सतीश राठी की लघुकथाएं

===माँ ===   बच्चा , सुबह विधालय के लिए निकला और पढ़ाई के बाद खेल के पीरियड में ऐसा रमा कि दोपहर के तीन बज गए | माँ डाँटेगी! डरता – डरता घर आया | माँ चौके में बैठी थी , उसके लिए खाना लेकर | देरी पर नाराजगी बताई , पर तुरंत थाली लगाकर भोजन कराया | भूखा बच्चा जब पेट भर भोजन कर तृप्त हो गया तो , माँ ने अपने लिए भी दो रोटी और सब्जी उसी थाली में लगा ली | ‘’ ये क्या माँ  ! तू भूखी थी अब तक ? ‘’ ‘’ तो क्या  ! तेरे पहले ही खा लेती क्या  ? ‘’ तेरी राह तकती तो बैठी थी  | ‘’ अपराध बोध से ग्रस्त बच्चे ने पहली बार जाना कि माँ सबसे आखिर में ही  भोजन करती है |  =======जन्मदिन ====== ‘’ सुनो  ! अपना गोलू आज एक साल का हो गया है  | ‘’ गोलू के मुँह में सूखा स्तन ठूँसते हुए सुगना  ने अपने चौकीदार पति से कहा  | ‘’ तुम्हें कैसे याद रह गया इसका जन्मदिन  ? ‘’ चौकीदार का प्रश्न था  | ‘’ उसी दिन तो साहब की अल्सेशियन कुतिया ने यह पिल्ला जना था  , जिसका जन्मदिन कोठी में धूमधाम से मनाया जा रहा है  | ‘’ – ठंडी साँस लेते हुए सुगना बोली | ======= संवाद ======== छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था | पूरे चार दिनों से दोनों के मध्य  संवाद स्थगित था | पत्नी का यह तल्ख़ ताना उसके मन के बाने को चीर – चीर कर गया था कि  – ‘’ विवाह को वर्ष भर हो गया ,एक साड़ी भी लाकर दी है तुमने  ? ‘’ शब्दों की आँचमें सारा खून छीज गया था | अपमान का पारा सिर चढ़कर तप्त तवे सा हो उठा था  , और वह कड़वे नीम से कटु शब्द बोल गया था कि – ‘’ नई साड़ियाँ पहनने का इतना शौक था तो अपने पिता से कह दिया होता ; किसी साड़ी की दूकान वाले से ही ब्याह कर देते  |’’ तब से दोनों के बीच स्थापित अबोला आज तक जारी था | यों रोज़ उसके सारे कार्य समय समय पर पूर्ण हो जाते थे …शेव की कटोरी से लेकर भोजन की थाली और प्रेसबंद कपड़ों तक | बस सिर्फ प्रेम और मनुहार की वे समस्त बातें अनुपस्थित थी , जिनके बिना दोनों एक पल भी नहीं रह पाते थे | लेकिन आज ! आज जब आफिस से उसे आदेश मिला कि पन्द्रह दिनों के डेपुटेशन पर भोपाल जाना है तो घर आकर वह स्वयं को रोक नहीं पाया रुँधे गले से भीगे शब्द निकल पड़े – ‘’ सुनो सुमि  ! मेरा सूटकेस सहेज देना , पन्द्रह दिनों के लिए भोपाल जाना है  |’’  ‘’ क्या …? भोपाल  ! !   पन्द्रह दिनों के लिए  ! ! ! और इतना बोलकर सुमि के शेष बचे शब्द आँसुओं  में बह पड़े | उनकी आँखों से बहते गर्म अश्रु आपस में ढेर सारी बातें करने लगे | ======== विवादग्रस्त ======== घर के दरवाजे पर आकर एक क्षण के लिए वह ठिठक गया | सुबह भोजन की थाली पर बैठा ही था कि बेबात की बात पर पत्नी से विवाद हो गया था और बिना भोजन किए ही वह आफिस चला गया था | धीमे से उसने दरवाजा बजाया | पत्नी ने आकर दरवाजा खोला और मौन रसोई में चली गई | उसने कपड़े बदले और लुंगी पहिन कर , नल से हाथ – मुँह धोने लगा | पत्नी चुपचाप टावेल रखकर चली गई |  वातावरण की चुप्पी सुबह के तनाव को फिर से गहरा कर रही थी | रसोई में गया तो पत्नी ने भोजन की थाली सजाकर उसकी ओर खिसका दी | उसने देखा की उसकी प्रिय सब्जी फ़्राय गोभी थाली में थी |  प्रश्नवाचक निगाहों से पत्नी की ओर देखकर वह बोला – ‘’ और तुम ? ’’  ‘’ मुझे भूख नहीं हैं  | ’’ – पत्नी ने सिर झुकाकर धीमे से कहा |  ‘’ तो .. मैं भी नहीं खा रहा  |’’ – कहकर वह उठने लगा तो पत्नी ने हाथ पकड़कर बैठा लिया और एक पराठा थाली में अपने लिए भी रख लिया  |  दोनों एक दूसरे की आँखों में झाँककर धीरे से मुस्कुरा दिए | वह सोचने लगा कि विवाद आखिर किस बात पर हुआ था , लेकिन बात उसे याद नहीं आई | ========== खुली किताब ===========  वह सदैव अपनी पत्नी से कहता रहता कि , ‘’ जानेमन  !मेरी जिन्दगी तो एक खुली किताब की तरह है …जो चाहे सो पढ़ ले | ’’ इसी खुली किताब के बहाने कभी वह उसे अपने कॉलेज में किए गए फ्लर्ट के किस्से सुनाता , तो कभी उस जमाने की किसी प्रेमिका का चित्र दिखाकर कहता – ‘’ ये शीला …उस जमाने में जान छिड़कती थी हम पर….हालाँकि अब तो दो बच्चों की अम्मा बन गई होगी  | ‘’   पत्नी सदैव उसकी बातों पर मौन मुस्कुराती रहती  | इस मौन मुस्कुराहट को निरखते हुए एक दिन वह पत्नी से प्रश्न कर ही बैठा — यार सुमि  ! हम तो हमेशा अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर तुम्हारे सामने रख देते हैं  , और तुम हो कि बस मौन मुस्कुराती रहती हो | कभी अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर हमें भी तो उसके किस्से सुनाओ  | ’’   मौन मुस्कुराती हुई पत्नी एकाएक गम्भीर हो गई , फिर उससे बोली —‘’ मैं तो तुम्हारे जीवन की किताब पढ़ – सुनकर सदैव मुस्कुराती रही हूँ , लेकिन एक बात बताओ ….मेरी  जिन्दगी की किताब में भी यदि ऐसे ही कुछ पन्ने निकल गए तो क्या तुम भी ऐसे ही मुस्कुरा सकोगे   ? ‘’    वह सिर झुकाकर निरुत्तर और मौन रह गया | ========== आटा और जिस्म ===========  दोनों हाथ मशीन में आने से सुजान विकलांग हो गया | नौकरी हाथ से गयी | जो कुछ मुआवजा मिला वह कुछ ही दिनों में पेट की आग को होम हो गया | रमिया बेचारी लोगों के बर्तन माँजकर दोनों का पेट पाल रही थी |   पर … आज  ! आज स्थिति विकट थी | दो दिनों से आटा नहीं था और भूख से बीमार सुजान ने चारपाई पकड़ … Read more

बाल परित्यक्ता

डॉ मधु त्रिवेदी          जुम्मे – जुम्मे उसने बारह बसंत ही देखे थे कि पति ने परस्त्री के प्रेम – जाल में फँस कर उसे त्याग दिया । उसका नाम उमा था अब उसके पास दो साल की बच्ची थी जिसके लालन -पालन का बोझ उसी पर ही था साथ ही सुनने को समाज के ताने भी थे । मर्द को भगवान ने बनाया भी कुछ ऐसा है जो अपने पर काबू नहीं कर पाता और फँस जाता है पर स्त्री मरीचिका में । बंधन का कोई महत्व नहीं । प्रेम भी अंधा होता है लेकिन इतना भी नहीं कि अग्नि को साक्षी मान कर जिस स्त्री के साथ सात फेरे लिए है उस बंधन को भी तोड़ डाले।                        धीरे – धीरे बच्ची बड़ी होती गयी । बच्ची का नाम उज्जवला था साफ वर्ण होने के कारण माँ ने उसको उज्जवला नाम दिया था ‘ जवा;नी की दहलीज पर पैर रखते ही वह और भी सुंदर लगने लगी । लेकिन अपनी इस सुन्दरता की ओर उसका बिलकुल ध्यान न था । यह सुन्दरता उसके लिए अभिशाप बनती जा रही थी । चलते फिरते युवकों की नजरें उस पर आकर सिमट जाती थी ।                   सामान्य लड़कियों से भिन्न उसे गुड्डे गुड़ियों के खेल कदापि नहीं भाते थे । प्रकृति के रमणीय वातावरण में जब उसकी हम उम्र लड़कियाँ लगड़ी टॉग कूद रही होती थी गुटके खेल रही होती थी वह किसी कोने में बैठी अपनी माँ के अतीत को सोच रही होती  थी कि कहीं ऐसी पुनरावृत्ति उसके साथ न हो और  भय से काँप उठती थी ।        मलिन बस्ती में टूटा – फूटा उसका घर था लोगों के घर -घर जाकर चौका बर्दाश्त करना उनकी आय का स्रोत था माँ बच्ची को पुकारते  हाथ बटाँने के लिए कहा करती थी , बेटी कहा करती थी माँ ‘मुझे होमवर्क’ करना है । माँ की स्वीकरोक्ति के बाद बेटी उज्जवता पढ़ने बैठ जाती ।  बच्ची पास के निशुल्क सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाया करती थी किताब कापी का खर्च स्कालरशिप से निकल जाता था ।           धीरे – धीरे माँ की आराम तंगी को समझ बेटी ने ट्यूशन पढाने का काम शुरू कर दिया । मेट्रिक की परीक्षा पास करते ही माँ उमा को ब्याह की चिंता सताने लगी । परित्यक्ता होने के कारण बेटी के साथ बाप का नाम दूर चला गया था लोग गलत निगाह से देखते थे ।  इसलिए जब माँ घर से दूर होती तो उज्जवला को अपने साथ ले जाती ।             उमा को भय था कि उसकी बेटी उज्जवला भी अपनी माँ की तरह घर , परिवार एवं समाज से परित्यक्त न हो ।इसलिए हर पल उज्जवला का ध्यान रखती थी क्योंकि पति के छोड़ने के बाद जितना तन्हा और और अकेला महसूस करती थी उसकी कल्पना मात्र से काँप उठती थी । पति के छोड़ने के बाद सास ससुर ने भी घर से निकाल दिया था , अतः दुनियाँ में कोई दूसरा सहारा न था । माँ बाप तो दूध के दाँत टूटने से पहले ही राम प्यारे हो गये थे । उसे खुद अपना सहारा बनने के साथ बेटी का सहारा भी बनना था ।                उज्जवला की सुन्दरता भी किसी अलसाए चाँद से कम न थी पर इस सुन्दरता का पान करने वाले मौका परस्ती भी कम न थे । इसलिये माँ उमा डरती थी कि उसकी बेटी कहीं जमाने की राह में न भटक जाए ।                अपनी यौवनोचित चंचलता को संभालते हुए उसने आत्मनिर्भर बनने की कोशिश की अतः उसने पास के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया । अब माँ -बेटी के जीवन में न;या मोड़ आ गया था अब उसकी माँ को लोग “मैडम जी की माँ के नाम से पुकारते थे । इस तरह समाज में उसका नया नामकरण हो चुका था । अब उसके रिश्ते भी नये आने लगे थे , लेकिन माँ से जुदा होने के अहसास के साथ उज्जवला को कोई रिश्ता कबूल नहीं था ।                लेकिन माँ उमा का शरीर जर्जर हो चुका था इसलिए उसकी इच्छा थी कि उसकी बेटी शीघ्र ही परिणय सूत्र में बँध जाये लेकिन बेटी जब विवाह की बात चलती तभी “रहने माँ , तुम भी “कहकर इधर -उधर हो जाती ” थी । इसलिए माँ ने एक सुयोग्य वर देखकर उज्जवला का विवाह कर दिया ।बेटी के जाते ही माँ फिर से नितांत अकेली हो गयी थी ।

जीवन

                                      तेरहवीं का पूजन शुरू होने वाला था | पंडित जी आ चुके थे | इतनी भीड़ के बावजूद घर में मृत्यु का सन्नाटा पसरा हुआ था | पंडित जी ने पूजन शुरू करने से पहले लोगों की ओर देखा फिर कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय “ तभी मृतक की पत्नी प्रीती की करुण चीख सुनाई पड़ी ,” बस करिए पंडित जी , मत करिए ये आत्मा परमात्मा और जीवन की बातें | इसका क्या फायदा ? १२ साल के वैवाहिक जीवन अपना एक अंश भी तो नहीं छोड़ गए सुधीर जिसके सहारे मैं जिंदगी काट लेती | अब इस घर में दीवारों पर सर मारने के लिए अकेली मैं ही बची हूँ जिन्दा , और मेरे साथ बचा है सुधीर की मौत का सच | अब कभी आएगी तो मेरी मौत ही आएगी | इस घर में कभी जिंदगी नहीं आ सकती कभी नहीं | प्रीती के दर्द से पंडित जी के साथ – साथ सभी की आँखें नम हो गयी | फिर पंडित जी पाटे से उठ कर बोले ,” ये सच नहीं है बेटी , देखों सुधीर के जाने के बाद भी इस घर में जीवन आया है ,विभिन्न रूपों में , वो उस रोशनदान में गौरैया के घोंसले में अण्डों से चूजे निकल आये हैं | जिनकी ची – ची का शोर पूरे घर में सुनाई दे रहा है | तुम्हारे आँगन के आम के पेड़ पर न जाने कितनी कच्ची अमिया लटक रही है , कभी गिना है तुमने | ये बेल भी कुछ और छएल गयी है |और उस गुलाब को तो देखो कितने काँटों के बीच सर उठा कर हम सब की जीवनदायनी वायु को सुवासित कर रहा है | प्रीती आँखें फाड़ – फाड़ कर देखने लगी | सच में शोक के इन दिनों में भी उसके अपने घर में जीवन कितने रूपों में प्रगट हुआ है | पंडित जी फिर पातटे पर जा कर बैठ गए | उन्होंने फिर से कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” पर इस बार प्रीती ने कोई प्रतिरोध नहीं किया | सुधीर की यादें तो सदा साथ रहेंगीं पर वो जीवन के समग्र व् सतत रूप को स्वीकार कर चुकी थी | वंदना बाजपेयी

सूखा

इलाके में लगातार तीसरे साल सूखा पडा है अब तो जमींदार के पास भी ब्याज पर देने के लिए रूपये नहीं रहे । जमींदार भी चिंतित है अगर बारिश न हुई तो रकम डूबनी तय है । अंतिम दांव समझकर जमींदार ने हरिद्वार से पंडित बुलवाकर बारिश हेतु हवन करवाया । दान दक्षिणा समेटते हुए पंडित ने टोटका बताया कोई गर्भवती स्त्री अगर नग्न होकर खेत में हल चलाये तो शर्तिया बारिश होगी । मुंशीजी को ऐसी स्त्री की तलाश का जिम्मा सौंपा गया । मुंशीजी ने गांव में घर घर घुमने के बदले सबको एकसाथ पंचायत बुलाकर समस्या और पंडित जी के द्वारा बताया निदान बताया और गुजारिश की सहयोग करने की । अभी पंचायत में खुसुर फुसुर चल ही रही थी की जमींदार साहब की नौकरानी दौड़ी दौड़ी आई ” मालिक नेग पांच सौ से कम न लूंगी आप दादा बनने वाले हैं बहुरानी के पांव भारी है । ” खुशी से फुल गए जमींदार साहब मुंछ पर ताव देकर बोले ” आता हूं पंचायत का काम निबटाकर घर चल हजार दूंगा । ” पंचायत में अचानक सन्नाटा छा गया सब जमींदार साहब को उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे, मानों बारिश उनकी तिजोरी में भरा रूपया हो । जमींदार इस खामोशी भरी नजरों का मतलब समझते ही उखड़ गये ” सब अंधविश्वास है ऐसा कहीं होता है बारिश तो प्रकृति के हाथ में है उस फरेबी पंडित की बात पर अपनी बहू बेटियों का अपमान क्यों करें । ” कुमार गौरव

हिंजड़ा

वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया, इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा। बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा। …इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी। आलोक कुमार सातपुते

औकात

दफ्तर से लौटते समय सुरेश बाबू ने स्कूटर धीमी कर के देखा , हाँ  ! ये सोमेश जी ही थे | अब ऐसा क्या हुआ जो ये यहाँ आ गए | ये तो बहुत ख़ुशी या गम में ही पीते थे | चलो पूंछते हैं , साथ तो देना बनता है , सोंचते हुए सुरेश बाबू ने स्कूटर किनारे लगा दी और पहुँच गए सोमेश जी का साथ देने | कुर्सी खिसका कर बैठते ही प्रश्न दागा ,” क्या रे सोमेश अब आज क्या हुआ ? सोमेश ने एक बड़ा सा घूँट गटकते हुए कहा , ” कुछ न पूंछो  ,  ?ये औरतें न हों न दो दुनिया का कोई मर्द शराब खाने की और रुख न करे | तुम्हारी भाभी हैं न, उन्ही को देखो ? अब ऐसा क्या कर दिया भाभी ने , सुरेश जी रहस्य से पर्दा उठाने को बेताब हो गए |  बहुत मुँह खुल गया है | मायके में किसी की शादी पड़ रही है | | भाभी ऐसी साडी पहनेंगी , दीदी ऐसी साडी , मुझे भी चाहिए | जब मैंने असमर्थता जाहिर की तो मुँह बना कर बोली ठीक है तुम्हारी औकात नहीं है खरीदने की तो अब नहीं कहूँगी | बोझ और तुमने सुन लिया ,” सुरेश जी ने आश्चर्य और क्रोध मिश्रित भाव से पूंछा ? सोमेश जी मुँह बनाते हुए बोले ,” सुन कैसे लेता , एक के बदले हज़ार सुनाई | |सारी पुरानी बातें दोहरा दी |जो हमेशा सुनाता रहता था |   बाप के पास था ही क्या , यूँ ही अपनी गंवार बेटी को मेरे पल्लू में बाँध दिया , ढंग का स्कूटर तक नहीं दिया  |देते भी कैसे औकात ही नहीं थी | सुरेश : ओह ! तब तो भाभी जी भी आहत हो कर यहीं कहीं कोई प्याला गुटक रहीं होंगी |  सोमेश : अरे नहीं ! दिन भर ओंधे मुँह पड़ी रोती  रहेगी | फिर रात को मेरी पसंद की मटर – पनीर की सब्जी बनाएगी , शयद वो नीली वाली नाईटी भी पहन लें ( कहते हुए सोमेश जी ने बायीं आँख दबा दी ) क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? सुरेश : अच्छा ! ऐसा ? सोमेश : और नहीं तो क्या , बाप ने पैसे बचाने  के चक्कर में ज्यादा पढाया नहीं , दहेज़ और पढ़ाई डबल खर्चा जो होता | जो  थोडा बहुत पढ़ा था वो भी बच्चों के पोतड़े बदलते – बदलते उड़ गया | ये औरतें भी न ऐवेई भाव खाती हैं | अब  मुझ से झगड़ कर कहाँ जायेगी | ” औकात ‘ क्या है उसकी ?  वंदना बाजपेयी 

बोझ

इस बार कामिनी के मायके आने पर कोई स्वागत नहीं हुआ | भाभियों ने मामूली दुआ सलाम कर रसोई की राह संभाली | बिट्टू के मनपसंद खाने के बारे में भी नहीं पूंछा | लौकी की सब्जी और तुअर दाल देख कर बिट्टू नाक – भौं बनाती , तब तक माँ की तरेरती आँखे देख चुपचाप वही गटक  लिया | पर बिट्टू हैरान थी की इस बार मामा ने भी कहीं घूमने चलने की बात नहीं कही | न ही दीदी , दीदी कर के उसकी माँ के इर्द – गिर्द घूमें | पर सब से ज्यादा आश्चर्य उसे नाना जी की बात सुन  कर हुआ जो नानी को डांटने के लहजे में कह रहे थे | ज्यादा बिटिया – बिटिया करती रहोगी तो बेटे बहुएं तुम्हारे खिलाफ हो जायेंगे | कामिनी का जो हो सो हो , तुम अपने बुढापे के बारे में सोंचों | अब तो 8 वर्षीय बिट्टू से रहा नहीं गया | सीधे माँ के पास जा कर पूंछने लगी ,”माँ , आखिर इस बार ऐसा क्या हुआ है , कोई हमसे ठीक से बात क्यों नहीं कर रहा है |सब लोग इतना बदल क्यों गए हैं ? कुछ नहीं बेटा , इस बार मैंने हिम्मत कर के वो नीले साव भाभी और माँ को दिखा दिए जो तेरे पापा की बेल्ट से हर रात मेरी पीठ पर उभर आते हैं | बस , सबको भय हो गया की मैं अब कहीं यहीं न रुक जाऊं ” कामिनी ने बैग पैक करते हुए सपाट सा उत्तर दिया | वंदना बाजपेयी 

सेंध

यूँ तो मंदिर में पूरे नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है | पर अष्टमी , नवमी  को तो जैसे सैलाब सा उमड़ पड़ता है | हलुए पुडी  का प्रसाद  फिर कन्या भोज | मंदिर के प्रागड़ में ढेर सारी  कन्याएं रंग – बिरंगे कपडे सजी धजी सुबह से ही घूमना शुरू कर देती |इसमें से कई आस – पास के घरों में काम करने वालों की बच्चियाँ  होती | जिन्हें माँ के साथ काम पर जाने के स्थान पर एक दिन देवी बनने  का अवसर मिला था | इसे बचपना कहें या भाग्य के साथ समझौता की वो सब आज  अपने पहनावे और मान – सम्मान पर इतरा  रही थी ये जानते हुए भी की  कल से वही झूठे बर्तनों को रगड़ना है | ” प्रेजेंट ” में जीना कोई इनसे सीखे |                                         खैर !  बरस दर बरस श्रद्धालुओं की भीड़ मंदिर में बढती जा रही थी | और  कन्याओ की भी | हलुआ और पूड़ी तो ये देवियाँ  कितना खा  सकती थी | इसलिए थोडा सा चख कर सब एक जगह इकट्ठा हो जाता | जो शाम को सारी  झुग्गी बस्ती का  महा भोज  बनता | हाँ ! नकदी सब अपनी – अपनी संभाल  कर रखती  | शाम को महा भोज में किस को कितनी नकदी मिली इस पर चर्चा होती | जिसको सबसे ज्यादा मिलती वो अपने को किसी रानी से कम न समझती | नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं                                                                                                 तो आज भी सुबह से ही सजी – धजी कन्याएं मंदिर में इकट्ठी हो गयीं | श्रद्धालु आते और उस भीड़ में से मन पसंद ९ कन्याओं को  छांट  कर भोजन कराते | दक्षिणा देते | मजे की बात सब को छोटी से छोटी कन्या चाहिए | कन्या जितनी छोटी पुन्य उतना ज्यादा | आज  भी कन्याओं की भीड़ में सबसे ज्यादा तवज्जो उन दो कन्याओं को मिल रही  था जो मात्र ३ या चार साल की रही होंगी | दोनों लग भी तो बिकुल देवी सी रही थी | एक लाल घाघरा लाल चुन्नी ओढ़े थी व् दूसरी हरे घाघरे चुन्नी में थी | भरा चेहरा ,बड़ी – बड़ी आँखें और चहेरे पर  मासूमियत बढ़ाती बड़ी सी लाल बिंदी जो उनकी माताओ ने माथे पर लगा दी थी | दोपहर के दो बज रहे थे | दोनों अभी तक १५ बार तक देवी बन दक्षिणा ले चुकी थीं | उधर १० साल की सुरभि को तो किसी ने पूंछा तक नहीं | दो एक साल पहले तक उसकी भी कितनी पूँछ होती थी | अभी इतनी बड़ी तो नहीं हुई है वो | हां ! कद जरा लंबा  हो गया है | बाबा पर गया है | तो उससे क्या ? सुरभि निराश   हो चुकी थी | उसका बटुआ खाली था , और पेट भी | पर सबसे ज्यादा खालीपन उसके मन में था | वो भी एक अन्याय के कारण |जो वो बहुत देर से गुटक रही थी थी | कला                                             तभी   एक पति – पत्नी भीड़ की तरफ आते हुए दिखे | सभी के साथ सुरभि भी उठ खड़ी  हुई | उसे चुने जाने की आशा थी | पर उन्होंने भी सुरभि के स्थान पर उन दोनों बच्चियों को ही चुना | इस बार सुरभि से न रहा गया | और बोल ही पड़ी ,“अंकल जी वो लडकियाँ  नहीं लड़के हैं ” |परन्तु  मंदिर के इतने कोलाहल ,व्रत तोड़ने की जल्दबाजी या फटाफट पुन्य कमाने के लोभ  में किसी  ने सुना ही  नहीं | सुरभि मुँह लटका कर रह गयी |  मंदिर के प्रांगण में देवी की मूर्ति के ठीक सामने इन मासूम देवियों की कमाई पर देवताओं की सेंध लग चुकी थी |  यह भी पढ़ें …. काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “सेंध “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords-navratri, kanya pujan, women issues

लघुकथा – कला

तुम्हारा क्या … दिन भर घर में रहती हो … कोई काम धंधा तो है नहीं … यहाँ बक बक वहां बक बक … आराम ही आराम है … बस पड़े पड़े समय काटो । एक हम हैं दिन भर गधे की तरह काम करते रहते हैं । ये कहते हुए श्रीनाथ जी ऑफिस के लिए निकल गए  अनन्या आँखों में आंसू लिए खड़ी रही । ज्यादा पढ़ी लिखी वो है नहीं,  घर के कामों के अलावा उसके पास जो भी समय होता कभी टीवी चला लेती कभी किसी को फ़ोन मिला लेती … आखिर समय तो काटना ही था । पर पति पढ़ा लिखा पुरुष है …. ऊंची पदवी , नाम , उसके पास समय का सर्वथा अभाव रहता है । जो थोड़ा बहुत समय मिलता भी है वह आने जाने वाले खा जाते हैं । अनन्या के हिस्से में पति का समय तो नहीं आता पर शिकायत करने पर ताने जरूर आ जाते हैं । समय बदला … अब श्रीनाथ जी रिटायर हैं । न ऑफिस का काम है … न पदवी के कारण दिन भर घर पर लगा रहने वाला लोगों का मजमा । बच्चे दूसरे शहर में रहते हैं । माँ से तो घंटों फ़ोन पर बात करते है पर पिता से बस हाल चाल … क्योंकि एक तो श्रीनाथ जी को फ़ोन पर इतनी बात करने की आदत नहीं है और दूसरे समय अभाव के कारण बच्चों से इतना घनिष्ठ रिश्ता भी नहीं बना । अनन्या व्यस्त है । घर के काम … पड़ोस की औरतों के साथ सत्संग …आदि आदि । पति के लए अब उसके पास समय नहीं है । निराश … ऊबे हुए श्रीनाथ जी एकदिन अनन्या से पूछते है ‘ तुम कैसे इतनी आसानी से समय काट लेती हो ‘। अनन्य मुस्कराकर कहती है ‘ कोई चीज़ व्यर्थ नहीं जाती … आपने बड़ी बड़ी डिग्री हांसिल की जो जीवन भर आपके काम आई । मैंने केवल यही डिग्री हांसिल की जो अब मेरे काम आ रही है ‘। समय समय की बात है । आखिर समय काटना भी एक कला है । वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात गैंग रेप यकीन  आपको  कहानी  “लघुकथा – कला  “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

जोरू का गुलाम

राधा आटा गूंधते गूंधते बडबडा रही थी ” पता नहीं क्या ज्योतिष पढ रखी है इस आदमी ने हर बात झट से मान जाता है । उसका भी मन करता है रूठने का , और फिर थोडी नानुकुर के बाद मान जाने का । अभी कल कहा सर में दर्द है तो फौरन से झाडू पौंछा बरतन सब करके बैठ गया सर दबाने आराम पाकर थोड़ा आंखें क्या बंद की लगा पैर दबाने । पता नहीं इस आदमी में स्वाभिमान नाम की कोई चीज है कि नहीं । पिताजी ने न जाने किस लल्लू को पल्लू में बांध दिया । “  तभी आहट हुई तो देखा विनोद बेसिन पर हाथ धो रहे थे । उसने पूछा ” सब्जी नहीं लाये क्या । “विनोद झुंझलाकर बाहर की तरफ जाते हुए बोला ” जोरू का गुलाम समझ रखा है क्या , सामने सडक पर तो मिलती है खुद क्यों नहीं ले आती । ”  राधा को तो मन की मुराद मिल गई पल्लू कमर में खोंसकर अपने डायलाग सोचते सोचते वो विनोद के पीछे लपकी । तभी उसके पैरों से कुछ टकराया और वो धडाम से गिर पडी , देखा तो सब्जियां थैले से बाहर निकल कर किचन में टहल रही थी । उनको पकड पकडकर उसने पुनः थैले में बंद करना शुरु कर दिया और मन ही मन बडबडाने लगी ” इस आदमी पर न पक्का किसी भूत प्रेत का साया है मेरे मन की सब बात जान जाता है आज ही माँ को फोन करके कहती हूं मसान वाले बाबा से भभूति लेकर भिजवा दे । “ उधर से विनोद चिल्लाया ” अरे क्या टूटा । “ गुस्से में ये भी चिल्लाई ” मेरा भ्रम । “ कुमार गौरव हमारा वेब पोर्टल