रूपये की स्वर्ग यात्रा

त्रिपाठी जी  और वर्मा जी मंदिर के बाहर से निकल रहे थे । आज मंदिर में पं केदार नाथ जी का प्रवचन था । प्रवचन से दोनों भाव -विभोर हो कर उसकी मीमांसा कर रहे थे । वर्मा जी बोले  क्या बात कही है “सच में रूपया पैसा धन दौलत सब कुछ यहीं रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता फिर भी आदमी इन्ही के लिए परेशान रहता है”। त्रिपाठी जी ने हाँ में सर हिलाया ‘ अरे और तो और एक -दो  रूपये के लिए भी उसे इतना क्रोध आ जाता है जैसे स्वर्ग में बैंक खोल रखा है “। गरीबों पर  दया और परोपकार किसी के मन में रह ही नहीं गया है । वर्मा जी ने आगे बात बढाई ‘ रुपया पैसा क्या है , हाथ का मैल है आज हमारा है तो कल किसी और का होगा‘।  दोनों पूरी तल्लीनता से बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे , तभी वहां से एक ककड़ी वाला गुजरा ‘ककड़ी ले लो ककड़ी ५ रु की ककड़ी ‘। वर्मा जी बोले ४ रु  में एक ककड़ी लगाओ। ककड़ी वाला बोला  नहीं साहब नहीं इतने में हमारा पूरा नहीं पड़ता है ।   तोल मोल होता रहा पर ककड़ी वाला टस से मस नहीं हुआ । थोड़ी ही देर में तोल मोल ने बहस का रूप ले लिया । वर्मा जी को एक ककड़ी वाले का यह व्यवहार  असहनीय लगा और उन्होंने गुस्से से तमतमा कर ककड़ी वाले का कालर पकड़ लिया और बोले ‘मंदिर के पीछे तो ४ रु में एक ककड़ी बेंचता है और यहाँ लूटता है “साले  ” एक रु क्या स्वर्ग में ले कर जायेगा ‘। ककड़ी वाला कहाँ कम था, वो भी तपाक से बोला  “तो क्या बाबूजी आप १ रु स्वर्ग में ले कर जाओगे “। त्रिपाठी जी निर्विकार भाव से रूपये की स्वर्ग यात्रा का आनंद ले रहे थे । सच है …….. कथनी और करनी मैं बहुत फर्क होता है । वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक -अटूट बंधन  facebook page 

लघुकथा – सूकून

कुमार गौरव मौलिक एवं अप्रकाशित एक छुट्टी के दिन कोई पत्रकार कुछ अलग करने के ख्याल से जुगाड़ लगाकर ताजमहल में घुस गया । बहुत अंदर जाने पर उसे एक बेहद खूबसूरत औरत अपने नाखून तराशती हुई मिली । पत्रकार को आश्चर्य हुआ दोनों की नजरें मिली तो उसने पूछा ” कौन से चैनल से हो । ” उसने बिना चेहरे पर कोई भाव लाये कहा ” मैं यहीं रहती हूं । ” लडकी कुछ दिलचस्प लगी सो उसने कैमरा ऑन कर लिया और बात शुरु करी ” कब से रहती हो यहाँ । ” “बहुत पहले ये बनने के कुछ दिनों बाद से ही । ” “अच्छा ये बताओ शाहजहां को तुमने देखा था कैसे थे । ” ” हां बहुत करीब से उनमें वो सारी खूबियां थी की कोई उनको अपना महबूब बना ले । ” ” तुम्हारे हिसाब से ताजमहल क्यूं बनवाया उनकी और भी तो बेगमें थी क्या वो उनसे प्यार नहीं करते थे । ” आह भरी उसने ” हां सबसे प्यार करते थे लेकिन मैं चाहती थी की वो सिर्फ मुझसे प्यार करें इसी जिद में मैंने खाना पीना छोड दिया था और बीमार पड गई । आखिर में उन्होंने वादा किया की वो कुछ ऐसा करेंगे जिससे आने वाली नस्लें यही महसूस करेंगी की वो मुझसे बेपनाह प्यार करते थे । ” पत्रकार अचंभित रह गया ” ओ मॉय गॉड आप मुमताज हैं । ” “हां मैं ही वो बदनसीब हूं जिसकी रूह इस इश्क की कब्रगाह में भटकती रहती है । ” “क्या कोई उपाय नहीं जिससे इस भटकती रूह को सूकून मिले ” बेसाख्ता खिलखिलाई वो ” जब हर मर्द सिर्फ एक औरत का हमेशा के लिए हो जाया करेगा तब हर घर ताज होगा और शायद मेरी रूह को सूकून भी ” कहकर वो एक चल दी । उसकी बात पर सोचते हुए उसने कैमरा उठाया तो देखा कैमरे के लेंस का शटर तो उठाया ही नहीं था ।

बाहें

  माता और पिता दोनों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है | जहाँ माँ धरती है जो जीवन की डोर थाम लेती है वही पिता आकाश जो बाहर आने वाली हर मुसीबत पर एक साया बन के छा जाते हैं | तभी तो नन्हीं बाहें हमेशा सहारे के लिए पिता की बाहें खोजती हैं | पर अगर …   पढ़िए मार्मिक कहानी – बाहें  चालीसवां सावन चल रहा था तृप्ति का, पर ज़िन्दगी चार दिन के सुकून के लिए तरस गयी थी आजकल. एक के बाद एक कहर बरपा हो रहा था तृप्ति की ज़िन्दगी में. दो बच्चों को अकेले पालने की ज़िम्मेवारी छोटी बात होती, फिर भी तृप्ति ने कभी उन्हें पिता की कमी महसूस नहीं होने दी. उनकी हर ज़रुरत को अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस तरह पूरा किया कि अच्छे-भले सब साधनों से संपन्न व् सुखी कहे जाने वाले दम्पत्तियों के बच्चे भी उसके बच्चों – मन्नत और मनस्वी से जलते थे. हर क़दम पर नित-नई परेशानियां आई पर हर परेशानी उसे और भी मज़बूत करती चली गयी. दुनिया की तो रीत है कि सामाजिक दृष्टि से ‘बेचारा’ कहा जाने वाला यदि सर उठा कर स्वाभिमान से यानि बिना दुनिया कि मदद के आगे बढ़ने की जुर्रत करे तो उसे सुहाता नहीं है, और यदि वो कामयाब भी होता नज़र आये तो इस क़दर सबकी नज़रों में खटकता  है कि वही दुनिया जो कुछ समय पहले उसके पहाड़ से दुःख को देखकर सहानुभूति प्रकट करते हुए उस ‘बेचारे’ को हर संभव सहायता का वचन देते नहीं थकती थी, वही दुनिया उसकी राहों में हरदम- हरक़दम पर रोड़ा अटकाने से बाज़ नहीं आती. दुनिया ने अपनी रीत बखूबी निभायी. अभी दो महीने पहले ही मन्नत ने ग्यारहवीं में प्रवेश लिया. तृप्ति को आजकल के प्रतियोगितावादी युग के रिवाज़ के मुताबिक़ उसकी विज्ञान और गणित कि ट्यूशन्स लगानी पड़ी. और क्योंकि मन्नत पढ़ाई में बहुत होशियार थी उसे ऊंचे स्तर कि ट्यूशन्स दिलवाई तृप्ति ने – उस सेंटर में जो शहर से थोड़ा बाहर पड़ता था. नज़दीक ऐसे स्तर का कोई भी सेंटर न था. बेटी को आने जाने में किसी पर आश्रित न रहना पड़े, इसलिए उसे स्कूटी भी लेकर दी. सर्दियों में तो पांच बजे ही सूरज छिप जाता है, अतः जब ६ बजे कि ट्यूशन ख़त्म कर के साढ़े छह बजे घर पहुँचती थी मन्नत तो अन्धेरा हो चुका होता था. छोटे शहर की निवासी बेचारी तृप्ति बेटी के घर पहुंचने तक किसी तरह दिल की धड़कनों को समेटती घडी-घडी दरवाज़े को निहारती रहती और उसके घर आने पर ही चैन की सांस लेती. पर तृप्ति का चैन, मोहल्ले वालों की बेचैनी का कारण था. आखिर बच्ची जवान जो होने लगी थी. सो  देर-सवेर उसके देर से घर आने पर लगी बातें बनने – ‘आज तो पीछे कोई बैठा था…’, ‘आज पूरे दस मिनट देरी से आई…’, ‘हद्द है इसकी माँ की… अरे हम तो सब होते हुए भी कभी न इजाज़त दें बेटी को इत्ती देर से अँधेरे में घर आने की’, ‘बाप नहीं रहता न साथ में तभी…’, ‘अपनी ज़िन्दगी का किया सो किया, इस अच्छी खासी छोरी को बिगड़ैल बनाकर ही छोड़ेगी ये औरत’. ओह… ! चीखें मार मार कर रोने को जी चाहता था तृप्ति का. अभी तक तो उस पर ही अकेले रहने की बाबत ताने दिए जाते थे – ‘जाने क्या क्या करना पड़ता होगा बिचारी को इतनी सुख सुविधाएं जुटाने के लिए, अब एक नौकरी में तो इत्ती ऐश से कोई न रह सके…’, ‘ अरे भाई, इन तलाकशुदा औरतों को ऐश के बगैर नहीं सरता जभी तो अलग होती हैं…’, ‘ कल तो वो … हाँ-हाँ वही ऑफिस वाला, लम्बा सा, पूरा एक घंटे के क़रीब अंदर ही था…’ ‘खैर… हमें क्या, उसकी ज़िन्दगी है – वो जाने…’ आदि. अब उसकी बच्ची को भी निशाना बना लिया इन्होने… हे भगवान! रूह काँप जाती थी तृप्ति की अपनी चार साल की शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में सोच कर. अपने बच्चों के बाप के बारे में तो सोच कर भी ग्लानि हो आती थी उसे. अगर आज वो साथ होता तो शायद अपनी मन्नत पर ही बुरी नज़र… ??? और मंन ही मंन अपने तलाक़शुदा होने पर गर्व होने लगा उसे और अपने मंन को पत्थर सा ठोस व इरादों को पहले से भी कहीं अधिक मज़बूत कर अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचने लगी. जागती आँखों से कुछ अच्छा होने का सोचा भर था कि मनस्वी की दुर्घटना की खबर ले कर उसके दोस्त आ गए. उसका दोस्त आर्यन अपने पापा की नई मोटर बाइक उनसे बिना इजाज़त चला रहा था और मनस्वी को उसने अपने साथ ले लिया था. कच्ची उम्र में ही पक्की स्पीड का मज़ा ले रहे थे दोनों कि रिक्शा से टक्कर हो गयी. अब दोनों बच्चे अस्पताल में थे. राम राम करते अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि मनस्वी कि दायीं टांग में फ्रैक्चर है. तीन महीने लगेंगे मनस्वी के प्लास्टर को उतरने में. हिम्मत – बहुत हिम्मत से काम ले रही है तृप्ति. नौकरी की जिम्मेवारियां निबाहती है, घर की ज़रूरतों को पूरा करती है, अपनी जवान होती मन्नत को (जो करियर बनाने के लिए सजग है)  प्रेरणा ही नहीं देती, डगमगाने पर संभालती भी है. किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े घायल मनस्वी की सेवा सुश्रुषा से ले कर उसके मनोबल को बढ़ाने तक का सारा ज़िम्मा संभालती है. और सबसे बढ़कर दोनों बच्चों को जब-तब अपनी बाहों में भरकर जो सुरक्षा का भाव वह उनके अंतरमन तक उनमे भर देती है वह अतुलनीय है. किन्तु स्वयं को उस सुरक्षित कर देने वाले भाव से सदा अछूता  ही पाया उसने. उस भाव के लिए स्वयं क्या उसके जीवन में तरसना ही लिखा है? हर तन-मन की टूटन-थकन पर उसका भी मन होता है कि वो स्वयं को किसी आगोश में छिपा कर कुछ देर सिसक ले, कुछ अपना दर्द स्थानांतरित कर दे और कुछ सुकून आत्मसात कर नई शक्ति अर्जित कर फिर कूद पड़े दुनिया के रणक्षेत्र में. बचपन में तो हर छोटी-बड़ी मुसीबत पर पापा अपनी बाहें पसारे सदैव यूं खड़े नज़र आते थे जैसे अल्लादीन का जिन्न अपने आका के याद करते ही ‘हुकुम मेरे आका’ … Read more

अटल रहे सुहाग : सास -बहू और चलनी : लघुकथा : संजय वर्मा

                        करवाचौथ के दिन पत्नी सज धज के पति का इंतजार कर रही  शाम को घर आएंगे तो  छत पर जाकर चलनी में चाँद /पति  का चेहरा देखूँगी । पत्नी ने गेहूँ की कोठी मे से धीरे से चलनी निकाल कर छत पर रख दी थी । चूँकि गांव में पर्दा प्रथा एवं सास-ससुर  से ज्यादातर काम सलाह लेकर ही करना होता है संयुक्त परिवार में सब  का ध्यान भी  होता है । और आँखों में शर्म का  पर्दा भी   होता है { पति को कोई कार्य के लिए बुलाना हो तो पायल ,चूड़ियों की खनक के इशारों  ,या खांस  कर ,या बच्चों के जरिये ही खबर देना होती । पति घर आये तो साहित्यकार के हिसाब से वो पत्नी से मिले तो कविता के रूप में करवा चौथ पे पत्नी को कविता की लाइन सुनाने लगे -“आकाश की आँखों में /रातों का सूरमा /सितारों की गलियों में /गुजरते रहे मेहमां/ मचलते हुए चाँद को/कैसे दिखाए कोई शमा/छुप छुपकर जब/ चाँद हो रहा हो  जवां “। माँ आवाज सुनकर बोली कही टीवी पर कवि सम्मेलन तो नहीं आरहा ,शायद मै टीवी बंद करना भूल गई होंगी । मगर लाइट  तो है नहीं ।फिर  अंदर से आवाज  आई- आ गया बेटा । बेटे ने कहा -हाँ  ,माँ  मै आ गया हूँ  । अचानक बिजली आगई , उधर सास अपने पति का चेहरा  देखने के लिए चलनी ढूंढ रही थी किन्तु चलनी  तो बहु छत पर ले गई थी और वो बात सास ससुर को मालूम न थी । जैसे ही पत्नी ने पति का चेहरा चलनी में देखने के लिए चलनी उठाई  तभी नीचे से  सास की  आवाज आई  -बहु चलनी देखी  क्या?  गेहूँ छानना है । बहू ने जल्दीबाजी  कर पति का और चाँद का चेहरा देखा और कहा  -लाई  माँ ।पति ने फिर कविता की अधूरी लाइन बोली –    “याद रखना बस /इतना न तरसाना /मेरे चाँद तुम खुद /मेरे पास चले आना “इतना कहकर पति भी पत्नी की पीछे -पीछे नीचे आगया । अब सास ससुर को ले कर छत पर चली गई बुजुर्ग होने पर रस्मो रिवाजो को मनाने में शर्म भी आती है कि  लोग बाग   क्या कहेंगे  लेकिन प्रेम उम्र को नहीं देखता । जैसे ही  ससुर का चेहरा चलनी में  देखने के लिए सास ने चलनी  उठाई  नीचे से बहु ने आवाज लगाई-” माजी आपने चलनी देखी  क्या ?” आप गेहूँ मत चलना में चाल  दूंगी । और  चलनी गेहू की कोठी में चुपके से आगई । मगर ऐसा लग रहा था की चाँद ऊपर से सास बहु के पकड़म पाटी के खेल देख कर   हँस रहा था  और मानो जैसे  कह रहा  था कि मेरी भी पत्नी होती तो में भी चलनी में अपनी चांदनी का चेहरा देखता ।  संजय वर्मा “दृष्टि “

अटल रहे सुहाग : चौथी कड़ी : कहानी—” सरप्राइज “

रिया,,,, ओ,,, रिया,,,,,, बेटा सारा सामान रख लिया न पूजा का, बेटा सब इकट्ठा करो एक जगह ,,,,, थाली में, ,, तुमको जाना है न ,, पार्क में पूजा के वास्ते, ,,,। हाँ , माँ मैने सब कुछ रख लिया, ,, माँ, आप कितनी अच्छी हो,,, सारी चीजों का ध्यान रखती हो,,,,,, ये कहते-कहते रिया माँ से लिपट गई थी । अनुराधा जो रिया की सास थीं, ,, वाकई में सास हो तो अनुराधा जैसी, ,,,,,,,।कितना ध्यान रखती थी रिया का,,,, क्योंकि बेटा सिद्धार्थ बाहर नेवी में जाॅव करता था, और नेवी वाले हर करवाचौथ पर पास में ही हो , ये संभव नहीं था ।अनुराधा इस व्रत की भावना को बहुत अच्छी तरह पहचानती थी,,,, इसी कारण, उसका उसका व्यवहार भी रिया के लिए पूर्ण समर्पित था ,,,।रिया उसकी बहू ही नहीं, ,,, एक बेटी, सहेली और हर सुख दुःख की साथी थी ,,,,। आज दो दिनों से उसकी तैयारी करवा रहीं थी अनुराधा, ,।अच्छे से अच्छे मेहंदी वाले से मेहंदी लगवाना तो उनका सबसे बडा शौक था ,,,,,, आज भी रिया की मेहंदी देख कर बडी खुश थीं, ,,, और उसकी मेहंदी को देखते-देखते , जाने कौन सी दुनिया में खो गई थी, ,,,। रा,,,,,जेश को मेरे हाथों में मेहंदी कितनी पसंद थी ,,,,, वो तीज , त्यौहार बिना मेहंदी के ,,, मेरे हाथों को देख ही नहीं सकते थे और फिर “करवाचौथ”,,,,,,,उस पर तो उनका विषेश आग्रह होता था मेहंदी वाले से,,,,,,,,। खूब अच्छी तरह याद है कि एक करवाचौथ पर , मेहंदी नहीं लगवा पाई थी ,तो किस तरह सारा घर आसमान पर उठा लिया था इन्होनें, ,,,। अम्मा, ,,, अम्मा, अनु के हाथों में मेहंदी क्यूँ नहीं लगी,,,, क्या , काम में इतनी भी फुर्सत नहीं मिली, ,,,,। अम्मा तो जानों करेला खा कर बैठीं थीं, ,,, अरे,,,, मैं क्या जानूं क्यों न लगी,,,, अम्मा ने जवाब दिया ,,,,,, तो ,,,,, तुम्हें लेकर जाना चाहिए था अम्मा, ,,,। बस राजेश का इतना कहना था कि बिफर गईं,,,,,,,,,,अरे एक साल नहीं लगेगी तो कोई आफत नहीं आ जायेगी ,,,,,।इतनी,, परवाह थी,,,,, तो ले जाता, आया क्यों नहीं नौकरी के बीच में छुट्टी लेकर, ,,,। राजेश को अम्मा से ऐसे जवाब की उम्मीद न थी,,,।कि जिसकी बहू, उसी के बेटे की सलामती के लिए व्रत और श्रंगार कर रही है और अम्मा, ,,,,,, ऐसे कैसे बोल सकती हैं।आज राजेश को समझ आ चुका था , अनु के चुप रहने का राज, ,,,,,,। तभी और उसी दिन राजेश ने सोच लिया था कि अनु को लेकर, ,,, वो ट्रांसफर पर चला जायेगा ,,,। सिद्धार्थ की भी पढाई पूरी होने जा रही थी, सिद्धार्थ भी 24 साल का हो गया था और राजेश उसके लिए लडकी अपनी पसंद की लाना चाहते थे, ,,, क्योंकि सिद्धार्थ मुझे ब्यूटी क्वीन जो कहता रहता था । अम्मा गुज़र चुकी थीं , राजेश ने सिद्धार्थ की शादी में किसी चीज की कमी न रहने दी थी कितना उत्साह था इनको,,,,,, कि घर में रौनक छा जायेगी, ,,,। रिया हमारे घर की बहू बन कर आ चुकी थी, और हमारी लाइफ बहुत अच्छी तरह से चल रही थी , कितना स्नेह था राजेश को रिया से, बेटी की तरह हर इच्छा का ख्याल रखते थे, ,,,। एक दिन सिद्धार्थ ने बताया कि उसका नेवी में सिलेक्शन हो गया है, तो किस कदर सारे घर में शोर मचा था, ,,, अनु का तो रो -रो कर बुरा हाल था, लेकिन रिया की तरफ देख कर अपनी भावनाओं को दबा दिया था उसने,,,,, क्योंकि रिया नहीं जा सकती थी उसके साथ सिद्धार्थ नौकरी पर चला गया था, शिप पर ।  अब रिया, राजेश और ,,, मैं ही तो रह गये थे , रिया तो जैसे हमारे आँखों का तारा बन गई थी,,,। अचानक एक दिन ऐसा आया कि राजेश की तबियत इतनी बिगड गई, कि डॉ. तक ने जवाब दे दिया, ,,,,और इनको भी जाना पडा । विधि के विधान को टालना किसी के बस की नहीं है अगर होती, तो अनु कभी न जाने देती राजेश को दूसरी दुनिया में, ,,,,,,,,। सारी जिन्दगी अम्मा के एक ही आशीर्वाद के लिए तरसती रही थी , जब भी पैर छूआ ,,,,ठीक है, ,, खुश रहो,, बस । अनु औरौ को देखा करती थी, बडी-बूढी औरतें ,,,,,,, सदा सुहागिन रहो, अटल रहे सुहाग तेरा ,,, जाने कितने आशीष थे ,,,, उनके पास । माँ, ,,, माँ, क्या सोच रही हैं, , देखो, मेरी मेहंदी कितनी लाल रंग लाई है, ,,।रिया की आवाज जैसे ही अनुराधा के कानों में पडी, तो चौंकते हुए ही कहा था उन्होंने, ,,,, ओहहो,,,,, रिया,,, ये तो बहुत ही लाल रंग आया है तेरी मेहंदी का, ,,,,, और उसने रिया के हाथों को चूमते हुए कहा था ,,,, जा,, जाकर तैयार हो जा ,,,,। आज अनु बहुत खुश थी , क्योंकि एक राज,,,,, उसने छुपा रखा था अपने सीने में, ,,, और वो था ,,, कि आज उसके जिगर का टुकडा, लाडला बेटा सिद्धार्थ जो आ रहा था, ,,,,।उसकी और सिद्धार्थ की बातें जो हो चुकी थीं , कि रिया को बताना नहीं है माँ, ,,,, ” सरप्राइज” दुंगा, ,। शाम हो चुकी थी और रिया दुल्हन की तरह सजी हुई थी , उसने पूजा की और पूजा करके उठी ही थी कि, अचानक घंटी बजी, ,, रिया ने सोचा माँ खोल देंगी, ,,, लेकिन अनुराधा थी कि, ,, अपने को व्यस्त शो करने में लगीं थीं कि दरवाजा रिया ही खोले,,,,,नारी के अंतर्मन को अनुराधा पूरी तरह समझती थी ,,,,। रिया उठी, उसने जैसे ही डोर खोला ,,,,,, वो देखते ही रह गई, ,,,,, सामने सिद्धार्थ खडा था, हाथ में फूलों का खूबसूरत बुके को लेकर ,, हैप्पी, , करवाचौथ डार्लिंग, ,,,,,,, ।  रिया थी कि उसको अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं आ रहा था और उसके होठों से ,,,, कोई शब्द ही नही निकल रहे थे, ,,, वो सिद्धार्थ की जगह ,,,,माँ से लिपट गई थी जा कर,,,,,,। सिद्धार्थ भी ,,,, माँ से आ कर गले लग गया था । छत पर रिया ने चाँद को अर्ध्य दिया, चलनी की ओट से सिद्धार्थ को देखा, ,,,,और दोनों माँ का आशीर्वाद लेने, ,,,,, नीचे उनके चरणों में झुके,,,,,, तो अनुराधा के होठों पर … Read more

अटल रहे सुहाग : ( लघुकथा -व्रत ) शशि बंसल

” मीनू ! जल्दी से अपने पापा की थाली लगा दो,” घर में कदम धरते ही आदेशात्मक स्वर में कहा मृणाल ने। ” पर मां ! मैंने तो खाना बनाया ही नहीं। भैया पिज्ज़ा ले आए थे,” मीनू ने सहज स्वर में कहा तो मृणाल भड़क उठी ,” एक दिन खाना न बना सकी तुम? हद है कामचोरी की।” ” आपने ही तो कहा था माँ कि लौटने में १२ या१ बज जायेंगे रात के ,इसलिए…..” ” यही तो समस्या है कि तुम सिर्फ सोचती हो ,करती कुछ नहीं।रिश्ता पक्का कर आए हैं तुम्हारा।चार दिन बाद वो लोग ‘रोका’ करने आ रहे हैं। जाओ अब सो जाओ। मैं तुम्हारे पापा के लिए कुछ पका दूँ,”थके स्वर में कहा मृणाल ने। रसोई का काम निपटा कर मृणाल मीनू के कमरे में ही चली आई और उसके पास ही लेट गई। मीनू ने मां की और करवट लेते हुए नर्मी से कहा,” माँ ! आपका गुस्सा देख कर तो मैंने सोचा था कि बात इस बार भी नहीं बनी पर माँ जब रिश्ता पक्का हो ही गया है तो आप इतना क्रोध क्यों कर रही हैं ?” मृणाल उठ कर उसके सिरहाने आ बैठी और उसके घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों की कंघी फेरते हुए भीगे स्वर में बोली, ” बिट्टो तू मेरी बेटी भी है और इकलौती सहेली भी।तुझे न बताऊँगी तो किसे बताऊँगी…. रिश्ता तय होने के बाद तेरे पापा ने तो वहाँ खाना खा लिया पर मैं ठहरी परंपरावादी सो मैंने नहीं खाया। फिर १० घंटे के सफर में मैं खाने को माँगती रही और तेरे पापा चीज़ों के दाम पूछते रहे लेकिन एक बार भी जेब में हाथ नहीं डाला क्योंकि उन्हें मेरी भूख सस्ती और हर चीज़ महँगी लगी… यह जानते हुए भी कि १२बजे के बाद मेरा करवाचौथ का व्रत शुरु हो जायेगा। सो बेटा ! भूख ऐसी राक्षसी चीज़ है जिसके शांत हुए बिना हर खुशी बेमानी है। अब तू ही बता मेरा गुस्सा बेमानी था क्या ? अब कल चाँद देख कर ही कुछ खाऊँगी मैं तो और वह जिसके लिए व्रत रखा है,खा-पी कर चैन से सो रहा है, “एक लंबी ठंडी साँस ले कर सूने स्वर में कहा मृणाल ने। शशि बंसल भोपाल ।

अटल रहे सुहाग : एक प्यार ऐसा भी

बस अब इन दिनो मे और जमकर मेहनत करनी है ये सोचता हुआ रामू अपना साईकिल रिक्शा खींचे  जा रहा था।पिछले 8-10हफ्तो से वो ज्यादा समय तक सवारी ले लेकर और पैसे कमाना चाह रहा था।अपनी धुन मे वो पिछले कितने समय से लगा हुआ था। ले भाई !तेरे पैसे ये कहते हुए सवारी वाले ने उसे पैसे दिये।आज के कमाऐ  हुए पैसो  मे से कुछ रुपये अपने मित्र कन्हैया को देते हुआ बोला और कितने इकट्ठे करने होंगे? कन्हैया बोला यार कम से कम 1200-1300 रुपये तो होने चाहिये।अभी तो 950ही एकत्रित हुऐ है।और अब करवाचौथ को बचे भी दो दिन है।ठीक है कोई नही इन दो दिनो मे और ज्यादा मेहनत करुंगा कहकर रामू घर को चल पङा। शादी को 10साल हो गये थे पर रामू ने अपनी पत्नी को कभी कोई तोहफा नही दिया था।इस बार वो कुछ देना चाहता था अपनी पत्नी को तोहफे मे।उसे देर हो जाती थी तो उसकी पत्नी राह देखती देखती दरवाजे पर ही सो जाती थी।आसपास कही लोकल  फोन भी न था जहां वो फोन करके बोल भी देता कि देरी हो जायेगी।कुछ दूर बनियें की दुकान थी जहा मुहल्ले के सभी लोगो के फोन आते जाते थे पर शाम पङे वहां गली का कुछ बदमाश लङके डेरा जमा के बैठ जाते थे और लङकियो और औरतो से बतमिजी किया करते थे।इसलिये रामू ने शाम के बाद उसे वहाँ जाने के लिये मना किया हुआ था। आज फिर देर कर दी ! अपनी बीवी की आवाज सुन रामू का ध्यान भंग हुआ।हां, अभी त्यौहारो का दिन है ना तो सवारियां थोङी ज्यादा मिल जाती है। हाथ मूहं धोकर जैसे ही रामू खाना खाने बेठा उसकी बीवी बोली दो दिन बाद करवा चौथ है आप तब तो जल्दी आ जाना घर.. मेरा व्रत होगा।हम्म् कहकर रामू मन ही मन मुस्कराने लगा। दो दिन की कङी मेहनत करने के बाद अब रामू के पास अलग से 1400 रूपये इकट्ठे  हो गये थे।उसने 1200 का अपनी बीवी के लिये मोबाईल लिया और और उपरी खर्चा करके डिब्बे को छुपाते हुये घर पहुचा और भगवान के मन्दिर के पीछे  रख दिया। सुबह देर तक रामू के न उठने पर बीवी ने आवाज लगाई..आज काम पर नही जाना क्या? नही आज मन नही है  कहकर वह झूठमूठ सोने का नाटक करने लगा।तभी पङोसन इट्ठलाते हुऐ आई देख लता मेरे ये मेरे लिये साङी लाये है।तुम्हे क्या मिला या इस बार भी भैया यू ही रखे।लता मुस्कराते हुऐ रामू की तरफ देख बोली मेरा सुहाग ही मेरा तोहफा है।तभी घर मे फोन की घंटी बजी लता यहां वहां देखने लगी आवाज तो यही से आ रही है जाकर देखा तो भगवान की मूर्ति के पिछे एक पैकेट पङा था उत्सुकतावश उसे देखा तो अंदर एक डिब्बे मे से फोन की घंटी बज रही थी और जब उठाया तो दुसरी तरफ से रामू का दोस्त बोला पाय लागू भौजाई।लता को समझते देर नही लगी कि उसका पति देर रात तक मेहनत क्यूं करता था।बस एकटक रामू की तरफ देखते हुऐ खुशी के आंसू बहाये जा रही थी।इस बार की करवा चौथ कुछ खास बन गई उसकी। एकता शारदा 

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस परिचर्चा : लघु कथाओ की लघुपुस्तिका ” चौथा पड़ाव “

                                                                                                               अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा का आयोजन किया था | इसमें सभी ने बढ़ चढ़ कर अपने विचार रखे | विचार रखने का माध्यम चाहे लेख हो , कविता हो ,कहानी हो ……… इन सभी विचारों के माध्यम से  बुजुर्गों की समस्याओ  को समझने का और समाधानों को तलाशने का सिलसिला प्रारंभ  हुआ | ये आगे भी  जारी रहेगा | इसी परिचर्चा के दौरान प्राप्त लघु कथाओ को हम एक लघु पुस्तिका ” चौथा पड़ाव ” के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं | जिनको पढ़ कर आप भी कुछ देर ठहरकर सोचने को विवश होंगे | यही हमारा उदीश्य है कि बुजुर्गों की समस्याओ को समझा जाए व् समाधान तलाशे जाए | ” चौथा पड़ाव में आप पढेंगे ……….. डॉली अग्रवाल  शशि बंसल  एकता शारदा  शैल अग्रवाल  कुसुम पालीवाल  डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘ डी डी एम त्रिपाठी  विभा रानी श्रीवास्तव  सरिता जैन की लघु कथाएँ  फेस बुक प्रोफाइल  रोज की तरह आज फिर मोहन ने उन बुज़ुर्ग दंपति को कोने की सीट पर बैठा देखा | रोज वे लोग उसे टैब चलाते हुए देखते थे | कल ही बाबा बोले थे — बेटा हमें लैपटॉप पर कुछ काम कराना है तुम कर दोगे ना | मैंने हां कह दिया था |में उनके पास पंहुचा तो दोनों खुश हो गए |लैपटॉप हाथ में दे कर बोले — बेटा फेसबुक पर एक id बना दो हमारी |सुन चकरा गया , मन ही मन गाली दे डाली – कब्र में पैर अटके है और चले है फेसबुक पर |किस नाम से बनाऊ बाबा ?किसी लड़की के नाम से — क्या ? हे भगवानअच्छा बाबा फ़ोटो किसकी लगाऊ ?किसी सुंदर सी मॉडल की — हद हो गयी |मन में आया लैप टॉप पटक कर उठ जाऊ | पर ना जाने क्यों उनके चेहरे की मासूमियत रोक रही थी मुझे|लेकिन अपने को रोक नहीं पा रहा था |बेटा , मित्रता के लिए अजय मित्तल का नाम ढूढ़ दो ना | शक गहराता जा रहा था आखिर पूछ ही बैठा — बाबा अजय ही क्यों ?बाबा ने जो कहाँ उसके बाद मेरी आँखों में आँशु थे | बेटा हमारा अजय बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है हमे साथ नहीं रख सकता क्योकि हम गवाँर और अनपढ़ है | बड़े बड़े लोग उसके पास आते है | हमारे एक 5 साल की पोती और गोद में राजकुमार सा पोता है | बगल में किसी ने बताया की सब अपनी और अपनों की फ़ोटो वहा लगते है | किसी मॉडल की फ़ोटो इसलिए ही लगायी की अजय उसे मित्रता में रख लेगा | और हम उसकी बहु की और पोता पोती की फ़ोटो देख लेंगे | पिछले 2 साल से देखा नहीं है | नोकर के हाथ पैसे भेजता है | नहीं जानता वो की हमारी ख़ुशी उस पैसे में नहीं उसमे है |खुद पर खुद की सोच पर शर्म आ गयी | आँखों से गिरते आँशु से मुझे भी अपनी करनी याद आ गयी | सुबह टूटे माँ के चश्मे पे लड़ाई याद आ गयी | अब कदम बढ़ चले थे एक नया चश्मा लेने की और || डॉली अग्रवाल  2 ………….. वक्ती रिश्ते ———————————- “सुनिये, चार दिन से माँ के घर से न किसी का फोन आया और न किसी ने मेरा फोन उठाया। भैया और पापा के मोबाइल भी स्विच ऑफ हैं। किसी अनहोनी की आशंका से दिल बैठा जा रहा है,” मधु ने भीगे स्वर में पति से कहा तो वह स्नेहिल स्वर में बोले, ” तो हम चल कर देख आते हैं न ! घंटे भर में पहुँच जाएँगे , बल्कि तुम्हें तो अक्सर उनके साथ ही होना चाहिये। ” पति ने कहा। रास्ते भर मधु सोच में गुम रही कि कैसे एकदम व्यवसाय में घाटा हुआ और सबका मनोबल टूट गया। सब तथाकथित अपनों के आगे उन्होंने मदद के लिये हाथ फैलाये पर वे छिटक कर दूर हो गये…और उनकी बेबसी के चर्चे नमक -मसाला लगा कर इधर-उधर करने लगे…..बस वह और उसके सहृदय पति ही उनके साथ खड़े थे , पर उनकी सहायता ऊँट के मुख में जीरे की तरह ही साबित हो रही थी। माँ के घर पहुँच कर मधु ने दरवाजे पर दस्तक देनी चाही तो वह यूँ ही खुल गया…उढ़का हुआ जो था और..और भीतर पहुँच कर उसकी चीख निकल गई…माँ-बाऊजी भैया-भाभी और नन्हीं मुन्नी सब चित्त पड़े थे। पति ने उन सबकी नब्ज़ देखी और कहा,” मधु ! सब खत्म ! “ वह पथराई आँखों से देख रही थी कि अधमरी वो पाँच जानें आज मरण की रस्म भी अदा कर चुकी हैं। ” रिश्तेदारों को फोन तो कर दूँ ,” कहते हुए पति ने मोबाइल निकाला तो वह पागलों की तरह चिल्लाई, ” मैं किसी मतलबी और कमीने रिश्तेदार की छाया तक इन पर नहीं पड़ने दूँगी। पुलिस की कार्यवाही के बाद इनका दाह-संस्कार होगा और मुखाग्नि मैं दूँगी। कोई और कर्मकांड नहीं होगा….मातमपुर्सी भी नहीं और शोक सभा भी नहीं । नहीं चाहिये मुझे कातिल और वक्ती रिश्ते।” ————————————————- शशि बंसल भोपाल । 3 ………. लालची कौन  अब जल्दी किजिये पिताजी बैंक जाने के लिये लेट हो जाओगे.. थोड़े ऊंचे स्वर में रमेश बोला। बेटा, मैं सोच रहा हू इस बार पेंशन की रकम में से कुछ निकालकर ब्राह्मण को भोज करवा लू तुम्हारी मां की पुण्यतिथी आ रही है… कोई जरुरत नही फालतू का खर्चा करने की ये ब्राह्मण व्राह्मण सब लालची होते है आप वो रकम मेरे एकाउंट मे जमा करवाकर मंदिर चले जाना और भगवान को थोड़ा प्रसाद चढाकर सीधे ही मां की आत्मा की शान्ती की प्रार्थना कर लेना कहते हुए रमेश ने एक बीस का नोट अपने पिता के हाथ मेँ थमा दिया। अब अगर बात लालची इंसान की हो रही थी तो यहाँ लालची कौन था ब्राह्मण या उनका बेटा रमेश सोचते सोचते पिताजी बैंक को रवाना हो … Read more

लघु कथा— ” बुढापा “-कुसुम पालीवाल

                  अरे…दीदी…..तंग करके रखा हुआ है न तो चैन से रहते हैं….. न तो चैन से रहने लायक छोडा है …..सारे समय की चिकचिक ने नाक में दम कर रखा है. …..।    अरे ….किसने  की तेरी नाक में दम …..किसकी आफत आई …..मैने हंस कर .. उत्सुकता पूर्वक पूछा…। अरे …दीदी ..आप भी…..वही…..ऐ-204 वाले जैन साहब के घर …। क्या हुआ ….जैन साहब के घर ?? मैने फिर पूछा. …..। जैन भाभी हैं न…….उनकी सास …बाप रे बाप…..और तो और …अभी तो बुढऊ…भी हैं दीदी , पूरे …नौ और चार के हो गये हैं , तब भी ……बै…..ठै……..    अरे रानी …तू कैसी बात कर रही है …..जिसका सम्मान करना चाहिए इस उम्र में …तू उसी के लिए  …अपशब्द बोल रही है ।अरे …ये तो बुढापा है ……. क्या तुझे नहीं आयेगा  …? तू क्या ऐसे ही जवान बनी रहेगी क्या. ……?? मैने गुस्से से ..रानी से कहा ।      रानी हमारे घर की नौकरानी थी , पुरानी थी इसलिए सिर पर चढी रहती थी काम अच्छा करती थी साथ में ईमानदार भी थी मैं सर्विस पर जाती पीछे से सारा घर वो ही संभालती थी , कि तभी ……नही …दीदी , वो बात नहीं है , मैं. …..सोच रही थी बुड्ढे इतनी …..खिटखिट क्यों करतें हैं. ….अरे चैन से रहो…बेचारी जैन भाभी कितना करेंगी  ।उनकी भी तो उम्र हो गई है बेचारी ….बीमार होने पर भी ध्यान रखतीं हैं  ..55 के करीब पहुँच चुकी हैं ……अभी भी चैन नहीं है उनके जी को , मालूम नही उनकी बहुएं इतना कर भी पायेंगी. ……? रानी को मिसेज जैन से बडी सहानुभूति थी ।            रानी ….जीवन मृत्यु अपने हाथों में नहीं होते , सब ईश्वर के हाथ में है लेकिन इतना जरूर समझ ले ……बुढापा एक बच्चे की तरह है …….वो…वो कैसे दीदी ?? तुरन्त बीच में ही रानी बोल उठी ।        सुन… तेरी बडी खराब आदत है…….ये..जो.. तेरी बीच में बोलने की. ……।   ……जिस तरह बच्चों को हम अंगुली पकड कर चलना सिखाते हैं और …वो गिरने के डर से, कस कर अंगुली पकड …सहारे की उम्मीद कर, आगे पैर बढाता है ….उसी प्रकार … “बुढापा ” भी एक तरह का ..बचपन का ही रूप है. ….।        जिस प्रकार ये शरीर मिट्टी से बना और मिट्टी में मिल जाता है , उसी प्रकार जीवन का चक्र भी यही है ….बचपन और बुढापा  एक समान हो जाता है ……क्योंकि प्रकृति का ये नियम है जहाँ से चलते हो वही वापस आना पडता है. …………। और तू बुढापे को लेकर ऐसा कैसे सोच सकती है  ……।        रानी अब पहले से शांत थी और सोच रही थी , कि दीदी कितना अच्छा समझातीं हैं मुझे तो घर में कोई भी व्यक्ति समझाने वाला नहीं है ।   दीदी , आज के बाद मैं बिल्कुल नहीं सोचुंगी ऐसा ….आपने मेरी आँखे खोल दी , मै भी कहीं भटकी हुई थी शायद. …….मै भी अपने सास-ससुर की देखभाल करूँगी ……..।           हाँ……यदि किसी इंसान को अपना आगामी  जीवन ( बुढापा ) संवारना है तो उसे,, पहले अपने बडों को सम्मान देने की जरूरत है ……..।       यही ,  वो संस्कार हैं रानी …..जिनके तहत ही हम  ….अपने बच्चों में ये बीज बो सकते हैं , जो उनको वापस अपने संस्कारों की तरफ या उनकी जडों की ओर मोड सकते हैं  ……….।    मेरी तो… आज की पीढी से सिर्फ एक ही कामना है———। ” ग़र दे न सको , कुछ खुशियाँ और ले न सको , कुछ गम दुःख  दे कर , दुःख देने का तुम बनों , न भागीदार. …….. तो सम्मान , तुम्हारा है ।। कुसुम पालीवाल 

डिम्पल गौड़ ‘अनन्या ‘ की लघुकथाएं

समझौता “आज फिर वही साड़ी ! कितनी बार कहा है तुम्हें..इस साड़ी को मत पहना करो ! तुम्हें समझ नहीं आता क्या !” “यही तो फर्क है एक स्त्री और पुरुष की सोच में ! तुम अपनी पहली पत्नी की तस्वीर दीवार पर टांग सकते हो , उसकी बाते मुझसे कर सकते हो ! और तो और हर साल उनके नाम का श्राद्ध भी करते हो जिसमें मैं पूर्णतया तुम्हें सहयोग करती हूँ । बिना कुछ कहे क्योंकि मैं तुम्हारे गहन प्रेम की अनुभूति को समझती हूँ और तुम ! मेरे स्वर्गवासी पति की दी गयी साड़ी में मुझे देख भी नहीं सकते !! सच में, पुनर्विवाह एक समझौता ही तो है ! डिनर रेस्टोरेंट लोगों से खचाखच भरा हुआ था | सामने वाली टेबल पर निशांत, विधि के सामने बैठा उसे निहारे जा रहा था…दोनों आँखों में आँखें डाल दुनिया भुलाए बैठे थे | कैंडिल लाईट डिनर बेहतरीन  करिश्मा दिखला रहा था | उन्हें देख साफ़ मालूम पड़ रहा था कि यह नवविवाहित जोड़ा है |  ”क्या लोगी बताओ न ?” निशांत के शब्दों से मिश्री टपक रही थी | “जो आप मंगवाएंगे खा लूँगी |” विधि नज़रे झुकाए बोली | खुबसूरत मुस्कान अधरों पर अपना भरपूर असर छोड़ रही थी | दोनों का प्यार अपने पूरे शबाब पर था | उधर ईश्वर की पत्नी जमुना अपने छोटे छोटे बच्चों में उलझी हुई थी ! कभी छुटकू दाल फ्राई में अंगुलियाँ डालने की कोशिश करता, कभी मुन्नू पूरी एक चपाती हाथ में लेकर खाने की जिद करता !  “आगे से कभी नहीं लाऊंगा तुम लोगों को ! उह्ह ! इज्जत का कचरा कर के रख दिया ! अब मेरा मुँह क्या ताक रही है संभाल अपने लाडलों को ! देख उसने दाल खुद के कपड़ों पर गिरा ली !! ”बहुत ही धीमे स्वर में बोला ईश्वर | “हाथ में पकड़े कोर को जोर से पटककर जमुना वहां से उठ गयी | “क्या बोले ! इन दोनों को तो मैं अपने मायके से साथ लाई हूँ न ! खाओ तुम ही मैं तो चली !”जमना फुसफुसाकर बोली | “अब बैठ भी जा ! नखरे मत मार ! हज़ार रूपये का चूना लगवाएगी क्या !!”ईश्वर की आवाज़ और धीमी हो चली थी | जैसे तैसे दोनों ने खाना खत्म किया |  बिल चुकाने के लिए ईश्वर और निशांत  एक साथ काउंटर पर खड़े हुए | एक की आँखों में प्यार बेशुमार था दूसरे की आँखों में गुस्सा अपने पूरे यौवन पर था !” अश्कों से लिखा एक खत    हाँ… साँसे ले रही हूँ | जिन्दा हूँ अभी | कभी मेरा खूबसूरत चेहरा तुम्हारी रातों की नींदें चुरा लिया करता था क्योंकि अथाह प्रेम करते थे तुम मुझसे | मगर मैं नहीं…इसलिए जब मैंने तुम्हारा प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो तुम कितने आगबबूला हो उठे थे ! नहीं चाहते थे तुम कि मैं किसी और की हो जाऊं… इसलिए तुमने मेरे चेहरे पर उस रात तेज़ाब छिड़क दिया !!! तरस गयी हूँ अपने ही चेहरे को देखने के लिए ! आईना देखे बरस बीत गए | यह आजीवन पीड़ा जो तुम मुझे दे कर गए हो न उसका आंशिक भाग भी तुमने कभी महसूस नहीं किया होगा जानती हूँ मैं ! सच्चे प्यार का दंभ भरने वाले अगर तुम सही में एक सच्चे प्रेमी हो तो क्या अब मुझसे विवाह कर पाओगे ? तुम्हारा जवाब न ही होगा | मालूम है मुझे |  डिम्पल गौड़ ‘अनन्या’