“सुशांत सुप्रिय के काव्य संग्रह – इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं “की शहंशाह आलम की समीक्षा ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ

             #  समीक्षा आलेख : ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ “         ———————————————————                                                                                    कोई छायाकार रात की नींद में जाकर जिन दृश्यों के बारे में सोचता है , उन दृश्यों को दिन में कैमरे में क़ैद करते हुए वह अपनी नींद को सार्थक करता है । ठीक उसी तरह एक कवि दिन में देखे , भोगे हुए यथार्थ को गहरी रात के एकांत में काग़ज़-क़लम लिए अपना कवि-धर्म समझकर प्रकट करता है । सुपरिचित कवि सुशांत सुप्रिय ऐसे ही कवियों में हैं जो पूरी ईमानदारी व मासूमियत से अपने देखे , भोगे हुए यथार्थ को अपनी कविताओं में दर्ज़ करते चले जाते हैं :           मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में          वयस्क हाथ बो दिए          वहाँ कोई फूल नहीं निकला          किंतु मेरे घर का सारा सामान          चोरी होने लगा ( मासूमियत / पृ. 9 ) ।           सुशांत सुप्रिय की कविताओं में जो भी दर्ज है , सब उल्लेखनीय है । उल्लेखनीय इसलिए भी है क्योंकि इनके यहाँ मनुष्य अपने कठिन-जटिल समय से पराजित नहीं होता , न किसी को पराजित होने देता है । यहाँ पूरी मनुष्यता जीतती दिखाई देती है :            हारकर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में           एक शिशु मन बो दिया           अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी           खिला हुआ है ( वही ) ।           सुशांत के संग्रह की लगभग सारी कविताएँ एक अच्छे आदमी , एक अच्छे नागरिक की कविताएँ हैं जो अच्छाई के पक्ष में लड़ाई के मूलार्थ सही तरीके से ज़ाहिर कर पाने में सक्षम दिखाई देती हैं । इन कविताओं की भाषा हमें गहराई तक प्रभावित करती है :             हर हत्या के बाद            वहीं से जी उठता हूँ            जहाँ से मारा गया था            जहाँ से तोड़ा गया था            वहीं से घास की नई पत्ती-सा            फिर से उग आता हूँ ( हर बार / पृ. 61 ) ।           दुनिया भर में आदमी के विरुद्ध षड्यंत्र बढ़ते चले जा रहे हैं । सुशांत सुप्रिय भी अपनी कविताओं के माध्यम से इनका मुक़ाबला करते हैं । उनकी कविताएँ हमें अपने समय के दुखों से निजात दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं :             तुम आई            और मैं तुम्हारे लिए            सर्दियों की            गुनगुनी धूप हो गया ( विडम्बना / पृ. 84 ) ।           मेरे विचार से सुशांत सुप्रिय की कविताएँ समकालीन हिंदी कविता में किसी सुखद अनुभूति की तरह हैं — ‘ आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी ‘ और ‘ पानी को नम बना रही मछलियों ‘ की तरह । या फिर ‘ आत्मा में धार ‘ की तरह । कवि : सुशांत सुप्रिय / प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन , C-56 , यूजीएफ़ – 4 ,शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- 2 , ग़ाज़ियाबाद – 201005 ( उ. प्र. ) / वर्ष:2015 /मूल्य : ₹335/- ; मो: ( कवि ) : 8512070086

शब्द सारांश का भव्य वार्षिकोत्सव एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह

शब्द सारांश का भव्य वार्षिकोत्सव एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह दस अप्रैल रविवार को नगर की प्रसिद्ध साहित्य एवं सामाजिक संस्था शब्द सारांश का द्वितीय वार्षिकोत्सव संपन्न हुआ .कार्यक्रम का शुभारम्भ देह्दानी डॉ रामावतार शर्मा ,तहसीलदार एवं साहित्यकार राकेश त्यागी ,डॉ राजेन्द्र मिलन ,एवं डॉ अमी आधार ने दीप प्रज्ज्वलित करके किया .उसके बाद पुष्प माला ,सम्मान वस्त्र एवं श्री फल से अतिथियों का स्वागत किया गया कार्यक्रम के संचालन की डोर मेरठ की गायिका और संचालक डॉ शुभम त्यागी ने थामी .कार्यक्रम के प्रथम सत्र में संस्था अध्यक्ष सपना मांगलिक द्वारा संपादित कहानी संग्रह बातें अनकही एवं उनके ही द्वरा रचित हाइकु संग्रह “बोन्साई “का विमोचन किया गया .पुस्तकों की समीक्षा के क्रम में डॉ अमी आधार ने पुस्तक बोन्साई के हाइकु की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए कहा कि ” हाइकु का यूँ तो प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है मगर बेहतरीन शिल्प और बेजोड़ बिम्ब सपना मांगलिक के लेखन की विशेषता है .वह  न केवल आलेख ,कथा ,ग़ज़ल और माहिया के क्षेत्र में अपनी जादूगरी दिखा चुकी है अपितु बोन्साई हाइकु संग्रह से उन्होंने साबित किया है कि उनकी पकड़ और महारत साहित्य की हर विधा में है .कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ राजेन्द्र मिलन ने सपना मांगलिक के कथा संग्रह “बातें अनकही ” के सम्पादकीय की तारीफ़ करते हुए कहा कि एक संकलन को पठनीय बनाने  में उसके संपादक की अहम् भूमिका होती है पुस्तक की संपादक सपना ने नए लेखकों की एक से बढ़कर एक कहानियाँ इस संकलन के लिए चुनी हैं जो उनके अंदर की सम्पादकीय प्रतिभा को उजागर करती हैं .प्रकाशक पवन जैन और संभली से आये dm राकेश त्यागी ने भी पुस्तकों के सन्दर्भ में अपने विचार रखे .साथ ही कहा कि शब्द सारांश साहित्य संस्था नए लेखकों को लेखन के क्षेत्र में प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिवर्ष साझा संकलनों का प्रकाशन कर अपने नाम और काम को सार्थक कर रही है ,जो कि सराहनीय है .द्वीतीय सत्र में शब्द सारांश द्वारा मेरठ से आयीं गायिका और संचालक डॉ शुभम त्यागी एवं राकेश त्यागी का सम्मान किया गया और सन्मति पब्लिशिंग हाउस और आगमन साहित्य परिषद् प्रमुख पवन जैन ने आगरा के प्रसिद्ध समाज सेवी एवं देह्दानी डॉ रामावतार शर्मा को लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान से नवाजा .कार्यक्रम के तृतीय सत्र में रंगारंग काव्य गोष्ठी प्रारंभ हुई काव्य क्षेत्र के बड़े बड़े सूरमाओं यथा जबलपुर से आये व्यंग्य के महारथी नरेंद्र शर्मा ,मेरठ की गायिका शुभम त्यागी ,अशोक रावत ,हरिमोहन कोठिया  , त्रिमोहन तरल ,सुनीत शर्मा  ,  ने अपनी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और पैरोडी से समां बाँध दिया डॉ भावना महरा ,जी पी मोर्य ,राकेश निर्मल ,सलीम साहब ,रति शर्मा  श्रुति सिन्हा , कबीर ,सुनीता सिंह ,निवेदिता धनगर  ,कांची सिंघल , डॉ शेषपाल सिंह शेष ,राजबहादुर राज इत्यादि ने भी काव्य के ऐसे रंग बिखराए की हर तरफ से वाह – वाह की आवाजें और तालियों की गडगडाहट से हॉल गूँज उठा .और तपती गर्मी में बारिश की रुनझुन ठंडक का आभास होने लगा .संस्था की उपाध्यक्ष श्रुति सिन्हा ने कार्यक्रम के समापन पर धन्यवाद ज्ञापित किया . सपना मांगलिक संस्थापक /अध्यक्ष शब्द सारांश संस्था मोबाइल -९५४८५०९५०८

साहित्य के आकाश का ध्रुवतारा (विष्णु प्रभाकर )…….. सपना मांगलिक

साहित्य के आकाश का ध्रुवतारा (विष्णु प्रभाकर ) विष्णु प्रभाकर को साहित्य का गांधी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि उनपर महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा प्रभाव था . प्रभाकर जी में आप वे सारे गुण–अच्छाईयाँ देख सकते हैं, जो गांधी आन्दोलन के समय गाँधी जी के मूल्य थे. उनके लेखन में गांधी वादी धार्मिकता, अहिंसकता, उदारता आदि सभी कुछ देखने को मिलता है .यहाँ तक कि उनकी वेशभूषा जिसमें उनका झोला, उनकी टोपी साक्षात उन्हें गांधीवादी सिद्ध करता है.और इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही. मैं जूझूगा अकेला ही’ जैसी उनकी कविताएं जीवन में कठिन संघर्षों से जूझने की प्रेरणाएं देती हैं. अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपने शरीर को दान कर दिया था. इसका सीधा अर्थ था कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उनके परिवार में जाति वाद नहीं था. उन्होंने नई परम्पराओं, नए मूल्यों को समाज में स्थापित किया. हमेशा पूँजी वाद , साम्राज्यवाद का विरोध किया.  अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही.चौदह वर्षों तक किसी और साहित्यकार की जीवनी के लिए जगह जगह की ख़ाक छानना यह सिर्फ प्रभाकर जैसे विरले व्यक्ति ही कर सकते हैं .प्रभाकर जी का रुझान शरत की तरफ ही क्यूँ हुआ ? .इस सन्दर्भ में उनका ही यह कथन कि “”समाने– समाने होय प्रणेयेर विनिमय के अनुसार शायद इसलिये हुआ कि उनके साहित्य में उस प्रेम और करूणा का स्पर्श मैंने पाया, जिसका मेरा किशोर मन उपासक था। अनेक कारणों से मुझे उन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, जहां दोनो तत्वों का प्रायः अभाव था। उस अभाव की पूर्ति जिस साधन के द्वारा हुई उसके प्रति मन का रूझाान होना सहज ही है। इसलिये शीघ्र ही शरतचंद्र मेरे प्रिय लेखक हो गये.”आवारा मसीहा के सृजन के लिए उनकी छटपटाहट और प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है “प्रभाकर जी हमेशा महिलाओं के भी पक्षधर रहे. वे अपने उपन्यासों में नारी वाद का समर्थन करते हैं. जब उनसे पूछा जाता कि स्त्री की संवेदनाओं के बारे में आप कैसे जानते हैं ?तो वह कहते कि मेरी पत्नी भी तो एक स्त्री ही है”    २९ जनवरी १९१२ को उ॰प्र॰ के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर के पिता दुर्गा प्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे . इनकी माँ महादेवी इनके परिवार की पहली साक्षर महिला थी जिन्होंने हिन्दुओं में पर्दा प्रथा का विरोध किया. १२ वर्ष के बाद, अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, प्रभाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने मामा के पास हिसार (उस समय पंजाब का हिस्सा, अब हरियाणा का) चले गये, जहाँ इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. यह १९२९ की बात है. वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालत इसकी इजाजत नहीं देते थे, अतः इन्होंने एक दफ़्तर में चतुर्थ श्रेणी की एक नौकरी की और हिन्दी में प्रभाकर, विभूषण की डिग्री, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में        बी ए की डिग्री भी प्राप्त की .चूँकि पढ़ाई के साथ–साथ इनकी साहित्य में भी रुचि थी, अतः इन्होंने हिसार की ही एक नाटक कम्पनी ज्वाइन कर ली और १९३९ में अपना पहला नाटक लिखा हत्या के बाद. कुछ समय के लिए इन्होंने लेखन को अपना फुलटाइम पेशा भी बनाया. २७ वर्ष की अवस्था तक ये अपने मामा के ही परिवार के साथ रहते रहे, वहीं इनका विवाह १९३८ में सुशीला प्रभाकर से हुआ. आज़ादी के बाद १९५५–५७ के बीच इन्होंने आकाशवाणी, नई दिल्ली में नाट्य–निर्देशक के तौर पर काम किया. उनकी पहली कहानी 1931 में लाहौर की पत्रिका में छपी थी .और काफी पसंद भी की गयी थी .बस फिर क्या इस कहानी से उनकी लेखनी के पंखों में हरकत हुई जो बाद में जाकर इस पंक्षी को साहित्य के दूर विस्तृत असीम अनंत आसमान की सैर करा लायी . विष्णु के नाम में प्रभाकर कैसे जुड़ा, उसकी एक बेहद रुचिपूर्ण कहानी है.,!तब वह विष्णु नाम से लिखा करते थे एक बार जब एक संपादक ने पूछा कि आप कहाँ तक शिक्षित हैं तो उन्होंने बताया कि उन्होंने प्रभाकर किया है और बस तब ही से उन संपादक महोदय द्वारा उनका नामकरण विष्णु प्रभाकर के रूप में हो गया . इस प्रकार विष्णु दयाल के रूप मे शुरू हुई  उनकी प्रारंभिक यात्रा विष्णु गुप्ता पर तनिक ठहर विष्णु धर्मदत्त को लाँघते हुये, विष्णु प्रभाकर बन कर पूरी हुई .शुरू शुरू में उन्होंने एक थर्ड ग्रेड नाटक कम्पनी के लिए ’ हत्या के बाद ’ जैसा नाटक लिखा ! यह और बात है कि यह नाटक भी चर्चित हो उठा . प्रभाकर ने अपने दीर्घ साहित्यिक सेवाकाल में हिन्दी की अक्षय निधि को अनेकानेक विधाओं से सम्मुनत किया है. खासकर नाटक, एकांकी तथा जीवनी साहित्य के क्षेत्र में वे तो मूर्धन्य साहित्यकार हैं ही , पर साहित्य की अन्य ढेर सारी विधाएं उनसे कृतकाय हुई हैं प्रभाकर का नाटक ‘डाक्टर’ जहां आज भी अपनी ख्याति की कसौटी पर खरा उपस्थित हैं वहीं एकांकियों में प्रकाश और परछाइ, बारह एकांकी, क्या वह दोषी था, दस बजे रात आदि इस विधा में मील के पत्थर के रूप में आज भी मौजूद हैं. उनकी रचनाओं में ‘अधूरी कहानी’ भी है. समय है बंटवारे से थोड़े पहले का यानी बंटवारे के बन रहे हालात का. यह वह समय था जब नफरत दोनों तरफ के जिलों में ठूंस–ठूंस कर भरी जा रही थी. इस कहानी में दो धर्मां के दो युवक बंटवारे को सही गलत ठहराने में उलझ रहे हैं. अंत में एक प्रश्न उठता है कि ‘-सच कहना, मुहब्बत की लकीर क्या आज बिल्कुल ही मिट गयी है? यह कहानी का चरम नहीं है, उसका मर्म है. बंटवारे के समय और उसके बाद मुहब्बत को जिलाये रखने की सबसे ज्यादा जरूरत थी. विष्णु जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही सहज. उन्होंने बाल साहित्य का भी खूब सृजन किया .उनका मानना था कि बचपन जीवन का ऐसा आईना होता है जो आगे की दिशा निर्धारित करता है. प्रभाकर जी ने जिस लगन से बाल साहित्य लिखा, तन्मयता से लिखा, … Read more

अटूट बंधन पत्रिका पर डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक ‘की समीक्षा

                                                                                                                    “अटूट बंधन “पत्रिका पर हमें देश भर से प्रतिक्रियायें प्राप्त हो रही हैं ।किसी नयी पत्रिका को भारी संख्या  में  पाठकों के पत्रों का मिलना हमारे लिए हर्ष का विषय है वही यह हमारे उत्तरदायित्व को भी बढ़ता है कि हम आगे भी और अच्छा काम करे ।  जैसा कि हमारा स्लोगनहै “बदलें विचार बदलें दुनियाँ” हमारा पूरा प्रयास है की हम पत्रिका के माध्यम से लोगों में  सकारात्मक चिंतन विकसित करे ,उनका व्यक्तित्व विकास हो…. भारी संख्या में  सहयोगियों का पत्रिका से जुड़ना हमारे मनोबल को बढाता है और हमें यह अहसास कराता है हम सही दिशा में जा रहे हैं। आगे हमारी यह योजना है कि देश के हर जिले में अटूटबंधन लेखक-पाठक क्लब बने…. जहाँ साहित्य पर सकारात्मक चिंतन व्यक्तित्व विकास पर विस्तार से चर्चा की जा सके| यह अपनी तरह काअनूठा प्रयोग है और ख़ुशी की बात है की बहुतसे लोगोंने इसयोजना का स्वागत किया है व जुड़ने की ईक्षा जताई  है| उम्मीद है हमारी इस योजना को भी सभी का स्नेह व् सहयोग मिलेगा । गिरीश  चन्द्र पाण्डेय  प्रतीक जी जैसे साहित्य सेवी व् कर्मठ युवा रचनाकार एवं समीक्षक   की पत्रिका पर की गयी समीक्षा के लिए हम ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं । उनके द्वारा दिए गए सुझावों को हम अमल में लाने का प्रयास करेंगे   कल अटूट बंधन पत्रिका प्राप्त हुई।पढ़ने बैठा तो पढता ही चला गया ।पत्रिका को पढ़कर ऐसा लगा जैसे जादू का पिटारा हो।सकारात्मकता से लवरेज।प्रेरक लेखो आलेखों का पुंज।यह अंक बहुत सुन्दर और संग्रहणीय बन पड़ा है।चिठ्ठी पत्री स्तम्भ यह बताता है की पत्रिका को लेकर पाठक चौकन्ना ही नहीं आशान्वित भी है।जहाँ वंदना जी के संपादकीय की सराहना सुरेश जी पटना द्वारा।और वहीँ एक पाठक की राय पत्रिका के पेज बढ़ाये जाएँ हरीश जी देहरादून द्वारा यह बताना की पत्रिका निष्पक्ष अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर है । प्रधान  संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी जी का “दिल की “की बात संपादकीय को समृद्ध करता हुआ दीखता है।इनके लेख में जीवन में सकारात्मकता की पड़ताल जो जरूरी भी है। वंदना दी की कलम हमेशा की तरह इस अंक में भी युवा जोश को आगाह करती दिखी कविता से शुरू किया गया संपादकीय “वो दुनिया कुछ और ही होती होगी……..”पूरा संपादकीय इसी कविता में समेट लिया है।पुरानी पीढ़ी को भी इंगित करना नहीं भूली हैं।यह संपादकीय पूर्णतः मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो प्रेरित भी करता है और आगाह भी।प्राची शुक्ला जी ने रंगो को अपने रंग से रंगने की भरपूर कोशिस की है।जीवन में रंगों का महत्व बताता यह लेख ।त्रिपाठी जी का बॉलीबुड में तांक झांक वाला सलमान की जेल और बेल का खेल एक करारा व्यंग्य ।डॉ परवीन केरल से शब्द और उसकी शक्ति की पड़ताल संग्रहणीय लेख।सतीश चंद्र शर्मा पंजाब का लेख घर का कबाड़ बढ़ाता अवसाद ।घर में पडी अवांछित चीजें हमें अवसाद की ओर धकेलती हैं यह लेख घर को अव्यवस्थित न होने दें और उसे सुव्यवस्थित होना चाहिए इसकी वकालत करता है।और यह सही भी है।वंदना जी की आवरण कथा खुद लिखें अपनी तकदीर पढी रोचकता से भरपूर है और युवाओं को प्रेरित करती है यह आवरण कथा है| ।प्रेमचंद जी मुम्बई के द्वारा व्यक्तित्व विकास पर आधारित लेख (जीतें मन की बाधा)सराहनीय है।पाठक को रिझाता है लेख ।सुरेन्द्र शुक्ल दिल्ली का रिश्ते नातों की पड़ताल पर लेख “रिश्तों में नोक झोंक”एक ऐसा लेख आपको लगेगा जैसे आपके लिए ही यह लिखा गया है।अशोक के.परूथी जी का व्यंग्य” पार्टी बनाम हम “राजनीती और लोकतंत्र के गड़बड़ झाले की पोल खोलता हुआ और रोचक है।काव्य जगत स्तम्भ तो इस अंक का लाजबाब है।कल्पना मिश्र बाजपेयी की (कविता माँ की चुप्पी)माँ चुप क्यों हो एक मार्मिक कविता है।शिखा श्याम जी की “स्त्री होना”यह लिखती हैं मुझे गर्व् है मैं स्त्री हूँ यह कविता स्त्री जागरूक हो रही है यह बताती है।मेरे परम मित्र और बड़े भाई चिंतामणि जोशी जी पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड की कविता “खड़ी हैं स्त्रियां”एक सार गर्भित कृति है जिस कविता को आजकल साहित्यिक गलियारों में खूब सराहा जा रहा है।यह कविता लोक जीवन की जीती जागती मूर्ति बन पडी है पहाड़ की स्त्री को जानना है तो इसे पढ़िए। सेनगुप्ता की कविता “लज्जा”अम्बरीष की सच को मैंने अब जाना है कंचन आरजू इलाहाबाद की “माँ “कविताएँ रोचक और सोचने को विवश करती दिखीं।नवीन त्रिपाठी जी की कहानी “प्रायश्चित्त”सराहनीय है।डॉ सन्ध्या जी की लघु कथा “सदाबहार “अच्छी लगी।बात जो दिल को छू गयी बहुत अच्छा प्रयास है।स्वास्थ्य स्तम्भ हमेशा की तरह लभकारी है सबको गर्मी से बचने के उपाय बताता हुआ ।डॉ आराधना जी का बाल मन में (बेकार न जाने दें बच्चों की छुट्टिया)अभिभावको के लिए प्रेरक लेख है।उपासना सियाग अबोहर का स्त्री विमर्श पर (महिलाओं में कर्कशता क्यों)सोचने को विवस करता आलेख ।नाम व भाग्य का सम्बन्ध लेख में त्रिपाठी जी की विवेचना सराहनीय है। अंत में यही कह सकता हूँ अटूट केवल एक पत्रिका नहीं अन्तर्मन् की पुकार है हर वर्ग को समेटने का प्रयास किया गया है।हर समस्या को छूने का प्रयास किया गया है।बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक सब इसको खुले मन से पढ़ सकते हैं।इसे आप अपनी मेज पर रखने में शर्म महसूस नहीं करेंगे।अपने बच्चों से इस पर आप खुलकर चर्चा कर सकते हैं।अपनी सकारात्मकता को बनाये रखने के लिए इसे जरूर पढ़ें। अटूट जिसका अंग मैं भी हूँ एक सलाह सम्पादक मंडल के लिए पत्रिका के कवर पेज को शास्त्रीय आवरण देंगे तो और रोचक बनेगा पेज संख्या बढ़नी चाहिए।कहानी और व्यंग को और ज्यादा स्थान दें एक कॉलम पुस्तक समीक्षा का जरूर रखें।अटूट परिवार के बिचार संपादक को छोड़कर पिछले पृष्ठों में हों।कुल मिलाकर अटूट एक सम्पूर्ण वैचारिक,पारिवारिक,सकारात्मकता का गुलदस्ता है इसे अपने पुस्तकालय में सजाएँ।अटूट परिवार बधाई का पात्र है। एक समीक्षा “प्रतीक”डॉ गिरीश पाण्डेय उत्तराखंड atoot bandhan ………… हमारा फेस बुक पेज