सीमा सिंह की लघुकथाएं
नशा कभी बाएं कभी दायें डोलती सी तेज गति से आती अनियंत्रित गाड़ी मोड पर पलट गई. भीड़ जमा हो गई आसपास किसी तरह से गाड़ी में सवार दोनों युवकों को बाहर निकाला गया. उफ़…ये क्या दोनों नशे में धुत थे.. पुलिसवाला होने के नाते मेरा फ़र्ज़ था कि ड्यूटी पर न होते हुए भी मामले को सुलझाऊ. मैंने दोनों मे से एक पिता जो प्रोफेसर भी थे, को बुलवाया.. ये क्या वो शर्मिंदा होने के स्थान पर मुझसे ही उलझ गए “न कोई मरा है ना किसी को चोट आई है तो एक्सीडेंट कहाँ से हो गया..ले दे कर बात खत्म करो बच्चों को घर जाने दो” मै सन्न था. मैंने केस लोकल पुलिस के हवाले कर दिया. घर वापस आते समय मेरे मन में एक ही विचार था सब जानतें हैं “नशा खतरनाक है मगर ज्यादा कौन सा ?जो लड़कों ने किया था या फिर वो जो प्रोफ़ेसर साहब के सिर पर सवार था…?” प्रमोशन “रमण मेरा बॉस ही नहीं बहुत अच्छा दोस्त है तुम एक बार मिल कर देखो तो सही काव्या”… “अच्छा दोस्त है तो दोस्त की पत्नी से अकेले में क्यों मिलना चाहता है ?” “मेरा प्रमोशन हो जायेगा तुम्हारे बस एक बार मिल लेने से काव्या”… “क्या गारंटी है उसको फिर दुबारा नहीं मिलना होगा मुझसे और क्या गारंटी है तुमको आगे और प्रमोशन नहीं चाहिए होगा नरेन, ये प्रमोशन नहीं पतन है पतन, तुमको नज़र क्यों नहीं आ रहा नरेन?” संस्कारों की बुनियाद “माँ बात सुनो मुझे आप से कुछ कहना है. ” मीतू की आवाज़ सुन वंदना एकदम सिहर गई..युवा होती बेटी की माँ के लिए स्वाभाविक भी था.वक्त भी तो कितना खराब है फिर.. घबरा के मीतू के पास जाकर पूछा “क्या हुआ बेटा?” “अरे आप डरों मत ऐसा कुछ नहीं हैं.” बेटी ने जैसे माँ के चेहरे के भाव पढ़ लिए थे. “बताओ न क्या बात है ?” वंदना ने व्यग्रता से पूछा. “आज मैं स्कूल देर से पहुंची थी तो गेट बंद होने ही वाला था सीधे क्लास में चली गई अपना बैग रखने. और फिर तुरंत प्रार्थना के लिए वापस अपनी लाइन में भी जाना था तो पीछे वाले रास्ते से जहां बच्चों को जाने की मनाही है स्टाफ रूम बना है ना वहाँ पर. मैंने झाँक कर देखा रास्ता साफ़ था. मै दबे पांव वहाँ से निकली तो निशा मैम हमारी इंग्लिश टीचर निकली उनको देख कर मै छुप गई पता था देख लिया तो बहुत डांट पड़ेगी मगर मैम भी लेट थी तो वो भी जल्दी जल्दी में निकल गई उन्होंने जल्दवाजी मे अपना पर्स उठाया तो उसकी कोई जेब खुली होगी जो उन्होंने नही देखी. माँ, उस जेब में से उड़ उड़ कर पांच सौ के नोट निकलते रहे पहले तो मुझे समझ न आया क्या करूँ फिर मैंने एक एक कर सारे नोट बीन लिए और अपनी जेब में छुपा लिए.सोचा था घर लाकर आपको दे दूंगी तो शायद आपकी कुछ मदद कर सकूँ. मगर माँ मैंने देखा कि निशा मैम बार बार अपना पर्स खोल कर देख रही थीं और परेशान हो रहीं थी. तो मैंने उनके पास जाकर पूरी बात बता कर माफ़ी मांग ली और उनके नोट वापस कर दिए” “शाबाश मेरे बच्चे” कह कर वन्दना ने मीतू को गले लगा लिया और भगवान को धन्यवाद करते हुए कहा कि आर्थिक विषमता भी मेरे बच्चे के संस्कारों की बुनियाद को छू नहीं पाई है… अन्धकार “सम्हाल कर माँ,देख गड्ढा है.” “अब निगाह कम हो गई है मुझे दिखा ही नहीं.” “मैं हूँ ना माँ, मेरा हाथ थाम कर आ जा, बस अगली गली से रौशनी है माँ.” मुख्य सड़क पार कर दोनों ने फिर सकरी गली पकड़ी. “इधर से?” “हां माँ थोड़ा अँधेरा है मगर रास्ता छोटा है जल्दी पहुँच जायेंगे देर हो गई ना” एक कर्कश स्वर सुनाई दिया “कहाँ चली गईं थीं तुम दोनों धंधे के टाइम ?” “मंदिर गईं थीं आज मंगलवार है ना” ये माँ का स्वर था “कितनी बार कहा है कि धंधे के टाइम पर इस चमेली को अपने साथ मत उलझाया कर.” कर्कश स्वर कुछ धीमा हो चला था… “जा तू तैयार हो जा चमेली” बेटी से कहा गया था. “रास्ते में अँधेरा होता है बिटिया का हाथ पकड़ कर पार कर लेतीं हूँ ना इस लिए लेकर गई थी” माँ अब भी सफाई दे रही थी. “वो जवान है उसकी नई नज़र है.” “कभी तुम भी तो जवान थीं, तुम्हारी नज़र भी तेज थी. तब तुमने मुझे हाथ थाम कर इस अंधकार से पार क्यों ना करा दिया माँ” ये अस्फुट शब्द बेटी के थे. श्रीमती सीमा सिंह स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य ) पेंटिंग एवं लेखन कथा,लघुकथा एवं कविता विधा में लेखन राजस्थान पत्रिका, महानगर मेल सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन लोकजंग सांध्य दैनिक में नियमित प्रकाशन, वेवसाईट तथा ब्लॉग लेखन e-mail- libra.singhseema@gmail.com atoot bandhan