एक टीचर की डायरी – नव समाज को गढ़ते हाथों के परिश्रम के दस्तावेज

एक टीचर की डायरी

    “वो सवालों के दिन वो जवाबों की रातें” …जी हाँ, अपना बचपन याद आते ही जो चीजें शुरुआत में ही स्मृतियों के अँधेरे में बिजली सी चमकती हैं उनमें से एक है स्कूल | एक सी स्कूल ड्रेस पहन कर, दो चोटी करके स्कूल जाना और फिर साथ में पढना –लिखना, लंच शेयर करना, रूठना-मनाना और खिलखिलाना | आधी छुट्टी या पूरी छुट्टी की घंटी |  पूरे स्कूल जीवन के दौरान जो हमारे लिए सबसे ख़ास होते हैं वो होते हैं हमारे टीचर्स | वो हमें सिर्फ पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि गढ़ते भी है | टीचर का असर किसी बाल मन पर इतना होता है कि एक माँ के रूप में हम सब ने महसूस किया होगा कि बच्चों को पढ़ाते समय वो अक्सर अड़ जाते हैं, “ नहीं ये ऐसे ही होता है | हमारी टीचर ने बताया है | आप को कुछ नहीं आता |” अब आप लाख समझाती रहिये, “ऐसे भी हो सकता है” , पर बच्चे बात मानने को तैयार ही नहीं होते |   एक समय था जब हमारी शिक्षा प्रणाली में गुरु का महत्व अंकित था | कहा जाता था कि “गुरु गोविंद दोऊ खड़े ……” गुरु का स्थान ईश्वर से भी पहले है | परन्तु धीरे –धीरे शिक्षा संस्थानों को भी बाजारवाद ने अपने में लपेटे में ले लिया | शिक्षा एक व्यवसाय में बदल गयी और शिक्षण एक प्रोफेशन में | गुरु शिष्य के रिश्तों में अंतर आया, और श्रद्धा में कमी | बात ये भी सही है कि जब हम किसी काम पर ऊँगली उठाते हैं तो इसमें वो लोग भी  फँसते हैं जो पूरी श्रद्धा से अपना काम कर रहे होते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनीयर, सरकारी कर्मचारी और शिक्षक | क्या हम दावे से कह सकते हैं कि हमें आज तक कोई ऐसा डॉक्टर नहीं मिला , सरकारी कर्मचारी…आदि  नहीं मिला जिसने नियम कानून से परे जा कर भी सहायता ना करी हो | अगर हम ऐसा कह रहे हैं तो झूठ बोल रहे हैं या कृतघ्न हैं | अगर टीचर्स के बारे में आप सोचे तो पायेंगे कि ना जाने कितनी टीचर्स आज भी आपके जेहन दर्पण में अपनी स्नेहमयी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार छवि के रूप में प्रतिबिंबित हो रही होंगी | कितनी टीचर्स के कहे हुए वाक्य आपके जीवन सागर में लडखडाती नाव के लिए पतवार बने होंगे , तो कितने अँधेरे के दीपक | कितनी बार कोई टीचर अचनाक्ज से मिल गया होगा तो सर श्रद्धा सेझुक गया होगा |   अगर हम टीचर्स की बात करें तो इससे बेहतर कोई प्रोफेशन नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षा के २० -२२ वर्ष पूरे करते समय हर विद्यार्थी का नाता स्कूल, कॉलेज से रहता है | समय पर जाना –आना, नियम, अनुशासन यानि एक ख़ास दिनचर्या की आदत पड़ जाती है | टीचर्स को नौकरी लगते ही अपने वातावरण में कोई खास बदलाव महसूस नहीं होता और ना ही नए माहौल से तारतम्य बनाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है | सबसे खास बात जहाँ और प्रोफेशंस में बदमिजाज, बददिमाग, प्रतिस्पर्द्धी लोगों से जूझना होता है वहीँ यहाँ मासूम नवांकुरों से जिनके भोले मन ईश्वर के बैलेंसिंग एक्ट के तहत सारी दुनिया की नकारात्मकता को साध रहे होते हैं |   ये तो हुई हमारी आपकी बात …एक टीचर क्या सोचता/सोचती  है …जिस पर जिम्मेदारी है कच्ची मिटटी में ऐसे बीज रोपने की जो कल छायादार वृक्ष बने | उसका काम केवल बीज रोप देना ही नहीं, उसे ये सुनिश्चित भी करना है कि हर दिन उन्हें धूप , हवा, पानी सब मिले | एक शिक्षक वो कृषक है जिसके रोप बीज २० -२२ साल बाद पल्लवित, पुष्पित होते हैं | जरूरी है अथक परिश्रम, असीम धैर्य, जरूरी है मन में उपजने वाली खर-पतवार  को निकालना, बाहरी दुष्प्रभावों से रक्षा करना | क्या ये केवल  सम्बंधित पीरियड की घंटी बजने से दोबारा घंटी बजने तक का साथ है | नहीं …ये एक अनवरत साधना है | इस साधना को साधने वाले साधक टीचर्स के बारे में हमें पता चलता है “एक टीचर की डायरी से” प्रभात प्रकशन से प्रकाशित इस किताब में भावना जी ने अपने शिक्षक रूप में आने वाली चुनौतियों, संघर्षों, स्नेह और सम्मान सबको अंकित किया है | पन्ना –पन्ना आगे बढ़ते हुए पाठक एक नए संसार में प्रवेश करता है जहाँ कोई शिष्य नहीं बल्कि पाठक, शिक्षक की ऊँगली थाम कर कौतुहल से देखता है लगन, त्याग और कर्तव्य निष्ठा के प्रसंगों को |   भावना जी को मैं एक मित्र, एक सशक्त लेखिका के रूप में जानती रही हूँ पर इस किताब को पढने के बाद उनके कर्तव्यनिष्ठ व् स्नेहमयी  शिक्षक व् ईमानदार नागरिक, एक अच्छी इंसान  होने के बारे में जानकार अतीव हर्ष हुआ है | कई पृष्ठों पर मैं मौन हो कर सोचती रह गयी कि उन्होंने कितने अच्छे तरीके से इस समस्या का सामाधान किया है | इस किताब ने मुझे कई जगह झकझोर दिया जहाँ माता –पिता साफ़ –साफ़ दोषी नज़र आये | जैसे की “रिजल्ट” में | बच्ची गणित में पास नहीं हुई है पर माता पिता को चिंता इस बात की है कि उन दो लाख रुपयों का क्या होगा जो उन्होंने फिटजी की कोचिंग में जमा करवाए हैं … “पर मिस्टर वर्मा ! सोनम शुरू से मैथ्स में कमजोर है, आपने सोचा कैसे कि वो आई आई टी में जायेगी ?” “ नहीं मिस वो जानती है कि उसे आई आई टी क्लीयर करना है | मैं उसे डराने के लिए धमकी दे चूका हूँ कि अगर दसवीं में ९० प्रतिशत से कम नंबर आये …तो मैं सुसाइड कर लूँगा …फिर भी ..|” हम इस विषय पर कई बार बात कर चुके हैं कि माता –पिता अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर डाल रहे हैं | पर शिक्षकों को रोज ऐसे माता –पिता से दो-चार होना पड़ता होगा | उनकी काउंसिलिंग भी नहीं की जा सकती | सारे शिष्टाचार बरतते हुए उन्हें सामझाना किता दुष्कर है |   “अंगूठी” एक ऐसी बच्ची का किस्सा है जो शरारती है | टीचर उसे सुधारना चाहती है पर उसकी उदंडता बढती जा रही है | और एक दिन वह अपनी सहपाठिन से ऐसा कठोर शब्द ख … Read more

समीक्षा – कहानी संग्रह विसर्जन

प्रस्तुत है डेजी नेहरा के द्वारा वंदना बाजपेयी के कहानी संग्रह ‘विसर्जन ‘की समीक्षा समीक्षा – विसर्जन (कहानी-संग्रह) वंदना वाजपेयी के 2019 में आये कहानी-संग्रह “विसर्जन” की 11 अविस्मरणीय कहानियों में पहली ‘विसर्जन’ से लेकर अंतिम ‘मुक्ति’ तक हर कहानी अपने आप में सोचने पर विवश करती है. आम माध्यम परिवारों के दयनीय-बेकुसूर पात्रों की ये कथाएँ कभी वर्तमान में आस-पास की लगती हैं, कभी अतीत के किसी देखे-सुने पात्र की याद दिलाती हैं. महत्वपूर्ण यह है कि फिर भी पाठक के दिल को छू कर, उसकी आँखों में झाँक ऐसे सवाल कर बैठती हैं जिनका जवाब या तो पाठक के पास है नहीं या घिसी-पिटी सामाजिक मान्यताओं की अनदेखी स्वीकार्यता पाठक को इस कदर खामोश एवं लाचार कर देती है कि अश्रु धारा स्वतः ही बहने लगती है. एक कहानी पढ़ने पर पुस्तक बंद कर भावुक हो आँसू टपकाने के पश्चात अगली पढ़ने के लिए ‘ब्रेक’ लेना ही लेना ही पड़ता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि आँसू सुखाने हैं, अपितु इसलिए कि वो पात्र और उसकी परिस्थितियाँ आपके मानस पटल पर छा जाती हैं और विश्लेषण पर मजबूर करती हैं. वंदना जी स्वयं मानती हैं कि औरत होते हुए वह स्त्रियों के दर्द को अधिक समझती हैं, अतः अधिकतर पात्र स्त्री ही हैं. चाहे वह ‘अशुभ’ की दुलारी हो जिसके माथे पर सदा अभागी होने का ठप्पा इस क़दर रहा कि दुर्घटनाग्रस्त हो मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी सरकारी मुआवज़े की रक़म के पति और भाई (जो जीते जी उससे पीछा छुड़ाने में लगे थे) में आधे-आधे बँटने पर दोनों के द्वारा वह ‘अशुभ’ ही कहलाई क्यूँकि रक़म बँट गयी, या ‘काकी का करवाचौथ’ की काकी जिसने असली सुहाग को राम और खुद को अहिल्या मान अंतहीन प्रतीक्षा की दोषमुक्त होने के लिए, किन्तु उसे राम ने नहीं ‘ज्ञान’ ने मुक्त किया. पुरुषों के दिखते दोषी होने पर भी इल्ज़ामों के घेरे में स्त्री ही है. ‘पुरस्कार’, ‘फॉरगिव मी’, ‘अस्तित्व’ व ‘मुक्ति’ बिलकुल आज की कहानियाँ हैं जो वास्तव में अपने आस-पास के ऐसे पात्रों (जिनमें पति, बेटियां, बेटे शामिल हैं) को यदि पढ़वा दी जाएँ तो उनके जीवन की पेचीदगियां सुलझ सकती हैं. ‘दीदी’ सामाजिक बंधनों में बंधे रिश्तों, खून के रिश्तों और मन के पवित्र रिश्तों के सार्थक-निरर्थक पहलू को दर्शाती मार्मिक कहानी है. विशेषतः बहुत सी कहानियों में हम मनुष्यों पर अपनी-अपनी त्रासदियों के कारण छाते जा रहे मानसिक अवसाद की छाया नज़र आती है, जिसका अहसास लेखिका बहुत कुशलता से करवाती है. इस कड़ी में सबसे दमदार कहानियाँ हैं – ‘विसर्जन’ और ‘चूड़ियाँ’, जिनमें पात्र की मानसिक अवस्था या तो समझ में आने में बहुत देर लग जाती है, या जान-बूझ कर परम्पराएँ निबाहने हेतु उसे अनदेखा कर किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ किया जाता है. वंदना जी एक अत्यंत सुलझी हुई साहित्यकारा हैं जो वर्तमान में परिस्थितियों की ज़िम्मेवारी भली-भाँति समझते हुए मानसिक अवसाद जैसे विषय पर न केवल पात्रों के साथ न्याय करती हैं, अपितु एक मनोवैज्ञानिक की तरह पाठकों को भी जीवन में ऐसे पात्रों के साथ न्याय करने के तरीके समझाती-सिखाती प्रतीत होती हैं. अंततः मैं उनको ‘विसर्जन’ कहानी संग्रह के लिये बहुत बधाई देती हूँ और भविष्य के लिये शुभकामनाएँ देती हूँ कि वे अपने यथार्थ को चित्रित करते साहित्य के ज़रिये पाठकों के जीवन की विचित्र उलझनों को विसर्जित करती रहें. डॉ. डेज़ी Dr Daisy Associate Prof. & Head Dept. of English, BPS Institute of Higher Learning Director, Women Studies Centre  Additional Public Relations Officer Haryana, INDIA यह भी पढ़ें … बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर समीक्षा –कहानी संग्रह किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ) गयी झुलनी टूट -उपन्यास :उषा किरण खान विसर्जन कहानी संग्रह पर किरण सिंह की समीक्षा आपको  लेख “ समीक्षा -कहानी संग्रह विसर्जन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; review , book review,  Hindi book , story book, , vandana bajpai, emotional stories

डस्टबिन में पेड़ -शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ

  डस्टबिन में पेड़ आशा शर्मा जी का नया बाल कहानी संग्रह है | पेशे से इंजिनीयर आशा जी कलम की भी धनी हैं | इस बाल कहानी संग्रह में २५ कहानियाँ हैं जो बच्चों के मन को सहलाती तो हैं ही एक शिक्षा बजी देती हैं | आइये रूबरू हिते हैं ‘डस्टबिन में पेड़’ से … डस्टबिन में पेड़ –शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ   बचपन जीवन की भोर है | इस भोर में आँख खोलते हुए नन्हे शिशु को जो कुछ भी दिखाई देता है वो सब कुछ कौतुहल से भरा होता है …फिर चाहें वो सुदूर आसमान में उगता हुआ लाल गोला हो, या काली रात की चादर के नीचे से झाँकते टीम –टीम करते बल्ब | बालमन कभी समझना चाहता है दादाजी की कड़क आवाज में छिपा प्यार, तो कभी माँ की गोल-गोल रोटियों का रहस्य | कभी उसे  स्कूल का अनुशासन बड़ा कठोर लगता है तो कभी छोटे भाई /बहन का आगमन अपने सम्राज्य में सेंध | अब उन्हें समझाया कैसे जाए |हम सब कभी बच्चे रहे हैं फिर भी बड़े होते ही एक ना एक बार ये जरूर कहा होगा कि “बच्चो को समझाना कोई बच्चों का खेल नहीं”| इस काम में अक्सर हमारे मददगार होते हैं किस्से और कहानियाँ | कुछ किस्से दादी –नानी के जमाने से चले आ रहे हैं जो पुरातन होने के बावजूद चिर नूतन हैं | आश्चर्य होता है कि आज कल के बच्चे भी उन किस्सों को मुँह में ऊँगली दबा कर वैसे ही सुनते हैं जैसे कभी हमने सुने थे | फिर भी बदलते ज़माने के साथ दुनिया भर के बच्चों की चुनौतियां बढ़ी हैं तो उन किस्सों को सुनाने की दादी-नानी की चुनौती भी | दुनिया भर का बाल साहित्य दादी नानी की इस चुनौती को कम करने का प्रयास है | ये अलग बात है बच्चों की मांग के अनुसार ना बाल फिल्में बनती हैं न बाल साहित्य लिखा जाता है | मजबूरन बच्चों को बड़ों की किताबों में मन लगाना पड़ता है | जो उनके लिए दुरूह होती है | जिस कारण बचपन से ही उनकी साहित्य से दूरी हो जाती है | ये ख़ुशी की बात है कि इधर कई साहित्यकार बाल साहित्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझ कर इस दिशा में आगे आये हैं | बाल साहित्य केवल किस्से कहानी तक सीमित मनोरंजन भी हो सकता है पर अधिकतर का  उद्देश्य ये होता है कि किस्से कहानी के माध्यम  से उन्हें कोई शिक्षा  दे दी जाए या उनके मन की कोई गुत्थी सुलझा दी जाये | अलग –अलग वय के बच्चों की अलग –अलग समस्याएं होती हैं और उनके अलग –अलग समाधान | अपने बच्चों को बाल साहित्य से सम्बंधित कोई किताब खरीदते समय ये देखना जरूरी होता है कि वो किस उम्र के बच्चों की है | लेखिका -इंजी.आशा शर्मा आज बाल साहित्य की एक ऐसी ही किताब की चर्चा कर रही हूँ जिसका नाम है “डस्टबिन में पेड़” इसको लिखा है आशा शर्मा जी ने | जो लोग नियमित पत्र –पत्रिकाएँ पढ़ते हैं वो आशा जी की रचनात्मकता से जरूर परिचित होंगे |आशा जी निरंतर लिख रही हैं और खास बात ये हैं कि कविता कहानी से लेकर बाल साहित्य तक उन्होंने साहित्य के हर आयाम को छुआ है | उनसे मेरा परिचय उनकी लेखनी के माध्यम से ही हुआ था जो शमी के साथ और मजबूत हुआ | ये किताब आशा जी ने मुझे सप्रेम भेंट की | उस समय मैंने कुछ कहानियाँ पढ़ी फिर लेखन, पठन –पाठन सब कुछ जैसे कोरोना के ब्लैक होल में चला गया | इधर जो भी किताब उठाई वो आधी –अधूरी सी छूट गयी | यही हाल लिखने का भी रहा | आज जब संकल्प ले कर किसी किताब को पढने का मन बनाया जो ये झांकती हुई सी मिली | मुझे लगा इस समय के लिए ये किताब सबसे सही चयन है क्योकि  इंसान कितना भी बड़ा हो जाए उसके अन्दर एक बच्चा जरूर छिपा रहता है,  और क्या पता इसको पढ़कर मेरे अन्दर किताब पढने की जो धार कुंद हो गयी है वो फिर से पैनी हो जाए |   यकीन मानिए शुरू में तो यूँही पन्ने पलते फिर तो लगा जैसे समय कि ऊँगली पकड कर फिर से बचपन मुझे खींचे लिए जा रहा है | वो इमली खाना, या पेड़ों पर चढ़ने की कोशिश या फिर अपनी छोटी छोटी चिंताओं को घर के बड़ों ऐसे बताना जैसे उससे बड़ी समस्या कोई हो ही नहीं सकती और उनका हँसते –हँसते लोट –पोट हो जाना | प्रस्तुत संग्रह में करीब 25 कहानियाँ हैं  जो रोचक तो है हीं  शिक्षाप्रद भी हैं | जैसे ‘असली सुन्दरता ‘में ब्लैकी भालू अपने दोस्त की खरगोश की सुन्दरता देखकर खुद भी पार्लर जाता है और बाल सीधे व् नर्म करवा लेता है पर इससे उसकी समस्या कम करने के स्थान पर बढ़ जाती है | अंतत : उसे समझ आता है कि हम जैसे हैं वैसे ही सबसे अच्छे हैं | आजकल के बच्चों में भी सुदर दिखने का क्रेज है |माता –पिताखुद उन्हें पार्लर  ले जा रहे हैं | सुन्दर दिखने का ये बाज़ार खुद को कमतर समझने की नीव पर आधारित है | इस कहानी के माध्यम से बच्चों को जैसे है वैसा ही सबसे अच्छे हैं की शिक्षा भी मिल जाती है | ऐसी ही एक कहानी है ‘जिगरू मेनिया’ जिसमें जिगरू हाथी के कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतते ही जंगल का हर जानवर अपने बच्चे को कुश्ती सिखाने में लग गया | अब जिराफ की तो गरदन ही बार –बार अखाड़े के बाहर निकल जाती और फाउल हो जाता | कमजोर जानवर तो बार –बार पिट जाते | अंत में फैसला हुआ कि हर कोई कुश्ती के लिए नहीं बना है किसी को ऊँची कूद तो किसी को भाला फेंकने  का खेल खेलना ज्यादा उचित है | वस्तुत : आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि सब चाहते हैं कि उनका बच्चा गणित व् विज्ञानं में अच्छा करके इंजीनियर बने पर क्या हर बच्चे की रूचि उसमें होती है ? किसी को कविता पसंद तो किसी को चित्रकारी | ये कहानी सांकेतिक भाषा में उसी समस्या का समाधान है … Read more

सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ

    अंजू शर्मा जी से मेरा परिचय “चालीस साला औरतें” से हुआ था | कविता फेसबुक में पढ़ी और परस्पर मित्रता भी हुई | इसी कविता की वजह से मैंने बिंदिया का वो अंक खरीदा था | उनका पहला कविता संग्रह “कल्पनाओं से परे का समय”(बोधि प्रकाशन) लोकप्रिय हुआ | और  मैं शुरू –शरू में उनको एक सशक्त कवयित्री के रूप में ही जानती रही परन्तु हौले –हौले से उन्होंने कहानियों में दस्तक दी और पहली ही कहानी से अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई | पिछले कुछ वर्षों से वो कहानी के क्षेत्र में तेजी से काम करते हुए एक सशक्त कथाकार के रूप में उभरी हैं | पिछले वर्ष उनका कहानी संग्रह आया, “एक नींद हज़ार सपने”(सामयिक प्रकाशन) और इस वर्ष भावना प्रकाशन से “सुबह ऐसे आती है “आया  | इसके अतिरिक्त डायमंड प्रकाशन से उनका उपन्यास “ शंतिपुरा- अ टेल  ऑफ़ लव एंड ड्रीम्स” आया है | इसके  अतिरिक्त ऑनलाइन भी उनका उपन्यास आया है | वो निरंतर लिख रही हैं | उनके साहित्यिक सफ़र के लिए शुभकामनाएं देते हुए आज मैं बात करुँगी उनके दूसरे कहानी संग्रह “ सुबह ऐसे आती है “ के बारे में ….   वैसे शेक्सपीयर ने कहा है कि “नाम में क्या रखा है” पर इस समय मेरे जेहन में दो नाम ही आ रहे हैं | उनमें से एक है “एक नींद हज़ार सपने” तो दूसरा “सुबह ऐसे आती है “ | एक कहानी संग्रह से दूसरे तक जाते हुए नामों की ये यात्रा क्या महज संयोग है या ये आती हुई परिपक्वता  की निशानी या  एक ऐलान | यूँ तो नींद से जागने पर सुबह आ ही जाती है | परन्तु सपनों भरी नींद से जागकर निरंतर परिश्रम करते हुए “सुबह ऐसे आती है “ का ऐलान एक समर्पण, निष्ठां और संकल्प का ऐलान है | तो साहित्यिक यात्रा के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक ले जाता है |ऐसा कहने के पीछे एक विशेष उद्देश्य को रेखांकित करना  है | वो है एक स्त्री द्वारा अपने फैसले स्वयं लेने की शुरुआत करने का | यह एक स्त्री के जीवन में आने वाली सुबह है, जहाँ वो पितृसत्ता को नकार कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेने का संकल्प करती है | सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ अंजू शर्मा जी का कहानी कहने का एक सिग्नेचर स्टाइल है | वो कहानी की शुरुआत  बहुत ही इत्मीनान से करती हैं …शब्द चित्र बनाते हुए, और पाठक उसमें धंसता जाता है | हालाँकि इस कहानी संग्रह  में कहने का लहजा थोड़ा जुदा है पर उस पर अंजू शर्मा जी की खास शैली दिखाई देती है | जहाँ उनकी कवितायें बौद्धिकता का जामा  पहने होती हैं वहीँ कहानियाँ आस –पास के जीवन को सहजता से उकेरती हैं | पहले कहानी संग्रह में वे ज्यादातर वो कहानियाँ लायी थी जो समाजिक सरोकारों से जुडी हुई थी पर इस कहानी संग्रह में वो रिश्तों की उलझन से उलझती सुलझती कहानियाँ  लायी हैं | क्योंकि रिश्ते हमारे मन और भावनाओं से जुड़े हैं इसलिए  ज्यादातर कहानियों में पात्रों का मानसिक अंतर्वंद व् आत्म संवाद उभरकर आता है | रिश्तों के सरोकार भी सरोकार ही होते हैं | जहाँ सामाजिक सरोकार सीधे समाज या समूह की बात करते हैं वहीँ रिश्ते से जुड़े सरोकार व्यक्ति की बात करते हुए भी समष्टि तक जाते हैं | आखिर मानवीय संवेदना एक जैसी ही तो होती है | अंजू जी सपष्ट करती हैं कि, “सरोकारों से परे कोई रचना शब्दों की कीमियागिरी तो हो सकती है पर वो कहानी नहीं बन सकती | लिहाजा सरोकारों का मुझे या मेरा सरोकारों से दूर जाना संभव नहीं | तो भी कहानियों में पढ़ा जाने लायक कहानीपन बना रहे बस इतनी सी कोशिश है |” सबसे पहले मैं बात करुँगी संग्रह की पहली कहानी “उम्मीदों का उदास पतझड़ साल का आखिरी महीना है” | ये कहानी प्रेम कहानी है | यूँ तो कहते हैं कि हर कोई अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है और संभवत: पहली कहानी प्रेम कहानी ही लिखता होगा | प्रेम पर लिखना कोई खास बात नहीं है | खास बात ये है कि प्रेम पर जब इतना लिखा  जा रहा हो तो उसे अलहदा तरीके से लिखना ताकि ध्यान खींचा जा सके | इस कहानी में कुछ ऐसा ही है | मुझे लगता है किप्रेम के संयोग और वियोग में संयोग लिखना आसान है क्योंकि वहां शब्द साथ देते हैं | मन साथ देता है और पाठक सहज जुड़ाव महसूस करता है परन्तु वियोग में शब्द चुक जाते हैं | प्रकृति भी विपरीत लगती है | तुलसीदास जी ने बहुत सुंदर लिखा है, “घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥“ जो पीड़ा होती है सब मनोभावों में अन्तर्निहित होती है | सारा कुछ मानसिक अंतर्द्वंद होता है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही कहानी है | जहाँ लेखिका ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है | जिसमें सारी  प्रकृति सारे मनोभाव निराशा और अवसाद के स्वर में बोलते हैं | एक प्रेम कहानी के ऐसे धीरे धीरे त्रासद अंत की ओर बढ़ते हुए पाठक का दिल टूटता जाता है | यहीं कहानी यू टर्न  लेती है, जैसे बरसात के बाद धूप  खिल गयी हो | दरअसल कहानी एक रहस्य के साथ आगे बढती है और पूरे समय रहस्य बना रहता है | यह इस कहानी की विशेषता है |   “सुबह ऐसे आती है” कहानी एक स्त्री के अपने भावी बच्चे के साथ खड़े होने की है | माँ और बच्चे का रिश्ता दुनिया का पहला रिश्ता है और सबसे अनमोल भी | पितृसत्ता बच्चे के नाम के आगे पिता का नाम जुड़ने/न जुड़ने से उसे जायज या नाजायज भले ही कह दे पर इससे माँ और बच्चे के बीच के संबंद्ध पर कोई फर्क पड़ता | यूँ पति-पत्नी के रिश्तों में विचलन मर्यादित तो नहीं कहा जा सकता पर अस्वाभाविक भी नहीं है | कई बार ये विचलन पूर्व नियोजित नहीं होता | कई बार जीवन नदिया में धीरे –धीरे कर के बहुत सारे कारण इकट्ठे हो जाते हैं जब संस्कार और मर्यादाएं अपना बाँध तोड़ देते हैं | ऐसी ही एक स्त्री है … Read more

कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा

कुल्हड़ भर इश्क एक बनारसी हल्की -फुलकी प्रेम कथा है | बिलकुल बनारसी शंकर जी की बूटी की तरह जिसका नशा थोड़ी देर चढ़े खूब उत्पात मचाये और फिर उतर जाए |  प्रेम कहानियों में भी मुझे थोड़ी गंभीरता पसंद है | जो मुझे विजयश्री तनवीर ( अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ) और प्रियंका ओम ( मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है ) अक्टूबर जंक्शन (दिव्य प्रकाश दुबे ) अंजू शर्मा (समय रेखा ) में दिखती है | ज्यादातर मैं उन किताबों पर नहीं लिखती हूँ जो मुझे बहुत  पसंद नहीं होती हैं | इसका कारण है कि समयाभाव के कारण मैं उन किताबों पर भी नहीं लिख पाती जो मुझे पसंद आई हैं | फिर उन पर लिखना संभव नहीं जो मुझे पसंद नहीं आई हैं | फिर भी मैंने इस बनारसी प्रेम कथा  को लिखने के लिए चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये किताब युवाओं को पसंद आ सकती है जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं | जिनकी उम्र किशोरावस्था से लेकर २४ -२५ वर्ष तक है | कॉलेज में पढ़ते हैं |जिन्हें नौकरी के लिए पढाई और इश्क दोनों को संभालना पड़ता है | मैंने भी एक युवा समीक्षक की समीक्षा को पढ़कर  ही इसे खरीदने का मन बनाया था |अमेजॉन पर इसके ढेर सारे रिव्यू इसके गवाह है | वैसे भी फिल्म हो, उपन्यास हो या फैशन युवा जिसे पसंद करते हैं वो बहुत जल्दी लोकप्रिय हो जाता है | किस किताब की चर्चा दस साल/20 साल  बाद भी होगी ये समय तय करता है | दूसरी बात इस किताब पर लिखने के पक्ष में ये है कि  किताब के लेखक कौशलेन्द्र मिश्र की उम्र मात्र 22 वर्ष है | और उनके प्रथम प्रयास के रूप में इसे उचित ठहराया जा सकता है | इस पर लिख कर  नवांकुर  कलम को प्रोत्साहित करना  मुझे अपना दायित्व लगा | मैने एक बात गौर की है कि इधर बहुत सारी किताबें वाराणसी  की पृष्ठभूमि से आ रही हैं | बनारस के घाट वहाँ  कि ठंडाई ,जीवन नदिया और दार्शनिकता इन किताबों की खासियत है | अभी कुछ समय पहले की बात है कि मुझे वाराणसी जाने का बहुत मन कर रहा था | क्योंकि मेरा जन्म वाराणसी में हुआ है और बाद में भी अक्सर पिताजी बाबा विश्वनाथ के  दर्शन के लिए हम लोगों को ले जाते रहे है | जिस कारण वहां से लगाव व् वहाँ  जाने की इच्छा स्वाभाविक ही लगी | परन्तु एक दिन एक किताब पढ़ते -पढ़ते अचानक क्लिक  किया कि साहित्य में वाराणसी का बहुत अधिक वर्णन पढने से अवचेतन में ये इच्छा जाग्रत हुई | ये एक शोध का विषय भी हो सकता है कि कितनी किताबें अभी हाल में बनारस की पृष्ठभूमि पर लिखी गयीं है | फिलहाल इतना तो कह सकते हैं कि वाराणसी का नशा फिलहाल साहित्य से जल्दी उतरने वाला नहीं है | इसका कारण है वहां की हवाओं में घुली दार्शनिकता | कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा  तो चलिए लौट कर आते हैं कुल्हड़ भर इश्क पर जिसे कौशलेन्द्र मिश्र ने काशीश्क का सबटाइटल भी दिया है |  कौशलेन्द्र ने अपना बी ए (हिंदी ऑनर्स ) और बी ऐड बी एच यू से ही किया है  फिलहाल वो वहीँ से हिंदी में परा स्नातक कर रहे हैं | कहानी भी बी ए, बी ऐड से गुज़रती हुई परास्नातक तक पहुँचती हैं | यानी कि कहानी  की बुनावट गल्प के साथ सत्य की भी जरूर होगी | तभी हॉस्टल का जीवन, लड़कियों को ताकते और उनके पीछे भागते लड़के , पढाई के दौरान परवान चढ़ती प्रेम कहानियाँ ,जिनमें से कुछ कॉलेज बदलते ही बदल जाती हैं और कुछ अटेंडेंस रजिस्टर की तरह हमेशा के लिए बंद हो जाती है | तो कुछ ऐसी  होती है जो किसी मोड़ पर अचानक से बिछुड़ जाती है | ये कहानियाँ ही खास कहानियाँ हैं क्योंकि इनकी हूक  जिन्दगी में और कैरियर में हमेशा ही रहती हैं | हम सदियों से सुनते आये हैं कि कॉलेज का समय जीवन बनाता भी है और बिगाड़ता भी है | इस लिए कहानी की शुरुआत करते समय ही कौशलेन्द्र ये इच्छा जताते हैं कि विद्यार्थियों के लिए इश्क की कोई खुराक होनी चाहिए जिस पर मार्कर  से निशान लगा हो | बस इतना पीना है | कहने का तात्पर्य ये है कि कुल्हड़ भर इश्क को घूँट -घूँट पीना है ताकि पढाई भी चलती रहे और प्रेम भी | क्योंकि अक्सर इन प्रेम प्रसंगों के चलते “ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम ” वाली स्थिति हो जाती है | प्रेमियों की कहीं और शादी हो जाती है और कैरियर की नैया बीच भंवर में डूब जाती है | बहुत से बच्चों को इस उम्र में  भटक कर कैरियर बर्बाद करते देखा है इसलिए कौशलेन्द्र की इस बात कमें पुरजोर समर्थन करती हूँ | तो आते हैं कहानी पर |कहानी सीधी सरल है | कहानी के नायक सुबोध को अपनी कक्षा में पढने वाली रोली से प्रेम  हो जाता है | सुबोध ब्राह्मण है और रोली ठाकुर | रोली थोड़ी टॉम बॉय  टाइप की है | पर सुबोध का लगातार पीछा करना एक दिन रोली को भी प्रेम की गिरफ्त में ले ही लेता है | दोनों पढ़ते भी हैं और प्रेम को भी निर्धारित समय देकर संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं | उनकी लव मैरिज में घरवालों को भी दिक्कत नहीं है | बस शर्त नौकरी की है | न सिर्फ रोली के घरवाले सुबोध की नौकरी चाहते हैं बल्कि सुबोध के पिता भी नौकरी वाली बहु चाहते हैं ताकी लव मैरिज और नौकरी वाली बहु के होने से विवाह करने के उनक्ले व्यवसाय में भी इजाफा हो | दोनों मेहनत करते हैं | प्रयास करते हैं | इस समय देश की राजनीति रंग लाती है और कुछ प्रदेशों में शिक्षकों के चयन की परीक्षा रद्द हो जाती है | अब  वो मिलते हैं या बिछुड़ते हैं ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेगे | कहानी जैसे -जैसे आगे बढती है थोड़ी संजीदा होती है …या ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि कुल्हड़ भर | रोली का किरदार तेज तर्रार होते हुए भी प्रभावित करता है | किताब … Read more

माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन

  जब बात किस्सों की आती है तो याद आती है जाड़े की गुनगुनी धूप सेंकते हुए, मूंगफली चबाते हुए दादी –नानी के पोपले मुँह से टूटे हुए दांतों के बीच से सीटी की तरह निकलती हवा के साथ निकलती रोचक किस्सों की फुहार, “हमारे जमाने में तो …|” या फिर रात को अंगीठी के चारों ओर घेरा बनाकर भाई –बहनों के बीच किस्सों की अन्ताक्षरी, “जानते हो, मेरे क्लास में ना..” | किस्सों का जादू ही कुछ ऐसा है जो सब को अपने पास खींच लाता है, “हाँ भैया ! और बताओ| और शुरू हो जाते हैं किस्से यहाँ वहाँ सारे जहाँ के |“ मुझे लगता है कि हम भारतीय किस्से सुनने-सुनाने के मामले में कुछ ज्यादा ही शौक़ीन रहे हैं | इसके लिए हमारे पास कभी समय की कमी नहीं रही | शादी-बरात से लेकर, बसों और ट्रेनों में धक्के खाते हुए, और चाय और पान की गुमटी पर भी जहाँपनाह किस्सों का दरबार सजा ही रहता है | खैर ! इस बार सर्दी भी ऐसी नहीं है कि गुनगुनी धूप दिखे | बड़े शहरों में अंगीठियाँ भी कब की एंटीक आइटम हो गयी हैं | लोग भी और-और का नारा लगाते हुए तेज़ दौड़ने लगे हैं, घड़ी की सुइयां भी एक घंटे में दो घंटे की रफ़्तार से सफ़र तय करने लगीं | शहर तो छोड़िये, गाँव की चौपाले भी टी.वी. कम्प्यूटर के आगे पालथी मार कर बैठने लगीं हैं | तो ऐसी में ताज़े-ताज़े नर्म-नर्म किस्सों के पुराने आशिक कहाँ जाए ? सुशोभित जी की किताब ‘माउथ ऑर्गन’ किस्से के उसी स्वप्न लोक में ले जाती है | जैसे सात सुरों से तरह –तरह की धुन बनायी जाती है वैसे ही इसमें तरह- तरह की किससे धुनें हैं | जो जो उन्हीं मूल इमोशंस से जुड़े होने के बावजूद अपने आरोह अवरोह से अलग –अलग संगीत पैदा करती हैं |     माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन यूँ तो किस्सागोई किसी कहानी का हिस्सा होती है पर इसे पूरी तरह से कहानी नहीं कहा जा सकता है | ये कुछ इसी तरह से है जैसे बादल से अलग हुआ उसका कोई टुकड़ा अपने आप में मुक्कमल बादल ही है | बड़े बादल देर तक बरसते हैं तो छोटे बादल की रिमझिम फुहार भी भली लगती है | किस्से कथा और कथेतर के बीच का कुछ हैं | मैं सुशोभित जी की इस बात से सहमत हूँ कि इसमें कुछ किस्से ‘नैरेटिव प्रोज’ और कुछ ‘फिक्शनलाईज़ड मेमायर्स’ की श्रेणी में आते हैं | यानी कुछ ब्यौरों में रमने वाला गल्प और कुछ आपबीतियाँ | किस्सों का स्वरुप कुछ भी हो उनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उनको कहने की कला | ये कला ही है, बोलने वाला जब बोलता है तो सुनने वाला आँखों में आगे क्या होगा का प्रश्नवाचक चिन्ह खींचे, उत्सुकता में मुँह बाए सुनता है | किस्सों का किसी महत्वपूर्ण रोचक मुकाम पर खत्म हो जाना ही उनकी विशेषता है |  चलिए किस्से की बातों से निकल कर आते हैं किस्सों-कहानियों या कहन  की किताब यानी कि ‘माउथ ऑर्गन’ पर | इस किताब में छोटे –बड़े सौ से ऊपर किस्से हैं | जो अलग –अलग मूड के हैं | कहीं पाठक को जानकारी देते तो कहीं उनकी भावनाओं के जल में एक छोटा सा कंकण डाल कर भंवर उत्पन्न करते हुए, तो कहीं यूँ ही हलके –फुल्के टाइम पास टाइप | हर किसी की एक अलग आवाज़, एक अलग अहसास | ये किस्से आपस में जुड़े हुए नहीं हैं | इसलिए आप इस किताब को कहीं से भी शुरू कर के पढ़ सकते हैं | जब मन आया जिस किस्से पर नज़र जम गयी उसी को पढ़ लिया | वैसे कुछ किस्सों में पुराने किस्सों का जिक्र है | उस में भी कोई दिक्कत नहीं है, आप पन्ना पलटिये उस किस्से तक जाइए और पढ़ डालिए | आसान इसलिए कि किस्से छोटे –छोटे हैं और बहुत समय नहीं माँगते | फिर भी हर पाठक का अपना –अपना तरीका होता है |  जैसे मैंने सबसे पहले किस्सा पढ़ा “अखबार” | ये शायद पीछे से दो चार किस्से पहले है | मैंने इसे ही पढने के लिए सबसे पहले क्यों चुना मुझे पता नहीं | शायद एक कारण ये है कि एक लम्बे समय तक मैं भी अख़बार को पीछे के पन्नों से पढ़ती थी | पहला और दूसरा पन्ना मैं आँखों के आगे से ऐसे सरका देती थी जैसे टीवी का रिमोट हाथ में लेकर कुछ फ़ास्ट फॉरवर्ड कर दिया हो | ये वो समय था जब पिताजी की मृत्यु के बाद मैं निराशा से जूझ रही थी | और मुझे लगता था कि मैं दुःख से इतना भरी हुई हूँ कि दुनिया का और कोई दुःख सह नहीं पाऊँगी |अब अखबार हैं खबरे हैं तो वो दुःख को ही लिखेंगे | जैसा की सुशोभित जी लिखते है कि“बुरी खबरें सबसे अच्छी खबरें होती हैं, क्योंकि बुरी खबरें खूब बिकाऊ होती हैं बाज़ार में हाथों –हाथ उठती हैं | ये हमें अखबारों में सिखाया गया था, और ऐसा सिखाने वालों में वे अखबार भी शुमार थे, जो आज ‘केवल अच्छी खबरों” का स्वांग रहते हैं |” ‘स्कूल’ से लेकर ‘पासपोर्ट साइज़ तसवीरें’ पिता और मासूम पुत्र के किस्से हैं | जिसमें पुत्र की मासूम बातें दिल को गुदगुदाती हैं वहीँ पिता की छलक-छलक कर बहती ममता भाव –विभोर कर देती है | स्कूल गेट पर इंतज़ार करते पिता के शब्द देखिये,  “बाहर जहाँ बच्चों के नन्हे जूते तरतीब से सजे होते हैं, वहां खड़े –खड़े इंतज़ार करते पापा को अक्सर ये मायूसी घेर लेती है कि बेटा धीरे –धीरे उस दुनिया में प्रवेश करता जा रहा है, जहाँ शायद उस तक हरदम पहुँच पाना इतना सरल नहीं रहेगा, जैसे हाथ बढाकर उसकी आँखों पर चले आये बालों को पीछे हटा देना |” “दुनिया बढती जा रही है इसका मतलब दुनिया में मौजूद दूरियाँ भी फ़ैल रही हैं |”इस किस्से को पढ़कर किसको अपने बच्चे के स्कूल के गेट पर उसकी छुट्टी की प्रतीक्षा में खड़े रहना नहीं याद आ जाएगा | “माउथ ऑर्गन’ किस्सा जिस पर किताब का नाम रखा गया है वो भी चुनु और उसके पापा का ही किस्सा है … Read more

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more

विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया

महिमा से पहली बार सन्निधि संगोष्ठी में मुलाकात हुई थी | मासूम सी, हँसमुख बच्ची ने जहाँ अपने व्यक्तित्व से सबका मन मोह लिया था वहीँ अपनी कविता से अपनी गहन साहित्यिक समझ से परिचित कराया था | एक लेखिका व व्यक्ति के रूप में वे सदा मुझे प्रिय रही हैं | आज ‘विसर्जन’ पर उनकी समीक्षा पढ़ कर एक पाठक के रूप में उनकी गहराई से हृदय द्रवित है | उन्होंने इतना डूब कर पढ़ा है और उस गहराई तक पहुँची है जहाँ वो पात्र पीड़ा भोग रहे थे | आप जैसा पाठक मिलना किसी लेखक के लिए अनमोल उपलब्द्धि है | बहुत -बहुत स्नेह के साथ स्नेहिल आभार महिमा  विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया  “विसर्जन” वंदना बाजपेयी जी का पहला कहानी संग्रह है। जिसमें कुल 11 यथाथर्वादी कहानियाँ हैं। “विसर्जन” जब मेरे हाथ में आया तो मैंने सोचा कि ये तो एक-दो दिन में पढ़कर खत्म हो जाएगा। पर ऐसा हो नहीं सका। ऐसी कई कहानियाँ हैं जिसे पढ़ने के बाद इतनी भावुक हो गई कि अवसाद ने घेर लिया। और दूसरी कहानी पढ़ने से पहले विराम स्वत: हो गया। आँखे और दिमाग ने साथ नहीं दिया।कमोबेस सभी कहानियों के नारी पात्रों की विषम परिस्थितियों ने दुखी कर दिया।इन कहानियों में वंदना जी ने अपनी संवेदनशीलता के साथ स्त्री के मनोविज्ञान को बखूबी चित्रित किया है। विर्सजन, पुरस्कार,मुक्ति आदि कहानियों में स्त्री पात्र समाज में माँ, पत्नी, बेटी, प्रेमिका जैसे उत्तरदायित्व को वहन करते हुए, जटिल जीवन के हर मोर्चे पर संर्घष करते हुए अतंत: स्वतंत्रचेता स्त्री के रुप में स्वयं को स्थापित करती है। वहीं अशुभ, फुलवा, दीदी, चुड़ियाँ आदि के पात्र अपनी सामाजिक, आर्थिक चक्रव्यूह में फंस कर अपने सपनों की बलिवेदी पर स्वंय ही चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं। समाज का मध्यमवर्गीय जहाँ अपनी स्त्रियों को एक विशेष संस्कारजनित ढ़ाचे में देखना चाहता है। इन स्त्रियाँ का जीवन समाज,संस्कार, कर्तव्य़ और अपने सपनों के साथ तालमेल बिताने में ही बीत जाता है। वही निम्नवर्गीय स्त्री कमाऊ होती हुई भी अपनी परिस्थितियों की गुलामी में जकड़ी होती है।संग्रह की सभी कहानियाँ इन दो वर्गो की स्त्रियों की सच्ची संघर्ष गाथा है। उनके पात्र हमारे आस-पास से ही उठा कर रचे गए हैं।हर कहानी में समाज के उन स्वार्थी चेहरों को बेनकाब किया गया है जो अपने स्वार्थ के लिए रिश्तों को दांव पर लगाते हैं। समाजिक संदेश भी निहित है। इसप्रकार लेखिका ने अपनी लेखकीये कर्म को बखूबी अंजाम दिया है। इसलिए हर पाठक इनसे स्वत: जुड़ा महसूस करेगा। कहानियाँ पढ़ते हुए अहसास होता है कि लेखिका ने बहुत धैर्य और बारीकी से पात्रों के चरित्र को गढ़ा है। लेखिका वंदना बाजपेयी जी को संग्रह के लिए अशेष बधाइयाँ।लेखिका – वंदना वाजपेयीप्रकाशक – एपीएन पब्लिकेशन्समूल्य – 180लिंक – https://www.amazon.in/dp/9385296981/ref=mp_s_a_1_6 प्रकाशक से मंगवाएं …transmartindiamail@gmail.com पर मेल करें या .. +919310672443 पर whats app करें आप पुस्तक प्राप्त करने के लिए editor.atootbandhan@gmail.com पर भी मेल कर सकते हैं | समीक्षा – महिमा श्री यह भी पढ़ें … विसर्जन कहानी संग्रह पर किरण सिंह की समीक्षा भूत खेला -रहस्य रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ शिकन के शहर में शरारत -खाप पंचायत के खिलाफ बिगुल बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर आपको  समीक्षात्मक लेख “  विसर्जन कहानी संग्रह  पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; review , book review,  Hindi book , visarjan, hindi story book, hindi stories, vandana bajpai, emotional stories

विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह

जिंदगी ही कहानी है या कहानी ही जिंदगी है इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना थोड़ा उलझन भरा हो सकता है इसलिए जिंदगी और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहना ही सही होगा। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी ईश्वर की लिखी कहानी है। हाँ यह और बात है कि किसी की कहानी आम होती है तो किसी की खास, किसी की सीधी-सादी तो किसी की उलझन भरी, किसी की खुशहाल तो किसी की बदहाल, किसी की रोचक तो किसी की नीरस, किसी – किसी की प्रेरणादायी तो किसी की दुखदायी ।लेकिन हर कहानी में कमोबेश कौतूहल तो होता ही है। यही वजह है कि लेखक का संवेदनशील मन किसी की जिंदगी की कहानी को इस कदर महसूस करता है कि उसकी लेखनी अनायास ही चल पड़ती है सर्जन करने हेतु और लिख डालती है उस व्यक्ति की गाथा। छोड़ देती है पाठकों को निर्णय करने के लिए कि किस हद तक उस कहानी को उन तक पहुंचाने में सफल हो पाई है वह । कुछ इसी तरह से जानी-मानी लेखिका Vandana Bajpaiकी लेखनी ने भी कुछ जिंदगी की कहानियों में कल्पना का रंग भरते हुए बड़े ही खूबसूरती से पिरोकर खूबसूरत कवर पृष्ठ के आवरण में एक पुस्तक ( जिसका नाम भी बड़ा ही खूबसूरत और विषय के अनुरूप है विसर्जन है ) के आकार में पाठको को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई है ।     विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह      इस संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जो कि एक सौ चौबीस पृष्ठ में संग्रहित हैं। सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को खूबसूरती से उकेरती हुई रोचकता तथा कौतूहल से परिपूर्ण हैं। किन्तु इस संग्रह की पहली कहानी में लेखिका ने एक छली गई स्त्री के जीवन के संघर्षों की मनोवैज्ञानिक पहलू को छूते हुए बहूत ही खूबसूरती से अपनी कलम चलाई है जिसकी जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी। इस कहानी में एक लड़की जो बार – बार अपनी माँ से अपने पापा के बारे में पूछती है और माँ हर बार सच छुपाते हुए उसे झूठी तसल्ली देती है। जब माँ भी मर जाती है तो वह लड़की अपने पिता की खोज में निकलती है। बहुत ढूढने के बाद पिता मिलते तो हैं लेकिन उसके साथ एक स्त्री है जो कि उसके और उसके पिता के मध्य दीवार बनकर खड़ी है अतः लड़की दुखी मन से वापस आ जाती है। उसके बाद वो अपने पिता के उम्र के पुरुषों में अपने पापा का प्यार ढूढती है और बार-बार छली जाती है। अन्ततः वह निर्णय लेती है विसर्जन का जो कि उसके लिए बहुत जरूरी था । पुस्तक की दूसरी कहानी अशुभ अंधविश्वास पर प्रहार करती हुई बहुत ही मार्मिक कहानी है जिसमें एक लड़की का नाम ही अशुभ रख दिया जाता है। जिसको मृत्यु के उपरांत भी ऐसी सजा मिलती है जिसकी वह दोषी होती ही नहीं है। संग्रह की तीसरी कहानी फुलवा में बाल श्रम, बाल विवाह, पर बहुत ही गहराई से प्रकाश डालते हुए बेटियों को पढ़ाने का संदेश दिया गया है।संग्रह की चौथी कहानी दीदी में खून के रिश्तों से अलग भाई – बहन जैसे पवित्र रिश्ते बनाने में भी स्त्रियों की मजबूरियों को बहुत ही सूक्ष्मता से उकेरा गया है जिसे पढ़कर उन पुरुष पाठकों को स्त्रियों को समझने में मदद मिलेगी जो कि कहते हैं कि स्त्रियों को समझना बहुत मुश्किल है । या त्रिया चरित्र को स्वयं देव भी नहीं समझ पाये हैं। संग्रह की पाँचवी कहानी चूड़ियाँ पढ़ने के बाद तो पत्थर हृदय भी पिघल जायेगा ऐसा मैं दावे के साथ कहती हूँ। क्योंकि इस कहानी की नायिका एक ऐसी स्त्री है जिसे बचपन से ही रंग – बिरंगी चूड़ियाँ पहनने का बहुत शौक है लेकिन उसके इस शौक को सामाजिक कुरीतियों ने विराम लगा दिया। तोड़ दी गई उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ और पहुंचा दिया जाता है पागलखाना। फिर कहानी की ही एक पात्र लेखिका की सहेली निर्माण लेती है और………. संग्रह की छठी कहानी पुरस्कार एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने शौक को ताक पर रखकर अपना पूरा जीवन अपने घर परिवार की खुशियों पर समर्पित कर देती है। लेकिन अपनी अभिव्यक्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी। चूंकि पति को भी खुश रखना चाहती थी और अपनी लेखनी को भी पंख देना चाहती थी सो अपना नाम कात्यायनी रखकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने लगी। धीरे-धीरे कात्यायनी की कीर्ति फैलने लगी और कात्यायनी का नाम पुरस्कार के लिए घोषित किया गया। तो भी कात्यायनी अपनी सच्चाई सामने नहीं लाना चाहती है। लेकिन सच्चाई को कोई कितने दिनों तक छुपाये रख सकता है ? एक न एक दिन तो पता चलना ही है सो स्नेहा के पति को भी पता चल ही गया आगे क्या हुआ पुस्तक के लिए छोड़ती हूँ।इस प्रकार संग्रह की अन्य कहानियाँ ( पुरस्कार, काकी का करवाचौथ, फाॅरगिव मी, अस्तित्व, ये कैसी अग्निपरीक्षा तथा मुक्ति) भी अत्यंत मार्मिक, रोचक, प्रवाहयुक्त तथा कौतूहल पूर्ण है। चूंकि वंदना जी एक स्त्री हैं तो उनकी सभी कहानियाँ स्त्री प्रधान हैं। वैसे उन्होंने अपनी आत्मकथ्य में इस बात को स्वयं स्वीकारा भी है। यथा – ऐसे मेरी कोई योजना नहीं थी, फिर भी इस कहानी संग्रह के ज्यादातर मुख्य पात्र स्त्री ही है। शायद इसकी एक वजह मेरा स्त्री होना है, जो उनके दर्द को मैं ज्यादा गहराई से महसूस कर पाई। इस तरह से इस संग्रह की प्रत्येक कहानी हमारे आस-पास के परिवेश तथ समाज के किसी न किसी व्यक्ति की कहानी प्रतीत होती है । कहानी पढ़ते हुए पाठक किसी न किसी किरदार से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है जो कि लेखिका की सफलता का द्योतक है। पुस्तक का कवर पृष्ठ शीर्षक के अनुरूप ही खूबसूरत तथा आकर्षक है। पन्ने भी अच्छे हैं तथा छपाई भी स्पष्ट है। वर्तनी की अशुद्धियाँ नाम मात्र की या न के बराबर ही है। पुस्तक की गुणवत्ता के अनुपात में पुस्तक की कीमत भी मात्र एक सौ अस्सी रूपये है जिसे पाठक आसानी से क्रय कर सकते हैं। अतः मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि यह पुस्तक पठनीय एवम् संग्रहणीय है। यदि आप उच्च स्तरीय संवेदनशील कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपको जरूर पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक के प्रकाशन के … Read more

बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा

आज मैं आपसे बात करना चाहूँगी नंदा पाण्डेय जी के काव्य  संग्रह “बस कह देना कि आऊँगा के बारे में | नंदा पाण्डेय जी काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं | उनकी कई कवितायें समय-समय पर फेसबुक पर व अन्य पत्र –पत्रिकाओं में पढ़ती रही हूँ | झारखंड में साहित्य के प्रचार –प्रसार में भी वो काफी सक्रिय भूमिका निभा रहीं हैं | लेकिन अपना पहला काव्य संग्रह लाने में उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की क्योंकि वो इंतज़ार में विश्वास करती हैं | धैर्य उनका एक बड़ा गुण है जो उनके व्यक्तित्व व् कृतित्व दोनों में झलकता है | इस संग्रह में ये धैर्य उन्होंने दिखाया है प्रेम में | ये टू मिनट नूडल्स वाला फ़ास्ट फ़ूड टाइप प्रेम नहीं है | ये वो प्रेम है जो एक जीवन क्या कई जीवन भी प्रतीक्षा कर सकता है | इस प्रेम में नदिया की रवानगी नहीं है झील सा ठहराव है | आमतौर पर माना जाता है कि कोई कवि अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है | परन्तु उस पहली कविता से प्रेम में धैर्य आने तक की जो यात्रा होती है वो इस संग्रह में परिलक्षित होती है | आखिर क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता……???? प्यार..???? , स्नेह…????, दोस्ती …??? या इन सबसे कहीं ऊपर एक दूसरे को जानने समझने की इच्छा…..??? क्या रिश्ते को नाम देना जरुरी है???? रिश्ते तो “मन” के होते हैं सिर्फ “मन ” के …….!!!!!   बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा        प्रेम यूँ तो जीवन के मूल में है फिर भी इसे दुनिया की दुर्लभ घटना माना गया है | ये बात विरोधाभासी लग सकती है परन्तु सत्य है …रिश्ते हैं इसलिए प्रेम है, ये हम सब महसूस करते हैं लेकिन प्रेम है रिश्ता हो या न हो इसकी कल्पना भी दुरूह है | प्रेम के सबसे आदर्श रूप में राधा –कृष्ण का नाम याद आता है | उनका प्रेम उस पूर्णता को प्राप्त हो गया है जहाँ साथ की दरकार नहीं है | ये प्रेम ईश्वरीय है, दैवीय है | इस अलौकिक प्रेम के अतिरिक्त सामान्य प्रेम भी है | जहाँ मिलन का सुख है तो वियोग की पीड़ा भी | साहित्य में संभवत : इसीलिये श्रृंगार रस को दो भागों में विभक्त किया है | संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | वियोग में भी प्रतीक्षा का आनंद है | क्योंकि ये प्रतीक्षा उसके लिए है जिसके लिए ह्रदय का तालाब प्रेम से लबालब भरा हुआ है | महादेवी वर्मा इसी वियोग में कहती हैं … जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार और कवयित्री नंदा पाण्डेय जी इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहती हैं कि आने की भी आवश्यकता नहीं है “बस कह देना कि आऊँगा” फिर क्या है मन को भला लिया जाएगा, फुसला लिया जाएगा ….और मिलन की प्रतीक्षा में पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा | . पर क्या मुझमें कोई परिवर्तन दीखता है तुम्हें मैं तो बस एक समभाव तुम्हारा इंतज़ार करती रहती हूँ तुम आओ, ना आओ बस कह देना कि आऊँगा || अपनी काव्य यात्रा के बारे में अपनी बात में नंदा जी लिखती हैं कि … “पतझड़ में पत्तों का गिरना, अँधेरी रात में परछाइयों का गहराना, परिंदों का घरौंदा बनाना और घरौंदे का अपनाप बिखर जाना …ऐसी कितनी ही बातें बहा ले जाती मुझे, हवा के झोंकों की तरह और मेरी विस्फारित आँखें वीरान कोनों में अर्थ खोजने लगती हैं | इन्हीं वीरान कोनों में अर्थ खोजने के दौरान कई बार खुल जाती है स्मृतियों की पिटारी | जैसे किसी ने अनजाने में कोने में रखे किसी सितार को छेड़ दिया हो | इस आरोह –अवरोह में झंकृत हो उठी हो अंतर्मन की शांत दुनिया | जो व्यक्त है उसे शब्दों में बाँधा जा सकता है, सुरों में ढाला जा सकता है, कूचियों से कैनवास के सफ़ेद कागज़ पर उकेरा जा सकता है | पर सवाल ये है कि क्या प्रेम को पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है ? नहीं न !! कितना भी व्यक्त करने का प्रयास किया जाये कुछ तो अव्यक्त रह ही जाता है | ये प्रेम है ही ऐसा …गूंगे के गुण जैसा … “कुछ कहना चाहती थी वो पर जाने क्यों … ‘कुछ कहने की कोशिश में बहुत कुछ छूट जाता था उसका… करीने से सजाने बैठती उन यादों से भरी टोकरी को जिसमें भरे पड़े थे उसके बीते लम्हों के कुछ रंग –बिरंगे अहसास कुछ यादें –कुछ वादे , और भी बहुत कुछ … कवयित्री नंदा जी एक पारंगत कवि हैं जो अपनी काव्य क्षमता का प्रदर्शन केवल भाव और शब्द सौन्दर्य से ही नहीं करती अपितु उसमें प्राण का सम्प्रेषण करने के लिए प्रकृति का मानवीयकरण भी करती हैं | … तुम्हारी प्रतीक्षा से उत्सर्ग तक की दूरी बाहर आज धरती के आगोश में ‘पारिजात’भी कुछ पाने की बेचैनी और खोने की पीड़ा से गुज़र रहा था बिलकुल मेरी तरह अब प्रेम से इतर कुछ कविताओं की बात करना चाहूंगी जो मुझे काफी अच्छी लगीं | इन कविताओं में स्त्री जीवन की आम घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं | अल्हड़ लडकियाँ नहीं करती इंतज़ार आषाढ और सावन का अपने अंत:स्त्रवन के लिए बरसते मेघ में भीग कर लिख लेती हैं कवितायें और एक बानगी यह देखिये … आज कलम उठाते ही पहली बार उसने अपने पक्ष में फैसला सुनाया पहली बार तय किया कि अब वो लिखेगी अपने लिए और अंत में मैं फिर कहना चाहूंगी कि कवि हो या लेखक उसका स्वाभाव उसके लेखन में झलकता है | नंदा जी एक भावुक व्यक्ति हैं | एक भावुक व्यक्ति अंत: जगत में ज्यादा जीता है | बाहर की पीड़ा तो कम भी हो जाती है पर अंत : जगत की कहाँ ? यही कविता लिखने का मुख्य बिंदु है | जहाँ वो पीड़ा को अपने पास रख लेना चाहती है….केवल आश्वासन के मखमली अहसास के बहलावे से | बोधि प्रकाशन से प्रकाशित 120 पेज के इस कविता संग्रह का मूल्य है 150 रुपये है | करीब … Read more