विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ, मत बुझाओ ! जब मिलेगी, रोशिनी  मुझसे मिलेगी पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ आँसुओं से जन्म दे-दे कर हँसी को एक मंदिर के दिए सा जल रहा हूँ, मैं जहाँ धर दूं कदम वह राजपथ है, मत मिटाओ ! पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी ! जब मिलेगी, रोशिनी मुझसे मिलेगी !                    राम अवतार त्यागी   आज मैं जिस किताब के बारे में लिखने जा रही हूँ वो सिर्फ एक किताब नहीं है ..वो जिन्दगी है , जिसमें हताशा है, निराशा है संघर्ष हैं और संघर्षों से टकरा –टकरा कर लिखी गयी विजय गाथा है | दरअसल यह गिर –गिर कर उठने की दास्तान है | यूँ तो ये एक आत्मकथा है जिसे पढ़ते हुए आपको अपने आस-पास के ऐसे कई चेहरे नज़र आने लगेंगें जिनके संघर्षों को आप  देख कर भी अनदेखा करते रहे | कई बार सहानुभूति में आँख तो भरी पर उनके संघर्षों में उनका हौसला बढाकर साझीदार नहीं बने | इस पुस्तक का उद्देश्य इस सामजिक मानसिकता के भ्रम को तोडना ह , जिसके तहत हम –आप,  किसी दिव्यांग को , किसी अस्वस्थ को, या  किसी अन्य आधार पर किसी  को अपने से कमतर मान कर उसे बार –बार कमतरी का अहसास करते हुए उसके स्वाभिमान पर प्रहार करते रहते हैं |  सहानभूति और समानुभूति में बहुत अंतर है | सहानभूति की नींव कभी समानता पर नहीं रखी होती | क्यों नहीं हम सहानुभूति वाली मानसिकता को त्याग कर हर उस को बराबर समझें | उसे अपने पंख खोलने का हौसला और हिम्मत दे …यकीन करें उसकी परवाज औरों की तरह ही ऊँची होगी …बहुत ऊँची | विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब   और जैसा किताब के लेखक ललित कुमार जी ने पाठकों को संबोधित करते हुए लिखा है कि “मैंने इस पुस्तक में हर भारतीय को आवाज़ दी है कि वो विकलांगों के प्रति अपने नजरिया सकारात्मक बनाए | मैंने समाज को कुछ वास्तविकताओं के बारे में बताया है, ताकि हमारा समाज विकलांग लोगों को हाशिये पर डालने के बजाय विकलांगता से लड़ने के लिए खुदको मानसिक व् संरचनात्मक रूप से तैयार कर सके | यदि यह पुस्तक एक भी व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में थोडा भी योगदान दे सके तो मैं इस पुस्तक के प्रकाशन को सफल समझूंगा |” आज  हम जिस पुस्तक की चर्चा कर रहे हैं वो है ललित कुमार जी की “विटामिन –जिंदगी” | ललित कुमार जी को कविता कोष व गद्य कोष के माध्यम से सभी जानते हैं | लेकिन उनके सतत जीवन  संघर्षों और संघर्षों को परास्त कर जिन्दगी की किताब पर विजय की इबारत लिखने के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे | “ये विटामिन जिंदगी” वो इच्छा शक्ति है वो जीवट है, वो संकल्प है जिससे कोई भी निराश, हताश व्यक्ति अपनी जिन्दगी  की तमाम मुश्किलों से टकराकर सफलता की सीढियां चढ़ सकता है | इसमें वो लोग भी शामिल हैं जिनके साथ प्रकृति माँ ने भी अन्याय किया है | “प्रकृति विकलांग बनती है और समाज अक्षम”  “ओह ! इसके साथ तो भगवान् ने बहुत अन्याय किया है”कह कर  हम जिन लोगों को देखकर आगे बढ़ जाते हैं उन्हीं में से एक थे मिल्टन, जिनकी कवितायें आज भी अंग्रेजी साहित्य में मील का पत्थर बनी हुई हैं,  उन्ही में एक थे बीथोवन जिनकी बनायी सिम्फनी को भला कौन नहीं जानता है | उनकी सुनने की क्षमता  26 वर्ष की आयु से ही कम हो गयी थी | अन्तत: उन्हें सुनाई देना पूरी तरह से बंद हो गया | पाँचवीं सिम्फनी तक वो पूरी तरह से सुनने की क्षमता खो चुके थे | फिर भी वो रुके नहीं …और उसके बाद भी एक से बढ़कर एक  लोकप्रिय सिम्फनी बनायी | उन्हीं में से एक है हिंदी फिल्मों में नेत्रहीन संगीतकार, गीतकार  रवीन्द्र जैन जिनकी बनायीं धुनें आज भी भाव विभोर करती हैं |  उन्हीं में से एक है दीपा  मालिक जी, जिनके सीने के नीचे का हिस्सा संवेदना शून्य है लेकिन उन्होंने रियो पैरा ओलम्पिक में रजत पदक जीता | हाल ही में उन्हें खेल रत्न से नवाजा गया है | और उन्हीं में से एक हैं ललित कुमार जी | ऐसे और भी बहुत से लोग होंगे जिनके नाम हम नहीं जानते, क्योंकि उन्होंने सार्वजानिक जीवन में भले ही कुछ ख़ास न किया हो पर अपने–अपने जीवन में अपने संघर्ष और विजय को बनाए रखा | ये सब लोग अलग थे ….दूसरों से अलग पर सब ने सफलता की दास्तानें लिखीं | ये ऐसा कर पाए क्योंकि इन्होने खुद को अलग समझा दूसरों से कमतर नहीं | इस किताब के लिखने का उद्देश्य भी यही है कि आप इनके बारे में जान कर महज उनकी प्रशंसा प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में कर के आगे ना बढ़ जाए | बल्कि  अपने आस-पास के दिव्यांग लोगों को अपने बराबर समझें | उनमें कमतरी का अहसास ना जगाएं |   पल्स पोलियो अभियान के बाद आज भारत में पोलियो के इक्का दुक्का मामले ही सामने  आते हैं परन्तु एक समय था कि पूरे  विश्व को इसने अपने खुनी पंजे में जकड़ रखा था | कहा जाता है कि उस समय अमेरिका में केवल दो चीजों का डर था एक ऐटम  बम का और दूसरा पोलियो का | पोलियो के वायरस का 90 से 95 % मरीजों पर कोई असर नहीं होता | 5 से 10% मरीजों पर हल्का बुखार और उलटी और दर्द ही होता है केवल दशमलव 5% लोगों में यह वायरस तंत्रिका तंत्र पर असर करता है और उसे जीवन भर के लिए विकलांग कर देता | ये बात भी महवपूर्ण है कि  1955 में डॉ सार्क  ने पोलियो का टीका बनाया था | लेकिन उन्होंने इसे पेटेंट नहीं करवाया | उन्होंने इसे मानवता के लिए दे दिया | वो इस टीके के पेटेंट से हज़ारों करोणों डॉलर कमा सकते थे | पर उन्होंने नहीं किया | और इसी वजह से पोलियो को दुनिया से लगभग मिटाया जा सका है | मानवता के लिए ये उनका अप्रतिम योगदान है | ये जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा से सर झुक जाना स्वाभाविक है … Read more

इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ

जीवन में खुश रहने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं  ( रोटी कपड़ा और मकान ) के बाद हमारे जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी  क्या है ? उत्तर है रिश्ते |  आज जब हर इंसान पैसे और सफलता के पीछे भाग रहा है तो ख़ुशी के ऊपर किये गए एक अमेरिकन सर्वे की रिपोर्ट  चौकाने वाली थी | सर्वे करने वाले ग्रुप को विश्वास था कि जो लोग अपनी जिन्दगी में बहुत सफल हैं या जिन्होंने बहुत पैसे कमाए होंगे वो ज्यादा खुश होने परन्तु परिणाम आशा के विपरीत निकले | वो लोग अपनी जिन्दगी में ज्यादा खुश थे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे भले ही उनके पास कम पैसे हो या सफलता उनकी तयशुदा मंजिल से बहुत पहले किसी पगडण्डी पर अटकी रह गयी हो | भले ही सफलता के  के नए गुरु कहते हों कि जिन्दगी एक रेस है …दौड़ों और ये सब पढ़ सुन कर हम बेसाख्ता दौड़ने लगे हों पर जिन्दगी एक बेलगाम दौड़ नहीं है | ये अगर कोई दौड़ है भी तो नींबू दौड़ है | याद है बचपन के वो दिन जब हम एक चम्मच में नीबू रखकर चम्मच को मुँह में दबा कर दौड़ते थे | अगर सबसे पहले लाल फीते तक पहुँच भी गए और नींबू चम्मच से गिर  गया तो भी हार ही होती थी | सफलता की दौड़ में ये नीम्बू हमारे रिश्ते हैं जिन्हें हर हाल में सँभालते हुए दौड़ना है | लेकिन तेज दौड़ते हुए इतना ध्यान कहाँ रह जाता है इसलिए आज हर कोई दौड़ने के खेल में हार रहा है | निराशा , अवसाद से घिर है | समाज में ऐसे नकारात्मक बदलाव क्यों हो रहे हैं ? , रिश्तों के समीकरण  क्यों बदल रहे हैं ? गाँव की पगडण्डीयाँ चौड़ी सड़कों में बदल गयी पर दिल संकुचित होते चले गए | क्या सारा दोष युवा पीढ़ी का है या बुजुर्गों की भी कुछ गलती है ? बहुत सारे  सवाल हैं और इन सारे सवालों के  प्रति सोचने पर विवश करने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करने  के लिए ‘रीता गुप्ता ‘ जी ले कर आयीं हैं “इश्क के रंग हज़ार “ इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ  ” इश्क के रंग हज़ार ‘ नाम पढ़ते ही पाठक को लगेगा कि इस संग्रह में प्रेम कहानियाँ होंगी | परन्तु आशा के विपरीत इस संग्रह की कहानियाँ  रिश्तों के ऊपर बहुत ही गंभीरता से अपनी बात करती हैं | पाठक कहीं भावुक होता है , कहीं उद्द्वेलित होता है तो कहीं निराश भी वहीँ कुछ कहानियों में रिश्तों की सुवास उसके मन वीणा के तार फिर से झंकृत कर देती हैं | कहानी संग्रह का नाम क्या हो ये लेखक का निजी फैसला है | ज्यादातर लेखक किसी एक कहानी के नाम पर ही शीर्षक रखते हैं | शीर्षक के नाम वाली कहानी बहुत मिठास का अहसास देती हैं पर जिस तरह से गंभीर कहानियाँ अंदर के पन्नों पर पढने को मिलती हैं तो मैं कहीं न कहीं ये सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि संग्रह का शीर्षक कुछ और होता तो रिश्तों की उधेड़बुन से जूझते हर वर्ग के पाठकों को  ज्यादा आकर्षित कर  पाता | वैसे इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं  , फिर भी जिन्होंने नाम के कारण इस संग्रह पर ध्यान नहीं दिया है उनसे गुजारिश है कि इसे पढ़ें और फिर अपनी राय कायम करें | सबसे पहले मैं बात करना  चाहूँगी कहानी ‘आवारागर्दियों का सफ़र ‘की | ये कहानी ‘इद्र्प्रस्थ भारती’ में प्रकाशित हुई  थी | ये कहानी है 17 -18 साल के किशोर  अनु की , जो  ट्रक में खलासी का काम करता है | काम के कारण अनु को अलग -अलग  शहर में जाना पड़ता है | पिछले कई वर्षों में वो झारखंड व् आसपास के कई राज्यों में  जा चुका  है | हर जगह उसकी कोशिश यही होती है कि  उस शहर में रेलवे स्टेशन जरूर हो |  हर रेलवे स्टेशन के पास ही वो अपना डेरा बनाता है ताकि उसे खोजने में आसानी हो  | आप सोच रहे होंगे कि आखिर अनु क्या खोज रहा है ? इस खोज के पीछे एक बहुत दर्द भरी दास्ताँ है | नन्हा अनु अपने माता -पिता के साथ किसी रेलवे स्टेशन के पास ही रहता था , जब वो पिता की ऊँगली छुड़ा कर रेलगाड़ी में घुस गया था | उसके लिए महज एक खेल था , एक छोटी सी शरारत ….पर यही खेल उसके जीवन की सबसे कड़वी  सच्चाई बन गया | आज उसे कुछ भी याद नहीं है …याद है तो पिता की धुंधली सी आकृति , तुलसी  के चौरे पर घूंघट ओढ़े दिया जलाती माँ और स्टेशन के पास एक दो कमरों का एक छोटा सा मकान जिसकी दीवारे बाहर से नीली और अंदर से पीली पुती हुई थी पर दरवाजा सफ़ेद और पीछे कुएं के पास लगे आम और अमरुद के पेड़ | हर स्टेशन के आस -पास यही तो ढूँढता है वो …और हर बार बढती जातीं है उसके साथ पाठक की बेचैनियाँ | अब उसकी तलाश पूरी होती है या नहीं ये तो आपको कहानी पढ़ कर पता चलेगा पर अनु की बेचैनी को उजागर करती ये पंक्तियाँ अभी आप को भी बेचैन होने को विवश कर देंगी | “पक्षियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहे थे | अनु को उनके उड़ने में एक हडबडी , एक आतुरता महसूस हो रही थी | “घर ” वहाँ  इन सब का जरूर कोई ना कोई घर कोई ठिकाना होगा , वहाँ  कोई होगा जो इनका इंतजार कर रहा होगा | ‘परिवार ‘इन पंक्षियों का भी होता होगा क्या ? होता ही होगा , दुनिया में हर किसी का एक परिवार अवश्य ही होता है , सिवाय उसके , और अनु की आँखों से कुछ खारा पानी आज़ाद हो गया उसी क्षण | ‘ बाबा ब्लैक शीप ‘इस संग्रह की मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है | ये कहानी दो पीढ़ियों के टकराव पर है | कहानी की शुरुआत अंकल सरीन की मृत्यु की खबर से होती  है , जिसे कभी उनके  पड़ोसी रहे व्यक्ति का बेटा पढता है | खबर में … Read more

पालतू बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब

प्रभात रंजन जी की मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित किताब ‘ पालतू बोहेमियन’ के नाम से वैसे ही आकर्षित करती है जितना आकर्षण कभी टी.वी. धारावाहिक लेखन में मनोहर श्याम जोशी जी का था | इसे पूरी ईमानदारी के साथ पन्नों पर उतारने की कोशिश करी है प्रभात रंजन जी ने | जानकी पुल पर प्रभात रंजन जी को पढ़ा है उनका लेखन हमेशा से प्रभावित करता रहा है  परन्तु इस किताब में उन्होंने जिस साफगोई के साथ उस समय की अपनी कमियाँ, पी.एच.डी. करने का कारण, और उस समय लेखन को ज्यादा संजीदगी से ना लेने का वर्णन किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है | ये पुस्तक गुरु और शिष्य के अंदाज में लिखी गयी है | फिर भी  आज आत्म मुग्ध लेखकों का दौर है | कोई कुछ जरा सा भी लिख दे तो दूसरों को हेय  समझने लगता है | ऐसे में मनोहर श्याम जोशी जी के कद को और कुछ और ऊँचा करने के लिए प्रभात रंजन जी जब कई खुद को कमतर दर्शाते  हैं तो इसे एक लेखक के तौर पर बड़ा गुण समझना चाहिए |  उम्मीद है जल्दी ही उनका उपन्यास पढने को मिलेगा | वैसे उन्हें  जोशी जी द्वारा सुझाया गया “दो मिनट का मौन” हिंदी साहित्य के किसी अनाम लेखक के ऊपर एक अच्छा कथानक है परन्तु क्योंकि अब प्रभात रंजन जी ने उस रहस्य को उजागर कर दिया है इसलिए उम्मीद है कि वो किसी नए रोचक विषय पर लिखेंगे | इस पुस्तक पर कुछ लिखने से पहले मैं कहना चाहती हूँ कि पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं है , क्योंकि ये ज्ञान की एक पोटली है आप जितनी श्रद्धा से इसे पढेंगे उतना ही लाभान्वित होंगे | पालतू  बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब “तो छुटकी डॉक्टर बन पाएगी या नहीं कल ये देखेंगे ..हम लोग “ ” ऐसे ना देखिये मास्टर जी “ ” तो कैसे देखूं लाजो जी ”  मनोहर श्याम जोशी जी के साथ खास बात यह थी कि वो  उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनका नाम वो लोग भी जानते हैं जो हिंदी साहित्य में ख़ास रूचि नहीं रखते हैं | भला ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने वाले लेखक का नाम कौन भूल सकता है ? हालांकि उनका जीवन शुरू से ही लेखन –सम्पादन को  समर्पित रहा और हम लोग लिखने से पहले उनका उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ व् ‘कसप’ से  साहित्य जगत में बहुत चर्चित भी हो  चुका था फिर भी आम जन-मानस के ह्रदय में उनकी पैठ हम लोग और बुनियाद जैसे धारावाहिक लिखने के कारण ही हुई |  मनोहर श्याम जोशी जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनकी रचनाएँ पाठकों और आलोचकों में सामान रूप से लोकप्रिय रही हैं | साथ ही उनकी खास बात ये थी उनका लेखन किसी विचारधारा की बेंडी से जकड़ा हुआ नहीं था | उन्होंने पत्रकारिता कहानी , संस्मरण, कवितायें और टी वी धारावाहिक लेखन भी किया | कोई एक लेखक इतनी विधाओं में लिखे ये आश्चर्य चकित  करने वाला है |उस समय बहुत से लेखक उन पर शोध कर रहे थे |   मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित इस पुस्तक में उनके जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को छुआ है | इसकी प्रस्तावना पुष्पेश पन्त जी ने लिखी है | उन्होंने इसमें मुख्यत : जोशी जी के प्रभात जी से मिलने से पहले के जीवन पर प्रकाश डाला है | जोशी जी के साथ –साथ इसके माध्यम से पाठक को पुष्पेश पन्त जी के बचपन की कुछ झलकियाँ  देखने को मिलती हैं | साथ ही आज से 59-60 वर्ष पहले के पहाड़ी जीवन की दुरुह्ताओं की भी जानकारी मिलती है | पुष्पेश जी एक वरिष्ठ  लेखक हैं उनके बारे में जानकारी से पाठक समृद्ध होंगे | हालांकि प्रस्तावना थोड़ी बड़ी और मूल विषय से थोडा इतर लगी | फिर भी, क्योंकि ये किताब ही जानकारियों की है इसलिए उसने पुस्तक में जानकारी का बहुत बड़ा खजाना जोड़ा ही है | असल में हम लोग जादुई यथार्थवाद के नाम पर अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय वर्चस्व के जाल में उलझ जाते हैं | क्या तुम जानते हो कि उनकी भाषा को कभी स्पेनिश और लेटिन अमेरिकी आलोचकों ने कभी जादुई नहीं कहा | पहली मुलाकात ये किताब वहाँ  से शुरू होती है जब लेखक प्रभात रंजन जी ने पी.एच.डी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था | जिसका शीर्षक था : उत्तर आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास | जोशी जी से पहली मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि वो उदय प्रकाश जी द्वारा दिए गए ‘ब्रूनो शुल्ज’ के उपन्यास “स्ट्रीट ऑफ़ क्रोकोडायल्स” को  पहुँचाने के लिए उनके घर गए थे | उनके मन में एक असाधारण व्यक्ति से मिलने की कल्पना थी |  परन्तु उनसे मिलकर उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो उनके मन में भय उत्पन्न करे | साधारण मध्यम वर्गीय बैठक में बात करते हुए वे बेहद सहज लगे | जोशी जी के व्यक्तित्व में खास बात ये थी कि वो चाय बिना चीनी की पीते थे और साथ में गुड़ दांतों से कुतर-कुतर  कर खाते थे | पहली मुलाक़ात में जब उन्हें पता चला की प्रभात जी उन पर पी एच डी  कर रहे हैं तो उन्होंने इस बात पर कोई खास तवज्जो नहीं दी |   जोशी जी का  व्यक्तित्व  १)       जोशी जी आम लेखकों  की तरह मूड आने पर नहीं लिखते थे | वो नियम से १० से पाँच तक लिखते थे | जिसमें धारावाहिक कहानी , उपन्यास सभी शामिल होता था | २)       जोशी जी कभी कलम ले कर नहीं लिखते थे बल्कि वह हमेशा बोलते थे और एक टाइपिस्ट उसको टाइप करता रहता था | हे राम फिल्म तक शम्भू दत्त सत्ती जी उनके लिए टाईप  करने का काम करते रहे | ३)       धारावाहिक लेखन तो वो बहुत जल्दी जल्दी बिना रुके कर लेते थे लेकिन जब भी कुछ साहित्यिक लिखते तो उसके कई –कई ड्राफ्ट बनाते थे | ४)       बोलने के कारण उनकी रचना व् विचार प्रक्रिया को  समझना आसान हो जाता | ५)       जोशी  जी जितना लिखते थे उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे | हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य पर भी उनकी … Read more

मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी

                आजकल युवा लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं | अपनी भाषा,प्रस्तुतीकरण और शिल्प सभी में वो खूब प्रयोग कर रहे हैं | वो जो देख रहे हैं महसूस कर रहे हैं वो बिना किसी लाग लपेट के, उन्हें खूबसूरत शब्दों का जामा पहनाये, वैसा का वैसा ही परोस देते हैं, जिसकी ताजगी की भीनी –भीनी खुशबु पाठक के मन को सुवासित कर देती है | शिल्प में भी कई प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें से कई आगे अपनी एक नयी शैली में विकसित होंगे | वैसे भी साहित्य, जीवन की तरह किसी एक दायरे में बंधा हुआ ना होकर बहती हुई नदी की तरह निरंतर गतिशील होना चाहिए जो अपनी धाराओं में हर किसी को बहा ले जाए | जैसे –जैसे जीवन जटिल हो रहा है कहानियों के प्रस्तुतीकरण में सरलता आई है, ताकि पाठक आसानी से उस जटिलता को आत्मसात कर सके | ऐसे ही सरल से खूबसूरत प्रयोगों से युवा लेखक कई बार चौंका देते हैं …ऐसे ही मुझे चौकाया ‘प्रियंका ओम’ ने अपनी किताब “ मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” के माध्यम से | प्रियंका ओम बिहार में जन्मी और पली बढ़ी हैं और फिलहाल दारे-सलाम, तंजानिया में रह रही हैं | ये उनकी दूसरी किताब है | उनकी पहली किताब “वो अजीब लड़की” है |  मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी “मुझे तुम्हारा जाना इतना बुरा नहीं लगता, जितना आना क्योंकि तुम हमेशा जाने के लिए ही आते हो, और मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है |” ये वाक्य है संग्रह की प्रमुख कहानी “मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” का | जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसका जाना अच्छा नहीं लगता | लगता है वो हमारे साथ ही रुक जाए हमेशा के लिए कितने फिल्मी गाने इस खूबसूरत अह्सास् से  भरे पड़े हैं | इसे लिखते समय मेरे जेहन में  अपने जमाने का एक बहुत प्रसिद्द गीत ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं बजने लगा है  …लेकिन मिलन का ये समय ठहरता कहाँ है ?  उसे जाना होता है, और जाता भी है …लेकिन क्या हमेशा के लिए या फिर से लौट आने के लिये ? वैसे ही जैसे मौसम जाते हैं फिर से लौट आने के लिए ,पानी भाप बन कर उड़ जाता है फिर बदरी बन बरसने के लिए, सूरज और चन्दा जाते हैं अगले दिन फिर लौट आने के लिए | दरअसल ये कहानी जाने के दर्द पर विलाप करने की नहीं, बार –बार लौट आने के मर्म को समझने की है | जब कोई हमारी जिन्दगी में बार –बार पलट –पलट कर आ रहा है तो वो जाने के लिए नहीं जाता, वो रुकना चाहता है ठहरना चाहता है पर परिस्थितियाँ और हालत उसे मजबूर कर देते हैं |  इस कहानी की शुरुआत बहुत ही दिलचस्प व् रहस्यमय है | इसमें कहानी के नायक को (जो अकेला , एकांत और निराश जिन्दगी बिता रहा होता है ) एक अजनबी लड़की का फोन आता है | हर फोन रहस्य को और गहरा कर देता है और नायक की बेचैनी को बढ़ा देता है | रहस्य से पर्दा उठातीं है नायक की दीदी और खुलता  है बचपन की स्मृतियों का पिटारा |  नायक -नायिका का बचपन का साथ  प्रेम की हल्की सी दस्तक बन कर मिट जाता है | क्योंकि अभिषेक की  सत्रह साल बड़ी दीदी जो उसकी माँ सामान हैं उसे  इस सब बातों में समय ना बर्बाद करके पढाई पर ध्यान लगाने को कहतीं है | अभिषेक  इस बात को भूल जाता है पर श्वेता … श्वेता नहीं भूलती | एक बार फिर वो उसकी जिन्दगी में आती है, बहुत ही रोमांचक तरीके से | परिस्थितियाँ एक बार फिर बदलती हैं और अभिषेक एक बार फिर अपने एकांत में लीन  हो जाता है ….श्वेता फिर लौटती है …पर फिर उलझती है गुत्थी कि आखिर वो क्यों आई है ?  जाने के लिए या रूकने के लिए ? क्या इस बार अभिषेक बार –बार लौट के आने के मर्म को समझता है ? एक नये अंदाज में नए एंगल पर फोकस करती ये कहानी अपनी लेखन शैली के कारण बहुत ही खूबसूरत बन पड़ी है | इस कहानी का दार्शनिक अंदाज में आगे बढ़ना बेहतरीन प्रयोग है |  “और मैं आगे बढ़ गयी” प्रेम में अधिकार जताने व् समर्पित होने के अंतर को बखूबी स्पष्ट करती है | मुझे लगता है ये कहानी स्त्रियों के लिए बहुत खास है क्योंकि अधिकतर स्त्रियाँ प्रेम के शुरूआती दौर में इस अंतर को नहीं समझ पातीं फिर जीवन भर दर्द झेलती हैं | कहानी  एक ट्रेन में नायिका वनिता के अपने पुराने प्रमी आदित्य के साथ अचानक व् अनचाहे  सफ़र शुरू होती है | आज वनिता शादी शुदा है और एक बच्चे की माँ है जो अपने बच्चे के साथ ए .सी . टू टियर में अकेली है और आदित्य अभी भी अकेला और उदास है | जाहिर है, ऐसे में आपस में तानाकशी भी होगी और पुरानी यादें अपने बंद झरोखे खोल कर पुन : सामने भी आएँगी | कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की ऐसी ही भागदौड़ के साथ कहानी आगे बढती है | वनिता और आदित्य का प्रेम बचपन का प्रेम था, प्रेम क्या था, उन्हें तो उनके माता-पिता ने बचपन में अपनी दोस्ती को पक्का रखने के लिए शादी के वादे  की डोर में ही बाँध दिया था | पड़ोस में रहने वाले दो बच्चे जो साथ खेलते, पढ़ते, और बढ़ते हैं ….शुरू से ही  एक दूसरे के प्रति आकर्षण में बंधे रहते हैं | कहानी में जहाँ प्रेम की छुटपुट फुहारें मन को रूमानी करती हैं वहीँ वहीँ आदित्य और वनिता के स्वभाव में अंतर किसी अप्रिय भविष्य की तरफ भी इशारा करने लगता है | बच्चे जैसे –जैसे बड़े होते जाते हैं, उनके परिवारों की सोच और परवरिश का अंतर स्पष्ट नज़र आने लगता है | जहाँ वनिता का परिवार खुले विचारों का है, जिसमें पति –पत्नी दोनों को बराबर स्थान है, वहीँ आदित्य का परिवार पुरुषवादी अहंकार और पितृसत्ता का पोषक …जहाँ घर की स्त्रियों का काम बस पुरुषों को खुश करना, उनकी सेवा करना है | पारिवारिक गुण धीरे –धीरे आदित्य में आने लगते हैं …वनिता को घुटन मह्सूस … Read more

अन्त: के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन

सतसैयां के दोहरे, ज्यूँ नाविक के तीर | देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर ||                                   वैसे ये दोहा बिहारी के दोहों की ख़ूबसूरती के विषय में लिखा गया है पर अगर हम छन्द की इस विधा पर बात करें जिसके के अंतर्गत दोहे आते हैं तो भी यही बात सिद्ध होती है | दोहा वो तीक्ष्ण अभिव्यन्जनायें हैं जो सूक्ष्म आकर में होते हुए भी पाठक के अन्त:स्थल व् एक भाव चित्र अंकित कर देती हैं | अगर परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करना हो तो, दोहा, छन्द की वो विधा है जिसमें चार पंक्तियों में बड़ी-से बड़ी बात कह दी जाती है | और ये (इसकी  चार पंक्तियों में 13, 11, 13, 11 मात्राएँ  के साथ ) इस तरह से कही जाती है कि पाठक आश्चर्यचकित हो जाता है | हमारा प्राचीन कवित्त ज्यादातर छन्द बद्ध रचनाएँ हीं  हैं | दोहा गागर में सागर वाली विधा है पर मात्राओं के बंधन के साथ इसे कहना इतना आसान नहीं है | शायद यही वजह है कि मुक्त छन्द कविता का जन्म हुआ | तर्क  भी यही था कि सामजिक परिवर्तनों की बड़ी व् दुरूह बातों को छन्द में कहने में कठिनाई थी | सार्थक मुक्त छन्द कविता का सृजन भी आसान नहीं है | परन्तु छन्द के बंधन टूटते ही कवियों की जैसे बाढ़ सी आ गयी | जिसको जहाँ से मन आया पंक्ति को तोड़ा-मरोड़ा और अपने हिसाब से प्रस्तुत कर दिया | हजारों कवियों के बीच में अच्छा लिखने वाले कवि कुछ ही रह गए | तब कविता का पुराना पाठक निराश हुआ | उसे लगा शायद छन्द की प्राचीन  विधा का लोप हो जाएगा | ऐसे समय में कुछ कवि इस विधा के संरक्षण में आगे आते रहे, जो हमारे साहित्य की इस धरोहर को सँभालते रहे | उन्हीं में से एक नाम है किरण सिंह जी का | किरण सिंह जी छन्द बद्ध रचनाओं में न सिर्फ दोहा बल्कि मुक्तक,रोला और कुंडलियों की भी रचना की है | अन्त :के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन  “अन्त: के स्वर” जैसा की नाम सही सपष्ट है कि इसमें किरण जी ने अपने मन की भावनाओं का प्रस्तुतीकरण किया है | अपनी बात में वो कहती हैं कि, “हर पिता तो अपनी संतानों के लिए अपनी सम्पत्ति छोड़ कर जाते हैं, लेकिन माँ …? मेरे पास है ही क्या …? तभी अन्त : से आवाज़ आई कि दे दो अपने विचारों और भावनाओं की पोटली पुस्तक में संग्रहीत करके , कभी तो उलट –पुलट कर देखेगी ही तुम्हारी अगली पीढ़ी |” और इस तरह से इस पुस्तक ने आकर लिया | और कहते है ना कि कोई रचना चाहे जितनी भी निजी हो …समाज में आते ही वो सबकी सम्पत्ति हो जाती है | जैसे की अन्त: के स्वर आज साहित्य की सम्पत्ति है | जिसमें हर पाठक को ऐसा बहुत कुछ मिलेगा जिसे वो सहेज कर रखना चाहेगा | भले ही एक माँ संकल्प ले ले | फिर भी कुछ लिखना आसान नहीं होता | इसमें शब्द की साधना करनी पड़ती है | कहते हैं कि शब्द ब्रह्म होते हैं | लेखक को ईश्वर ने अतरिक्त शब्द क्षमता दी होती है | उसका शब्दकोष सामान्य व्यक्ति के शब्दकोष से ज्यादा गहन और ज्यादा विशद  होता है | कवित्त का सौन्दर्य ही शब्द और भावों का अनुपम सामंजस्य है | न अकेले शब्द कुछ कर पाते हैं और ना ही भाव | जैसे प्राण और शरीर | इसीलिए किरण जी एक सुलझी हुई कवियित्री  की तरह कागज़ की नाव पर भावों की पतवार बना कर शब्दों को ले चलती हैं … कश्ती कागज़ की बनी, भावों की पतवार | शब्दों को ले मैं चली , बनकर कविताकार || अन्त: के स्वर  का प्रथम प्रणाम जिस तरह से कोई व्यक्ति किसी शुभ काम में सबसे पहले अपने  ईश्वर को याद करता है , उनकी वंदना करता है | उसी तरह से किरण जी ने भी अपनी आस्तिकता का परिचय देते हुए पुस्तक के आरंभ में अपने हृदय पुष्प अपने ईश्वर के श्री चरणों में अर्पित किये हैं | खास बात ये है कि उन्होंने ईश्वर  से भी पहले अपने जनक-जननी को प्रणाम किया है | और क्यों ना हो ईश्वर ने हमें इस सुंदर  सृष्टि में भेजा है परन्तु माता –पिता ने ही इस लायक बनाया है कि हम जीवन में कुछ कर सकें | कहा भी गया है कि इश्वर नेत्र प्रदान करता है और अभिवावक दृष्टि | माता–पिता को नाम करने के  बाद ही वो प्रथम पूज्य गणपति को प्रणाम करती है फिर शिव को, माता पार्वती, सरस्वती आदि भगवानों के चरणों का भाव प्रच्छालन करती हैं | पेज एक से लेकर 11 तक दोहे पाठक को भक्तिरस में निमग्न कर देंगे | संस्कार जिसने दिया, जिनसे मेरा नाम | हे जननी हे तात श्री, तुमको मेरा प्रणाम || ———————– .. अक्षत रोली डूब लो , पान पुष्प सिंदूर | पहले पूज गणेश को,  होगी विपदा दूर || ———————– शिव की कर अराधना, संकट मिटे अनेक | सोमवार है श्रावणी , चलो करें अभिषेक || अन्त: के स्वर का आध्यात्म                      केवल कामना भक्ति नहीं है | भीख तो भिखारी भी मांग लेता है | पूजा का उद्देश्य उस परम तत्व के साथ एकीकर हो जाना होता है | महादेवी वर्मा कहती हैं कि,   “चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना |”  मन के दर्पण पर परम का प्रतिबिम्ब  अंकित हो जाना ही भक्ति है | भक्ति है जो इंसान को समदृष्टि दे | सबमें मैं और मुझमें सब का भाव प्रदीप्त कर दे | जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिए वह दुनियावी प्रपंचों से स्वयं ही ऊपर उठ जाता है | यहीं से आध्यात्म का उदय होता है | जिससे सारे भ्रम  दूर हो जाते हैं | सारे बंधन टूट जाते हैं | किरण जी गा उठती हैं … सुख की नहीं कामना, नहीं राग , भय क्रोध | समझो उसको हो गया , आत्म तत्व का बोध || ………………………. अंतर्मन की ज्योति से, करवाते पहचान | ब्रह्म रूप गुरु हैं मनुज, चलो करें हम ध्यान || अन्त : के स्वर  में नारी  कोई स्त्री स्त्री के बारे में … Read more

अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी

वास्तवमें प्रेम क्या है ? इसकी कोई परिभाषा नहीं है और हम सब इसे अपनी -अपने तरह से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं | ऐसा ही एक प्रयास दिव्य प्रकाश दुबे जी ने उपन्यास अक्टूबर जंक्शन में भी किया है | ये किताब 2017 से दैनिक जागरण की बेस्ट सेलर में शामिल है | इसका कारण है  कि ये सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं है | इसमें प्रेम कथा के साथ -साथ जीवन का फलसफा व् बहुत  सारा दर्शन भी है | अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी                                     “हमारी दो जिंदगियां होती हैं | एक वो जो हम जीते हैं और दूसरी वो जो हम जीना चाहते हैं | ये कहानी उसी दूसरी जिन्दगी की कहानी है |”                                    ‘ अक्टूबर जंक्शन ‘एक ऐसा उपन्यास है जो सुदीप यादव और चित्रा  पाठक की अनोखी प्रेम कहानी के साथ रिश्तों को, जिन्दगी के फलसफे को और  सच व स्वप्न के बीच  की    खाली जगह  समझने और उसकी व्याख्या करने की भी कोशिश करता  है | ये एक ऐसी  प्रेम कहानी   है  जिसमें एक ‘सैड ट्यून’ लगातार पीछे बजती रहती है | कहानी के तेज प्रवाह   के साथ आगे बढ़ते हुए भी ऐसा लगता है पीछे कुछ छूटा जा रहा है जिसे थामना है, पकड़ कर रखना है ..पर ये संभव नहीं पाता , ना कहानी में ना प्रेम में और ना ही जीवन में | कहानी के नायक सुदीप और चित्रा की पहली मुलाक़ात बनारस के अस्सी घाट पर होती है | बनारस , एक ऐसा शहर जो सच और सपने के बीच में बसता है | कोई यहाँ सच ढूँढने आता है तो कोई सपना भूलने | सुदीप और चित्रा भी यहाँ कुछ ऐसी ही वजह से आये हैं | सुदीप यादव   सुदीप यादव केवल बारहवीं पास है | उसने आगे पढाई नहीं की लेकिन लक्ष्मी उसकी उँगलियों पर खेलती है | वो  बहुत ही कम उम्र करोणपति बन गया था  | आज ‘बुक माय ट्रिप’ कंपनी का मालिक है | पेज थ्री सेलेब्रेटी है | उसके हजारों -लाखों फोलोअर्स हैं | आये दिन अखबार में उसकी खबरें छपती रहती हैं | लेकिन आज वो बनारस आया है  ताकि शांत दिमाग से अपनी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण फैसला ले सके | ये फैसला है अपनी कम्पनी के कुछ शेयर बेंचने का | इस पैसे से वो अपनी कम्पनी को और ऊँचाइयों पर ले जा सकेगा परन्तु उसका मालिकाना ह्क थोडा घटेगा | अपने सपने को किसी दूसरे के हाथों सौंप देना एक कठिन निर्णय है | एक तरफ जहाँ वो असमंजस में है वहीँ काम का अतरिक्त दवाब उसके जीवन में उसके खुद के लिए जीने वाले समय को चुरा रहा है | सपने के साथ आगे और आगे भागते हुए भी उसे विरक्ति हो रही है | वो हर जगह पहचान लिए जाने से ऊब चुका है | क्या यही जीवन है ? क्या बस यही उसका सपना था ? वो अभी 25 साल का है | पर वो 35 में रिटायरमेंट लेना चाहता है |  दौड़ -भाग से थककर सुस्ताना चाहता है | अपनी जिन्दगी थोड़ा अपने लिए बिताना चाहता है | चित्रा पाठक   चित्रा पाठक  एक लेखिका है | उम्र २६ -२७ वर्ष , दो वर्ष पूर्व उसका तलाक हो गया था | वो उपन्यास लिख रही है | उसका सपना है इस उपन्यास  को लिखकर नाम , शोहरत और बहुत से पैसे कमाना | वो पेज थ्री सेलेब्रिटी बनना चाहती है | वो इतना ऊँचा उठना चाहती है कि कोई उसे इग्नोर ना कर सके | कभी कहानी साथ छोड़ देती है तो कभी पात्र मुकर जाते हैं | उसे लगता है कि वो शायद इसे पूरा नहीं कर पाएगी | एक अजीब सी निराशा उसे घेरे हुए है | उसकी आँखों में सपने हैं आशाएं और निराशाएं हैं | एक का सपना उसके गले का फंदा सा बना उसे खींच रहा है और दूसरी पसीने से लथपथ होते हुए भी अपने सपने की डोर छोड़ना  नहीं चाहती | विरोधाभास ही तो है कि सुदीप को आसमान से जमीन बेहद सुकून भरी दिखाई देती है तो चित्रा को जमीन से आसमान बेहद उम्मीदों भरा |  ये प्रेम कथा है या नहीं  पर ये कहानी अपोजिट अट्रैकट्स की भी नहीं है और ना पहली नज़र का प्यार है | खास बात ये है कि अलग अलग स्थिति में होते हुए भी दोनों एक दूसरे की तकलीफ को समझ पाते हैं, ढांढस बंधाते हैं हिम्मत देते हैं | दोनों को बस एक दूसरे का साथ अच्छा  लगता है …और लगता है कि यही वो जगह है जहाँ वो अपने मन को खाली कर सकते हैं | अपने मन के टनों बोझ का खाली हो जाना एक ऐसा अनुभव है जिसे वो दोहराना तो चाहते हैं पर उस स्पेस को भी बनाये रखना चाहते हैं ताकि ये सुकून का अहसास हमेशा बना रहे | इसलिए पहली बार दस अक्टूबर  2010  (10-10-10) को मिलने के बाद वो अगली बार दस अक्टूबर  2011 को मिलने का वादा कर अपने अपने रास्ते अपनी -अपनी जिंदगियों में डूब जाते हैं | ये वाद महज जुबानी नहीं है इसके लिए हर बार वो जापानी लेखक मुरकामी की किताब पर अगली तारीख लिखते हैं |  इस दौरान  वो एक दूसरे को कॉल भी नहीं करते |  लेकिन अगली दस को वो फिर मिलते हैं , फिर अगली 10 को | 2010 से 2020 के दरमियान हर 10 अक्टूबर को मिलकर वो महज 20 दिन ही साथ रहते हैं | पर ये छोटा सा साथ उनके 364 दिनों के लिए एक टॉनिक की तरह काम करता है | वो समझते हैं इस ३६४ दिन के इंतज़ार और मिलन की अहमियत …इसलिए हर बार मिलते हैं और हर बार मिलने का वादा करते हैं |   ये किरदार सच और सपने के बीच की छोटी सी खाली जगह में मिले थे | बंद मुट्ठी से खुली मुट्ठी भर ही हम जिन्दगी को छू पाते हैं | … Read more

भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ

 मेरे पास नहीं है कोई सुरक्षा कवच | मैं फिर भी प्रेतों को आमंत्रित करती हूँ | आओ, मुझे और भी तुम्हारी कथाएँ कहनी है …अब तुम दे जाओ कथाएँ | कह जाओ अपने दमन की कथाएँ, शोषण की दास्तानें और अतृप्त इच्छाओं की अर्जियाँ दे जाओ | उन्हें कथा में पूरी करुँगी | आखिर कहानी में एक मनोवांछित संसार रचने का साहस तो है न मेरे पास | मेरा बचपन गाँवों में अधिक गुजरातो मेरे पास  वहीँ की कहानियाँ बहुत हैं | शहरों में जिन्दा भूत मिले थे | उनकी कथाएँ तो लिखती ही रहती हूँ | पहली बार ऐसे भूतों की कहानियाँ लिखी हैं |                              …गीता श्री क्या आपको डरने में मजा आता है ? डरना भी एक तरह का आनंद देता है | तभी तो लोग ऐसे पहाड़ों पर चढ़ते हैं कि नीचे गिरे तो …, उफनती लहरों में नदी पार करते हैं , एम्युजमेंट पार्क में सबसे खतरनाक झूले पर चढ़ते हैं …उस डर को जीतने में जो आनंद आता है , जो डोपामीन रिलीज होता है उसका मजा ही कुछ और है | इसी श्रृंखला में आते हैं डरावनी  फिल्में , किस्से और कहानियाँ | ऐसे ही एक डर का आनंद देने वाले किस्सों –कहानियों का संग्रह है … भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ कहते हैं की जीवन अनंत है |जन्म और मृत्यु इसके बस दो सिरे हैं | फिर भी मृत्यु एक बहुत बड़ी सच्चाई है , जो हमें भयभीत करती है | हमें नहीं पता आगे क्या होगा ?  जीवन और मृत्यु के बीच में एक पर्दा है, जिससे न तो इस पार का व्यक्ति उस पार देख सकता है ना उस पार का व्यक्ति इस पार , और ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि मरने के बाद इंसान जाता कहाँ है ? उस अदृश्य संसार के बारे में तो हम नहीं जानते लेकिन इतना जरूर माना जाता रहा है कि अकाल मृत्यु या अतृप्त इच्छा के साथ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा उस पार ना जा कर यहीं हमारे बीच बिना देह के तड़पती हुई,  भटकती रहती है | जिसे हम भूत का नाम देते हैं |  देह नहीं होने के कारण उनकी शक्तियाँ हमसे अधिक होती हैं |  ज्यादातर लोगों को वो दिखते नहीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि वो उन्हें देख चुके हैं या महसूस कर चुके हैं | शायद वो उनकी फ्रीकुएन्सी को पकड़ लेते हैं, और उन्हें वो दिखते हैं साक्षात चलते , बोलते, उड़ते हुए, कुछ रहस्यमय कामों को अंजाम देते हुए | भूत होते हैं कि नहीं यह पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि विज्ञान जिस तरह से आगे बढ़ रहा है और जिस तरह से हम उन चीजों को देख सुन पा रहे हैं जिन्हें नकारते रहे हैं, तो क्या पता एक दिन अपनी ही पृथ्वी पर भटकती इन बेचैन आत्माओं से रूबरू हो सकें | पर फिलहाल अभी तक जो रहस्य और रोमांच इन भूतों के बारे में बना हुआ है, वहीँ  से जन्म होता है भूतिया किस्सों का | हममें से कौन है जिसने अपने बचपन में अपने भाई –बहनों के साथ रात में छत पर  चारपाई पर बैठ कर किसी चाचा , मामा, ताऊ या जान –पहचान के व्यक्ति के भूत से मुलाक़ात के किस्से न सुने हों | “और जब वो चलता था …” से थमी हुई साँसों, और बढती हुई धडकनों के बाद कितनी बार रात में टॉयलेट जाने के लिए माँ या बड़ी बहन को जगाया होगा, और प्लीज बाहर खड़ी हो जाना की गुहार लगाई होगी | कितनी बार अँधेरे में किसी की परछाई नज़र आई होगी और भय से चीख  निकल गयी होगी | खैर वो बचपन के दिन थे  पंख लगा के उड़ गए | अब अगर आप एक बार फिर से बचपन के उस रोमांचक अहसास को जगाना चाहते हैं तो गीता श्री जी आपके लिए लेकर आयीं है , डरावने भूतिया  किस्सों से भरा “भूत खेला “ | और अगर अभी भी आप भूतों पर यकीन करते हैं तो भी  उत्तर वही ही है | हम सब जो हॉरर फिल्में देखते हैं वो जानते हैं कि लाइट और साउंड इफ़ेक्ट से डर आसानी से पैदा किया जा सकता है | जब किस्सों के रूप में किसी से सुनते हैं तो भी रात होती है और कहने का तरीका कुछ ऐसा होता है कि डर का माहौल बनता है | ऐसे में लोगों को लगता है कि क्या किताब में शब्दों के माध्यम से  वो डर उत्पन्न किया जा सकता है ? जी हाँ ! बिलकुल किया जा सकता है और ये लेखक के लिए बहुत चुनौती का काम है | जिन्होंने भी W.W.Jacobs की “monkey’s paw“ कहानी पढ़ी होगी | उन्होंने केवल शब्दों के माध्यम से दरवाजे के बाहर सीढियां चढ़ने की आवाजों में डर महसूस किया होगा |पढ़ते –पढ़ते किसको नहीं लगा होगा कि उसकी माँ से कह दे कि दरवाजा ना खोलना, बाहर भूत है | इस कहानी का उदहारण मैं इसलिए दे रही हूँ क्योंकि ये कई राज्यों में  सिलेबस में पढाई जाती है |  और अगर आज की बात करें तो  स्टीफन किंग के हॉरर से भला कौन ना डरा होगा अगर मैं ‘भूत खेला’ की बात करूँ तो गीता श्री जी भी वो माहौल तैयार करने और डर पैदा करने में पूरी तरह सफल रहीं हैं  | आप लाख कहिये कि ‘डरना मना है पर अन्तत: डर ही जायेंगे | डरावनी कहानियाँ लिखते समय लेखक के हाथ में केवल एक ही अस्त्र होता है वो है भाषा का …उसी से खौफ पैदा करना है, ऐसे दृश्य क्रिएट करने हैं जो पाठक की दिल की धडकने बढ़ा दें | गीता श्री जी ने कथा भाषा ऐसी रखी है जो डरावना माहौल क्रिएट करती है | यूँ  तो संग्रह की सभी कहानियाँ इसमें सफल हैं पर इस मामले में मैं खासतौर पर मैं इस संग्रह की  कुछ  कहानियों के नाम “कहीं ये वो तो नहीं” और “वे वहाँ लाइव थीं “ “उसका सपनों में आना जाना है” का नाम लेना चाहूँगी | इन तीनों  कहानियों में शब्दों और दृश्य का ऐसा मंजर … Read more

डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान

डॉ.सिताबो बाई  जन्म – १९२५ विक्रमी संवत  पिता -बाबू राम प्रसाद सिंह  विवाह -मौजा कादीपुर जिला बनारसछात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा  आगरा मडिकल कॉलेज से डॉक्टरी  की शिक्षा  पहले जबलपुर फिर उदयपुर फिर बनारस में सेवाएं दी |  BHU के निर्माण में दस हज़ार का चंदा दिया  विधवा आश्रम, आनाथ आश्रम , वृद्ध आश्रम खोले  अपनी सारी  जायदाद समाज के लिए दान कर दी |                        डॉ. सिताबो बाई का इतना परिचय जान कर आप अंदाजा लगा चुके हिन्ज कि आप किसी महान विभूति के बारे में पढने जारहे हैं | साथ में ये प्रश्न भी उठा होगा कि उस  ज़माने की डॉक्टर, समाजसेवी महिला के बारे में आपको आखिर पता क्यों नहीं है ? यही तो है नारी जीवन की त्रासदी |  आइये जाने स्त्री संघर्षों की एक ऐसी दास्तान के बारे में जिसे उसकी मृत्यु के बाद इतिहास में भी जगह नहीं मिली …. डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान  ‘डॉ. सिताबो बाई’ उपन्यास पर कुछ लिखने से पहले मैं इसकी लेखिका आशा सिंह जी को बधाई देना चाहती हूँ कि वो अतीत की खुदाई कर ऐसे जीवंत चरित्र को ले कर आई हैं जिसने  बेदर्द  ज़माने द्वारा दिए गए हर दर्द को न सिर्फ सहा बल्कि उससे क्षत-विक्षत अपने तन और मन  के साथ उसे ही संघर्ष की सीढ़ी बनाया | दर्द और सितम बढ़ते गए, सीढ़िया बढती गयीं , अपनी अदम्य इच्छा शक्ति व् सेवा भावना के कारण निजी जीवन में दुखी बहुत दुखी होते हुए भी कर्म क्षेत्र में और सामाजिक जीवन में बहुत सफलताएं हासिल की | जी हाँ ! डॉ. सिताबो बाई वो सशक्त स्त्री रही हैं जिनके संघर्ष , श्रम और जनसेवा भावना को इतिहास के पन्नों में बड़ी बेदर्दी से दबा दिया गया | इस उपन्यास को पढ़कर मुझे लगा कि प्रेम अपराधिनी अनारकली को दीवारों में जिन्दा चुनवा दिया गया इसके बारे में हम सब जानते हैं | परन्तु कितने सशक्त स्त्री चरित्रों को इतिहास के पन्नों में चुनवा दिया गया इसकी खबर किसी को नहीं है | ऐसा ही एक चरित्र मल्लिका के साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने न्याय किया तो आशा जी ने डॉ. सिताबो के साथ | निश्चित रूप से ऐसे बहुत से चरित्र होंगे जहाँ हमें कलम से  खुदाई कर के पहुँचना है और उनके संघर्षों को उचित सम्मान दिलवाना है | ऐसे चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता जहाँ आपके पास साक्ष्य नहीं होते | गूगल भी कोई मदद नहीं करता | ऐसे में किसी अँधेरी सुरंग के पार कुछ उड़ती-उड़ती सी  रौशनी दिखती है उसे ही कलम के सहारे पकड़ना होता है | ऐसा ही काम किया है आशा जी ने | उन्होंने साक्ष्य जुटाने का बहुत प्रयास किया परन्तु पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पत्र, सेविंग अकाउंट, हॉस्टल के बिल से ज्यादा कुछ प्राप्त ना कर सकीं , यहाँ तक की उनकी तस्वीर भी नहीं | ऐसे में लिखने में संघर्ष बढ़ जाता है | जितना लिखा जाता उससे कहीं ज्यादा लिख कर मिटाया जाता | कितना समय तो सूत्र तलाशने में निकल जाता | पर आशा जी संकल्प की धनी रहीं और आखिर कार उनका ये दृण  निश्चय हज़ार बाधाओं  को पार करते हुए उपन्यास के रूप में हमारे सामने आ गया | इस काम में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ( B.H.U) से उन्हें थोड़ी बहुत मदद मिली पर उनके परिवार वालों से बिलकुल भी नहीं, कारण था अपने परिश्रम से अर्जित किये हुए समस्त धन को डॉ.सिताबो बाई  विधवा आश्रमों, बालिका ग्रहों और अनाथालयों के लिए दान कर गयीं थी | परिवार वालों को उनसे  आपत्ति थी ..घोर आपत्ति थी पर उनके धन से तो नहीं थी | फिर वो इतना बड़ा निर्णय कैसे ले गयी | पितृसत्ता की जड़े काटना इतना आसन नहीं होता | रोती-तडपती अबलाओं की कहानियाँ आगे बढ़ती हैं और सशक्त स्त्री चरित्र दबा दिए जाते हैं | कहीं दूसरी औरतों को उनकी हवा ना लग जाए |   एक सीता को तो हम सब जानते ही हैं …प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता, जिन्होंने  पत्नी धर्म निभाने के लिए राज सुख का त्याग किया, उनके साथ जंगल –जंगल भटकीं और बदले में उन्हें मिली अग्नि परीक्षा द्वारा खुद को निष्कलंक सिद्ध कर देने की सजा और उस पर भी शांति ना मिलने पर गर्भावस्था में त्याग  दिए जाने का फरमान | सीता सबकी आदर्श रहीं हैं क्योंकि वो आदर्श पत्नी, बहु और बेटी हैं | वो तर्क नहीं करती हैं, प्रेम करती हैं प्रेम के साथ कर्तव्य निभाती हैं | पूरी पितृसत्ता अपनी पत्नी बहु, बेटी में सीता को देखना चाहती है | सीता का यही रूप जनमानस में छाया रहा | बेटियों के नाम ‘सीता’ रखे जाने लगे | आखिर हमें बेटियों से त्याग और प्रेम के अतिरिक्त और चाहिए ही क्या था, इसी से तो कुल की इज्ज़त थी |  ये अलग बात है कि प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता ने जो संघर्ष किया , अपने पुत्रों को अस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दी | इसे भी कालांतर में कलम की खुदाई से ही निकाला गया | खैर सीतायें जन्म लेतीं रहीं और ना जाने कितनी सीतायें …माता सीता की तरह धरा की गोद में समाती रहीं | ऐसी ही एक सीता थी जिसने  संवत 1925 में वाराणसी के पियरी कला मुहल्ला में बाबू राम प्रसाद के यहाँ जन्म लिया | भाग्य या दुर्भाग्य अपनी हमनाम की तरह इस नन्ही बच्ची की भी प्रतीक्षा कर रहा था | पर उस नन्हीं बालिका ने कदम –कदम पर संघर्ष का सहारा लिया और धरा की गोद में समाने की जगह सीता से डॉ.सिताबो बाई का सफ़र तय किया | महिलाओं के लिए एक मिसाल बनी डॉ. सिताबो बाई की जीवन गाथा समस्त स्त्रियों के लिए प्रेरणा दायक है |     डॉ .सिताबो बाई की लेखिका  आशा सिंह गौरवर्णा, आकर्षक नैन–नक्श वाली बालिका सीता पढने में भी तेज थी | उस समय लड़कियों की शिक्षित करना अच्छा नहीं समझा जाता था | चिंता यही रहती थी कि अगर लड़की शिक्षित हो गयी तो उसके योग्य वर कैसे मिलेगा | कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को अपने से योग्य देख नहीं सकता, … Read more

पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं

साहित्य जगत में डॉ .भारती वर्मा बौड़ाई एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर रही हैं | अटूट बंधन के साहित्य सुधि पाठक उन्हें यहाँ अक्सर पढ़ते रहे हैं | कभी हिंदी अध्यापिका रही भारती जी साहित्य की  पगडंडियों पर चल कर तेजी से आगे बढती जा रहीं है | क्योंकि वो स्वयं अध्यापिका रहीं हैं इसलिए उनके सहित्य में मैंने एक खास बात देखी  हैं कि संवेदनाओं को जागते हुए भी उनके  साहित्य में समाज के लिए कोई सीख कोई दिशा छिपी रहती है | मुझे लगता है कि साहित्य का मूल उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि समाज का केवल सच ही सामने ना लाये अपितु उसे हौले से बदलने का प्रयास भी करें | कदाचित इसी लिए जन सरोकारों से जुड़े साहित्य को हमेशा श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है | 2019 में उनकी 6 लघु पुस्तिकाएं आई हैं | जिनमें चार काव्य की एक लघु कथाओं की और एक लेखों की हैं | सभी लघु पुस्तिकाएं अपने आप में विशेष है पर आज मैं  यहाँ पर उनके लघुकथा संग्रह “पगडंडियों पर चलते हुए” की बात करना चाहती हूँ |  भारती जी के इस लघु कथा संग्रह में करीब ३० लघुकथाए है | समाज को दिशा देती ये सारी  लघुकथाएं प्रशंसनीय हैं | पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं  पहली लघुकथा “इस बार की बारिश” एक ऐसी स्त्री के बारे में है जिसका पति कोई काम नहीं करता | घर में बैठे -बैठे खाना और सोना उसका प्रिय शगल है | उसकी पत्नी दिविका उसे बहुत समझाती है परन्तु उस पर कोई असर नहीं होता | दिविका बाहर जा कर नौकरी कर सकती है | परन्तु वो सोचती है कि अगर वो ऐसा करेगी तो उसके पति व् ससुराल वाले और निश्चिन्त हो जायेगे  तथा वो दोहरी जिम्मेदारियाँ निभाते -निभाते परेशान  हो जायेगी | अन्तत : वो अपने पति से संबंध संपत कर  अपने जीवन की डोर अपने हाथ में लेने का संकल्प लेती है | दुर्भाग्य से आज जब मैं इस कहानी पर लिख रही हूँ तो  अखबार में दिल्ली की एक खबर है | एक व्यक्ति जो पिछले दो सालों से बेरोजगार था और पत्नी नर्स का काम कर  अपने परिवार को पाल रही थी , उसने नशे व् क्रोध में अपनी पत्नी बच्चों की हत्या कर आत्महत्या कर ली | क्या ऐसे समय में जरूरत नहीं है दिविक जैसी महिलाओं की जो सही समय में सही फैसले ले और अपनी व् बच्चों की जिन्दगी को इस तरह जाया ना होने दें | “रक्षा बंधन ” से सम्बंधित दो लघुकथाएं मुझे बहुत अच्छी लगी | इनमें से एक में “रक्षा बंधन ऐसा भी ” एक माँ जो बिमारी जूझ रही है और उसके बच्चे उसकी सेवा तन मन से करते हैं वो रक्षा बंधन के दिन अपने भाई के बाद अपने बच्चों के राखी बांधती है | वहीँ दूसरी कहानी ‘अनोखा रक्षा बंधन ” में पुत्र दोनों मामाओं की मृत्यु के बाद उदास रहती माँ  से राखी बंधवाता है | रक्षा बंधन की मूल भावना ही किसी की दर्द तकलीफ में उसका सहारा बन जाने में है | वो हर रिश्ता जो इस बात में खरा उतरता है इस बंधन का हकदार है | ये एक नयी सोच है जो बहुत उचित भी है | “नया सवेरा ” कहानी एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो माता -पिता के दवाब में  दसवीं में विज्ञान लेती है और फेल हो जाती है | अन्तत : माता -पिता समझते हैं कि हर बच्चा कुछ कर सकता है ,कुछ बन सकता है बशर्ते उस पर अपनी इच्छाओं का बोझ ना डाला जाए | “उड़ान “में बच्ची मीना अपने  जन्मदिन केक काट कर दोस्तों व् रिश्तेदारों के साथ डिनर करके नहीं बल्कि  वृद्ध आश्रम में मनाना चाहती है | वो अपने मित्रों के साथ वहां जा कर वृद्ध लोगों में आशा का संचार करती है | तो वहीँ “नयी सोच ‘के प्रधानाध्यापक बच्चो को सफाई के सिर्फ उपदेश ना पिला कर , न सिर्फ स्वयं सफाई करते हैं वरन बचे हुए खाने से खाद बनाने व् पौधे लगाने का भी काम करते हैं | उनको इस तरह करता देख बच्चे स्वयं प्रेरित हो जाते हैं | एक अंग्रेजी कहावत है कि … “Action speaks louder than words”                  ये कहानी इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये  सिर्फ  कोरी शिक्षा पर जोर नहीं देती , वरन बच्चों को सिखाने के   लिए स्वयं में परिवर्तन के महत्व को रेखांकित करती है | “ विस्फोट ‘ एक ऐसी कहानी है जिस दशा से आमतौर पर महिलाएं गुजरती हैं | पुरुषों के लिए कोई बंधन नहीं हैं पर घर की बहु , कहाँ जारही है ? , कब जा रही है ? और कब तक लौटेगी ? के सवालों से झूझती ही रहती है | खासकर जब वो अपने मायके जा रही हो | ऐसे ही एक लड़की गौरी अपने माता -पिता के पास मिलने जाती है ,बारिश होने लगती है तो वो फोन कर के ससुराल में बता देती है , उधर बारिश ना रुकते देख माँ कहती हैं कि खानाबन ही गया है खा के जा ” माँ का दिल ना टूटे इसलिए वो खाना खा कर ससुराल जाती है | वहां सब नाराज बैठे हैं | आते ही ताने -उलाह्नेशुरु हो जाते हैं , ” आ गयीं मायके से पार्टी जीम कर , भले ही ससुराल में सब भूखे बैठे हो ?” आहत गौरी पहली बार अपनी जुबान खोलती है कि, ” क्या वो मायके भी नहीं जा सकती ? अगर इस पर भी ऐतराज़ है तो अब वो जब चाहे , जहाँ चाहे जायेगी | गौरी का प्रश्न हर आम महिला का प्रश्न है | बहुधा ससुराल वाले विवाह के बाद  महिला के उसके माता -पिता के प्रति प्रेम पर ऐतराज़ करने लगते हैं …….तब उनके यहाँ भी गौरी की तरह ही विस्फोट होता है | “बहु कभी बेटी के बराबर नहीं हो सकती ये कहने से पहले खुद का व्यवहार भी देखना होता है |” इसके अतिरिक्त शोर , अचानक , नयी पहचान व् अपने हिस्से का काम भी,  उल्लेखनीय लघु कथाएँ हैं | … Read more

फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म

amazon,com से साभार एनिमेटेड मूवीज  तकनीकी और कला का खूबसूरत मिश्रण होती है | उच्च स्तर के सोफ्टवेयर के कारण अब ये फ़िल्में बहुत ही बेहतरीन तरीके से बनायीं जाने लगी हैं | ऐसी ही फिल्म है फ्रोज़न | जो दो बहनों की की कहानी है | आइये जाने फिल्म फ्रोजन के  बारे में …   फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म  ये कहानी है एक नार्वे के एक राज्य की राजकुमारी एलसा की जिसके पास हैं जादुई शक्ति | ये कोई मामूली जादुई शक्ति नहीं है ….वो अपने हाथों का इस्तेमाल करके ना जाने कितनी बर्फ बना सकती है | अलग -अलग आकारों में ढाल सकती है |  इस बारे में उसके माता -पिता व् छोटी बहन ऐना के अलावा  किसी को पता नहीं है | बात उनके बचपन की है एना छोटी है वो बर्फ से खेलना चाहती है | वो सोती हुई बड़ी बहन एलसा से जिद करती है कि सुबह हो गयी है उठो और बर्फ से खेलो | एलसा मना  करती है पर बहन की जिद के आगे वो बाहर आती है | वो बर्फ से एक पुतला ओलाफ बनाती है | बर्फ की स्लाइड बनाती है झूले बनाती है और बहुत कुछ बनाकर बहन के साथ खेलती है | ऐना अभी और खेलना चाहती है तो वो बर्फ का पहाड़ बनाती है | ऐना उससे कूद कर दूसरे पहाड़ पर जाती है | इससे पहले की ऐना कूदे  वो तीसरा पहाड़ बनती है , फिर चौथा , पांचवां …. तभी उसका पैर फिसलता  है और समय पर वो ऐना के लिए अगला पहाड़ नहीं बना पाती | ऐना गिर जाती है | उसके सर में चोट लगती है ….उसका बदन ठंडा पड़ने लगता है | घबराकर एलसा अपने पेरेंट्स को बुलाती है | एलसा के पेरेंट्स दौड़े -दौड़े आते हैं | ठंडी पड़ी हुई बेटी को देखकर माँ घबरा जाती है और रोने लगती है | पिता उसे धैर्य देते हुए कहते हैं की मुझे पता है मुझे कहाँ जाना है | वो अपने  घोड़े निकाल कर दोनों बच्चियों को लेकर ट्रॉल्स के पास जाते हैं | पश्चिमी माइथोलोगी में ट्रॉल्स का वही स्थान है जो हमारे यहाँ राक्षसों का है | ट्रॉल्स भी अलग -अलग आकार ले सकते हैं | अच्छे और बुरे हो सकते हैं | जिन्होंने हैरी पॉटर पढ़ी है वहां ट्रॉल्स डम्ब हैं वहीँ सिल्मारेलियन में ट्रॉल्स धूप  में पत्थर बन जाते हैं | इस कहानी में ट्रॉल्स एक बड़े निर्जन स्थान पर छोटे -छोटे पत्थरों की तरह पड़े रहते हैं , जो किसी के पुकारने पर अपनी इच्छा से ही बहुत छोटे कद के मोटे चेहरे ,मोटी  नाक वाले इंसानों के रूप में आते हैं | जब ये लोग ट्रॉल्स के पास जाते हैं तो नन्हा क्रिस्टोफ अपने छोटी से स्लेज पर छोटा सा बर्फ का टुकड़ा ले कर जा रहा होता है , जिसे उसका रेनडियर दोस्त स्वान चला रहा होता है | क्रिस्टोफ बर्फ के व्यापारियों का बेटा है जो गर्मियों में ठंडे पहाड़ों पर जाकर बर्फ काटते हैं  और उसे मैदानों में बेचते हैं | क्रिस्टोफ उनके साथ जाता है , खेल कूद के साथ काम सीखता है और बर्फ के छोटे टुकड़े अपनी गाडी में लेकर आता है | क्यूंकि एलसा अपनी बहन की वजह से परेशान  है और उसकी पॉवर कंट्रोल नहीं हो रही …तो रास्ते भर बर्फ गिरती जाती है |  उधर से आता हुआ क्रिस्टोफ बर्फ को रास्ते में गिरते हुए देख कर सहज उत्सुकतावश उस गाडी के पीछे हो लेता है | राजा -रानी ट्रॉल्स के राजा को मदद के लिए बुलाते हैं | क्रिस्टोफ  पत्थर के  पीछे  छुप कर देखता है | ट्रॉल्स का राजा ऐना को देखता है …वो कहता है इसके दिमाग में चोट लगी है जिसके कारण वो बर्फ में बदल रहा है …पर ये अच्छी बात है कि चोट दिमाग  में लगी है , इसे  ठीक कर सकता हूँ , अगर यह दिल में लगी होती तो मैं ठीक नहीं कर पाता | वो उसे जादू से ठीक करता है व् साथ ही ये सारे वाकये उसके दिमाग से निकाल देता है बस उस आनंद  को रहने देता है | राजा  -रानी एलसा के बारेमें पूछते हैं तो वो बताता हैकि एलसा सामान्य बच्ची नहीं हैं उसके पास बर्फ बनाने की पॉवर है …. वो कुछ भी बना सकती है …परन्तु समस्या के है कि वो शुरू तो कर सकती है पर रोक नहीं पाती …खासकर तब जब वो इमोशनल हो ( सुख या दुःख ) या भयभीत हो | इसे अपनी पॉवर को कंट्रोल करना सीखना होगा नहीं तो इससे भारी नुक्सान  हो सकता है | राजा -रानी और एलसा डर जाते हैं |वो महल में आकर महल के सारे खिड़की दरवाजे बंद कर देते हैं | एलसा औरऐना  को दूर करने के लिए एलसा को अपने कमरे से बाहर जाने की इजाजत नहीं होती | एलसा के अन्दर भी भय है  कि कहीं फिरसे उसकी बहन को नुक्सान ना हो जाए तो बहन के बार -बार दरवाजा खटखटा कर बुलाने पर भी वो नहीं निकलती | उसका भय बढ़ने लगता है जिसके कारण उसकी पॉवर भी नियंत्रण के बाहर होने लगती हैं | उसके बंधन और बढ़ा दिए जाते हैं |  माता -पिता बार -बार हिदायत अपने इमोशन पर कंट्रोल रखो , डर पर कंट्रोल रखो , कोशिश करो | ये कोशिशे उसे और भयभीत करती हैं | अब वो जिस चीज को छूती है वही चीज पर बर्फ बनने लगती है | उसे हाथों के दस्ताने पहना दिए जाते हैं | समय बीतता है | बहने बड़ी होती हैं | जब एलसा  15 साल की होती है तो उसके माता -पिता को कहीं जाना पड़ता है | वो एलसा को खुद पर कंट्रोल करने को कहते हैं | एलसा  उन्हें आश्वासन देती है | यात्रा में उनका जहाज डूब जाता है | इस दुःख की घड़ी में ऐना , एलसा से दरवाजा खोलने की गुज़ारिश करती है पर वो नहीं मानती | अकेले रह -रह कर उसका भय बढ़ रहा है और उसकी शक्तियाँ भी … तीन साल बीत जाते हैं … एलसा १८ की हो जाती है …आज उसका राजतिलक होगा और … Read more