लप्रेक – चॉकलेट केक

                                      कहते हैं प्यार करने वाले एक –दूसरे से कितनी शिद्दत से प्यार करते हैं ये उन्हें तब समझ नहीं आता  जब वो एक दूसरे के साथ होते हैं | दूरियाँ उनके प्यार के अहसास को और गहरा कर देती हैं |ये एक तरह का लिटमस टेस्ट भी है | प्रियंका और यश की प्रेम कहानी ब्रेक अप के बाद खत्म ही हो गयी थी |फिर नए साल पर ऐसा क्या हुआ कि … पढ़िए -लप्रेक:चॉकलेट केक     प्रियंका उदास बैठी थी |उसकी सारी  सहेलियाँ अपने दोस्तों के साथ होटल “रॉक इन “. में डांस पार्टी में जा रही थी |  वो किसके साथ जाए | पिछले 7 सालों से वो यश  के साथ जाती रही है |हर बार वहाँ  जाने से पहले यश पहले उसके घर आता और चॉकलेट केक की मांग करता | वो भी तो कितने जतन  से बनाती थी उसके लिए | वह हमेशा उससे कहता  कि न्यू इयर इव का बेस्ट गिफ्ट तुम्हारे हाथ का बना चॉकलेट केक है | दोनों साथ में केक काटते | हालांकि यश उसे केक का बस एक छोटा सा टुकड़ा  ही खाने देता | और खुद पूरा केक  अंगुलियाँ चाट -चाट कर खाता |फिर भी वो उसे यूँ खाता  देख कर तृप्त हो जाती | औरत किसी से किसी भी रूप में प्यार करें , उसके अन्दर माँ का रूप सबसे हावी रहता है | पर …  ये दिन ज्यादा समय तक नहीं चल सके | दो महीने पहले ही यश  का उससे ब्रेक अप हुआ था | उसने यश  से बस इतना कहा था कि अब ये दोस्ती के रैपर में अपने रिश्ते को कब तक छुपाती रहेगी |  बदले में यश  ने उसे अजीब सी निगाहों से घूर कर तपाक  से कहा था कि दोस्ती करते समय ही उसने कह दिया था की वो उससे किसी और रिश्ते की उम्मीद न रखे | फिर अब ये पेशकश क्यों ? अगर वो उससे शादी करना चाहती है तो ये रिश्ता यहीं खत्म |                            यश तो इतनी आसानी से रिश्ता खत्म कर के चला गया | वो वहीँ आँसूं  भरी आँखें लिए खड़ी रही | और अभी तक वहीं खड़ी  है | जीवन जैसे थम सा गया हो | आगे बढ़ ही नहीं रहा | कितने पल … कितने खूबसूरत पल उसने  यश के साथ बिताये थे | कितने सुख – दुःख साझा किये थे | भले ही वो सब कुछ एक अच्छी दोस्ती के नाम पर हुआ था | पर था तो एक घनिष्ठ रिश्ता … सबसे घनिष्ठ | क्या उस समय किया गया वो प्यार , वो चिंता – फिर्क , वो जरा सी देर में न मिल पाने पर बेचैन हो जाना सब उसे पाने का जरिया भर थे | क्या माँ सही कहती थी कि पुरुष  स्त्री देह से आगे बढ़ ही नहीं पाता |              6 साल तक यश को टालती रही थी वो | फिर अचानक क्यों उस दिन खुद पर काबू नहीं कर पायी | उसके बाद उसके लिए सब कुछ बदल गया | मन ही मन वो खुद को यश की पत्नी मान बैठी | उसे लगता था कि वो कहेगी और यश तुरंत हाँ कर देंगे | पर वो गलत थी | यश नहीं बदले …हां उसने तो पहले ही कह दिया था | वो ही अपने प्यार पर ज्यादा यकीन कर बैठी |  बगल के घर से चॉकलेट केक की खुश्बू आ रही है | सौम्या , सौरभ के लिए बना रही होगी |उसी से तो सीखा है उसने इसे  बनाना | पहला न्यू इयर है दोनों का साथ – साथ | वो मिठास में बाँधना चाहती है अपने और सौरभ के रिश्ते को | न जाने क्यों केक की खुशबू  प्रियंका को बर्दाश्त नहीं  हो रही है | उसकी आँखें बार – बार भर रही हैं | पांच   बज गया | यश इसी समय तो आता था |                        तभी दरवाजे की घंटी बजी | यश खड़ा था | उसके हाथों में बड़ा सा पैकेट  था और आँखों में नमी | प्रियंका को अचम्भे से अपनी ओर देखते हुए बोला | अन्दर आने को नहीं कहोगी ‘प्रियु ‘ | प्रियंका ने आँखों से अन्दर आने का इशारा कर दिया | शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया था | अन्दर आ कर डाइनिंग टेबल पर उसने पैकेट रख दिया | फिर प्रियंका  की ओर देख कर बोला ,” मैं हार गया प्रियंका, तुम्हारे प्यार के आगे और अपने प्यार के आगे भी | मैंने बहुत कोशिश की सख्त बनने की | मैं जानता था, मेरे – माता पिता अलग धर्म की होने के कारण तुम्हें बहू  के रूप में स्वीकार नहीं करेंगें | इसलिए मैंने अपने प्यार को सिर्फ दोस्ती के रैपर में ही रखना चाहा | मैं खुश था | तुम मेरे साथ थी | मैंने सोंचा था कि जिन्दगी यूँही कट जायेगी | तुम्हारी अचानक से शादी की मांग ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं वापस अपनी दुनिया में लौट जाऊ | पर मैं गलत था | मैं नहीं जानता था की दिल कितना भी पत्थर कर लो , प्यार वो दरिया है जो उसे तोड़ कर निकलेगा ही निकलेगा | अब मुझे किसी की परवाह नहीं | बस तुम मेरे साथ हो इतना ही काफी है |                    यश ने आँसू पोंछते हुए कहा ,” मुझे पता है प्रियंका तुमने आज चॉकलेट केक नहीं बनाया होगा | इसलिए आज मैं खुद अपने हाथों से बना कर लाया हूँ | आओ केक काटें , कहते हुए उसने केक का डिब्बा खोल दिया | प्रियंका जो अभी तक मूर्तिवत खड़ी थी, यंत्रवत केक काटने लगी | उसने छोटा  सा टुकड़ा यश के मुँह में डाल दिया और आँसूं पोंछते हुए दोनों हाथों से यूँ केक खाने लगी जैसे जन्मों की भूखी हो |                   … Read more

सेंटा क्लॉज आएंगे

                                                                                            कहते हैं आस्था का कोई रूप नहीं होता आकार नहीं होता | पर वो हमारे मन में गहरे कहीं निवास करती है और समय समय पर चमत्कार भी दिखाती है | इसी आस्था और विश्वास पर आइये पढ़ें …. Santa claus aayenge-  Hindi story on faith  दिव्या क्रिसमस की तैयारी के लिए स्टार्स , क्रिसमस ट्री बैलून्स व् गिफ्ट्स खरीद रही थी | तभी स्वेता जी दिख गयीं |  देखते ही बोलीं ,” अरे , आप ये सब खरीद रही हैं | आप तो क्रिस्चियन नहीं हैं | दिव्या ने मुस्कुरा कर कहा हां , पर मेरे घर में भी सेंटा क्लॉज  आते हैं | इससे पहले की वो कुछ कहतीं दिव्या उन्हें उनके सवालों के साथ छोड़ कर आगे बढ़ गयी |                                        घर आ कर उसने सामान रख दिया और बालकनी में चाय का प्याला ले कर बैठ गयी |  चाय की चुस्कियों के साथ वो उस दिन को याद करने लगी जब उसने पहली बार क्रिसमस मनाई थी | तब गौरांग मात्र ३ साल का था | उसने जिद की थी कि हमारे घर में भी क्रिसमस ट्री , स्टार्स सजाये जायेंगे | सेंटा क्लाज आयेंगे | वो गिफ्ट देंगे | वो भी बच्चे का मन रखने के लिए सब सामान ले आई | २२ को नितिन को ऑफिस के टूर  पर जाना था | उनका मन भी जाने का नहीं कर रहा था | पर  जाना जरूरी था | इधर नितिन गए उधर गौरांग को तेज जापानी  बुखार ने घेर लिया | पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस इलाके में जापानी बुखार का प्रकोप रहता  रहा है | कई मासूम बच्चों को इसने  कभी सपने न देखने वाली गहरी नीद में सुला दिया था | दिव्या बेहद डर  गयी | पर गौरांग सेंटा क्लाज आयेंगे,  इसलिए क्रिसमस सेलिब्रेट करने  की जिद करता रहा | हलकी बेहोशी में भी उसकी फरमाइश जारी रही | मन न होते हुए भी दिव्या ने क्रिसमस ट्री पर गिफ्ट्स से सजा दिया | दवा ने थोडा असर किया | गौरांग थोडा सा चैतन्य हुआ | २४ दिसबर की शाम को गौरांग जिद कर रहा था ,” मम्मा , आप खिड़की मत बंद करना सेंटा क्लॉज आयेंगे | अगर खिड़की बाद होगी तो वो अन्दर कैसे आयेंगे | गिफ्ट कैसे देंगे | वो उसको समझाती रही की सर्दी है  , तुम्हे बुखार है , हवा लग जायेगी | इसे बंद कर लेने दो | पर गौरांग रोता रहा … जिद करता रहा | थोड़ी देर में गौरांग की हालत बिगड़ने लगी | डॉक्टर ने हालत क्रिटिकल बतायी | और उसे हॉस्पिटल में एडमिट कर के दिव्या को कुछ जरूरी सामन लाने को कहा | घबराई सी दिव्या घर गयी | सामान थैले में भरते हुए उसकी नज़र बेड रूम की खिड़की पर गयी | न जाने क्या सोंच कर उसके दोनों हाथ जुड़ गए ,” हे सेंटा मेरे बच्चे का जीवन मुझे गिफ्ट में दे दो | फिर आंसूं पोंछती हुई वो घर में ताला लगा कर हॉस्पिटल पहुंची | सारी रात मुश्किल से कटी | सुबह डॉक्टर ने गौरांग को आउट ऑफ़ डेंजर घोषित कर दिया | दिव्या ने चैन की सांस ली |                                  जब गौरांग को ले कर वो वापस घर आई तो  क्रिसमस गुज़र चुका था पर बेड रूम की खिड़की अभी भी खुली थी | खुली खिड़की देख गौरांग चहक कर बोला ,” मम्मा क्या सेंटा  क्लॉज आये थे ?उसने गौरांग का माथा चूमते हुए कहा ,” हां बेटा , सच में आये थे | तो उन्होंने गिफ्ट में क्या दिया ? गौरांग ने रोमांचित होते हुए पूंछा उन्होंने गिफ्ट में तुम्हे दिया .. दिव्या ने उत्तर दिया | मुझे … गौरांग को बहुत आश्चर्य हुआ |                                             पर दिव्या को  उसके बाद हर क्रिसमस को  सेंटा क्लॉज का इंतज़ार रहने लगा | वो हर क्रिसमस पर इस विश्वास के साथ स्टार्स व् ट्री सजाती कि … सेंटा क्लॉज़ आयेंगे |इसलिए तो हर क्रिसमस की ठीक एक रात पहले वो बेड रूम की खिड़की खोल कर तारों में कहीं सेंटा क्लॉज को ढूंढते हुए उन्हें धन्यवाद देना नहीं भूलती हैं | नीलम गुप्ता उसकी मौत झूठा सफलता का हीरा पापा ये वाला लो आपको  कहानी  “सेंटा क्लॉज आएंगे ” कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords: santa claus’s, christmas, christmas tree, faith, christmas gifts

नई बहू (लघुकथा )

   सेठानी के गुस्से की कोई सीमा ही नहीं थी। वह बड़बड़ाये जा रही थी “अब कंगले भिखरियों की भी इतनी औकात हो गई कि हमारे राजकुमार का रिश्ता ठुकरा दे। बेटी कॉलेज क्या पढ़ गई , इतने भाव बढ़ गए। ”  सेठजी गरजे “तुम्हारा राजकुमार क्या दूध का धुला है। न पढ़ने में रूचि न धंधे का शऊर ; सारा दिन आवारागर्दी करता फिरता है, तिस पर रंग भी काला।”  सेठानी के तन-बदन में आग लग गई। तुरंत नौकर को दौड़ाया कि संजोग मैरिज ब्यूरो वाले कमल बिहारी को बुला लाये। पचास हजार की गड्डी बिहारी के आगे रखकर बोली “ये पेशगी है। इस कार्तिक मास तक मुझे घर में गौरवर्णी बहू चाहिए ,जात चाहे जो हो। आगे जो मांगोगे मिलेगा। ” कमल बिहारी ने झुककर नमस्कार किया। चार लाख में बात तय रही। क्या ठाठ से राजकुमार की बारात सजी। सबकी आँखे दुल्हन के सुंदर चेहरे पर टिकी थी। शादी के आठवें दिन मेहमानों को विदा करके सेठानी ने नई बहू को हलवा बनाने को कहा। पहली बार बहू ससुराल में खाना बनाएगी सो नेग में देने को हीरे की अंगूठी तिजोरी से निकाली। दो घंटे बीत गए खाने का अता -पता नहीं। महराजिन ने बताया बहूजी तो कमरे में टी वी देख रही है।सेठानी ने बहू से कड़ककर पूछा कि कभी हलवा नहीं बनाया।  बहू ने रूखा -सा नकारात्मक उत्तर दिया “हलवा कौन बड़ी बात रही। त्यौहार पर दस -बीस घर मेंढोल बजाव हमार अम्मा ढेरों मिठाई यूं ही ले आवत रही। “  हीरे की अंगूठी पर सेठानी की मुठ्ठी कस गई। रचना व्यास  एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए यह भी पढ़ें … अंतर – आठ अति लघु कथाएँ सम्मान बाल मनोविज्ञान पर आधारित पांच लघुकथाएं लाली  आपको    “नई बहू (लघुकथा )“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords: short story,  newly wed, bride, marriage bureau

आखिरी मुलाकात

उसकी सूरत जैसे ओस की बूँदें जमीं हो मखमली दूब पर . निश्चल शीशे की मानिंद . सरलता की मूरत…कोई बनावटीपन नहीं . उसे देख आँखों को श्वेत रंग की शांति का अनुभव होता था . तिरछे नयनों से टपकता मधुर शहद और उसकी शरारती बातें ! मानो जैसे कोई नदी बह रही हो कल – कल ध्वनि के साथ . उसकी मीठी आवाज़ किसी अपरिचित अंजान से टापू पर लिए जाती थी . मन खिंचता चला जाता उसी की ओर .जैसे कोई अदृश्य महीन रेशमी डोर खींच रही हो उस ओर . एक सौम्य सा आकर्षण..जो किसी को भी लुभाने की अद्भुत क्षमता रखता था . हाँ ऐसी ही शख्सियत की स्वामिनी थी सुनैना . हमेशा मुस्कुराकर मिलती . आज इतने वर्षों पश्चात् उसे अपने सामने देख मैं आश्चर्यचकित था । मुझे मालूम नहीं था कि वह भी इसी शहर में है . पाँच सालों में कोई इतना कैसे बदल सकता है ! गुमसुम और उदास आँखों के नीचे पड़े काले स्याह घेरे कुछ अनकहा बयान कर रहे थे । “कैसे हैं आप ? ” उसने धीमे से पूछा । ” मैं एकदम खुश हूँ . ” ” मैं भी बहुत खुश हूँ ” ” एक बात कहूँ सुनैना ” “हाँ कहिये ” “तुम मुझे पहली वाली सुनैना नहीं लग रही ।” ” ये ज़िंदगी अच्छों- अच्छों को बदल देती है फिर मैं क्या हूँ , उम्र के हिसाब से गम्भीरता भी तो आ जाती है .” धीमे से मुस्कुराकर बोली वह । ” चलो कॉफी मँगाते हैं ” “आज नहीं फिर कभी… पहले ही बहुत देर हो चुकी है.. अभी मुझे जाना होगा .” सुनैना तो चली गयी लेकिन मेरे ज़ेहन में अनगिनत सवाल उत्पन्न कर गयी . मैंने आगे बढ़कर ऑटो लिया और चल दिया घर की तरफ . अचानक ऑटो ड्राइवर ने ऑटो रोक लिया . “क्या हुआ ? ” “पता नहीं साब भीड़ ने रास्ता जाम किया हुआ है ” “देखो तो ज़रा आखिर मामला क्या है ” वह जा पाता उससे पहले ही मैं खुद ही उस भीड़ का हिस्सा बन गया . पुलिस भीड़ को तितर बितर करने लगी . लोगों की फुसफुसाहट से पता लगा कोई दुर्घटना हुई है .तभी मेरी नज़र सड़क पर पड़े क्षत विक्षत शव से जा टकरायी । मेरे कदमों की ज़मीन हिल गयी । आँखें शून्य हो ठहर सी गयी क्योंकि…वह निर्जीव देह सुनैना की थी । अनन्या गौड़ यह भी पढ़ें … आत्मसम्मान अंतर आठ अति लघु कथाएँ परिस्थिति गैंग रेप  आपको  कहानी  “  आखिरी मुलाकात ” कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords : last, last meeting, death, accident

आत्मसम्मान (लघुकथा)

‘तो क्या हो गया बेचारी विधवा है खुश हो जाएगी |’ ये शब्द जैसे ही सोनम के कानो में पढ़े सहसा उसके कदम रूक गये दरअसल उसकी भाभी उसके भाई द्वारा उसे दिए गये उपहार की उलाहना दे रही थी | अभी कुछ तीन साल पहले ही सोनम का विवाह सार्थक से हुआ था | घर परिवार सब अच्छा था और ससुराल, ससुराल कम बल्कि मायका ज़्यादा लगता था वो अपने ससुराल में रानी की तरह रहती थी | सार्थक उसे हमेशा अपनी पैत्रक सम्पत्ति  के बारे में बताता रहता था और कहता था हमे किसी पर भी ज़रुरत से ज्यादा भरोसा नही करना चाहिए वो चाहता था की सोनम को भी उसकी सम्पत्ति की जानकारी रहे | लेकिन ये बात जब भी वो शुरू करता सोनम कहती क्या जरूरत है मुझे ये सब जानने की आप तो हमेशा मेरे साथ रहेंगे इस पर सार्थक कहता समय का कोई भरोसा नही है चाहे पति हो या पत्नी उन्हें एक दुसरे के बारे में हर एक बात पता होनी चाहिए| जिससे की कभी एक को कुछ हो जाऐ तो दुसरे को दुःख के दिन न देखना पडे तुम तो पढ़ी लिखी हो सब समझ भी सकती हो | लेकिन सोनम उसकी बातों पर ध्यान नही देती | मगर हुआ वही जिसका डर था सार्थक को एक गंभीर बिमारी हो गयी …..उसने बिमारी के दौरान ही सोनम को सम्पत्ति के विषय में सब कुछ बता दिया था| पति की मृत्यु के बाद उसका बड़ा भाई उसे ये कहकर अपने घर ले आया था की तू मेरी बहन नही बल्कि बेटी है लेकिन आज उसकी ये बेटी उसके लिए बेचारी विधवा बनकर रह गयी थी| उसका भाई ही उसकी सारी धन सम्पत्ति का लेखा जोखा रखता था और उससे अपने और अपने परिवार के शौक भी पूरे कर लेता था | जिस पर सोनम ने  कभी आपत्ति नही जताई |  लेकिन भाई की ऐसी बात सुनकर सोनम को बहुत ग्लानी हुई और उसके आत्म सम्मान को गहरा आघात लगा उसे अपना आने वाला भविष्य अनिश्चित और दुखद लगने लगा क्योंकि वो केवल एक विधवा ही नही थी बल्कि एक बच्ची की माँ भी थी उसे अफ़सोस हो रहा था की … उसे आंखे बंद करके विश्वास नही करना चाहिए था |  उस रात वो सो नही पायी सार्थक के शब्द उसके कानो में गूंजते रहे | दूसरे दिन उसने अपनी  सम्पत्ति की कमान खुद सम्भालने का निर्णय अपने भाई को सुना दिया और सामान समेटकर अपने घर चली आई | पंकज ‘प्रखर’ कोटा ,राज. पंकज कुमार शर्मा “प्रखर”  (साहित्य भूषण सम्मानोपाधि से विभूषित)  लेखक ,लघुकथाकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार  सम्पर्क:- 8824851984 E-mail: pankajprakhar984@gmail.com  Blog: pankajprakhar.blogspot.in *कोटा (राज.)* यह भी पढ़ें …. परिवार इंसानियत अपनी अपनी आस बदचलन आपको आपको    “आत्मसम्मान (लघुकथा)“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords: short stories , very short stories, self respect, 

अंतर -8 अति लघु कथाएँ

जीवन में अनेक बार ऐसा होता है की एक जैसी दो परिस्थितियों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता हैं | क्यों न हों ,कहीं न कहीं हम सब बायस्ड होते हैं | जहाँ ये अंतर चौकाता है वहीँ कहीं न कहीं विषाद  से भर देता है| हम सब हम सब जाने कितने अंतरों समेटे जीवन में आगे बढ़ते जाते हैं | आज उन्हीं में से कुछ अंतरों को  इंगित करती अति लघुकथाएं  अंतर – 8  अति लघु कथाएँ  इसपार – उसपार  ————————                 वो एक लेखिका हैं |थोड़ी निराश , कुंठित |  उनके कुछ काव्य व् कथा संग्रह आ चुके हैं |फिर भी वो अपनी ख़ास पहचान बनाने में असफल हैं |अक्सर वो कहा करती हैं की जिन महिला रचनाकारों को सरकारी पुरूस्कार मिलते हैं | उनकी बहुत सांठ  – गाँठ होती हैं | पुरुष संपादकों से मिलना जुलना , देर रात तक कहकहे और …  इस साल उनके कथा संग्रह का नाम भी सरकारी पुरुस्कारों में शामिल हैं |अब वो इस पार का सच जान गयी हैं | पर सुना है उस पार बनायी जाने वाली सूची में उनका नाम भी उन महिला रचनाकारों में जोड़ दिया गया है जो सांठ – गाँठ से आगे बढ़ी हैं |  वजन  ———- पार्क के बीचों – बीच बने चबूतरे पर कामवालियां शाम को बैठ कर बतियाती थी | शराबी पति की बेवफाई के किस्से , मारपीट सास की डांट सारे दर्द  आपस में बाँटती | कभी कस के रो पड़ती तो कभी सिसकती सी आंसुओं को पोंछती | फिर कल मिलने का वादा कर चली जाती अपने – अपने घर मन से हलकी होकर | वहीँ उसी पार्क में चारों और बने पाथवे में बड़े घरों के लोग मान -अपमान का विष पिए , गहरे राज दिल में दबाये , चेहरे पर झूठी मुस्काने चिपकाए सर पर झूठी शान बनाए रखने का भारी बोझ उठाये चक्कर पर चक्कर काटते रहते वजन घटाने के लिए | भीगी पलकें  ——- बाबूजी बेटी की शादी के लिए दहेज़ का सामन खरीद रहे थे | बजट में चलना उनकी मजबूरी थी |आगे दो छोटी बहनें और ब्याहने को बैठी थी | फिर भी हर चीज बेहतर से बेहतर लाने का प्रयास करते | सोफे को बेटी को गर्व से दिखा रहे थे | देखो बेटी तुम्हारे लिए उस दुकान से लाया हूँ जहाँ खड़े होने की हैसियत भी नहीं है मेरी |गोदरेज की तो नहीं ले सका पर  ये अलमारी खुद खड़े हो कर बनवाई है | और ये रजाई स्पेशल आर्डर दे कर बनवाई है खास जयपुर के कारीगरों से | बेटी की पलकें  बार – बार भीग रही थी | ससुराल में जब सामान खोला जाने लगा | तो सास का स्वर गूंजा ,” ये भी कोई रजाई है ऐसी तो हम काम वालों को भी न दें | ससुर कह रहे थे अलमारी लोकल दे दी गोदरेज की नहीं है |अरे सोफे तो किसी कबाड़ी की दूकान से उठा लाये लगता है|  न रंग है ढंग | और पलंग तो देखो …. कंगलों से पाला पड़ा है | बेटी की पलकें बार – बार भीग रही थी | घर  ——— गरीब का छोटा सा घर था | उसी में सास – ससुर , देवरानी जिठानी नन्द बच्चे सब एक साथ रहते थे |एक छोटे से घर में पूरी दुनिया को समेटे हुए पास में अमीर का घर का था |चार लोग ६ कमरे | चारों अपने लैप टॉप, मोबाइल , फोन में व्यस्त  अलग – अलग कमरों में अपनी- अपनी  दुनिया में सिमटे हुए | विश्वास ————- एक पति को जब पता चला की उसकी पत्नी का शादी से पहले कोइ दोस्त था तो उसे सख्त नागवार गुज़रा | उसने पत्नी से बातचीत बंद कर दी अब उस पर विश्वास कैसे किया जाए |हैरान – परेशांन  सा हो अक्सर वो ऑफिस में सहकर्मी महिलाओं के पास जा कर अपनी पत्नी की बेवफाई के किस्से सुनाता | महिलाएं उस पर तरस खाती | उसके आंसुओं को पोंछती | धीरे – धीरे उसकी कई शादी शुदा महिलाओं से दोस्ती हो गयी |  उसे विश्वास है की वो कुछ गलत नहीं कर रहा है जिसके कारण उन महिलाओं के पतियों को अविश्वास  हो  | बोझ  —– बड़ा बेटा अच्छी नौकरी से लग गया |और छोटे की कहीं नौकरी ही नहीं लग रहीथी | पिताजी हर किसी से कहते फिरते बड़ा तो सही है अपनी फैमली के साथ खा कमा  रहा है | ये छोटा तो हमारे  सर आन पड़ा  बोझ है |  समय बदला | पिताजी को लकवा मार गया |वो बिस्तर पर पड़ गए |  बड़े बेटे ने नौकरी के कारण सेवा करने में असमर्थता व्यक्त कर दी | सेवा की जिम्मेदारी छोटे बेटे पर पड़ी |  सुना है छोटा बेटा लोगों से कहता है ,” क्या करें करना तो पड़ेगा ही |हम तो बच नहीं सकते | ये बोझ हमारे सर जो आन पड़ा है |  समय ने एक बोझ के अपना बोझ उतारने की व्यवस्था कर दी थी |  विस्थापन  —————- निम्मी तो सारा घर सर पर उठा लेती अगर उसकी मेज पर कोई किताब रख दे | उसकी कपड़ों की अलमारी में कोई हाथ लगा दे या उसकी प्रिय किताबे कोई उससे बिना पूंछे कोई छू ले | और जब कॉलेज फंक्शन में उसकी स्पीच होती तो भाई को डपट कर बोलती अगर तुम नहीं आओगे तो मैं स्पीच तो दूँगी ही नहीं तुमसे बोलूंगी ही नहीं |  विवाह के दो महीने बाद जब निम्मी  मायके ( घर नहीं )आती हैं तो उडती नज़र से देखती है की कपड़ों की अलमारी में भाभी के कपडे  रखे हैं | मेज पर भतीजे की किताबें फैली हैं | और उसकी प्रिय किताबें  मुद तुद गयी हैं शायद नन्हे छोटे भतीजे ने पढने की कोशिश की है |  चलते समय निम्मी धीरे से भाई से कहती है ,” कल मेरी स्पीच है भैया , समय मिले तो  जरूर आना |  तब्दील  बेटे को पिता की हर बात बुरी लगती | क्यों थाली में झूठा न छोड़ा जाए , क्यों समय पर घर लौटा जाए |क्यों खर्च  करते समय एक – एक पैसे  का हिसाब रखा जाए | … Read more

सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं

लघु कथाएँ साहित्य लेखन की लोकप्रिय विधा है| जिसमें थोड़े शब्दों में अपनी पूरी बात कह देनी होती है | आज हम आपके लिए लाये हैं सुधीर द्विवेदी जी की तीन लघुकथाएं | पढ़िए और अपनी राय दीजिये  हौसला —(लघुकथा ) डरते डरते प्रवेश किया था मनोज ने उस आलिशान इमारत के अंदर । सुसज्जित कक्षाएं , हाई टेक वातावरण..सभी कुछ व्यवस्थित । ‘यहाँ मेरे विनय का भविष्य अवश्य बन जाएगा। ‘ आश्वस्त हो मनोज ने पुराने फ़टे हुए बैग से साल भर से पेट काट काट कर जोड़े हुए पैसे काउंटर में जमा कर दिए। शहर के सबसे बड़े स्कूल में अपने बेटे का दाखिला करा वो यूँ महसूस कर रहा था मानो बहुत बड़ी जंग जीत आया हो । बाजार से सब्जी ले घर पहुंच कर झोला पत्नी को थमा दिया उसनें । ” फिर टमाटर और प्याज नही लाये आप..” पत्नी झुंझला उठी थी । “अरे भागवान बेटे का एडमिशन बड़े स्कुल में कराना और रोज रोज टमाटर प्याज खाना .. बड़ा हौसला चाहिए हम जैसे आम आदमी के लिए ।”  कहते कहते मनोज ने चेहरे पर उभर आये दर्द को हँसी से छुपा लिया ।पत्नी चुप-चाप किचन में चली गयी थी | मन का मरहम (लघुकथा ) “ओहो फिर से ये ककड़ फोड़ खेल । क्या मिलता है तुझे ये कंकड़ बिखरा के ?” दादा ने झिड़कते हुए नन्हे बिन्नू से पूछा । “दादा ये कंकड़ नही ऊ बिल्डिंग है जो बन गयी है हमारे खेतों को छीन । अब कुछ कर तो नही पाये सरकार का । तो इन्हें ही फोड़ मन भर लेते है ।“ “ अच्छा ! तो एक बड़ा पत्थर मुझे भी दे भला |” “वो देखो.. फिर छितराई ससुरी एक और ।“ दोनों ख़ुशी से उछल पड़े | पहचान (लघुकथा) कृषि विज्ञान के छात्र एक पौधे पर अनुसन्धान कर रहे थे । कभी उसके रंग के आधार पे कोई नाम सुझाते कभी पत्तियों की बनावट के आधार पर कुछ । तभी एक देहाती लड़का दौड़ता हुआ आया और कुछ पत्तियाँ तोड़ने लगा “क्या तुम इस पौधे को पहचानते हो ?” उत्सुकता से एक शोधार्थी पूछ बैठा ।” बाबू जी इसकी पत्तियों का रस मेरी माँ की खाँसी तुरन्त दूर कर देता है रामबाण है ये मेरी माँ की खांसी के लिए । यही पहचान काफी है मेरे लिए ।” सुधीर द्विवदी   यह भी पढ़ें …………… परिस्थिति सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

सजा किसको

saja kisko motivational story in hindi सुधीर  ११ वीं का छात्र है । अपना सामान बेतरतीब से रखना वो अपना धर्म समझता है । माँ को कितनी मुश्किल होती होगी इस सब को संभालने में उसे कोई मतलब नहीं । रोज सुबह उसका चिल्लाना … मेरा रुमाल कहाँ है , मोजा कहाँ है , वगैरह वगैरह बदस्तूर जारी रहता । माँ आटे से सने हाथ लिए दौड़ -दौड़ कर उसका सामान जुटाती । माँ उसको रोज समझाती ‘ बेटा अपना सामान सही जगह पर रखा करो … मुझे बहुत परेशानी होती है ‘। पर सुधीर उल्टा माँ पर ही इल्जाम लगा देता ” तुम जो करीने से सब रखती हो उससे ही सब बिगड़ जाता है ‘। आज माँ दूसरे  ही मूड में थी … उन्होंने सुधीर को अल्टीमेटम दे दिया … अगर  आज  अपना कमरा ठीक नहीं किया तो मैं तुम्हें स्कूल नहीं जाने दूँगी, ये तुम्हारी सजा है ।  आज वाद -विवाद प्रतियोगिता में सुधीर प्रतिभागी था । सो गुस्से में तमतमाते हुए उसने कमरा तो ठीक कर दिया पर बडबडाता रहा …  ये माँ है या तानाशाह इसकी मर्ज़ी से ही घर चले । अगर इनका हुक्म ना बजाओ तो सजा । what a rubbish ! गुस्से के कारण ना तो सुधीर  ने नाश्ता किया और ना ही लंच बॉक्स बैग में रखा । माँ पीछे से पुकारती ही रही । स्कूल जाते ही दोस्तों ने कैंटीन में उसे गरमागरम समोसे खिला दिए । गुस्सा शांत हो गया । प्रतियोगिता आरम्भ हुई … और उसमें सुधीर विजयी हुआ । देर तक कार्यक्रम चला । सब प्रतियोगियों को स्कूल की तरफ से खाना खिलाया गया । शाम को जब सुधीर घर आया, घर कुछ बेतरतीब सा दिखा । किचन में पानी पीने  गया । पर ये क्या एक भी गिलास धुला  हुआ नहीं है … और तो और पानी की बाल्टी भी नहीं भरी है । किचन से बाहर निकला तो पास वाले कमरे से डॉक्टर की माँ से बात करने की आवाज़ आ रही थी । ‘ जब आपको पता है कि इन्सुलिन लेने के बाद अगर कुछ ना खाओ तो डायबिटीज का मरीज़ कोमा में भी जा सकता है तब आपने ऐसा क्यों किया । ये तो अच्छा हुआ की आपकी पड़ोसन आपसे मिलने आ गयीं वर्ना आप तो बड़ी मुश्किल में पड जातीं  ‘। माँ टूटी आवाज़ में बोलीं ‘ क्या करूं  डॉक्टर साहब … आज बेटा  गुस्से में भूखा ही चला गया था, जब भी खाना ले कर बैठती बेटे का चेहरा याद आ जाता … खाना अंदर धंसा ही नहीं ‘। दरवाज़े पर खड़ा सुधीर सोंच रहा था … सजा माँ ने उसे दी …. या उसने माँ को ।                   बच्चों , हम सब की माँ सारा दिन हमारे लिए मेहनत  करती हैं | उनकी सारी  दुआएं बच्चों के लिए ही होतीहैं | ऐसे में अगर आप की माँ आप को कुछ डांट  दे तो ये उसका प्यार ही है | इस प्यार को समझने के लिए दिल की जरूरत है न की दिमाग की जो सजा पर अटक जाता है | अन्तत : ये समझना मुश्किल हो जाता है की सजा किसको मिली है वंदना बाजपेयी  जह भी पढ़ें … झूठ की समझ सम्मान बाल मनोविज्ञान पर आधारित पांच लघुकथाएं अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “सजा  किसको “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें   

प्यार का एहसास

राहुल बंबई में पैदा हुआ और उस समय उसके पिता किसी निजी कंपनी में कार्य करते हुए अपना नया काम भी शुरू कर रहे थे । उसने बड़े होतेहुए अपने पिता को हमेशा अपने काम में व्यस्त ही पाया । राहुल की माँ जैसे उसे अकेले ही पाल  रही थी ।  जहाँ छुट्टी के दिन सारे बच्चे अपने पिता के साथ घूमने ,फिरने जाते राहुल अपनी माँ के साथ अपार्टमेंट में अकेले ही सायकिल  चला रहा होता या फिर कभी-कभी उसकी माँ उसे आस-पास के  बगीचों में या पार्क में ले कर जाती ।  स्कूल के कार्यक्रमों में भी उसकी माँ  ही जाती उसके पिता कभी भी मौजूद न होते । घर  में भी उसके पिता अपने काम में व्यस्त रहते ,माँ काम करती तो वह बेचारा अकेले टी. वी. ही देखता रहता । कई बार उसे अपने पिता की कमी खलती किंतु पिता जी की काम की लगन के कारण माँ उसे समझा देती और कहती मैं हूँ ना तुम को जो काम है मुझ से कहो और वह उदास हो जाता । यहाँ तक कि उसके जन्मदिन पर माँ हर वर्ष पार्टी रखती ,किंतु पिताजी के पास उस दिन भी दो घंटों का वक़्त न होता ।  कई बार तो उसकी माँ भी बहुत उदास हो जाती ,एसा मालूम  होता था कि बस परिवार में माँ और बेटा ही थे । पिता तो बस वहाँ खाने और सोने के लिए ही आते । एसा करते -करते कब सात वर्ष बीत गये मालूम ही न पड़ा और उसके घर में एक बहन भी आ गयी । अब तो माँ जैसे दो बच्चों में पिस ही गयी । पिता तो अभी भी व्यस्त ही थे । कई बार बच्चों को लेकर उनके घर में झगड़ा भी होता । लेकिन पिता अपने बच्चों के लिए फ़ुर्सत न निकाल पाए । एक दिन राहुल स्कूल में एक्टिविटी पीरियड में खेलते-खेलते गिर पड़ा और उसके हाथ में फ्रॅक्चर  हो गया । जैसे ही स्कूल से फोन आया पिताजी भागे-भागे स्कूल पहुँचे और उसे अस्पताल लेकर गये । वहाँ उसके हाथ का ऑपरेशन करना पड़ा । घर में छोटी बहिन होने  के कारण माँ तो अस्पताल भी न पहुँच पाई । और पिता ही अस्पताल में शाम तक उसकी सार -संभाल करते रहे । शाम को माँ उसकी बहिन को ले अस्पताल पहुँची और पिता को बोली कि वे बाहर जा  कर कुछ खा लें लेकिन राहुल के पिता उसके पास से एक पल को न हिले। सारा दिन भूखे ही बैठे रहे ।  उस दिन राहुल को समझ आया कि उसके पिता उसे कितना प्यार करते हैं और इतने सालों वह पिता के लिए जो कमी महसूस करता रहा वहआज  पूरी हो गयी । वह तो सोचता था बस माँ ही उसे प्यार करती है । लेकिन आज उसे समझ आया कि पिता दोहरा काम भी तो उसी के लिए करते रहे ताकि  बड़ा होकर उसे भी उसके पिता की तरह नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें न खानी पड़े । उसके पास अपना व्यवसाय हो तो चिंता थोड़ी कम रहेगी ।अब उसे अपने पिता से कोई शिकायत न थी। इस फ्रॅक्चर के बादउन दोनों का रिश्ता  अटूट बंधन बन गया था ।अब उसे पिता के हृदय में छुपे प्यार का एहसास हो गया था। पार्थ शर्मा , चेन्नई स्टूडेंट , वेल्स बिल्लेबोंग हाई स्कूल  यह भी पढ़ें …… झूठ की समझ सम्मान बाल मनोविज्ञान पर आधारित पांच लघुकथाएं अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “प्यार का एहसास“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

भोले- भक्त

   बचपन में माँ जब देवी – देवताओं की कहानियाँ सुनाया करती थी तो कमरे में दीवार पर जो भोले की तस्वीर टँगी थी उसमें उस भोले- भक्त वीरू की अनायास श्रद्धा  उत्पन्न हो गयी । पैरों से लाचार  भगवान ही उसका सहारा था , जब बड़ा हुआ तो उसके मन में भोले के प्रति एक दृढ़ता घर कर गयी । जब लोगों को काँवर चढाने के लिएजाते देखता तो माँ से अक्सर  प्रश्न रहता है माँ ” ये लोग कहाँ जा रहे है ?  माँ क्या मैं भी जाऊं क्या ? बालमन को समझाना बड़ा मुश्किल होता है । तब माँ केवल एक ही बात कहती ,”बेटा बड़ा होकर ।बड़ा होने पर माँ से अनुमति ले अपनी काँवर उठा  कैलाश मन्दिर की ओर भोले के दर्शन के लिए चल पड़ा ।                       “जय बम-बम भोले , जय बम -बम भोले”का शान्त भाव से नाद किये सड़क पर दण्डवत होता मौन  भाव से चुपचाप चला जा रहा था । सड़क और राह की बाधाएँ उसको डिगा नहीं  पा रही थी , एक असीम भक्ति थी उसके भाव में ।  सावन के महीने में कैलाश का अपना महत्व है भोले बाबा का पवित्रता स्थल है यह भोले भक्त महीने भर निराहार रहता है ।आस्था भी बडी अजीब चीज है भूत सी सवार हो जाती है ,  कहीं से कहीं ले  जाती है ।    ‘       पैरों में बजते घुघरूओं की आवाजें ,काँवरियों का शोरगुल उसकी आस्था में अतिशय वृद्धि करता था । सड़क पर मोटर गाड़ियों और वाहनों की पौ -पौ उसकी एकाग्रता को डिगा न पायें थे । राह के ककड़ पत्थर उसके सम्बल थे ।    सावन मास में राजेश्वर, बल्केश्वर, कैलाश , पृथ्वी नाथ इन चारों की परिक्रमा उसका विशेष ध्येय था । 17 साल के इस युवक में शिव दर्शन की ललक देखते ही बनती थी ।           दृढ़ प्रतिज्ञ यह युवक ने सावन के प्रथम सोमवार उठकर माता के चरणस्पर्श कर उसने जो  कुछ कहा , माता से । उसका आशय समझ माँ ने व्यवधान न बनते हुए “विजयी भव ” का आशीर्वाद दिया और वह चल दिया । साथ में कुछ नहीं था, चलते फिरते राहगीर और फुटपाथ पर बसे रैन बसेरे उसके आश्रय – स्थली थे ।            आकाश में सूर्य अपनी रश्मियों के साथ तेजी से आलोकित हो रहा था जिसकी किरणों से जीव , जगत और धरा प्रकाशित हो रहे थे । इन्हीं धवल चाँदनी किरणों में से एक किरण भोले – भक्त पर पड़ रही थी । दिव्यदृष्टि से आलोकित उसका भाल अनोखी शोभा दे रहा था , रश्मिरथी की किरणों के पड़ने से जो आर्द्रता उसके अंगों पर पड़ रही थी वो ऐसी लग रही थी जैसे नवपातों पर ओंस की बूँदें मोती जैसी चमक रही हो । मगर भक्त इन सब बातों से बेखबर लगातार रोड -साइड दण्डवत् होता हुआ भोले बाबा का नाम लिए चला जा रहा था ।      हर शाम ढलते ही उसे अपने आगोश में ले टेम्परेरी बिस्तर दे देती थी , चाँद की चाँदनश उसका वितान थी आकाश में चमकते तारें पहरेदार थे । सब उसके मार्ग में साथ – साथ थे ।  अन्त में शिव धाम   पहुँच उसने साष्टांग भोले को नमन  किया ।जैसे लगा मन की सारी  मुराद पूरी हो गयी है | सही है भोले के भक्त भी भोले की तरह ही भोले होते हैं |आस्था की शक्ति खींचती जाती है | तब कोई दुनियावी आकर्षण काम नहीं करता हैं | डॉ. मधु त्रिवेदी  यह भी पढ़ें … परिस्थिति सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “भोले- भक्त “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें