दूसरा विवाह

मीना पाण्डेय  ” सॉरी ,आने में जरा देर हो गयी , आपने कुछ लिया , चाय -कॉफ़ी !! “  ” वो सब बाद में , पहले काम !! “ ” ठीक है , देखिये ये हम दोनों का दूसरा विवाह है , इसलिए कुछ बातें स्पष्ट हो जायें तो बेहतर होगा I “ ” जी “ ” आपके पति ने आपको क्यों छोड़ा ? “ ” उसने नही मैंने छोड़ा था , उसके लिए मैं दौलत और हवश की मशीन भर थी I “ ” आप दूसरा विवाह क्यों करना चाहते है ? “ ” वह औलाद का सुख नही दे पा रही थी “ ” तो बच्चा गोद ले सकते थे I “ ” लेकिन उससे परायेपन की बू आती “ ” बीवी भी तो पराये घर से ही आती है I “ ” ………….जी …” ” अच्छा अब चलती हूँ I “ ” लेकिन विवाह ! “ ” माफ़ कीजिये , मुझे जीवन साथी के रूप में एक इंसान चाहिए , सिर्फ मेरे बच्चे का पिता नही I “ रिलेटेड पोस्ट ……. वो क्यों बना एकलव्य ईद का तोहफा रुतबा क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी

मकान नंबर 13

 प्रतिभा  पांडे  उस  पॉश  कॉलोनी   के ब्लाक 2  मकान नंबर 13  में आज सुबह से ही मीडिया वालों और पुलिस का आना जाना लगा था I  ब्लाक 2 के बाकी  सारे मकानों में आज सन्नाटा था  , चिड़िया भी बाहर नहीं दिख  रही थी I पार्क  में भी सन्नाटा  था I और दिनों इसका उल्टा होता था I इस ब्लाक में सुबह से रौनक हो जाती थी I  कारें  धुलती थीं ,पार्क में योग, ध्यान, जॉगिंग और मंदिर में भजन चलते रहते थे,  और मकान न  13 में सन्नाटा  रहता था I एक महीने पहले इस मकान में  कोई लोग रहने आये थे I  पेपर वाला, दूध वाला  या  बाई ,कोई नहीं आता  था इस घर में I  पार्क में , मंदिर में   लोगों के  बीच   मकान  न  13  को  लेकर  सुगबुगाहट  और कानाफूसियाँ  तो  होती रहती थीं , पर  संभ्रांत  लोगों की कॉलोनी थी ,कोई पचड़े  में क्यों  पड़ता I और  ये  आज का दिन  , गुप्ता  जी ने  फ़ोन लगाया  शर्मा जी को , ” देखा  तुमने  T,V, में ? एक महीने  से  बंद  कर रखा था  बेचारी उस  नाबालिग  बच्ची को इन गुंडों ने  उस मकान  में I क्या क्या  किया  होगा  बेचारी के साथ I दम  तोड़ दिया  बेचारी ने अस्पताल में I  यार  सोचता  हूँ क्या होगा इस देश का I  अरे  छोड़  ये , और बता , वो जो अगले  हफ्ते से आध्यात्म  शिविर  लगने वाला है , उसमे  नाम  लिखवा  लिया ना ?” और    संभ्रांत  लोगों  की  बात चीत  चलती रही……… मकान  न  13  को  पुलिस  ने सील  कर  दिया , और  वहां फिर से  सन्नाटा  हो गया I  प्रतिभा  पांडे  ,    रतलाम  मध्य  प्रदेश    दूसरा विवाह रितु गुलाटी की लघुकथाएं भलमनसाहत आलोक कुमार सातपुते की लघुकथाएं

लली

मिताली ने डाइनिंग टेबल पर अपनी सारी फाइलें  फैला ली और हिसाब किताब करने लगी | आखिर गलती कहाँ हो रही है जो उसे घाटा हो रहा है | कुछ समझ में नहीं आ रहा है | एक तो काम में घाटा ऊपर से कामवाली का टेंशन | महारानी खुद तो गाँव चली गयीं और अपनी जगह किसी को लगा कर नहीं गयीं | पड़ोस की निधि से कहा तो है की अपनी कामवाली से कह कर किसी को भिजवाये | पर चार दिन हो गए अभी तो दूर – दूर तक कोई निशान दिखाई नहीं दे रहे हैं | आखिर वो क्या – क्या संभाले ? अपने ख्यालों को परे झटक कर मिताली फिर हिसाब में लग गयी | तभी दिव्य कमरे में आये | उसे देख कर बोले ,” रहने दो मिताली तुमसे नहीं होगा | ये बात मिताली को तीर की तरह चुभ गयी | दिव्य को देख कर गुस्से में चीखती हुई बोली ,” क्या कहा ? मुझसे नहीं होगा … मुझसे , मैं MBA हूँ | वो तो तुम्हारी घर गृहस्थी के चक्कर में इतने साल खराब हो गए , वर्ना मैं कहाँ से कहाँ होती | वो ठीक हैं मैडम पर आपके इस प्रोजेक्ट के चक्कर में मेरा बैंक बैलेंस कहाँ से कहाँ जा रहा है | दिव्य ने हवा में ऊपर से नीचे की और इशारा करते हुए कहा | मिताली कुछ कहने ही वाली थी की तभी बाहर से आवाज़ आई ,” लली “ मिताली ने बाहर जा कर देखा | कोई 52- 55 वर्ष  की महिला खड़ी  थी | मोटी स्थूलकाय देह , कपड़ों से उठती फिनायल की खुशबू से मिताली को समझते देर न लगी की ये काम वाली है जिसे निधि ने भेजा है | इससे पहले की मिताली कुछ कहती वो ही मुस्कुराते हुए बोल पड़ी ,”सुनो लली ,  कमला नाम है मेरा , निधि मेमसाहब ने बताया था की आप को कामवाली की जरूरत है | मिताली : ( उसे देखते हुए ) हां पर मुझे कम उम्र लड़की चाहिए | कमला : देखो लली , काम तो हम लड़कियों से ज्यादा अच्छा करते हैं | एक बार करा कर देखोगी तब पता चलेगा | मिताली : देखो मेरा समय बर्बाद मत करो , तुम्हारा शरीर इतना भारी है तुम कैसे पलंग के नीचे से कूड़ा निकाल पाओगी | कमला : अरे लली , उसकी चिंता न करो , हम सब कर कर लेंगें | मिताली : कैसे? कमला : अब का बताये लली ,करा के तो देखो मिताली : नहीं कराना , मुझे लड़की ही चाहिए बस | कमला : देखो लली , मिताली : ( गुस्से में उसकी बात बीच में ही काटते हुए ) क्या , लली , लली लगा रखा है | बड़े – बड़े बच्चे हैं मेरे | अब कोई कम उम्र लली थोड़ी न हूँ मैं | कमला : आश्चर्य से उसे देख कर बोली , “ का बातावें धोखा खा गए | अब आप को देख कर कोई कह सकता है की आप के बड़े – बड़े बच्चा  हैं | लड़की सी लगती हैं उमर का  तो तनिक पता ही नहीं चलता है | भाग हैं , भगवान् की देन है | उसके शब्दों ने जादू सा असर किया | अब मिताली थोड़ी ठंडी पड़ गयी | धीरे से बोली , “ कितना लोगी ?’ कमला : सफाई बर्तन का पंद्रह सौ मिताली :पंद्रह सौ , अरे ये तो बहुत ज्यादा हैं | पहले वाली तो बारह सौ लेती थी |  इससे अच्छा तो बर्तन मैं ही कर लूं और तुम सफाई कर लो  |मिताली घाटे का गणित लगाते हुए बोली | कमला : क्या  लली , अपने हाथ देखे हैं | कितने मुलायम हैं | सबके कहाँ होते हैं ऐसे हाथ |  भगवान् बानाए रखे | कया  , २ ००- २५०  रुपया के लिए इन्हें भी कुर्बान कर दोगी | मिताली अपने हाथ देखने लगी | सच में कितने मुलायम हैं | तभी तो दो नंबर की चूड़ियाँ भी झटपट चढ़ जाती है | सहेलियां भी तो अक्सर तारीफ करती हैं | मिताली ने अपने हाथ देखते हुए स्वीकृति में सर हिलाया | खुश होते हुए कमला बोली ,” ठीक है लली , कल से आयेंगे | फिर से लली ,इस बार मीताली  के स्वर में प्यार भरी  झिडकी थी | कमला हँसते हुए बोली ,” अब हम तो लली ही कहियें | जैसे दिखती हो , वही कहेंगे | और दोनों हँस पड़ीं |                            कमला ने काम पर आना शुरू कर दिया | और मिताली उसी प्रोजेक्ट , हिसाब , किताब , गुणा  – भाग में लग गयी | वो घाटे  से उबर नहीं पा रही थी | क्या दिव्य सही कहते हैं की उसे बुकिश नॉलिज है | प्रैक्टिकल नहीं | कहीं , कुछ तो है गलत है | पांच – छ : लोगों की छोटी सी कंपनी को वो संभाल  नहीं पा रही थी | सबके इगो हैंडल करना उसके बस की बात नहीं थी | पैसा वो लगाये , काम वो सबसे ज्यादा करे और मनमर्जी सबकी सहे |  हर कोई अपनी वाहवाही चाहता था |  दिव्य कहते हैं की सब का इगो हैंडल करना ही सबसे बड़ा हुनर है | नहीं तो कम्पनी ही टूट जायेगी |फिर बचेगा क्या ? कैसे करे वो ? और अब तो दिव्य ने भी पैसे देने से इनकार कर दिया है  | मिताली हारना नहीं चाहती थी |उसने लोन लेने का मन बनाया | सारे कागज़ तैयार किये | पर MBA की डिग्री की फोटो कॉपी रह गयी | मिताली डिग्री की फोटो कॉपी कराने बाज़ार के लिए निकली |                              रास्ते में पार्क पड़ता है | जहाँ काम वालियां अक्सर झुण्ड में बैठ कर बतियाती हैं | उसे दूर से कमला बैठी दिख गयी | कमला ने उसे नहीं देखा वो बातचीत में मशगूल थी |  पार्क के पास पहुँचते – पहुँचते मिताली को उनकी सपष्ट आवाज़े सुनाई देने लगीं | एक बोली ,” कमला चाची इस उम्र में भी तुम कैसे इतने घर पकड़  ली हो | हमें तो 40 की होने के बाद से ही काम नहीं मिलने लगा | सब ओ लड़की … Read more

रितु गुलाटी की लघुकथाएं

दोष  ———– रात के दस बज रहे थे।हम खाना खा कर टहलने निकले थे कि बाहर पडोस मे कुछ शोर सा सुना,देखा तो पुलिस टीम आयी हुई थी,….पूछने पर पता चला मिसिज शर्मा के किरायेदार ने दारू जरा जयादा ही चढा ली थी,..उसका बहकना मिसिज शर्मा को सहन नही हुआ।पहले खुद डांटा फिर भी दिल ढंडा ना हुआ तो शकित प्रर्दशन के चलते पुलिस टीम को बुलवा लिया था।पुलिस व किरायेदार मे नौकझौक चालू थी,तभी हम घूमने हेतू आगे बढ गये थे।आध पौन घंटे बाद घूमकर जब हम लौटै तो पुलिस जा चुकी थी।किरायेदार अपने कमरे के बाहर बैठा सहचरी संग बातो मे लगा था,,कह रहा था…..मै पुलिस से नही डरता….अपने घर मे मै कुछ भी करू।आज कुछ जयादा हो गयी तो कया हुआ???उसकी इन बातो को सुन हमने अंदाजा लगा लिया था कि पुलिस भी समझा बुझा कर लौट गयी थी। तभी घर आकर मै कुछ सोच मे पढ गयी,,,तभी छह माह पहले की घटना मेरी आंखो के सामने घूम गयी।गरमियो केदिन थे….हम छत पर थे तभी जोर का शोर सुनायी पडा।मिसिज शर्मा की आवाज हम पहचानते थे,अकसर पहले भी वो उंची आवाज मे बोल बोल कर सब लोगो को एकत्र कर लेती थी,,,पर आज तो हद ही हो गयी..मिसटर शर्मा खूब दारू पीकर गंदी गंदी गालियां दे रहे थे अपनी बीवी को….।वो भी शोर मचा रही थी।लोगो का झुंड जमा हो गया था। दोनो को लोग समझा रहे थे,, हार कर पतिदेव कही निकल गये तभी बीवी शांतिपूर्वक भीतर घुसी..तब सभी मूक बने रहे…किसी ने भी पुलिस को सूचित नही किया…आज मुझे वो मुहावरा सार्थक होते दिखा…।दूसरो के तिल जितने दोष भी दिखते है,अपने बेल जितने भी नही।।। उम्मीद  ————- इकलोते बेटे की बहू को सासू मां ने बडी चाहत व स्नेह से बेटी बनाकर घर लायी थी।बहू के आने से सूने घर मे बहार आ गयी थी।सारा घर चहक उठा था।किन्तु दूसरे मोहोल से आयी बहू इस नये घर मे अभी रम नही पायी। बहू की खामोशी ने सासू मां को भीतर तक हिला दिया।ना चाहते हुए भी बेटे की खुशी के लिये बहू को बेटे के संग जॉब स्थल पर भेज दिया। पर यहां भी वही खामोशी…..अकेले घर मे बेटे के संग हंसी मजाक भी उसे ना सुहाता।क्योकि अलग सोच की मालकिन थी वो बहू के बार बार रूठने से बेटा भी विचलित था।मां ने बेटे को समाज की उंच नीच समझायी व बहू को खुश रखने की ताकीद दी। समय गुजरता गया,बहू अकेलेपन से घबरा गयी अब उसे अपने ससुराल की याद आयी।उसे अहसास हो गया कि मेरा असली घर तो यही है,मेरा ससुराल।।इसी बीच बेटा एक नया पोधा खरीद लाया।सासू मां ने दूर पडे नये पोधे को निहारा…..नये पोधे ने अभी रंगत नही बदली धी,,,न ही नया पत्ता ही निकला था।सासू मां सोच रही थी जब एक पोधे को रमने मे समय लगता है तो दूसरे घर से आयी अलग संस्कार व अलग सोच वाली बहू को रमने मे भी थोडा समय तो लगेगा।।अच्छी खाद पाकर पोधा खिल उठता है तो ये बहू भी हमारा प्यार व दुलार पाकर खिल उठेगी,व इस घर मे हमेशा के लिये रम जायेगी।इसी उम्मीद ने सूने घर मे फिर से खुशियां भर दी। ऊँचा ओहदा  ——————– उस दिन मेटामोनियल आफिस मे बेठी रिशतो की फाईल देख रही थी,तभी मुझे एक योग्य लडके का बायोडाटा कुछ अच्छा लगा।तभी मैने फोन घुमाया,,उधर से आवाज आयी तो मैनै अपना परिचय देते हुए एक संस्कारी लडकी का व्योरा दिया,जिसे सुनकर उन्होने स्पष्टत:कह उठे….नही नही ,,हमे ये प्रौफाईल नही चाहिये,हमारा लडका “आईं टी” से है हमे लडकी भी आई टी सै रिलेटिड ही चाहिये।।उनकी बात सुनकर चिडकर मैनै पूछ ही लिया …कहां है आपका बेटा?मेरा मतलब कहां ज्याब करता है?फीकी हंसी हंसते हुए उन्होने बताया/…हमारा बेटा तो सिगांपुर मे है, दो बर्ष बाद लोटेगा।खीजते हुए मैने जबाब दिया ,,,…..अगर बेटा सिगांपुर है तो वही का रिशता देखो ।यहां भारत मे रिशता देखने का क्या अभिप्राय??हो सकता है लडका वही सैटल हो जाये।ये कह कर मैने फोन काट दिया।मुझे कुंडली मिलान व संजोगो का जुडना कही दूर बिखरते नजर आये।जोडियां ऊपर से तय होती है यहां केवल मिलना होता है ये तर्क कही दूर कुंठित होता नजर आया। “उंचा ओहदा व उंचा पैकैज”की गूंज स्पष्ठ सुनाई दी। आज़ादी का सुख  ——————- पतिदेव निजी काम से बाहर गये थे।इतने बडे घर मे मै अकेली थी।वक्त काटे नही कट रहा था,तभी लेटने लगी तो अतीत की यादे किसी फिल्म की तरह आंखो के सामने थी। मै सोच रही थी आज मेरी दशा किसी बैल से कम नही जिसकी आंखो पर पट्टी बांध दी गयी ओर कोल्हू आ तेल निकालने के लिये गोल गोल चक्कर लगाना उसकी नियति है।मेरा भी सारा दिन काम मे गुजर जाता। फिर भी क्या मै खुश थी??जीवन के साध्यकाल मे जो सन्तोष होता है उसका आंनद प्राप्त कर पा रही थी??ये प्रशन मेरे सामने मुंह खोले खडा था। अतीत मे गोते लगाते लगाते मै सोचने लगी …..ससुराल मे मै सबकी चहेती थी सभी का काम मै भाग भाग कर कर देती।हर नया काम सीखने का मुझे शौक था।सास ससुर भी खुश थे।समय बीता मुझे पति संग गंतव्य स्थल पर नोकरी हेतू जाना पडा।पति की नोकरी रात दिन की पारी की थी। दूर जाने के चक्कर मे मै कब अपने ससुराल से दूर होती गयी मुझे खुद भी पता नही चला।इसी बीच दोनो बच्चो के सुनहरे भविष्य का ताना बाना बुनते बुनते मै कब अकेलेपन की शिकार हो गयी…….बच्चे अपने अपने घोसले मे मग्न हो गये थे। अपने सहचर के संग मै कब अकेली हो गयी इसका भान मुझे अब हुआ। पहले सास ससुर को अपनी गृहस्थी मे मग्न देखा फिर अपने बच्चो को…..मै सोच रही थी सुकून कंहा था??संयुक्त परिवार मे या नितान्त अकेलेपन मे?वक्त आज वही दोहरा रहा है,,,,आज जिस आजादी का सुख पाने के लिये मै पतिदेव के संग इतनी दूर निकल आयी थी मेरी पुत्रवधू ने भी वही कहानी दोहरा दी थी जो शादी के बाद बेटे के संग आजादी का सुख पाने को लालायित ससुराल से किनारा कर गयी थी।मेरा बोया मेरे समक्ष था।। आधुनिक रीत  ——————— उस दिन वो लोग अचानक हमारे बेटे को देखने आये।बेटा थोडी देर पहले ही जॉब हेतु गन्तव्य स्थान पर जा … Read more

भलमनसाहत

पूनम पाठक “पलक” इंदौर (म.प्र.) मई की एक दोपहर और लखनऊ की उमस | भारी भीड़ के चलते वह बस में जैसे तैसे चढ़ तो गई परन्तु कहीं जगह न मिलने की वजह से बच्चे को गोदी में लिए चुपचाप एक सीट के सहारे खड़ी हो गयी | अत्यधिक गहमागहमी और गर्मी से बच्चे का बुरा हाल था | वो उसे चुप करने में तल्लीन थी कि, “बहन जी आप यहाँ बैठ जाइये “ कहते हुए पास की सीट से एक व्यक्ति उठकर खड़ा हो गया | “नहीं भाईसाहब आप बैठिये, मैं यहीं ठीक हूँ” विनम्रतापूर्वक निवेदन को अवीकर करते हुए उसने कहा | “अरे आपके पास बच्चा है, आपको खड़े रहने में तकलीफ होगी, बैठ जाइये ना |” उन सज्जन के विशेष आग्रह पर वह सकुचाकर बैठ गई | सच ही तो था बच्चे को लेकर खड़े रहने में उसे वास्तव में बहुत परेशानी हो रही थी | वह बच्चे को पुचकारने लगी और पानी पिलाकर उसे चुप कराया | कुछ ही देर में बच्चा मस्त हो खेलने लगा | अब उसकी निगाहें उस भले व्यक्ति को ढूँढने लगीं, जिसने इस भीड़ भरी बस में अपनी सीट देकर उसकी मदद की थी | दो तीन सीट आगे ही वो भला व्यक्ति खड़ा हो गया था | अचानक उसके हाथ में होती हुई हरकत पर उसकी निगाह गयी | ध्यान से देखा तो पाया कि जिस जगह वो खड़े थे, उससे लगी सीट पर बैठी पन्द्रह-सोलह साल की एक लड़की अपने आप में ही सिमटी जा रही थी | वे महाशय भीड़ का फायदा उठाकर बार बार उसकी बगल में हाथ लगाते और बार बार वो बच्ची कसमसाकर रह जाती | मामला समझते उसे देर ना लगी | उसकी तीखी निगाहों से उन सज्जन की करतूत व् उस बच्ची की बेबसी छुप ना सकी | वह थोड़ी देर के लिए यह भी भूल गयी कि उसकी गोद में छोटा बच्चा है | अपने बच्चे को सँभालते हुए तुरंत उठी और पलक झपकते ही उन सज्जन के पास पहुंचकर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उनके गाल पर रसीद किया “वाह भाईसाहब अच्छी भलमनसाहत दिखाई आपने | बहन जी बोलकर अपनी सीट इसीलिए मेरे हवाले की थी कि खुद इस मासूम के साथ छेड़खानी कर सकें | अरे…कुछ तो शर्म कीजिये, आपकी बेटी की उमर की है ये बच्ची, और आप ! छि…धिक्कार है आपकी सज्जनता पर |” कहकर वह उन पर बरस पड़ी | अचानक पड़े इस थप्पड़ से अवाक् रह गये सज्जन के मुंह से कोई बोल न फूटा | लोगों की आक्रोशित नजरों से बचते बचाते अपने गाल को सहलाते हुए वे भीड़ में ही आगे बढ़ गए व् अगला स्टॉप आते ही बस से उतर गये | वात्सल्य से उसने बच्ची के सर पर हाथ फेरा, जो अपनी डबडबाई आँखों से मौन की भाषा में उसे धन्यवाद कह रही थी |

आलोक कुमार सातपुते की लघुकथाएं

हिजड़ा  वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया, इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा। बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा। …इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी। 2वर्गभेद  किसी गांव मेें तीन व्यक्ति ‘अ’, ‘ब’, और ‘स’ रहा करते थे, जो क्रमशः उच्च वर्ग, मध्यमवर्ग, और निम्नवर्ग से थे । तीनों ने ही अलग-अलग शासकीय कर्ज ले रखा था । क़िस्तें न पटने पर  एक बार उस गांव में वसूली अधिकारियों का दौरा हुआ । सबसे पहले वे ‘अ’ के घर पहुंचे। वहां वे मुर्ग़े की टाँगें खींचते और महुए की श़्ाराब पीते हुए कहने लगे-‘दाऊजी, आपसे तो हम पैसे कभी भी ले लंेगे,…पैसे भागे थोडे़ ही जा रहे हंै। वहां से वे ‘स’ के घर पहुंचे, उसकी दयनीय स्थिति देखकर उनकी आंखें डबडर्बा आइं, और वे उससे बिना कुछ कहे ‘ब’ के घर की ओर चल दिये और वहां पहुंचकर उन्होंने उसे हड़काना शुरू कर दिया-क्यों बे ! पैसे देखकर तेरी नीयत ख़राब हो गई…। लाओ साले की ज़मीन, जो कर्ज़ लेते समय बंधक रखी थी, को नीलाम करते हंै । …और नीलामी कि प्रक्रिया शुरू हो गयी ।  3तीन ठग सैकड़ों वर्षांे की ग़्ाुलामी-तप से प्रसन्न हो कर प्रभु ने वरदान-स्वरुप भारत को एक लोकतंात्रिक कुर्सी प्रदान कर दी । चँूकि भारत की काया जीर्ण हो चली थी, इसलिये वह उसे कंधो पर बंाधे धीरे-धीरे चलने लगा, तभी सामने से आते हुए तीन ठगों की नज़रें उस कुरसी पर पड़ी । कुरसी देखकर उनके मँुह में पानी भर आया, और वे उसे हड़पने की युक्ति सोचने लगे । आख़िरकार उनके श़्ाातिर दिमाग़ में एक युक्ति आ ही गई । योजनानुसार तीनों उसी मार्ग पर अलग-अलग छिप गये । उनकी उपस्थिति से बेख़बर भारत अपनी मंद चाल से चलता रहा, तभी पहला ठग सामने आकर उससे कहने लगा-क्यूं भाई ! आप ये सम्प्रदायवाद की बेंच को कहाँ लिये फिर रहे हो ? क्रोधित हो भारत ने कहा अंधे हो क्या ? तुम्हंे ये लोकतांत्रिक कुरसी नज़र नहीं आती । ठग हँसता हुआ चला गया । कुछ आगे जाने पर दूसरा ठग सामने आकर कहने लगा-ये जातिवाद की टेबल को कहाँ लादे फिर रहे हो ? भारत ने बैाखलाकर कहा-अरे भई, ये टेबल नही, कुर्सी है । इस पर दूसरा ठग भी हँसते हुए चला गया । कुछ और आगे बढ़ने पर भारत का सामना तीसरे ठग से हो गया । तीसरा ठग ठहाका लगाकर कहने लगा-अरे यार ये क्षेत्रीयता के डबलबेड के पलंग को कहाँ ढोये जा रहे हो ?  अब भारत का आत्मविश्वास भी डगमगा गया । उसने यह सोचकर कि संप्रदायवाद, जातिवाद, और क्षेत्रीयतावाद से तो उसका अहित ही होगा, उसने कुर्सी को फेंकना चाहा । अब कुर्सी सड़क पर थी, पर भारत के कंधों का बंधन पूरी तरह खुला नहीं था, सो वह कुर्सी भारत के साथ घिसटती जा रही थी । अब बारी-बारी से तीनों ठग कूद-कूद कर उस कुरसी पर बैठने लगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला ज़ारी है ।  4अविश्वास एक घर में तीन व्यक्ति बैठे हुये हंै। पहला उस घर का मालिक, दूसरा उसका एक नज़दीकी मित्र, और तीसरा वो, जो उसके साइड वाले कमरे को किराये से पाने की उम्मीद से उसके नज़दीकी मित्र के साथ आया है। चँूकि उम्मीदवार कंुआरा है, इसलिये मकान-मालिक उसे किरायेदार नहीं बनाना चाह रहा है, पर साथ में नज़दीकी मित्र होने के कारण वह धर्मसंकट में है।  उनके बीच बातचीत का सिलसिला प्रारंभ होता है ।  मकान-मालिक -फ़िलहाल तो मकान किराये पर उठाने का हमारा कोई इरादा नहीं है।  उम्मीदवार -क्यों ?  मकान-मालिक -क्यांेकि उस कमरे की खिड़कियों में पल्ले नहीं लगे हैं, और बिजली का कनेक्शन भी पीछे पोल से है, उसे सामने पोल से लेना है ।  उम्मीदवार -मुझे कोई हर्ज़ नहीं है। मैं चाबी आपके पास ही छोड़ जाया करूँगा, फिर आप चाहे जैसे रिपेयरिंग करवाते रहिये ।  (मकान मालिक सोचने लगता है ये साला ऐसे टलने वाला नहीं,…मुझे कोई दमदार बहाना सोचना चाहिए, तभी उसे कुछ सूझता है।) मकान-मालिक -हमारे यहाँ हमारे भतीजे भी साथ में रहतेे हैं। उनकी पढ़ाई में ख़लल न पड़े, सोचकर भी हम फ़िलहाल मकान किराये से देने के पक्ष में नहीं हेैं।(इस बीच मकान-मालकिन चाय लेकर आती है) उम्मीदवार (चाय पीते-पीते)- भाईसाहब, पढ़ाई के मुआमले में तो मैं और भी संज़ीदा हूँ। मंै खुद सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हँू। ये तो आपके लिये प्लस-प्वांईट होना चाहिये ।  (मकान मालिक फिर सोचने लगता है, साला है तो दिमाग़ का तेज़ पर जब मिसेज़ चाय लेकर आई थी, तो ऐसे घूर रहा था, मानों कच्चा ही चबा जायेगा…इससे स्पष्ट कहना ही ठीक रहेगा।) मकान-मालिक -यार हम लोग फ़ैेमिली वालों को ही मकान किराये से देने के पक्ष में हैं।  अब उम्मीदवार जाने के लिये निराशापूर्वक उठ खड़ा हो जाता है, क्योंकि उसे मालूम है, उसके चेहरे पर तो उसका चरित्र खुदा हुआ नहीं है, किन्तु जाते-जाते वह कहकर ही जाता है-भाईसाहब, पहले आप मुझे यह बतायें कि आपको मुझ पर भरोसा नहीं है, या अपने आप पर, या फिर अपनी पत्नी पर…। आलोक कुमार सातपुते 

प्रतिशत

घर के सभी लोग तरह तरह से समझा रहे थे पर सलोनी की रुलाई थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। दादी अलग भगवान को कोसे जा रहीं थीं कि मेरी बच्ची ने तो कोई भी कसर नहीं रख छोड़ी थी। माघ पूस की कड़ाके की ठंड में भी बेचारी जल्दी जल्दी तैयार होकर सुबह 6 बजे की कोचिंग जाती फिर वापस आकर कालेज भागती थी। क्या जाता था मुरलीवाले का अगर अंगरेजी में भी उसके नंबर दूसरे विषयों की तरह अच्छे आ जाते तो। क्या कालेज के टीचर, कोचिंगवाले सर जी, घर तो घर पूरे मुहल्ले के लोग सलोनी की मेहनत, लगन देखकर दंग थे। सभी को उम्मीद थी कि अगर वह टाप नहीं कर सकी तो टाप टेन में जरूर आएगी। लेकिन अंगरेजी की बजह से 93 प्रतिशत पर अटक गई थी। सलोनी को यही डर खाये जा रहा था कि अब वह कैसे सब को फेस करेगी। पर सलोनी के पिता जी की चिंता अलग थी, उन्हें डर था कि कहीं उनकी बच्ची को सदमा न लग जाए। अचानक वे मोबाइल लिए सलोनी के पास आए और उसके कान से लगा दिया। हैलो, सलोनी बधाई अच्छे नंबरों से पास होने की, पहचाना। राघव भइया… कहकर फिर सुबकने लगी सलोनी। सलोनी मैं तुम्हारा दर्द समझता हूं, तुमने बहुत मेहनत की है लेकिन यह अंतिम अवसर तो नहीं है। अभी और भी अवसर आएंगे अपने को प्रूव करने के, बस उनकी ओर देखो। मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ था जब आशा के अनुरूप नंबर नहीं आए थे एम ए में पर नेट परीक्षा में पहले ही अटेंम्प्ट में जेआरएफ निकल गया। यहां दिल्ली आकर देखो कि 99 प्रतिशत लाने वाले भी मायूस हो जाते हैं जब देखते हैं कि कट आफ 100 प्रतिशत गया है। ऐसे में क्या मतलब रह गया प्रतिशत का तुम्ही सोचो। असल बात है तुमने मेहनत किया लगन से पढ़ाई की इसे जारी रक्खो। अजय कुमार

फटी चुन्नी

सीमा जो मात्र 14 साल की रही थी ,बैठ कर सील रही है अपनी इज्जत की चुन्नी को आशुओं की धागा और वेवसी की सुई से । कल ही लौटी है बुआ के घर से ।वहाँजाते वक्त सुरमयी सी कौमार्य को ओढ़ कर गयी थी ।पर आते वक्त सब कुछ बिखर गया था । बड़े मान से बुआ ने बुलाया था प्रसव के दिन नजदीक आ रहे थे ।बुआ फिर से माँ बनने बाली थी ,पहले से वह इक प्यारी सी तीन साल की बिटिया की माँ थी । वहाँ वह हँसती खिलखिलाती बुआ का सारा काम करती ,फूफा जी भी बात – बेबात उसे प्यार करते रहते । सीमा खुश हो जाती पिता तुल्य वात्सल्य से भरा प्यार।पर कभी कभी चौंक जाती पापा तो ऐसे प्यार नहीं करते ।ऐसे नहीं ‘छूते’, । धीरे – धीरे हँसी खोने लगी ,उदासी की परत चढ़ने लगी उसकी मासूमियत पर । बूआ पूछती क्या हुआ मन नहीं लग रहा है देखो फूफा जी कितना मानते हैं जाओ साथ में कहीं घूम के आ जाओ । पर सीमा बूआ को कभी उस ” मरदाना प्यार ‘के बारे में नहीं बता पाई । कभी – कभी सोचती चीख -चीख कर बता दे सब को पर बुआ की गृहस्थी का क्या जो फिर एक और बेटी माँ बन लोगों के ताने झेल रही है । कौन उठाएगा बुआ और उनके दोनों बेटियों का बोझ । माँ तो खूद अनाथ बुआ को देखना नही चाहती । और वह बहुत शिद्द्त से सिलने लगती है अपनी फटी चुन्नी ।

बहू और बेटी

वो बेटी ही थी | और शादी के बाद बहू बन गयी | • सर पर पल्ला रखो ~ अब तुम बेटी नहीं बहू हो • कुछ तो लिहाज करो , पिता सामान ही सही पर ससुर से बात मत करो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • माँ ने सिखाया नहीं , पैताने बैठो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • घर से बाहर अकेली मत निकलो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • अपनी राय मत दो , जो बड़े कहे वही मानो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो उसने खुद को ठोंक – पीट के बहू के सांचे में ढल दिया | अब वो बेटी नहीं बहू थी | समय पलटा , सास – ससुर वृद्ध हुए और अशक्त व् बीमार भी | बिस्तर से लग गए | * बताओ कौन सा ट्रीटमेंट कराया जाए , राय दो ~ तुम बेटी ही तो हो  सास से बिस्तर से उठा नहीं जाता ~ सिरहाना पैताना मत देखो , अपने हाथ से खाना खिला दो ~ तुम बेटी ही तो हो  ससुर सारा दिन अकेले ऊबते हैं ~ बातें किया करो , तुम बेटी ही तो हो  ससुर के कपडे बदलने में संकोच कैसा ~ तुम बेटी ही तो हो | अब उसकी भी उम्र बढ़ चुकी थी | बेटियाँ मुलायम होती है , लोनी मिटटी सी , बहुएं सांचे में ढली , तराश कर बनायी जाती हैं | दुबारा बहू से बेटी में परिवर्तन असहज लगा | त्रुटियाँ रहने लगी | सुना है घर के तानपुरे ने वही पुराना राग छेड़ दिया है ~ कुछ भी कर लो बहुएं कभी बेटियाँ नहीं बन सकती |

माँ की माला

नेहा नाहटा,जैन दिल्ली माला फेरकर जैसी ही प्रेरणा ने आँखे खोली,सामने खड़ी बेटी और पतिदेव ठहाके मारने लगे । मान्या तो पेट पकड़ पकड़ कर हंसी से दोहरी हुयी जा रही थी । प्रेरणा आँखे फाडे अचंभे से उन्हें देखते हुए बोली,”अरे क्या हुआ,ऐसे क्यों हँस् रहे हो तुम दोनों “ पर दोनों की हंसी तो रुकने का नाम ही नही ले रही थी। प्रेरणा ने निखिल का मुँह अपने हाथ से टाइट दबाकर उनकी हंसी रोकते हुए बेटी से पूछा, ” बाबू प्लीज़ बताना ,क्या हुआ ऐसा,जो तुम हँस रहे हो, क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा हुआ है ।” बमुश्किल हंसी रोकते हुए मान्या बोली,”मम्मा आप क्या कर रहे थे “ मैं ,मैं ,नही तो, कुछ भी नही,बस माला ही तो फेर रही थी,प्रेरणा मासूमियत से बोली।” अरे मम्मा , मैं  जब स्कूल के लिए रेड्डी हो रही थी, तब बालकनी में अपने बाल बनाने आई तो मुझे मम्मी,मम्मी,मम्मी…  की आवाज आई ,तो मैं धीरे से आपके पास आकर सुनने लगी, मैंने चुपचाप पापा को इशारे से बुलाया और  तब से दोनों बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर बैठे है.. “आप मम्मी,मम्मी की माला फेर रही थी ।”(मतलब नानिमा की माला?) नवकार मंत्र, ॐ भिक्षु की या राम ,कृष्ण ,साईबाबा की माला तो सभी फेरते है… “यह मम्मी कोनसी देवता आ गयी” और जैसे ही प्रेरणा ने निखिल के मुँह पर से हाथ हटाया तो दोनों फिर से ठहाके लगाने लगे… “चल भाग यहां से,स्कूल को देर हो जायेगी,खिसियाते हुए  प्रेरणा चिल्लाई।” पति और बेटी के बस स्टॉप पर जाने के बाद  प्रेरणा सोचने लगी कि राम ,कृष्ण, महावीर या भिक्षु भी तो इंसान ही थे,अपने कर्म से वो भगवान बने ।और आज सब उन्हें पूजते है ।  माँ ने भी तो यह सुन्दर जीवन दिया ,जीवन की हर ख़ुशी दी ,जो माँगा वही मिला,हमारा भविष्य संवारा ….. तो माँ कहीँ भगवान से कम है क्या, उनकी माला तो सबसे पहले फेरनी चाहिए । वो किसी भी देवता से कम नहीं… यादों में माँ  के आते ही प्रेरणा की आँखे अब तक नम हो चुकी थी ।