मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

    मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl   जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l   उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l   मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा   मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”   अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं… “जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”   अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…   “जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना … Read more

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

  जिन दरवाज़ों को खुला होना चाहिए था स्वागत के लिए, जिन खिड़कियों से आती रहनी चाहिए थी ताज़गी भरी बयार, उनके बंद होने पर जीवन में कितनी घुटन और बासीपन भर जाता है इसका अनुमान सिर्फ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अपने आसपास ऐसा देखा, सुना या महसूस किया हो। रिक्तता सदैव ही स्वयं को भरने का प्रयास करती है। भले ही इस प्रयास में व्यक्ति छीजता चला जाए या शनै-शनै समाप्त होता चला जाए… रिश्तों में आई दूरियाँ और रिक्तता व्यक्ति को भीतर ही भीतर न केवल तोड़ देती हैं,अकेला कर देती हैं बल्कि उसका स्वयं पर से, दुनिया पर से भरोसा भी डिगने लगता है। ऐसे सूने जीवन से जूझते पात्रों की भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी है ‘अब तो बेलि फैल गई’ उपन्यास में।   अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   कविता वर्मा किसी लेखकीय परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके रचना कौशल, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों से उनकी सम्बद्धता के साथ ही स्पष्टवादिता और निडरता से भी हम सभी भलि भांति परिचित हैं। बावजूद इसके उनके स्नेहिल मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों की बड़ी संख्या यही बताती है कि वे अपनी जगह कितनी सही हैं। इस उपन्यास में भी उनके पात्रों में उन्होंने तमाम मानवीय और परिस्थितियों से जुड़ी कमज़ोरियों के साथ ही इन गुणों को भी अवस्थित किया है जिनके बल पर वे पात्र सही-गलत के पाले में झूला झूलते हुए सही पाले में जाकर रुक जाते हैं और कहानी एक खूबसूरत मोड़ पर पहुँचती है। सुने अटूट बंधन यू ट्यूब चैनल पर ‘अब तो बेलि फैल गई’ पर परिचर्चा  मध्यम वर्गीय जीवन की विरूपताओं और विडंबनाओं को अनावृत करने वाले घटनाक्रमों की एक बड़ी श्रृंखला के बीच, पुनर्मूल्यांकन और नैतिकता को किसी ऐसे कुशल चितेरे की भांति अपनी कृति में सजा दिया है कि सब कुछ सहज ही प्रभावित करने वाली अनुपम कृति में सामने आया है। रिश्तों के ताने-बाने में उपेक्षा, छल, अपमान, कटुता और अलगाव के काँटे हैं तो वहीं प्रेम, विश्वास, आदर, अपनापन, सहयोग और समायोजन के बेल-बूटे और फूल-पत्ती की कसी हुई बुनावट भी है जो पूरे उपन्यास को सम्पूणता प्रदान कर रही है। लेखिका- कविता वर्मा इस उपन्यास को ट्रेन यात्रा के दौरान इसे पढ़ा, पढ़कर कई बार मैं स्तब्ध सी रह गई थी कि इतना महीन सच का धागा लेकर कैसे ही इतने खूबसूरत और मजबूत उपन्यास की चादर बुन ली है! जिसको‌ चाहे हम ओढ़ें, बिछाएं या शॉल की तरह लपेटें, हम खुद को एहसासों की गर्मी से नम ही रखेंगे! एहसासों की ये गर्मी कभी झुलसाती भी है तो कभी ठंडे पड़ते रिश्तो में गर्माहट लाने का काम भी करती है! उपन्यास की कथा वस्तु दो आधे-अधूरे रह गए परिवारों के संघर्ष, पछतावे और इन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करने के इर्दगिर्द घूमती है। एक हैं मिस्टर सहाय जिनके मन में अत्यधिक ग्लानि और पछतावा है अपनी भूलों को लेकर। जो कुछ अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए,वही सब एक अन्जान परिवार के लिए करते हुए स्वयं को एक अवसर और देने की कोशिश करते हैं। तो दूसरी तरफ नेहा है, संघर्ष जिसके जीवन में स्थाई रूप से ठहरा हुआ है और जो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। बिना किसी गल्ती के उसके जीवन में अकेलापन भर गया। रिश्तों ने कदम-कदम पर उसे छला है। परन्तु अनजाने में ही एक अनजान व्यक्ति पर किया गया भरोसा उसके मन में दुनिया से उठते हुए भरोसे के दंश पर मरहम लगाने का काम करता है। जो बीत गया उसे बदला तो नहीं जा सकता,पर आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। मुझे इस उपन्यास का मूलभाव यही लग रहा है। आज हमें ऐसे ही कथानकों की ही भारी आवश्यकता है जो केवल संघर्ष, दुख-दर्द, आपत्तियों और विपत्तियों का ही मार्मिक चित्रण कर सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य पर काम न करके, कुछ ऐसा प्रस्तुत करें कि बहने की बजाय खुद जाएँ आँखें कि अरे हाँ! रोते रहने की बजाय जीवन को ऐसे भी जिया जा सकता है… कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। इस दृष्टि से यह उपन्यास एकदम सफल है। मिस्टर सहाय के साथ उनके बेटे सनी की बात चलती है और नेहा के साथ उसके बेटे राहुल की कहानी चलती रहती है जिसके माध्यम से बालपन और युवावस्था की जटिलताओं, कमज़ोरियों और समझदारी का सहज, सुंदर वर्णन किया गया है। एक और महत्वपूर्ण पात्र है सौंदर्या, जिसकी चर्चा के बिना बात अधूरी ही रहेगी। मिस्टर सहाय और नेहा की कथा को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पात्र को गढ़ा गया है। हालांकि वास्तविक जीवन में ऐसे पात्रों का होना थोड़ा संशयात्मक है, फिर भी असंभव तो नहीं। और फिर जैसा कि मुझे लगता है कि ऐसे पात्रों को रचकर ही तो समाज में ऐसे पात्रों को पैदा किया जा सकता है, एक राह सुझाई जा सकती है। इसलिए सौंदर्या का होना भी उचित ही ठहराया जा सकता है। तमाम मानवीय संवेदनाओं के अजीबोगरीब ड्रामे और उठा-पटक के बिना ये संवेदनशील कहानी अपनी सहज गति से आगे बढ़ती हुई मंज़िल तक पहुँचती है और पाठकों के चेहरों पर मुस्कान सजा जाती है। ऐसी पुस्तकें पढ़कर कभी-कभी मेरे मन में आता है वही कहूँ जो हम पौराणिक व्रत-कथाओं को कहने- सुनने के बाद कहते हैं। हे ईश्वर सबके जीवन में ऐसे ही सुख बरसाना जैसे इस कथा के पात्रों के जीवन में बरसाया है। मज़ाक से इतर, कविता वर्मा की लेखनी की सदैव प्रशंसक रही हूँ, इस उपन्यास ने उसमें और बढ़ोतरी की है। ऐसे ही अच्छा लिखते रहें। ये लेखन ही समाज को दिशा दिखाएगा। शुभकामनाएँ शिवानी जयपुर   यह भी पढ़ें बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ आपको “अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा” समीक्षात्मक लेख कैसा लगा ? हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगाl अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेकबूक पेज को लाइक करें l

बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी

नेहा की लव स्टोरी

लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी इस ओर आकर्षित तो हुई है पर यह अभी विवाह के विकल्प के रूप में स्थापित नहीं हो सकी है l जिस रिश्ते में प्रवेश करते समय “साथ तो हैं पर साथ नहीं” की तर्ज पर किसी तरह का वादा ना हो उसके टूट जाने पर लगाए जाने आरोप लगाए भी तो किस पर और क्यों? बाज़रवाद से प्रभावित लिव इन का रैपर इतना शानदार है कि युवा इसके शिकंजे में आते जा रहे हैं, और पूरी पीढ़ी गुमराह हो रही हैl ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्मुक्त जीवन की ओर अंधी दौड़ का दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से ज्यादा आता हैlऐसे में ऐसी विवेक सम्पन्न स्त्री को गढ़ना भी साहित्य का काम है जो अपनी जिंदगी का ये महत्वपूर्ण फैसला देह की कामनाओं की ज्वार में ना ले l आइए पढ़ते  हैं लिव इन जैसे मुद्दे पर अपनी बात रखते सुपरिचित कथाकार सोनाली मिश्रा के उपन्यास “नेहा की लव स्टोरी” पर डॉ. मीनाक्षी स्वामी की समीक्षा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी सोनाली मिश्रा का पहला उपन्यास ‘महानायक शिवाजी’ भी पढ़ा था। शिवाजी की वीरता के साथ माता जीजाबाई की भूमिका को भी सोनाली ने जिस तरह रेखांकित किया है, वह बहुत प्रभावी है। श्रेष्ठ समाज के निर्माण में माता की भूमिका के साथ शिवाजी के शौर्य, देशभक्ति आदि का सुगठित संयोजन उपन्यास में है। सोनाली की दृष्टि स्पष्ट है। इसी कारण विचारों में भी स्पष्टता है। वे साहस के साथ उन्हें जो सही लगता है, उसके पक्ष में खड़ी रहती हैं। यही बात सोनाली के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास बहुत दिनों से मंगाकर रखा था। मगर इस दौरान व्यस्तता के कारण अब पढ़ पाई। वर्तमान में समाज में तेजी से नासूर बनी लव जिहाद की समस्या को परत दर परत इस उपन्यास में खोला गया है। नारीवाद एक आयातित विचार है जो हमारे देश की संस्कृति के अनुकूल नहीं है। मगर हीनता ग्रंथि के चलते विदेशी संस्कृति को महान समझने की भूल अब कई समस्याओं के रूप में सामने आ रही है। इसी के चलते सनातन संस्कृति के प्रति पनपी हीन भावना हिंदू लड़कियों को दूसरे धर्म की ओर आकर्षित करने लगी। नारीवाद के प्रति आकर्षण, छद्म प्रगतिशीलता और अपनी जड़ों से दूरी इन लड़कियों को ऐसे शिकंजे में कसने लगी जिसमें जीवन की समाप्ति के अलावा कुछ हाथ न लगा। और जो जीती रहीं, वे मृत्यु से भी बदतर दशाओं में। लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर जीवन से जुड़ी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के गरिमामय और मर्यादित तरीके तय किए थे। ये परम्पराएं एक दिन में नहीं बनती। इनमें पीढ़ियों के सामाजिक अनुभवों का समावेश होता है। ये समाज हित में होती हैं। विवाह जैसी संस्थाएं और अपने जाति समूह में विवाह। समय के साथ परम्पराओं में बदलाव हुआ तो अपने धर्म के भीतर जातीय बंधनों के परे विवाहों को भी समाज द्वारा मान्य किया गया। अन्तरधार्मिक विवाह और लिव इन को मान्यता क्यों न मिली, आज इनके परिणाम देखकर हमें अपनी परम्पराओं पर गर्व के साथ पालन करने में दृढसंकल्पित होने का समय है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास इसी बात को बहुत रोचक अंदाज़ में बयान करता है। किस तरह हिंदू लड़कियों को बरगलाया जाता है और फिर उनका जीवन बर्बाद किया जाता है। वे इस जाल में क्यों और कैसे फंसकर किस तरह तबाह हो जाती हैं। सब कुछ उपन्यास में उद्घाटित होता है। इससे बचने के लिए परिवार की भूमिका विशेष तौर पर माता की क्या भूमिका होना चाहिए। इस जाल से कैसे बचें। जिस आयु में लड़कियों की आंखों में अपने जीवन को लेकर सुनहरे सपने होते हैं। उस आयु में उन्हें पूरा करने के लक्ष्य से भटककर वे बहुत सूक्ष्म तंतुओं से बने अदृश्य मगर अत्यंत खतरनाक जाल में फंस जाती हैं, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि उससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। जो परिवारजन उन्हें निकाल सकते हैं, वे उस समय उनसे नाराज़गी, उनके उठाए गलत कदम पर उनसे क्रुद्ध होते हैं और सहारा नहीं देते हैं। इन्हें जाल में फंसाने वाले इनके परिवारजनों से दूर करने का जाल भी बड़ी धूर्तता से बुनते हैं। इस सबका मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्रण दक्ष लेखिका ने बहुत कौशल से किया है। किस तरह ब्रेन वॉश करते हुए भारतीय संस्कृति का विनाश करने का षड़यंत्र रचा गया है। हमारी परम्पराओं, मूल्यों पर आघात किया जा रहा है। आधुनिकता, प्रगतिशीलता, नारीवाद जैसे विमर्श किस तरह हमारी संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। नारीवाद के नाम पर हमारे समाज को स्त्री पुरुष के खांचे में बांटकर महिला और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के स्थान पर विरोधी बनाकर समाज को तोड़ने का विमर्श रचा गया। उपन्यास में सोनाली ने गहन शोध, चिंतन, मनन, विश्लेषण के बाद कथानक को बुना है, यह पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह उपन्यास सोए हुए हिंदू समाज को झिंझोड़कर जगाता है कि उठो, जागो और अपनी अस्मिता की रक्षा करो। यह उपन्यास हर किसी को जरूर ही पढ़ना चाहिए। उपन्यास पूरे समय बांधे रखता है। यही कारण है कि एक बैठक में पढ़े बिना छोड़ा नहीं जाता है। सोनाली इस समस्या की जड़ तक जाती हैं और एक एक रेशा पूरी स्पष्टता से सामने रखती हैं। ऐसे साहसिक उपन्यास के लिए सोनाली को साधुवाद। डॉ. मीनाक्षी स्वामी यह भी पढ़ें प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष आपको “बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी” पर यह समीक्षात्मक आलेख कैसा लगा? अपने विचारों से हमाएं अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

–‘मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरंतन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वॄक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडंडी गुम हो गई हो…’   निर्मल वर्मा जैसे कथाकार दुर्लभ होते हैं l जिनके पास शब्द सौन्दर्य और अर्थ सौन्दर्य दोनों होते है l सीधी-सादी मोहक भाषा में अद्भुत लालित्य और अर्थ गंभीरता इतनी की कहानी पढ़कर आप उससे अलग नहीं हो सकते… जैसे आप किसी नदी की गहराई में उतरे हो और किसी ने असंख्य सीपियाँ आपके सामने फैला दी हों l खोलो और मोती चुनो l यानि कहानी एक चिंतन की प्रक्रिया को जन्म देती है… ऐसी ही एक कहानी है परिंदे l जिसे बहुत पहले तब पढ़ा था जब एक जिम्मेदार पाठक होना नहीं आता था l अभी कल फिर से पढ़ी और जुबान पर नरोत्तम दास के शब्द ठहर गए, “‘तुम आए इतै न कितै दिन खोए।“ ये भूमिका इसलिए क्योंकि एक पाठक के तौर पर आप सोच नहीं सकते कि एक सीधी सादी दिखने वाली प्रेम कहानी आपको जीवन की इतनी गहराइयों तक ले जाएगी l कहानी के मुख्य पात्र हैं लतिका, डॉ.मुखर्जी और ह्यूबर्ट l अन्य सह पात्रों में प्रिन्सपल मिस वुड,कैप्टन गिरीश नेगी और छात्रा जूली l   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश   कहानी कुछ इस तरह से है कि नायिका कॉनवेन्ट के स्कूल के होस्टल के रंगीन वातावरण में अकेलेपन के दर्द के साथ जी रही है। इसका कारण उसका अतीत है l वो अतीत जो उसने गिरीश नेगी के साथ गुजारा है l  जिसे वह चाहकर भी विस्मृति नहीं कर पा रही है। कुमाऊँ रेजिमेंट सेंसर के कैप्टन गिरीश नेगी से लतिका ने प्रेम किया था और युद्ध के कारण उन्हें कश्मीर जाना पड़ा। उसके बाद गिरीश नेगी लौट नहीं सके। प्लेन-दुर्घटना में गिरीश की मृत्यु हो चुकी है। पर अब भी लतिका उसे भूल नहीं पाती। वह मेजर गिरीश के साथ गुज़ारे दिनों की स्मृतियों को अपना साथी बना, कॉनवेन्ट स्कूल में नौकरी करते हुए दिन व्यतीत करती है। उसके द्वारा कहा गया एक वाक्य देखें… “वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है।”   वहीं के संगीत शिक्षक मिस्टर ह्यूबर्ट लतिका को पसंद करते हैं l उन्होंने एक बार लतिका को प्रेम पत्र लिखा था। हालांकि वो नेगी वाला प्रकरण नहीं जानते हैं और पूरी बात पता चलने पर क्षमा भी मांगते हुए पत्र वापस ले लेते हैं l लतिका को उसके इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्नता भी हुई थी। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। लतिका को लगा था कि वह अभी इतनी उम्रवाली नहीं हो गई कि उसके लिए किसी को कुछ हो ही न सके। लेकिन फिर भी उसे नहीं लगता कि उसे वैसी ही अनुभूति अब किसी के लिए हो पाएगी।   डॉ. मुखर्जी  कहानी के एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र हैं l मूल रूप से वो बर्मा के निवासी हैं l बर्मा पर जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में आ बसे थे । कुछ लोगों का कहना है कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उनके मन‌ में भी अतीत है । लेकिन वे अपना अतीत कभी प्रकट नहीं करते है।बातों से पता चलता है कि उनके दिल में भी अतीत के प्रति मोह है ,प्रेम है तभी तो एक जगह वो कहते है-   “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।”   लेकिन डॉक्टर मुखर्जी को लतिका का ये एकांत नहीं भाता एक जगह वो कहते हैं … “लतिका… वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।”   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे की समीक्षा   अगर कहानी के पात्रो पर गौर करें तो लतिका, डॉ मुखर्जी सभी अपना दर्द लिए जीते है। ऊपर से हंसने की असफल कोशिश करने वाले और अन्दर ही अन्दर रोते हुए इन पात्रों की बात व्यवहार में आने वाले बारीक से बारीक परिवर्तन को लेखक द्वारा प्रस्तुत किया गया है l   प्रेम कहानी सी लगने वाली कहानी एक विषाद राग के साथ आगे बढ़ती है l काहनी अपने नाम को सार्थक करती है या यूँ कहें कि अपने गंभीर अर्थ के साथ खुलती है कुछ पंक्तियों से …   पक्षियों का एक बेड़ा धूमिल आकाश में त्रिकोण बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लतिका और डॉक्टर सिर उठाकर इन पक्षियों को देखते रहे। लतिका को याद आया, हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिंदे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते है बर्फ़ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएँगे… क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर हयूबर्ट—लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे’—   यहाँ निर्मल वर्मा परिंदे की तुलना मानव से करते हैं l जो किसी सर्द जगह … दुख, निराश से निकल तो आते हैं पर आगे बढ़ने से पहले कुछ देर किसी छोटी पहाड़ी पर ठहरते हैं पर वाहन भी जब बर्फ पड़ने लगती है तो उस जगह को छोड़ देते हैं l यही स्वाभाविक वृत्ति है जीवन की l पर यहाँ सब अतीत में अटके हैं आगे बढ़ना ही नहीं चाहते l लतिका का मनोविज्ञान समझने के लिए कुछ पंक्तियाँ  देखिए…   लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, लेकिन जब सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई उसकी किसी चीज़ को उसके हाथों से छीने लिए जा रहा है, ऐसा कुछ … Read more

एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू

सीता रामम मूवी रिव्यू

  सी अश्विनी दत्त द्वारा निर्मित और हनु राघवपुडी द्वारा निर्देशित  ‘सीता रामम’ तेलुगू में बनी वो  फिल्म है जिसे हिंदी में भी रिलीज किया गया है। सीता रामम’ एक ऐसी प्रेम कहानी है,  जिसमें प्रेम अपने विराट रूप में सामने आता है l जो रूहानी है और देह से परे है l इसके अतरिक्त प्रेम के दो प्रकार और हैं जो  पूरी कहानी में साथ- साथ चलते हैं, एक मुखर और एक मौन l मुखर प्रेम है देश के प्रति प्रेम और मौन प्रेम है धार्मिक सौहार्दता के प्रति प्रेम l साधारण शब्दों में कहे तो धर्म की कट्टरता के बीच लिखी गई एक प्रेम कहानी में धर्म का असली मर्म है, ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई’। अटूट बंधन की परंपरा के अनुसार हम मुख्य रूप से इसकी कहानी पर ही बात करेंगे l एक खूबसूरत प्रेम कहानी है सीता रामम- मूवी रिव्यू   फिल्म ‘सीता रामम’ दो कालखंडों में एक साथ चलती है।  कहानी का एक सिरा 1964 में शुरु से जुड़ता है l जिसमें बहादुर सैनिको को अपने परिआर के नाम संदेश भेजने के रेडियो कार्यक्रम के दौरान  लेफ्टिनेंट राम की बारी आने पर वो कहता है कि वो अनाथ है और ये सेना, दोस्त और पूरा देश ही उसका परिवार है l ऐसे में रेडियो की तरफ से कार्यक्रम संचालक देश के लोगों से अपील करती है कि वो राम को चिट्ठियाँ लिखे l उसकी वीरता की कहानी सुनकर देश भर के लोग उसे चिट्ठियां लिखने लगते हैं। राम भी उन चिट्ठियों के जवाब लिखता है l इसी में एक चिट्ठी सीतालक्ष्मी की आती है जो राम को अपना पति मानती है। बातें भी सारी वह ऐसी ही लिखती है। पर राम उसको जवाब नहीं लिख पाता क्योंकि वो अपना पता नहीं लिखती l पर एक चिट्ठी से एक खास तारीख में उसका दिल्ली में किसी ट्रेन में होने का जिक्र पढ़ कर  राम अपनी सीता को खोजने निकलता है।   कहानी का दूसरा सिरा 1984 में लंदन सेशुरू होता है । एक पाकिस्तानी लड़की आफ़रीन जो भारत से बेंतहाँ नफरत करती है l लंदन में एक भारतीय सरकारी गाड़ी को नुकसान पहुंचाती है l पकड़े जाने पर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि अब उसके सामने दो रास्ते हैं या तो दस लाख रुपये दे या माफी मांगे l अपनी नफरत के असर में वो दस लाख रुपये देना चुनती है l और दो साल से अपने परिवार के किसी खट फोन कॉल का जवाब ना देने वाली लड़की अपने बाबा की विरासत हासिल करने पाकिस्तान आती हैं l उसे लंदन भेजा ही इसलिए जाता है क्योंकि उसके बाबा उसके अंदर बढ़ती नफरत और कट्टरता से चिंतित थे l और उन्हें लगता है कि यहाँ के संगियों का साथ छूटने और वहाँ के खुले माहौल में उसमें बदलाव आएगा l खैर पाकिस्तान आने पर उसे पता चलता है की उसके बाबा का इंतकाल हो गया है l और उसे विरासत तभी मिलेगी जब वो पाकिस्तान की जेल में बंद राम की एक चिट्ठी को भारत में  सीतालक्ष्मी तक पहुँचा देगी l मजबूरी में वो ये काम स्वीकार करती है ..  और शुरू होता है फिल्म में रहस्य का एक सफर l हर नुक्कड़ पर एक नया मोड़ है। एक नया किरदार है। सीतालक्ष्मी की असल पहचान क्या है? इसका खुलासा होने के साथ ही फिल्म का पूरा ग्राफ बदल जाता है। ये कहानी प्रेम की नई ऊंचाइयों को छूती है l जहाँ इंसान के गुण प्रेम का कारण तो अंतहीन इंतजार भी प्रेम का ही हिस्सा है l   सीता रामम- मूवी रिव्यू इस प्रेम कहानी के अलावा ये  कहानी समाज, दस्तूरों और परिवार की तंग गलियों से होकर गुजरती है पर विजय प्रेम की ही होती है l भारत पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध के सात साल पहले के समय के कश्मीर का भी चित्रण है l फिल्म उस सूत्र को तलाशने की कोशिश करती है जिसके चलते ये माना जा रहा था  कि कश्मीरियों ने भारतीय सेना को अपना दुश्मन मान लिया है । हर कोई एक दूसरे पर शक कर रहा है l अवचेतन में ठुसाई गई यह भावना तब टूटती है जब कारगिल में ठंड से ठिठुरते फौजियों के लिए रसद ले कर आते हैं l शुरुआती तहकीकात के बाद सेना भी दिल से स्वागत करती है l रिश्तों में विश्वास का फूल खिलता है पर ये सीमा के उस पार वालों को कहाँ सहन होता है l धार्मिक उन्माद के बीच नायक राम स्थापित करता है कि परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है l चिट्ठी के माध्यम से बहन बनी देह व्यापार में लिप्त स्त्री की व्यथा जानकर राम अपना सारा संचित धन उनके जीवन को नई दिशा देने में लगा देता है l ये समदृष्टि ही एक व्यक्ति को राम बनाती है l कहानी का अंत बेहद प्रभावशाली है l ये पाठक को उदास कर जाता है साथ ही नफरत की चौहद्दी पार ना करने वाली आफ़रीन के मन की सभी दीवारें गिरा कर भारत के लिए प्रेम का बीज बो देता है l यही प्रेम का बीज हर दर्शक के मन मैं भी उतरता है … क्योंकि प्रेम नफरती से बहुत बड़ा है l   युद्ध की कगार पर खड़े दो देशों पर बनी देशभक्ति की फिल्म राजी की तरह ही इस फिल्म में भी ये तथ्य उभर कर आता है कि अपनी देश की सरहद पर प्राण नौछावर कर देने वाला सैनिक… सैनिक ही होता है l देशभक्ति के जज्बे से भरा एक इंसान l जो हमारे लिए खलनायक है वो उस देश के लिए नायक है l   हालंकी फिल्म ने कश्मीर और धर्म के मुद्दे को छुआ है तो दोनों ही तरफ से कुछ- कुछ दृश्यों पर विरोध हो सकता है l हिंदी में डबिंग कई जगह कमी लगती है तो सम्पादन भी सुस्त है…  जिस कारण लिंक टूटता है l गीत-संगीत प्रभवित नहीं करता है l इसे दरकिनार करते हुए अभिनय की दृष्टि से देखें तो फिल्म का हीरो दुलकर सलमान है। किरदार वह राम का कर रहा है। फिल्म की हीरोइन मृणाल ठाकुर है और जो किरदार वह फिल्म में कर रही है, वह पारंपरिक हीरोइन का नहीं है। … Read more

कहानी समीक्षा- काठ के पुतले

काठ के पुतले

ऐसा ही होता आया है एक ऐसा वाक्य है जिसके आवरण तले ना जाने कितनी गलत बाते मानी और मनवाई जाती हैं l कमजोर का शोषण दोहन होता रहता है, पर क्योंकि ऐसा होता आया है ये मानकर इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठती l और समाज किसी काठ के पुतले की तरह बस अनुसरण करता चलता है l जमाना बदला और शोषण के हथियार और तरीके भी बदले l गाँव शहर बनते जा रहे हैं और शहर स्मार्ट सिटी l फिर भी नई जीवन शैली में नए बने  नियम कुछ ही दिनों में परंपरा बन गए और उन पर यही ऑर्डर है का मुलम्मा चढ़ गया l अपनी बात कहना अवज्ञा मान लिया गया l लेकिन क्या ऐसा ही होता रहेगा या होते रहने देना चाहिए ? क्या आवाज़ नहीं उठनी चाहिए? ऐसी ही एक आवाज़ उठाती है ललिता अपनी चमक धमक से आँखों को चुँधियाती दुनिया में काठ के पुतले बने खड़े उन लोगों के लिए जिन्हें हम सेल्स मैन /वुमन/पर्सन के नाम से जानते हैं l मैं बात कर रही हूँ परी कथा में प्रकाशित प्रज्ञा जी की कहानी काठ के पुतले की l समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी की कहानियों की विशेषता है कि वो साहित्य को स्त्री- पुरुष, शहरी व ग्रामीण, अमीर-गरीब के खांचों में नहीं बाँटती l उनकी कलम इन सब से परे जाकर शोषण को दर्ज करती है l जहँ भी जिस भी जगह वो नजर आ रहा हो वो उस पर विरोध दर्ज करने की बात का सशक्त समर्थन करती नजर आती है l और समस्या है तो समाधान भी है के तहत वो आवाज़ उठाने पर जोर देती हैं l एक आवाज़ में दूसरी आवाज़ जुड़ती है और दूसरी में तीसरी… हमें काठ के पुतले नहीं जिंदा इंसान चाहिए। जो अपना हक लेना जानते हों l काठ के पुतले कहानी भी शुरू में एक आम युगल की आम कहानी लगती है l थोड़े  आगे बढ़ने पर लगता यही कहानी प्रेम में जाति के मसले को लेकर चलेगी पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वो अपना आयाम बढ़ाती जाती है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती एक बड़े फलक की कहानी बन जाती है l चमचमाते मॉल जिनमें रोज हजारों लोग आते-जाते हैं l जिनकी मदद के लिए अच्छे कपड़े पहने, चेहरे पर मुस्कान चिपकाए सामान खरीदने में हमारी मदद करते सेल्स पर्सन की भी कुछ समस्याएँ है? शहर में है, रोजगार भी है, अच्छे भले कपड़े पहनते है, मुस्कुरा- मुस्कुरा कर बात करते हैं, उनको क्या दुख?  जरा कहानी में लिफ्टमैंन का दर्द देखिए…. ‘‘चैन? कहां बेटा! घर पहुंचते-पहुंचते बेहाल शरीर बिस्तर ढूंढने लगता है। न बीबी-बच्चों की बात सुहाती है न खाना। बीबी रोटी-सब्जी परोस देती है मैं खाकर लेट जाता हूं। कितना समय हो गया खाने में कोई स्वाद नहीं आता…थकान से बोझिल शरीर को मरी नींद भी नहीं आती। सुबह से खड़े -खड़े पैर सूज जाते हैं और सबसे ज्यादा दर्द करते हैं कंधे। कंधों से रीढ़ की हड्डी में उतरता हुआ दर्द जमकर पत्थर हो जाता है।“   क्या हम कभी सोच पाते हैं कि 12 घंटे की ड्यूटी बजाने वाले ये सेल्स पर्सन सारा दिन खड़े रहने को विवश है l टांगें खड़े- खड़े जवाब दे जाएँ , महिलायें गर्भवती हों या उन्हें यूरिनरी प्रॉब्लम हो… उन्हें बैठने की इजाजत नहीं l उस समय भी नहीं जब गरहक ना खड़े हों l लगातार खड़े रहने की थकान पैरों में वेरुकोज वेंस के रूप में नजर आती है तो यूरिन तो टालने के लिए पानी ना पीना कई स्वस्थयगत बीमारियों के रूप में l नौकरी में खड़े रहना एक सजा की तरह मिलता है l जिस पर किसी का ध्यान नहीं है l ललिता आवाज़ उठाती है l शुरू में वो अकेली पड़ती है पर धीरे-धीरे लोग जुडते है l कहानी समाधान तक तो नहीं पहुँचती पर एक सकारात्मक अंत की ओर बढ़ती दिखती है l कहानी इस बात को स्थापित करती है कि शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना जरूरी है l अधिकार कभी थाली में सजा कर नहीं मिलते l  उनके लिए जरूरी है संघर्ष, कोई पहल करने वाला, संगठित होना ….   तभी बदलती है काठ के पुतलों की जिंदगी l एक अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें नैहर छूटल जाए – एक परिवर्तन की शुरुआत प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ अगर आप को लेख “कहानी समीक्षा- काठ के पुतले” अच्छा लगा हो तो कमेन्ट  कर हमें जरूर बताएँ l  अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद करने वाले कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

सिंह बंधु

  “जिस तरह जड़ों से कटा वृक्ष बहुत ऊंचा नहीं उठ सकता|उसी तरह समृद्धिशाली भविष्य की दास्तानें अतीत को बिसरा कर नहीं लिखी जा सकती |” “सिन्हा बंधु” उपन्यास ऐसे ही स्वतंरता संग्राम सेनानी “राजकुमार सिन्हा” व उनके छोटे भाई “विजय कुमार सिन्हा” की जीवन गाथा है .. जिनकी माँ ने अपने एक नहीं दो-दो बेटों को भारत माँ की सेवा में सौंप दिया |  बड़े भाई को काकोरी कांड और छोटे को साडर्स कांड में सजा हुई l दोनों ने अपनी युवावस्था के महत्वपूर्ण वर्ष देश को स्वतंत्र कराने में लगा दिये l उपन्यास को 8 प्रमुख भागों में बांटा गया है – कानपुर, कारांचीखाना, मार्कन्डेय भवन, काकोरी कांड, राजकुमार सिन्हा जी का विवाह, अंडमान जेल, बटुकेश्वर दत्त, स्मृतियाँ l   “सिन्हा बंधु”-स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले सिन्हा बंधुओं  के त्याग वीरता और देशभक्ति को सहेजता उपन्यास     उपन्यास की शुरुआत उत्तर प्रदेश के औधयोगिक नगर कानपुर गौरवशाली इतिहास से हुई है | लेखिका लिखती हैं कि, “हाँफते- दाफ़ते शहरों के बीच पूरे आराम और इत्मीनान के साथ चलने वाले कानपुर नगर का अपना ही ठेठ कनपुरिया मिज़ाज है l और ताप्ती गर्मी में गुस्से के बढ़ते पारे को शांत करने वाली माँ गंगा है ना.. जो कनपुरियों का मिज़ाज ही नहीं शांत करती, ब्रह्मा जी को भी संसार की रचना करने के बाद शांति से बिठूर में अपनी गोद में बिठाती हैं l वही बिठूर जहाँ वाल्मीकि आश्रम में रामायण जैसा कालातीत ग्रंथ लिखा गया l माँ सीता ने लव- कुश को जन्म दिया और शस्त्रों से लेकर शास्त्रों तक की शिक्षा दी l अपने पुत्र से यौवन की मांगने वाले राजा ययाति का किला भी गंगा के किनारे जाजमऊ में था l उन्हीं के बड़े पुत्र यदु के नाम से यदुवंश बना l     आज भी उत्तर प्रदेश का प्रमुख  औधयोगिक नगर कानपुर स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में अपने युवाओं की आहुति देने वाले उत्तर प्रदेश का केंद्र था।  कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ( जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) के प्रमुख स्थलों में से एक रहा  है। नाना राव और तात्या टोपे के योगदान को भला कौन भूल सकता है | यहां का इतिहास कई तरह की कहानियों को खुद में समेटे हुए है। नाना राव पार्क भी इस इतिहास का गवाह है। वह अपने वीर सपूतों की कुर्बानी पर खून के आंसू रोया था। यहीं पर बरगद के पेड़ से चार जून 1857 को 133 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। तब से  यह पेड़ न भुलाने वाली यादों को संजोए रहा और  कुछ साल पहले ही  जमींदोज हो गया।   भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे वीर सपूतों  की  कानपुर कर्म भूमि रहा है | शहर ने भी इसे अपना अहोभाग्य माना और बड़े सम्मान से कानपुर में इनकी मूर्तियाँ स्थापित की  गई | इनके अतिरिक्त  कानपुर में बड़ा चौराहे पर कोतवाली रोड के किनारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. मुरारी लाल की प्रतिमा स्थापित है, जिन्होंने आजादी के लड़ाई में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कानपुर के डीएवी कॉलेज के अंदर क्रांतिकारी “शालिग्राम शुक्ल” की  मूर्ती है। इस मूर्ति को वर्ष 1963 में स्थापित किया गया | “शालिग्राम शुक्ल” हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के कानपुर चीफ थे, और  चंद्रशेखर आजाद के साथी थे। एक दिसंबर 1930 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में वो चंद्रशेखर आजाद की रक्षा करने के दौरान, मात्र 19 वर्ष की आयु में,  शहीद हो गये।   सिन्हा बंधुओं के बारे में बताते -बताते किताब कानपुर के बटुकेश्वर दत्त के बारे में भी बताती है l तो चंद्रशेखर आजाद, गणेश शंकर विध्यार्थी और भगत सिंह के बारे में  भी रोचक किस्से जरूरी  बातों की जानकारी देती है l     अपने देश और गौरव को सहेजने की चाह रखने वाले साहित्यकारों लेखकों को लगा कि इन्हें वर्तमान पीढ़ी से जोड़ना आवश्यक है क्योंकि वर्तमान ही अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु है | जाहिर है एक बिसराये हुए इतिहास में, उजड़े हुए शब्द कोश में और विकास की बदली हुई परिभाषाओं में ये काम आसान नहीं था | पर इसे करने का जिम्मा उठाया कानपुर की ही एक बेटी वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी ने | उम्र के इस पड़ाव पर जब बहुओं को घर की चाभी सौंप कर महिलायेँ  ग्रहस्थी के ताम-झाम  से निकल दो पल सुकून  की सांस लेना चाहती हैं तब आशा दी मॉल और मेट्रो  की चमक से दमकते कानपुर की जमीन में दफन गौरवशाली इतिहास को खोजने शीत, घाम और वर्षा की परवाह किए बिना निरंतर इस श्रम साध्य उद्देश्य में जुटी हुई थीं l पर आखिरकार उनका परिश्रम इस किताब के माध्यम से मूर्त रूप में सामने आया | यह किताब एक नमन है, एक श्रद्धा का पुष्प है सिन्हा ब्रदर्स नाम से प्रसिद्ध कानपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को |   हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी

प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी

भगोड़ी

लड़कियों के लिए तो माता-पिता की मर्जी से ही शादी करना अच्छा है l प्रेम करना तो गुनाह है और अगर कर लिया तो भी विवाह तो अनुमति लिए बिना नहीं हो सकता और अगर कर लें तो वो उससे भी बड़ा गुनाह है l जिसकी सजा माता-पिता परिवार मुहल्ला- खानदान पीढ़ियाँ झेलती हैं l पर प्रेम को मार कर कहीं और विवाह कर लेने की सजा केवल दो लोग… इसलिए समाज को दो लोगों को सजा देना कहीं ज्यादा उचित लगता है और विवाह के मंत्रों के बीच किसी प्रेम पुष्प की आहुति अक्सर हो ही जाती है l “प्रेम और इज्जत” सदियों से तराजू के दो पलड़ों में बैठा दिए गए हैं l इस नाम से किरण सिंह जी का कहानी संग्रह भी है l प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी ऐसे विचार मेरे मन में आये किस्सा पत्रिका में रंजना जायसवाल की कहानी “भगोड़ी” पढ़कर l कहानी में पिता से कहीं अधिक स्त्री जीवन की विडंबनाएँ खुलती हैं l एक प्रेम में भागी हुई लड़की जब कुछ वर्ष बाद अपने ही शहर वापस आती है तो उसे पता चलता है कि उसके पिता कि मृत्यु हो चुकी है l भाई द्युज की कहानी में सात भाइयों की बहन को भाई की शादी में भी नहीं बुलाया जाता पर घर से भागी हुई लड़की को पिता की मृत्यु की सूचना भी नहीं दी जाती l मायके जाने के लिए पूछने की दीवारे अब भले ही टूट रहीं हो पर पिछली पीढ़ियों ने ये दर्द जरूर झेला है l एक हुक सी उठती है और मन के कोने में मुकेश द्वारा गाया गया गीत बज उठता है …. “नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना ना फिर याद करना, ना फिर याद आना” और तंद्रा टूटती है दरवाजे पर खड़ी छोटी बहन के इस आर्त-कटाक्ष से “जो लड़कियां भाग जाती है ना उस घर की और लड़कियों की शादी नहीं हो पाती l केवल उस घर की लड़कियों की ही नहीं मुहल्ले की लड़कियों की भी शादी नहीं हो पाती l” l और उसके बाद शुरू होती है, आरोपों की झड़ी कि घर छूटे लोगों कि क्या दशा होती है l जिस पिता ने माँ-पिता दोनों की भूमिका निभाई l जिनसे मुहल्ला भर अपने बच्चों के लिए राय लेने आता था उन्हें सगी बुआ की बेटी की शादी में बुलाया भी नहीं गया lछोटा भाई नन्ही उम्र में ही वयस्क बन जाता है l जल्दी मुहल्ले की लड़कियों की शादी कर दी जाती है l लेखिका ने जो लिखा वो यथार्थ है l हमारे छोटे शहरों और गांवों का … पर क्या यथार्थ दिखाना ही कहानी का उद्देश्य है को लेखिका अंतिम पैराग्राफ में पलट देती है और एक प्रश्न पाठक के मन में बो देती हैं l और मुझे फिर से दो पलड़े दिखाई देने लगते हैं … एक में स्त्री बैठी है और एक में पुरुष l इन तमाम सामाजिक विडंबनाओं को जब प्रेम के नाम पर तोलने का प्रयास होता है पुरुष और उसके परिवार का पलड़ा फूल सा हल्का होकर उठता चला जाता है और स्त्री का धड़ाम से जमीन छूता है l और प्रश्न उठता है कि प्रेम और इज्जत के इस पलड़े में सिर्फ स्त्री ही क्यों बैठी है? डॉ. संगीता पांडे की एक कविता मुझे बार-बार याद आती है “विकल्प” l इसमें लड़की को माता-पिता बहुत प्यार करते हैं और उसे अपनी मर्जी का विकल्प चुनने देते हैं… तमाम विकल्पों में वो चुनती है नीली आँखों वाला गुड्डा, गुलाबी फ्रॉक, लाल रिबन पर शादी के समय उसे चुनने का विकल्प नहीं होता… बदले में मिलती है मौत…. जहाँ से वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं है l क्या आज बेटियाँ अपने पिता से ये विकल्प देने कि इजाजत नहीं मांग रहीं ? ये कहानी यही जवाब मांग रही है l कहानी के लिए रंजना जायसवाल जी को बधाई , शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी आपको लेख “प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी” कैसा लगा ? कृपया अपनी राय दें l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो अटूट बंधन को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष

जड़खोद

संवेद में प्रकाशित प्रज्ञा जी की एक और शानदार कहानी है “जड़ खोद”l इस कहानी को प्रज्ञा जी की कथा यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है | जैसा कि राकेश बिहारी जी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि ये उनकी कथा यात्रा के नए पड़ाव या प्रस्थान बिन्दु की तरह देखा जाना चाहिए l एक स्त्री के संघर्ष की कहानी कहते हुए ये कहानी समाज में होने वाले राजनैतिक और सामाजिक बदलाव को एक सूत्र में इस तरह से गूथती हुई आगे बढ़ती है कि पाठक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता जाता है | राजनैतिक घटनाओं के बावजूद कथारस कहीं बाधित नहीं होता | कहानी की नायिका गंगा, भागीरथी गंगा की ही तरह प्रवाहमान है, जिसे बहना है और बहने के लिए उसे अपने रास्ते में आने वाले पर्वतों को काटना भी आता है और ना काट सकने की स्थिति में किनारे से रास्ता बनाना भी | भागीरथी प्रेत योनि में भटकते राजा सगर के पुत्रों को तारने देवलोक से आई तो ये गंगा अपने पिता का कर्ज उतारने दुनिया में आई है l गंगा जो पहाड़ों से संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है पर जमीन को समतल और हरा भरा करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है | कहानी की नायिका गंगा भी बचपन से संघर्षों के साथ पलती बढ़ती पितृसत्ता और धर्मसत्ता से टकराती है l और अपनी तरफ से जीवन को समरस बनाने का प्रयास करती है | कहानी चंद्रनगर कि गलियों से निकलकर, देहरादून, भोपाल और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करती है, तो तकरीबन 1980-85 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं का जिक्र करते हुए शहरों और गलियों के नाम बदलने वाले आज के युग का भी | प्रज्ञा जी कहानी में समय काल नहीं बताती पर घटनाओं के मध्यम से पाठक समय को पहचान जाता है | कहानी में पाठक गंगा की उंगली पकड़कर चलता है और उसके सुख दुख में डूबता उतराता हैl उसके गुम हो जाने कि दिशा में पाठक कि बेचैनी भी गंगा कि सहेली सोनू की ही तरह बढ़ती जाती है | बच्चों को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे पर पीछे लगे पटरे, रिक्शे बच्चों का शोर और, सोनू का दौड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर इत्मीनान से बिना नहाई -धोई गंगा को जल्दी करने के लिए कहना, जहाँ बाल सुलभ हरकतों के साथ पाठक को बचपन में ले जाता है l वहीं अन्यायी अत्याचारी पिता का विदोह करती बच्ची का बाल मनोविज्ञान प्रज्ञा जी ने बखूबी पकड़ा है | फिर चाहे वो पुजारी की बेटी होते हुए भी बिना नहाए नाश्ता करना हो या सहर्बी पिता के विरोध में कि गई चोरी या रिक्शे के आगे लेट जाने की धमकी, या जमा हथियारों को नदी में बहा आना | माली के लड़के से प्रेम | धर्म, जाति समाज इतने सूत्रों को एक साथ एक कहानी में पिरोने के बावजूद ना कथारस कहीं भंग होता है और नया ही प्रवाह, ये लेखिका की कलम की विशेषता है | अगर राजनैतिक सूत्र पकड़े तो गंगा में कहीं इंदिरा गांधी नजर आती हैं तो कहीं गांधी जी | इंदिरा शब्द का प्रयोग तो लेखिका ने स्वयं ही किया है | द्रण निश्चयी, अटल, गंगा अपनी उम्र से पहले ही बड़ी हो गई है वो एक अन्य बच्ची टिन्नी के खिलाफ अपने पिता के कुत्सित इरादों को भांप पर उसे बचाती भी है और माँ को बचाने के लिए पिता पर वार करती है | मंदिर और मंदिर के आस -पास का वातवरण का जिक्र करते हुए प्रज्ञा जी कि गंगा धर्म की सही व्याख्या करती है जो अन्याय के खिलाफ अपनों से भी भिड़ जाने में है l गंगा के उत्तरोत्तर बढ़ते चरित्र को देख कर मुझे बरबस राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आती हैं .. अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। कहानी की कुछ पंक्तियाँ देर तक सोचने पर विवश करती हैं … ‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’ ‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’ ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’ कहानी में सकारात्मकता बनाए रखना प्रज्ञा जी कि विशेषता है | ऐसा नहीं है कि कहानी में सारे खल चरित्र और उनसे जूझती गंगा ही हो, सार्थक पुरुष पात्रों के साथ कहानी को एकतरफा हो जाने से रोकती हैं | जहाँ प्रभात है, जिसके प्रेम में धैर्य है, संरकांत जी हैं, जो किसी अबला को सहारा देने के लिए समाज यहाँ तक की अपने बेटों से भी भिड़ जाते हैं …. पर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते | सोनू और उसके जीवन में आने वाले सभी लोग सभ्य -सुसंस्कृत हैं l ये वो लोग हैं जिनकी वजह से हमारे घर, समाज, धर्म और राजनीति में बुराइयाँ थोड़ा थमती हैं | कहानी का अंत एक नई सुबह की आशा है …जो रात के संघर्ष के बाद आती है l अपने हिस्से की सुबह के लिए अपने हिस्से का यह संघर्ष हर स्त्री को करना होगा l चाहें इसके लिए जड़खोद ही क्यों ना बनना पड़े | फिर से एक बेहतरीन कहानी के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी आपको “प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष” कहानी कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l

कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक 

कितने गांधी

व्यक्ति अपने विचारों के सिवा कुछ नहीं है. वह जो सोचता है, वह बन जाता है. महात्मा गांधी इस वर्ष जबकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया है, तमाम लेखक और साहित्यकार ढूंढ-ढूंढ कर हमें स्वतंत्रता दिलाने वाले उन शहीदों पर लिख रहें हैं जिन के नाम या गुमनाम रह गए या हमने कृतघ्न वंशज की तरह उन्हें भुला दिया | ऐसे समय में जब वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार चिकित्सक अजय शर्मा जी की का नाटक “कितने गांधी“ मेरी नज़रों के सामने से गुजरा तो नाम पढ़ते ही मन में पहला प्रश्न यही आया कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी, हमारे प्रिय बापू के योगदान को कौन नहीं जानता | गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की जगह लेखक ने इन्हें क्यों चुना ? परंतु जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटती गई तो पाया कि लेखक ने गाँधी जी के प्रति नई दृष्टि और दृष्टिकोण को पुस्तक में समाहित किया है | विचार कभी ऐकांगी नहीं होते | वो हर दिशा में उठते हैं | प्रश्नों की तलवार और उत्तरों की ढाल के साथ सिद्ध हो जाने तक अपनी यात्रा करते है | व्यक्ति की हत्या हो सकती है, विचारों की नहीं | परंतु क्या ये प्रश्न नहीं उठता है कि किसी एक विचार का महिमामंडन किसी दूसरे विचार की अपरोक्ष रूप से हत्या होती है ? शायद इसीलिए आज कल इतिहास को नए दृष्टिकोण से लिखा जा रहा है | सवाल ये भी उठता है कि ये नया दृष्टिकोण क्या होता है ? बहुत सारी महिला कथाकार स्त्री दृष्टिकोण से इतिहास को खंगाल रही है, तो चुन-चुन कर उनके साथ पुरुष लेखकों द्वारा किये गए अन्याय की गाथाएँ सामने आ रही हैं | कितनी सशक्त स्त्रियाँ केवल भावों के मोती बहाती अबलाएँ नजर आती हैं | तो क्या ये पुरुष विरोध है? नहीं ! ये न्याय है उन चरित्रों के साथ जिन् के साथ पितृसत्तात्मक समाज और उससे पोषित लेखकों ने न्याय नहीं किया | कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक  इन पर सवाल उठाने से पहले सवाल ये भी है कि निष्पक्ष तो उन्होंने भी नहीं लिखा, जिन्होंने पहले लिखा था | अभिव्यक्ति की आजादी कलम को वर्जनाओं में बांधने के विरुद्ध यही | समझना ये भी होगा कि इतिहास लिखने में क्या कोई ऐसा नियम है कि हमें इतना ही पीछे जाना चाहिए ….क्या पचास साल पीछे नहीं जाया जा सकता, साथ साल, सत्तर साल ….क्या समय घड़ी प्रतिबंधित है? शायद नहीं | क्योंकि जब हम कहते हैं कि सूरज डूब रहा है तो कहीं ना कहीं ये भी सत्य होता है कि वो कहीं उग रहा होता है | और सूरज डूबता ही नहीं है ये जानने के लिए ये दोनों पक्ष जानना जरूरी होता है | इस किताब को पढ़ने के बाद कुछ ऐसा ही महसूस हुआ | “ये विश्व एक रंगमंच है, और सभी स्त्री-पुरुष सिर्फ पात्र हैं, उनका प्रवेश और प्रस्थान होता है, और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में कई किरदार निभाता है”…विलियम शेक्सपियर इस किताब को पढ़ते हुए शेक्सपीयर का ये कथन बार-बार मेरे दिमाग में आता रहा | हर व्यक्ति कितने सारे किरदारों को निभाता है| एक अच्छा बेटा बुरा पति हो सकता है या ये भी बुरा भाई अच्छा दोस्त हो सकता है | पर किसी किरदार का महिमा मंडन करते हुए या उसके प्रति नकारात्मकता रखते हुए हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है | हम उस किरदार के अन्य पहलूओं पर बात नहीं करते | इस नाटक में अजय शर्मा जी गांधी जी के व्यक्तित्व को तीन भागों में बाँट कर देखते हैं | उनका सामाजिक व्यक्तित्व, राजनैतिक व्यक्तित्व और नैतिकता की परिभाषा में स्वयं को सिद्ध करने वाला हठीला व्यक्तिव | महात्मा गांधी जी के सामाजिक व्यक्तित्व की लेखक द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है | महात्मा नाम भी उनके साथ इसीलिए जुड़ा क्योंकि उन्होंने गरीबों, वंचितों, असहायों में सदा परमात्मा को देखा | उनके हित के लिए समाज में महती भूमिका निभाई | अहिंसा और सत्य जिनके जीवन का अवलंबन था, ये नाटक जाति-पात के भेदभाव मिटाने की उनकी कोशिशों की सराहना करता है | अलबत्ता नैतिकता के दृष्टिकोण से वो स्वयं को सिद्ध करने की धुन में हठी साबित होते हैं | अपने ब्रह्मचर्य को साबित करने के लिए वो मासूम बच्चियों के मन में जीवन पर्यंत रह जाने वाले मानसिक ट्रॉमा की परवाह भी नहीं करते का भी मुद्दा उठाया गया है | कुछ अन्य मुद्दे नैतिकता की परिभाषा के उठाते हुए मुख्य रूप से नाटक गांधी जी के राजनैतिक व्यक्तित्व पर बात करता है | लेखक के अनुसार राजनैतिक व्यक्ति के रूप में गांधी जी उस समय की लोकप्रिय पार्टी का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे | जो गरम दल और नरम दल में बँटी थी | स्वतंत्रता में दोनों ही दलों की भूमिका थी परंतु एक विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे को दबाना जरूरी था | लेखक राजनैतिक उठापटक के उसी आधार पर मूल्यांकन करते हुए अपनी बात रखते हैं | ये राजनीति ही है जिसने बहुत खूबसूरत शब्द सेकुलरिज्म को भी सिलेक्टिव चुप्पियों और सेलेक्टिव विरोध के पिंजरे में कैद कर दिया | फिर निष्पक्ष कौन है ? आम जन मानस का ये सवाल नाटक में लेखक ने बार-बार उठाया है | अब प्रश्न ये उठता है | महात्मा गांधी हमारे राष्ट्र पिता है, क्या उनको किसी नए दृष्टिकोण से देखा जा सकता है ? उत्तर “नहीं” भी हो सकता है और ये भी हो सकता है आज नेहरू पर बात होती है सिकंदर पर बात होती है राम और कृष्ण पर बात होती है | पुराण के हर पात्र को नए दृष्टिकोण से देखा जा रहा है | तो महात्मा गांधी को क्यों नहीं ?लेखक ने कई जगह प्रश्न उठाया है कि इतिहास हमेशा जीतने वाले के पक्ष में लिखा जाता है | जो सिकंदर को विश्व विजेता कहता है और अंग्रेजों को तानाशाह | जब भी किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, राजा या नेता या साहित्यकार का हम उसके जीवल काल में मूल्यांकन करते हैं तो निष्पक्ष नहीं रह जाते | उसका प्रभा मण्डल निष्पक्ष होने नहीं देता | किसी का असली मूल्यांकन उसके बाद ही होता है जब उसके प्रभा मण्डल के प्रभाव … Read more