अहसास

                          कहते हैं बच्चे और बूढ़े एक सामान होते हैं … बात -बात पर जिद्द करना मचलना , गुस्सा दिखाना और अपनी ही बात से मुकर जाना बढती उम्र में न जाने क्यों आने लगता है | जब कोई बच्चा होता है तो उसे अहसास होता है कि माता -पिता हमारे लिए  कितना कर रहे हैं … पर क्या बुजुर्गों को भी ये अहसास होता है | Ahsaas-Short story in hindi                                                       80 बरस से ऊपर की उम्र , खाया -पिया कुछ पचता ही नहीं  , फिर भी न जाने क्यों जानकी देवी की जुबान साधारण खाने को देखते ही इनकार कर देती , हर समय अच्छे खाने  की फरमाइश करती | कभी बेसन के सेव , कभी पूरियाँ , कभी घी भरा सोहन हलवा ,   यही खाती | खा तो लेतीं पर पचा न पातीं | दस्त लग जाते | डॉक्टर ने भी तला -भुना खाने से मना  किया था , परन्तु जानकी देवी मानती नहीं , मनपसंद खाना न मिलने पर, जिद्द पकड़ लेती ,  पूरा घर सर पर उठा लेती | सबके सामने बहू  को दोष देते , तोहमत लगाते हुए कहतीं ,” आजकल की बहुएं , बस चार रोटी तवे पर डाल कर खुद को कमेरा समझने लगती हैं | एक हमारा ज़माना था , मजाल है कि सास का कहा टाल  जाएँ | बताओ आज कहा था , २ , ४ पकौड़ी बना दे , वो भी नहीं बनायी | ऊपर से डॉक्टर का बहाना ले लेती हैं | ये तो मेरा बेटा श्रवण पूत है जो  साथ रह रही है , वरना कब की उसे ले कर अलग घर  बसा लेती |                                शाम तक बात बेटे किशोर के पास पहुँच ही जाती | हमेशा की तरह किशोर अपनी पत्नी मृदुला को डांटते हुए कहता ,” क्या तुम मेरी माँ को उनके मन का बना कर खिला नहीं सकती | माँ ने मेरे लिए कितना कुछ किया है , मैं उनके लिए उनकी इच्छा का खिला भी नहीं सकता | लघुकथा – सीख मृदुला तर्क देती ,” मैं भरसक कोशिश करती हूँ  , माँ  की सेवा करने की , वो मेरी माँ जैसी ही हैं , पर क्या आप को पता है माँ का पेट कितना ख़राब रहता है , सादा खाना तो पचा नहीं पाती हैं , भारी खाना  खाते ही दस्त लग जाते हैं | कपडे गंदे हो जाते हैं | कई बार तो बाथरूम तक जा ही नहीं पातीं , बुजुर्ग हैं , पैंटी पहनने की आदत नहीं है , गुसलखाने तक जाते -जाते सारा आँगन गन्दा हो जाता है , मुझे साफ़ करना पड़ता है | ऐसे  ही दस्त छूट जाएँ तो कोई बात नहीं , कम से कम अम्माँ बदपरहेजी कर के उसे आमंत्रित तो न करें | पत्नी का उत्तर  सुनते ही किशोर जी आगबबबूला हो जाते , जब मैं बचपन में कपडे गंदे कर देता था , तब माँ ने मेरे भी कपडे धोये  हैं , आँगन धोया है , अपना मुँह का कौर छोड़ कर मेरी गन्दगी साफ़ की है और हम उनके लिए इतना भी नहीं कर सकते , पकी उम्र है पता नहीं कब साथ छोड़ दें | अब अंतिम समय में उन्हें न सताओं , तुम्हें शर्म  नहीं आती ऐसा कहते हुए  , अपनी माँ होती तो कहतीं , सब कर लेतीं … रहने दो तुम न करो , मैं ही नौकरी छोड़ अपनी माँ की सेवा करूँगा | पति की बात पर मृदुला खुद ही शर्मिंदा  हो जाती | शायद उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए था | कल को उसकी भी बहू  आएगी | शरीर का क्या भरोसा , उसका भी ऐसा ही हो सकता है | उसने अपना मन कड़ा कर लिया और वो काम सहजता से करने लगी जो एक माँ अपने बच्चे के लिए करती है | जानकी देवी भी मनपसंद  खाना मिलने से खुश थी , सब से  कहतीं , मेरा बेटा  बड़ा लायक है , मुझे किसी चीज की कमी नहीं होने देता | बेसन हो , प्याज हो , मिर्च हो सब इंतजाम रसोई में किये रहता है | बहू  को क्या करना है , बस घोलना है और कढ़ाई में चुआ देना है , करछुल से हिला कर निकाल देना है | पर मृदुला अब इन बातों को सुनी -अनसुनी कर देती |  लघुकथा – चॉकलेट केक                            दो साल बीत गए | मृदुला की माँ की की मृत्यु हो गयी | रोते -कल्पते वो मायके चली गयी | माँ की सेवा का दायित्व किशोर जी पर आ गया | तीन दिन ही बीते कि उन्होंने मृदुला को फोन कर दिया ,” सुनो , माँ की तबियत ठीक नहीं है , मुझसे अकेले नहीं संभाला जा रहा है , दस्त इतने है की कपडे तो गंदे होते ही हैं , गुसलखाने तक जा ही नहीं पाती , सारा आँगन गन्दा कर देती हैं , कैसे करूँ मैं  ये सब , उबकाई सी आ जाती है , खाना भी नहीं चलता , मुझसे नहीं होगा ये सब , तुम आ जाओ , तेरहवीं को फिर चली जाना | जानकी देवी जी जो दूसरे कमरे से ये सब वार्तालाप सुन रही थीं , उनकी आँखे डबडबा गयीं | आज उन्हें पहली  बार अहसास हुआ कि उनकी सेवा उनका बेटा नहीं बहू  कर रही थी | अगली ही ट्रेन से मृदुला फिर  जानकीदेवी की सेवा के लिए हाज़िर थी |  उसके द्वारा पैर छूते ही जानकी देवी उसे सीने से लगते हुए बोली ,” तुम थक कर आई हो , पहले थोडा आराम कर लो , फिर  मूँग की दाल की खिचड़ी बना लेना, अब खाना पचता नहीं, स्वाद का क्या है , इस उम्र में वो स्वाद तो आएगा नहीं , थोडा सा नीबू का रस डाल लूँगी , चल जाएगा “| … Read more

जिन्दगी ढोवत हैं

शाम ढल जाना चाहती थी…,सूरज, सफेद से लाल हो चला था…एक बूढा भिश्ती अपनी पीठ पर दो पानी के मश्क लादे धीमी गति से कहीं चला जा रहा था….. रास्ते में एक शानदार हवेली पड़ती थी…उस आलीशान ईमारत के सामने एक लगभग पचास बरस का शख्स अपने पन्द्रह बरस के बच्चे के साथ खड़ा हुआ था… बाप बेटे में कुछ बातचीत चल रही थी कि उसी वक़्त हवेली के अंदर से बच्चे का चचा बाहर निकला और दोनों भाइयों में किसी अहम मामले को लेकर गुफ्तगू होने लगी… इस दौरान छोटा लड़का बाहर रास्ते पर लोगों को आते जाते देखने लगा…उस की नज़र सामने से पीठ पर पानी की दो मश्क लादे जा रहे एक भिश्ती पर पड़ी…बच्चे ने रौबीले से अंदाज़ ओ लहजे में बूढ़े से पूछा- ये क्या ढोकर ले जाते हो? “जिन्दगी ढोवत हैं मियां साहब….” इतना भर कह वो बूढा आगे बढ़ गया…. बच्चे का चचा अब वापस जा चुका था…. वो फ़ौरन भागा भागा अपने बाप के पास गया और पुछा- “अब्बा, ये सामने देखें.. जो बूढा जा रहा है ये कौन है? हाँ बेटा,ये भिश्ती होते हैं, और ये क्या सामान ढोते हैं? ये पानी पहुंचाते हैं सब जगह…अभी भी अपनी पीठ पर लदी मशक में ये पानी ढोकर ले जा रहा है फिर उसने मुझसे ये क्यों कहा की वो ज़िन्दगी ढोता है? इस सवाल ने बाप के चेहरे की मुस्कराहट खत्म कर दी थी…..लहजे में नरमी को खत्म करके और बिना सख्ती लाये उसने बेटे को जवाब दिया… “बेटा…पानी को ज़िन्दगी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके बिना हम ज़िंदा नही रह सकते….इसीलिए उसने तुमसे कह दिया कि वो ज़िन्दगी यानी पानी ढोता है….चलो अब मगरिब का वक़्त हो चला है अज़ान होने वाली है, तुम अंदर जाओ और नमाज़ की तयारी करो…मैं भी आता हूँ.. बच्चा जिज्ञासू था….. उसने फिर पूछा- लेकिन अब्बा वो सीधे सीधे यह भी तो कह सकता था की वो पानी ले जा रहा है…उसने ज़िन्दगी ही क्यों कहा? बच्चे मन की जिज्ञासा तो अभी बाकी थी  लेकिन बाप के सब्र का बाँध टूट चुका था….बेटे को झिड़क कर अंदर भेज दिया… लेकिन भिश्ती के पानी ढोने और ज़िन्दगी ढोने के दरमियान का फर्क और उसके जवाब के पीछे का दर्द उस बाप में कहीं मौजूद इंसान के अंदर अंदर अजीब सी शर्मिंदगी पैदा करने लगा था… उस बूढ़े की मुस्कुराती आँखों और सौम्य जवाब की वजह से उसके बेटे के बालमन में जागा सवालों और जज़्बातों का तूफ़ान और उन सवालों के पूछते वक़्त बेटे की आँखों में उस बूढ़े के लिए अजब सी मुहब्बत और अब्बा के जवाबों का कौतुहल और फिर आखिर में उसका अपने बेटे को झिड़क कर अंदर भगा देना और इस झिड़कने से बेटे की आँख से गिरी आंसू की बूँद……..!!! ये सब मिलकर उसके ज़ेहन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगे थे….ये हलचल किसी तूफान में बदलती उसके पहले ही अज़ान की आवाज़ आ गई,बच्चा वज़ू बनाये नमाज़ के लिए तैयार बाहर आ चुका था, उसकी आँखों में बूढ़े की तैरती शक्ल, बाप की डांट का खौफ और अंतर्मन की बाकी रह गयी जिज्ञासा और बेजवाब रह गए सवालों का मिला जुला भाव (जिसके लिए आप जो मुनासिब समझें लफ्ज़ चुन लें,अभी मेरे पास वो लफ्ज़ नही हैं,जब आएगा तो बता दूंगा…) अभी भी मौजूद था…… बाप ने बेटे की आँखों में देखना चाहा तो ज़रूर , लेकिन आँख न मिला  पा रहा था… बहरहाल….दोनों ने मस्जिद का रुख किया….लेकिन पता नही क्यों बार बार वो शख्स मुड़कर अपनी हवेली के फाटक की तरफ देखता…..इधर अज़ान अपने आखिरी चरण में पहुँच चुकी थी…, अपने ज़ेहन के ख्यालों के बवंडर को उसने एक मर्तबा झटक के बाहर फेंकने की कामयाब या नाकाम सी कोशिश की और क़दमों में तेज़ी लाते हुए मस्जिद की जानिब बढ़ चला…. दरअसल….. उसे अपने घर की आलिशान दीवारों से खून टपकता नज़र आने लगा था…. ~इमरान~ जौनपुर उप्र emranrizvi@gmail यह भी पढ़ें … काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “जिन्दगी ढोवत हैं “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

सीख

         यूँ तो हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढना दूसरे की चाहते हैं | लेकिन आज मैं अपनी ही जिंदगी की एक ऐसी कहानी साझा कर रही हूँ जो बेहद दर्दनाक है पर उस घटना से मुझे जिंदगी भर की सीख मिली | जब एक दुखद घटना से मिली जिंदगी की बड़ी सीख बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी | स्कूल जाने के रास्ते में एक रेलवे गेट पड़ता था| दरअसल रेलवे गेट के दूसरी तरफ तीन स्कूल थे | तीनों का टाइम सुबह 8 बजे था| अक्सर  7:40 पर गेट बंद हो जाता था | हम तीनों स्कूल के बच्चे कोशिश करते थे कि 7 : 40 से पहले ही रेलवे लाइन क्रॉस कर लें , क्योंकि अगर एक बार गेट बंद हो गया तो वो ८ बजे ही खुलता | उस गेट से स्कूल की दूरी करीब 5-7 मिनट थी पर  फिर भी हमें लेट मान लिया जाता | हमारे स्कूल की प्रिंसिपल  बच्चों को गेट के अन्दर तो घुसने देतीं पर दो पीरियड क्लास में पढने को नहीं मिलता | लेट होने पर हम बच्चे स्कूल के प्ले ग्राउंड में किताब ले कर बैठ जाते व् खुद ही पढ़ते | कॉन्वेंट स्कूल होने के कारण बच्चों पर कोई टीचर हाथ नहीं उठती थी |  रेलवे गेट और रूपा से दोस्ती  वहीँ दूसरे स्कूल में सख्ती कम थी वहाँ  बच्चों को डांट  खा कर अन्दर जाने मिलता था | हम लोगों को सख्त हिदायत थी कि रेलवे लाइन क्रॉस न करों, इसलिए कभी लेट हो जाने पर हमें इंतजार करने और स्कूल में सजा पाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था | बच्चे तो बच्चे ही होते हैं , २० मिनट शांति से बैठना मुश्किल था | तीन स्कूल के कई बच्चे इकट्ठे हो जाते, कुछ पैदल जाने वाले बच्चे भी रुक जाते | बच्चों की बातचीत व् खेल शुरू हो जाते | ऐसे में हमारी दोस्ती दूसरे रिक्शे में जाने वाली नेहा व् रूपा से हो गयी | कभी जब हम साथ –साथ लेट होते तो आपस में बाते करते , कभी लंच का आदान –प्रदान भी हो जाता | रूपा से मेरी कुछ ज्यादा ही बनती थी| तब  फोन घर-घर नहीं थे , हमारा स्कूल भी एक नहीं था , इसलिए जितनी दोस्ती थी उतनी ही देर की थी|   बहुत देर तक रेलवे गेट का बंद रहना  मैं  क्लास 4 थी ,उसी  समय नेहा और रूपा की क्लास में बहुत सख्त क्लास टीचर आयीं , वो लेट आने वाले बच्चों को सारा दिन क्लास के बाहर खड़ा रखती | अनुशासन की दृष्टि से ये अच्छा प्रयास था पर बच्चे लेट होने  से डरने लगे | कई बार बच्चे रिक्शे से उतर कर तब रेलवे लाइन क्रॉस कर लेते जब ट्रेन दूर होती| बच्चे ही क्यों बड़े भी रेलवे लाइन पार कर लेते | ऐसे ही एक दिन रेलवे गेट बंद था| नेहा रूपा और हम सब गेट खुलने का इंतज़ार कर रहे थे | 7:55 हो गया था | ट्रेन अभी तक नहीं आई थी| लेट होना तय था | कुछ बच्चे रेलवे लाइन पार कर स्कूल पहुँच चुके थे | कुछ बच्चे डांट खाने के भय से वापस लौट गए थे | हमारी उलझन बढ़ रही थी |  तभी नेहा ने रूपा  से कहा ,” चलो , रेलवे लाइन क्रॉस करते हैं , वर्ना मैंम  बहुत  डांटेंगी |  ट्रेन आने का समय हो चुका था | रूपा रेलवे लाइन क्रॉस नहीं करना चाहती थी | उसने कहा , छोड़ो , अब क्या फायदा ? नेहा जोर देते हुए बोली ,” अभी ट्रेन आ रही हैं फिर पाँच मिनट तक ट्रेन पास होगी , फिर जब गेट खुलेगा तो भीड़ बढ़ जाएगी हम पक्का लेट हो जायेंगे | रूपा ने स्वीकृति में सर हिलाया | नेहा आगे बढ़ गयी और लाइन तक पहुँच गयी | रूपा भी अधूरे मन से उसके पीछे -पीछे पहुँच गयी | ट्रेन आती हुई दिख रही थी | लोग बोले हटो बच्चों ,ट्रेन आ रही है, पर सवाल पाँच मिनट देरी का था | रूपा ने कहा रहने दो , नेहा बोली जल्दी से भाग कर पार कर लेंगें , मैं तो जा रही हूँ | नेहा पार हो गयी | हम लोगों को एक दर्दनाक चीख सुनाई दी |  ट्रेन के गुज़रते ही नेहा रोती हुई दिखाई दी , रूपा का कहीं पता नहीं था | हम कुछ समझ पाते तब तक रिक्शे वाले ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया |घबराए से हम स्कूल पहुंचे |  वो दर्दनाक खबर  स्कूल पहुँचते ही खबर आ गयी कि दूसरे स्कूल की एक बच्ची ट्रेन से कट गयी है | ट्रेन उसे २०० मीटर तक आगे घसीटते हुए ले गयी है | ओह रूपा … क्या अब वो हमें दुबारा नहीं दिखेगी | हम सब लेट हुए बच्चे जो स्कूल ग्राउंड में थे रूपा को याद कर रोने लगे | थोड़ी देर में कन्डोलेंस मीटिंग हुई , इस हृदयविदारक घटना  के कारण  रूपा  को श्रद्धांजलि देते हुए स्कूल की छुट्टी  कर दी गयी | अपनी स्पीच में प्रिंसिपल सिस्टर करेसिया ने कहा कि ये घटना बहुत दुखद है पर ट्रेन के इतना करीब आने पर रेलवे लाइन क्रॉस करना उस बच्ची की गलती थी | आप सब लोग थोडा पहले घर से निकलिए पर रेलवे लाइन तब तक क्रॉस ना करिए जब तक ट्रेन न निकल जाए |   मेरे अनुत्तरित प्रश्न  मेरे आँसू थम नहीं रहे थे | दुःख की इस घडी में बाल मन में एक अजीब सा प्रश्न उठ गया, नेहा जाना चाहती थी , रूपा  नहीं जाना चाहती थी , वो तो गलत काम नहीं कर रही थी , फिर ईश्वर ने उसे अपने पास क्यों बुला लिया | अगर दोनों गलत थे तो भी दोनों को पास बुलाते सिर्फ रूपा का क्यों ? मैंने ये बात अपनी क्लास टीचर को बतायी | उन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा ,” बेटा ये ईश्वर की मर्जी होती है , कब किसको बुलाना है , किसको बचाना है वो जानता है | तो क्या ईश्वर अन्याय करता है ? मैंने पश्न किया , वो बोलीं , ” सब पहले से लिखा होता है | … Read more

बोर्ड परीक्षा

धड़कते दिल से जया ने 10वीं का परिणाम इंटरनेट पर देखा। उसके पिच्यानवे प्रतिशत अंक आए थे। इतने प्रतिशत नंबर तो उसने कभी भी प्राप्त नहीं किए थे। उसके पापा का हर दूसरे साल ट्रांसफर हो जाता था, इसलिए उससे पहले ही किसी न किसी छात्र या छात्रा के प्रति अध्यापिकाओें के मन में साॅफ्ट काॅर्नर रहता था। यहाँ इस स्कूल में जया आठवीं क्लास में आई थी। जया की क्लास में ही नेहा पढ़ती थी और नेहा की मम्मी ही 3 सालों से उनकी ’क्लास टीचर’ रही हैं। लघुकथा -गिरगिट स्कूल के टैस्ट और परीक्षा में नेहा के ही सर्वाधिक अंक आते थे। हालाँकि जया जानती थी कि अगर न्याय हो तो उसे ही अधिक अंक प्राप्त होंगे। जब उसे कम नंबर मिलते तो वह चुपचाप रोती भी थी। पर उसे विश्वास था कि बोर्ड परीक्षा में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। लघुकथा -सेंध अगले दिन अखबार में उसके फोटो सहित इंटरव्यू छपा था, नेहा के बहुत कम अंक आए थे। जया को माँ की बात समझ में आ गई थी, कि ईश्वर के घर देर भले ही है, लेकिन अंधेर नहीं है। आखिर उसे कड़ी मेहनत का पुरस्कार मिल गया था। डाॅ॰ अलका अग्रवाल भरतपुर ( राज) यह भी पढ़ें … काफी इंसानियत कलयुगी संतान औकात  आपको आपको    “बोर्ड परीक्षा “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

गिरगिट

काॅलेज में परीक्षा चल रही थी। प्राचार्य महोदय, अपने काॅलेज के व्याख्याताओं से घिरे बैठे थे। तभी फोन की घंटी घनघना उठी। उधर से आवाज आई, ’’मैं वरूण बोल रहा हूँ। घर में जरूरी काम है, मुझे कल छुट्टी लेनी पडे़गी। प्लीज सर, बहुत जरूरी है।’’ प्राचार्य जी को ध्यान आया, वरूण के पिताजी जज हैं और दूरदर्शिता, व्यावहारिकता और प्रत्युत्पन्न मति का प्रयोग करते हुए, उन्हांेने जवाब दिया, ठीक है, बेटा, हम काम चला लेंगे। तुम छुट्टी ले लो।’’ जैसे ही प्राचार्य जी ने फोन का रिसीवर रखा, एक व्याख्याता ने कहा, ’’सर, आपने वरूण को छुट्टी कैसे दे दी ? कल तो अनिवार्य हिंदी का पेपर है, काॅलेज के सभी कमरों में परीक्षा है।’’ ’’कोई बात नहीं, वरूण के पिताजी जज हैं, दुनियादारी भी कोई चीज है।’’ ’’लेकिन सर, उसके पिता तो रिटायर हो गए, अब नौकरी में नहीं है। ’’अच्छा, मुझे तो पता ही नहीं था। कोई बात नहीं, अब मना कर देते हैं। वरूण का नंबर मिलाओ।’’ नंबर मिलते ही, प्राचार्य जी नें कहा, ’’वरूण, उस समय, मैने ड्यूटी रजिस्टर नहीं देखा था, कल तुम्हें किसी भी हालत में छुट्टी नहीं दी जा रही है। …..नहीं, नहीं, कल तो तुम्हें आना ही है काॅलेज।’’ उन्होंने तुरंत रिसीवर रख दिया। डाॅ॰ अलका अग्रवाल भरतपुर ( राज) यह भी पढ़ें … काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको आपको    “गिरगिट“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

लघुकथा -कलियुगी संतान

गली मे गठिया पीडित बुढिया घूमते घूमते थक गयी और धीरे धीरे चलते हुऐ मेरे पास आकर सुस्ताने लगी। मैने पूछ ही लिया_क्या हुआ? आंखो मे आंसू भर कहने लगी,,, बहन जी मै छह छह बेटो की मां हूं फिर भीबूढे पति संग अलग रह रही हूं। सारे बेटे अपने वीवी बच्चो संग मस्त है! हमने कया खाया क्या नही। कपडे धुले या नही। उन्हे कोई मतलब नही। मै गठिया के मारे कपडे धो नही पाती। काम होता नही। करना पडता है। फिर भी मेरे बेटे मुझसे कुछ ना कुछ धन मांगते रहते है। कहते है मां के पास बहुत पैसा है। मैने कहा हां बेटा, हमने साथ तो ले जाना नही, उसी को देगे सारा कुछ जो हमारी सेवा करेगा। बहन जी, बुढापा इतना बुरा नही,, ये तो सब को आना है,! बेटे बहू का साथ मिले तो बहुत सा काम हम बैठै बैठै भी निपटा देगे। पर बहू बेटे को आजादी चाहिये इसीलिये संग रहकर खुश नही। उसकी बाते सुनकर मन भर आया मै सोच रही थी एक मां छह बच्चो को पाल लेती है और छह बच्चे मिलकर भी एक मां को नही पाल सकते। कैसी समय की गति है? कैसी है ये आजकल की कलियुगी औलाद? रीतू गुलाटी*ऋतु* यह भी पढ़ें ………. परिवार इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन आपको आपको    “लघुकथा -कलियुगी संतान“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords: short stories , very short stories, child

लप्रेक-कॉफ़ी

प्रेम दुनिया की सबसे खूबसूरत भावना है| जिसे प्रेमियों द्वारा कई तरह से व्यक्त किया जाता है| सच्चे प्रेम की पहचान तो दूसरे को अपने में आत्मसात करना ही होती है, चाहे वो रंग हो , ढंग हो या मात्र एक कप कॉफ़ी…  लघु प्रेम कथा – कॉफ़ी अरे! तुम लखनऊ में रहती हो? एक अप्रत्याशित सा प्रश्न सुन कर सब्जी खरीदते हुए नीला के हाथ थम गए| मुड कर देखा , चश्मा ठीक करते हुए अजनबी को पहचानने की कोशिश करते हुए नीता की आँखों में चमक आ गयी| मुस्कुराते हुए बोली, सुरेश तुम, इतने वर्षों बाद अचानक यहाँ? हाँ, बेटी के लिए लड़का देखने आया था| यहीं लखनऊ में, २१ की हो गयी है, बेटा आर्मी में हैं| इस समय गोवा में पोस्टिंग हैं| उसकी माँ कहती है बेटी की शादी हो जाए फिर हम भी गोवा में रहेंगे| बेटे के साथ| अकेले उसे अच्छा नहीं लगता| पर मेरी तो नौकरी है, उसे कैसे छोड़ दूँ| ये औरतें भी न पुत्र मोह में| और तुम ,क्या करती हो, कितने बच्चे हैं, घर कहाँ हैं, तुम्हारे पति? एक साँस में सुरेश इतना सब कुछ बोल गया| नीता मुस्कुराते हुए बोली, उफ़! पहले की तरह नॉन स्टॉप … फिर थोडा रुक कर धीरे से बोली, मैं टीचर हूँ और मैंने शादी नहीं करी सुरेश |                     शादी नहीं करी क्यों? सुरेश ने आश्चर्य से पूंछा? फिर खुद ही हँसते हुए बोला, “ ये तुम्हारा ही फैसला होगा| अब भी उतनी ही शर्मीली हो क्या? तब तो रिकॉर्ड शर्मीली हुआ करती थी तुम| मैं दीवानों की तरह तुम्हारे पीछे–पीछे घूमता, नीता –नीता रटते –रटते, पर तुम आँख बचा कर निकल जाती न कभी हाँ कहती न ना|  दो ही चीजे दिमाग पर भूत की तरह सवार रहती उन दिनों, एक तुम, एक कॉफ़ी| तुम्हे याद करते–करते बीसियों कप गटक जाता एक दिन में| कभी तुम्हारे साथ कॉफ़ी पीने की इच्छा करती तो तुम कहती की तुम्हे काफी से चिढ है, तुम इसे जिंदगी में कभी हाथ नहीं लगाओगी| पर जाने क्यों जब भी मैं कॉलेज में कहीं घूम रहा होता तो तुम्हारी नज़रे मेरे ओझल हो जाने तक मेरा पीछा करती| क्या राज था, अब तो बताओ?एक झटके में फिर बहुत कुछ कह गया सुरेश| कुछ भी तो नहीं, नीता ने सब्जी थैले में रखते हुए लापरवाही से कहा| दोनों साथ –साथ नुक्कड़  की तरफ चल पड़े| सुरेश कुछ उदास सा बोला, “ जानती हो नीता, उन दिनों बहुत फ्रस्टेट रहा करता था तुम्हारी हाँ, या ना जानने को|  एक दिन अपनी कॉमन फ्रेंड राधा से अपनी परेशानी बतायी तो वो बोली, “ हो सकता है वो तुम्हे प्यार करती हो पर संस्कारी लडकियाँ  इतनी आसानी से इसे स्वीकार नहीं कर पाती हैं, न ही वो अपने प्यार का आसानी से इज़हार कर पाती हैं|  तुम्हे सिमटम्स देखने चाहिए| और मैं बहुत दिनों तक किसी सिमटम को खोजता रहा|  एक दिन कैंटीन में कॉफ़ी पीते हुए, राधा पर बिफर उठा, कैसे पता चले उसके मन की बात, बहुत सिमटम्स-सिमटम्स करती हो, कोई तो सिमटम्स बताओ?  राधा बोली, जैसे जब नीता कॉफ़ी पीने लगे तब समझ लेना| ये कभी नहीं होगा, वो कभी भी कॉफ़ी नहीं पीयेगी, और अब मैं भी कभी कॉफ़ी नहीं पियूँगा|  फिर गुस्से में मैंने भी कॉफ़ी का कप कैंटीन की फर्श पर पटक दिया| कप टुकड़े–टुकड़े हो गया| उसमें बची हुई कॉफ़ी दूर तक छिटक गयी… थोड़ा रुक कर सुरेश बोला, “ मैं एक हारा हुआ व्यक्ति था, माता–पिता के कहने पर नेहा से शादी की, उसने मुझे संभाला, जिंदगी में बहुत सारी खुशियाँ आई, नहीं आई तो सिर्फ कॉफ़ी | लो, नुक्कड़ आ गया चलो यहाँ चाय पीते हैं | सुरेश ने नीता की तरफ देख कर कहा | नहीं सुरेश, चाय नहीं मैं अब सिर्फ कॉफ़ी पीती हूँ नीता ने सुरेश की और देख कर कहा| आँखों के टकराने के साथ ही कुछ पल के लिए गहरे मौन में जैसे सृष्टि थम गयी| तुम्हे शायद उधर जाना है और मुझे इधर, कहते हुए नीता दूसरी दिशा में चल दी… और अनबहे आँसुओं से दोनों देर तक भीगते रहे | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात इंतजार तोहफा  आपको  कहानी  “ लप्रेक-कॉफ़ी  “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

तीसरा कोण – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं

                        हर किस्से , हर प्रसंग का एक तीसरा कोण होता है , जो दो कोणों को बांधता है | तीसरा कोण दीखता नहीं है बस ये एक सेतु है दो कोणों के मध्य , कभी प्रेम का , कभी दर्द का तो कभी समझौते का | आज हम संजय वर्मा जी की ऐसे ही तीन लाघुकाथायें लाये हैं , जहाँ ये अनदेखा तीसरा कोण उभर कर सामने आता है | पढ़िए :तीसरा कोण    – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं  पुनीत कार्य  रंगबिरंगी चिड़ियों को दुकान में बिकते देख पत्नी ने दो चिड़िया खरीद ली । घर लेकर उनके लिए दाना पानी नियमित रूप से देना दिनचर्या में शामिल हो गया । उन चिड़ियों के नाम भी रख दिए गए । अब ऐसा लगने लगा मानो वे घर के सदस्य हो ।जब कभी बाहर जाना हो तो उनके देख -भाल की चिंता सताती । समय बिता तो उनकी संख्या दस बारह हो गई । उन्हें सम्भालना मुश्किल सा लगने लगा । एक दिन विचार किया कि क्यों न हम इन्हे चिड़ियाघर रख आए । चिड़ियों को चिड़िया घर दे आए । जब उन्हें देकर वापस जाने लगे तो पत्नी ने उन्हें उनके दिए नाम से पुकारा तो वे अपने पंख फड़फड़ाने लगे । ऐसा लग रहा था मानों बच्चे अपनी माँ को पुकार रहे हो । आँखों में आँसू की धारा बह निकली ,मन कह रहा था की वापस घर ले चले ।तब महसूस हुआ की अपनों से दूर होने की टीस कैसी होती है ।चिड़ियों को छोड़ते समय की उठी  टीस से   आँखों  में आंसू गिरने लगे । घर  पर आये तो उन रंग बिरंगी चिड़ियों की गौरेया दोस्त बन गई थी वो उन्हें न पाकर शोर करने लगी ।गोरेया के लिए दाना -पानी और खोके का घर बनाकार उसका भी नाम रखकर उसे पुकारने लगे मानों वो भी हमारे घर की सदस्य हो ।  एक अलग ही प्रकार की अनुभूति महसूस हुई मानो  कोई पुनीत कार्य किया हो ।      गुलमोहर  माँ को गुलमोहर का पेड़ बहुत पसंद है । उनकी इच्छा है की अपने बड़े में गुलमोहर का पेड़ होना चाहिए लेकिन गुलमोहर का पौधा लाए कहा से ?नर्सरी में ज्यादा पोधे थे मगर उस समय गुलमोहर नहीं था । पत्नी ने सास की इच्छा को जान लिया। उसका अपने रिश्तेदार के यहाँ शहर जाना हुआ तो उसे सास की गुलमोहर वाली बात याद आगई ।उसने  पौधे  बेचने वाले से  एक गुलमोहर का पौधा खरीद लिया । और उसे बस में अपनी गोद में रख कर संभाल कर घर ले आई । घर पर स्वयं ने गढ्ढा खोदकर उसे रोपा और पानी  दिया ।  करीब चार साल बाद नन्हा पौधा जो की बड़ा हो चूका और उसमे पहली गर्मी में फूल खिले ,पूरा गुलमोहर सुर्ख रंगो से मनमोहक लग रहा था  और आँखों को  सुकून प्रदान कर रहा था । माँ खाना खाते  समय गुलमोहर को देखती तो उसे ऐसा लगता मानो वो बगीचे में बैठ  कर खाना  खा रही हो  । मन की ख्वाइश पूरी होने से  जहां मन को सुकून मिल रहा था वही बहू ने अपनी सेवा भाव को पौधारोपण के जरिए उसे पूरा किय। अब आलम ये है की जब सास बहू  में कुछ भी अनबन होती तो गुलमोहर के पेड़ को देखकर छोटी छोटी  गलतियां माफ़ हो जाती है । रिश्तों को सुलझाने में किसी माध्यम की जरुरत होती है ठीक उसी तरह आज उनके बीच माध्यम गुलमोहर का पेड़ एक सेतु का कार्य कर रहा है ।                परिभाषा गर्मियों की छुट्टियों में एक श्रीमान के यहाँ  उनकी साली  आई ।श्रीमान  की पत्नी की आवाज बहुत ही सुरीली थी । वो अपनी नन्ही सी बेटी को अक्सर  लोरी गा  कर सुलाती थी । जब  वो लोरी गा रही  थी तब श्रीमान की सालीजी ने उस लोरी को रेकार्ड कर वीडियो बना लिया सोचा दीदी इतना अच्छा गाती  है । में घर जाकर माँ को दिखाउंगी । सालीजी कुछ दिनों बाद घर चली गई । कुछ दिनों  पश्च्यात श्रीमान की पत्नी को गंभीर  बीमारी ने जकड़ लिया काफी इलाज करने के उपरांत वह बच नहीं  पाई ,चल बसी । उधर पत्नी की मृत्यु का गम और इधर नन्ही बच्ची को सँभालने की चिंता । जब रात  होती बच्ची माँ को घर में नहीं पाकर रोने लगती हालाॅकि वो अभी एक साल की ही थी । कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या किया जाये । सालीजी आई तो उसने लोरी वाला वीडियो जब बच्ची को दिखाया तो वो इतनी खुश हुई और उसके मुँह  से अचानक “माँ “शब्द निकला और हाथ दोनों माँ की और उठे मानो कह रहे थे माँ मुझे अपने आँचल में ले लो तभी टीवी पर दूर गाना  बज रहा था -माँ मुझे अपनेआँचल में छुपा ले गले से लगा ले  की और मेरा कोई नहीं । उस समय के हालत से सभी घर के सदस्यों की आँखों में अश्रु की धारा बहने लगी । ममत्व और भावना  की परिभाषा क्या होती है किसी को समझाना  नहीं पड़ा  संजय वर्मा  यह भी पढ़ें ………… तोहफा सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  संक्षिप्त परिचय                नाम:- संजय वर्मा “दॄष्टि “ 2-पिता का नाम:- श्री शांतीलालजी वर्मा3-वर्तमान/स्थायी पता “-125 शहीद भगत सिंग मार्ग मनावर जिला -धार ( म प्र ) 4544464-फोन नं/वाटस एप नं/ई मेल:- 07294 233656 /9893070756 /antriksh.sanjay@gmail.com5-शिक्षा/जन्म तिथि- आय टी आय / 2-5-1962 (उज्जैन ) 6-व्यवसाय:- ड़ी एम  (जल संसाधन विभाग )7-प्रकाशन विवरण .प्रकाशन – देश -विदेश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ व् समाचार पत्रों में निरंतर रचनाओं और पत्र का प्रकाशन ,प्रकाशित काव्य कृति “दरवाजे पर दस्तक “ खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास  कनाडा  -अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के  65 रचनाकारों में लेखनीयता में सहभागिता  भारत की और से सम्मान-2015 /अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित                  -संस्थाओं से सम्बद्धता ):-शब्दप्रवाह उज्जैन ,यशधारा – धार, लघूकथा संस्था जबलपुर में उप संपादक                -काव्य मंच/आकाशवाणी/ पर  काव्य पाठ … Read more

तोहफा (लघुकथा)

“सुनो, आजकल तुम बहुत कमजोर होती जा रही हो क्या बात है? और तुम्हारा दूध का गिलास कहां है?”- राजेश रात को दूध पीते हुए पत्नी सीमा से बोला। “आपको तो ऐसे ही लग रहा है बताओ मैं कहाँ से कमजोर लग रही हूँ? और मेरा दूध रसोई में रखा है सारा काम निपटाकर बाद में पी लूँगी।”- सीमा खड़ी होकर अपना फिगर दिखाते हुए बोली। फिर वो अपने कामों में व्यस्त हो गई। राजेश थोड़ी देर बाद पानी पीने रसोई में गया तो देखा दूध तो कहीं रखा ही नहीं है। कुछ शंका सी हुई तो सीमा के पीछे जाकर खड़ा होकर बोला- “जानू,अभी तक दूध क्यों नहीं पीया। देखो, तुम अपना बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखती हो।” “बोला तो था। काम खत्म करके पी लूँगी।”- सीमा ने फिर वही बात दोहरा दी। अब तो सब क्लीयर हो गया। जब दूध है ही नहीं तो पीएगी क्या? ‘डेली के डेली तो दूध के पैसे लेती है फिर दूध पूरा क्यों नहीं लाती है? क्या मेरी मेहनत की कमाई में से पैसे चुरा-चुराकर अपने मायके तो नहीं भेजती है? मैं तो इस पर इतना विश्वास करता हूँ और ये उसका नाजायज फायदा उठा रही है। अबतक पता नहीं क्या-क्या किया होगा?’ सीमा के एक झूठ ने कई सवाल खड़े कर दिए थे। राजेश को अब उस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था। अब वो उसे इग्नोर करने लगा। ना ढंग से बात करता और ना ही करीब ही आता था। आज जब ऑफिस से आया तो दरवाजे पर खड़ी सीमा ने हाथों से रास्ता बंद कर दिया। “सुनो जी, पहले आँखें बंद करो फिर अंदर आना।” “क्या कह रही हो? मुझे नहीं आँखें बंद करनी। तुम रास्ते से हट  जाओ।” “नहीं, आपको मेरी कसम है आँखें बंद करो।” राजीव ने अनमने मन से आँखें बंद कर ली तो सीमा उसका हाथ पकड़ कर अंदर ले गई। और बोली-“अब आँखें खोल सकते हो।” राजेश ने आँखें खोली तो देखा उसकी मनपसंद बाइक आँखों के सामने खड़ी थी। बाइक की चाबी राजेश के हाथों में देते हुए सीमा बोली- ” आपको शादी की सालगिरह मुबारक हो। मुझसे आपकी ऑफिस आने-जाने की परेशानी देखी नहीं जाती थी इसलिए मैंने एक-एक पैसा इकट्ठा किया ताकि आपको शादी की सालगिरह पर यह तोहफा दे सकूँ।” सीमा का तोहफा देखकर राजेश की आँखें भर आईं। उसे अपनी सोच पर घृणा और सीमा पर गर्व महसूस हो रहा था। -विनोद खनगवाल यह भी पढ़ें …  चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात गैंग रेप यकीन  आपको  कहानी  “  तोहफा (लघुकथा)“ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    

समय चक्र

समय का चक्र  अमावस्या की घनेरी रात, चमकते जुगनुओं और टिमटिमाते तारों के कारण आंशिक ज्योतिर्मयी सी थी । झींगुरों के बेसुरे स्वर रात्रि की मौन तपस्या को तोड़ने का भरसक प्रयास कर रहे थे । इसी चंद्र विहीन नभ तले, विभा अस्पताल के बगीचे में गहन विचारशीलता में तल्लीन थी क्योंकि कुशाल ऑपरेशन थियेटर में ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहा था । उसकी आँखों के आगे भूतकाल के दृश्य तैरने लगे… “कितना कुछ बदल गया इन बीते सालों में..कुशाल का उससे किनारा कर, चारुलता से विवाह कर लेना ,शीघ्र ही उसका विदेश गमन..वह और नन्हा सक्षम नितांत अकेले रह गए थे ।. दुखों का जैसे पहाड़ टूट पड़ा था दोनों पर..ज्यादा पढ़ी लिखी भी न थी..कि कोई अच्छी नौकरी मिल सके..जैसे तैसे आँगन बाड़ी में ,एक छोटी सी नौकरी मिली..फिर आगे की पढ़ाई भी आरंभ की.. ईश्वर की कृपा से ऊँचे पद आसीन हो गयी और सक्षम बन गया एक कुशल चिकित्सक.. । सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि कल अचानक चारुलता से भेंट हो गयी..इतने वर्षों बाद देखा था उसे.. वो ग़ुरूर, रूप लावण्य सब कुछ ढ़ल सा गया था । बातचीत के दौरान पता चला विदेश में व्यापार पूर्ण नष्ट हो गया ..और..कुशाल पीड़ित थे केंसर से ।चारुलता को सांत्वना दे, वहाँ से तो चली तो आई परन्तु मन वहीं अटक सा गया था..न जाने क्यों..सक्षम ने चिंतित देख कारण पूछा था.. भावावेश में सब कह गयी…कुशाल का इलाज करने के लिए दवाब भी दे डाला । एक बार तो बहुत भड़क गया था वह ..किंतु नेह- मनुहार में पगी वाणी ने कठोर हृदयी पुत्र को एक जिम्मेदार पुत्र में परिवर्तित कर दिया था ।” तभी पास रखे फोन ने उसकी गहन विचारशीलता को भंग कर दिया “‘हेल्लो माँ ! कहाँ हो आप..जल्दी यहाँ आइए…” वह ऑपरेशन थियेटर की ओर दौड़ी. नर्स उसे देखते ही बोली ” घबराइए नहीं मैडम,ऑपरेशन सफल हो गया है..आइए सभी आप को बुला रहे हैं..” उसने गहराई से देखा..डॉक्टर्स, नर्सों और चारुलता से घिरे कुशाल की उनींदी आँखों के नीचे लुढ़कती बूँदें ,कुशाल के प्रायश्चित्त की कहानी बयान कर रही थीं। अनन्या गौड़ यह भी पढ़ें … चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात गैंग रेप यकीन  आपको  कहानी  “समय चक्र  “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |