लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ

आज मैं आप के साथ बात करुँगी गीताश्री जी के नए कहानी संग्रह लिट्टी-चोखा के बारे में | लिट्टी-चोखा बिहार का एक स्वादिष्ट व्यंजन है | किसी कहानी संग्रह का नाम उस पर रख देना चौंकाता है | लेकिन गौर करें तो दोनों में बहुत समानता है | एक अच्छी कहानी से भी वही तृप्ति  मिलती है जो लिट्टी- चोखा खाने से | एक शरीर का भोजन है और एक मन का | और इस मन पर  पर तरह –तरह की संवेदनाओं के स्वाद का असर ऐसा पड़ता है कि देर तक नशा छाया रहता है | जिस तरह से धीमी आंच पर पकी लिट्टी ही ज्यादा स्वादिष्ट होती है वैसे ही कहानियाँ भी, जिसमें लेखक पूरी तरह से डूब कर मन की अंगीठी  में भावनाओं को हौले –हौले से सेंक कर पकाता है | गीताश्री जी ने इस कहानी संग्रह में पूरी ऐतिहात बरती है कि एक –एक कहानी धीमी आंच पर पके | इसलिए इनका स्वाद उभरकर आया है |     ये नाम इतना खूबसूरत और लोक से जुड़ा है कि इसके ट्रेंड सेटर बन जाने की पूरी सम्भावना है | हो  सकता है आगे हमें दाल –बाटी, कढ़ी, रसाजें, सरसों का साग आदि नाम के नाम कहानी संग्रह पढने को मिलें | इसका पूरा श्रेय गीताश्री जी और राजपाल एंड संस को जाना चाहिए | कहानीकारों से आग्रह है कि वो भारतीय व्यंजनों को ही वरीयता दें | मैगी, नूडल्स, पिजा, पास्ता हमारे भारतीय मानस के अनकूल नहीं | ना ही इनके स्वाद में वो अनोखापन होगा जो धीमी आँच में पकने से आता है | भविष्य के कहानी संग्रहो के नामों की खोज पर विराम लगाते हुए बात करते हैं लिट्टी –चोखा की थाली यानि कवर पेज की | कवर पेज की मधुबनी पेंटिंग सहज ही आकर्षित करती है | इसमें बीजना डुलाती हुई स्त्री है | सर पर घूँघट. नाक में नाथ माथे पर बिंदिया | देर तक चूल्हे की आंच के सामने बैठ सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने वाली, फुरसत के दो पलों में खुद पर बीजना झल उसकी बयार में सुस्ता रही है | शायद कोई लोकगीत गा रही हो | यही तो है हमारा लोक, हमारा असली भारत जिसे सामने लाना भी साहित्यकारों का फर्ज है | यहाँ ये फर्ज गीताश्री जी ने निभाया है |   गीताश्री जी लंबे अरसे तक पत्रकार रहीं हैं, दिल्ली में रहीं हैं |  लेकिन उनके अन्दर लोक बसता है | चाहें बात ‘हसीनाबाद’ की हो या ‘लेडीज सर्किल’ की, यह बात प्रखरता से उभर कर आती है | शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की कठोर जीवन शैली और दिल्ली निवास के बावजूद उनके अंदर सहृदयता का झरना प्रवाहमान है | मैंने उनके अंदर सदा एक सहृदय स्त्री देखी है जो बिना अपने नफा –नुक्सान का गणित लगाए दूसरी स्त्रियों का भी हाथ थाम कर आगे बढ़ाने  में विश्वास रखती हैं | साहित्य जगत में यह गुण बहुत कम लोगों में मिलता है | क्योंकि मैंने उन्हें काफी पढ़ा है इसलिए यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि उन्होंने लोक और शहरी जीवन दोनों ध्रुवों को उतनी ही गहनता से संभाल रखा है | ऐसा इसलिए कि वो लंबे समय से दिल्ली में रहीं हैं | बहुत यात्राएं करती हैं | इसलिए शहर हो या गाँव हर स्त्री के मन को वो खंगाल लेती है | सात पर्दों के नीचे छिपे दर्द को बयान कर देती हैं |जब वो स्त्री पर लिखती हैं या बोलती हैं तो ऐसा लगता है कि वो हर स्त्री के मन की बात कह रही हैं | उनके शब्द बहुत धारदार होते हैं जो चेहरे की किताबों के अध्यन से व गहराई में अपने मन में उतरने से आते हैं | उनकी रचनाओं में बोलते पात्र हैं पर वहाँ हर स्त्री का अक्स नज़र आता है | यही बात है की उनकी कहानियों में स्त्री पात्र मुख्य होते हैं | हालांकि वो केवल स्त्री पर ही नहीं लिखती वो निरंतर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | भूतों पर लिखी गयी ‘भूत –खेला ‘इसी का उदाहरण है | अभी वो पत्रकारिता पर एक उपन्यास ‘वाया  मीडिया’ ला रही हैं | उनकी रेंज देखकर लगता है कि उन्हें कहानियाँ ढूँढनी नहीं पड़ती | वो उनके अन्दर किसी स्वर्णिम संदूक में रखी हुई हैं | जबी उन्हें जरूरत होती है उसे जरा सा हिला कर कुछ चुन लेती हैं और उसी से बन जाता है उनकी रचना का एक नया संसार | वो निरंतर लिख कर साहित्य को समृद्ध कर रही हैं | एक पाठक के तौर मुझे उनकी कलम से  अभी और भी बहुत से नए विषयों की , नयी कहानियों की, उपन्यासों की प्रतीक्षा है |   लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ            “लिट्टी-चोखा” कहानी संग्रह में गीताश्री जी दस कहानियाँ लेकर आई हैं | कुछ कहानियाँ अतीत से लायी हैं जहाँ उन्होंने झाड़ पोछ कर साफ़ करके प्रस्तुत किया है | कुछ वर्तमान की है तो कुछ अतीत और वर्तमान को किसी सेतु की तरह जोडती हुई | तिरहुत मिथिला का समाज वहाँ  की बोली, सामाजिकता, जीवन शैली और लोक गीत उनकी कहानियों में सहज ही स्थान पा गए हैं | शहर में आ कर बसे पात्रों में विस्थापन की पीड़ा झलक रही है | इन कहानियों में कलाकार पमपम तिवारी व् राजा बाबू हैं, कस्बाई प्रेमी को छोड़कर शहर में बसी नीलू कुमारी है , एक दूसरे की भाषा ना जानने वाले प्रेमी अरुण और जयंती हैंअपने बल सखा को ढूँढती रम्या है और इन सब के बीच सबसे अलग फिर भी मोती सी चमकती कहानी गंध-मुक्ति है | एक खास बात इस संग्रह किये है कि गीताश्री जी ने इसमें शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं जो बहुत आकर्षक लग रहे हैं | जो लगातार उन्हें पढ़ते आ रहे हैं उन्हें यहाँ उनकी कहन शैली और शिल्प एक खूबसूरत बदलाव नज़र आएगा |   अक्सर मैं किसी कहानी संग्रह पर लिखने की शुरुआत उस कहानी से करती हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई होती है |  पर इस बार दो कहानियों के बीच में मेरा मन फँस गया | ये कहानियाँ हैं  “नजरा गईली … Read more

शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल

 वंदना गुप्ता जी उन लेखिकाओं में से हैं जो निरंतर लेखन कार्य में रत हैं | उनकी अभी तक १२ किताबें आ चुकी हैं  और वो अगली किताबों पर काम करना शुरू कर चुकी हैं | इसमें सात कविता की भी पुस्तकें हैं और एक कहानी संग्रह, दो उपन्यास और समीक्षा की दो किताबें | लेखन में अपनी सक्रियता  से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | कविता ह्रदय की ध्वनि है | भावों की अंजुली में कब भोर में झरते हर्सिगार के पुष्पों से सुवासित हो जायेगी, कोई नहीं जानता | गद्य लेखन में पात्रों की मन की भीतरी पर्तों में न सिर्फ झाँकना होता है बल्कि उसका पोस्ट मार्टम करके रेशा –रेशा अलग करना पड़ता है | कई बार मामूली कथ्य की वल्लरी मजबूत शिल्प का सहारा पकड़ पाठकों के हृदय में अपनी पैठ बना लेती है तो कई बार एक दमदार कथ्य अनगढ़ शिल्प के साथ भी अपनी बात मजबूती से रख पाता है | पर कथ्य, शिल्प, भाव, भाषा के खम्बों पर अपना वितान तानती कहानी ही कालजयी कहानी होती है | मैंने वंदना जी की  कविता की चार  किताबों (बदलती सोच के नए अर्थ, प्रश्न चिन्ह …आखिर क्यों ?, कृष्ण से संवाद और गिद्ध गिद्धा कर रहे हैं ) कहानी संग्रह (बुरी औरत हूँ मैं ) और दोनों उपन्यासों ( अँधेरे का मध्य बिंदु और शिकन के शहर में शरारत को पढ़ा है | कविताओं में वो समकालीन स्थितियों, मानवीय संवेदनाओं और आध्यात्म पर अपनी कलम चलाती हैं | कृष्ण से संवाद पर मैं कभी विस्तृत समीक्षा लिखूँगी | उनकी कहानियों में एक खास बात है वो ज्यादातर नए विषय उठाती हैं | फार्मूला लेखन के दौर में ये एक बड़ा खतरा है पर वो इस खतरे को उठाती रहीं हैं | अपनी कहानी संग्रह में भी उन्होंने बुरी औरत को देखने के दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत पर जोर देते हुए “बुरी औरत हूँ मैं “ कहानी लिखी हैं | इसके अलावा स्लीप मोड, वो बाईस दिन , आत्महत्या के कितने कारण, कातिल कौन में बिलकुल नए विषयों को उठाया है | अपने उपन्यास अँधेरे के मद्य बिंदु में उन्होंने लिव इन के विषय को उठाया है | लिव इन पर कुछ और भी कहानियाँ आई हैं | उनमें मुझे ‘करुणावती साहित्य धारा में प्रकाशित संगीता सिंह भावना की कहानी याद आ रही है | उपन्यास में ये विषय नया है | ज्यादातर हिंदी कहानियों में  विवाह संस्था को लिव इन से ऊपर रखा गया है | परन्तु ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ में विवाह के रिश्ते के दवाबों की भी चीर-फाड़ करी है | अपेक्षाओं के फंदे पर लटकते हुए प्रेम को समझने का प्रयास भी किया गया है | इसके बाद वो लिव का पक्ष लेते हुए तर्क देती हैं विवाह हो या लिव इन उसे अपेक्षाओं के दंश से मुक्त होना पड़ेगा तभी प्रेम का कमल खिल सकेगा | हम बड़े बुजुर्गों के मुँह से ये सुनते आये हैं कि विवाह एक समझौता है और यही वाक्य यथावत अगली पीढ़ी को पहुँचा देते हैं | इस समझौते को बनाए रखने में कई बार जिस चीज को दांव पर लगाया जाता है वो किसी भी रिश्ते की सबसे कीमती चीज होती है यानि प्रेम और विश्वास | वंदना जी  विवाह की मोहर से ज्यादा किसी युगल के मध्य इसे बचाए रखने की वकालत करती हैं |वस्तुतः विवाह समझौता न होकर सहभागिता होनी चाहिए | शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल   वंदना जी दिल्ली में रहती हैं और दिल्ली में ही पढ़ी लिखी हैं | उनकी ज्यादातर कहानियों में मेट्रो कल्चर और उसका जीवन दिखता है | मेट्रो शहरों का जीवन, वहां का आचार-व्यव्हार, वहां की समस्याएं , जिन्दगी की आपाधापी, गांवों के शीतल शांत जीवन से बिलकुल अलग हैं | अगर 50 % लोगों का वो सच है | तो 30 % लोगों का ये सच है | 20 % वो लोग हैं जो ऐसे शहरों में रहते हैं जो ना तो गाँव की तरह तसल्ली से परिपूर्ण हैं न मेट्रो शहरों की तरह भागते हुए | ये कहानीकार की विडंबना ही हो सकती है कि कई बार एक सच को दूसरा समझ नहीं पाता | मुझे एक वाक्य याद आ रहा है | हमारे एक परिचित जो कनाडा में रहते हैं वो बताने लगे कि वहां सप्ताह में किसी भी दिन किसी की मृत्यु हो अंतिम संस्कार शनिवार को ही होता है | क्योंकि किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि काम से छुट्टी ले कर जा सके | ये बात सुनकर गाँव की रधिया चाची तो पल्ले को मुँह पर रख कर बोली, “ऐ दैया! का मानुष नहीं बसते हैं उहाँ ? इहाँ तो रात के दुई बजे भी काहू के घर से रोने की आवाज आ जाए तो पूरा गाँव इकट्ठा हो जात है |” आश्चर्य कितना भी हो सच तो दोनों ही है | कहानीकार के हाथ में बस इतना है कि वो जहाँ की कहानी लिख रहा है उसके साथ वहीँ की परिस्थितियों में जाकर खड़ा हो जाए तभी वो कहानी के साथ न्याय कर सकता है | “शिकन के शहर में शरारत’ में वंदना जी दिल्ली से दूर हरियाणा के एक गाँव में पहुँच गयी हैं | दिल्ली के मेट्रो  कल्चर में बेरोकटोक लहलहाते प्रेम की फसल को दिल्ली की नाक से बस थोड़ा सा नीचे खरपतवार के मानिंद समूचा काट कर फेंक देने की रवायत का पर्दाफाश करतीं  हैं | ये उनका दूसरा उपन्यास है | “अँधेरे का मध्य बिंदु “ काफी लोकप्रिय रहा है | ऐसे में उनके दूसरे उपन्यास से अपेक्षाएं बढ़ जाना स्वाभाविक है | अपनी भूमिका “यथास्थिति में असहजता पैदा करने की कोशिश” में पंकज सुबीर जी लिखते हैं कि कोई लेखक हो या ना हो एक उपन्यास सभी के मन में रहता है | वो शब्दों में व्यक्त करे या ना करे पर एक उपन्यास की कथा उसके साथ हमेशा चलती है | असली पहचान दूसरे उपन्यास से होती है और असली परीक्षा भी | भोपाल के कवी –कथाकार संतोष चौबे की कविता का शीर्षक है , “कठिन है दूसर उपन्यास लिखना | वाकई दूसरा उपन्यास लिखना कठिन है | ये चुनौती … Read more

समीक्षा –कहानी संग्रह किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ)

That what  fiction is for . It’s for getting at the truth when the truth  isn’t sufficient for the truth “-Tim o’ Brien मनीषा कुलश्रेष्ठ जी हिंदी साहित्य जगत में किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं |उनकी कहानी ‘लीलण’ जो इंडिया टुडे में हाल ही में प्रकाशित हुई है  आजकल चर्चा का विषय बनी हुई है | एक गैंग रेप विक्टिम की संवेदनाओं को एक मार्मिक कथा के माध्यम से जिस तरह से उन्होंने संप्रेषित किया है उसके लिए वो बधाई की पात्र हैं | मनीषा जी अपनी  कहानियाँ के  किरदारों के मन में उतरती हैं और उनके मन में चलने वाले युद्ध, द्वंद , गहन इच्छाशक्ति के मनोविज्ञान के साथ कहानी का ताना –बाना बुनती हैं | वो आज के समय की सशक्त कथाकार हैं | उनकी कहानियों में विविधता है, उनकी कहानियों में विषयों का दोहराव देखने को नहीं मिलता, हमेशा  वो नए –नए अछूते विषयों को उठाती रहती हैं | इसीलिये उनकी  हर कहानी दूसरी कहानी से भिन्न होती है , न सिर्फ कथ्य में बल्कि शिल्प और भाषा में भी | वो बहुत प्रयोग करती हैं और उनके प्रयोगों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | उनके कई उपन्यास मैंने पढ़े हैं | जिनमें शिगाफ, स्वप्नपाश और मल्लिका प्रमुख हैं | तीनों के ही विषय बिलकुल अलग हैं | अपने किरदारों के बारे में उनका कहना है कि “ मेरे किरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से थोड़ा दूरी बरतते हुए | मेरी कहानियों में फ्रीक भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे जेहन में रहते हैं | जब मुक्कमल आकार प्रकार ले लेते हैं , तब ये किरदार मुझे विवश करते हैं, उतारो ना हमें कागज़ पर | कोई कठपुतली वाले की लीक से हटकर चली पत्नी, कोई बहरूपिया, कोई दायाँ करार दी गयी आवारा औरत , बिगडैल टीनएजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली …”     किरदार -मेरे किरदार में मुज्मर है तुम्हारा किरदार आज मैं जिस कहानी संग्रह के बारे में आप से चर्चा कर रही हूँ उसका नाम भी  ‘किरदार’ है  | यूँ तो हम सब का जीवन भी एक कहानी ही है | और हम  अपने जीवन की कहानी का किरदार निभा रहे हैं |कहीं ये किरदार जीवंत हैं मुखर हैं तो कहीं अपनी ही जद  में कैद हैं | ये किरदार अपने बारे में बहुत कुछ छिपाना चाहते हैं, परन्तु जिद्दी कलमें उन्हें वहां से खुरच –खुरच कर लाती रहीं हैं | ये मशक्कत इसलिए क्योंकि असली कहानी तो वही है जिसका संबंध असली जिन्दगी से है | ऐसा ही कहानी संग्रह है किरदार | इस कहानी संग्रह में मनीषा जी ऐसे किरदार लेकर आई हैं जो लीक से हट कर हैं | सबके अपने अपने अंतर्द्वंद हैं | इसलिए मनीषा जी उन अनकहे दर्द की तालाश में उनके मन को गहराई तक खोदती चली जाती हैं | बहुत ही कम संवादों के माध्यम से वो उनका पूरा मनोविज्ञान पाठक के सामने खोल कर रख देती हैं |ज्यादातर कहानियों में उच्च मध्यम वर्ग है जो बाहरी दिखावे में इतने उलझे रहते हैं कि इनके दरवाजों और चेहरों की सतह पर ठहरी हुई कहानियाँ एक बड़ा छलावा, एक बड़ा झूठ होती हैं | असली कहानियाँ तो किसी तहखाने में बंद होती हैं और वहां तक जाने की सुरंग लेखक किस तरह से बनाता है पूरी कहानी का भविष्य इसी पर निर्भर होता है | अब  ये उलझे हुए किरदार उन्हें कहाँ मिले, कैसे मिले ? पाठक के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले इन प्रश्नों को उन्होंने पुस्तक की भूमिका में ही उत्तर दे दिया है | “इस बार फिर कुछ बेसब्र किरदारों के साथ कुछ शर्मीले पर्दादार किरदारों की कहानियाँ ले कर आई हूँ | हर बार ये मुझे औचक किसी सफ़र से उतारते हुए या सफ़र के लिए चढ़ते हुए मिले |” “एक बोलो दूजी मरवण ….तीजो कसूमल रंग” ये नाम है संग्रह की पहली कहानी का | प्रेम जीवन का सबसे जरूरी तत्व लेकिन सबसे अबूझ पहेली | ये जितना सूक्ष्म है उतना ही विराट | कोई सब कुछ लुटा कर भी कुछ नहीं पा पाता है तो किसी के हृदय के छोटे रन्ध में पूरा दरिया समाया होता है |  आज जब दैहिक प्रेम की चर्चाएं जोरो पर हैं और ये माना जाने लगा है कि प्रेम में देह का होना जरूरी है तो मनीषा जी की ये कहानी रूहानी प्रेम की ऊँचाइयों  को स्थापित करती हैं | एक प्रेम जो अव्यक्त हैं , मौन है लेकिन इतना गहरा कि सागर भी समां जाए | एक ऐसा प्रेम जिसमें ना साथ की चाह  है न ही अधिकार भाव, और ना ही शब्दों के बंधन में बांध कर उसे लघु करने की कामना | एक ऐसा प्रेम जिसका साक्षी है एक और प्रेमी युगल |  मध्यवय का  भावों को रंगों से कैनवास पर उतारता चित्रकार युगल | जो कालाकार हैं, आधुनिक हैं , बोहेमियन हैं और सफल भी | ऐसा युगल जिसका प्रेम शर्तों में बंधा है | पास आने की शर्ते, साथ रहने की शर्ते और दूर जाने की भी शर्ते साक्षी बनता है एक ऐसे प्रेम का भीड़ भरी बस में कुछ समय के लिए अव्यक्त रूप से व्यक्त होता है और फिर उस गहराई को अपने में समेट कर अपनी –अपनी राह पर चल देता है | बिलकुल संध्या की तरह, जहाँ दिन और रात मिलते हैं कुछ समय के लिए फिर अपने अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते हैं प्रेम की उस गरिमा को समेट कर | संध्या काल पूजा के लिए आरक्षित है क्योंकि पूजा ही तो है ऐसा प्रेम | वासना रहित शुद्ध, शुभ्र | ऐसा ही तो है कसमूल  रंग | सबसे अलग सबसे जुदा जो ना लाल है , ना गुलाबी , ना जमुनी ना मैजेंटा | आपने कई प्रेम कहानियाँ पढ़ी होंगी पर इस कहानी में प्रेम का जो कसमूल रंग है वो रूह पर ऐसा चढ़ता है कि उतारे नहीं उतरता |प्रेम की तलाश में भटके युगल शायद …शायद यही तो ढूंढ रहे हैं | “हमारे समान्तर एक प्रेम गुज़र गया था |अपनी लघुता में उदात्ता लिए | अ-अभिव्यक्त, अ –दैहिक, अ –मांसल | और … Read more

बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर

 उषा दी के उपन्यास गयी झुलनी टूट के बाद मन में एक पीड़ा सी पसर गयी थी | झुलनी मेरे मन पर काबिज थी | इसलिए तुरंत मैं कोई गंभीर कृति नहीं पढना चाहती थी | कुछ हल्का –फुल्का, मजेदार पढने के उद्देश्य से मैंने भगवंत अनमोल जी का राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘बाली उमर’ उठाया | जैसा की कवर पेज देख कर और कुछ चर्चा में सुन –पढ़कर  लगा रहा था कि बच्चों की मासूम शरारतों के ऊपर होगा | लिहाजा मुझे अपना चयन उचित ही लगा | जिन्होंने भगवंत अनमोल जी के जिन्दगी 50-50 पढ़ा है , यहाँ उन्हें वो बिलकुल अलग शैली में ही नज़र आयेंगे | किताब उठाते ही पता चला कि ये कहानी तो कानपुर की है | जिसके कारण थोड़ी ख़ुशी बढ़ गयी | पुराना नवाबगंज याद आने लगा | नवागंज से हम लोगों की पहचान चिड़ियाघर यानि की Zoo के साथ जुडी थी | जिनको नहीं पता उनको बता दूं कि कानपुर का चिड़ियाघर 76.55 एकड़ में फैला नार्थ इण्डिया का सबसे बड़ा Zoo है | आंकड़े तो खैर बाद में पता चले पर अनुभव ये था कि हम लोग के घर के बड़े चलते –चलते थक जाते थे और एक जगह बैठ जाते थे और हम बच्चों को बड़ों की डांट के बिना मुक्त विचरण का सुअवसर मिलता था | तब कौन जानता था कि नवाबगंज के किसी दौलतगंज मुहल्ले में लेखक की कल्पना का गाँव होगा जहाँ उसके अनुभव व् कल्पना का गठजोड़ बच्चों के संसार में जाकर किसी “बाली उमर “ को लिखेगा | इस उपन्यास के मुख्य पात्र बच्चे हैं पर ये बच्चों के लिए नहीं है | बड़ों को बचपन की उम्र में ले जाने के लिए हैं | हालांकि जब मैंने ये उपन्यास शुरू किया तो मैं इससे बहुत कनेक्ट नहीं कर पायी |  लेकिन जैसे –जैसे “पागल है” का चरित्र आगे बढ़ता गया मेरे पाठक मन पर उपन्यास अपना शिकंजा कसता गया | अब क्यों कनेक्ट नहीं कर पायी और फिर क्यों उपन्यास ने प्रभावित किया   इसके बारे में बताती हूँ |उसी तरीके से जैसी छूट लेखक ने ली है , कुछ आगे का पीछे और पीछे का हिस्सा आगे करने की शैली के साथ | बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर  कहानी की शुरुआत होती है पात्र परिचय से | जैसा कि विदित है की ये चारों मुख्य  पात्र बच्चे हैं | लेखक एक-एक पात्र की विशेषता बताते हुए आगे बढ़ते हैं | ये चार पात्र हैं | पोस्टमैन, खबरी लाल , गदहा  और आशिक और इनके बीच में “पागल है “ का किरदार | जिसकी चर्चा बाद में | तो पोस्टमैन वो बच्चा है जो किशोर और युवा प्रेमियों के खत इधर –उधर पहुँचाने का काम करता है  | हर मौहल्ले  में ऐसे कुछ बच्चे होते है जो इस नेक काम के स्वयंसेवक होते हैं | अब क्योंकि वह चिट्ठियाँ इधर –उधर पहुचाने के दौरान उन्हें पढ़ भी लिया करता था इसलिए उसका ज्ञान दूसरे बच्चों से ज्यादा हो गया था था | जिसके कारण वो अपनी मंडली का सबसे योग्य सदस्य समझा जाता था | दूसरा बच्चा है खबरीलाल | खबरीलाल  के पिता दुदहा थे | यानि गाँव भर से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचा करते थे | खबरीलाल  इसमें अपने पिता का हाथ बँटाता था | गाँव भर  के घरों में जाने के कारण उसे हर घर की खबर रहती थी | आप उसे पत्रकार की श्रेणी में रख सकते हैं | खबरों को  वो अपने दोस्तों से साझा कर बिना खरीदे खबर  देने का अपना पत्रकारिता धर्म निभाता था | तीसरा बच्चा है गदहा या रिंकू | उसके पिता फ़ौज में हैं | उस गाँव में जो बच्चे पढने में अच्छे होते थे वो या तो फ़ौज में जाते थे या लेखपाल हो जाते थे | गदहा भी पढने में होशियार था और उम्मीद थी कि वो भी अपने पिता के नक़्शे –कदम पर चल कर फ़ौज में जाएगा | गदहा  की खास बात थी की वो बहुत प्रश्न पूछता था | वो पढने से भी ज्यादा सोचता था | ऐसे बच्चों को शहर में लोग साइंटिस्ट की उपाधि देते पर गाँव में उसको इसी वजह से गदहा की उपाधि मिली | चौथा बच्चा है आशिक | उसका परिचय देते हुए भगवंत अनमोल  कहते हैं कि हर मुहल्ले में एक ऐसा बच्चा जरूर होता है जो बचपन से ही आशिक गिरी  को बखूबी संभाल  लेता है | उसे आशिकी के ज्ञान की भी अधिक जरूरत नहीं होती |  ऐसा लगता है कि ये जन्म से ही आशिक पैदा हुआ है और पैदा होते ही गोविंदा का रक्त उसके सारे शरीर में  बहने लगा | खैर, पोस्टमैन और खबरीलाल सांवले थे और दर्जा तीन में पढ़ते थे | गदहा और आशिक गोरे  थे | आशिक कक्षा दो में और गदहा एक में पढता है | कहानी बच्चों की छोटी –मोटी  जिज्ञासाओं के साथ शुरू होती है | गदहा के लिए बड़ा कठिन प्रश्न है ये जानना कि पृथ्वी गोल है या चपटी | पोस्टमैन उसकी इस जिज्ञासा को कई प्रयोग करके ये सिद्धकर देते हैं कि पृथ्वी चपटी है | इस तरह के कई मनोरंजक किस्से हैं | मुझे प्रतीक्षा थी बचपन के ऐसे ही अनेकों मासूमियत भरे किस्सों की लेकिन कहानी का  एक बड़ा हिस्सा बच्चों के स्त्री –पुरुष संबंधों के प्रति कौतुहल, फिर उसको गन्दी बात समझ कर मन हटाने की कोशिश  और फिर उसको स्वाभाविक समझ जाने पर है | हालांकि भगवंत जी ने बहुत पहलें  एक इंटरव्यू में इस विषय के बाबत पूछे जाने पर कहा था कि,   “जब कहीं बच्चों के उपन्यास या कहानियाँ पड़ता हूँ तो उसमें नैतिक शिक्षा कूट -कूट कर भरी होती है | लेकिन जब कभी मुझे अपना या अपने आस -पास का बचपन याद आता है तो मैं ये कह सकता हूँ कि उस बाहरी नैतिक शिक्षा के भीतरी मन में कई व्यस्क सवाल और ख्याल चल रहे होते थे | दुनिया को जानने की जिज्ञासा होती थी खासकर उन चीजों को जानने की ज्यादा जिज्ञासा होती थी जो हमसे छिपाई जाती थी |”  ये बात भी सही है कि  बच्चों की … Read more

गयी झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा

                                                ‘पदमश्री’ और ‘भारत भारती’ आदि अनेकों श्रेष्ठ  पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ. उषाकिरण खान जी यानि कि उषा दी का किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘गयी झुलनी टूट’ अपने नाम से जितना आकर्षित करता है उतना ही अपने कवर पेज से भी | इसके कवर पेज में बनी मधुबनी पेंटिग सहज ही ध्यान खींच लेती है | उन्होंने ‘महालक्ष्मी’ मधुबनी को इस किताब में क्रेडिट भी दिया है | लोक कलाओं के विस्तार का उनका ये तरीका मन को छू गया | उषा दी का नाम आते ही पाठकों के मन में  ‘भामती, ‘अगन हिंडोला’ और ‘भामती’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों की याद ताज़ा हो जाती है | पर यह उपन्यास उनसे अलग हट कर है | इसमें हाशिये के चरित्रों के जीवन के संघर्षों को दिखाया गया है | इसमें वो एक मार्मिक सवाल उठाती हैं कि “…जीवन केवल संगसाथ नहीं है | अगर संगसाथ है तो वंचना क्यों है ?” पूरा उपन्यास एक स्त्री के संघर्ष की जीवंत कहानी है जो कहीं ठहरती नहीं | हर धड़कन के साथ धड़कती हुई महसूस होती है | उषा दी  निरंतर अपने आस –पास के परिवेश की कहानियाँ लिखती आई हैं | उनकी कहानियाँ गल्प नहीं होती जीवन का यथार्थ होती हैं | इसीलिये वो मन में गहरे उतर जाती हैं | उनकी कहानियाँ से  उस परिवेश  के जीवन व् स्त्रियों की दशा, पर्यावरण आदि के बारे में भी बहुत कुछ जानने समझने को मिलता है | जो यहाँ शहर में बैठ कर हम नहीं देख पाते | वो स्वयं कहती हैं कि ,  “मैंने जब 1977 से कहानी लिखने के लिए कलम उठाई तब से यही कह रही हूँ कि जहाँ रहती आई हूँ उस भूमि की, नदी की पर्यावरण की कथा किसी ने नहीं लिखी | वह स्थान ओझल ही रहा | वह स्थान ओझल रहा तो स्त्री भी ओझल ही रही | मेरी कहानी पढ़कर कुछ तो टूटा |” उनके विमर्श शहरी स्त्री के सरोकारों से ना जुड़े होकर भारतीय गाँवों की स्त्री के सरोकारों से जुड़े हैं | जहाँ आज भी भारत की 80 प्रतिशत आबादी रहती है | गाँव की स्त्री के सरोकार शहरी स्त्री के सरोकार से भिन्न हैं | उसके कष्ट अलग हैं | वहाँ  सवाल शुचिता का नहीं है |  आज हम शहर में जिन ‘लिव इन’ संबंधों की बात कर रहे हैं, जिन पर लिखी कहानियाँ नए ज़माने के तथाकथित  ‘दैहिक विमर्श’ के खाँचे में धकेल दी गयी हैं,  वो गाँवों में मौजूद ही नहीं है  पूरी तरह से स्वीकार्य भी है | किसी की यहाँ  का समध कर लेना, किसी की चूड़ी बदल लेना ये सब शब्द गाँवों में आम हैं | स्त्री की शुचिता का वो प्रश्न यहाँ नहीं दिखता जिस पर शहरों में तलवारें तन जाती हैं | वो दुखी है पर उसके दुःख अलग हैं | सच्चाई ये है कि  उनके जीवन में  कष्टों की नदी का कोई ओर छोर नहीं है | उनके पति शहर में रोजी रोटी कमाने चले जाते हैं और पीछे बच जाती हैं औरतें | ये औरते जो परिवार के विरिष्ठ लोगों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं | अकेली जीवन काटती बच्चों को पालती स्त्री के मार्ग में अपने ही क्या –क्या काँटे बो सकते हैं वे उस पर मार्मिकता से प्रहार करती हैं | रोजी-रोटी  की तलाश में जो औरतें गाँवों से आकर बड़े शहरों  में झुग्गियों में बस गयीं हैं | वो हमारे बड़े शहरों के वो अँधेरे कोने हैं जिस पर हम प्रकाश डालने से भी बचते हैं | रोज सुबह समय पर आकर हमारे घरों की फर्श को आईने की तरह चमकाने वाली हमारी कामवालियों, घरेलु सहायिकाओं  की अपनी निजी जिन्दगी किस कालिमा में डूब रही है उसका किसी विमर्श का हिस्सा न बनना निराशाजनक है | शहर आ कर अपनी पहचान खो चुकी ये चेहराविहीन स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ती,ये दो जून रोटी की लड़ाई लड़तीं हैं | हर सूर्योदय के साथ इनका संघर्ष उदय होता है और हर सूर्यास्त को पस्त हुए तन-मन के साथ अस्त होता है कुछ घंटों की बेचैन रात  में ठहरने के बाद अगले सूर्योदय को फिर उदित होने के लिए | हालांकि ये स्त्रियाँ  संघर्षशील स्त्रियाँ  है | वह किसी स्थान पर अटक कर रोते हुए जिन्दगी नहीं काटती बल्कि संघर्ष करते हुए आगे के रास्ते बनाती है | इनके जीवन में आपसी इर्ष्या और परनिंदा है पर समय आने पर ये एक दूसरे को सहयोग देकर फिर से खड़ा करने में भी तत्पर रहती हैं | “जीवन की गति न्यारी है | नदी तल से निकाली मिटटी की तरह फिर समतल हो जाना नियति है |” जब आप कहानी के माध्यम से आगे बढ़ते जाते हैं तो सिर्फ आप कहानी ही नहीं पढ़ते लोक जीवन से रूबरू होते हैं | लोक संस्कृति से रूबरू होते हैं | गाँव के पंचायत निर्माण की प्रक्रिया हो या प्रधानी के चुनाव किस तरह सम्पन्न होते हैं उसकी जानकारी भी मिलती है | वहाँ घांटो जैसा मजबूत चरित्र हैं जो गाँव के विकास के लिए, शिक्षा के लिए, जरूरी सुविधाओं के लिए काम करता है, तो घूँघट वाली ऐसी औरतें भी हैं जो सरपंच तो बन गयी हैं पर वैसे ही घरेलु कामों में व्यस्त हैं और सरपंच के मुखौटे के पीछे असली सत्ता उनके पति संभाले हुए हैं |चालाकियाँ, गुट बाजी, अपने खेमे, वर्चस्व की लड़ाई ,  सब कुछ अनपढ़ और मासूम  से ग्रामीणों  में भी वैसे ही आम है जैसे शहरों में | आखिर असली मानव स्वाभाव भिन्न थोड़ी न है |  गयी  झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा  गयी झुलनी टूट पढ़ते हुए न जाने कितनी बार लगा कि जैसे मन में कहीं से कुछ टूट गया है | कुछ दरक गया है |मन के चारों तरफ दर्द पसर गया | ये दर्द कमली का दर्द था तो घांटों का भी | किसना का तो जगत का भी | हम कमली के दर्द के साथ रोते कलपते  आगे बढ़ते जाते हैं पर हर पात्र अपने हिस्से का दर्द जी रहा होता है | अपने हिस्से … Read more

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में

शिवना प्रकाशन की दो पत्रिकाएँ ‘विभोम स्वर’और ‘शिवना साहित्यिकी’ प्राप्त हुईं | अभी थोड़ी ही पढ़ीं हैं, फिर भी उन पर लिखने का मन हो बन ही गया | पूरी पढ़कर और लिखूँगी | सबसे पहले बात करुँगी ‘शिवना साहित्यिकी” की | कवर पेज पर ही बना बच्चा और भगवत रावत जी की कविता मन मोह लेती है | एक अंश … अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला कटोरदान बच्चे के हाथ से छूट कर नहीं गिरा होता सड़क पर तो कैसे पता चलता कि उसमें चार रूखी रोटियों के साथ-साथ प्याज की एक गाँठ और दो हरी मिर्चे भी थीं विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेरी नज़र में  (वर्ष-4 अंक -15 )               इस अंक की खास बात है गीता श्री जी का पारुल सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार | जितने चुटीले सवाल पारुल जी ने पूछे उतने ही दिलकश जवाब गीताश्री जी ने दिए | गीता श्री जी का स्पष्ट दृष्टिकोण, बेबाक और अपनेपन से भरा अंदाज पाठकों को ख़ासा लुभाता है | गीताश्री जी एक पत्रकार रहीं हैं | पत्रकारिता ने उनके अनुभवों को विस्तार दिया हैं और साहित्य प्रेम में शब्दों और भावों पर पकड़ | इस कारण न उनके पास विषयों की कमी होती हैं ना उन्हें अभिव्यक्त करने के अंदाज की | साक्षात्कार लम्बा है, फिर भी कुछ बातें मैं आप सब से साझा कर रही हूँ | जो मेरे ख्याल से आप के अनुभवों में भी कुछ इजाफ़ा करेंगी | पुरुस्कारों के बारे में वो कहती हैं कहती हैं कि, “ पुरूस्कार मुझे उत्साहित  करते हैं और बेहतर करने को उकसाते हैं |” हालांकि वो साहित्य की तुलना जलेबी दौड़ से करती हैं | बचपन में हम सब ने जलेबी दौड़ में हिस्सा लिया है | इसमें हाथ पीछे बंधे होते हैं और धागे में बंधी जलेबी का एक टुकडा  काट कर आगे भागना होता है | गीता श्री जी कहती हैं कि जो छोटा टुकडा काट कर आगे भाग जाते हैं उन्हें पुरूस्कार मिल जाते हैं और वो पूरी जलेबी खाने के लोभ में वहीँ खड़ी रहती हैं तो उनका मुँह मिठास से भर  जाता है | कितनी सुन्दर बात कही है उन्होंने, भले ही पुरूस्कार उत्साहित  करते हैं पर  रचनात्मक संतुष्टि की मिठास किसी पुरूस्कार से कम तो  नहीं | स्त्रियों के मामले में वो एक ऐसे समाज को स्वप्न देखती हैं जहाँ स्त्री समाज से टकराकर रूढ़ियों को तोड़ कर समानता के आधार पर एक संतुलित समाज की नींव रखती है | उनकी कहानियों की नायिकाएं ऐसी ही हैं | वो बार –बार प्रयोग करने का जोखिम उठा कर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | किसी भी रचनाकार के लिए जरूरी है कि वो अपने द्वारा स्थापित मानकों में कैद होकर ना रह जाए | डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का शोध आलेख “गांधी की पत्रकारिता का भारतीय मॉडल” विचारों का परिमार्जन करने वाला एक अवश्य पठनीय आलेख है | वो लिखते हैं कि , “नाथूराम गोडसे ने गांधी को तीन गोलियों से मारा था | पर हम उन्हें विगत 70 वर्षों सीसंख्य गोलियों से मारते आ रहे हैं , परन्तु गांधी हैं कि मरते ही नहीं | गांधी ने मशीनी सभ्यता के दुष्परिणामों के विरुद्ध जगत को चेताया था तथा ग्रामीण व् प्राकर्तिक जीवन के निरंतर नाश सेसे उत्पन्न होने वाले संकटों से सावधान किया था, परन्तु विज्ञानं एवं तकनीकी जिस प्रकार जीव सृष्टि के लिए संक्सत पैदा कर रही है तब हमें गांधी याद आते हैं और तब हम उनके विचारों में सामाधान ढूँढने लगते हैं |” मंजुश्री के कहानी संग्रह “जागती आँखों का सपना” की डॉ. रमाकांत शर्मा द्वारा व् योगेन्द्र शर्मा जी के उपन्यास ‘कितने अभिमन्यु’ की वेदप्रकाश अमिताभ जी द्वारा की गयी समीक्षा प्रभावित करती है |केंद्र में पुस्तक “जिन्हें जुर्म –ए –इश्क पर नाज था कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज पराशर, शुभम तिवारी , ब्रिजेश राजपूत, कविता वर्मा, दिनेश पाल की समीक्षाएं पुस्तक पढने के प्रति रुझान उत्पन्न  करती है | मैंने भी इसे अपनी ‘विश लिस्ट’ में रख लिया है |   इसी अंक में मेरे द्वारा प्रज्ञा  जी के कहानी संग्रह “मन्नत टेलर्स” की समीक्षा भी प्रकाशित हुई है | जिसे पढ़कर  बताने का काम आप पाठकों का है | विभोम स्वर  “विभोम स्वर” एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका है | जिसके उत्तम स्वरुप लेने में सुधा ओम ढींगरा जी व् पंकज सुबीर जी की मेहनत दिखती है | साहित्य में विचारधाराओं की गुटबाजी पर  अपने सम्पादकीय में सुधा जी लिखती हैं, “साहित्य में विचारधाराओं ने क्या किया ? सिर्फ अपने लेखक स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा ?” डॉ. हंसा दीप का सुधा जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार बहुत ही रोचक व् प्रेरणादायक है |  टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत डॉ.हंसा जी विदेशियों को हिंदी भाषा सिखाने में होने वाली दिक्कतों के बारे में बताती हैं व् इस बात पर जोर देती हैं कि हिंदी को विश्व व्यापी करने के लिए उसका सरलीकरण बहुत जरूरी है | अभी हिंदी दिवस के आस –पास ट्विटर पर यह बहस भी चल रही थी | सच्चाई यही है कि भारत में भी बहुत क्लिष्ट भाषा आज  का युवा समझता नहीं है | सबसे पहले जरूरी है कि युवाओं को हिंदी से जोड़ा जाए | प्रवासी भारतीयों के लेखन के बारे में वो कहती हैं कि रोजी रोटी की व्यवस्था करने बाद ही वो अपनी रचनात्मक भूख शांत कर पाते हैं | इसमें एक लम्बा अंतराल आ  जाता है | फिर भी कैनवास व्यापक  हुआ है | सृजनात्मकता बढ़ी है | स्त्री लेखन, प्रवासी लेखन के वर्गीकरण को वो नहीं मानती पर वो ये मानती हैं पर पश्चिमी व् भारतीय स्त्री के प्रति मूलभूत मानसिकता वही है को स्वीकार करती हैं | विशाखा मुलमुले  की कवितायें गहरे भाव संप्रेषित करती हैं | ये कवितायें हमें जीवन का  आइना दिखाती हैं | ये एक रूपक के माध्यम से अपनी बात कहती हैं और दोनों को तराजू के दो पलड़ों में रखकर सोचने पर विवश कर देती हैं | कहीं ये रूपक विज्ञान से होते हैं तो कहीं जीवन से | जीवन पर उनकी गहरी दार्शनिक पकड़ है | जो सूक्ष्मता से आम जीवन को देखती हैं |उनमें काफी संभावनाएं … Read more

अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय करती कहानियाँ

अभी  पिछले दिनों मैंने “हंस अकेला रोया” में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कहानियों का वर्णन किया था | आज इससे बिलकुल विपरीत कहानी संग्रह पर बात रखूँगी  जहाँ ज्यादातर कहानियों के केंद्र में शहरी और विशेष रूप से उच्च मध्यम वर्ग है | जहाँ मेमसाहब हैं | लिव इन रिश्ते हैं | टाइमपास के लिए पुरुषों से फ़्लर्ट करने वाली युवा लडकियाँ हैं | नौकरीपेशा महिलाएं हैं | माता –पिता दोनों के नौकरी करने के कारण  अकेलेपन से जूझते बच्चे हैं | स्त्रियों को अपने से कमतर समझने वाले परन्तु स्त्री अधिकारों पर लेख, कवितायें  लिखने वाले  फेमिनिस्ट लेखक हैं | और उन सब के बीच में है अना …जो आज के युग की नहीं है | पाषाणयुगीन महिला है | इन तमाम महिलाओं के बीच अना का होना अजीब लगता है | परन्तु उसका अलग होना ही उसकी खासियत है जो पाषाण युग से आधुनिक युग को जोडती है | कैसे …?  आज मैं बात कर रही हूँ वीणा वत्सल सिंह के कहानी संग्रह ‘अंतर्मन के द्वीप’ की | द्वीप यानि भूमि का ऐसा टुकडा जो चारों  तरफ से पानी से घिरा हो | जिसका भूमि के किसी दूसरे टुकड़े से कोई सम्बन्ध ना हो | जब ये द्वीप मन के अंदर बन रहे हों तो हर द्वीप एक कहानी बन जाता है | क्योंकि ऐसे ही तो उच्च-मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं | एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए, अपने –अपने अंदर बंद | फिर भी चारों तरफ भावनाओं के समुद्र में बहते हुए ये द्वीप पृथक –पृथक होते हुए भी उसी भाव समुद्र का हिस्सा हैं | एक दूसरे से पूर्णतया पृथक और अलग होना ही इन द्वीपों की विशेषता है और कहानियों की भी | शायद इसी कारण आजकल के चलन के विपरीत  “अंतर्मन के द्वीप” नामक कोई भी कहानी संग्रह में नहीं है | अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय    सबसे पहले मैं बात करना चाहूँगी कहानी “अना” की | ये कहानी हमें समय के रथ पर बिठाकर पीछे ले जाती है …बल्कि बहुत पीछे, ये कहना ज्यादा  सही होगा | ये कहानी है पाषाण युग की, जब मनुष्य गुफाओं में रहना व् आग पर भोजन पकाना सीख लिया था | उस युग में महिला व् पुरुष एक टोली बनाकर एक गुफा में रहते थे | पुरुष शिकार को जाते थे व् महिलाओं का काम संतान उत्पन्न करना था | जब महिला संतान उत्पन्न करने लायक नहीं रह जाती थी तो गुफा के पुरुष उस महिला को शिकार पर साथ ले जाकर उसे खाई में धक्का दे देते या जानवर के आगे डाल कर उसकी हत्या कर देते थे | इस तरह से महिलाएं अपना पूरा जीवन जी ही नहीं पाती थी | उन्हीं महिलाओं में से एक महिला थी अना और उसकी बेटी चानी | हालांकि उस युग में नाम रखने का चलन नहीं था पर लेखिका ने पाठकों की सुविधा के लिए ये नाम रखे  हैं | अना ने पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ उनकी सेवा करके उनके लिए अधिक समय तक उपयोगी सिद्ध होकर ज्यादा जीवन जी लेने का पहला प्रयोग किया | अपने प्रयोग को सफल होते देख उसने ये गुरुमंत्र अपनी बेटी चानी को भी दिया | चानी ने यहाँ से मन्त्र को और आगे बढ़ाते हुए पुरुषों के लिए देवताओं से लम्बी आयु का वरदान माँगना भी शुरू किया | इस कहानी को स्त्री की आज की कहानी  के शुरूआती पाठ की तरह देखा जा सकता है | आज भी स्त्री अपने परिवार के  पुरुषों की लंबी आयु के लिए व्रत उपवास करती है | भोजन से लेकर शयन तक उनकी हर सुविधा का ध्यान रखती है …क्यों ?  क्यों अपने को पुरुष के जीवन में उपयोगी सिद्ध करने की ये सारी जद्दोजहद स्त्री के हिस्से में आती है ? क्यों ऐसी आवश्यकता पुरुष  को नहीं पड़ती ? तमाम स्त्री विमर्श के केंद्र में जो शाश्वत प्रश्न हैं ये कहानी उन्हीं के उत्तर ढूँढते –ढूँढते पाषण युग में गयी है | कहानी में एक नयापन होने के साथ ये स्त्री के जीवन के बेनाम संघर्षों की अकथ बयानी भी है |   अना का जिक्र करते हुए मेरे जेहन में एक अन्य कहानी आ रही है | हालांकि इस कहानी से उसका कोई लिंक नहीं है फिर भी  जिसके बारे में लिखने में मैं खुद को रोक नहीं पा रही हूँ | “The Handmaid’s tale” जो Margret Atwood का उपन्यास है | ये उपन्यास  Dystopian Fiction  का एक नमूना है | जो यूटोपिया यानि आदर्श लोक का बिलकुल उल्टा है | इस कहानी में लेखिका ने स्त्री जीवन की आगे की यात्रा की है | आज जिस तरह से लिंग अनुपात बिगड़ रहा है और बढ़ते प्रदूष्ण , रेडीऐशन व् जीवन शैली में बदलाव के कारण स्त्री की संतान उत्पत्ति की क्षमता प्रभावित हो रही है | तो हजारों साल  बाद एक ऐसा समय आएगा जब स्त्रियाँ खासकर वो स्त्रियाँ जिनमें संतान उत्पत्ति की क्षमता है, बहुत कम रह जायेगी | तब पुरुषों द्वारा स्त्री प्रजाति को दो भागों में स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया जाएगा | एक वो जिनमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता है और दूसरी वो जो उनकी सेवा करेंगी | जिनमें क्षमता है तो क्या उनका जीवन सुखद होगा ? नहीं | उनके ऊपर कैसे भी, किसी भी तरह से ह्युमन रेस को बचाने का दारोमदार होगा | ये कैसे भी और किसी भी तरह से इतना वीभत्स है कि पढ़ते हुए रूह काँप जाती है | दोनों कहानियों का जिक्र मैंने एक साथ इसलिए किया क्योंकि एक ओर अना है जो स्त्री के द्वारा पुरुष की दासता स्वीकार करने से आज के दौर में पहुँचती है जहाँ स्त्री ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है | The Handmaid’s tale  स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष की शुरुआत से लेकर स्त्री के अधिकारों को पुन: छीन लिए जाने तक जाती है | ये बात महिलाओं को समझनी होगी कि इतिहास से हम सीख सकते हैं … अपने सघर्ष को और तेज कर सकते हैं | लेकिन इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि हमें  The Handmaid’s tale जैसे अंजाम तक भी नहीं पहुँचना है … Read more

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ

 “गाँव” एक ऐसा शब्द जिसके जुबान पर आते ही अजीब सी मिठास घुल जाती है | मीलों दूर तक फैले खेत, हवा में झूमती गेहूं की सोने सी पकी बालियाँ, कहीं लहलहाती मटर की छिमियाँ, तो कहीं छोटी –छोटी पत्तियों के बीच से झाँकते टमाटर, भिन्डी और बैगन, कहीं बेल के सहारे छत  पर चढ़ इतराते घिया और कद्दू, दूर –दूर फैले कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर, हवा में उड़ती मिटटी की सुवास, और उन सब के बीच लोक संस्कृति और भाषा में रचे बसे सीधे सच्चे लोग | यही तो है हमारा असली रूप, हमारा असली भारत जो जो पाश्चात्य सभ्यता में रचे शहरों में नहीं बम्बा किनारे किसी गाँवों में बसता है | पर गाँव के इस मनोहारी रूप के अतिरिक्त भी गाँव का एक चेहरा है…जहाँ भयानक आर्थिक संकट से जूझते किसान है, आत्महत्या करते किसान हैं, धर्म और रीतियों के नाम पर लूटते महापात्र, पंडे-पुजारी हैं | शहरीकरण और विकास के नाम पर गाँव की उपजाऊ मिटटी को कंक्रीट के जंगल में बदलते भू माफिया और ईंट के भट्टे | गाँव के लोगों की छोटी –मोटी लड़ाइयाँ, रिश्तों की चालाकियाँ, अपनों की उपेक्षा से जूझते बुजुर्ग | जिन्होंने गाँव  नहीं देखा उनके लिए गाँव केवल खेत-खलिहान और शुद्ध जलवायु तक ही सीमित हैं | लेकिन जिन्होंने देखा है वो वहाँ  के दर्द, राजनीति, निराशा, लड़ाई –झगड़ों और सुलह –सफाई से भी परिचित हैं | बहुत से कथाकार हमें गाँव के इस रूप से परिचित कराते आये हैं | ऐसी ही एक कथाकार है सिनीवाली शर्मा जो गाँव पर कलम चलाती हैं तो पाठक के सामने पूरा ग्रामीण परिवेश अपने असली रूप में खड़ा कर देती हैं | तब पाठक कहानियों को पढ़ता नहीं है जीता है | सिनीवाली जी की जितनी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं उनकी पृष्ठभूमि में गाँव है | वो खुद कहती हैं कि, ‘गाँव उनके हृदय में बसता है |” शायद इसीलिये वो इतनी सहजता से उसे पन्नों पर उकेरती चलती हैं | अपने कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” में सिनीवाली जी आठ कहानियाँ लेकर आई हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारी कहानियाँ ग्रामींण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं | इस संग्रह के दो संस्करण आ चुके हैं | उम्मीद है कि जल्दी तीसरा संस्करण भी आएगा | तो आइये  बात करते हैं संग्रह की कहानियों की | हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ सबसे पहले मैं बात करुँगी उस कहानी की जिसके नाम पर शीर्षक रखा गया है यानि की  “हंस अकेला रोया” की | ये कहानी ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी | ये कहानी है एक ऐसे किसान विपिन की, जिसके पिता की मृत्यु हुई है | उसके पिता शिक्षक थे | आस –पास के गाँवों में उनकी बहुत इज्ज़त थी | पेंशन भी मिलती थी | लोगों की नज़र में उनका घर पैसे वाला घर था | लेकिन सिर्फ नज़र में, असलियत तो परिवार ही जानता था | रही सही कसर उनकी बीमारी के इलाज ने पूरी कर दी | कहानी शुरू होती है मृत्यु के घर से | शोक का घर है लेकिन अर्थी से लेकर तेरहवीं में पूरी जमात को खिलाने के लिए लूटने वाले मौजूद हैं | अर्थी तैयार करने वाला, पंडित , महापात्र, फूफा जी यहाँ तक की नाउन, कुम्हार, धोबी सब लूटने को तैयार बैठे हैं | आत्मा के संतोष के नाम पर जीवित प्राणियों के भूखों मरने की नौबत आ जाए तो किसी को परवाह नहीं | जो खाना महीनों एक परिवार खा सकता था वो ज्यादा बन कर फिकने की नौबत आ जाए तो कोई बात नहीं, आत्मा की शांति के नाम पर खेत बिके या जेवर  तो इसमें सोचने की क्या बात है ? ये कहानी मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले पाखंड पर प्रश्न उठाती है पर इतने हौले से प्रहार करती है कि कथाकार कुछ भी सीधे –सीधे नहीं कहती पर पाठक खुद सोचने को विवश होता है | ऐसा नहीं है कि ये सब काम कुछ कम खर्च में हो जाए इसका कोई प्रावधान नहीं है | पर अपने प्रियजन को खो चुके  दुखी व्यक्ति को अपने स्वार्थ से इस तरह से बातों के जाल में फाँसा जाता है कि ये जानते हुए भी कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है, फिर भी व्यक्ति खर्चे के इस जाल में फँसता जाता है | ये सब इमोशनल अत्याचार की श्रेणी में आता है जिसमें सम्मोहन भय या अपराधबोध उत्पन्न करके दूसरे से अपने मन का काम कराया जा सकता है | जरा सोचिये ग्रामीण परिवेश में रहने वाले भोले से दिखने वाले लोग भी इसकी कितनी गहरी पकड़  रहते हैं | एक उदाहरण देखिये … “किशोर दा के जाने के बाद  विपिन के माथे पर फिर चिंता घूमने लगीं | दो लाख का इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा | पर और एक लाख कहाँ से आएगा ? सूद पर …? सूद अभी दो रुपया सैंकड़ा चल रहा है | सूद का दो हज़ार रुपया महीना कहाँ से आएगा…सूद अगर किसी तरह लौटा भी दिया तो मूल कहाँ से लौटा पायेगा | वहीँ दूसरी तरफ … “अंतर्द्वंद के बीच सामने बाबूजी के कमरे पर विपिन की नज़र पड़ी …किवाड़ खुला है,  सामने उनका बिछावन दिख रहा है | उसे लगा एक पल में जैसे बाबूजी उदास नज़र आये.. नहीं नहीं बाबूजी मैं भोज करूँगा | जितना मुझसे हो पायेगा | आज नहीं  तो कल दिन जरूर बदलेगा पर अप तो लौट कर नहीं आयेंगे …हाँ, हाँ करूँगा भोज |” कथ्य भाषा और शिल्प तीनों ही तरह से ये कहानी बहुत ही प्रभावशाली बन गयी है | एक जरूरी विषय उठाने और उस पर संवेदना जगाती कलम चलने के लिए सिनीवाली जी को बधाई | “उस पार” संग्रह की पहली कहानी है | इस कहानी बेटियों के मायके पर अधिकार की बात करती है | यहाँ बात केवल सम्पत्ति पर अधिकार की नहीं है (हालांकि वो भी एक जरूरी मुद्दा है-हंस जून 2019 नैहर छूटल  जाई –रश्मि  ) स्नेह पर अधिकार की है | मायके आकर अपने घर –आँगन को देख सकने के अधिकार की है | इस पर लिखते हुए मुझे उत्तर प्रदेश के देहातों में गाया जाने वाला लोकगीत याद आ … Read more

फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा

ड्रीम गर्ल यानि स्वप्न सुंदरी | बरसों पहले इसी नाम से एक फिल्म आई थी जिसमें हेमामालिनी ने अभिनय किया था | इस फिल्म में उनकी खूबसूरती और अभिनय का जादू कुछ ऐसा चला कि कि दर्शक दीवाने हो गए | उसके बाद  हेमा मालिनी को ड्रीम गर्ल टाइटल  से ऐसा नवाजा गया कि आज तक जब ड्रीम गर्ल शब्द का प्रयोग कोई करता है तो सबसे पहले हेमा मालिनी का चेहरा ही याद आता है | 2019 में फिर से एक फिल्म उसी नाम ड्रीम गर्ल से दर्शकों के सामने आई है | ये फिल्म हेमामालिनी की ख़ूबसूरती को मिले खिताब ड्रीम गर्ल को तो टक्कर नहीं देती लेकिन कॉल सेंटर  इंडस्ट्री के एक हिस्से द्वारा रचाए गए ड्रीम गर्ल के तिलिस्म पर अपनी बात रखती है | फिल्म कॉमेडी के माध्यम से हँसाते -हँसाते भी अकेलेपन से जूझते समाज एक गंभीर मसला उठाती है और गहराई से सोचने पर विवश करती है | तो आइये बात करते हैं पूजा के बारे में जो महज एक नाम नहीं एक तिलिस्म है …. फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा  फिल्म -ड्रीम गर्ल बैनर -बालाजी टेलीफिल्म्स लिमिटेड  निर्माता -एकता कपूर , शोभा कपूर  निर्देशक -राजा शांडिल्य  संगीत -मीता ब्रदर्स  कलाकार – आयुष्मान खुराना , अनू कपूर , नुसरत भरूच , मनजोत सिंह , विजय राय  समय -दो घंटे बारह मिनट 29 सेकंड   २०१९ की ‘ड्रीम गर्ल का निर्देशन किया है राजा शांडिल्य ने | वो ‘कपिल शर्मा शो’ में भी काम कर चुके हैं | कपिल शर्मा शो एक ऐसा शो है जहाँ पुरुष पात्र महिला भेष में आते हैं | एक अनुमान ये है कि उनको फिल्म का आइडिया वहीँ से मिला | हालांकि उनका कहना है कि ये आइडिया उन्हें अपने एक दोस्त से मिला जो महिलाओं की आवाज़ में  फोन पर बातें किया करता था | फिल्म की कहानी शुरू होती है  एक माध्यम वर्गीय परिवार से जिसमें विधुर अनू कपूर अपने बेटे आयुष्मान खुराना के साथ रहता है | अनू कपूर की एक छोटी सी दुकान है | जिसके  सहारे ही उसका घर चलता है | पत्नी के बहुत साल पहले उसे छोड़ कर ईश्वर के घर चले जाने से उसकी जिन्दगी में एक खालीपन है और साथ में हैं बहुत सारे लोन | यहाँ तक कि उसका घर भी गिरवी रखा हुआ है | ऐसे में उसे आशा और उम्मीद की सुई अपने बेटे पर टिकी हुई है जो एक पढ़ा -लिखा बेरोजगार है | और देश के लाखों बेरोजगारों की तरह अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद बार -बार प्रतियोगी परीक्षाएं देता है , इंटरव्यू देता है पर नतीजा शिफर ही रहता है | ऐसे में उसके पॉकेट मनी का सहारा है उसकी आवाज़ ….जी हाँ उसकी आवाज़ की ये खासियत है कि वो  महिला  या कहें कि महिलाओं की आवाज़ में भी बात कर सकता है | इसी कारण उसे मुहल्ले में होने वाले राम लीला या जन्माष्टमी आयोजन में सीता या राधा का रोल मिल जाता है | जिससे उसे कुछ पैसे तो मिलते हीं हैं , कुछ बख्शीश भी मिल जाती है |  पर इस उम्र में जब उसे अपने भावी परिवार व पिता की जिम्मेदारियों को अपने कन्धों पर लेना है ये नाकाफी है | और यही उसकी चिंता का सबब भी है | ऐसे में एक इंटरव्यू  से रिजेक्ट होकर वो  बस से घर लौट रहा होता है तो उसकी नज़र एक विज्ञापन पर पड़ती है | जिसमें लिखा होता है कि हर महीने 70, 000 कमायें |  धन और नौकरी का लोभ उसे वहां खींच ले जाता है और उसके सामने आता है एक ऐसी इंडस्ट्री का सच जिसके बारे में उसे पता नहीं था | “बातें ही बातें , प्यार भरी बाते , या फिर दोस्ती ” जैसे विज्ञापन हम भी अक्सर देख कर आगे बढ़ जाते हैं | पर यहाँ हम इसकी असलियत से रूबरू होते हैं | जहाँ काम करने वाली लड़कियों को प्रेम भरी या कस्टमर के इंटरेस्ट की बातें कर उनका फोन का बिल बढ़ाना होता है | यही बढ़ा हुआ बिल कॉल सेंटर्स की कमाई  का जरिया है | इस इंडस्ट्री में बहुत लडकियाँ काम कर रही हैं | ये सही है या गलत …पर ये है | एक लड़की पूजा के ना आने से मालिक परेशान  है | ऐसे में आयुष्मान उसका फोन अटेंड कर स्त्री की आवाज़ में बातें करने का अपना हुनर दिखाता है | मालिक तुरंत उसे काम पर रख लेता है | यहाँ से शुरू होती है आयुष्मान की दोहरी जिन्दगी | एक तरफ वो पिता व् परिचितों से  झूठ बोल कर कि वो कॉलगेट कम्पनी में काम करता है पूजा बन कर कॉल सेंटर में काम करता है दूसरे वो उस पैसे से तमाम लोंन  चुकाता  है और घर की हालत सुधरती है |  इधर पूजा के दीवानों की संख्या बढ़ने लगती है | बूढ़े से लेकर कम उम्र नौजवान सब उससे बात करना चाहते हैं और उधर आयुष्मान की निजी जिन्दगी की उलझने | यानि इन तमाम स्तिथियों में पहले हास्य पैदा होता है फिर कन्फ्यूजन | और अंत में कन्फ्यूजन तो खत्म होना ही है | होता है ..पर एक खूबसूरत नोट के साथ | यहीं से हम शुरू करेंगे एक हास्य फिल्म की गंभीर चर्चा | “ आज लोग फॅमिली फोटोग्राफ नहीं खींचते | ज्यादातर लोगों के फोन सेल्फी से भरे होते है | “                                      ये समस्या है अकेलेपन की | आज रिश्तों -नातों , मित्रों , फेसबुक इन्स्टाग्राम के होने बावजूद भी हर आदमी तन्हाँ है | उसे एक दोस्त चाहिए …ऐसा दोस्त जिसके आगे वो अपने दिल की हर बात कह सके | आखिर ऐसा क्यों है कि हम हमें अपनों की भीड़ में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता जिसके सामने हम पारदर्शी रह सकें | उत्तर आसान है …हमें नकारे जाने का डर होता है | हमारे अपने हमें ऐसे रूप में देखना पसंद करते हैं जो उन्हें सही लगता है | इनके -उनके सही में हमारा असली चेहरा कहीं खो जाता है | जिसका असली चेहरा जितना … Read more

मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़

 आज का दौर बाज़ारों का दौर है | ये केवल अपनी जगह सीमित नहीं है | ये बाज़ार हमारे घर तक आ गए हैं | ये हमें कहीं भी पकड़ लेते हैं | हम सब इसकी जद में है | टी.वी, रेडियो, मोबाइल स्क्रीन से आँख हटा कर जरा दूर देखने की कोशिश करें तो किसी ना किसी होर्डिंग पर कुछ ना कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है | आज हमारे पास पहले से ज्यादा कपड़े है, महंगे मोबाइल हैं, गाड़ियाँ हैं, लोन पर लिए ही सही पर अपने फ़्लैट हैं | हम सब अपने बढ़ते जीवन स्तर की झूठी शान से खुश हैं | उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में भागते हुए हमें कहाँ ध्यान जाता है गिरते हुए मानव मूल्यों का, टूटते रिश्तों का और आपसी सौहार्द का | ये सब लिखते हुए मुझे याद आ रहा है महान वैज्ञानिक  न्यूटन का तीसरा नियम…क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर होती है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | आप सोच रहे होंगे कि विज्ञान का यहाँ क्या काम है | लेकिन भौतिकी का  ये नियम उपभोक्तावाद की संस्कृति में भी मौजूद है | जरा गौर कर के देखिएगा…बाज़ार से हमारी दूरी जितनी घट रही है, आपसी रिश्तों की दूरी उतनी ही बढ़ रही है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | “उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे” से आपसी रिश्तों में इर्ष्या के बीज बोती इस उपभोक्तावादी संस्कृति का असर सिर्फ इतना ही नहीं है | “मेरे घर के बस दस कदम की दूरी पर मॉल है”, “मेट्रो तो मेरे घर के बिलकुल पास से गुज़रती है”, “हम तो सब्जियाँ  भी अब ऐ.सी . मार्किट से ही खरीदते हैं…भाई कौन जाए सब्जी मंडी में झोला उठाकर पसीने बहता हुआ” जब हम बड़ी शान से ऐसे वाक्य कहते हुए विकास का जय घोष करते हैं तो हम बड़ी ही बेरहमी में उन लोगों की पीड़ा के स्वरों को दबा देते हैं जिनकी रोजी –रोटी छिन गयी है | जिनके बच्चों की पढाई छूट गयी है | जिनकी झुगगियाँ तोड़ दी गयी हैं | इस संवेदनहीनता में हम सब शामिल हैं | बाजारवाद की भेंट चढ़े उन्हीं मानवीय रिश्तों, जीवन मूल्यों और रोजी-रोटी से महरूम किये गए दबे कुचले लोगों के प्रति संवेदना जगाने के लिए प्रज्ञा जी लेकर आई है “मन्नत टेलर्स” | इस कहानी संग्रह की हर कहानी कहीं ना कहीं आपको अशांत करेगी, सोचने पर विवश करेगी, और विवश करेंगी उन प्रश्नों के उत्तर खोजने को भी जो आपके मन में प्रज्ञा जी हलके से रोप देती हैं | यूँ तो बहुत तरह की कहानियाँ लिखी जाती है पर साहित्य का उद्देश्य ही अपने समय को रेखांकित करना है, संवेदना जगाना और समाधान ढूँढने को प्रेरित करना है | आज जब महिला लेखिकाओं पर लोग आरोप लगाते हैं कि वो केवल स्त्री संबंधित  मुद्दों पर ही लिखती है तो मुझे लगता है कि ‘मन्नत टेलर्स’ जैसे कथासंग्रह उन सारे आरोपों का जवाब है | जहाँ ना सिर्फ बाज़ारवाद  पर सूक्ष्म पकड है बल्कि उसके दुष्प्रभावों पर संवेदना जगाने की ईमानदार कोशिश भी | जैसा की अपने आत्मकथ्य में प्रज्ञा जी कहती हैं कि, “ जब धरती बनी तो उस पर रास्ते नहीं थे| पर जब बहुत सारे लोग एक ही दिशा की ओर चलते चले गए तो रास्ते बन गए | समाज की कठोर परिस्थियों और निराशाओं के अंधेरों की चट्टान के नीचे मुझे हमेशा एक नए पौधे की हरकत दिखाई दी है | ये कहानियाँ साधारण से दिखने वाले लोगों के असाधारण जीवट की कहानियाँ हैं |” मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़  ‘लो बजट’ इस संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी है प्रखर की जो अपने दोस्त संभव के साथ दिल्ली में एक ‘लो बजट’ का फ़्लैट ढूढ़ रहा है | प्रखर अपनी पत्नी व् दो बच्चों के साथ अभी किराए के मकान में रहता है | उसका भी सपना वही है जो किराए के मकानों में रहने वाले लाखों लोगों का होता है …एक अपना घर हो, छोटा ही सही लेकिन जिसकी दीवारें अपनी हों और अपनी हो उस की सुवास | और फिर फ़्लैट अपने होने से  हर महीने दिए जाने वाले किराए से भी छुट्टी मिलती है |  कहानी की शुरुआत फ़्लैट ढूँढने में होने वाली परेशानियों से होती है | आये दिन प्रॉपर्टी डीलर फ़्लैट देखने के लिए बुला लेता है | संडे की एक सुकून भरी छुट्टी बर्बाद होती है | फिर भी फ़्लैट पसंद नहीं आता | किसी की फर्श चीकट है तो किसी के किचन का स्लैब बहुत नीचा और किसी की अलमारियाँ दीमकों का राजमहल बनी हुई हैं | घर ढूँढने की शुरूआती परेशानियों के बाद  जैसे-जैसे कहानी आगे बढती है भू माफियाओं के चहरे बेनकाब करती चलती है | किस तरह से उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है | किस तरह से तंग गलियों में ऊँचे –ऊँचे फ़्लैट बन कर महंगे दामों में बेचे जा रहे हैं | किस तरह से बिना नक्शा पास कराये फ्लैस जब तोड़े जाते हैं तो नुकसान सिर्फ और सिर्फ खरीदार को होता है | एक उदहारण देखिये … “ आप क्या समझ रहे हैं मकान खरीदने को ? इतना आसान है क्या ? फ़्लैट पसंद आ भी गया तो उसके साथ रजिस्ट्री की कीमत जोड़ो | हमारे दो परसेंट कमीशन को जोड़ो | फिर कागज़ बनवाने के साथ अथॉरिटी से कागज़ निकलवाने का खर्चा जोड़ो | और फिर असली कीमत तो तय होगी मालिक के साथ टेबल पर |” जिन्होंने  भी फ़्लैट खरीदे  हैं या प्रयास किया है वो सब इस दौर से गुज़रे होंगे | कहानी यहीं नहीं रूकती | उसका फैलाव उन खेतों तक पहुँचता है जिन पर भू माफियाओं की नज़र है | जहाँ किसान की मजबूरी खरीदी जा रही है या उन्हें बड़े सपने बेच कर कृषि योग्य भूमि खरीदी जा रही है | बड़ी ही निर्ममता से हरी फसलों से लदे खेतों को कंक्रीट के जंगलों में बदला जा रहा है | कृषि योग्य भूमि की कमी हो रही है | किसान आत्महत्या कर रहे हैं | पर इसकी चिंता किसे है कि उपजाऊ जमीन और अन्नदाता को मृत्यु की ओर धकेल कर वो भविष्य में … Read more