दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक

दरवाजा खोलो बाबा

  “पिता जब माँ बनते हैं, ममता की नई परिभाषा गढ़ते हैं” कविता क्या है? निबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि, “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।“ इस परिभाषा में हृदय की मुक्तवस्था सबसे जरूरी शब्द है | यूँ तो हमारे अवचेतन पर हमारे जीवन, देखे सुने कहे गए शब्द अंकित होते हैं इसलिए हर व्यक्ति एक खास कन्डीशनिंग से निर्मित होता है | परंतु साहित्य में हम अक्सर चीजों को एक दृष्टि से देखने के इतने आदि हो जाते हैं कि दूसरा पक्ष गौढ़ हो जाता है | इसका कारण तमाम तरह के वाद और विचार धाराएँ भी हैं और पत्र -पत्रिकारों में उससे  प्रभावित लेखन को मिलने वाली सहज स्वीकृति भी है | पर क्या इतना आसान है एक लकीर खींच देना जिसके एक तरफ अच्छे लोग हं और दूसरी तरफ बुरे  | एक तरफ शोषक हों और दूसरी तरफ शोषित | मुझे उपासना जी की कहानी सर्वाइवल याद आ रही है जहाँ शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता| हब सब कहीं ना कहीं शोषक हैँ और कहीं ना कहीं शोषित |   हम मान  के चलते हैं कि खास तरह की पढ़ाई के लिए माता -पिता बच्चों पर दवाब बनाते हैं और संपत्ति के लिए बच्चे वृद्ध माता पिता का शोषण करते हैं | जबकि इसके विपरीत भी उदाहरण है | शिक्षा के लिए माँ -पिता से जबरदस्ती लोन लिवा कर  बच्चे ऐश करने में बर्बाद कर देते है | वृद्ध माता पिता अपने बच्चों  का इमोशनल शोषण भी करते है | पुरुषों द्वारा अधिकतर सताई गई है स्त्री पर कई बार शोषक के रूप में भी सामने आती है | कई बार खेल महीन होता है| वहीं पुरुष कई बार पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में स्त्री का सहायक भी होता है|   साहित्य में हर किसी के लिए जगह होनी चाहिए हर बदलाव दर्ज होना चाहिए तभी वो आज के समकाल का सही सही खाका खींच पाएगा |   ये सब सोचने-कहने का कारण डॉ.मोनिका शर्मा का नया कविता संग्रह “दरवाजा खोलो बाबा” है | निरंतर विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में अपने विचारोत्तेजक  लेखों द्वारा समाज को सोचने को विवश करती मोनिका जी अपने इस संग्रह में बदले हुए पुरुष को ले कर आई है | पिता, पति, भाई, पुत्र के रूप में स्त्री के जीवन में खुशियों के रंग घोलने, उनको विकास की जमीन देने और हमसफ़र बन कर साथ सहयोग देने में पुरुष की भूमिका पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | खासकर तब जब वो बदलने की कोशिश कर रहा है | दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक “19 नवंबर” को मनाए जाने वाले “अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस” में घरेलू कामों में अपने द्वारा किये जाने वाले सहयोग का संज्ञान लेने  की माँग उठी है | ऐसे में साहित्य का इस दिशा में ध्यान ना जाना उचित नहीं | मोनिका जी पुस्तक “दरवाजा खोलो बाबा” की भूमिका में लिखती हैं कि, “भावी जीवन की हर परिस्थिति से जूझने का साहस, बेटियों को अपने बाबा के आँगन से मिली सबसे अनमोल थाती होती है | आज के दौर में संवेदनशील भावों को जीते भाई जीवनसाथी  और बेटों से मिल स्नेह सम्मान, भरोसे और भावनाओं की इस विरासत को सहेजते प्रतीत होते हैं | यह वक्त की दरकार है की साझी कोशिशों और स्त्री पुरुष के भेद से परे मानवीय सरोकारों की उजास को सामाजिक -पारिवारिक परिवेश में सहज स्वीकार्यता मिले | पूरे संग्रह चार खंडों में बँटा हुआ है जिसमें पिता, पिता -बेटी, पुरुष मन और प्रश्न हैं.. पिता खंड में उन त्यागों को रेखांकित किया है जो अपने बच्चों, घर -परिवार के लिए एक पुरुष करता है | मुझे प्रेमचंद् जी का एक वाक्य का भाव याद आ रहा  है, “पिता मटर -पनीर है और माँ दूध-रोटी” थोड़ी देर भी ना मिले तो बच्चे व्याकुल हो जाते हैं | बात गलत भी नहीं है .. दरअसल पिता का त्याग अदृश्य  रहता है | बच्चों की जरूरतें माँ से पूरी होती रहतीं हैं, घर के बाहर पिता भी उस नींव की ईंट है इसका ध्यान कम ही जाता है | इसी पर ध्यान दिलाते हुए  मोनिका जी लिखती हैं.. “कमाने, जुटाने के चिर  स्थायी फेर ने सारथी बन गृहस्थी का रथ खींचते एक पुरुष को गढ़ा सनातन यात्री के रूप में”   ———————————– घर स्त्री से होता है पर उस घर को बनाने में पुरुष भी बहुत कुछ खोता है … “किताबों के पल्ले  चढ़ते ही तालों में बंद हो गए समस्त रुचि रुझान चिकना-चौरस आँगन पक्का होते ही फिसल गए जीवन की मुट्ठी से मैत्री बंध, मेल जोल के पल चौखट -चौबारों की रंग रोगन की साज धज के निर्मल निखार से फीकी पड़ गईं मर्म की समस्त चाहनाएँ” ——————————– स्त्री के शोषक के रूप में दर्ज क्या पुरुष समाज की कन्डीशनिंग का शिकार नहीं है | क्या अपने को अच्छा पुत्र और अच्छा पिता साबित करने का भार उस पर नहीं है | संतुलन उसे भी बनाना है | महीन रस्सी उसके सामने भी है |   “बहुत सीमित -समवृत होता है आकाश पिता की इच्छाओं का माता -पिता का कर्तव्य पारायण बच्चा होने के दायित्व बोध की धूरी से अपने बच्चे के उत्तरदायित्वों के यक्ष तक सिमटा” ————————– “अपनी कविता “प्रवक्ता” में वो लिखती है.. आँगन के बीचों -बीच हर बहस, हर विमर्श में चुप रह जाने वाले पिता देहरी के उस पार बन जाते हैं  आवाज घर के हर सदस्य की” पिता -पुत्री खंड में पिता पुत्री के बदलते हुए रिश्तों की बात करती हैं | एक जमाना था जब पिता परिवार के सामने अपने बच्चों को प्यार नहीं करते थे, फिर एक उम्र के बड़ी  बेटियों से थोड़ी दूरी बनाते थे | विवाह के बाद अपनी मर्जी से मायके आने का हक बेटियों का नहीं रहता था | इस सब दिशाओं में आज बदले हुए पिता-पुत्री दिखते हैं | अब लड़कियाँ “बकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लिजों बुलाए” नहीं … Read more

मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है | ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है | इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार | “लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |” ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है | ‘पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |” उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते | “जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |” “गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |” और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में … Read more

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

  कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया। वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए। खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है। शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है। “तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है। “सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। “आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं। “अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया। “जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है। ”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

जीते जी इलाहाबाद

यात्रीगण कृपया ध्यान दे .. अब से ठीक कुछ लम्हों बाद हम एक अनोखी यात्रा पर जा रहे हैं | इस यात्रा की पहली खास बात यह है की आप जिस भी देश में, शहर में, गाँव में बैठे हुए हैं वहीं से आप इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं |यूँ तो नाम देखकर लग सकता है की ये यात्रा इलाहाबाद  की यात्रा है जो एक समय शिक्षा का साहित्य का और संस्कृति का केंद्र रहा है | गंगा, जमुना और सरस्वति की तरह इस संगम को भी जब वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी अपनी किताब “जीते जी इलाहाबाद में लेकर आती हैं तो इलाहाबादी अमरूदों की तरह उसकाई खास खुशबू, रंगत और स्वाद समाहित होना स्वाभाविक ही है | जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा  एक ही किताब में ये संस्मरणात्मक यात्रा महज इलाहाबाद की यात्रा नहीं है | ये यात्रा है  आधुनिक हिंदी साहित्य के बेहद जरूरी पन्नों की, ये यात्रा है  उस प्रश्न की, की क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे घर आने पर वो अपनापन महसूस नहीं कर पाते और चार दीवारी के अंदर अपना शहर तलाशते रहते हैं, ये यात्रा है  इलाहाबाद की लोक कला और गंगा जमुनी संस्कृति की, ये यात्रा थी चौक, रानी मंडी, मेहदौरी की, ये यात्रा थी भावनाओं की, ये यात्रा थी तमाम उन विस्थापितों की जो दूसरे शहर या देश में रोटी के कारण बस तो जाते हैं पर उनके सीने में उनका छोटा गाँव या शहर दिल बन के धड़कता रहता है | तभी तो ममता कालिया दी “आमुख” में लिखती हैं कि.. “शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन के वो हमारे स्नायु तंत्र में, हूक बनकर हमारे हृदय तंत्र में, और दृश्य बनकर आँखों के छविगृह में चलता फिरता नजर आता है |” “शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह खुशब, ख्याल और ख्वाब बन कर हमारे अंदर बस जाता है|” मन का अपना ही एक संसार होता है .. जहाँ आप शरीर से होते हैं वहाँ हो सकता है आप पूरे ना हों पर जहाँ आप मन से होते हैं वहाँ आप पूरे होते हैं |  कोई भी रचना कालजयी तब बनती है जब लेखक अपने दर्द से पाठक के किसी दर्द को छू लेता है | वहाँ द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, लेखक -पाठक एक हो जाते हैं .. और रचना पाठक की रचना हो जाती हैं | जो लोग इलाहाबाद में रह रहे हैं या कभी रहे हैं वो उन नामों से जुड़ेंगे ही पर ये किताब हर विस्थापित का दर्द बयान करती है | एक बहुत ही सार्थक शीर्षक है “जीते जी इलाहाबाद” | जब तक जीवन है हमारा अपना शहर नहीं छूटता | शरीर कहीं भी हो, मन वहीं पड़ा रहता है | जैसे ममता दी का रहता है, कभी संगम के तट पर, कभी 370, रानी मंडी में कभी गंगा -यमुना साप्ताहिक अखबार में, कभी मेहदौरी के दीमक लगे सागौन के पेड़ में और कभी एक दूसरे को जोड़ते साहित्यिक गलियारों में|जैसे वो घोषणा कर रही हों की जीवन में वो कहीं भी रहें मन से इलाहाबाद में ही रहेंगी | किताब में ही एक घटना का वर्णन है …. ममता दी लिखती हैं कि, “अरे वे हरे चने कहाँ गए ताजगी से भरे ! यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़ कर छील कर खा रही थी…. इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है | वह गड्ढों-दु चकों से भर ढचर ढूँ शहर जहँ कोई ढंग की जीविका भी नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने रूप रस गंध और स्वाद से सराबोर कर रहा है | कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ, और कितनी कुल्फी| कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे |” मैंने इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा | क्योंकि  ये पंक्तियाँ शायद हर विस्थापित की पंक्तियाँ हैं | मेट्रो शहर सुविधाओं के  मखमली कालीन के नीचे य हमारे “हम को तोड़ कर “मैं” बना देते है | जो कोई भी छोटे शहर से किसी मेट्रो शहर की यात्रा करता है वो इस बात का साक्षी होता है | वो बहुत दिन तक इस “हम” को बचाए रखने की कोशिश करता है पर अंततः टूट ही जाता है | हर मेट्रो शहर का स्वभाव ही ऐसा है | समाज के बाद घर के अंदर पनपते इस “मैं”को “हम” में बचाए रखने की जद्दोजहद शायद हर विस्थापित ने झेली है | मशीन सी गति पर दौड़ता ये शहर हमें थोड़ा सा मशीन बना देता है | मुझे कभी -कभी w w Jacobs की कहानी “The Monkey’s Paw” याद आती है | एक विश पूरी करने पर एक सबसे प्रिय चीज छिन जाएगी | और ना चाहते हुए भी भावनाएँ चढ़ा हम तनख्वाह घर लाते हैं | ममता दी लिखती है, “अपने शहर का यही मिजाज था, तकल्लुफ ना करता था, ना बर्दाश्त करता |इसलिए इलाहाबादी इंसान जितना अच्छा मेजबान होता है उतना अच्छा मेहमान नहीं | एक यात्रा उम्र की भी होती है, जब पता चलता है कि हमारे बुजुर्ग जो बात आज हमसे कह रहे हैं उसका अर्थ हमें 20 साल बाद मिलेगा | जैसा ममता दी लिखती हैं कि, “आज मैं समझ सकती हूँ चाई जी की शिकायत और तकलीफ क्या थी |उनके लिए पंजाब देश था और यू पी परदेश| वे मन मार कर इलाहाबाद आ गईं थीं पर उनकी स्मृतियों का शहर जालंधर उनके अंदर से कभी उखड़ा ही नहीं | उनकी तराजू में हमारा शहर हार जाता |” सांस्कृतिक यात्रा के साथ ममता दी इलाहाबाद के इलाकों में तो ले ही जाती हैं इलाहाबाद के नाम पर भी चर्चा करती हैं | इलाहाबाद से प्रयागराज नाम हो जाने का भी जिक्र है | प्रयाग यानी ऐसी भूमि जिस पर कई यज्ञ हो चुके हों | वो संगम क्षेत्र है | और ‘इलाहाबाद’ लोगों के दिलों में धड़कता हुआ | प्रयाग वानप्रस्थ है तो इलाहाबाद गृहस्थ | अकबर ने कभी जिसका नाम अलाहाबाद किया था वो वापस इलाहाबाद में बदल गया | इस किताब से एक अनोखी जानकारी मिली की इलाहाबाद शब्द इलावास. से आया है | इलावस .. . संसार में बेटी के नाम पर बसा लगभग अकेला शहर … Read more

अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

अंतर्ध्वनि

लय, धुन, मात्रा भाव जो, लिए चले है साथ दोहा रोला मिल करें, छंद कुंडली नाद छंद कुंडली नाद, लगे है मीठा प्यारा सब छंदों के बीच, अतुल, अनुपम वो न्यारा ज्यों शहद संग नीम, स्वाद को करती गुन-गुन जटिल विषय रसवंत, करे छंदों की लय धुन वंदना बाजपेयी दोहा और रोला से मिलकर बने, जहाँ अंतिम और प्रथम शब्द एक समान हो .. काव्य की ये विधा यानी कुंडलियाँ छंद मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | इसलिए आज जिस पुस्तक की बात करने जा रही हूँ, उसके प्रति मेरा सहज खिंचाव स्वाभाविक था| पर पढ़ना शुरू करते ही डूब जाने का भी अनुभव हुआ | तो आज बात करते हैं किरण सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक “अंतर्ध्वनि” की | अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ लेखिका -किरण सिंह जानकी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक बेहद खूबसूरत कवर के अंदर समाहित करीब दो सौ कुंडलियाँ कवयित्री के हृदय की वो अंतर्ध्वनि है जो हमारे समकाल से टकराकर उसके हृदय को ही गुंजायमान नहीं करती अपितु पाठक को भी आज के समय का सत्य सारस सुंदर तरीके से समझा कर कई नई परिभाषाएँ गढ़ती है | अपनी गेयता के कारण कुंडलियाँ छंद विधा जितनी सरस लगती है उसको लिखना उतना ही कठिन है | वैसे छंद की कोई भी विधा हो, हर विधा एक कठिन नियम बद्ध रचना होती है | जिसमें कवि को जटिल से जटिल भावों को नियमों की सीमाओं में रहते हुए ही कलम बद्ध करना होता है | ये जीवन की जटिलता थी या काव्य की, जिस कारण कविता की धारा छंदबद्ध से मुक्त छंद की ओर मुड़ गई | कहीं ना कहीं ये भी सच है की मुक्तछंद लिखना थोड़ा आसान लगने के कारण कवियों की संख्या बढ़ी .. लेकिन प्रारम्भिक रचनाएँ लिखने के बाद समझ आता है की मुक्त छंद का भी एक शिल्प होता है जिसे साधना पड़ता है | और लिखते -लिखते ही उसमें निखार आता है | अब प्रेम जैसे भाव को ही लें .. कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजि यात। भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥ बिहारी —— प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या हरिवंश राय बच्चन ——– चम्पई आकाश तुम हो हम जिसे पाते नहीं बस देखते हैं ; रेत में आधे गड़े आलोक में आधे खड़े । केदारनाथ अग्रवाल तीनों का अपना सौन्दर्य है | पर मुक्त छंद में भी शिल्प का आकाश पाने में समय लगता है और छंद बद्ध में कई बार कठिन भावों को नियम में बांधना मुश्किल | जैसा की पुस्तक के प्राक्कथन में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी रवींद्र उपाध्याय जी की पंक्तियाँ के साथ कहते हैं की तपन भरा परिवेश, किस तरह इसको शीत लिखूँ जीवन गद्ध हुआ कहिए कैसे गीत लिखूँ ? “मगर इस गद्य में जीवन में छंदास रचनाओं की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो कभी पाठक को आंदोलित करे तो कभी अनुभूतिपरक मंदिर फुहार बन शीतलता प्रदान करे |” शायद ऐसा ही अंतरदवंद किरण सिंह जी के मन में भी चल रहा होगा तभी बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ जी के छंद बद्ध रचना लिखने को प्रेरित करने पर उन्होंने छंद बद्ध रचना को विवहित और छंद मुक्त रचना को लिव इन रेलेशन शिप की संज्ञा देते हुए एक बहुत खूबसूरत कविता की रचना की है | जिसे “अपनी बात” में उन्होंने पाठकों से साझा किया है | लिव इन रिलेशनशिप भी एक कविता ही तो है छंद मुक्त ना रीतिरिवाजों की चिंता न मंगलसूत्र का बंधन न चूड़ियों की हथकड़ी न पहनी पायल बेड़ी खैर ! किरण सिंह जी की मुक्त छंद से छंद बद्ध दोहा , कुंडली, गीत आदि की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ और हर बार उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा पाठकों को मनवाया है | भाव प्रवणता और भाषा दोनों पर पकड़ इसमें उनकी सहायक बनी है | इस पुस्तक की शुरूआत “समर्पण” भी लेखक पाठक रिश्ते को समर्पित एक सुंदर कुंडलिया से की है | लेखक पाठकों की भावनाओं को शब्द देता है और पाठक की प्रतिक्रियाएँ उसे हर्षित हो कर बार -बार शब्द संसार रचने का साहस , देखिए तेरा तुझको अर्पण वाला भाव …. अर्पित करने मैं चली, लेकर अक्षर चंद | सज्ज हो गई भावना, बना पुन: नव छंद | बना पुन :नव छंद, लेखनी चली निरंतर | मुझको दिया समाज हमेशा नव -नव मंतर | देती है सो आज , किरण भी होकर हर्षित | रचनाओं का पुष्प गुच्छ है तुमको अर्पित || शुरुआती पृष्ठों पर प्रथम माता सरस्वती की आराधना करते हुए अन्य देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए उन्होंने सूर्यदेव से अपनी लेखनी के लिए भी वरदान मांगा है .. लेकिन यहाँ व्यष्टि में भी समष्टि का भाव है | हर साहित्यकार जब भी कलम उठाता है तो उसका अभिप्राय यही होता है की जिस तरह सूर्य की जीवनदायनी किरणें धरती पर जीवन का कारक हैं उसे प्रकार उसकी लेखनी समाज को दिशा दे कर जीवन की विद्रूपताओं को कुछ कम कर सके , चाहे इसके लिए उसे कितना भी तपना क्यों ना पड़े | मुझको भी वरदान दो, हे दिनकर आदित्य | तुम जैसा ही जल सकूँ, चमकूँ रच साहित्य | चमकूँ रच साहित्य, कामना है यह मेरी | ना माँगूँ साम्राज्य, न चाहूँ चाकर चेरी | लिख -लिख देगी अर्घ्य किरण, रचना की तुमको | कर दो हे आदित्य, तपा कर सक्षम मुझको || अभी हाल में हमने पुरुष दिवस मनाया था | वैसे तो माता पिता में कोई भेद नहीं होता पर आज के पुरुष को कहीं ना कहीं ये लगता है की परिवार में उसके किए कामों को कम करके आँका जाता है | यहाँ पिता की भूमिका बताते हुए किरण जी बताती है कि बड़े संकटों में तो पिता ही काम आते हैं | मेरा विचार है की इसे पढ़कर परिवार के अंदर अपने सहयोग को मिलने वाले मान की पुरुषों की शिकायत कम हो जाएगी … संकट हो छोटा अगर, माँ चिल्लाते आप आया जो संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप | कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा | सूझे … Read more

वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ

वो फोन कॉल

अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more

देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ

देह धरे को दंड

  इंसान ने जब  जंगल से निकल कर जब सभ्य समाज की स्थापना की तो विवाह परंपरा की भी नीव रखी, ताकि परिवार और समाज नियम और कायदों का वहन करते हुए सुचारु रूप से चल सके | इसके पीछे मुख्य रूप से घर के बुजुर्गों और बच्चों का हित देखा गया , परिवार की व्यवस्था देखी  गई |  अगर हिन्दू परंपरा की बात करें तो  धीरे -धीरे आनुवंशिकी का ज्ञान होने पर समगोत्री विवाह भी वर्जित किये गए | सगे रक्त संबंधों में विवाह या  संबंध सिर्फ वर्जित ही नहीं किये  गए बल्कि पाप की दृष्टि से देखे गए | जैसे पिता-पुत्री, माँ -बेटा, ससुर-बहु,साली-जीजा, देवर भाभी आदि | फिर भी ये कम स्तर पर ही सही, चोरी छिपे ही सही, संबंध बनते रहे  .. इसे क्या कहा जाए की तरह तरह से संस्कारित पीढ़ी दर पीढ़ी के बावजूद मनुष्य के अंदर थोड़ा सा जंगल कहीं बचा हुआ है .. किसी खास पल में, किसी  खास स्थिति में उसकी देह में उग आता है , जहाँ सारे नियम सारी वर्जनाएँ टूट जाती हैं और रह जाती  है सिर्फ देह  और उसकी भूख | क्या यही “देह धरे को दंड” है ? देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ   ग्रीक मइथोलॉजी  में भी ईडीपस की कथा है .. जिसमें  अपने संबंध से अपरिचित माँ और पुत्र का विवाह जानकारी होने पर एक त्रासदी में बदलता है | जहाँ माँ आत्महत्या कर लेती है और पुत्र अपनी आँखें फोड़ लेता है | पुराणों में भी ऐसी कथाएँ हैं | हालांकि पुराण हो या कहीं की माइथोलॉजी उन्हें साक्ष्य  के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है| हालंकी वो हमें बड़ी सुविधाजनक स्थिति में जरूर रखते हैं |हम जब चाहे उन्हे मिथक मान कर कहानी को अपनी तरह , अपनी भाषा में  प्रस्तुत कर दें और जब चाहें उन्हें तर्क के दौरान साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करें | साक्ष्य हों या ना हों  पर कहीं ना कहीं वो इस ओर ईशारा अवश्य करते हैं की लिखने वाले ने अपने समकालीन समाज में ऐसा कुछ अवश्य देखा होगा,जिसे उसने तथाकथित कापनिक आदि पुरुष या देवी देवताओं पर लिख कर उस पर सत्य की मोहर लगाने का  प्रयास  किया |आखिर कार चेतना और देह के मिश्रण बने जीव पर जब तब देह हावी हो जाती रही है | और इसी विचलं नैन, मिथकीय चरित्रों से लेकर  अब तक और विश्व साहित्य से हिन्दी साहित्य तक ऐसी कहानियाँ लिखी गई हैं | जिनमें कई के उदाहरण सपना जी अपने संपादकीय में देती हैं | सपना जी लिखती हैं की “साहित्य में वर्जित या अश्लील कुछ भी नहीं होता |लेकिन साहित्य अखबार में छपी किसी खबर या चटपटी रिपोर्टिंग भी नहीं है |बड़ी से बड़ी बात को भाषा, शिल्प के कौशल से ग्राह्य बनाना ही लेखक की कसौटी है |”   वास्तव में ये कहानियाँ सकरी पगडंडी पर चली है | हर लेखक ने संतुलन बना कर चले का प्रयास किया है | इनमें से कई  कहानियाँ मन में चुभती और गड़ती हैं , प्रश्न पूछती हैं की आखिर सभ्य सामज के लिबास के अंदर ये जंगली बर्बर पशु कब और कैसे बस देह बन जाता है.. आदिम देह, अपनी आदिम भूख के साथ | मेरे अनुसार इस संग्रह की कहानियों को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है |   1) एक वो जो इसकी विभीषिका दिखाते हुए कहीं ना कहीं इसका लॉजिक भी ढूँढने का प्रयास करती हैं | जाहिर  हैं इनमें एकदम निकट के या कहे सगे रक्त  संबंध नहीं आते | और कहीं ना कहीं ये संबंध दोनों की इच्छा से बने हैं |   2)  कुछ कहानियाँ  शब्दों में ढाला गया दर्द और कलम से उकेरे गए आँसू है | यहाँ एक शोषक है और एक शोषित ….जहाँ दुनिया के कुछ सुंदर रिश्ते इतने कलंकित हो गए हैं की अवसाद और निराशा के सिवा कुछ नहीं बचता  | 3) कुछ कहानियाँ इसके गंभीर परिणाम की ओर इशारा करती हैं |   मंटो की कहानी “किताब का खुलासा” एक दुबली पतली लड़की विमला की कहानी है |जो अक्सर लड़कियों के झुरमुट में गुम हो जाया करती | अनवर से उसका वास्ता उसके यहाँ किताब माँगने से है .. वो उसे कुछ बताना चाहती है |पर जिंदगी भी तो एक किताब ही है जो अक्सर बंद ही रह जाती है .. या फिर खुलती भी है तो उस समय जब उसे पढ़ना ही बेमानी हो जाता है |   “खिड़की के साथ लग कर उसने नीचे बड़ी बदरू की तरफ देखा और फिर अनवर से कहा, “जो मैं ख ना सकी और तुम समझ ना सके अब कहने और समझने से बहुत पार चला गया है ….तुम जाओ मैं सोना चाहती हूँ |”   देवर या जेठ के साथ विधवा स्त्री का अक्सर विवाह करा दिया जाता है | पर संबंधों में रहते हुए ये धोखा है, फरेब है बेवफाई है | फिर क्यों बन  जाते हैं ऐसे रिश्ते | ये कहानियाँ उन परिस्थितियों को खंगालती हैं |  सुभाष नीरव जी द्वारा पंजाबी से अनूदित प्रेम प्रकाश  जी की कहानी “हेड लाइन” मरते हुए पुत्र समान देवर को बचाने में लांघी गई लक्ष्मण रेखा है |   सुधा ओम  ढींगरा जी की कहानी “विकल्प” एक ऐसी परिस्थिति  पर है जब परिस्थितियाँ कोई विकल्प ना छोड़े और पूरा परिवार मिल कर ये फैसला ले | इस जटिल स्थिति के वैज्ञानिक कारण उन्होंने दिए हैं | पर प्रश्न वही है की क्या हर स्त्री इस कदम के लिए तैयार हो सकती है ? जेठानी पर अंगुली उठाने वाली देवरानी  इस जटिल स्थिति को जान कर स्वयं  क्या फैसला लेगी ?   वरिष्ठ लेखक  “रूप सिंह चंदेल” जी की कहानी “क्रांतिकारी” युवा क्रांतिकारी  विचार रखने वाले शांतनु और उसकी पत्नी शैलजा की कहानी है | विस्तृत फलक की ये  कहानी में छात्र राजनीति, अपराधियों का पनाहगार बने जेनयू हॉस्टल, घोस्ट  राइटिंग, नौकरी पाने के लिए की गई जी हजूरी और शांतनु की दिल फेंक प्रवत्ति सब को अपने घेरे में लेती है | अंततः ये क्रांति भी बिन बाप की बेटी के नौकरी पाने की विवशता में  रिश्तों के समीकरण को उलटते हुए देह के फलक पर सिमिट जाती  है | … Read more

दूसरी पारी – समीक्षा

दूसरी पारी

कुछ दिनों पहले एक साझा संस्मरण संग्रह ‘दूसरी पारी’ मेरे हाथ आई थी। समयाभाव या अन्य कारणों से पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन जब पढ़ा तो …वह आपके सामने है। दस मिनट समय हो पढ़ने को जरूर निकालेंगे। क्योंकि यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का संग्रह मात्र नहीं है, महिला लेखिकाओं ने परिवार और समाज को जीने की व्यथा: कथा का सजीव चित्रण किया है। पुस्तक जबतक आपके हाथ नहीं आती है, मेरे पढ़े को ही एक नजर देख लें। शायद हमने जो आजतक न सोचा हो, आज के बाद सोचने को मजबूर हो जाएं। अपनों के दिए दंश की गाथा: ‘दूसरी पारी’ “छोरी निचली बैठ, क्यों घोड़ी सी उछल रही है.. तन के मत चल, नीची निगाह करके चल..मुंह फाड़ के क्यों हंस रही है.. छत पे अकेली मत बैठ..दरवज्जे पे क्यों खड़ी है? फ्रॉक नीची करके बैठ।” ये पंक्तियां मेरी नहीं, अर्चना चतुर्वेदी जी की है। सत्रह महिलाओं के आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह “दूसरी पारी” की एक लेखिका का। एक लेखिका की मां, चाची, बुआ, दादी की इन नसीहतों में ही समाज का आईना है। बेटी के लिए किसी एक मां को नहीं, माओं को समझने की जरूरत है। किसी समाज को समझना हो, तो पहले उस समाज की महिलाओं को समझना होगा और महिलाओं को समझने के लिए रीति-रिवाजों और परंपराओं की जड़ों में जाना भी जरूरी है। क्योंकि भारतीय समाज की अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं पुरुषों की नहीं, परंपराओं की गुलाम हैं। परंपराओं की जंजीरों से बंधी हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपराओं और रीति-रिवाजों की वाहक हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने का सर्वाधिकार इनके नाम सुरक्षित है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तित ऐसी सत्ता की पात्रता भी उन्हीं के पास है। क्योंकि दिखने में तो लगता है कि शायद ही किसी पुरुष ने अपने घर की महिलाओं को किसी रीति-रिवाजों या परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया हो। क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए महिलाओं को महिलाएं ही प्रेरित करती रही हैं, चाहे सास हो, मां या पड़ोसन। भले ही दिखने में न लगे, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में पितृसत्तात्मक समाज अपना फन काढ़े डराने को बैठा होता है और फनों का विष लिए तथाकथित पंडित और मौलबी घर-घर घूमते रहते हैं। यही कारण है माओं का अंतर्विरोध दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों के साथ ही खड़ी दिखती हैं। पुरूष पति हो, पिता या पुत्र। मतलब घर का अंतर्विरोध कभी विरोध बन ही नहीं पाता। इन लेखिकाओं के लिए बीते कल की बातों को जगजाहिर करना कितना आसान था? – ‘अपने बारे में लिखना आसान नहीं है। हमसब के अंदर बहुत कुछ छिपाने की प्रवृत्ति होती है, खासकर महिलाओं में। कभी खंगालिए अपने आसपास के औरतों के दिलों को ‘सब ठीक है’ के अंदर कितने समंदर दबे होते हैं।’… ‘अच्छी लड़कियां जुबान नहीं खोलती’- (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 143 ) इसी समंदर से कुछ सीपियां चुनने का साहस कल की कुछ स्वयंसिद्धाओं और आज की लेखिकाओं ने कर दिखाया है। सत्रह लेखिकाओं ने अपनी बात साझा करने के लिए भी साझे संग्रह का ही सहारा लिया। कारण भी इसी संग्रह की एक लेखिका से ही पूछ लेते हैं – ‘जब बाहर के रास्ते बंद हों, तो एक दूसरे का सहारा बन जाओ।….दरअसल पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि एक दूसरे का साथ दिए बिना खुल नहीं सकती, जो इसे समझ जाते हैं वो अपने ही नहीं, पूरे समाज में परिवर्तन के वाहक बनते हैं।’ – (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 149) वंदना जी का संस्मरण साफ तौर पर इशारा करता है कि कविता कहानी के लिए प्रेरित करने वाले पिता को अपनी बेटी के मेडिकल की परीक्षा में सफलता पर गर्व नहीं होता, उससे अधिक डॉक्टर जमाई की खोज का दुरूह कार्य सताने लगता है। पिता की इच्छा-अनिच्छा को देख सपनों को संजोए लड़की अपने चयन की खुशी का इजहार भी नहीं कर सकती, उल्टे पूरी रात तकिया भिंगोने के बाद सुबह होते ही आगे बीएससी और एमएससी की पढ़ाई के निर्णय की सूचना पिता को इस तरह देती हैं, जैसे अपने लिए चाव से बनाए गए भोजन में छिपकली गिर गई पापा, तो क्या हुआ घर में जो कुछ उपलब्ध है वही खा लेंगे, जैसा ही था। अक्सर ये छिपकलियां मेहनत से तैयार करने वाली लड़की के भोजन की थाली में ही क्यों गिरती है? किसी पुरूष की थाली में क्यों नहीं? जीवन के लिए ऐसे निर्णय पर भी पिता की आंखें नम नहीं होती(होती भी होंगी, तो दिखती नहीं), नजर सामने के समाचार पत्र से नहीं हटती, बेटी को प्रश्नवाची निगाहों से नहीं देख पाते कि ऐसा त्याग! किसके लिए और क्यों? क्योंकि पिता के लिए बेटी का डॉक्टर बनना महत्वपूर्ण नहीं था। शादी कर घर से विदा कर देना प्राथमिकता में था। लेकिन तब भी मां तटस्थ रही। पिता-पुत्री के बीच की संवेदनाओं की अनकही दीवार को गिराने में मदद को आगे नहीं बढ़ी, अगर बढ़ी होती तो शायद पिता अपनी लाडली के सपनों को ढहते हुए नहीं देखते रहते। उल्टे ‘पापा जो कह रहे हैं ठीक ही होगा’ की निश्चिंतता पितृसत्तात्मक समाज के फन का दंश नहीं तो और क्या है? कोई मां भला ऐसा क्यों चाहेगी? मां अपने पति के निर्णय के प्रति आश्वस्त हैं और पति के पेपर पढ़ने से नजर नहीं हटने की तरह वह भी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त है। क्या गरीबी, भुखमरी पर बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘लपक चाटते जूठा पत्तल….आग आज इस दुनिया भर को’ जैसा आक्रोश कहीं दिखा? नहीं न। फिर हम क्यों कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है? दर्पण तो वही दिखाता है जो हम दिखाना चाहते हैं और दर्पण पुरुष सत्ता के हाथ में है। क्योंकि ऐसा थोड़े न है कि एक अकेली वंदना है, समाज की नजरों से ओझल हो गई होगी? वन्दनाओं की भरमार है। हर वन्दनाओं ने तकिया और बाथरूम को अपना साथी बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि ये संस्मरण लिखने वाली किसी एक वंदना का दर्द है। आज भी लाखों वन्दनाएं किसी कोने में सिसकने, तकिया भिंगोने और बाथरूम में सूजे चेहरे पर पानी का छींटा मार फ्रेश होकर किचेन और घर की जिम्मेदारियों … Read more