निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा

–‘मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरंतन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुंध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वॄक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडंडी गुम हो गई हो…’   निर्मल वर्मा जैसे कथाकार दुर्लभ होते हैं l जिनके पास शब्द सौन्दर्य और अर्थ सौन्दर्य दोनों होते है l सीधी-सादी मोहक भाषा में अद्भुत लालित्य और अर्थ गंभीरता इतनी की कहानी पढ़कर आप उससे अलग नहीं हो सकते… जैसे आप किसी नदी की गहराई में उतरे हो और किसी ने असंख्य सीपियाँ आपके सामने फैला दी हों l खोलो और मोती चुनो l यानि कहानी एक चिंतन की प्रक्रिया को जन्म देती है… ऐसी ही एक कहानी है परिंदे l जिसे बहुत पहले तब पढ़ा था जब एक जिम्मेदार पाठक होना नहीं आता था l अभी कल फिर से पढ़ी और जुबान पर नरोत्तम दास के शब्द ठहर गए, “‘तुम आए इतै न कितै दिन खोए।“ ये भूमिका इसलिए क्योंकि एक पाठक के तौर पर आप सोच नहीं सकते कि एक सीधी सादी दिखने वाली प्रेम कहानी आपको जीवन की इतनी गहराइयों तक ले जाएगी l कहानी के मुख्य पात्र हैं लतिका, डॉ.मुखर्जी और ह्यूबर्ट l अन्य सह पात्रों में प्रिन्सपल मिस वुड,कैप्टन गिरीश नेगी और छात्रा जूली l   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश   कहानी कुछ इस तरह से है कि नायिका कॉनवेन्ट के स्कूल के होस्टल के रंगीन वातावरण में अकेलेपन के दर्द के साथ जी रही है। इसका कारण उसका अतीत है l वो अतीत जो उसने गिरीश नेगी के साथ गुजारा है l  जिसे वह चाहकर भी विस्मृति नहीं कर पा रही है। कुमाऊँ रेजिमेंट सेंसर के कैप्टन गिरीश नेगी से लतिका ने प्रेम किया था और युद्ध के कारण उन्हें कश्मीर जाना पड़ा। उसके बाद गिरीश नेगी लौट नहीं सके। प्लेन-दुर्घटना में गिरीश की मृत्यु हो चुकी है। पर अब भी लतिका उसे भूल नहीं पाती। वह मेजर गिरीश के साथ गुज़ारे दिनों की स्मृतियों को अपना साथी बना, कॉनवेन्ट स्कूल में नौकरी करते हुए दिन व्यतीत करती है। उसके द्वारा कहा गया एक वाक्य देखें… “वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मंडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है।”   वहीं के संगीत शिक्षक मिस्टर ह्यूबर्ट लतिका को पसंद करते हैं l उन्होंने एक बार लतिका को प्रेम पत्र लिखा था। हालांकि वो नेगी वाला प्रकरण नहीं जानते हैं और पूरी बात पता चलने पर क्षमा भी मांगते हुए पत्र वापस ले लेते हैं l लतिका को उसके इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्नता भी हुई थी। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। लतिका को लगा था कि वह अभी इतनी उम्रवाली नहीं हो गई कि उसके लिए किसी को कुछ हो ही न सके। लेकिन फिर भी उसे नहीं लगता कि उसे वैसी ही अनुभूति अब किसी के लिए हो पाएगी।   डॉ. मुखर्जी  कहानी के एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र हैं l मूल रूप से वो बर्मा के निवासी हैं l बर्मा पर जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में आ बसे थे । कुछ लोगों का कहना है कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उनके मन‌ में भी अतीत है । लेकिन वे अपना अतीत कभी प्रकट नहीं करते है।बातों से पता चलता है कि उनके दिल में भी अतीत के प्रति मोह है ,प्रेम है तभी तो एक जगह वो कहते है-   “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।”   लेकिन डॉक्टर मुखर्जी को लतिका का ये एकांत नहीं भाता एक जगह वो कहते हैं … “लतिका… वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।”   निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे की समीक्षा   अगर कहानी के पात्रो पर गौर करें तो लतिका, डॉ मुखर्जी सभी अपना दर्द लिए जीते है। ऊपर से हंसने की असफल कोशिश करने वाले और अन्दर ही अन्दर रोते हुए इन पात्रों की बात व्यवहार में आने वाले बारीक से बारीक परिवर्तन को लेखक द्वारा प्रस्तुत किया गया है l   प्रेम कहानी सी लगने वाली कहानी एक विषाद राग के साथ आगे बढ़ती है l काहनी अपने नाम को सार्थक करती है या यूँ कहें कि अपने गंभीर अर्थ के साथ खुलती है कुछ पंक्तियों से …   पक्षियों का एक बेड़ा धूमिल आकाश में त्रिकोण बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लतिका और डॉक्टर सिर उठाकर इन पक्षियों को देखते रहे। लतिका को याद आया, हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिंदे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते है बर्फ़ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएँगे… क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मिस्टर हयूबर्ट—लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे’—   यहाँ निर्मल वर्मा परिंदे की तुलना मानव से करते हैं l जो किसी सर्द जगह … दुख, निराश से निकल तो आते हैं पर आगे बढ़ने से पहले कुछ देर किसी छोटी पहाड़ी पर ठहरते हैं पर वाहन भी जब बर्फ पड़ने लगती है तो उस जगह को छोड़ देते हैं l यही स्वाभाविक वृत्ति है जीवन की l पर यहाँ सब अतीत में अटके हैं आगे बढ़ना ही नहीं चाहते l लतिका का मनोविज्ञान समझने के लिए कुछ पंक्तियाँ  देखिए…   लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, लेकिन जब सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई उसकी किसी चीज़ को उसके हाथों से छीने लिए जा रहा है, ऐसा कुछ … Read more

कहानी समीक्षा- काठ के पुतले

काठ के पुतले

ऐसा ही होता आया है एक ऐसा वाक्य है जिसके आवरण तले ना जाने कितनी गलत बाते मानी और मनवाई जाती हैं l कमजोर का शोषण दोहन होता रहता है, पर क्योंकि ऐसा होता आया है ये मानकर इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठती l और समाज किसी काठ के पुतले की तरह बस अनुसरण करता चलता है l जमाना बदला और शोषण के हथियार और तरीके भी बदले l गाँव शहर बनते जा रहे हैं और शहर स्मार्ट सिटी l फिर भी नई जीवन शैली में नए बने  नियम कुछ ही दिनों में परंपरा बन गए और उन पर यही ऑर्डर है का मुलम्मा चढ़ गया l अपनी बात कहना अवज्ञा मान लिया गया l लेकिन क्या ऐसा ही होता रहेगा या होते रहने देना चाहिए ? क्या आवाज़ नहीं उठनी चाहिए? ऐसी ही एक आवाज़ उठाती है ललिता अपनी चमक धमक से आँखों को चुँधियाती दुनिया में काठ के पुतले बने खड़े उन लोगों के लिए जिन्हें हम सेल्स मैन /वुमन/पर्सन के नाम से जानते हैं l मैं बात कर रही हूँ परी कथा में प्रकाशित प्रज्ञा जी की कहानी काठ के पुतले की l समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी की कहानियों की विशेषता है कि वो साहित्य को स्त्री- पुरुष, शहरी व ग्रामीण, अमीर-गरीब के खांचों में नहीं बाँटती l उनकी कलम इन सब से परे जाकर शोषण को दर्ज करती है l जहँ भी जिस भी जगह वो नजर आ रहा हो वो उस पर विरोध दर्ज करने की बात का सशक्त समर्थन करती नजर आती है l और समस्या है तो समाधान भी है के तहत वो आवाज़ उठाने पर जोर देती हैं l एक आवाज़ में दूसरी आवाज़ जुड़ती है और दूसरी में तीसरी… हमें काठ के पुतले नहीं जिंदा इंसान चाहिए। जो अपना हक लेना जानते हों l काठ के पुतले कहानी भी शुरू में एक आम युगल की आम कहानी लगती है l थोड़े  आगे बढ़ने पर लगता यही कहानी प्रेम में जाति के मसले को लेकर चलेगी पर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वो अपना आयाम बढ़ाती जाती है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती एक बड़े फलक की कहानी बन जाती है l चमचमाते मॉल जिनमें रोज हजारों लोग आते-जाते हैं l जिनकी मदद के लिए अच्छे कपड़े पहने, चेहरे पर मुस्कान चिपकाए सामान खरीदने में हमारी मदद करते सेल्स पर्सन की भी कुछ समस्याएँ है? शहर में है, रोजगार भी है, अच्छे भले कपड़े पहनते है, मुस्कुरा- मुस्कुरा कर बात करते हैं, उनको क्या दुख?  जरा कहानी में लिफ्टमैंन का दर्द देखिए…. ‘‘चैन? कहां बेटा! घर पहुंचते-पहुंचते बेहाल शरीर बिस्तर ढूंढने लगता है। न बीबी-बच्चों की बात सुहाती है न खाना। बीबी रोटी-सब्जी परोस देती है मैं खाकर लेट जाता हूं। कितना समय हो गया खाने में कोई स्वाद नहीं आता…थकान से बोझिल शरीर को मरी नींद भी नहीं आती। सुबह से खड़े -खड़े पैर सूज जाते हैं और सबसे ज्यादा दर्द करते हैं कंधे। कंधों से रीढ़ की हड्डी में उतरता हुआ दर्द जमकर पत्थर हो जाता है।“   क्या हम कभी सोच पाते हैं कि 12 घंटे की ड्यूटी बजाने वाले ये सेल्स पर्सन सारा दिन खड़े रहने को विवश है l टांगें खड़े- खड़े जवाब दे जाएँ , महिलायें गर्भवती हों या उन्हें यूरिनरी प्रॉब्लम हो… उन्हें बैठने की इजाजत नहीं l उस समय भी नहीं जब गरहक ना खड़े हों l लगातार खड़े रहने की थकान पैरों में वेरुकोज वेंस के रूप में नजर आती है तो यूरिन तो टालने के लिए पानी ना पीना कई स्वस्थयगत बीमारियों के रूप में l नौकरी में खड़े रहना एक सजा की तरह मिलता है l जिस पर किसी का ध्यान नहीं है l ललिता आवाज़ उठाती है l शुरू में वो अकेली पड़ती है पर धीरे-धीरे लोग जुडते है l कहानी समाधान तक तो नहीं पहुँचती पर एक सकारात्मक अंत की ओर बढ़ती दिखती है l कहानी इस बात को स्थापित करती है कि शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना जरूरी है l अधिकार कभी थाली में सजा कर नहीं मिलते l  उनके लिए जरूरी है संघर्ष, कोई पहल करने वाला, संगठित होना ….   तभी बदलती है काठ के पुतलों की जिंदगी l एक अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें नैहर छूटल जाए – एक परिवर्तन की शुरुआत प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ अगर आप को लेख “कहानी समीक्षा- काठ के पुतले” अच्छा लगा हो तो कमेन्ट  कर हमें जरूर बताएँ l  अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद करने वाले कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी

भगोड़ी

लड़कियों के लिए तो माता-पिता की मर्जी से ही शादी करना अच्छा है l प्रेम करना तो गुनाह है और अगर कर लिया तो भी विवाह तो अनुमति लिए बिना नहीं हो सकता और अगर कर लें तो वो उससे भी बड़ा गुनाह है l जिसकी सजा माता-पिता परिवार मुहल्ला- खानदान पीढ़ियाँ झेलती हैं l पर प्रेम को मार कर कहीं और विवाह कर लेने की सजा केवल दो लोग… इसलिए समाज को दो लोगों को सजा देना कहीं ज्यादा उचित लगता है और विवाह के मंत्रों के बीच किसी प्रेम पुष्प की आहुति अक्सर हो ही जाती है l “प्रेम और इज्जत” सदियों से तराजू के दो पलड़ों में बैठा दिए गए हैं l इस नाम से किरण सिंह जी का कहानी संग्रह भी है l प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी ऐसे विचार मेरे मन में आये किस्सा पत्रिका में रंजना जायसवाल की कहानी “भगोड़ी” पढ़कर l कहानी में पिता से कहीं अधिक स्त्री जीवन की विडंबनाएँ खुलती हैं l एक प्रेम में भागी हुई लड़की जब कुछ वर्ष बाद अपने ही शहर वापस आती है तो उसे पता चलता है कि उसके पिता कि मृत्यु हो चुकी है l भाई द्युज की कहानी में सात भाइयों की बहन को भाई की शादी में भी नहीं बुलाया जाता पर घर से भागी हुई लड़की को पिता की मृत्यु की सूचना भी नहीं दी जाती l मायके जाने के लिए पूछने की दीवारे अब भले ही टूट रहीं हो पर पिछली पीढ़ियों ने ये दर्द जरूर झेला है l एक हुक सी उठती है और मन के कोने में मुकेश द्वारा गाया गया गीत बज उठता है …. “नए रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना ना फिर याद करना, ना फिर याद आना” और तंद्रा टूटती है दरवाजे पर खड़ी छोटी बहन के इस आर्त-कटाक्ष से “जो लड़कियां भाग जाती है ना उस घर की और लड़कियों की शादी नहीं हो पाती l केवल उस घर की लड़कियों की ही नहीं मुहल्ले की लड़कियों की भी शादी नहीं हो पाती l” l और उसके बाद शुरू होती है, आरोपों की झड़ी कि घर छूटे लोगों कि क्या दशा होती है l जिस पिता ने माँ-पिता दोनों की भूमिका निभाई l जिनसे मुहल्ला भर अपने बच्चों के लिए राय लेने आता था उन्हें सगी बुआ की बेटी की शादी में बुलाया भी नहीं गया lछोटा भाई नन्ही उम्र में ही वयस्क बन जाता है l जल्दी मुहल्ले की लड़कियों की शादी कर दी जाती है l लेखिका ने जो लिखा वो यथार्थ है l हमारे छोटे शहरों और गांवों का … पर क्या यथार्थ दिखाना ही कहानी का उद्देश्य है को लेखिका अंतिम पैराग्राफ में पलट देती है और एक प्रश्न पाठक के मन में बो देती हैं l और मुझे फिर से दो पलड़े दिखाई देने लगते हैं … एक में स्त्री बैठी है और एक में पुरुष l इन तमाम सामाजिक विडंबनाओं को जब प्रेम के नाम पर तोलने का प्रयास होता है पुरुष और उसके परिवार का पलड़ा फूल सा हल्का होकर उठता चला जाता है और स्त्री का धड़ाम से जमीन छूता है l और प्रश्न उठता है कि प्रेम और इज्जत के इस पलड़े में सिर्फ स्त्री ही क्यों बैठी है? डॉ. संगीता पांडे की एक कविता मुझे बार-बार याद आती है “विकल्प” l इसमें लड़की को माता-पिता बहुत प्यार करते हैं और उसे अपनी मर्जी का विकल्प चुनने देते हैं… तमाम विकल्पों में वो चुनती है नीली आँखों वाला गुड्डा, गुलाबी फ्रॉक, लाल रिबन पर शादी के समय उसे चुनने का विकल्प नहीं होता… बदले में मिलती है मौत…. जहाँ से वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं है l क्या आज बेटियाँ अपने पिता से ये विकल्प देने कि इजाजत नहीं मांग रहीं ? ये कहानी यही जवाब मांग रही है l कहानी के लिए रंजना जायसवाल जी को बधाई , शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी आपको लेख “प्रेम विवाह लड़की के लिए ही गलत क्यों-रंजना जायसवाल की कहानी भागोड़ी” कैसा लगा ? कृपया अपनी राय दें l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो अटूट बंधन को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष

जड़खोद

संवेद में प्रकाशित प्रज्ञा जी की एक और शानदार कहानी है “जड़ खोद”l इस कहानी को प्रज्ञा जी की कथा यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में देखा जा सकता है | जैसा कि राकेश बिहारी जी ने भी अपनी टिप्पणी में कहा है कि ये उनकी कथा यात्रा के नए पड़ाव या प्रस्थान बिन्दु की तरह देखा जाना चाहिए l एक स्त्री के संघर्ष की कहानी कहते हुए ये कहानी समाज में होने वाले राजनैतिक और सामाजिक बदलाव को एक सूत्र में इस तरह से गूथती हुई आगे बढ़ती है कि पाठक जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ता जाता है | राजनैतिक घटनाओं के बावजूद कथारस कहीं बाधित नहीं होता | कहानी की नायिका गंगा, भागीरथी गंगा की ही तरह प्रवाहमान है, जिसे बहना है और बहने के लिए उसे अपने रास्ते में आने वाले पर्वतों को काटना भी आता है और ना काट सकने की स्थिति में किनारे से रास्ता बनाना भी | भागीरथी प्रेत योनि में भटकते राजा सगर के पुत्रों को तारने देवलोक से आई तो ये गंगा अपने पिता का कर्ज उतारने दुनिया में आई है l गंगा जो पहाड़ों से संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है पर जमीन को समतल और हरा भरा करना ही उसके जीवन का उद्देश्य है | कहानी की नायिका गंगा भी बचपन से संघर्षों के साथ पलती बढ़ती पितृसत्ता और धर्मसत्ता से टकराती है l और अपनी तरफ से जीवन को समरस बनाने का प्रयास करती है | कहानी चंद्रनगर कि गलियों से निकलकर, देहरादून, भोपाल और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा करती है, तो तकरीबन 1980-85 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं का जिक्र करते हुए शहरों और गलियों के नाम बदलने वाले आज के युग का भी | प्रज्ञा जी कहानी में समय काल नहीं बताती पर घटनाओं के मध्यम से पाठक समय को पहचान जाता है | कहानी में पाठक गंगा की उंगली पकड़कर चलता है और उसके सुख दुख में डूबता उतराता हैl उसके गुम हो जाने कि दिशा में पाठक कि बेचैनी भी गंगा कि सहेली सोनू की ही तरह बढ़ती जाती है | बच्चों को स्कूल ले जाने वाले रिक्शे पर पीछे लगे पटरे, रिक्शे बच्चों का शोर और, सोनू का दौड़ कर सीढ़ियाँ चढ़ कर इत्मीनान से बिना नहाई -धोई गंगा को जल्दी करने के लिए कहना, जहाँ बाल सुलभ हरकतों के साथ पाठक को बचपन में ले जाता है l वहीं अन्यायी अत्याचारी पिता का विदोह करती बच्ची का बाल मनोविज्ञान प्रज्ञा जी ने बखूबी पकड़ा है | फिर चाहे वो पुजारी की बेटी होते हुए भी बिना नहाए नाश्ता करना हो या सहर्बी पिता के विरोध में कि गई चोरी या रिक्शे के आगे लेट जाने की धमकी, या जमा हथियारों को नदी में बहा आना | माली के लड़के से प्रेम | धर्म, जाति समाज इतने सूत्रों को एक साथ एक कहानी में पिरोने के बावजूद ना कथारस कहीं भंग होता है और नया ही प्रवाह, ये लेखिका की कलम की विशेषता है | अगर राजनैतिक सूत्र पकड़े तो गंगा में कहीं इंदिरा गांधी नजर आती हैं तो कहीं गांधी जी | इंदिरा शब्द का प्रयोग तो लेखिका ने स्वयं ही किया है | द्रण निश्चयी, अटल, गंगा अपनी उम्र से पहले ही बड़ी हो गई है वो एक अन्य बच्ची टिन्नी के खिलाफ अपने पिता के कुत्सित इरादों को भांप पर उसे बचाती भी है और माँ को बचाने के लिए पिता पर वार करती है | मंदिर और मंदिर के आस -पास का वातवरण का जिक्र करते हुए प्रज्ञा जी कि गंगा धर्म की सही व्याख्या करती है जो अन्याय के खिलाफ अपनों से भी भिड़ जाने में है l गंगा के उत्तरोत्तर बढ़ते चरित्र को देख कर मुझे बरबस राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ याद आती हैं .. अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। कहानी की कुछ पंक्तियाँ देर तक सोचने पर विवश करती हैं … ‘जब मानुस धर्म देखने वाली आँखें फूट जाएं तो रिश्ते की सीखचों में कैद होना ही अंतिम उपाय रहता है।’’ ‘‘ राम के नाम में इस त्रिशूल का क्या काम? ये तो बिल्कुल हथियार जैसा लगता है।’’ ‘‘ तो इस पाप की भागी अकेली मैं नहीं हूं। देख रही है न सामने उस आदमी को, मंगल के पैसे बटोरकर मंहगी शराब पिएगा और रात को माई को मारेगा। इस पापी के सामने मैं क्या हूं? भगवान सब जानते हैं।’’ कहानी में सकारात्मकता बनाए रखना प्रज्ञा जी कि विशेषता है | ऐसा नहीं है कि कहानी में सारे खल चरित्र और उनसे जूझती गंगा ही हो, सार्थक पुरुष पात्रों के साथ कहानी को एकतरफा हो जाने से रोकती हैं | जहाँ प्रभात है, जिसके प्रेम में धैर्य है, संरकांत जी हैं, जो किसी अबला को सहारा देने के लिए समाज यहाँ तक की अपने बेटों से भी भिड़ जाते हैं …. पर नैतिकता का दामन नहीं छोड़ते | सोनू और उसके जीवन में आने वाले सभी लोग सभ्य -सुसंस्कृत हैं l ये वो लोग हैं जिनकी वजह से हमारे घर, समाज, धर्म और राजनीति में बुराइयाँ थोड़ा थमती हैं | कहानी का अंत एक नई सुबह की आशा है …जो रात के संघर्ष के बाद आती है l अपने हिस्से की सुबह के लिए अपने हिस्से का यह संघर्ष हर स्त्री को करना होगा l चाहें इसके लिए जड़खोद ही क्यों ना बनना पड़े | फिर से एक बेहतरीन कहानी के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी आपको “प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष” कहानी कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें l