लगाव (लघु कहानी)

सविता मिश्रा  “बुढऊ देख रहें हो न हमारे हँसते-खेलते घर की हालत!” कभी यही आशियाना गुलजार हुआ करता था! आज देखो खंडहर में तब्दील हो गया|” “हा बुढिया चारो लड़कों ने तो अपने-अपने आशियाने बगल में ही बना लिए है! वह क्यों भला यहाँ की देखभाल करते|” “रहते तो देखभाल करते न” चारो तो लड़लड़ा अलग-अलग हो गये|” “उन्हें क्या पता उनके माता-पिता की रूह अब भी भटक रही है! यही खंडहर में वे अपने लाडलो के साथ बीते समय को भला कैसे भुला यहाँ से विदा होतें! दुनिया से विदा हो गये तो क्या?” लम्बी सी आह भरी आवाज गूंजी “और जानते हो जी, कल इसका कोई खरीदार आया था, पर बात न बनी चला गया! बगल वाले जेठ के घर पर भी उसकी निगाह लगी थी|” “अच्छा बिकने तो ना दूंगा जब तक हूँ …..!” खंडहर से भढभडाहट की आवाज गूंज उठी वातावरण में “शांत रहो बुढऊ काहे इतना क्रोध करते हो” “सुना है वह बड़का का बेटा शहर में कोठी बना लिया है! अपने बीबी बच्चों को ले जाने आया है …!” “हा बाप बेटे में बहस हो रही थी ..! अच्छा हुआ हम दोनों समय से चल दिए वर्ना इस खंडहर की तरह हमारे भी …..|”  यह भी पढ़ें ………… अम्माँ परदे के पीछे अपनी – अपनी आस बदचलन

घुटन से संघर्ष की ओर

पंकज ‘प्रखर  सरला अब उठ खड़ी हुई थी ये विवाह उसके माता-पिता और गर्वित के माता-पिता की ख़ुशी से हुआ था| लेकिन न जाने क्यों गर्वित उससे दुरी बनाये रखता था न जाने उसे स्त्री में किस सौन्दर्य की तलाश थी ये सोचकर उसके माथे पर दुःख की लकीरें उभर आई | पति का उसके प्रति यह व्यवहार, ताने, व्यंग्य, कटूक्तियों की मर्मपीड़क बौछार सुनते- सुनते उसका अस्तित्व छलनी हो गया था। यदि उसके पास वासनाओं को भड़काने वाली रूप राशि नहीं हैं, तो इसमें उसका क्या दोष है? गुणों के अभिवर्द्धन में तो वह बचपन से प्रयत्नशील रही है। बेचैनी से उसके कदम कमरे की दीवारों का फासला तय करने लगे। पढ़िए – अनावृत आज निर्णय की घड़ी है। निर्णय की घड़ी क्या-निर्णय हो चुका। पति साफ कह चुके, “मैं तुमको अपने साथ नहीं रख सकता।” उनकी दृष्टि ने शरीर के अलावा और कुछ कहाँ देखा? यदि देख पाते तो … काश…..! बेचैनीपूर्वक टहलते-टहलते पलंग पर बैठ गयी। अचानक उसने घड़ी की ओर देखा, शाम के 5-15 हो चुके। अब तो वे आने वाले होंगे। पढ़िए – जीवन तभी दरवाजे पर बूटों की खड़खड़ाहट सुनाई दी। शायद…….मन में कुछ कौंधा। अपने को स्वस्थ-सामान्य दिखाने की कोशिश करने लगी। थोड़ी देर में सूटेड-बूटेड, ऊँचे, गठीले शरीर के एक नवयुवक ने प्रवेश किया। उसके मुखमण्डल पर पुरुष होने का गर्व था। एक उचटती-सी नजर उस पर डालकर वह कुर्सी पर बैठा व प्रश्न दाग बैठा-”हाँ तो क्या फैसला किया तुमने?” घुटन या संघर्ष में से वह पहले ही संघर्ष चुन चुकी थी। पति का निर्णय अटल था, अतः उसने बन्धनों से मुक्ति पा ली|  यह भी पढ़ें … अम्माँ परदे के पीछे अपनी – अपनी आस बदचलन

अम्माँ

रश्मि सिन्हा  अम्माँ नही रही। आंसू थे कि रुकने का नाम नही ले रहे थे। स्मृतियां ही स्मृतियां, उसकी अम्माँ, प्यारी अम्माँ ,स्मार्ट अम्माँ। कब बच्चों के साथ अंग्रेजी के छोटे मोटे वाक्य बोलना सीख गई पता ही नही चला। कितने रूप अम्माँ के, क्लब जाती अम्मा, हौज़ी खेलती, पारुल सुन जरा की आवाज़ देती— फिर धीरे-धीरे वृद्ध होती अम्माँ, तब भी काम मे लगी, कभी कभी सर में तेल डालती अम्माँ। बहुत ऊंचा सुनती थी। कभी- कभी बहुत जोर से बोलने पर झल्ला भी जाते हम अम्मा के बच्चे।    पर कभी निश्चिन्त भी, जब कोई ऐसी बात करनी होती जो अम्मा को नही सुननी होती, कभी उसकी आलोचना भी हम बेफिक्र होकर करते, क्योंकि प्यार के साथ साथ कई शिकायतें भी थीं अम्माँ से। पढ़िए – नया नियम उन पर नज़र डालते तो वो  एक बेबस सी मुस्कुराहट, न सुन पाने की छटपटाहट— हम सब भी क्या करते। आज अम्माँ की डायरी लेकर बैठी हूँ। तारीखों के साथ घटनाओं का वर्णन, वो घटनाएं भी, वो बातें भी, जो हम उनके सामने बैठ कर किया करते थे। पढ़िए – लली दिल की धड़कन अचानक ही बढ़ चुकी है। ओह! ओह!!! तो अम्माँ सब सुन सकती थी, ओह! ईश्वर—- जीते जी एक सच जानकर गई थी अम्माँ यह भी पढ़ें ……. इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन कृष्ण की गीता और मैं भूमिका  गुमनाम

पर्दे के पीछे

(लघुकथा) –विनोद खनगवाल ,सोनीपत (हरियाणा) सरकार के द्वारा इस बार दिवाली पर चीन निर्मित उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। टीवी पर खबरों में लोग इन उत्पादों का बहिष्कार करके देशभक्ति निभाने की कसमें खा रहे थे। इस विषय पर पड़ोसी दोस्तों के साथ एक गर्मागर्म चर्चा के बाद मैं भी अपनी बेटी के साथ दिवाली की खरीदारी करने चल दिया था। “पापा ये लो! पापा ये भी ले लो!!”-बेटी ने एक दुकान पर कई चीजें पसंद आ गई थीं। “कितने के होंगे भाई ये सब सामान?” “साहब! दस हजार के करीब हो जाएगा।”-दुकानदार ने हिसाब लगाकर बताया। “कुछ और अच्छी सी वेरायटी का सामान नहीं है क्या तुम्हारे पास…..?” “साहब, आप अंदर चले जाइए। आपको आपके हिसाब का सारा सामान मिल जाएगा।”- दुकानदार की अनुभवी आँखों ने मेरे चेहरे के भाव पढते हुए पर्दे के पीछे बनी दुकान में जाने का इशारा कर दिया। “ये तो चाइनीज आइटम हैं!!! सरकार ने इसको बैन कर रखा है ना…?” “साहब, पर्दे के पीछे सब चलता है। कोई दिक्कत नहीं है सबकी फीस उन तक पहुँच चुकी है।” अब दिवाली की खरीदारी मजबूरी थी इसलिए बिना कोई बहस किये अंदर चला गया।  वहाँ जाकर देखा तो देशभक्ति की कसमें खाने वाले दोस्तों की मंडली पहले से ही वहाँ मौजूद थी। सभी की नजरें आपस में मिली तो चहरों पर एक खिसियानी मुस्कुराहट दौड़ गई। सभी के मुँह से एक साथ निकला– “यार, हम तो सिर्फ देखने आए थे।” यह भी पढ़ें …  परिवार इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन

परिवार

सुनीता त्यागी मेरठ, यू. पी. ****** एकमात्र पुत्री के विवाह के उपरांत मिसिज़ गुप्ता एकदम अकेली हो गयी थीं। गुप्ता जी तो उनका साथ कब का छोड़ चुके थे। नाते रिश्तेदारों ने औपचारिकता निभाने के लिए एक-दो बार कहा भी था कि अब बुढ़ापे में अकेली कैसे रहोगी, हमारे साथ ही रहो। बेटी ने भी बहुत अनुरोध किया; परन्तु मिसिज़ गुप्ता किसी के साथ जाने को सहमत नहीं हुईं।  शाम के वक्त, छत पर ठंडी हवा में घूमते हुए घर के पिछवाड़े हॉस्टल के छात्रों को क्रिकेट खेलते देखना उन्हें बहुत भाता था। कई बार बच्चों की बॉल छत पर आ जाती। वे दौड़कर उसे फेंकतीं तो लगता मानो उनका बचपन लौट आया है। कई बार वह छत पर नहीं होतीं और बच्चे स्वयं उसे लेने आ जाते। तब मिसिज़ गुप्ता उनसे पल भर में ढेरों सवाल पूछ बैठतीं, बच्चों से बातचीत का सिलसिला धीरे-धीरे बढने लगा। जब वो गेंद लेने आते तो वह उन्हें जबरदस्ती अपने हाथ की खीर खिलातीं।  कभी तीज-त्यौहार पर सारे बच्चों को  ढेर सारे पकवान बनाकर बडे़ प्यार से खिलाकर भेजतीं। कई बार  झगड़ते देख उन्हें डांट लगाने में भी पीछे नहीं रहतीं। बच्चों को भी उनमें एक मां दिखने लगी थी।  छात्रों की परीक्षा समीप आ गयीं थीं । खेल के मैदान में उनका आना कम हो गया था। मिसिज़ गुप्ता कुछ उदास-सी रहने लगीं थी। कुछ दिन से स्वास्थ भी खराब रहने लगा था। पढाई करते हुए एक छात्र को एक दिन एकाएक आंटी की याद आ गयी तो कुशलक्षेम पूछने उनके घर पहुँच गया। देखा कि मिसिज़ गुप्ता तेज बुखार से तप रहीं थीं। बात पूरे छात्रावास में आग की तरह फैल गयी। कई लड़के आनन-फानन में उन्हें लेकर हस्पताल पहुंच गये। अनेक जाँच के बाद डाक्टर ने बताया, ‘कमजोरी बहुत ज्यादा आ गयी है, खून चढाना पडेगा।’ फिर पूछा, ‘इनके परिवार से कौन हैं?’  यह सुनते ही वहाँ उपस्थित सारे छात्र एक स्वर में बोल पडे़, “मैं हूं डाक्टर साहब।”  अपने इतने विशाल परिवार को देखकर मिसिज़ गुप्ता की आँखों से खुशी के मोती लुढ़क पडे। डॉक्टर भी अपनी भावुकता को छिपा न पाया। यह भी पढ़ें …….. इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन कोई तो हो जो सुन ले

“इंसानियत”

  चंद्रेश कुमार छतलानी शाम के धुंधलके में भी दूर पड़े अख़बार में रखे रोटी के टुकड़े को उस भूखे लड़के ने देख लिया, वो दौड़ कर गया और अख़बार को उठा लिया| “ये मुझे दे…” उसमें से वो रोटी निकालने लगा ही था कि एक सूटधारी आदमी ने उसे डांटते हुए अखबार छीन लिया| वो आदमी उस पर छपा समाचार पढने लगा, “हाल ही में चंद्रमा पर सबसे पहले पहुंचने वाला पन्ना जिस पर नील आर्मस्ट्रांग के हस्ताक्षर भी हैं, डेढ़ लाख डालर में नीलाम हुआ। इस पन्ने पर लिखा है- ‘एक शख्स का छोटा सा कदम, इंसानियत के लिए एक बड़ी छलांग।‘ “ ”बहुत बढ़िया, ये हुई न बात!” कहता हुआ वो आदमी बड़े-बड़े कदम भरता हुआ आगे बढ़ गया, लेकिन रोटी का टुकड़ा अख़बार में से नीचे गिर गया था, जिसे कुत्ता उठा कर ले गया| उस भूखे लड़के ने पहले कुत्ते के मुंह में रोटी और फिर आसमान से झांकते चंद्रमा के छोटे से टुकड़े की तरफ देखा, उसे चंद्रमा ऐसा लगा जैसे वो उस अमावस्या का इंतजार कर रहा है जब धरती के सूखे पड़े दीपकों को भी रोशन होने का मौका मिलेगा| ……………………………………….. यह भी पढ़ें ………. गलती किसकी दूसरा विवाह रितु गुलाटी की लघुकथाएं भलमनसाहत आलोक कुमार सातपुते की लघुकथाएं

अपनी-अपनी आस

शशि बंसलभोपाल । लघुकथा ) ” सुनो जी ! इस बार नए साल की पार्टी के लिए मुझे हीरों का हार चाहिए ही चाहिए ।पूरी कॉलोनी में एक मैं ही हूँ , जिसके पास एक भी ढंग का हार नहीं ।” ” जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो कोई इनकार कर सकता है भला ।सोच तो मैं भी रहा था , नई गाड़ी लेने की । तीन साल से एक ही गाड़ी चलाते-चलाते बोर हो गया हूँ । “ ” तो खरीद लीजिये न ।” ” अरे हाँ ! घर में क्या नोटों का पेड़ लगा है ? फिर, पिछले महीने हमने जो फार्म-हाउस खरीदा था , उसकी किश्त भी तो भरनी है ।” बगीचे की ओर बढ़ते हुए वह निराश भाव से बोले । ” हूँ……। हम कब तक ऐसे ही आस को मार – मारकर जिएँगे , कभी सोचा है आपने ? ” वह भी पीछे-पीछे चल पड़ी , और क्षुब्ध हो साथ की कुर्सी पर बैठ गई ।तभी उनके कानों से एक आवाज़ टकराई । ” आजे देसी घी री रोटी अन्ने मूँग री दाल खाई ने आवी रियू हूँ । दो बार हाथ धोई लीदा , अबार तक खुसबू आयी री है … साची , मजो आवी गयो ।नरा दिना बाद देसी घी की आस पूरन हुई …….। ” बगल में बन रहे नए बँगले पर मजदूर की आकांक्षा सुन दोनों की महत्त्वाकांक्षी नज़रें मिलते ही झुक गईं । यह भी पढ़ें … गलती किसकी दूसरा विवाह रितु गुलाटी की लघुकथाएं भलमनसाहत आलोक कुमार सातपुते की लघुकथाएं

बदचलन

लघुकथा  पूनम पाठक इंदौर ( म. प्र. ) सब तरफ चुप्पी छाई थी . कहीं कोई आवाज नहीं थी सिवाय उन लड़कों के भद्दे कमेंट्स की जो उस बेचारी को सुनने पड़ रहे थे . लेकिन किसी की हिम्मत उन लड़कों से भिड़ने की नहीं थी लिहाज़ा सभी मूकदर्शक बन चुपचाप तमाशा देख रहे थे . मैंने भी अपने काम से काम रखने वाली नीति अपनाते हुए मोबाइल पर अपनी निगाहें नीची कर ली थीं , कि तभी तड़ाक की आवाज ने जैसे सभी को जड़वत कर दिया .  नीची निगाहें उठाकर देखा तो अपनी ही कायरता पर शर्मिंदगी हुई ….हाँ ये वही लड़की है जिसे हम कभी अपनी दोस्ती के काबिल नहीं समझते थे . कहाँ हम कॉलेज के टॉपर बच्चों में से एक और कहाँ वो मर्दाना तरीके से रहने वाली मस्त , बेलगाम लड़की . जो सिर्फ कहने मात्र को लड़की थी , वरना लड़कियों वाली कोई बात उसमे नजर नहीं आती थी . उसके दोस्तों में अधिकतर आवारा टाइप के लड़के हुआ करते थे . बिना गालियों के बात करते हमने उसे नहीं देखा . पढाई लिखाई से कोसों दूर पर कॉलेज की नेतागिरी में अव्वल .  सामने तो मारे डर के कभी उसे कुछ कह नहीं पाये , परन्तु पीठ पीछे हम उसे आवारा , बदचलन और बदमाश आदि शब्दों से ही नवाजते थे . उसी बदचलन ने आज भीड़ भरी बस में एक मासूम लड़की के साथ बुरी तरह से छेड़खानी कर रहे लड़कों को ऐसा सबक सिखाया कि हम सभी शरीफों की नजरें नीची हो गयीं . रिलेटेड पोस्ट …  स्वाभाव जीवन बोझ टिफिन 

फौजी की माँ

उत्पल शर्मा “पार्थ”  राँची -झारखण्ड वक़्त हो चला था परिवार वालों से विदा लेने का, छुट्टी ख़त्म हो गयी थी। घर से निकलने ही वाला था सहसा सिसकियों की आवाज से कदम रुक गए, मुड़ कर देखा तो बूढी माँ आँचल से अपने आंसुओं को पोछ रही थी।  शायद अब वो सोच रही हो की उम्र हो चली है ना जाने फिर देख भी पाऊँगी या नहीं, अपने आंसुओं को दिल में दफ़न कर मैं निकल आया, दिल भारी सा हो गया था मुझमे इतनी भी हिम्मत नहीं थी को पीछे मुड़ कर अपने परिवार वालो को अलविदा कह सकूँ, बस एक उम्मीद थी मैं वापिस आऊंगा और मेरी बूढ़ी माँ उस चौखट पर मेरा स्वागत करेगी… जी हाँ मैं एक फौजी हूँ और मुझसे कहीं ज्यादा देश के लिये समर्पित “मेरी माँ” है ।। यह भी पढ़ें … कृष्ण की गीता और मैं भूमिका  गुमनाम

नदी की धारा

डॉ० मधु त्रिवेदीप्राचार्यशान्ति निकेतन कॉलेज ऑफ बिज़नेसमैनेजमेन्ट एण्ड कम्प्यूटर साइन्स आगरा। जीवन संध्या में दोनों एक दूसरे के लिए नदी की धारा थे |  जब एक बिस्तर में जिन्दगी की सांसे गिनता है तो दूसरा उसको सम्बल प्रदान करता है, जीवन की आस दिलाता है।दोनों जानते थे कि जीवन का अन्त निश्चित है, फिर भी जीवन की चाह दोनों में है। होती भी क्यों न हो, जीवन के आरम्भ से दोनों के लिए एक मित्र, सहपाठी और जीवनसाथी एवं बहुत कुछ थे।           बचपन में एक दूसरे के साथ खेलना, आँख मिचौली खेलना, हाथ में हाथ लेकर दौड़ लगाना आदि खेलों ने जीवन में खूब आनन्द घोला। धूप-छाँव की तरह साथ-साथ समय बिताते थे। माँ चिल्लाती कहाँ गया छोरे! तो रामू चिल्ला जवाब देता था आया माँ! फिर अन्तराल पश्चात माँ ने आकर देखा कि रामू और उसकी बालिका सहचारी सीतू आम की बड़ी डाली पर बैठे-बैठे आम खाते-खाते बतिया रहे हैं, फुदकते हुए नज़र आते हैं।                   स्कूली दिनों में बस्ता लादकर दोनों भाग रहे होते थे। सीतू जब भागते हुए थक जाती थी तो रामू उसका बस्ता ले हाथ पकड़ उसे अपने साथ दौड़ा रहा होता था। तभी से सीतू के लिए वह जीवन साथी, पति परमेश्वर सब कुछ था। एकबार सीतू ने रोते हुए कहा-हाथ पकड़कर जो तुम स्कूल ले जाते हो, इसे ऐसे ही पकड़े रहना कह कर सीतू राम की छाती से लिपट उसके कपोल पर चुम्बन लेती लिपट भावविभोर हो गयी। रामू के गम्भीर चेहरे पर बस एक स्वीकारोक्ति होती थी। होती भी क्यों न रामू प्यार करने लगा था। उसे अपनी अर्द्धागिंनी मानने लगा था।जवानी उनमे घर करने लगी थी।                     तो जमाने की दीवार बीच में थी, समाज में स्वीकार न था उसका रिश्ता पर जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। दोनों ने भागकर ब्याह किया और घर छोड़ दिया।  उतार-चढ़ाव आए मगर दोनों ने एक-दूसरे का हाथ कसकर जो पकड़ रखा था। रामू दिन भर मालिक के यहाँ रहता वहीं खाता बना हिसाब लगाता था तो सीतू घर का सारा काम करती थी,शाम घर के चौक पर बैठी रामू के आने की राह तका करती थी, कितना स्नेह था उसके तकने में जो आज भी दोनों को स्थिर रूप से बाँधे था।               आज जब रामू निसहाय बिस्तर में था, याद कर रहा है सीतू उसके पास समीप बैठी उसको अपने आँचल का सम्बल प्रदान कर रही है और रामू एक टक लेटा जैसा आकाश के तारे गिन रहा हो। शरीर साथ नहीं दे रहा था, साँसे उखड़ रही थी, देखते-देखते कुछ भी शेष न रहेगा। ऐसा लग रहा था सीतू को। सीतू के पास अब और कोई जीवन जीने का सहारा न था केवल रामू के। अतः सीतू यह सोचकर की रामू  ठीक हो जाए हर सम्भव प्रयास कर रही थी, नीम हकीम से लेकर डॉक्टर्स के घर तक दस्तक दे, मन्दिर, मस्ज़िदों में माथा टेक आयी थी, संसार भी कितना निष्ठुर है। एक के रूठने पर दूसरा स्वयं रूठ जाता है, लेकिन सीतू की निष्ठा पति परायणता एवं पत्नी धर्म ने इस निष्ठुरता पर विजय पा ली थी।             सीतू और रामू  एक नदी के किनारे थे फिर से एक दूसरे के साथ थे। सीतू को एक स्त्रियोंचित्त लक्षण प्रदान करने की कोशिश थी, माँ कहती थी खाना अच्छा बनाना पड़ोसी ज़मीदार और उनका बेटा तेरा रिश्ता जोड़ने आने को हैं। साड़ी उल्टे पल्ले की पहन खाना अच्छा खिलाना। सीतू को ये बातें माँ की एक कटोक्ति मात्र लगती थी। रामू जो उसका हो चुका था। प्रेम भी अजीब चीज है वह रामू  की चुम्बनें लेती ऐसी प्रेम डोर में बंधी चली जा रही थी। जिसका कोई छोर न था।                            सीतू और रामू आलिंगनबद्ध थे ।एक दूसरे का स्पर्श करते हुए भावविह्वल है। देखकर ऐसा लगता था मानो खुदा ने प्रेम को इन्हीं दोनों के रूप में जीवित रखा है। कृष्ण की गीता और मैं भूमिका  गुमनाम