर हुई हैं। नारी की स्थिति पर कवयित्री का ध्यान अत्याधिक गया है। आचार्य शिवचंद्र शर्मा ने इन रचनाओं की मूलधारा को उद्‍घाटित करते हुए कहा है – “जीवन का बहुरंगी चित्रण होते हुए भी डॉ. द्विवेदी जी के गीतों में स्त्री वेदना विशेष रूप से मुखरित है।”2 हाइकु के रूप में उनके अंतर्मन की यह वेदना छलक ही पड़ी है कागज़ के ललाट पर– “वेदना पाती / वेदना ही मैं गाती / तुम्हें लौटाती”3। इस वेदना दो स्वर है, प्रो. टी. मोहन सिंह के शब्दों में यदि कहा जाय तो– “इस काव्य में कवयित्री की काव्य चेतना के दो तट दिखाई देते हैं। प्रथम तट नारी की मुक्ति चेतना से संपन्न है तो दूसरा तट लोकबोध संबंधी है।” समाज में इन दोनों ही तटों की समान उपयोगिता है। नारी-चेतना की जागृति को रचनाकारों ने युगीन आवश्यकता के रूप में चिह्नित किया है और आक्रोश के साथ यत्र-तत्र अभिव्यक्त भी किया है लेकिन रमा जी की विशेषता यह है कि वे केवल आक्रोशित नहीं होती, समाधान का तार्किक मार्ग भी बताती है। इस क्रम में प्रथम चरण के रूप में कवयित्री नारी को अपने सर्वांश स्वरूप में ऊपर उठने का संकेत और संदेश देती हैं, यह वैज्ञानिक सत्य है कि जो उठता है वही ऊपर आकाश में विचरण करता है, जन-मानस में छा जाता है। कवियित्री इसीलिए मांग करती हैं– “दे दो आकाश मुझे” लेकिन वे भली प्रकार जानती हैं कि यहाँ माँगने से कुछ नहीं मिलता, अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना पड़ता है- “खुद ही खोजो/ कोई न बतायेगा/जीने की राह”4। लेकिन यह समाज जब किसी नारी को अपने मार्ग से आगे नहीं बढ़ने देता, मार्ग में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है तो यही नारी आक्रोशित होकर दृढ स्वरों में चेतावनी देती है–”कोमलता को कमजोर समझना/ यह है तेरी नादानी/ आती है बाढ़ नदी में जब/ जग को करती है पानी-पानी”5। नारीत्व कमज़ोरी नहीं है बल्कि नारीत्व शक्ति का मूल स्रोत है। इस क्रम में नारी की प्रकृति प्रदत्त मातृत्व-शक्ति को महिमा मंडन के साथ रेखांकित किया है। वंश वृद्धि और पुत्र के रूप में स्वयं को जीवित रखने की लालसा/ जिजीविषा ही दम्पत्ति में पुत्रमोह उतपन्न करती है और माँ-बाप ही जाने–अनजाने पुत्र मोह में फंस जाते हैं और कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कृत्य में सम्मिलित हो जाते हैं। इस भंवरजाल में फंसे दंपत्ति से कवियत्री कहती है– “वंश का नाम/ चलाता है आत्मज/ बेबुनियाद”6। बढ़ती जा रही कन्या-भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति पर इस कुत्सित–घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी दोषी मानते हुए ललकारती हैं– जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी / रोकेगा कौन?7 स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति: अब स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से यदि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं पर बात करें तो उनकी रचनाओं में मुख्यतः तीन प्रकार … Read more