सलीब

सलीब

सलीब पर  लटकना कितना  दर्दनाक होता है पर ये दर्द न जाने कौन कौन भोगता आया है चुपचाप |  सलीब यानी क्रूज यह कहानी कहानी है उन लड़कियों की जिन्होंने अपने फ़र्ज के आगे खुद को अकेलेपन के सलीब पर पाया। सलीब  रीटा मैडम office में काम करने वाली सीधी सादी औरत हाँ एक समय के बाद कोमर्य होते हुए भी क्या एक लड़की औरत ही तो कहलाती है या बन जाती है। टाइम से office आना टाइम से जाना घर से office और ऑफ़िस से घर का ज़रूर्री सामान समान लेते हुए घर जाना। बरसों से एक ही दिनचर्या एक ही घर एक ही रास्ता,पर आज खाने की टेबल पर अकेले नहीं एक चुलबुली राशी ने घेर ही लिया उनको। क्या आप अकेले खाना खाती हो ज़रूर पनीर लायी हो तभी चुपके चुपके , रीटा मैडम कुछ कह पाती तब तक तो राशी अपने पोहे का डब्बा लेकर उनके खाने पर आक्रमण बोल दिया। आप भी खाए , मैं तो जल्दी में बस पोहा ही बना पायी हूँ आपकी सब्ज़ी अच्छीहै । रीटा मैडम मुस्कुरा दी राशी की चंचलता पर ,फिर दोनो ओफ़िस के गार्डन में टहलने लगी। रीटा मेम एक बात बताए आप शादी कब कर रही हैं मुझे ना Christian wedding बहुत पसंद है,अभी तक बस मूवीज़ में ही देखा है, मैं आपकी बेस्ट गर्ल बन जाऊँगी dress की चिंता ना करें वो तो सिल जाएगी। राशी , मुझे नहीं लगता कोई लड़का मेरे साथ मेरे पेरेंट्सकी ज़िम्मेदारी भी लेगा। तो क्या आप सारी ज़िंदगी …….? पता नहीं शायद हाँ। लेकिन आपका भाई भी तो है उनके साथ मिलकर क्यों नहीं आप अपनी ज़िम्मेदारी बाँट लेती? उसका परिवार है बीबी ,बच्चे शायद वो उतना वक़्त ना दे पाए फिर माँ बाप तो मिलकर बच्चों को पालते हैं बाँटकर नहीं , फिर आज मैं अपना फ़र्ज़ कैसे बाँट लूँ? फिर जरुरी तो नहीं शादी के बाद मैं ख़ुश रहूँ। रीटा मेम क्या आपके पेरेंट्स नहीं चाहते? आपका घर बसे आप ख़ुश रहे। जब वो कहते थे तब कोई फ़िट बेठा नहीं अब वो कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। चलो ब्रेक काफ़ी लम्बा हो गया मुझे काम जल्दी पूरा करके मेडिकल शाप जानाहै । अगले दिन गुड फ़्राइडे था ।यीशु को सलीब पर लटकाया गया था ,लोग नहीं जानते थे की वो क्या कर रहे हैं पर रीटा मेम ने में तो ख़ुशी ख़ुशी इस सलीब को चुना है सिर्फ़ अपने पेरेंट्स के लिये। रश्मि वर्मा आपको लघुकथा सलीब कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत करायें | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो साईट को सबस्क्राइब करें और हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

हौसला

यह लघुकथा एक आशा है उस दिन की जब कोरोना नहीं रहेगा | हम इस भय से निकल कर उन्मुक्त साँस ले सकेंगे | आएगा वह दिन …बस हौसला बना कर रखना है | लघुकथा -हौसला  राघव एक कारखाने में काम करके अपने मां बाप के साथ अपना पेट पालता था। भोला राघव के (पिताजी )को बूढ़ा समझकर कोई काम नहीं देता। जैसे तैसे एक जगह चौकीदार का काम मिला। कोरोनावायरस के डर से बिल्डिंग के लोगों ने चेहरे पर मास्क लगाकर आने को कहा और लाकर दिए।सभी से ६ फिट की दूरी से बात करने को कहा, बूढ़े बाबा ने हां तो करली नौकरी के लिए मगर,उसका दम घुटता था।इधर राघव के मालिक ने राघव को कोरोना बिमारी से होने वाले संक्रमण से बचने के उपाय बताए सेनेटाइजर लगा कर आने को कहा और बार बार हाथ धोने की समझाइश दी।राघव की मां(कचरी) भी चौका बर्तन करने जाती थी, लेकिन महामारी ( कोरोना) के डर से सभी घरों में काम करवाने से मना कर दिया।अब घर चलाने में राघव को दिक्कत आने लगी। महिनें भर बाद राघव को एक दिन गले में खराश हुई, दूसरे दिन बुखार से शरीर तप रहा था, उसने पास ही में रहने वाले अपने साथी को बुलाया और अस्पताल ले जाने का कहा। लेकिन कोरोना के डर से साथी ने जाने से इन्कार कर दिया,और फ़ोन पर डाक्टर को सूचित किया। थोड़ी देर में गाड़ी लेने आई कचरी ने पूछा कब तक घर वापस आएगा बेटा। मां____ बेटे ने करुण स्वर में कहा अच्छा होकर जल्द ही आऊंगा,और अगर कुछ हो जाए तो तुम वृद्धाश्रम में चले जाना पिताजी को लेकर। मैंने थोड़ी बहुत कमाई करके जो जमा किया वह वृद्धाश्रम में देदेना आपको रहने में सुविधा होगी।यह कहकर अपने कपड़े वगैरह लेकर गाड़ी में बैठ गया। बेचारे मां बाप रोते हुए अपने प्राणों से प्यारे बेटे को जाते हुए देखते रहे। आंसू बहते रहे। कितना दर्द होता है सीने में अपने दिल के टुकड़े को ज़िन्दगी से जंग लड़ते हुए देखना । कोरोना के इलाज में गरीबों को सरकार सहायता कर रही है लेकिन कहीं कहीं इलाज में सारी कमाई का कुछ हिस्सा महामारी की भेंट चढ़ जाता है। यही हुआ भी।आखिर एक दिन मां बाप से बगैर मिले राघव ने इस संसार से विदा ले ली ।घर पर संदेश आ गया ,दाह संस्कार भी हो गया।अब बूढ़े मां-बाप कहां जाएं किसको अपना दर्द बताए कि जवान बेटे को आंखों के सामने से जाता हुआ देखना कितना दुखदाई होता है।बड़ी मुश्किल में दिन काटने को मजबूर थे दोनों। एक दिन राघव के मां बाप को बिल्डिंग में जहां कचरी काम करती थी,वह मालकिन(सीता) बुलाकर ले गयी दोनों को ,और अपने साथ रहने को कहा नीचे  एक कमरा भी दे दिया ,खाने का सामान भी दिया सब कुछ ठीक हो गया।सारी जरूरतें पूरी हो गई। थोड़े दिन बाद राघव की मां ने कहा मालकिन आपने हमारी इतनी सहायता करके हम पर उपकार किया है अब इस उपकार को  कैसे चुकाएंगे?? मालकिन ने कहा मेरी बेटी भी गंभीर बिमारी से खत्म हुई है फिर मैं कभी मां नहीं बनीं शाय़द यह नेक काम करने से मेरी इच्छा पूरी हो जाए।राघव की मां ने सच्चे मन से दुआएं मांगी ईश्वर से ।दो माह बाद सीता गर्भवती हो गई।राघव की मां ने बहुत सेवा की वह अपना सारा कर्ज सेवा से चुकाना चाहती थी।समय आने पर एक बेटे को जन्म दिया सीता ने।राघव की मां को बच्चे में अपने बेटे की झलक दिख रही थी।कोरोना का डर अब भी था बच्चे के और मां के सभी टेस्ट नेगेटिव आने पर अस्पताल से छुट्टी मिल गई।घर खुशियों से भर गया। अब वहां कोरोना का नामोनिशान नहीं था।सब कुछ पहले जैसा हो गया।__ प्रेम टोंग्या, इन्दौर मध्यप्रदेश।

लघुकथा – एक सच यह भी

स्वतंत्रता अनमोल होती है | पर क्या स्त्री कभी स्वतंत्र रहती है | एक सच यह भी है कि तमाम बंदिशों में रहने वाली स्त्री के हिस्से मे स्वतंत्रता के वो कुछ पल आते हैं जब उसका पति ऑफिस गया होता है | एक बार मैत्रेयी पुष्पा जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जब अकेली होती हूँ तो मैं उडती हूँ , घर की चार दीवारी के अन्दर | क्या ये स्त्री का सच है ? लघुकथा – एक सच यह भी   तेजी से अनार के दाने निकालती हुई, चार महीने में कितनी एक्सपर्ट हो गयी थीं अनु की ऊँगलियाँ ! उस दिन भी वह अनार के दाने ही तो निकाल रही थी। तभी दीदी आ गई थीं। देखते ही बोली थीं, “अनु, ये क्या हाल बना रखा है तूने ! देखा है आईने में खुद को ! कितनी कमजोर हो गयी है !” हँसकर वह भी बोली थी, “दीदी, अभी तो मेरा ध्यान सिर्फ इन पर लगा रहता है।” दीदी ने एक गहरी साँस ली थी और फिर दुलार करते हुए बोली थीं, “देख अनु, ये मुश्किल भरे दिन भी कट जाएँगे। मगर तेरा स्वास्थ गिर गया तो फिर कौन सम्हालेगा? देख, जब भी तू भास्कर के लिए कुछ सूप वगैरह बनाती है, एक कप खुद के लिए भी बनाकर पी लिया कर । इसी तरह अनार का रस या और जो भी कुछ, तेरे शरीर को भी तो पोषण चाहिए।” उसने गहरी नजरों से उनकी ओर देखा था। “ऐसे क्या देख रही है?” “और जो मन को चाहिए, और आत्मा को …?” दीदी फट पड़ी थीं, “उफ्फ ! कैसे समझाऊँ ! इतनी आपाधापी में या तो तू शरीर का कर ले या फिर … जो तेरी समझ में आए।” वह चुप रह गयी थी और सिर झुका लिया था। कैसे कहे अपने मन की बात, है तो छोटी-सी … । जब से भास्कर का आॅफिस जाना बंद हुआ है, बस उन्हीं के मन का जीती है। उसे कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रहना अच्छा लगता है और वे, सारे दिन खिड़कियाँ बंद करके रखते हैं। मानो खिड़कियों के साथ उनके मन के दरवाजे भी बंद हो गये थे । कितना जी घुटता है उसका। दीदी फिर बोल पड़ी थीं, मगर इस बार धीरे से, “अनु, मैं समझती हूँ सब। अभी तू जो कुछ भी कर रही है न, समझ ले ये तेरी साधना है …।” और फिर वह उसका सिर सहलाती रही थीं। अचानक उसकी तंद्रा टूट पड़ी, “सुनो अनु, डॉक्टर ने मुझे आज से आॅफिस जाने की अनुमति दे दी है। चहकते हुए भास्कर ने कहा। वह भी खुशी से चहक उठी, “तो चलिए, जल्दी से ये रस तो पी लीजिए। और हाँ समय से खाना जरूर मँगवा लीजियेगा।” “सच कहूँ तो, तुम्हारी वजह से आज मैं इतनी जल्दी ठीक हो गया हूँ। तुमने जो किया मेरे लिए, कोई और नहीं कर सकता। लेकिन एक सच और कहूँ …?” उसकी नजरें उस सच को जानने के लिए उत्सुक हो उठीं। “इतने दिनों तक घर में रह कर, मैं घुटता ही रहा । आॅफिस जाने की तलब लगी रहती थी।” “ओह मुझे भी … !” कहते-कहते चुप रह गयी वह। भास्कर के ऑफिस जाते ही वह कमरे में आ गयी और सारी खिड़कियाँ खोल दीं। पूरे कमरे में बस वह थी और उसका तन-मन, जो उसकी रूह के साथ अब सुर-लय-ताल मिला कर थिरक रहा था।● मौलिक एवं स्वरचित प्रेरणा गुप्ता – कानपुर prernaomm@gmail.com *** यह भी पढ़ें … श्राद्ध की पूड़ी मजबूरी नीम का पेड़ आपको लघु कथा   ” एक सच यह भी  ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under –story, hindi story, emotional hindi story, short story

बबूल पर गुलाब

बबूल पर गुलाब

क्या बबूल पर गुलाब का रेशमी खुशबूदार फूल उग सकता है | नहीं | पर कहते हैं कि व्यक्ति का स्वाभाव नहीं बदलता …पर जिम्मेदारी कई बार ऐसा कर दिखाती है | ये लघु कथा भी बबूल पर गुलाब उगाने की है |आइये जानते हैं कैसे   बबूल पर गुलाब घर में रामचरित मानस का पाठ होना | खाने-पीने का मेनू चुपके से बदल जाना और आते-जाते लोगों का बार-बार धीरे चलो, खुश रहा करो जैसे नसीहत भरे वाक्य कहना और सारा का धीरे से मुस्कुरा देना……..बता रहा था कि घर में नन्हा मेहमान आने वाला है | “बहू तुमसे कितनी बार कहना पड़ेगा कि अपनी बहू के लिए गरी-मिसरी मँगवा दो |” सारा की अजिया सास खीज पड़ीं | “अरे अम्मा! हम आपके पास ही आ रहे थे,बताओ क्या मँगवा लें |” सारा की सास क़ागज-पेन लेकर अजिया की खटोली के पास आ बैठी | “तुम्हारी गृहस्थी तुम जानो | हम तो बस बहू के लिए …|” “हाँ हाँ, तो बताओ न अम्मा ! कितने गोले मँगवा लें |” “अब उसमें बताना क्या पहलौटी का बच्चा है सात-पाँच गोला तो होना ही चाहिए|” “हमने तो पूरे नौ गरी के गोले खाये थे, तुम्हारे दूल्हा के होने में |” “तभी इतने मधुर स्वभाव के निकले कि मेरी जिन्दगी ही स्वाहा कर दी |” “पुरानी बातों को मत सोचो बहुरिया अब तुम दादी बनने वाली हो |” अजिया ने सारा की सास के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा | “अम्मा क्या बातें हो रही हैं ?” कहते हुए सारा के ससुर आँगन में आकर खड़े ही हुए थे कि अचानक वातावरण बोझिल हो उठा | सारा की सास अपने में ऐसे सिमट गई मानो उसके चारों ओर काँटे उग आये हों | “अम्मा मैं ये कह रहा था कि अब बहू को ऱोज दस ग्राम बबूल की पत्तियां खिलाना है | “तुम्हारी आयुर्वेदिक नुख्सों की आजमाइश की आदत से अब मेरा जी ऊब गया है ……..और ये बताओ तुम ! तुम्हारी बहू क्या बकरी है |” “अरे अम्मा ! हर बात टाला मत करो |” कहते हुए उनकी आव़ाज में तनाव उभर आया | “आपको शायद पता नहीं, जिज्जी ने भी अपनी बहू को बबूल की पत्तियाँ ही खिलाई थीं | देखा नहीं कैसा गोरा-चिट्टा और कुशाग्र बुद्धि वाला बच्चा पैदा हुआ है | सात पीढ़ियाँ तर गईं मानो उनकी |” इतना सुनते ही कोई और बोल पाता इसके पहले सारा चहक कर बोल पड़ी | “लेकिन पापा जी, प्रतिदिन बबूल की पत्तियाँ लाएगा कौन ?” “होने वाले बच्चे के दादा जी और कौन |” कहते हुए वे मुस्कुरा उठे | सबने चौंक कर उनकी ओर देखा – आज तो जैसे बबूल पर गुलाब खिल आये थे | कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें … नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है  आपको    “ बबूल पर गुलाब  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, kalpna manorama, rose, rose plant

सुरक्षा

फ्रीज के दरवाजे के अंदरूनी रैक पर एक पारदर्शाी डब्बे में बेहद मंहगा खजूर रखा हुआ था। दरवाजा खोलते वक्त वह दिख जाता तो मैं दो-चार अदद खा लेता। पत्नी भी अक्सर ऐसा ही कर लेती थी। मगर फ्रीज के निचले ड्रावर से सब्जियां निकालते वक्त कामवाली की नजर रैक पर पड़ जाती तो वह अपने बच्चे के लिए एक-दो अदद खजूर मांगने से नहीं हिचकती। मुझे या पत्नी को मजबूरन एक-दो अदद खजूर देना पड़ता।   मांगने की यह अप्रिय घटना हर दूसरे-तीसरे दिन घटित हो जाती। हमें यह बुरा लगता था। आखिर एक दिन पत्नी ने खजूर के उस डब्बे को फ्रीज के बिलकुल पीछे के स्थान पर छुपा कर रख दिया। अब फ्रीज खोलते वक्त खजूर नहीं दिखता तो हम उसे खाना भूल जाते। पत्नी भी भूल जाती। देखते-देखते दो माह निकल गए।   एक दिन अचानक पत्नी को खजूर का खयाल आया। उसने खजूर फौरन बाहर निकाला। खजूर खराब हो चुका था और उससे बदबू छूट रही थी। उसे फेंकने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। पत्नी खजूर लेकर डस्टबीन की तरफ बढ़ी। मैंने यह देखा तो कहा, ‘‘खजूर के कुछ पीस कामवाली को देने पर हमें मलाल होता था। मगर अब इन्हें फेंकने पर क्या मलाल नहीं हो रहा ?’’   पत्नी ने स्वीकार किया और कहा, ‘‘हां, कसक तो हो रही है।’’ इसपर मैंने पूछा, ‘‘अब आगे से क्या करोगी ?’’ पत्नी ने विश्वास भरे स्वर में कहा, ‘‘कोई कारगर उपाय जरूर करूंगी।’’ कुछ दिन बाद पत्नी दूसरा खजूर ले आई। मैंने पूछा, ‘‘खजूर कहां रखा है ?’’ उसने कहा, ‘‘बस वहीं। फ्रीज के दरवाजे के भीतरी रैक पर ही।’’ मैंने पूछा, ‘‘मगर मुझे दिखा नहीं।’’   पत्नी ने आंखों में चतुराई भरकर कहा, ‘‘अरे, धीरे बोलो। मैंने इस बार उसे एक काले रंग के डब्बे में छुपाकर रखा है। कामवाली समझ नहीं पाएगी। तुम याद कर चुपके से खा लिया करना।’’ जहां देश के सैनिक बिना सुरक्षा के सीमा पर सीना तानकर रहते हैं, वहीं महज खजूर की रक्षा के लिए की गयी इस चालाक व्यवस्था पर मैं भौंचक रह गया। -ज्ञानदेव मुकेश न्यू पाटलिपुत्र काॅलोनी, पटना-800013 (बिहार) यह भी पढ़ें ……… श्राद्ध की पूड़ी मजबूरी नीम का पेड़ आपको लघु कथा   ” सुरक्षा ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under –story, hindi story, emotional hindi story, short story

श्राद्ध की पूड़ी

श्राद्ध  पक्ष यानी अपने परिवार के बुजुर्गों के प्रति सम्मान प्रगट करने का समय | ये सम्मान जरूरी भी है और करना भी चाहिए | पर इसमें कई बार श्रद्धा के स्थान पर कई बार भय हावी हो जाता है | भय तब होता है जब जीवित माता -पिता की सेवा नहीं की हो | श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा के साथ -साथ जो भय रहता है ये कहानी उसी पर है | श्राद्ध की पूड़ी  निराश-हताश बशेसरी  ने आसमान की ओर देखा | बादल आसमान में मढ़े  हुए थे | बरस नहीं रहे थे बस घुमड़ रहे थे | उसके मन के आसमान में भी तो ऐसे ही बादलों के बादल घुमड़ रहे थे , पर बरस नहीं रहे थे | विचारों को परे हटाकर उसने हमेशा की तरह लेटे -लेटे पहले धरती मैया के पैर छू कर,”घर -द्वार, परिवार  सबहीं की रक्षा करियो धरती मैया ” कहते हुए  दाहिना पैर जमीन पर रखा | अम्मा ने ऐसा ही सिखाया था उसको | एक आदत सी बना ली है | पाँच -छ : बरस की रही होगी तब से धरती मैया के पाँव छू कर ही बिस्तरा छोड़ती है | पर आज उठते समय चिंता की लकीरे उसके माथे पर साफ़ -साफ़ दिखाई दे रहीं थी | आज तो हनाय कर  ही रसोई चढ़ेगी | रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध जो है | पाँच  बरस हो गए उन्हें परलोक गए हुए |  पर एक खालीपन का अहसास आज भी रहता है | श्राद्ध पक्ष  लगते ही जैसे सुई से एक हुक सी  कलेजे में पिरो देता है | पिछले साल तक तो सारा परिवार मिल कर ही श्राद्ध करता था | पर अब तो बड़ी बहु अलग्ग रहने लगी है | कितना कोहराम मचा था तब | मझले गोविन्द से अपनी  बहन के ब्याह की जिद ठाने है | अब गोविन्द भी कोई नन्हा लला है जो उसकी हर कही माने | रहता भी कौन सा उसके नगीच है | सीमापुरी में रहता है | वहीँ डिराइवरी का काम मिला है | रोज तो मिलना होता नहीं | मेट्रो से आने -जाने में ही साठ रुपैया खर्चा हो जाता है | दिन भर की भाग -दौड़ सो अलग | ऐसे में कैसे समझाए | फिर आज -कल्ल के लरिका-बच्चा मानत हैं क्या बुजर्गन की | अब उसकी राजी नहीं है तो वो बुढ़िया क्या करे ? पर बहु को तो उसी में दोष नज़र आता है | जब जी आये सुना देती है | सात पुरखें तार देती है | यूँ तो सास -बहु की बोलचाल बंद ही रहती है पर मामला श्राद्ध का है | मालिक की आत्मा को तकलीफ ना होवे ई कारण कल ही तो उसके द्वारे जा कर कह आई थी कि,  “कल रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध है , घरे आ जइयो, दो पूड़ी तुम भी डाल दियो तेल में | रामनाथ तो करिए ही पर रामधुन  बड़का है , श्राद्ध  कोई न्यारे -न्यारे थोड़ी ही करत है | आखिर बाबूजी कौरा तो सबको खिलाये रहे | पर बहु ने ना सुनी तो ना सुनी | घर आई सास को पानी को भी ना पूछा | मुँह लटका के बशेसरी अपने घर चली आई | बशेसरी ने स्नान कर रसोई बनाना शुरू किया | खीर,  पूड़ी , दो तरह की तरकारी, पापड़ …जब से वो और रामनाथ दुई जने रह गए हैं तब से कुछ ठीक से बना ही नहीं | एक टेम का बना कर दोनों टेम  का चला लेती है | हाँ रामनाथ की चढ़ती उम्र के कारण कभी चटपटा खाने का जी करता है तो ठेले पर खा लेता है | उसका तो खाने से जैसे जी ही रूसा गया है | खैर  विधि-विधान से रामनाथ के हाथों श्रद्ध कराया | पंडित को भी जिमाया | सुबह से दो बार रामधुन की बहु को भी टेर आई | पर वो नहीं आई | इंतज़ार करते -करते भोर से साँझ हो आई | पोते-पोती के लिए मन में पीर उठने लगी | बाबा को कितना लाड़ करते थे | अब महतारी के आगे जुबान ना खोल पा रहे होंगे | बहुत देर उहापोह में रहने के बाद उसने फैसला कर लिया कि वो खुद ही दे आएगी  उनके घर | न्यारे हो गए तो क्या ? हैं तो इसी घर का हिस्सा |  बड़े-बड़े डोंगों में तरकारी और खीर भर ली | एक बड़े से थैले में पूरियाँ भर ली | खुद के लिए भी नहीं बचायी | रामनाथ तो सुबह खा ही चुका  था | लरिका -बच्चा खायेंगे | इसी में घर की नेमत है | दिन भर की प्रतीक्षारत आँखें बरस ही पड़ीं आखिरकार | जाते -जाते सोचती जा रही थी कि कि बच्चों के हाथ में दस -दस रूपये भी धर देगी | खुश हो जायेंगे | दादी -दादी कह कर चिपट पड़ेंगे | जाकर दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगायी, ” रामधुन, लला , तनिक सुनो तो …” रामधुन ने तो ना सुनी | बहु चंडी का रूप धर कर अवतरित हो गयी | “काहे-काहे चिल्ला रही हो |” ” वो श्राद्ध की पूड़ी देने आये हैं |” ” ले जाओ, हम ना खइबे | लरिका-बच्चा भी न खइबे | बहु तो मानी  नहीं हमें | तभी तो हमारी बहिनी से गोविन्द का ब्याह नहीं कराय रही हो | अब जब तक हमरी  बहिनी ई घर में ना आ जाए हमहूँ कुछ ना खइबे तुम्हार घर का | ना श्राद्ध, न प्रशाद | कह कर दरवाजे के दोनों कपाट भेड़ लिए | बंद होते कपाटों से पहले उसने कोने में खड़े दोनों बच्चे देख लिए थे | महतारी के डर से आये नहीं | बुढ़िया की आँखें भर आयीं | पल्लू में सारी  लानते -मलालते समेटते हुए घर आ आई | बहुत देर तक नींद ने उससे दूरी बनाये रखी | पुराने दिनों  की यादें सताती रहीं | क्या दिन थे वो जब मालिक का हुकुम चलता था | मजाल है कि बहु पलट कर कुछ कह सके | आज मालिक होते तो बहु की हिम्मत ना होती इतना  कहने की | सोचते -सोचते पलकें झपकी ही थीं कि किसी  द्वार खटखटाने की आवाज़ आने लगी | … Read more

महँगे काजू

काजू महँगे होते हैं इसमें कोई शक नहीं | पर क्या अपने नुकसान की भरपाई किसी दूसरे से कर लेना उचित है | पढ़िए लघुकथा … महँगे काजू  यशोदा जी ने डिब्बा खोलकर देखा 150 ग्राम काजू बचे ही होंगे | पिछले बार मायके जाने पर बच्चों के लिए पिताजी ने दिए थे | कहा था बच्चों को खिला देना | तब उसने काजू का भाव पूछा था | “कितने के हैं पिताजी ?” “1000 रुपये किलो”  “बहुत महँगे हैं ” उसने आँखें चौड़ी करते हुए कहा | पिताजी ने उसके सर पर हाथ फेर कर कहा ,” कोई बात नहीं बच्चों के लिए ही तो हैं , ताकत आ जायेगी |” वो ख़ुशी -ख़ुशी घर ले आई थी | बच्चे भी बड़े शौक से मुट्ठी-मुट्ठी भर के खाने लगे थे | १५ दिन में ८५० ग्राम काजू उड़ गए | इतने महंगे काजू  इतनी जल्दी खत्म होना उसे अच्छा नहीं लगा | सो डब्बे में पारद की गोली डाल  उसे पीछे छुपा दिया कि कभी कोई मेहमान आये तो खीर में डालने के काम आयेंगे, नहीं तो सब ऐसे ही खत्म हो जायेंगे  | फिर वह खुद ही भूल गयी | अभी आटे के लड्डू बनाते -बनाते उसे काजुओं के बारे में याद आया | उसने सोचा काजू पीस कर डाल देगी तो उसमें स्वाद बढ़ जाएगा |वर्ना रखे-रखे  खराब हो जायेंगे | उसने झट से काजू के डिब्बे को ग्राइंडर में उड़ेल कर उन्हें पीस दिया | तभी सहेली मीता आ गयी और बातचीत होने लगी | दो घंटे बाद जब वो वापस लौटी और भुने आटे में काजू डालने लगीं तो उन्हें ध्यान आया कि जल्दबाजी में वो काजू के साथ पारद की गोली भी पीस गयीं हैं | अब पारद की गोली तो घुन न पड़ने के लिए होती है कहीं उससे बच्चे बीमार ना हो जाए  ये सोचकर उनका मन घबरा गया | पर इतने महँगे काजू फेंकने का भी मन नहीं हो रहा था | बुझे मन से उन्होंने बिना काजू डाले लड्डू बाँध लिए | फिर भी महंगे काजुओं का इस तरह बर्बाद होना उन्हें खराब लग रहा था | बहुत सोचने पर उन्हें लगा कि वो उन्हें रधिया को दे देंगी | आखिरकार ये लोग तो यहाँ -वहाँ हर तरह का खाते रहते हैं | इन्हें नुक्सान नहीं करेगा | सुबह जब उनकी कामवाली रधिया आई तो उन्होंने उससे कहा , ” रधिया ये काजू  पीस दिए हैं अपने व् बच्चे  के लिए ले जा | बहुत मंहगे हैं संभल के  इस्तेमाल करना | रधिया खुश हो गयी | शाम को उसने अपने बच्चे के दूध में काजू का वह पाउडर डाल दिया | देर रात बच्चे को दस्त -उल्टियों की शिकायत होने लगी |  रधिया  व् उसका पति बच्चे को लेकर अस्पताल भागे | डॉक्टर  ने फ़ूड पोईजनिंग  बतायी | महँगे -महंगे इंजेक्शन लगने लगे | करीब ६ -सात हज़ार रूपये खर्च करने के बाद बच्चा  खतरे के बाहर हुआ | रधिया ने सुबह दूसरी काम वाली से खबर भिजवा दी की वो दो तीन दिन तक काम पर नहीं आ पाएगी …बच्चा बीमार है | यशोदा जी बर्तन साफ़ करते हुए बडबडाती जा रहीं थी … एक तो इतने महंगे काजू दिए , तब भी ऐसे नखरे | सही में इन लोगों का कोई भरोसा नहीं होता | सरिता जैन * किसी को ऐसा सामान खाने को ना दें जो आप अपने बच्चों को नहीं दे  सकते हैं | यह भी पढ़ें … सुरक्षित छुटकारा आपको  लेख “महँगे काजू  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:cashew nuts, poor people, poverty, costly items

तू ही मेरा शगुन

बच्चे भगवान् का रूप होते हैं | घर में आने वाले ये नन्हे मेहमान घर को खुशियों से भर देते हैं | बधाई और शगुन बांटने का सिलसिला शुरू होता है | परन्तु क्या हर बार ऐसा ही होता है ? उन माता -पिता से पूछिए , नौ महीने इंतज़ार के बाद जिनके घर में फूल खिलता तो है पर आधा -अधूरा … लघुकथा -तू ही मेरा शगुन “रीना जल्दी तैयार हो जाओ ,आज डॉ से तुम्हारा चेकअप करा दूँ ।ऐसी स्थिति में देर नहीं करते ?”! रमेश ने कहा । ” जी आती हूँ” । दोनों अपने कार से उतरकर बड़े से नर्सिंग होम में दाखिल हुए । “आओ -आओ रीना डॉ नंदनी ने मुस्कुराते हुए स्वागत किया ,कैसी हो “! आप ही देखकर बतायें कैसी हूँ? । डॉ नंदिनी ने चेकअप कर कहा … “जल्दी से आ जाओ आपको एडमिट करती हूँ , प्रसव-पीड़ा की शुरुआत हो गयी है ।” डॉ नंदनी ने रीना के पति को कहा “आप घर जाकर कुछ समान ले आये, कुछ ही देर में आपको खुशखबरी देती हूँ “। रमेश माँ से बोला माँ कुछ समान और रीना के कपड़े दे दो ,तुम जल्दी ही दादी बनने वाली हो ।”अरे मैं भी चलती हूँ ,दोनों हॉस्पिटल चल दिए ,रीना प्रसव -घर में चली गयी थी । दो घंटे तक प्रसव-वेदना झेलने के बाद रीना ने बच्चे को जन्म -दिया । दर्द के कारण अर्ध-मूर्छित सी हो गयी थी । जैसे ही डॉ नंदनी ने बच्चे को देखा —–उसके होश उड़ गए हे भगवान! ये क्या ये तो थर्ड-जेंडर “किन्नर” हैं ।रमेश और माँ के चेहरे और आँखों में अनगिनत खुशियां हिलोरें ले रही थी कब बच्चे को देखे । नर्स ने आकर कहा आप रीना जी और बच्चे से मिल सकते हैं । रमेश ने पुछा क्या हुआ है लड़का या लड़की । आप अंदर देख सकते हो, डॉ नंदनी के मानो हाथ काँप रहे थे बच्चे को जब उसके दादी के गोद में दिया । दादी ने कुछ सिक्के निकालकर “निछावर किया बोली इसे “किन्नरों में बांट देना बेटा बधाई के तौर पर , हमारे “बच्चे को किसी की नजर नहीं लगेगी”। जैसे ही रमेश ने बच्चे का पूरा मुआयना किया ,उसकी आँखों से अविरल आंशू बह निकले, क्यों ये सजा हमे मिली क्या?रीना जानती है उसे क्या हुआ है । कोमल-गुलाबी हाथ छोटे-छोटे पैर दो आँखे-टुकुर-टुकुर देख रही थी रमेश को । रमेश ने प्यार से चिपटा लिया कलेजे में बच्चे को ,बोला मेरे जीवन का बधाई और शगुन भी तू ही है —?। अनीता मिश्रा ‘सिद्धि’ पटना कालिकेत नगर यह भी पढ़ें … व्रत तन्हाँ सुरक्षित छुटकारा श्रम का सम्मान आपको  लघु कथा   “ तू ही मेरा शगुन“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under – hindi story, emotional story in hindi,third gender, new born , beby, shagun

एक प्रेम कथा का अंत

प्रेम कितना खूबसूरत अहसास है , ना ये उम्र देखता है ना जाति -धर्म , लेकिन समाज ये देखता है | उसे बंधन में बांधे गए घुट -घुट कर जीते जोड़े पसंद हैं पर प्रेम के नाम पर अपने मनपसंद साथी को चुनने का अधिकार नहीं |यूँ तो रोज ना जाने कितनी प्रेम कथाओं का अंत होता रहता है , ये तो महज उनकी एक कड़ी है | एक प्रेम कथा का अंत  टिंग -टांग घंटी की आवाज सुनते ही निधि ने   दरवाजा खोला | सामने उसकी  घरेलू  सहायिका की माँ देविका खड़ी थी | “अरे ! इतनी जल्दी , आज तो इतवार है , अभी तो नाश्ता भी नहीं बना “उसने दरवाजे पर ही उसे लगभग रोकते हुए कहा | पर वो एक उदास दृष्टि से उसकी  ओर देख कर आगे बढ़ गयी और पंखा खोलकर सोफे पर पसर  गयी | वो  पीछे -पीछे आई | ” क्या हुआ ? सब ठीक तो है” , आज राधा नहीं, तुम आयीं हो  |” देविका  सुबकने लगी | पल्लू से अपनि आँखें पोछ  कर बोली , ” का बतावे, राधा को पुलिस पकड़  कर ले गयी | “ राधा को पुलिस पकड़  कर ले गयी , आखिर किस जुर्म में , किस अपराध में ? ” का बतावें , आग लगे सबको , हमरा तो पेट जलत है “कहते हुए वो अपने पेट की मांस -पेशियों को जोर -जोर से नोचने लगी | “आखिर हुआ क्या ?” अरे , हुआ ई कि हमरी राधा के कोन्हू दिमाग नाहीं है | सब ससुरालिये पड़े रहते हैं उसके घर मा आये दिन , सब का नंबर राखत है , कई बार कहा जब ऊ सब तुम को नाहीं पूछत हैं तो तुम काहे अपनी जान होमत हो सब की खातिर , पर हर बार एक ही जवाब अम्मा  हमको दया लग जाती है |अब भुगतो !! “पर हुआ क्या ?” निधि  अपनी अधीरता को रोकने की असंभव कोशिश करते हुए कहा ” का बतावें  , ई जो राधा के चचिया ससुर का देवर है ना , बड़ा हरामी है , ठाकुरों की बहु भगा लाया  | उसकी भी राजी है   , अब वो लोग क्या छोड़ देंगे … मार डालेंगे , ना अपनी बीबी बच्चों का सोचा , ना उसके बच्चे का |  महतारी  ने भी अपने बच्चे का नहीं सोचा ऊपर से उसने अपनी  भौजाई को बता दिया कि डिल्ली में  हैं | वो औरत ठाकुरों के दवाब में सब कबूल गयी  | अब लगा लिए पता कि डिल्ली में तो उसकी भौजाई राधा ही राहत है तो खोजत -खोजत  पुलिस आय गयी | लेडिस पुलिस ले गयी है पूछताछ के वास्ते” , कह कर वो फिर रोने लगी | निधि को  कुछ भी समझ नहीं आया कि उसे कैसे चुप कराये  | पूरी बात की तहकीकात करने के लिए  उसने  राधा को फोन मिलाया  | ” आ रही हूँ भाभी , अभी रास्ते में हूँ |” उधर से राधा की आवाज़ आई | उसे  कुछ तसल्ली हुई और ये बात उसकी माँ को बता कर वो  चाय बनाने किचन में चली आई | थोड़ी देर में राधा आ गयी | ” क्या हुआ  ? तुम्हारी माँ बहुत परेशान है, जब से आई है राये जा रही है  ? ” उसने  पूछा ” कुछ नहीं माँ की तो परेशान होने की आदत है |” ” राजाराम (राधा का पति ) बता रहा था लेडिस पुलिस आय के तुमको लिवा ले गयी |” देविका   वहीँ से बोली | “झूठ , बोल रहा था | लड़की के ससुरालिये  आये थे | कह रहे थे तुम बस उसका घर बता दो, हम तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे  | हमने भी कह दिया , हमें पता नहीं है , साथ में ढूँढने चलते हैं  | खिचड़ीपुर में रहता है ,ढूंढते -ढूंढते पहुँच गए उसके घर , लड़की वही पाजामा टॉप पहने उसके साथ एक ही चारपाई पर बैठी थी |  कतई कम उम्र की थी | ये राजाराम ना जाने काहे झूठ बोल रहा था , उसको तो पता था, उसी के सामने तो गए थे , का डरते हैं हम किसीसे  |”राधा ने तेज आवाज़ में कहा ” अरे मरे साला , बहुतही झूठ बोलता है |” देविका  मुँह बिचकाते हुए बोली   इतनी गाली -गलौज  की भाषा निधि को अच्छी नहीं लग रही थी | आज वो अपने स्वाभाविक रूप में थीं जैसे घर में रहतीं है  पर  वो  उनकी इस मानसिक दशा में कुछ कह भी नहीं पायी और धीरे से चाय छानने के लिए रसोई में घुस गयी |” चाय सुडकते मठरी कुतरते राधा बोलती जा रही थी , ” बड़ी हरा.. औरत है , दो बार पहले भी भाग चुकी है , अब इसके साथ भाग आई  | मैंने कहा कि तुम्हारी वजह से ठाकुर हमारे घर आये तहकीकात को , हमारा क्या दोष ,  दिल्ली काहे आ गयीं , कहीं और भाग जाती ,मर जातीं ,  तो मुझसे कहने लगी , ” आप बीच में ना बोले दीदी , आप पर दोष नहीं आएगा | हम कहेंगे पंचायत में , कोर्ट में, हम आये हैं इसके साथ , का गलत का है ,  आदमी नहीं है वो,  नामर्द है साला , जबरजस्ती बाँध रखा है अपने  साथ | जे बच्चा भी उसका ना है जेठ से करा दिया | जब उसने मिटटी पलीद कर ही दी तो काहे  चाकरी करें उसकी ,जब मरद के होते हुए भी इसका उसका पेट भरे का ही है तो क्यों ना अपने मन का चुन लें |  ना मायके की ठौर , ना ससुरे की | हाँ भागे हैं हम दुई बार और पहिले भी …साले डरपोंक निकले  कह दिया हमरे साथ नहीं आई है | एही लिए ई बार हम कोई रिस्क ना लेवे | “ ” हे भगवान् , ऐसे बोली एकदम  खुल्ला | अरी नासपीटी , ये  आजकल की लडकियाँ हैंये ऐसी , ना लाज ना शरम , ना जान का डर , मरे जा के पर तुम पर मुसीबत ना आवे |” देविका अपनी छाती को लगभग पीटते हुए बोली | हम पे का मुसीबत आवेगी अम्मा , ठाकुरन की बहु है , छोड़ेंगे थोड़ी ही ना, काट डालेंगे  | … Read more

व्रत

अरे बशेसर की दुल्हिन , ” हम का सुन रहे हैं , अब तुम हफ्ता में तीन  व्रत करने लगी हो | देखो , पेट से हो , अपने पर जुल्म ना करो | अभी तो तुमको दुई जानो का खाना है और तुम … काकी की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बशेसर की अम्माँ बोल पड़ीं | समझाया तो हमने भी था , पर मानी ही नहीं | अब धर्म -कर्म की बात है , का करें …हम रोकेंगे तो पाप तो हमहीं को चढ़ेगा ना |” काकी ने समर्थन में सर  हिलाया | “चलो पुन्य करने वाली है लड़का ही होगा “ ” तुम्हारे मुँह में घी शक्कर “ उधर इन दोनों से थोड़ी दूर पर बैठी बशेसर की दुल्हिन  अपने पैर के अंगूठे से जमीन खोदते हुए सोचती है कि , ” पुन्य जाए भाड़ में छठे महीने से जब जमीन पर बैठ चूल्हे पर रोटी बनाने में दिक्कत होने लगी तब कितना कहा था उसने सासू माँ से , हमसे नहीं होता है | तब कहाँ मानी थीं वो , बस एक ही रट लगी रहती , ऐसे कैसे नहीं होता , हमने तो ६ बच्चे जने  और पूरे समय तक रोटी बनायीं और तुम पहले बच्चे में ही हाथ झाड़ रही हो |” तब व्रत ही उसे एक उपाय लगा | सास खुद ही उसे रसोई से हटा देतीं , चलो हटो , व्रत की हो , ये रोटी की रसोई है |खुद ही फल ला कर उसके आगे रख देतीं | व्रत की वजह से ही सही इस भीषण गर्मी में उसे रोटी बनाने से तो मुक्ति मिल ही गयी थी | नीलम गुप्ता यह भी पढ़ें … तन्हाँ सुरक्षित छुटकारा श्रम का सम्मान आपको  लघु कथा   “ व्रत“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under – hindi story, emotional story in hindi, fast, fasting, pragnent woman