मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह

मनोहर सूक्तियाँ

क्या एक विचार जिंदगी बदल सकता है ? मेरे अनुसार “हाँ” वो एक विचार ही रहा होगा जिसने रेलवे स्टेशन पर गाँधी जी को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत दी .. और मोहन दास करमचंद महात्मा गाँधी बन गए | Willie Jolley अपनी किताब It Only Takes a Minute to Change Your Life में कहते हैं .. वो विचार ही होता है जब हम कोई ऐसा निर्णय लेते हैं जो हमारी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट होता है | अगर निजी तौर पर बात कहूँ तो एक लोकोक्ति के रूप में मेरे नाना जी ने मन की गीली मिट्टी पर एक विचार रोप दिया था “चटोरी खोए एक घर बतोडी खोए चार घर ” अर्थात जिसे अच्छे अच्छे खाने का शौक होता है वो अपने घर के ही पैसे बर्बाद करता है | लेकिन जिसे फालतू बात करने का शौक होता है वो अपने साथ चार लोगों का समय बर्बाद करता है | कयोकि बात करने के लिए चार लोग चाहिए | यहाँ समय की तुलना सीधे -सीधे धन से की गई है | इस बात को समझ कर मैंने हमेशा समय को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश की | निश्चित तौर पर आप लोगों के पास भी ऐसे किस्से होंगे जहाँ एक विचार आपके जीवन का उसूल बन गया | ऐसी ही एक किताब “हीरो वाधवानी ” जी की उपहार स्वरूप मेरे घर में आई | 246 पेज की इस किताब में 180 पेज में सूक्तियाँ या जीवन संबंधी विचार हैं ,जो हमें प्रेरणा देते हैं या सोचने पर विवश करते हैं | बाकी पेज में समीक्षात्मक लेख हैं | कुछ सूक्तियाँ साझा कर रहीं हूँ .. ईश्वर ने हमें एक मुँह और दो हाथ -पैर इसलिए दिए हैं ताकि हम कहें कम करें अधिक | क्रोध और अहंकार करने वाले बाहर से भले द्रण लगें अंदर से कमजोर होते हैं | मित्रता तोड़ना आईने तोड़ने जैसा है | तेज आँधी नहीं घर का क्लेश नींव को हिला देता है | ईश्वर ने सबसे अधिक हड्डियाँ इंसान के पैरों में रखीं हैं ताकि वो अपने पाँव से चले दूसरे के कंधे पर सवार ना हो | ईर्ष्यालू अंधा होता है क्योंकि वो जिससे ईर्ष्या करता है उसके परिश्रम व प्रयत्नों को नहीं देखता | ऐसी बहुत सारी जीवन उपयोगी सूक्तियाँ हैं जिन्हे एक झटके में न पढ़ कर रोज एक पेज पढ़ कर मनन करने से जीवन में अवश्य परिवर्तन आएगा | एक अच्छी व अलग किताब के लिए “हीरो वधवानी जी को बधाई व शुभकामनाएँ | समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”  आपको मनोहर सूक्तियाँ -जीवन को बदलने वाले विचरों का संग्रह कैसा लगा l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव

प्रज्ञा की कहानी पटरी की समीक्षा

कुछ कहानियाँ अपने कलेवर में इतनी बड़ी होती हैं जिन पर विस्तार से चर्चा होना जरूरी हो जाता है l कई बार कहानी संग्रह की समीक्षा में उनके साथ न्याय  नहीं हो पाता इसलिए किसी एक कहानी की विस्तार से चर्चा हेतु अटूट बंधन में समय समय पर कहानी समीक्षा का प्रकाशन होता रहा है l इसी कड़ी में आज सुपरिचित साहित्यकार प्रज्ञा जी की कहानी पटरी पर बात करेंगे l ये कहानी बाल मनोविज्ञान को साधते हुए अपने कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने का आदर्श प्रस्तुत करती है l प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव   “कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता” “हर काम को बराबर की नजर से देखना चाहिए” अपना स्वाभिमान बेचने या किसी के आगे हाथ फैलाने से बेहतर है अपना काम करना” काम को ले कर कहे गए कितने सूत्र वाक्यों के दिमाग में कौंधने  के दौरान ये प्रश्न भी बराबर दिमाग में चलता रहा कि क्या वाकई ऐसा होता है ? समाज ऐसा सोचने देता है ? क्या समाज उस दोषी के कटघरे में नहीं खड़ा है जहाँ हम लोगों को उनके काम के आधार पर उनकी औकात जैसे शब्दों से नवाजते हैं l इससे किसी के मनोविज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? खासकर बाल मनोविज्ञान पर l इस सारे चिंतन का कारण था  प्रज्ञा जी किस्सा पत्रिका में प्रकाशित कहानी “पटरी l   अभी हाल में अटूट बंधन में प्रकाशित दीपक शर्मा जी की कहानी सिर माथे भी  …तथाकथित औकात के तिलिस्म में फंसे दांव पेंच में उलझे मन के जुगाड़ू  प्रयोजन और मासूम मन की कुलबुलाहट एक ही बिन्दु के दो विस्तार हैं l एक कहानी विद्रुप सच्चाई पर पड़े परदे को हटाती है तो दूसरी मन की ग्रंथियों में जा कर उसे समझने और खोलने का प्रयास करती है l   रात के अंधेरे को चीरने के लिए सूरज की एक किरण ही काफी है l और अगर ये समाज का दमित शोषित वर्ग हो तो .. तो ये किरण उगते सूरज का संदेश बन जाती है l अगर ये बात प्रज्ञा जी की कहानियों के लिए कही जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी l “बुरा आदमी” इस संदर्भ में खास तौर से मेरे मन के पन्नों पर दर्ज है l जैसे की पिता पुत्र पर आधारित उन्हीं की कहानी “उलझी यादों के रेशम” जो बुजुर्गों की उपेक्षा को दर्शाती है l तो ‘परवाज’  कहानी पिता के दोस्ताना व्यवहार की बात करती है l लेकिन “पटरी कहानी उनसे अलहदा है, जो एक मासूम बच्चे और उसके पिता की कहानी है l जिसकी नज़रों में अचानक से उसके पिता नायक से खलनायक बन जाते हैं l इसका कारण है उसके दोस्तों द्वरा उसके पिता की औकात की बात करना lबच्चे  उसे “कचौड़ी के” कह कर  चिढ़ाते हैं l अपना काम करने का पिता का स्वाभिमान उसकी क्लास में उस समय दम तोड़ता हुआ लगता है जब बच्चे को सुनने को मिलता है … “उल्टी छोड़ी, सीधी छोड़ी, तेरे बाप की…गरम कचौड़ी”   और बाल मन में प्रश्न अकुलाने लगते हैं ? लोग डॉक्टर, इंजिनीयर बनते हैं l अच्छी-अच्छी दुकाने भी चलाते हैं…फिर उसके पिता ने यही काम क्यों चुना ? बड़ी दुकान  में काम करते तब भी बात अलग होती पर पिता तो विवाद होने पर अपना स्वाभिमान बचाने के लिए काम छोड़कर  हनुमान मंदिर के पीछे वाली गली की पटरी पर बैठ कर कचौड़ी तलने लगे l तभी दोस्तों ने देख लिया l   बाल मनोविज्ञान के साथ आगे बढ़ती कहानी बच्चों के साथ झगड़े-मारपीट, खाना छोड़कर पिता को दवाब में लेने और पढ़ाई में पिछड़ने तक पहुँचती l और पिता ? क्या बीतती होगी उस पिता के दिल पर जब उसे महसूस होता ही कि उसका स्वाभिमान, वो धन जिससे वो अपने बच्चों और परिवार की जरूरतें पूरी कर रहा है  उसके बच्चे की नज़रों में अपमान है l क्या होता है  उस पर इसका असर ? एक पिता अपने अपमान की हीनता  बोध से बाहर आकर पुत्र की उंगली थाम कर उसे स्वाभिमान और हुनर कि सच्चाई से रूबरू कराता है l उसे साथ ले जाता है और अपने काम में हाथ बँटवाता है l बेमन से ही सही बीटा सहयोग करता है  और एक दिन उसके स्कूल में पिता के आने पर चिप जाने वाले बेटे के मन में उनके काम की भूरि-भूरि प्रशंसा सुन कर उनके प्रति सम्मान जागता है l   प्रज्ञा जी की कलम समस्या उठा कर उसे छोड़ नहीं देती बल्कि समाधान तक ले जाती है l इस कहानी  में भी अपमान के भाव में डूबते  उतराते पिता का संबल बन कर उभरती हैं माँ और कुछ हद तक स्कूल के प्रिंसिपल भी l जिसे मैं प्रज्ञा जी की कहानियों में हमेशा देखती हूँ l एक बुरी दुनिया के साथ एक अच्छी दुनिया भी उनकी नजर में है .. जहाँ बिगड़ती बातें बन जाती हैं l उनकी कहानियाँ जीवन का स्याह पक्ष दिखा कर सूर्य की उजास भी दिखाती है l ये दुनिया इन्हीं अच्छे लोगों के दम पर चलती है l आज ऐसी ही कहानियों की जरूरत है जो मात्र न्यूज रिपोर्टिंग ही बनाकर ना रह जाएँ बल्कि समाज को दिसँ भी दिखाएँ l   पिता -पुत्र के रिश्तों को आधार बना कर लिखी गई ये कहानी उन तमाम प्रश्नों का उत्तर है जो मैंने शुरू में उठाए, ये स्वाभिमान की कहानी है, और  प्रतिभा और हुनर की स्थापना की कहानी है जो “औकात” के इस जुमले से कहीं ऊपर है या जिसे अंगुलियाँ जला कर सीखना पड़ता है …पैसे के दम पर नहीं l अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी समीक्षा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  आपको लेख “प्रज्ञा जी की कहानी पटरी की समीक्षा” कैसा लगा अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन के लेख पसंद आते हैं तो साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को फॉलो करें l 

सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत

सैन फ्रांसिस्को

“यात्राएँ एक ही समय में खो जाने और पा लेने का सबसे अच्छा तरीका हैं”   कितनी खूबसूरत है ये प्रकृति  कहीं कल-कल करते झरने, कहीं चारों तरफ रेत ही रेत, कहीं ऊँचे पर्वत शिखर तो कहीं  धीर गंभीर समुद्र अथाह जलराशि को अपने में समेटे हुए | प्रकृति के इस सुरम्य शीतल, शांत कर देने वाले अनुभव के अतरिक्त मानव निर्मित कॉक्रीट के आश्चर्यजनक नमूने .. चाहे वो भवन हों, पुल हों, सड़कें हों या अन्य कलाकृतियाँ |   पर क्या भौगोलिक सीमाएँ ही किसी देश, शहर या गाँव का आधार होती हैँ | शायद नहीं, कोई भी  स्थान जाना जाता है वहाँ के लोगों से, उनकी सभ्यता उनकी संस्कृति से, उनके खान-पान पहनावे से, उस शहर के बार-बार बनने-बिगड़ने के इतिहास से | शायद इसीलिए हर यात्रा हमें समृद्ध करती है, हमें बदल देती है, हमारे अंदर कुछ नया जोड़ देती है, कुछ पुराना घटा देती है | इसीलिए शायद हर यात्रा के बाद हम भी वो नहीं रहते जो पहले थे |   हर देश की,  शहर की, स्थान की  अपनी एक धड़कन होती है | अपना एक पहनावा होता है, संस्कृति होती है | वही उसकी पहचान है | कितने लोगों को जब-तब उनकी बोली से पहचाना, “अच्छा तो इटावा के हो, मेरठ के लगते है, आपकी बातचीत के तरीके में मथुरा के पेडे  सी मिठास है | पर इसके लिए शहर के बाहरी और पोर्श कहे जाने वाले इलाकों से काम नहीं चलता | इसके लिए तो शहर के दिल में उतरना होता है | उसके वर्तमान से लेकर इतिहास तक की गहन पड़ताल करनी पड़ती है तब जा के कहीं उस शहर जगह का खास रंग हम पर चढ़ता है |   तमाम यात्रा वृतांत   ऐसी ही कोशिश होती है उन जगहों से लोगों को जोड़ने की जो वहाँ नहीं जा पाए और गए भी ओ बस ऊपरी चमक-धमक देख कर लौट आए | ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है वरिष्ठ लेखिका “जयश्री पुरवार” जी का जो अपनी पुस्तक अमेरिका ओ अमेरिका भाग -1,  “सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को” के माध्यम से शहर के इतिहास की रंगत, मिट्टी की खुशबू और हवाओं की चपलता से ही नहीं लोक जीवन से भी परिचय कराती हैँ |  किताब पकड़े-पकड़े पाठक का मन  सैन फ्रांसिस्को घूम आता है | सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत     इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार  सूर्यबाला जी लिखती हैँ  कि जयश्री जी ने अमेरिका की प्रकृति समाज और रुचि को समझने की कोशिश की है | जहाँ उन्होंने कुछ विरल विशेषताओं को सराहा है वहीं विकसित सभ्यता के कुछ दुर्भाग्य पूर्ण पक्षों पर अपनी चिंता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाई हैँ | जयश्री जी अपनी भूमिका “मेरे अनुभव की गुल्लक” में लिखती हैँ, “ किसी भी देश को चार दिन के लिए घूमकर वहाँ की संस्कृति के बारे में जानना आसान नहीं होता है | कुछ समय वहाँ लोगों के साथ बिताना पड़ता है | दोनों बच्चों के अमेरिका में बसने  के बाद हम निरंतर वहाँ आते  जाते रहे | आज जब वो वहाँ स्थायी रूप से बस गए हैँ, तब हमारा इस देश के साथ स्थायी संबंध जुड़ चुका है |”   कहने की जरूरत नहीं है कि इस यात्रा वृतांत में आप लेखिका की नजर से ही समृद्ध नहीं होते वरन  उनके परिवार के साथ बिताए गए खट्टे-मीठे अनुभवों के भी साक्षी होते हैँ | कहीं बोझिल ना हो जाए इसलिए किसी यात्रा वृतांत को पाठकों से जोड़ने के लिए सहज जीवन की कथा से जोड़ना उसे कितना रुचिकर बना देता है यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है | पूरी पुस्तक को उन्होंने 14 खंडों में बाँटा है, फिर उसे अपनी सुविधानुसार कम या ज्यादा उपखंडों में बाँटा है | और उनकी यह यात्रा विमान यात्रा से लेकर “मुझे सैन फ्रांसिस्को से प्यार हो गया तक चलती है | पुस्तक की शुरुआत वो इतिहास से करती हैँ | जहाँ  वो बताती हैँ कि अमेरिका की सभ्यता प्राचीन माया सभ्यता थी जो ग्वाटेमाला मेक्सिको आदि जगहों में प्रचलित थी | यह एक कृषि आधारित सभ्यता थी जो 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के मध्य अपने चरम  पर रही | इसके अलावा को 1942 में भारत को खोजने निकले कोलंबस द्वारा वाहन के मूल नागरिकों को रेड इंडियंस कहे जाने यूरोपीय कॉलोनियों के बनने और अमेरिका के स्वतंत्र होने का इतिहास बताती हैँ | इस देश का आप्त वाक्य है “इन गॉड वी ट्रस्ट” और विचारों से उन्मुक्त और प्रगतिशील होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश लोग आस्तिक हैँ | साथ ही अमेरिका संस्कृति के यूरोपयन  संस्कृति से प्रभावित  होने के कारण कहा जाता है की  अमेरिका की कोई संस्कृति ही नहीं है | पर कुछ विशेष बातें का भी उन्होंने जिक्र किया जिन्हें आम अमेरिका मानते हैँ जो उन्हें अलहदा बनाती है | खासकर उनका मेहनत करने का जज्बा जिसने अमेरिका को यूरोप से ऊपर विश्व शक्ति घोषित करवा दिया |   एक जगह लेखिका जनसंख्या को भारत के  अपेक्षाकृत कम विकास का कारण मानते हुए लिखती हैं कि अमेरिका की सीमा लगभग 12000 किलोमीटर है और जनसंख्या लगभग 35 करोंण |   अपनी अमेरिका  यात्रा की शुरुआत वो विमान से पहले ही मन की उड़ान से करती हैँ | और अमेरिका पहुँचने से पहले ही उन्हें साथ बैठने वाली आरती से भौतिकता के पीछे भागते अमेरिका का परिचय हो जाता है | जो बताती है कि अमेरिका में चीटिंग एक अलग तरह की पोलिश्ड  चीटिंग होती है | जिसका कारण भौतिकता को और व्यक्तिगत सफलता को बहुत ऊंची नजर से देखना है | वहीं अनुशासन यहाँ के जीवन की स्वाभाविक विशेषता है | किसी कार्यक्रम  या निर्धारित काम के लिए 5 मिनट भी देर से पहुंचना गलती मानी जाती है | एक अशक्त वृद्ध स्त्री के काम पर जाने को देखकर जीवन के प्रति अमेरिका लोगों के सकारात्मक नजरिये  को लेखिका सराहती हैं |   मन ही मन में भारत से तुलना करते हुए अमेरिका के समृद्ध होने का एक और राज उन्होंने खोला कि अमेरिका विकासशील देशों से छोटी -छोटी चीजें मँगवाता है और बड़ी छीजे खुद बना कर उसे … Read more

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं

ऐ मौसम तुमने हमे क्या-क्या गम ना दिए .. ये तो भला हो हमारी भुल्लों बुआ यानि अर्चना चतुर्वेदी जी का जिन्होंने इस गर्मी में जब पसीने बहाते और पानी -पानी की पुकार लगाते हुए लोग एक दूसरे से सात गज की दूरी बना कर चलते हैं, उन्होंने लव की हैप्पी एन्डिंग करा कर पाठको को ही नहीं प्रेम को भी जीवन दान दे दिया | मौसम की मार, कोरोना की चौथी लहर की बेसुरी दस्तक की खबर, रूस और यूक्रेन युद्ध की भयावाह तस्वीरें और उस पर महंगाई की मार ने माहौल कुछ ऐसा बना दिया है की आप चीख -चिल्ला सकते हैं, गुस्सा कर सकते हैं, चाहें तो रो भी सकते हैं पर हँसी बहुत जल्दी विलुप्त प्रजाति में जा रही है | नासा ( नासा जोड़ देने से बौद्धिकता की लू की चपेट में पाठक जल्दी आता है) की रिपोर्ट में कहा गए है की आज कल हाल हुए बच्चे भी पहले टेंशन करना सीखते हैं बाद में मुसकुराना सीखते हैं | ऐसे समय में व्यंग्यकार लोग बिना किसी सरकारी सहायता के हँसी की फसलों को फिर से हरियाते हुए देखेने का प्रयास कर रहे हैं | ये किसी पुण्य से कम नहीं है | और हमारी प्यारी व्यंग्यकार अर्चना जी ने भावना प्रकाशन से प्रकाशित अपनी नई किताब “ love की हैप्पी ending” के माध्यम से हँसी मुक्त होते हुए भरत को फिरसे “हँसी युक्त भरत बनाने का संकल्प लिया है | अब किताब के नाम को ही देखिए, “मतलब आप हिंदी और अंग्रेजी दोनों सीख सकते हैं | वैसे भी लोगों को रुलाने की अपेक्षा हँसाना कठिन काम है | रोने को तो जैसे आदमी तैयार ही बैठा है | क्योंकि किसी की दुख भरी दास्तान सुन कर कौन कब अपना भूला दुख याद कर रो पड़ा, सुनाने वाला भी नहीं जान पाता | पर हँसने के लिए विशुद्ध अपना कारण होना चाहिए, और नया भी | इंसान एक ही दुख पर सौ बार रो सकता है पर हँसने के लिए उसे हर बार नया चाहिए | love की हैप्पी ending -चटपटी हास्य कथाएं देश की सुपरिचित व्यंग्यकारा अर्चना जी अपने मन की बात में लिखती हैं की उन्होंने कोरोना के समय की उदासी को दूर करने के लिए व्यंग्य लिखे जिससे पहले तो वो खुद हँसी और बाद में उनके पाठक भी हँस रहे हैं | और माहौल थोड़ा सकारात्मक हो रहा है | अर्चना जी की हास्य कहानियों की खास बात ये होती है वो अपने आस -पास के चरित्र लेती हैं, और बोली बानी , हाव -भाव से बिल्कुल वैसा उतार देती हैं की पढ़ने वाले को लगे अरे वही पड़ोस वाले मिश्रा जी की बात हो रही है, राधा काकी तो ऐसी ही बोलती हैं, हमारे चाचा के समधी के जीजा तो बिल्कुल ऐसी ही हैं | जब पाठक चरित्र से खुद को जोड़ लेता है तो जो हँसी की कली होंठों पर खिल रही थी वो बत्तीसी फाड़ कर दर्शन देती है | अब गुल्लू मियां को ही लें आज के फास्ट फूड जमाने में बाबा आदम के जमाने का प्रेम पाले हैं, वो भी उससे जो देखने सुनने में भी उनसे कमतर है पर कहा गया है न, “दिल लगा सड़ी से तो परी क्या चीज है |” अपनी भी शादी की उम्र निकल गई और लड़की की निकलवा दी .. क्या क्या तरीके आजमा के | देर से ही सही पर जब किस्मत का सितारा चमका तो जो हड़बड़ी मचाई की “लव की हैप्पी एन्डिंग” भले ही हो गई हो पर सात पुश्ते उनकी ये कहानी याद करेंगी | “हाउस हेल्प बनाम हाउस वाइफ” में कामवाली लगाने की जिद पर अड़े मिस्टर वर्मा को लेने के देने तब पड़ गए जब कामवाली उन पर कुछ ज्यादा ही नजरे इनायत करने लगी | बकौल वर्मा जी, “ क्या मुसीबत रख ली है जिधर जाता हूँ उधर ही घूमती है | इसकी वजह से बाथरूम से ही कपड़े पहन कर आने लगा हूँ | कमबख्त ऐसे घूरती है मानो इज्जत लूट लेगी |” अब जब हाउस हेल्प जब हाउस वाइफ बनने के के सपने पालने लगे तो क्या क्या होता हिय या क्या -क्या हो सकता है .. कुछ इश्क कहीं दर्ज नहीं होते, उन पर कोई फिल्में नहीं बनती,लोग किससे नहीं सुनाते पर वो इश्क, वाकई में इश्क होता है | ऐसा ही एक इश्क होता है एक लड़की का दहेज में मायके से दी गई गोदरेज की अलमारी का.. बाकी आप “हमारी सच्ची मुहब्बत” में जान जाएंगे | वो जमाना गया जब बच्चे बड़ों की नकल करते थे, अब बड़े बच्चों की नकल करते हैं | जैसी की “बाबूजी का हनीमून” में दादाजी करना चाहते हैं | बढ़ते हुए दहेज को देखते हुए मन्नों सही तो कह रही हैं “दरकार है, एक चायनीज दूल्हे की” अब यहाँ के लोग तो दहेज के बिना शादी करने को तैयार नहीं तो क्यों ना सस्ते दूल्हे चाइना से ही लिए जाए | ये अलग बात है की चाइना का माल टिकाऊ नहीं होता पर यहाँ के रिश्ते ही कौन से टिकाऊ हैं | बुआ की बात वाकई गौर करने लायक है क्योंकि हे लड़के वालों चाइना की जनसंख्या भी बहुत है अगर देश की लड़कियाँ “मेड इन चाइना” दूल्हा माँगने लगीं तो आपके बेटे का तो नंबर ही नहीं आएगा | आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर कोई वसीयत कर मरे कोई मरे अधीर वैसे यूँ तो कोई मरना नहीं चाहता और ना ही अपनी कमाई का एक पैसा कौड़ी भी किसी को देना चाहता है |पर मरना तो पड़ता ही है और जो कमाया है वो दे कर भी जाना पड़ता है | इसलिए लंबा -नाटा, पतला-मोटा, पैसे वाला और सम्मान वाला हर व्यक्ति मरने से पहले अपनी वसीयत करना चाहता है | अब लेखक क्या वसीयत करेगा | येन -केन प्रकारेण जुटाए गए सम्मान के साथ मिली शॉल और श्रीफल का क्या करेगा ? जिसमें पत्नी की रुचि नहीं, किताबें खुद के बच्चों ने भी नहीं पढ़ीं | ये तो आप पढ़ कर ही जान पायेगे पर साहित्य की दुनिया पर जबरदस्त तंज है | अकेले औरत का सफर हाय रब्बा”हो या रज्जो बुआ या फिर गाँव … Read more

स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ

स्टैपलेड पर्चियाँ

    जीवन अनगिनत समझौतों का नाम है | कुछ दोस्ती के नाम पर, कुछ प्रेम की परीक्षा में खरे उतरने के नाम पर,  कुछ घर गृहस्थी चलाने के नाम पर और कुछ घर गृहस्थी बचाने के नाम पर .. हर पर्ची एक समझौता है और  “स्टेपल्ड पर्चियाँ” उन समझौतों का पूरा दस्तावेज .. जीवन का दस्तावेज हमारा आपका सबका मन कभी ना कभी तो करता है की खोल दें उस पूरे गट्ठर को, खोल दें  पर्चियों वाली इस रवायत को और  जी के देखें जिंदगी जिसमें किसी कपड़ों की अलमारी में साड़ियों की तहों में छिपाई गई स्टेपल्ड पर्चियाँ की कोई जगह ना हो | पर क्या अतीत को बदला जा सकता  है? खासकर उस अतीत को जिसकी पर्चियों को रंग हल्के पड़ गए हैं | कब वो रंग पर्चियों से निकलर हमारे मन को इस कदर रंग देते हैं की हमें पता ही नहीं चलता की इससे इतर हमारा भी कोई रंग है ?इस संग्रह के माध्यम से उन्होंने गंभीर सवाल उठाए हैं |   “स्टेपल्ड पर्चियाँ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रगति गुप्ता जी के कहानी संग्रह की ज्यादातर कहनीनियाँ इन्हीं पर्चियों को खोलने की कोशिश है | कुछ में खुली हैं, कुछ  में फाड़कर फेंक दी गई हैं और कुछ पढ़कर वापस वैसे ही रख दी  गई है | सबकी अपनी लड़ाई है, उलझने हैं, फिर सबका अपना -अपना मन है, कन्डीशनिंग भी है | “विधोतमा सम्राट सम्मान”से सम्मानित इस पुस्तक में 11 कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका प्रगति गुप्ता जी ने, जो की मरीजों की कॉउनसिलिंग भी करती हैं मन की कई गिरहों को खोलने का प्रयास किया है | स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ   हालांकि अपनी बात में वो लिखती हैं की “सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों का चयन करते समय मर्यादाओं को भी साधना होता है | यही वजह है की घटित पूर्णतःअन्वेषित नहीं हो पाता | तभी तो एक ही घटना पर विभिन्न दृष्टिकोणों से कई कहानियाँ व उपन्यास रचे जाते हैं |पुन: कुछ ना कुछ छूटता है और नवीन दृष्टि के साथ कुछ नया रचा जाता है |”   कहनियों में लेखिका ने ये खास  बात रखी है की स्त्री पुरुष का भेद भाव  नहीं रखा है | परंतु ज्यादातर समझौते स्त्री के हिस्से आते हैं तो वो कहानियों में परिलक्षित होते हैं, परंतु पुरुष की पीड़ा को कहने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया है |   “घर उसका, रुपया पैसा उसका पर वो अपने माता-पिता को हक से अपने घर नहीं रोक सकता | .. उस रोज अंकित को अपनी बेबसी पर बहुत अफसोस हुआ |” “तमाचा” कहानी आज की बदली हुई स्त्री और बदले हुए पुरुष के मुद्दे को सामने लाती  है | परदेश में अपने माता -पिता से दूर रहने वाला पुरुष भी क्या उतना ही असहाय नहीं है ? यहाँ विमर्श का एक दूसरा कोण  सामने आता है | पुरुष के घर में भी उसके माता-पिता के लिए जगह नहीं है | अच्छी पोस्ट, तनख्वाह,  पर शादी से पहले कैजुअल ड्रिंक कहने वाली लड़की जब पत्नी बन कर पार्टियों में नशे में धुत हो जाए, पति की सार्वजनिक निंदा करे और तमाचा भी मारे तो उसे विमर्श के किसी खांचे में नहीं रखा जा सकता | भले ही उसके पीछे उसका परिवार और पालन -पोषण रहा हो | अवगुण अगर स्त्री पुरुष नहीं देखते तो शोषण भी नहीं देखता |इस बारे में बात होनी चाहिए |  नए समाज के नए यथार्थ का दरवाजा खोलती अच्छी कहानी |     शीर्षक  कहानी “स्टेपल्ड पर्चियाँ” एक तथाकथित सुखी कहे जाने वाले परिवार के मृतप्राय संबंधों की दास्तान  है | जहाँ  पति पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर एक चुप्पा समझौता है बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए | जहाँ कोई बातचीत मन मुटाव सहमति असहमति नहीं होती .. ना ही विवेचना करने के लिए कुछ “की हम कहाँ  गलत थे” जो कुछ  था वो सब बस स्वीकार करना था और भरती जानी थी अलमारी की दराजे  “स्टेपल्ड पर्चियों” से  | लेकिन एक दिन ये पर्चियाँ खुलती हैं | और समझ में आता है की दो लोगों के मध्य मौन भी दो तरह का हो सकता है |एक वो जहाँ दोनों एक दूसरे में मानसिक स्तर पर समाए हों और एक वो जहाँ सन्नाटा हो |   एक परिपक्व उम्र में जब  इंसान अपने बच्चों को दुनिया से, चालाकियों से  आगाह करता है ठीक उसी  वक्त स्वयं का स्नेहापेक्षी मन किसी के शब्दों के फरेब में फँस रहा होता है | “काश” कहानी मानसिक स्तर पर मन के बातों में आ जाने का शोकगीत है |   अभी हाल ही में डॉ. अर्चना शर्मा की आत्महत्या की दुखद घटना सामने आई है | कहानी “गलत कौन” में लेखिका यही मुद्दा उठाती हैं | जिस डॉक्टर को मौका पड़ने पर भगवान का दर्जा दिया जाता है उसके साथ मार -पिटाई करने से भी लोग बाज नहीं आते |   “अदृश्य आवाजों का विसर्जन” कोख  में मारी गई बेटियों की का सामूहिक मार्मिक  रुदन है | “सोलह दिनों का सफर” मृत्यु से पहले के तीन दिन व बाद के तेरह दिन की  आत्मा की वो यात्रा है जिसमें वो अपनों का ही स्वार्थ भरा चेहरा देख स्वयं ही उस घर से मुक्त होना चाहती है | एक तरफ बी प्रैक्टिकल, गुम  होते क्रेडिट कार्ड्स, माँ ! मैं जान गई हूँ, खिलवाड़, आम रिश्तों की उलझती सुलझती कहानियाँ हैं तो दूसरी तरफ “अनुत्तरित प्रश्न “ में एक ऐसे जोड़े का दर्द है जिनके संतान भी है पर पिता समलिंगी है | और एक दिन सारे परदों से बाहर आकर अपनी पहचान घोषित करता है | आखिर क्यों समाज हर व्यक्ति को उसकी तरह से नहीं अपनाता | जिंदगी को दाँव पर लगाने वाले ये अनुत्तरित प्रश्न पति  के भी हैं, पत्नी के भी और उस मासूम बच्ची के भी जो बार -बार जानना चाहती है की उसके पापा कहाँ हैं ?  एक अच्छी कहानी |   अंत में मैं यही कहूँगी की सारी कहानियाँ खोखले होते संबंधों की कहानियाँ हैं जो बाहर से भले ही चमकीले दिखते हों पर अंदर से दरके  हुए हैं | और प्रेम में देह  की भले ही भूमिका हो पर मन से … Read more

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

  समकाल में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों, समीक्षकों का ध्यान खींचने वाली कवयित्रियों में विशाखा मूलमुले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में उभरी हैं | विशाखा जी की कविताएँ गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति हैं |विशाखा जी की कविताओं में तीन खासियतें  जो मुझे दिखी | उन को क्रमवार इस तरह से रखना चाहूँगी |   कविताओं  को बौद्धिक  होना चाहिए या भाव सागर में निमग्न इस पर समय -समय पर विमर्श होते रहे हैं | बौद्धिक कविताओं का एक खास पाठक वर्ग होता है पर अक्सर आम पाठक को भाव  छूते हैं | वो कविता भावों की वजह से पढ़ना चाहता है |  मेरे विचार से कविता में बौद्धिकता तभी सहज लगती है जब वो अनुभव जगत की हांडी पर पककर तरल हो जाए | यानि ठोस पानी बन जाए .. सघन विरल हो जाए | लेकिन कई बार  बैदधिक कविताओं से गुजरकर ऐसा लगता है.. कि सघनता शब्दों में ही रह गई वो भाव  जगत को आंदोलित नहीं कर पाई | बोधि प्रकाशन के माध्यम से   विशाखा जी केवल “पानी का पुल” कविता संग्रह ही नहीं लाती बल्कि उनकी कविताएँ भी जीवन दर्शन की बर्फ को पिघला पाठक के हृदय में  पानी की तरह प्रवाहित करती  हैं | वो शब्दों का जादुई वितान नहीं तानती और आम भाषा और शब्दों में बात करती हैं |     वैसे तो मुक्त छंद कविता में कई प्रयोग हो रहे हैं पर विशाखा जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो छोटे-छोटे संवादों के माध्यम से कविता सहज ढंग से अपनी बात रखती चलती हैं | अगर कहें कि उन्होंने कविता के लिए निर्धारित किये  गए ढांचे को तोड़कर उस जमीन पर  एक नए और  बेहतर शिल्प का निर्माण किया है तो अतिशयोक्ति ना होगी | इस तरह से वो छंद मुक्त कविताओं के शिल्प में आई एकरसता को दूर कर पाठकों को एक नया स्वाद देती हैं |   तीसरी  बात जो उनकी कविताओं में मुझे खास लगी कि वो जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन की  को विद्रूपताओं को एक रूपक के माध्यम से पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं | वो रूपक  आम जीवन से इतना जुड़ा  होता है की पाठक उसका को ना सिर्फ आत्मसात कर लेता है बल्कि चमत्कृत भी होता है | कभी वो पानी के पुल का बिम्ब लेती हैं तो कभी घास का या घूँघरू का | पाठक बिम्ब के साथ जुडते हुए कविता से जुड़ जाता है |   पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति   इस संग्रह पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण बात साझा करना चाहूँगी की ये संग्रह बोधि प्रकाशन द्वारा “दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के छठे वर्ष” में चयनित व प्रकाशित किया गया है | भूमिका में सुरेन्द्र सुंदरम जी लिखते हैं, “विशाखा मूलमुले की कविताओं में उम्मीद का हरापन है, विरोध की रचनात्मकता है, ठहराव और शनशी के बीच अजीब सी गति है जो उनकी रचनधर्मिता को बड़ा बनाती है |”   शीर्षक कविता “पानी का पुल” एक संवेदनात्मक बिम्ब है | जिस तरह से पुल दो किनारों जो जोड़ता है | खारे, नमकीन आंसुओं की ये भाषा संवेदना और संवाद का एक पुल बनाती है जहाँ से एक का दर्द दूसरे को जोड़ता है | “रक्त संबंधों से नहीं जुड़े हम पानी का पुल है हमारे मध्य और दो अनुरागी साध लेते हैं पानी पर चलने की सबसे सरलतम कला”   कविता “पुनर्नवा” में वो घास की तुलना जिजीविषा से करती हैं |घास तो हर जगह उग जाती है .. मन ? मन तो मुरझा जाता है तो जल्दी खिलता ही नहीं | जब शुरू में वो लिखती हैं की अच्छे दिनों के बीच घास की तरह जड़े जमा लेते  हैं बुरे दिन .. अनचाहे, तो भले ही इन  पंक्तियों में नैराश्य चमके पर अंततः वो निराशा का दामन झटक कर घास को पुनर्नवा की उपमा देती हैं की जो हर विपरीत परिस्थिति में उगती है और मृत्यु के बाद किसी नीड़ के निर्माण में सहायक होती है | क्या एक हारा हुआ  मन घास से प्रेरणा नहीं ले सकता |   “मरकर अमर होती है घास जब चिड़िया करती है उससे नीड़ का निर्माण पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत धरती से उठ रचती नव सोपान”     स्त्रियों पर  भले ही  बेवजह रोने के इल्जाम लगें या चिकित्सकीय भाषा में उन्हें मूड स्विंग का शिकार माना जाए पर इसके पीछे के मनोविज्ञान के सूत्र को विपाशा जी “प्रकृति, स्त्री और बारिश”में पकड़ती हैं | वो स्त्री के आंसुओं की बारिशों से तुलना करते हुए कहती हैं की स्त्रियाँ बारिशों को रोकती है .. कपड़े सूख जाए, आचार बर्नी अंदर कर लें या बच्चे  स्कूल से घर आ जाए | उनकी बात मानती हुई बारिशें बरसना मुल्तवी कर देती हैं पर जमा पानी रोकना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है | तब बात मानना बंद कर देती हैं और फिर जो बरसती हैं कि रोके रुकती नहीं | और स्त्री के रुदन  से साम्य मिलाते हुए कहती हैं ..   ठीक इसी तर से रोकती हैं स्त्रियाँ अपने -अपने हिस्से की बारिशें आँखों की कोरों  में अचानक कभी ये बारिशें कारण बिना कारण बीती  किसी बात पर मौसम बेमौसम, बिना किसी पूर्वानुमान के असल, मुद्दल, सूद समेत  बरस पड़ती हैं” कविता घूँघरू में वो घुँघरू को जीवन की विभीषिकाओं से लड़ने के मन हथियार के रूप में देखती हैं .. कोल्हू के बैल  में लगा हो, घोड़ा -गाड़ी के रहट में या फिर गन्ने की पिराई की मशीन में ..  रस से रसहीन हो जाने की यात्रा सुरीली तो नहीं हो सकती पर उस दर्द भरे गीत से विलग कर घूंघरुओं की धुन से मन तो बहलाया जा सकता है | “ताकि भटका रहे मन और चलता रहे जीवन” एक बहुत ही खूबसूरत कथन है “अगर आप अपने बच्चों को कुछ देना चाहते हैं तो उन्हें स्मृतियाँ दीजिए|” और राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी जब लिखते है, “यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे” तो शायद उनकी कल्पना में यह महानगरीय काल आया होगा | “मनुष्य मकान और महानगर की व्यथा” कविता  जिसने मेरा  विशेष रूप से ध्यान खींचा, महानगरीय जीवन … Read more

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

  शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |   संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”   यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |   शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ | मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ   सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा   संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है | उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है | यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है | जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है| इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |” मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |   इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ | मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत … Read more

जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

जरूरी है प्रेम करते रहना

  कविताएँ हो कहानियाँ हों या लेख, समीक्षा  सरल भाषा में गहन बात कह देने वाली महिमा पाठकों को हमेशा पहले से बेहतर,  नया  लिख कर चौंकाती रही हैं | सबकी प्रिय, जीवट, कलम की धनी साहित्यकार पत्रकार महिमा श्री का नया कविता संग्रह “जरूरी है प्रेम करते रहना” अपनी अलहदा कविताओं के माध्यम से बहुत जल्द ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है | हर कविता आपको रोकती है | एक गहन चिंतन मन में शुरू हो जाता है | क्योंकि हर कविता गहरी संवेदना से निकल कर आरी है और  उनमें एक जीवन दर्शन है |   जब महिमा किताब का शीर्षक “जरूरी है प्रेम करते रहना” रखना चुनती हैं, तब वो चुनती हैं जिजीविषा उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जो हिम्मत और हौसला तोड़ देती है .. ये प्रेम, जीवन का राग है | बुरे में से अच्छा बचा लेने की ख्वाहिश  भर नहीं है जीवन जीने का सकारात्मक दृष्टिकोण है | तमाम विद्रूपताओं के बीच जीवन के पक्ष में युद्धरत सेनानी का जीवन को देखने का नजरिया कभी सतही नहीं हो सकता, वो गहनता  एक -एक  शब्द में एक -एक कविता में दृष्टिगोचर होती है |   जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ   अपनी भूमिका में वो लिखती हैं, “पीड़ा से एक रागात्मक संबंध इस कदर हो गया था कि लगता ही ना था  कि इससे आजाद हो पाऊँगी |इस दौरान सीखा की कठिन परिस्थितियों से जीवन में मुँह मोड़ने के बजाय “जरूरी है प्रेम करते रहना” ये भव पाठक को पूरे संग्रह में दिखता है |   कविता संग्रह तीन खंडों में हैं | हर खंड एक खूबसूरत कोट से शुरू होता है |जैसे  पहला खंड काफ्का के कथन “हम मरने के लिए नहीं जीने के लिए अभिशप्त हैं”| दूसरा खंड स. बी. फग्रयुसन के कोट “प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं पर प्रेम प्रतिबद्धता  से अधिक है|” तीसरा “अकुलाहटें मेरे मन की” कविताओं को विभिन्न नजरिए से पढ़ते हुए महिमा की कविताओं पर अपने विचार रखने के लिए मैंने स्वयं उन्हें कुछ खंडों में रखने की कोशिश की है | जिन पर क्रमवार अपने दृष्टिकोण को साझा करना चाहूँगी | महिमाश्री  की कविताओं में जीवन की साँझ हम मनुष्य हैं, टूटते हैं, जुडते हैं, फिर टूटते हैं और फिर फिर जुडते हैं | कई बार दुख उदासी हावी हो जाती  है पर उनसे जूझ कर निकलना ही जीवन है | जिजीविषा का अर्थ ये नहीं की हर समय सकारात्मक रहना है बल्कि तमाम निराशाओं  का मुकाबला कर सकारात्मकता चुनना है | ऐसे में जीवन की साँझ के दर्शन कई कविताओं में होते है | अगर अंधेरा ना हो तो उजाले का महत्व क्या है ? उजाले की राह जाने से पहले इस अंधकार से  रूबरू होना भी जरूरी है | इन कविताओं में कहीं कहीं T. S. Eliot की गहनता देखने को मिलेगी |मुझे Mollow Men की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं … Is it like this In death’s other kingdom Waking alone At the hour when we are Trembling with tenderness Lips that would kiss Form prayers to broken stone. संग्रह की पहली कविता “कर्क रोग से लड़ते हुए” में ही उस गहनता के दर्शन हो जाते हैं | जब हम जीत के करीब होता हैं तो अक्सर नई चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं |   वो कहती हैं.. “धारा के विपरीत चलने की ख्वाहिशों ने कुछ अलग करने का हौसला तो दिया पर सोचा ही था अब इस पर साथ चल कर देखते हैं खुद धारा ने रास्ता बदल लिया”   आदमी एक पर ख्वाहिशें अनेक हैं | कब पूरी हुई हैं किसी की सारी तभी तो कविता “ख्वाहिशों के दिए “में वो लिखती हैं .. “ख्वाहिशें हजार वाट की आँखों में जलती हैं जैसे गंगा में जलते हैं असंख्य दिए”   कविता “विकलता एक श्राप है में जब वो लिखती हैं, “टूटे हुए पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं” तब वो शिकस्त झेले हुए इंसान की पीड़ा व्यक्त करती हैं |   महिमाश्री  की कविताओं में आशा का उजाला                           निराशा को परे झटक कर शुरू होता है एक युद्ध, आस-निराश के बीच में वहाँ  से कविताएँ सँजोती हैं जीवन के कतरे जिन्हें गूथ कर तैयार होता है आशा का पुष्प हार …तभी तो हाल नंबर 206 कविता में कहती हैं हॉल नंबर 206 के बेड के सिरहाने जिंदगी सुबह की धूप सी पसरने लगती है आहिस्ता .. आहिस्ता   “मेरी यायावरी” में वो कहती हैं .. “ढूँढना है मुझे फ़ानी हों से पहले स्वेद बूंदों के सूखने का रहस्य जीवन चाहे दो पल का शेष हो, दो बरस काया दो युगों का  मृत्यु अवश्यंभावी है | दिक्कत ये नहीं है जी जीवन कितना शेष है, पीड़ा ये है की जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें जीवन कितना था |  “विदा होने स पहले” कविता पढ़ते हुए मुझे बेन जॉनसन की कविता “A lily of a day” याद आ गई | जीवन जीवंतता से भरपूर होना चाहिए | इस कविता  में महिमा  जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ सीखने की बात करती हैं | यही जीवन जीने का सही तरीका है .. जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले सीख लेना है मल्लाहों के गीत अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूँ विदा होने से पहले मेरी  यायावरी हो या “विदा होने  से पहले” दोनों कविताएँ जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएँ हैं |   महिमा की कविताओं में प्रेम महिमा की कविताओं में प्रेम किसी किशोरी का दैहिक आकर्षण नहीं है | वो परमात्मा से आत्मा से एकीकार है | वो केवल स्त्री पुरुष के प्रेम की ही बात नहीं करती अपितु उनके प्रेम राग में बहन भाई और तमाम रिश्ते समाहित हैं | अब “दीदिया के लिए” एक ऐसी कविता है जिसमें बहन के प्रति उमड़ते हुए प्रेम की सहज धारा को महसूस किया जा सकता है | अधिकांशतः छोटी बहनों ने बड़ी बहन के विदा हो जाने पर यह महसूस किया होगा | कविता के सौन्दर्य को बढ़ाते रूपक को देखिए, यहाँ  बेटी को मायके का  वसंत कह कर संबोधित किया है जिसके विदा  होते ही … Read more

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

  समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी ने अपनी सशक्त और अलहदा पहचान बनाई है | उनके कथापत्रों में जहाँ एक ओर कमजोर दबे कुचले, शोषित वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग और आज के हालातों से जूझते किरदार होते हैं तो दूसरी ओर वह मानवीय संवेदनाओं को जागृत कर अच्छे लोगों और अच्छाई पर भी विश्वास बनाये  रखने की आशा रखती हैं | मानवीय संवेदनाओं के उठते गिरते ग्राफ में वो कुछ अच्छा, सुखद थाम लेती हैं |वास्तव में यही वो लम्हे  हैं जिन्होंने  तमाम विद्रूपताओं से भरे इस समय में आशा की डोर को थाम रखा है | प्रज्ञा जी की इन कहानियों की विशेषता है कि वो बिलकुल आम पात्रों को उठाती हैं और सहजता के साथ शिल्प के अलंकारिक आडंबरों  से मुक्त होकर संवेदनाओं  के स्तर पर उतर कर गहनता से कथा बुनती जाती हैं |  समकाल पर कलम चालते हुए वो कोरी भावुकता में  नहीं बहतीं बल्कि तटस्थ होकर आस-पास घटने वाली एक-एक घटना का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए साक्षी भाव से कथारस के साथ उकेरती चलती हैं | पाठक पढ़ कर हतप्रभ होता चलता है, “हाँ ! ऐसा ही तो होता है | पर ऐसा ही होता है को लिखने के लिए जिस सूक्ष्म नजर से समाज की पड़ताल करनी पड़ती है | समाज के मनोभावों का ऐक्स रे करना होता है, वो अपने आप में एक पूरा शोध होता है | जिसे उकेरना इतना सहज नहीं  है पर प्रज्ञा  जी इसमें सिद्ध हस्त हैं |   स्त्री चरित्रों को उकेरते समय भी वो किसी विमर्श के दायरे में ना बांध कर समाज की कन्डीशनिंग की बात करती हैं | जिसके शिकार दोनों हैं | आपसी सहयोग और सम्मान ही सहअस्तित्व का आधार है, जिसकी उंगली पकड़ कर उनके पात्र एक सुंदर दुनिया की संभावना तलाशते हैं | मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ   अभी हाल ही में प्रज्ञा जी का नया कहानी संग्रह “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश”  आया है | हर बार की तरह इस संग्रह की योजना भी उन्होंने बहुत सुचिन्तित तरीके से बनाई है | विषय में जहाँ समकाल की चिंताएँ हैं, तो प्रेम की फुहारें भी, एक अच्छे आदमी द्वारा अपने अंदर छिपे बुरे आदमी की शिनाख्त तो माटी से माटी होते हुए शरीर में नई आशा फूँक देने की कवायत भी | बहुत ही हौले से वो उस बाजार के दवाब और प्रलोभन की बात भी कह जाती हैं, जिसके पंजों की जकड़ में समझदार व्यक्ति भी फँस जाता है | आज जब हम उन्हीं विषयों को बार -बार अलग -अलग शिल्प में पढ़ते हैं, वहीं प्रज्ञा जी द्वारा लाए गए जीवन से जुड़े नए अनूठे विषय उन्हें कथाकारों की अलग पांत में खड़ा करते हैं | इस संग्रह में उन्होंने शिल्प के स्तर पर भी कुछ नए प्रयोग किये हैं जो आकर्षित करते हैं, पर उनसे कहानियों की भाषा की सरलता सहजता और प्रवाह की उनकी धारा अपने पूर्ववत वेग को नहीं बदलती |   पुस्तक की भूमिका “एक दुनिया जो हम चाहते हैं बने” में प्रज्ञा जी लिखती हैं, “मैंने इस संग्रह की कहानियों में अपने विवध वर्णी समय को अंकित करने का प्रयास किया है |समाज में जहाँ एक ओर मनुष्यता की विजय  की कहानियाँ सामने आई हैं, वहीं कहीं ना कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यता  पूंजी और बाजार में कहीं सबसे सस्ती और अनुपयोगी हो गयी है | इसलिए मेरा प्रयास रहा है कि समय की कटुता के साथ मनुष्यता के भरोसे को जीवित रखने वाले कुछ किस्से आप के साथ साझा कर सकूँ |     प्रेम दुनिया की सबसे सुंदर शय है | दो लोग मन -प्राण से एकाकर हो जाएँ इस से सुंदर घटना कोई दूसरी नहीं हो सकती | पहाड़ों की सुरम्य वादियों में हवा की सुरीली घंटियों सी आज भी गूँजती है अब तक मालूशाही और राजुला की प्रेम कहानी, जिसने हर संघर्ष के बाद आखिरकार पा ही लिया उसे जिसे बार -बार छल से दूर किया जाता रहा |कहाँ राज परिवार का मालूशाही और कहाँ साधारण घरआने की राजुला | पर प्रेम ने कब मानी हैं दीवारें |  वही प्रेम कहानी फिर उतरी उसी  धरती पर अपनी पूरी सुगंध, पूरी तारतम्यता के साथ | सदाबहार बुरांश के फूलों के बीच फिर छल ने दस्तक दी पर मालूशाही फिर आया अपनी राजुला के पास | “जिन्हें एक सच्चे वचन ने बांध लिया | कयोकि  निभाने के लिए एक वचन ही काफी है और ना निभाने के लिए सात सौ भी कम |  छलिया फिर आया भेष बदल कर ..पर मन ने उसका छल माना कहाँ | लोककथा से आधुनिक प्रेम कथा को जोड़ती बुरांश के फूलों सी दहकती एक अलग तरह की प्रेम कहानी है वो  कहानी पर जिसके  ऊपर संग्रह का नाम रखा गया है यानि “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” |   “उसे तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना थ और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को |”   कहानी “माटी का राग” एक ऐसी ही कहानी है जो जीवन को सकारात्मक नजरिये  से देखने पर जोर देती है | “चाक के पहिये पर दयाशंकर कुम्हार की मिट्टी में तर उँगलियाँ बड़ी कोमलता से नमूने गढ़ रही थीं।चाक की लय, उँगलियों की तान, मन के राग पर धीरे-धीरे आकार लेती कला ‘तुमसे हो न पाएगा ठाकुर जी महाराज… कहाँ धरती का सोना तैयार करने वाले तुम और कहाँ हम?’ दयाशंकर ने एक साँस में हुनर औरजात के समीकरण को खोलकर सामने रख दिया। ‘रिश्ता तो हम दोनों का ही माटी से ठहरा।’”   कहानी की ये पंक्तियाँ हैं  सीधे पाठक के मन में उतरती हैं| किसान हो, कुम्हार  हो या ये जीवन  सब माटी पर निर्भर  है| सारा जुगत है इस माटी को किसी सृजन में लगा देना | वो सृजन खेत खलिहानों में उगती फसल का हो सकता है, कला का हो सकता है या फिर स्वयं के जीवन को कोई सकारात्मक मोड़  देने का | राम अवतार की ये कहानी अनेक आयाम समेटे हुए है | चाहे वो धर्म के नाम पर जबरदस्ती वैमनस्यता हो, गाँवखेत छोड़कर कर शहरों की ओर भागते युवा हों |बुजुर्गों का अकेलापन हो|कहानी गाँव से शहर की ओर जाती है और फिर गाँव की ओर … Read more