साहित्य के आकाश का ध्रुवतारा (विष्णु प्रभाकर ) विष्णु प्रभाकर को साहित्य का गांधी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि उनपर महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा प्रभाव था . प्रभाकर जी में आप वे सारे गुण–अच्छाईयाँ देख सकते हैं, जो गांधी आन्दोलन के समय गाँधी जी के मूल्य थे. उनके लेखन में गांधी वादी धार्मिकता, अहिंसकता, उदारता आदि सभी कुछ देखने को मिलता है .यहाँ तक कि उनकी वेशभूषा जिसमें उनका झोला, उनकी टोपी साक्षात उन्हें गांधीवादी सिद्ध करता है.और इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही. मैं जूझूगा अकेला ही’ जैसी उनकी कविताएं जीवन में कठिन संघर्षों से जूझने की प्रेरणाएं देती हैं. अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपने शरीर को दान कर दिया था. इसका सीधा अर्थ था कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उनके परिवार में जाति वाद नहीं था. उन्होंने नई परम्पराओं, नए मूल्यों को समाज में स्थापित किया. हमेशा पूँजी वाद , साम्राज्यवाद का विरोध किया. अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही.चौदह वर्षों तक किसी और साहित्यकार की जीवनी के लिए जगह जगह की ख़ाक छानना यह सिर्फ प्रभाकर जैसे विरले व्यक्ति ही कर सकते हैं .प्रभाकर जी का रुझान शरत की तरफ ही क्यूँ हुआ ? .इस सन्दर्भ में उनका ही यह कथन कि “”समाने– समाने होय प्रणेयेर विनिमय के अनुसार शायद इसलिये हुआ कि उनके साहित्य में उस प्रेम और करूणा का स्पर्श मैंने पाया, जिसका मेरा किशोर मन उपासक था। अनेक कारणों से मुझे उन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, जहां दोनो तत्वों का प्रायः अभाव था। उस अभाव की पूर्ति जिस साधन के द्वारा हुई उसके प्रति मन का रूझाान होना सहज ही है। इसलिये शीघ्र ही शरतचंद्र मेरे प्रिय लेखक हो गये.”आवारा मसीहा के सृजन के लिए उनकी छटपटाहट और प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है “प्रभाकर जी हमेशा महिलाओं के भी पक्षधर रहे. वे अपने उपन्यासों में नारी वाद का समर्थन करते हैं. जब उनसे पूछा जाता कि स्त्री की संवेदनाओं के बारे में आप कैसे जानते हैं ?तो वह कहते कि मेरी पत्नी भी तो एक स्त्री ही है” २९ जनवरी १९१२ को उ॰प्र॰ के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर के पिता दुर्गा प्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे . इनकी माँ महादेवी इनके परिवार की पहली साक्षर महिला थी जिन्होंने हिन्दुओं में पर्दा प्रथा का विरोध किया. १२ वर्ष के बाद, अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, प्रभाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने मामा के पास हिसार (उस समय पंजाब का हिस्सा, अब हरियाणा का) चले गये, जहाँ इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. यह १९२९ की बात है. वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालत इसकी इजाजत नहीं देते थे, अतः इन्होंने एक दफ़्तर में चतुर्थ श्रेणी की एक नौकरी की और हिन्दी में प्रभाकर, विभूषण की डिग्री, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी ए की डिग्री भी प्राप्त की .चूँकि पढ़ाई के साथ–साथ इनकी साहित्य में भी रुचि थी, अतः इन्होंने हिसार की ही एक नाटक कम्पनी ज्वाइन कर ली और १९३९ में अपना पहला नाटक लिखा हत्या के बाद. कुछ समय के लिए इन्होंने लेखन को अपना फुलटाइम पेशा भी बनाया. २७ वर्ष की अवस्था तक ये अपने मामा के ही परिवार के साथ रहते रहे, वहीं इनका विवाह १९३८ में सुशीला प्रभाकर से हुआ. आज़ादी के बाद १९५५–५७ के बीच इन्होंने आकाशवाणी, नई दिल्ली में नाट्य–निर्देशक के तौर पर काम किया. उनकी पहली कहानी 1931 में लाहौर की पत्रिका में छपी थी .और काफी पसंद भी की गयी थी .बस फिर क्या इस कहानी से उनकी लेखनी के पंखों में हरकत हुई जो बाद में जाकर इस पंक्षी को साहित्य के दूर विस्तृत असीम अनंत आसमान की सैर करा लायी . विष्णु के नाम में प्रभाकर कैसे जुड़ा, उसकी एक बेहद रुचिपूर्ण कहानी है.,!तब वह विष्णु नाम से लिखा करते थे एक बार जब एक संपादक ने पूछा कि आप कहाँ तक शिक्षित हैं तो उन्होंने बताया कि उन्होंने प्रभाकर किया है और बस तब ही से उन संपादक महोदय द्वारा उनका नामकरण विष्णु प्रभाकर के रूप में हो गया . इस प्रकार विष्णु दयाल के रूप मे शुरू हुई उनकी प्रारंभिक यात्रा विष्णु गुप्ता पर तनिक ठहर विष्णु धर्मदत्त को लाँघते हुये, विष्णु प्रभाकर बन कर पूरी हुई .शुरू शुरू में उन्होंने एक थर्ड ग्रेड नाटक कम्पनी के लिए ’ हत्या के बाद ’ जैसा नाटक लिखा ! यह और बात है कि यह नाटक भी चर्चित हो उठा . प्रभाकर ने अपने दीर्घ साहित्यिक सेवाकाल में हिन्दी की अक्षय निधि को अनेकानेक विधाओं से सम्मुनत किया है. खासकर नाटक, एकांकी तथा जीवनी साहित्य के क्षेत्र में वे तो मूर्धन्य साहित्यकार हैं ही , पर साहित्य की अन्य ढेर सारी विधाएं उनसे कृतकाय हुई हैं प्रभाकर का नाटक ‘डाक्टर’ जहां आज भी अपनी ख्याति की कसौटी पर खरा उपस्थित हैं वहीं एकांकियों में प्रकाश और परछाइ, बारह एकांकी, क्या वह दोषी था, दस बजे रात आदि इस विधा में मील के पत्थर के रूप में आज भी मौजूद हैं. उनकी रचनाओं में ‘अधूरी कहानी’ भी है. समय है बंटवारे से थोड़े पहले का यानी बंटवारे के बन रहे हालात का. यह वह समय था जब नफरत दोनों तरफ के जिलों में ठूंस–ठूंस कर भरी जा रही थी. इस कहानी में दो धर्मां के दो युवक बंटवारे को सही गलत ठहराने में उलझ रहे हैं. अंत में एक प्रश्न उठता है कि ‘-सच कहना, मुहब्बत की लकीर क्या आज बिल्कुल ही मिट गयी है? यह कहानी का चरम नहीं है, उसका मर्म है. बंटवारे के समय और उसके बाद मुहब्बत को जिलाये रखने की सबसे ज्यादा जरूरत थी. विष्णु जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही सहज. उन्होंने बाल साहित्य का भी खूब सृजन किया .उनका मानना था कि बचपन जीवन का ऐसा आईना होता है जो आगे की दिशा निर्धारित करता है. प्रभाकर जी ने जिस लगन से बाल साहित्य लिखा, तन्मयता से लिखा, … Read more