हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं..!

 किरण सिंह जिन्होंने अपने सुन्दर घर बगिया को अपने खून पसीने से सींच सींच कर उसे सजाया हो इस आशा से कि कुछ दिनों की मुश्किलों के उपरान्त उस बाग में वह सुकून से रह सकेंगे ! परन्तु जब उन्हें ही अपनी सुन्दर सी बगिया के छांव से वंचित कर दिया जाता है तब वह  बर्दाश्त नहीं कर पाते .और खीझ से इतने चिड़चिड़े हो जाते हैं कि अपनी झल्लाहट घर के लोगों पर बेवजह ही निकालने लगते हैं जिसके परिणाम स्वरूप घर के लोग उनसे कतराने लगते हैं …! तब बुजुर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं ! “उनके अन्दर नकारात्मक विचार पनपने लगता है फिर शुरू हो जाती है बुजुर्गों की समस्या  !  परन्तु कुछ बुजुर्ग बहुत ही समझदार होते हैं, वो नई पीढ़ी के जीवन शैली के साथ  समझौता कर लेते हैं, उनके क्रिया कलापो में टांग नहीं अड़ाते  हैं बल्कि घर के छोटे मोटे कार्यो में उनकी मदद कर उनके साथ दोस्तों की भांति विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, और घर के सभी सदस्यों के हृदय में अपना सर्वोच्च स्थान बना लेते हैं ! उनका जीवन खुशहाल रहता है !   बुजुर्गों के समस्याओं का मुख्य कारण- एकल परिवार का होना है  ! जहाँ  उनके बेटे बेटियाँ बाहर कार्यरत रहते हैं,  जिनकी दिनचर्या काफी व्यस्त रहती है  ! उनके यहाँ जाने पर बुजुर्ग कुछ अलग थलग  से पड़ जाते हैं,  क्यों कि बेटा और बहू दोनों कार्यरत रहते हैं, वहां की दिनचर्या उनके अनुकूल नहीं होती ,  जिनमें  सामंजस्य स्थापित करना उनके लिए कठिन हो जाता है ! इसलिए वो अपने घर और अपने समाज में रहना अधिक पसंद करते हैं ! ऐसी स्थिति में हम किसे दोषी ठहराएं ? कहना मुश्किल है क्योंकि यहां पर परिस्थितियों को ही दोषी ठहराकर हम तसल्ली कर सकते हैं क्यों कि  जो बोया वही काटेंगे!  भौतिक सुखों की चाह में सभी अपने बच्चों को ऐसे रेस का घोड़ा बना रहे हैं जिनका लक्ष्य होता है किसी कीमत पर सिर्फ और सिर्फ अमीर बनना इसलिए उनकी कोमल भावनायें दिल के किसी कोने में दम तोड़ रही होती हैं बल्कि भावुक लोगों को को वे इमोशनल फूल की संज्ञा तक दे डालते हैं!  loading …. इन समस्याओं के समाधान के लिए कुछ उपाय किये जा सकते है !  घर लेते समय यह ध्यानमें जरूर रखना चाहिए कि हमारे पड़ोसी भी समान उम्र के हों ताकि हमारे बुजुर्गों को उनके माता पिता से भी मिलना जुलना होता रहे और हमारे बुजुर्ग भी आपस में मैत्रीपूर्ण संबंध रखते हुए दुख सुख का आदान प्रदान कर सके..! मंदिरों में भजन कीर्तन होता रहता है उन्हें अवश्य मंदिर में भेजने का प्रबंध करें ..! प्रार्थना और भजन कीर्तन से मन में नई उर्जा का प्रवेश होता है जिससे हमारे बुजुर्ग प्रसन्न रहेंगे, और साथ में हमें भी प्रसन्नता मिलेगी ..! अपार्टमेंट निर्माण के दौरान युवा और बच्चों के सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ  साथ बुजुर्गों के सुविधाओं तथा मनोरंजन का भी खयाल रखना चाहिए जहां बुजुर्गो के लिए अपनी कम्युनिटी हॉल हो जहां वो बैठकर बात चित ,  भजन कीर्तन, पठन पाठन आदि कर सके साथ ही सरकारी तथा समाजसेवी संस्थानों को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जहां बुजुर्गों के सुरक्षा,  सुविधा, एवं मनोरंजन का पूर्ण व्यवस्था हो ! बुजुर्गों के पास अनुभव बहुत रहता है सरकार को ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिए जहां उनके अनुभवों का सदुपयोग हो सके जिससे उनकी व्यस्तता बनी रहे !  बुजुर्गों को अपने लिए कुछ पैसे बचाकर रखना चाहिए सबकुछ अपनी जिंदगी में ही औलाद के नाम नहीं कर देना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर अपनी सेवा  – सुश्रुशा दवाइयों आदि में खर्च कर सकें !  जिन्हें अपनी संतान न हो उन्हें किसी भी बच्चे को गोद अवश्य ले लेना चाहिए ! क्यों कि जिनके औलाद नहीं होते उनके सम्पत्ति में हिस्सेदारी लेने तो बहुत से लोग आ जाते हैं परन्तु उनके सेवा सुश्रुसा का कर्तव्य निभाने के लिए बहुत कम लोग ही तैयार होते हैं !  एक ऐसी ही निः संतान अभागी बुढ़िया का शव मेरे आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम रहा है जिसका शव पड़ा हुआ था और रिश्तेदारों में धन के लिये आपस में झगड़ा हो रहा था! कोई बैंक अकाउंट चेक कर रहा था तो कोई गहने ढूढ रहा था मगर जीते जी किसी ने उसकी देखभाल ठीक से नहीं की! सभी  एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहे तथा कहते रहे कि जो सम्पत्ति लेगा वह सेवा करेगा लेकिन वो बूढ़ी चाहती थी कि मेरी सम्पति सभी को मिले क्यों कि जब अपना बच्चा नहीं है तो सभी रिश्तों के बच्चे बराबर हैं!  आज की परिस्थितियों में बुजुर्गों को थोड़ा उदार तथा मोह माया से मुक्त होकर संत हृदय का होना पड़ेगा अर्थात नौकर चाकर पर खर्च करना होगा जिससे उनकी ठीक तरीके से देखभाल हो सके! क्यों कि अक्सर देखा जाता है कि गरीब अपने  बुजुर्गों की सेवा तथा देखभाल तो स्वयं कर लेते किन्तु अमीरों को सेवा करने की आदत नहीं होती ऐसे में उन्हें सेवक पर ही निर्भर होना होता है और सेवक तो तभी मिलेंगे न जब कि खर्च की जाये! यदि बुजुर्ग स्वयं नहीं खर्च करते हैं अपना पैसा खुद पर तो उनकी संतानों को चाहिए कि अपने माता-पिता के लिए सेवक नियुक्त कर दें क्यों कि माता-पिता के सेवा सुश्रुसा का दायित्व तो उन्हीं का है यदि नहीं कर सकते तो किन्हीं से करवायें वैसे भी अपने पेरेंट्स के सम्पत्ति के उत्तराधिकारी तो वे ही हैं!   यह सर्वथा ध्यान रखना चाहिए कि कल को सभी को इसी अवस्था से गुजरना है, हम आज जो अपने बुजुर्गों को देंगे हमारी औलादें हमें वही लौटाएंगी !  माना कि समयाभाव है फिर भी कुछ समय में से समय चुराकर बुजुर्गों पर खर्च करना चाहिए जिससे हमें तो आत्मसंतोष मिलेगा ही.. बुजुर्गों को भी कितनी प्रसन्नता मिलेगी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है ..!  ©किरण सिंह रिलेटेड पोस्ट …….. बुजुर्गों की सेवा से मेवा जरूर मिलेगा व्यस्त रखना है समाधान टाइम है मम्मी मित्रता एक खूबसूरत बंधन सिर्फ ख़ूबसूरती ही नहीं भाग्य भी बढाता है 16 श्रृंगार

बुजुर्गों को दें पर्याप्त स्नेह व् सम्मान

सीताराम गुप्ता, दिल्ली      आज दुनिया के कई देशों में विशेष रूप से हमारे देश भारत में बुज़ुर्गों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। ऐसे में उनकी समस्याओं पर विशेष रूप से ध्यान देना और उनकी देखभाल के लिए हर स्तर पर योजना बनाना अनिवार्य है। न केवल सरकार व समाजसेवी संस्थाओं को इस ओर पर्याप्त धन देने की आवश्यकता है अपितु हमें व्यक्तिगत स्तर भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। कई घरों में बुज़्ाुर्गों के लिए पैसों अथवा सुविधाओं की कमी नहीं होती लेकिन वृद्ध व्यक्तियों की सबसे बड़ी समस्या होती है शारीरिक अक्षमता अथवा उपेक्षा और अकेलेपन की पीड़ा। कई बार घर के लोगों के पास समय का अभाव रहता है अतः वे बुज़्ाुर्गों के लिए समय बिल्कुल नहीं निकाल पाते। एक वृद्ध व्यक्ति सबसे बात करना चाहता है। वह अपनी बात कहना चाहता है, अपने अनुभव बताना चाहता है। वह आसपास की घटनाओं के बारे में जानना भी चाहता है। बुज़्ाुर्गों की ठीक से देख-भाल हो, उनका आदर-मान बना रहे व घर में उनकी वजह से किसी भी प्रकार की अवांछित स्थितियाँ उत्पन्न न हों इसके लिए बुजुर्गों  के मनोविज्ञान को समझना व उनकी समस्याओं को जानना ज़रूरी है।      बड़ी उम्र में आकर अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी शारीरिक अथवा मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ श्रवण-शक्ति व दृष्टि प्रभावित होने लगती है। कुछ लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ने लगती है व उनकी स्मरण शक्ति भी कमज़ोर हो जाती है जो वास्तव में बीमारी नहीं एक स्वाभाविक अवस्था है। बढ़ती उम्र में बुज़ुर्गों की आँखों की दृष्टि कमज़ोर हो जाना अत्यंत स्वाभाविक है। इस उम्र में यदि घर में अथवा उनके कमरे में पर्याप्त रोशनी नहीं होगी तो भी वे दुर्घटना का शिकार हो सकते हैं। बुज़ुर्गों को किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना से बचाने के लिए उनके कमरे, बाथरूम व शौचालय तथा घर में अन्य स्थानों पर पर्याप्त रोशनी होनी चाहिये और यदि उनकी दृष्टि कमज़ोर हो गई है या पहले से ही कमज़ोर है तो समय-समय पर उनकी आँखों की जाँच करवा कर सही चश्मा बनवाना ज़रूरी है। कई लोग कहते हैं कि अब इन्हें कौन से बही-खाते करने हैं जो इनकी आँखों पर इतना ख़र्च किया जाए। यह अत्यंत विकृत सोच है। आँखें इंसान के लिए बहुत बड़ी नेमत होती हैं।      श्रवण शक्ति का भी कम महत्त्व नहीं है। यदि किसी बुज़्ाुग की श्रवण शक्ति कमज़ोर है तो उसका भी उचित उपचार करवाना चाहिए। इनके अभाव में बुज़्ाुर्गों के साथ बहुत सी दुर्घटनाएँ होने की संभावना बनी रहती है। वृद्धावस्था में प्रायः शरीर में लोच कम हो जाती है और हड्डियाँ भी अपेक्षाकृत कमज़ोर और भंगुर हो जाती हैं अतः थोड़ा-सा भी पैर फिसल जाने पर गिर पड़ना और हड्डियों का टूट जाना स्वाभाविक है। गिरने पर बुज़ुर्गाें में कूल्हे की हड्डी टूूटना अथवा हिप बोन फ्रेक्चर सामान्य-सी बात है जो अत्यंत पीड़ादायक होता है। यदि हम कुछ सावधानियाँ रखें तो इस प्रकार की दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। यदि हम अपने आस-पास का अवलोकन करें तो पाएँगे कि ज़्यादातर बुज़्ाुर्ग बाथरूम में या चलते समय ही दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। प्रायः बाथरूमों में जो टाइलें लगी होती हैं उनकी सतह चिकनी होती हैं। पैर फिसलने का कारण प्रायः चिकनी सतह या उस पर लगी चिकनाई होती है। बाथरूम अथवा किचन का फ़र्श  प्रायः गीला हो जाता है और यदि उस पर चिकनाई की कुछ बूँदें भी होंगी तो वहाँ बहुत फिसलन हो जाएगी। जहाँ तक संभव हो सके बाथरूम व किचन में फिसलन विरोधी टाइलें ही लगवाएँ।      तेल की बूँदों की चिकनाई के अतिरिक्त साबुन के छोटे-छोटे टुकड़े भी कई बार फिसलने का कारण बनते हैं। साबुन का एक अत्यंत छोटा-सा टुकड़ा भी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है अतः साबुन के छोटे-छोटे टुकड़ों को भी फ़र्श से बिल्कुल साफ़ कर देना चाहिए। शारीरिक कमज़ोरी के कारण बुज़ुर्गों को बाथरूम अथवा शौचालय में भी उठने-बैठने में दिक्कत होती है। पाश्चात्य शैली के शौचालय बुज़ुर्गों के लिए अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक होते हैं। पाश्चात्य शैली के शौचालय के निर्माण के साथ-साथ यदि इन स्थानों पर कुछ हैंडल भी लगवा दिये जाएँ तो बुज़ुर्गों को बाथरूम अथवा शौचालय में उठने-बैठने में सुविधा होगी और वे गिरने के कारण फ्रेक्चर जैसी दुर्घटनाओं से बचे रह सकेंगे। इसके अतिरिक्त घर में अन्य स्थानों पर भी ज़रूरत के अनुसार हैंडल तथा सीढ़ियाँ और ज़ीनों के दोनों ओर रेलिंग लगवाना अनिवार्य प्रतीत होता है। जहाँ आवागमन ज़्यादा होता है वहाँ बिल्डिंगों की सीढ़ियाँ और ज़ीनों की सीढ़ियाँ भी घिस-घिस कर चिकनी हो जाती हैं। ऐसे ज़ीनों में साइडों में दोनों ओर पकड़ने के लिए रेलिंग लगानी चाहिएँ तथा अत्यंत सावधानीपूर्वक चलना चाहिए। घरों या बिल्डिंगों के मुख्य दरवाज़ों पर बने रैम्प्स की सतह भी अधिक चिकनी नहीं होनी चाहिए।      उन्हें हर तरह से शारीरिक व मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। वे पूर्णतः सक्रिय व सचेत बने रहें इसके लिए उनकी अवस्था व शारीरिक सामथ्र्य के अनुसार उनके लिए कुछ उपयोगी कार्य अथवा गतिविधियों को खोजने में भी उनकी मदद करनी चाहिए। बुज़ुर्गों का एक सबसे बड़ा सहारा होता है उनकी छड़ी। छड़ी के इस्तेमाल में शर्म नहीं करनी चाहिये। साथ ही छड़ी ऐसी होनी चाहिये जो हलकी और मजबूत होने के साथ-साथ चलते समय फर्श पर सही तरह से रखी जा सके। छड़ी का फ़र्श पर टिकाया जाने वाला निचला हिस्सा हमवार होना ज़रूरी है अन्यथा गिरने का डर बना रहता है। सही छड़ी का सही प्रयोग करने वाले बुज़ुर्गों में दुर्घटना की संभावना अत्यंत कम हो जाती है। वैसे अच्छी लकड़ी की बनी एक कलात्मक छड़ी सुरक्षा के साथ-साथ इस्तेमाल करने वाले के बाहरी व्यक्तित्व को सँवारने का काम भी करती है।      अत्यधिक व्यस्तता के कारण कई बार हमारे पास समय नहीं होता या कम होता है तो भी कोई बात नहीं। हम अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करके उन्हें प्रसन्न रख सकते हैं व अपने कार्य करने के तरीके में थोड़ा-सा बदलाव करके उनके लिए कुछ समय भी निकाल सकते हैं। घर के बड़े-बुज़्ाुर्ग जब भी कोई बात कहें उनकी बात की उपेक्षा करने की बजाय उसे ध्यानपूवक सुनकर … Read more

16 श्रृंगार -सिर्फ खूबसूरती ही नहीं, भाग्य भी बढ़ाता है सोलह श्रृंगार

 किरण सिंह औरत और श्रृंगार एकदूसरे के पूरक हैं अब तक तो यही माना जाता आ रहा है और सत्य भी है क्यों कि सामान्यतः औरतों को श्रृंगार के प्रति कुछ ज्यादा ही झुकाव होता है ! हम महिलाएँ चाहे जितना भी पढ़ लिख जाये, कलम से कितनी भी प्रसिद्धि पा लें लेकिन सौन्दर्य प्रसाधन तथा वस्त्राभूषण अपनी तरफ़ ध्यान आकृष्ट कर ही लेते हैं !भारतीय संस्कृति में सुहागनों के लिए 16 श्रृंगार बहुत अहम माने जाते थे बिंदी  सिंदूर चूड़ियाँ बिछुए पाजेब नेलपेंट बाजूबंद लिपस्टिक  आँखों में अंजन कमर में तगड़ी नाक में नथनी  कानों में झुमके बालों में चूड़ा मणि गले में नौलखा हार हाथों की अंगुलियों में अंगुठियाँ मस्तक की शोभा बढ़ाता माँग टीका बालों के गुच्छों में चंपा के फूलों की माला सिर्फ खूबसूरती ही नहीं, भाग्य भी बढ़ाता है सोलह श्रृंगार – ऋग्वेद में सौभाग्य के लिए किए जा रहे सोलह श्रृंगारों के बारे में विस्तार से बताया गया है।जहाँ बिंदी भगवान शिव के तीसरे नेत्र की प्रतीक मानी जाती है तो सिंदूर सुहाग का प्रतीक !काजल बुरी नज़र से बचाता है तो मेंहदी का रंग पति के प्रेम का मापदंड माना जाता है!मांग के बीचों-बीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिंदूर के साथ मिलकर वधू की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। ऐसी मान्यता है कि नववधू को मांग टीका सिर के ठीक बीचों-बीच इसलिए पहनाया जाता है कि वह शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय ले सके। कर्ण फूल ( इयर रिंग्स) के पीछे ऐसी मान्यता है कि विवाह के बाद बहू को दूसरों की, खासतौर से पति और ससुराल वालों की बुराई करने और सुनने से दूर रहना चाहिए।गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनवद्धता का प्रतीक माना जाता है!  पहले सुहागिन स्त्रियों को हमेशा बाजूबंद पहने रहना अनिवार्य माना जाता था और यह सांप की आकृति में होता था। ऐसी मान्यता है कि स्त्रियों को बाजूबंद पहनने से परिवार के धन की रक्षा होती और बुराई पर अच्छाई की जीत होती है।नवविवाहिता के हाथों में सजी लाल रंग की चूड़ियां इस बात का प्रतीक होती हैं कि विवाह के बाद वह पूरी तरह खुश और संतुष्ट है। हरा रंग शादी के बाद उसके परिवार के समृद्धि का प्रतीक है।    सोने या चाँदी से बने कमर बंद में बारीक घुंघरुओं वाली आकर्षक की रिंग लगी होती है, जिसमें नववधू चाबियों का गुच्छा अपनी कमर में लटकाकर रखती हैं! कमरबंद इस बात का प्रतीक है कि सुहागन अब अपने घर की स्वामिनी है।और पायल की सुमधुर ध्वनि से घर आँगन तो गूंजता ही था साथ ही बहुओं पर कड़ी नज़र की रखी जाती थी कि वह कहाँ आ जा रही है !  इस प्रकार पुरानी परिस्थितियों, वातावरण तथा स्त्रियों के सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए सोलह श्रृंगार चिन्हित हुआ था!  किन्तु आजकल सोलह श्रृंगार के मायने बदल से गये हैं क्योंकि आज के परिवेश में कामकाजी महिलाओं के लिए सोलह श्रृंगार करना सम्भव भी नहीं है फिर भी तीज त्योहार तथा विवाह आदि में पारम्परिक परिधानों के साथ महिलाएँ सोलह श्रृंगार करने से नहीं चूकतीं !  सोलह श्रृंगार भी हमारी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है !                         यह भी पढ़ें …….. समाज के हित की भावना ही हो लेखन  का उदेश्य दोषी कौन अपरिभाषित है प्रेम एक पाती भाई – बहन के नाम

उन्हें पानी पिलाता हूूँ जिन्हें लोग दुत्कारते हैं – ओकारनाथ कथारिया

संकलन – प्रदीप कुमार सिंह               मैं 2012 से दिल्ली की सड़कों पर आॅटो चला रहा हूं। शुरू से गर्मी के दिनों में, खासकर जब तेज लू चल रही होती है, तब सड़कों पर आॅटो चलाना मेरे लिए काफी कठिन होता था। मैंने देखा, इस मौसम में कई आॅटो वाले पेड़ों की घनी छाया में आॅटो खड़े कर सो जाते थे। मैं चूंकि किसी मजबूरी में ही इस पेशे में आया, लिहाजा मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं था। लेकिन जब मैंने चिलचिलाती धूप में रेड लाइट पर सामान बेचने वाले लोगों और खासकर बच्चों की परेशानियां देखीं, तब मेरा दिमाग घूम गया।             आॅटो चलाते हुए तो फिर भी हमारे सिर पर छत होती है, लेकिन लालबत्ती के आसपास मंडराने वाले लोगों और बच्चों की हालत की सहज ही कल्पना की जा सकती है। कुछ समय वे इधर-उधर पेड़ की छांव में भले गुजार लें, लेकिन बत्ती लाल होते ही वे खिलौने, किताबें और कार पोंछने के कपड़े आदि बेचने पहुंच जाते हैं। उनकी हालत पर तरस खाना तो दूर, गाड़ियों में बैठे लोग उन्हें दुत्कारते हैं। धूप में पसीना बहाकर रोजी-रोटी कमाने वालों को वे चोर या उठाईगीर समझते हैं।             आॅटो चलाते हुए मैंने कई बार देखा कि हाॅकरों को लोग बुरी तरह दुत्कारते है। मैं एक समान्य आदमी हूं। इसके बावजूद मैंने सोचा कि मुुझे इन हाॅकरों के लिए कुछ करना चाहिए। मैं यही कर सकता था कि उन्हें पानी पिलाकर थोड़ी राहत दे सकता था। फिर सोचा, पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाए, तो अच्छा रहेगा। इसी भावना के तहत गर्मी के दिनों में मैं अपने आॅटो में स्नैक्स के कुछ पैकेट और एक कार्टन में पानी की बोतलें लेकर निकलने लगा। रास्ते में पड़ने वाली हर रेड लाइट पर मैं सामान बेचने वालों को स्नैक्स और पानी देता तथा उनसे बात भी करता, उनके हाल-चाल पूछता। यह काम तेजी से करना होता है, क्योंकि टैªफिक लाइट के ग्रीन होते ही मुझे झट से अपना आॅटो स्टार्ट कर देना पड़ता है, नहीं तो पीछे कतार में खड़ी गाड़ियों में बैठे लोग चिल्लाने लगते हैं।             कुछ दिन इसी तरह बीते, तो कुछ लोगों ने मेरे काम की तारीफ की और कहा कि भलाई के इस काम में वे भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं। उस समय तो मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन अगले दिन मेरे आॅटो में स्नैक्स और पानी की बोतलों के साथ डोनेशन बाॅक्स भी था। लोगों ने मेरी मदद करनी शुरू की तो मेरे लिए यह काम और आसान हो गया। चूंकि लोग मुझे पहचानने लगे और मेरे पास थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद भी आने लगी, तो मैंने सोचा कि मुझे जरूरतमंद लोगों की मदद का दायरा और बढ़ाना चाहिए। फिर मैं गरीब मरीजों को मुफ्त में अस्पताल ले जाने और उन्हें घर तक छोड़ने का काम भी करने लगा।             दरअसल जल्दी ही मैं आॅटो की जगह टेक्सी चलाऊंगा। मैंने कार लोन के लिए एप्लाई किया था और लोना मंजूर हो गया है। इसी महीने मुझे टैक्सी मिल जाएगी। टैक्सी से फायदा यह होगा कि स्नैक्स और पानी की बोतलें रखने के लिए ज्यादा जगह मिलेगी। इससे मैं ज्यादा लोगों की मदद कर पाऊंगा। मेरे मददगारों में अनेक लोग ऐसे हैं, जो मेरी ही रूट पर अपनी कारों से आते-जाते हैं। मैं वह सब गरीब, लाचार और धूप में पसीना बहाकर कमाने वालों के लिए खर्च करता हूं। मेरी सिर्फ एक ही इच्छा है कि जीवन भर लोगों की इसी तरह सेवा करता रहूं। विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार – अमर उजाला

दिल्ली की सड़कों पर भिखारियों की वजह से भी रहता है जाम और जाम से होता है बेतहाशा प्रदूषण

सीताराम गुप्ता,      दिल्ली में प्रदूषण का एक मुख्य कारण है वाहनों की बहुत ज़्यादा संख्या। यह स्थिति दिल्ली व एनसीआर के लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है। यहाँ वाहन चलते नहीं रेंगते हैं। वाहनों के एक निश्चित अपेक्षित गति से कम गति पर चलने से न केवल हवा में ज़्यादा घातक गैसों का अतिरिक्त ज़हर घुलता है अपितु वाहनों की सेहत पर भी बुरा असर होता है। दूसरी बात यहाँ जो वाहन सड़कों पर चलने के लिए निकलते हैं या चल रहे होते हैं उनमें से एक बड़ी संख्या में वाहन या तो चैराहों पर रुके होते हैं या कहीं न कहीं जाम में फँसे होते हैं। स्थिति ये होती है कि दिल्ली की सड़कों पर एक साथ लाखों वाहनों के इंजन तो चालू होते हैं लेकिन वाहन गति न करके स्थिर होते हैं जो शहर की हवा को विषाक्त बनाते रहते हैं।      दिल्ली के चैराहों की स्थिति सबसे ख़राब है। चार-चार पाँच-पाँच बार ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद वाहन चैराहे पार नहीं कर पाते। इससे न केवल बिना कारण के बहुमूल्य ईंधन फुंकता है और प्रदूषण में वृद्धि होती है अपितु लोगों का क़ीमती वक़्त भी बरबाद होता है। चैराहों पर ट्रैफिक ठीक से मूव न कर पाने का कारण नियंत्रण व्यवस्था में ख़ामियाँ ही नहीं अपितु चैराहों पर उपस्थित भिखारी समुदाय भी है। इसमें कोढ़ में खुजली का काम करते हैं सामान बेचने वाले। हर चैराहे पर हर दिशा में दर्जनों लोग खड़े रहते हैं। दो-तीन साल के बच्चों से लेकर अस्सी-पिचासी साल की उम्र के बुज़ुर्गों तक भीख मांगने के लिए वाहनों के आगे डटे रहते हैं। इनके अतिरिक्त छोटे बच्चों को गोद में उठाए औरतें व बैसाखियों के सहारे चलती लड़कियाँ भी हर चैराहे की शोभा बढ़ाती नज़र आती हैं।      इनके कारण न केवल यातायात के सुचारु परिचालन में व्यवधान उत्पन्न होता है अपितु वाहन चालकों को भी बड़ी परेशानी होती है। ग्रीन लाइट होने पर भी ये गाड़ियों के आगे डटे रहते हैं। ये वाहन चालकों को परेशान भी कम नहीं करते। गाड़ियों के दोनों ओर से ठक-ठक ठक-ठक करके वाहन चालकों को परेशान करते हैं व शीशा खुला होने पर सामान पर हाथ साफ करने में भी देर नहीं लगाते। ये लोग ग्रुप्स में होते हैं और झगड़ा करने से भी बाज नहीं आते। इससे यातायात के परिचालन व चालकों की मनोदशा दोनों पर बुरा असर पड़ता है।      हमारे चैराहों पर भिखारियों के अतिरिक्त सामान बेचनेवाले भी कम नहीं होते। हर चैराहे पर पानी की बोतलों से लेकर ग़ुब्बारे, खिलौने, नमकीन, मूंगफली, रेवड़ी, गजक, सीजनल फल, गोलागिरी, डस्टर-पौंछे, अगरबत्तियाँ, इलैक्ट्राॅनिक आइटम्स, किताबें, टायर, स्पेयर पाट्र्स तक क्या नहीं होता जो यहाँ नहीं बिकता। जब कोई वाहन चालक इनसे सामान ख़रीदता है तो जब तक उसका मोल-भाव व पेमेंट नहीं हो जाती ग्रीन सिग्नल होने पर भी वह आगे नहीं बढ़ता और उसके पीछे के वाहनों को भी रुके रहने पर विवश होना पड़ता है। इस स्थिति में कुछ लोग पौं-पौं करके आसमान सर पर उठा लेते हैं लेकिन इससे ट्रैफिक नहीं सरकता अलबत्ता ध्वनि प्रदूषण ज़रूर बढ़ जाता है। कई बार झगड़े की नौबत आ जाती है और ट्रैफिक की स्थिति और बदतर हो जाती है।      प्रदूषण बढ़ने का एक पहलू और भी है। भिखारियों और सामान बेचने वालों से बचने के लिए ज़्यादातर लोग गाड़ियों की खिड़कियों के शीशे नहीं खोलते। सामान्य स्थितियों व अच्छे मौसम में भी उन्हें एसी चलाने के लिए विवश होना पड़ता है जो प्रदूषण बढ़ाने के लिए कम उत्तरदायी नहीं। इसके अतिरिक्त कुछ सार्वजनिक वाहन जैसे रिक्शा, ई-रिक्शा व ग्रामीण सेवा आदि भी प्रायः ट्रैफिक रूल्स का खुला उल्लंघन कर यातायात को बाधित करने के लिए कम दोषी नहीं। ये मेट्रो स्टेशनों के नीचे व आसपास बेतर्तीब खड़े रहते हैं और जाम लगाए रखते हैं। कुछ लोगों ने विशेष रूप से भिखारियों व सामान बेचने वालों ने चैराहों के आसपास की सड़कों व फुटपाथों पर स्थायी अड्डे बना रखे हैं। वहीं रहते हैं, वहीं खाते-पीते हैं, वहीं टट्टी-पेशाब जाते हैं, वहीं कपड़े धोते और सुखाते हैं और वहीं पर सोते हैं।      दिल्ली में मधुबन चैक से लेकर रिठाला मेट्रो स्टेशन तक मेट्रो लाइन के नीचे अधिकांश स्थानों पर इन लोगों ने न केवल क़ब्ज़ा कर रखा है अपितु इन स्थानों को बेहद गंदा भी रखते हैं। ये लोग केवल भीख मांगने और सामान बेचने का काम ही नहीं करते बल्कि कई ग़लत काम भी करते हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं। इस पूरे परिदृष्य में भीख देने वाले दानी व धर्मात्मा लोग तथा यहाँ पर सामान ख़रीदनेवाले लोग भी कम दोषी नहीं हैं। दिल्ली शहर व इसके बाशिंदों की सेहत के लिए प्रदूषण के इस दुष्चक्र को तोड़ना अनिवार्य है।      कुल मिलाकर इन्होंने और इनको यहाँ बसाने व क़ब्ज़ा करवाने में मदद करने वाले लोगों ने दिल्ली की हवा को प्रदूषित करने और दिल्ली की ख़ूबसूरत सड़कों व चैराहों को नरक बनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। वास्तविकता तो ये है कि पूरे देश के भिखारी व नकारा लोग दिल्ली आकर यहाँ की सड़कों को अपना ठिकाना बनाने से बाज नहीं आते हैं लेकिन सरकार व प्रशासन को तो इनसे निपटने के लिए ठोस क़दम उठाने ही चाहिएँ ताकि दिल्ली ख़ूबसूरत न सही लोगों के रहने लायक तो बनी रहे।

ग़लत होने पर भी जो साथ दे वह मित्र नहीं घोर शत्रु है

     कई लोग विशेष रूप से किशोर और युवा फ्रेंडशिप डे का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। हर साल उसे नए ढंग से मनाने का प्रयास करते हैं ताकि वो एक यादगार अवसर बन जाए। क्यों मनाया जाता है फ्रेंडशिप डे? फ्रेंडशिप वास्तव में क्या है अथवा होनी चाहिए इस पर कम ही सोचते हैं। क्या फ्रेंडशिप-बैंड बाँधने मात्र से फ्रेंडशिप अथवा मित्रता का निर्वाह संभव है? क्या एक साथ बैठकर खा-पी लेने अथवा मटरगश्ती कर लेने का नाम ही फ्रेंडशिप है? क्या फ्रेंडशिप सेलिब्रेट करने की चीज़ है? फ्रेंडशिप अथवा मित्रता का जो रूप आज दिखलाई पड़ रहा है वास्तविक मित्रता उससे भिन्न चीज़ है। फ्रेंडशिप अथवा मित्रता सेलिब्रेट करने की नहीं निभाने की चीज़ है। फ्रेंडशिप अथवा मित्रता एक धर्म है और धर्म का पालन किया जाता है प्रदर्शन नहीं। ग़लत होने पर भी जो साथ दे वह मित्र नहीं घोर शत्रु  है गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं: धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपत काल परखिएहु चारि। धैर्य, धर्म और नारी अर्थात् पत्नी के साथ-साथ मित्र की परीक्षा भी आपत काल अथवा विषम परिस्थितियों में ही होती है। ठीक भी है जो संकट के समय काम आए वही सच्चा मित्र। पुरानी मित्रता है लेकिन संकट के समय मुँह फेर लिया तो कैसी मित्रता? ऐसे स्वार्थी मित्रों से राम बचाए। यहाँ तक तो कुछ ठीक है लेकिन आपत काल अथवा विषम परिस्थितियों की सही समीक्षा भी ज़रूरी है।      हमारे सभी प्रकार के साहित्य और धर्मग्रंथों में मित्रता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। सच्चे मित्र के लक्षण बताने के साथ-साथ मित्र के कत्र्तव्यों का भी वर्णन किया गया है। रामायण, महाभारत से लेकर रामचरितमानस व अन्य आधुनिक ग्रंथों में सभी जगह मित्रता के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। उर्दू शायरी में तो दोस्ती ही नहीं दुश्मनी पर भी ख़ूब लिखा गया है और दुश्मनी पर लिखने के बहाने दोस्ती के नाम पर धोखाधड़ी करने वालों की जमकर ख़बर ली गई है। मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ एक बेहद दोस्तपरस्त इंसान थे पर हालात से बेज़ार होकर ही वो ये लिखने पर मजबूर हुए होंगे: यह फ़ितना आदमी की  ख़ानावीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमाँ क्यों हो।      एक पुस्तक में एक बाॅक्स में मोटे-मोटे शब्दों में मित्र विषयक एक विचार छपा देखा, ‘‘सच्चे आदमी का तो सभी साथ देते हैं। मित्र वह है जो ग़लत होने पर भी साथ दे।’’ क्या यहाँ पर मित्र से कुछ अधिक अपेक्षा नहीं की जा रही है? मेरे विचार से अधिक ही नहीं ग़लत अपेक्षा की जा रही है। ग़लत होने पर साथ दे वह कैसा मित्र? ग़लती होने पर उसे दूर करवाना और दोबारा ग़लती न हो इस प्रकार का प्रयत्न करना तो ठीक है पर किसी के भी ग़लत होने पर उसका साथ देना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। हम दोस्ती में ग़लत फेवर की अपेक्षा करते हैं। कई बार दोस्ती की ही जाती है किसी ख़ास उद्देश्य के लिए। ऐसी दोस्ती दोस्ती नहीं व्यापार है। घिनौना समझौता है। स्वार्थपरता है। कुछ भी है पर दोस्ती नहीं। इस्माईल मेरठी फ़र्माते हैं: दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए, वो तिजारत है दोस्ती  ही  नहीं।      ऐसा नहीं है कि अच्छे मित्रों का अस्तित्व ही नहीं है लेकिन समाज में मित्रता के नाम पर ज़्यादातर समान विचारधारा वाले लोगों का आपसी गठबंधन ही अधिक दिखलाई पड़ता है। अब ये समान विचारधारा वाले लोग अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। अब यदि ये समान विचारधारा वाले लोग अच्छे हैं तो उनकी मित्रता से समाज को लाभ ही होगा हानि नहीं लेकिन यदि समान विचारधारा वाले ये लोग अच्छे नहीं हैं तो उनकी मित्रता से समाज में अव्यवस्था अथवा अराजकता ही फैलेगी।       मेरे अंदर कुछ कमियाँ हैं, कुछ दुर्बलताएँ हैं और सामने वाले किसी अन्य व्यक्ति में भी ठीक उसी तरह की कमियाँ और दुर्बलताएँ हैं तो दोस्ती होते देर नहीं लगती। ऐसे लोग एक दूसरे की कमियों और दुर्बलताओं को जस्टीफाई कर मित्रता का बंधन सुदृढ़ करते रहते हैं। व्याभिचारी व चरित्रहीन लोगों की दोस्ती का ही परिणाम है जो आज देश में सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ इस क़दर बढ़ रही हैं। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले दरिंदे आपस में गहरे दोस्त ही तो होते हैं।      किसी भी कार्यालय, संगठन अथवा संस्थान में गुटबंदी का आधार प्रायः दोस्ती ही तो होता है न कि कोई सिद्धांत जो उस संगठन अथवा संस्थान को बर्बाद करके रख देता है। सत्ता का सुख भोगने के लिए कट्टर दुश्मन तक हाथ मिला लेते हैं और मिलकर भोलीभाली निरीह जनता का ख़ून चूसते रहते हैं। हर ग़लत-सही काम में एक दूसरे का साथ देते हैं, समर्थन और सहायता करते हैं। क्या दोस्ती है! इसी दोस्ती की बदौलत देश को खोखला कर डालते हैं।       एक प्रश्न उठता है कि सिर्फ़ दोस्त की ही मदद क्यों?  हर ज़रूरतमंद की मदद की जानी चाहिए और इस प्रकार से जिन संबंधों का विकास होगा वही उत्तम प्रकार की अथवा उत्कृष्ट मित्रता होगी। एक बात और और वो ये कि जब हम किसी से मित्रता करते हैं तो उस मित्र के विरोधियों को अपना विरोधी और उसके शत्रुओं को अपना शत्रु मान बैठते हैं और बिना पर्याप्त वजह के भी मित्र के पक्ष में होकर उनसे उलझते रहते हैं चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न हों। ये तो कोई मित्रता का सही निर्वाह नहीं हुआ। मित्र ही नहीं विरोधी की भी सही बात का समर्थन और शत्रु ही नहीं मित्र की ग़लत बात का विरोध होना चाहिए। उर्दू के प्रसिद्ध शायर ‘आतिश’ कहते हैं: मंज़िले-हस्ती में  दुश्मन को भी अपना दोस्त कर, रात हो जाए तो दिखलावें  तुझे  दुश्मन  चिराग़।      और यह तभी संभव है जब हमारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी अथवा शत्रु भी कोई सही बात कहे या करे तो उसकी हमारे मन से स्वीकृति हो। ऐसा करके हम शत्रुता को ही हमेशा के लिए अलविदा करके नई दोस्ती का निर्माण कर सकते हैं। जहाँ तक मित्र की मदद करने की बात है अवश्य कीजिए। दोस्त के लिए जान क़ुर्बान कर दीजिए लेकिन तभी जब दोस्त सत्य के मार्ग पर अडिग हो, ग़लत बात से समझौता करने को तैयार न … Read more

धन उपार्जन और आपका विवेक – सोंच समझ कर खर्च करें

पंकज“प्रखर” पिछले दिनों अमीरी को इज्जत का माध्यम माना जाता रहा है। इज्जत पाना हर मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इसलिये प्रचलित मान्यताओं के अनुसार हर मनुष्य अमीरी का इच्छुक रहता है, ताकि उसे दूसरे लोग बड़ा आदमी समझें और इज्जत करें। अमीरी सीधे रास्ते नहीं आ सकती। उसके लिए टेड़े रास्ते अपनाने पड़ते हैं। हर समाज और देश की अर्थ व्यवस्था एक स्तर होता है। उत्पादन, श्रम और क्षमता के आधार पर दौलत बढ़ती है। देश में वैसे साधन न हों तो सर्वसाधारण के गुजारे भर के लिए ही मिल सकता है। अपने देश की स्थिति आज ऐसी ही है, जिसमें किसी प्रकार निर्वाह चलता रहे तो पर्याप्त है। औसत देशवासी की परिस्थिति से अपने को मिलाकर काम चलाऊ आजीविका से सन्तोष करना चाहिये। हम सब एक तरह का जीवन जीते हैं और ईर्ष्या, असन्तोष का अवसर नहीं आने देते इतना ही सोचना पर्याप्त है। अमीरी की ललक पैदा करना सीधा मार्ग छोड़कर टेढ़ा अपनाने का कदम बढ़ाना है। पिछले दिनों अनैतिक मार्ग अपनाने वाले-अमीरों इकट्ठी कर लेने वाले इज्जत आबरू वाले बड़े आदमी माने जाते रहे होंगे। पर अब वे दिन लद चुके। अब समझदारी बढ़ रही है। दौलत अब बेइज्जती की निशानी बनती चली जा रही है। लोग सोचते हैं, यह आधे मार्ग अपनाने वाला आदमी है। यदि सीधे मार्ग से कमाता है तो भी ईमानदारी का लोभ है कि देश-वासियों ने औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोक मंगल के लिए लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता, बढ़ी हुई कमाई को ऐयाशों में बड़प्पन के अहंकारी प्रदर्शन में खर्च किया जाता है अथवा बेटे-पोतों के लिए जोड़ा जमा किया जाता है तो ऐसा कर्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जाएगा अमीरी अब निस्सन्देह एवं निष्ठुर वर्ग माना जाएगा हमें सन्देह है कि अमीरी अब पचास वर्ष भी जीवित रह सकेगी। विवेकशीलता उसे छोड़ने के लिए बाध्य करेंगी अन्यथा कानून विद्रोह उसका अन्त कर देगा। अटूट बंधन अमीरी इकट्ठी तो कोई बिरले ही कर पाते हैं पर उसकी नकल बनाने वाले विदूषक हर जगह भरे पड़े हैं। चूँकि अमीरी इज्जत का प्रतीक बनी हुई थी, इसलिए इज्जत पाने के लिये अमीरी इकट्ठी करनी चाहिये और यदि वह न मिले तो कम से कम उसका ढोंग ही बना लेना चाहिये, यह बात नासमझ वर्ग में धर कर गई है और वह इस नकलची मन पर बेतरह अपने आपको बर्बाद करता और अर्थ संकट के दल-दल में धँसता चला जाता है। लोग सोचते हैं कि हम अपना ठाठ-बाठ अमीरों जैसा बना लें तो दूसरे यह समझेंगे कि यह अमीर और बड़ा आदमी है और चटपट उसकी इज्जत करने लगेंगे, इसी नासमझी के शिकार असंख्य ऐसे व्यक्ति, जिनकी आर्थिक स्थिति सामान्य जीवन यापन के भी उपयुक्त नहीं, अमीरी का ठाठ-बाठ बनायें फिरते हैं। कपड़े जेवर, फर्नीचर, सुसज्जा आदि को प्रदर्शनात्मक बनाने में इतना खर्च करते रहते हैं कि उनकी आर्थिक कमर ही टूट जाती है। दोस्तों के सामने अपनी अमीरी का पाखण्ड प्रदर्शित करने के लिए पान-सिगरेट सिनेमा, होटल आदि के खर्च बढ़ाते हैं और उसमें उन्हें भी शामिल करते हैं ताकि उन पर अपनी अमीरी का रौब बैठ जाय और इज्जत मिलने लगे। कैसी झाड़ी समझ है यह और कैसा फूहड़ तरीका है। कोई समझदार व्यक्ति उस नासमझी पर हँस ही सकता है। पर असंख्य लोग इसी बहम में फँसे फिजूल खर्ची और फैशन में पैसा उड़ाते रहते हैं और अपनी आर्थिक स्थिरता को खोखली करते चलते हैं। मामूली आमदनी के लोग जब अपनी स्त्रियों के बक्से कीमती साड़ियों से भरते हैं और जेवरों में धन गँवाते हैं, तब उसके पीछे यही ओछापन काम करता है कि ऐसी सजी-धजी हमारी औरत को देखकर हमें अमीर मानेंगे। पुरुष साड़ी, जेवर तो नहीं पहनते पर सूट-बूट घड़ी, छड़ी उनकी भी कीमती होती है, ताकि मित्रों के आगे बढ़-चढ़कर शेखी मार सकें। विवाह-शादियों के वक्त यह ओछापन हद दर्जे तक पहुँच जाता है। स्त्रियाँ ऐसे कपड़े लटकाये फिरती हैं, जैसे सिनेमा, नाटक के नट लोग पहनते हैं। बारातियों का औघड़पन देखते ही बनता है। ऐसा ठाठ-बाठ बनाते हैं मानों कोई बड़े मिल मालिक, जागीरदार अफसर अथवा सेठ-साहूकार हों। जानने वाले जब जानते हैं कि जरा-सी आमदनी वाला यह ढोंग बनाये फिरता है तो हर कोई असलियत समझ जाता है और दो ही अनुमान लगाता है या तो यह कर्जदार रहता होगा या बेईमानी से कमाता होगा। यह दोनों ही बातें बेइज्जती की हैं। सोचा यह गया था कि ठाठ-बाठ वाले बाबू को गैर सरकारी नौकरी नहीं मिलती। मालिक जानता है, इतना वेतन तो ठाठ-बाठ में ही उड़ जाएगा, फिर बच्चों को खिलाने के लिए इस हमारे यहाँ चोरी का जाल फैलाना पड़ेगा। सच का हौसला फेसबुक पेज यही बात स्त्रियाँ के सम्बन्ध में है। बहुत फैशन बनाने वाली महिलायें दो छाप छोड़कर जाती हैं या तो इनके घर में अनुचित पैसा आता है अथवा इनका चरित्र एवं स्वभाव ओछा है। यह दोनों ही लाँछन किसी कुलीन महिला की इज्जत बढ़ाते नहीं घटाते हैं।घर परिवार में यह सज-धज की प्रवृत्ति मनोमालिन्य पैदा करती है। अपव्यय हर किसी को बुरा लगता है। जो पैसा परिवार के शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, विनोद, पौष्टिक आहार आदि में लग सकता था, उसे फैशन में खर्च किया जाने लगे तो प्रत्यक्षतः परिवार के अन्य सदस्यों की सुख का अपहरण है। ठाठ-बाठ की कोई बाहर से प्रशंसा कर दे किसी को कुछ समय के लिये भ्रम में डाल दे यह हो सकता है पर साथियों में घृणा और ईर्ष्या ही पैदा होगी, वहाँ इज्जत बढ़ेगी नहीं घटेगी। बढ़े चढ़े खर्चों की पूर्ति के लिए अवांछनीय मार्ग ही अपनाने पड़ेंगे। कर्जदार और निष्ठुर जीवन जीना पड़ेगा। आमदनी सही भी है तो भी उसे व्यक्तिगत व्यय में सामाजिक स्तर के अनुरूप ही खर्च करना चाहिये। अधिक खर्च लोक-मुगल का हक मारना है। अच्छा हो हम समझदारी और सज्जनता से भरा हुआ, सादगी का जीवन जिये अपनी बाह्य सुसज्जा वाले खर्च को तुरन्त घटा दें और उस बचत से अपनी-अपने परिवार की तथा समाज की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने में लगाने लगें। सादगी सज्जनता का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका देश विन्यास सादगी पूर्ण है, उसे अधिक प्रामाणिक एवं विश्वस्त माना जा सकता है। जो जितना ही उद्दीपन दिखायेगा, समझदारों की दृष्टि में उतना ही इज्जत गिरा लेगा। इसलिये उचित यही है … Read more

शिवराज सिंह चौहान यानी मंदसौर का जनरल डायर

– रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। जी हाँ! किसानो का पेट और सीना चाक करती वे पुलिसिया गोली,गुलाम हिन्दुस्तान की उस ब्रिटिश गोली से ज्यादा जघन्य और पाशविक लगी,जब जनरल डायर जैसे शैतान ने अपनी नर्क जैसी जुबान से फायर कहा था। हूबहू वही दृश्य मंदसौर मे दृश्यावलोकित हो रहे थे और साफ दिख रहा था कि हमारे-आजाद हिन्दुस्तान की पुलिस जबरिया एक उस आंदोलन और किसान की माँग को कुचल रही थी जिसका”आधे से अधिक जीवन तो अपने खेत की मेड़ो और उसकी उन दाड़ो पे ही बीत जाता है जिसके मध्य उसकी फसले जवान होती है”। सारे मौसम के दर्द की किताब के यही जीवित पात्र है,जो कारो और ऐसी मे सफर करते आज के नेता अपनी लफ्फाज़ी मात्र से कुछ क्षणो मे, इनकी भावना का ठीक उसी तरह कत्ल या हत्या करते है जैसे कभी—-“मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पुस की रात’ के हल्कू की तैयार फसल को सारी रात मे चट कर जाते एक छुट्टा पशु ने की” “आज की युग के शिवराज सिंह चौहान भी वही शाहुकार है,जिनकी संवेदना अपने मंदसौर के किसी हल्कू जैसे किसान के साथ नही” देशकाल,समय सब कुछ बदलता गया लेकिन बेचारे किसान का अधमरापन वैसे ही बदस्तूर जारी है। किसान कर्जमाफी वाली वे मोदी जी की जनसभा-अच्छे दिन आयेंगे,ये छप्पन इंच की छाती,भाईयो एवं बहनो का तीन साल मे ये अच्छा दिन मंदसौर के उन गोली खाये किसानो के परिवार पे कैसा बीता है,कैसे यहा के किसानो तक आये है,अच्छे दिन स्पष्ट है। “मंदसौर का हर दृश्य जलियावालाबाग की तरह लग रहा था,किसान भाग रहे थे,एक दुसरे पे गिर-पड़ रहे थे,ज़मीन रक्तसिंचित हो रही थी,इस ज़मीन सिचने वाली कौम का बेरहमी से सरकारी नरसंहार किया जा रहा था,चारो-तरफ हाहाकार के दृश्य थे”। जिसे मै मंदसौर भर लिख मै इस घटना को बौना नही कर सकता,जब तलक किसान को उसकी जायज मांग को न्याय नही मिल जाता तब तलक मै मध्य-प्रदेश जैसे वृहद राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उस अंग्रेज जनरल डायर से ज्यादा क्रुर और गुनहगार लिखुँगा जिसने हमारे देश के हजारो देशभक्तो के सीने पे गोली चलवाई थी। जिस प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया यानी देश के चौथे सशक्त स्तंभ को इस देश के आखिरी शख्स की आवाज़ कहा और लिखा जाता है उनकी लेखनी गणेश शंकर विद्यार्थी के भावो के हृदय धूल की कण मात्र भी नही अगर होते तो मंदसौर के किसान कि वे छ लाश इस हुकूमते हिंद को पेशोपेश मे ला देती। हमारे इस पुरे देश को अन्न,फल,सब्ज़ी आदि उगाकर हमारे इस पेट की क्षुधा को मिटाने और शांत करने वाले किसान को गोली भी मारी गई तो उसकी पेट पे,इससे बड़ी किसी भी कालखंड या शासन समय की पाशविकता क्या होगी ?। गौर करिये तो किसान पुरे देश मे यत्र,तत्र,सर्वत्र आपको मरता दिखाई देगा “पुरे चार,छ महिने वे अपनी फसल को बेटे या बेटी की तरह पालने के बाद जब वे अपने इसी तैयार फसल को मंडी ले जाता है तो उसके उस तैयार फसल की किमत—-अभी कुछ दिनो पहले बिके उस प्याज़ और टमाटर सी हो जाती है अर्थात एक से देढ़ रुपये किलो इससे बेहुदा मज़ाक आखिर उस किसान के साथ क्या होगा जो कि न श्रम की किमत पा रहा और न ही अपने उस फसल की लागत निकाल पा रहा बल्कि उसकी फसलो के बाजारु दलाल उसी को आठ से दस रुपये मे बेच कुछ ही घंटो मे हजारो कमा रहे,आखिर उस किसान का घर,परिवार उनके बेटे,बेटियो की शिक्षा दिक्षा और शहर के वे पढ़े लिखे महंगे कातिल डाक्टर जिसकी सीढ़ियाँ चढ़ते किसान काँपता है,जीवन का ये भयावहपन ऊपर से कर्ज़ न भर पाने का दर्द इस तरह के हालात का मारा किसान आत्महत्या करने जैसा निर्णय लेता है तो उसकी इस आत्महत्या को मै आत्महत्या नही बल्कि वहाँ की सरकार का कत्ल लिखता हूँ”। कहते थे या सुना है कि ब्रिटानिया हुकूमत का सूर्य कभी अस्त नही होता था और उसका सारा संचालन लंदन से होता था,आज मंदसौर भी उसी ब्रिटानिया शासन की तरह लग रहा है और शिवराज़ सिंह चौहान का निर्णय एक पथराये संवेदनहीन अंग्रेज शासक की तरह का लग रहा,जिसका सारा संचालन लंदन तो नही लेकिन हा हमारे देश के लंदन की हैसियत रखते दिल्ली से हो रहा। किसानो की इस हत्या और आंदोलन के आग की चिंगारी अगर समय रहते न थमी तो ये और उग्र व विकराल होगा!शायद सल्तनते दिल्ली कि वे तख्ते ताउस और मयूर सिंहासन ही उलट जाये जिसपे सगर्व हमारी मतदान की उम्मिदो के प्रधानमंत्री मोदी जी बैठे है। बहुत उम्मीद है इस मुल्क के आवाम का और उससे कही ज्यादा यहाँ की जम्मूरियत को दुनिया तक रही है।मै एक रचनाकार और लेखक होने के नाते सच लिखने और उसे बया करने से डरता नही”क्योंकि कलम की आग और रोशनाई आज भी उतनी ही पाक और पवित्र है जितनी की पहले थी इसके सच लिखने के अक्षरो से अब भी गणेश शंकर विद्यार्थी की साँस आती है” “कलम अगर चाटुकार हो जाये तो वे लेखक व उसके सारे लेख उस दो टके की धंधा करने वाली वेश्या से ज्यादा गलिज और गंदे हो जायेंगे” अकबर इलहाबादी साहब की ये दो लाइन आज भी प्रासंगिक है—– कि जहाँ तोप न तलवार मुकाबिल हो, वहाँ एक छोटा ही सही तुम अखबार निकालो”। आज केवल ये हालात मंदसौर के ही नही अपितु कमोबेश इस देश के हर राज्य के किसानो के साथ है। ये किसान किसी पुलिसिया गोली के हकदार नही क्योंकि—“ये देश अथवा राज्य के इनामिया अपराधी,माफिया,उग्रवादी या नक्सली नही जिनका इतने नग्न और जघन्य तरिके से उन्मूलन किया जाये”। बेशक शिवराज सिंह चौहान को मंदसौर का जनरल डायर जैसा कड़ा शब्द लिख मै किसान की आंतरिक पीड़ा और उसके उस आंदोलन का समर्थन करता हूं,जो सदियो से किसान हर आते-जाते सरकार से माँग रही है।मैने इस सरकार की अच्छाईयो का खुलेकंठ तारीफ और प्रशंसा भी की है। ये लिखते भी मै झिझका नही कि एक लंबे अंतराल और कालखंड के बाद इस अरबो की जनसंख्या के इस देश ने एक सशक्त और दृढ़निश्चई प्रधानमंत्री का चयन या चुनाव किया है!लेकिन इसके इतर मेरी कलम हर उस सरकार को जनरल डायर कहती है जिसके कालखंड या समय मे मेरे देश के किसान … Read more

आत्महत्या – किसी समस्या का समाधान नहीं

अभी हाल ही में श्री – श्री रवि शंकर ने आध्यात्म की कमी को आत्महत्या का कारण बताया है | यह  वक्तव्य उन्होंने चाहे जिस सन्दर्भ में दिया हो पर इससे इस विषय पर वाद विवाद जरूर आरम्भ हो गया है की  लोग आत्महत्या क्यों करते हैं ?  अपने जीवन को स्वयं समाप्त कर देना आसन नहीं है | फिर भी लोग ऐसा निर्णय लेते हैं उसके पीछे बहुत सारी मानसिक वजहें रहती हैं | आत्महत्या किसी भी कारण से की जाए वो है बहुत दुखद और उससे भी ज्यादा दुखद है की उनके पीछे छूटने वाले उनके प्रियजन जीवन भर  उसे न बचा सकने के अपराध बोध व् उसने ऐसा क्यों किया के प्रश्न के साथ जीते हैं | मनोविशेषज्ञों की माने तो आत्महत्या के पीछे ६ मुख्य कारण होते हैं |  1) उसमें पहला कारण अवसाद होता है | जहाँ यह लगने लगे अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता | तब सारी आशाएं टूट जाती हैं | कुछ भी अच्छा न लगने से शुरू हुआ अवसाद जब इस सीमा पर पहुँच जाए की मेरे बिना मेरे अपनों का जीवन ज्यादा बेहतर होगा | तब व्यक्ति अपने को अपने के दुःख का अपराधी मानने लगता है | ऐसे व्यक्ति बार – बार अपने आस – पास वालों से आत्महत्या से सम्बंधित अपने विचारों को बताते हैं , जिन्हें लोग नज़र अंदाज कर देते हैं | एक ६ साल की बच्ची ट्रेन के आगे कूद गयी | उसने अपने नोट में लिखा – वो अपनि माँ के साथ रहना चाहती है जो उसे छोड़ कर भगवान् के पास चली गयी है | अवसाद केवल निराश लोगों को ही नहीं बल्कि अपनी मोनोटोनस जिंदगी से ऊबे लोगों को भी हो जाता है | मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भी अवसाद का शिकार रह चुकी हैं | उनके चलाये हुए कैम्पेन में कई मशहूर हस्तियों ने स्वीकार किया की वो जीवन में कभी न कभी अवसाद का शिकार रह चुके हैं | क्योंकि अवसाद  का इलाज़ है | इसलिए जरूरी है की लोग अपने आस – पास नज़र रखे की कहीं कोई उनका परिचित चुपके – चुपके आत्महत्या की योजना तो नहीं बना रहा है |  २) दूसरा प्रमुख कारण मनोरोग होते हैं जिसमें Schizophrenia प्रमुख है | इनको पहचानना और भी मुश्किल है | क्योंकि ये कभी नहीं कहते की अंदर ही अंदर इनके मन में खुद को मारने के ख्याल हावी हो रहे है | और उसका शोर इतना तेज़ है की इन्हें बाहर की हंसी – ख़ुशी की कोई आवाजें सुनाई ही नहीं दे रहीं हैं | हालांकि ये 1 % ही होते हैं परन्तु इनकी आत्मघाती प्रवत्ति बहुत ज्यादा होती है | इसका भी इलाज़ है |” अपने को खत्म कर लो “की आवाजे जो इन्हें अपने अंदर सुनाई देती है जिसे वो दोस्तों परिचितों से छुपाये रहते हैं इलाज़ के दौरान स्वीकार कर लेते हैं | हालांकि अगर रोग बढ़ गया है तो Schizophrenics तो इन्हें अस्पताल में भारती करना पड़ता है | यह तब तक होता है , जब तक उन्हें ये शोर सुनाई देना बंद न हो जाए |  ३ ) ये आवेगशील होते हैं | ये निराने किसी इम्पल्स के अंतर्गत लिया जाता है | बाहर से शांत नज़र आने वाले ये व्यक्ति अपने जीवन के किसी वाकये से बेहद शर्म  महसूस कर रहे होते हैं | जब पश्चाताप बढ़ जाता है तो ये ये घातक  कदम उठा लेते हैं  | माता – पिता के डांटने से बच्चों द्वारा की गयी आत्महत्या इसी श्रेणी में आती है | इम्पल्सिव होने के बावजूद अगर कोई ऐसा कदम उठाने का प्रयास करता है तो वो बार – बार ऐसा कदम उठाएगा ये नहीं कहा जा सकता | यहाँ दवाइयों व् अस्पताल के स्थान पर कारण को दूर करने का प्रयास करना चाहिए |  4 ) आत्महत्या कई बार दूसरों को अपनी आशांति से अवगत काराने के लिए उठाया गया कदम भी होती है | ये लोग वास्तव में मरना नहीं चाहते हैं | बस चाहते हैं की दूसरा उनकी बात या तकलीफ को समझे | इस कारण ये आत्मघाती कदम उठाते हैं | कई बार ये खुद भी नहीं जानते की इससे इनकी मृत्यु भी हो सकती है | उन्हें विश्वास होता है की अगला उन्हें बचा लेगा | जैसे एक पति – पत्नी के झगड़े में पति ने कई  की गोलियां खायी , तैश में पत्नी ने भी बची हुई गोलियां खा लीं | मृत्यु नहीं हुई पर गोलियों के साइड इफ़ेक्ट से दोनों की मांसपेशियां अकड  गयी व् दोनों कई दिन तक बेड रिडेन हो गए | दोनों ने स्वीकार किया की उनका उदेश्य मात्र अपनी तकलीफ समझाना था | इन परिस्तिथियों को रोक पाना मुश्किल है | यहाँ स्वविवेक ही काम आता है |कई बार यह तात्कालिक निर्णय भी होता है | केवल कुछ समय टलने से आत्महत्या का विचार हट सकता है |   5) आत्महत्या के कई बार दार्शनिक कारण भी होते है | जहाँ वो व्यक्ति जो टर्मिनल बिमारी से जूझ रहे हों , मृत्यु को चुनते है | न उन्हें अवसाद होता है , न मनोरोग न वो हेल्प के लिए चिल्लाते हैं | उन्हें पता होता है की उनकी बीमारी का कोई इलाज़ नहीं है | अपनी शारीरिक समस्याओं का समाधान उन्हें केवल मृत्यु में दिखाई देता है , जो धीरे – धीरे उनकी और बढ़ रही होती है बस वो उसकी गति तवरित करना चाहते हैं | विदेशों में अस्पतालों में ऐसे टर्मीनली इल लोगों के लिए काउंसलर’स होते हैं | जो उन्हें जीवन क्ले आखिरी दिनों को शांति के साथ जीने में मदद करते हैं | हमारे यहाँ अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है |  ६) उन्होंने कोई अक्षम्य गलती कर ली हो | ऐसा ज्यादातर युवा वर्ग की आत्महत्याओं में देखने को मिलता है | ऐसी ही एक स्त्री नियाग्रा फाल के पास रेलिंग पर चढ़ गयी | लोग उसको बचने के स्थान पर इस रोमांचक दृश्य को कैमरे में कैद करनेमें लग गए | जब तक पुलिस की गाडी आती उसकी जीवन लीला समाप्त हो चुकी थी | यहाँ शिक्षा , परिजनों का साथ व् वातावरण बदलाव बहुत काम आता है |                            आत्महत्या … Read more

इंटरनेट के द्वारा वैश्विक स्तर पर सामाजिक परिवर्तन का जज्बा उभरा है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक             आज हम इंटरनेट तथा सैटेलाइट जैसे आधुनिक संचार माध्यमों से लैस हैं। संचार तकनीक ने वैश्विक समाज के गठन में अहम भूमिका अदा की है। हम समझते हैं कि मानव इतिहास में यह एक अहम घटना है। हम एक बेहद दिलचस्प युग में जी रहे हैं। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं। पिछले कुछ साल से विभिन्न देशों की दर्दनाक घटनाएं इंटरनेट के जरिये दुनिया के सामने आ रही हैं। इनसे एक बात तो तय हो गई कि चाहे हम दुनिया के किसी भी कोने में हों, हम सब एक ही समुदाय का हिस्सा हैं। इंटरनेट ने मानव समुदाय के बीच मौजूद अदृश्य बंधनों को खोल दिया है। दरअसल हम सबके बीच धर्म, नस्ल और राष्ट्र से बढ़कर आगे भी कोई वैश्विक रिश्ता है और वह रिश्ता नैतिक भावना पर आधारित है। यह नैतिक भावना न केवल हमें दूसरों का दर्द समझने, बल्कि उसे दूर करने की भी प्रेरणा देती है। यह भावना हमें प्रेरित करती है कि अगर दुनिया के किसी कोने में अत्याचार और जुल्म हो रहा है, तो हम सब उसके खिलाफ खड़े हों और जरूरतमंदों की मदद करें।             आज हम पलक झपकते दुनिया भर के लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं। हमारा संवाद बेहद आसान हुआ है। दुनिया भर की जानकारियाँ हमारी पहुँच में हैं। हमें इन संचार माध्यमों का इस्तेमाल मानवीय भलाई के लिए करना होगा। हमारे लिए ऐसे लोगों को बारे में जानना और समझना आसान हुआ है, जिनसे हम कभी नहीं मिले। हमारे पास संवाद के ऐसे माध्यम उपलब्ध हैं, जिनकी मदद से हम घर बैठे दुनिया भर के लोगों की आपस में मानव जाति की भलाई के लिए संगठित कर सकते हैं। हम आपसी सहयोग से अहम मसलों पर संयुक्त प्रयास कर सकते हैं। आज से सौ साल पहले यह मुमकिन नहीं था। संकल्प शक्ति : आदमी सोंच तोले उसका इरादा क्या है             हम एक विलक्षण युग में जी रहे हैं। आज से दो सौ साल पहले की घटना को याद कीजिए, जब ब्रिटेन में गुलामों के व्यापार को लेकर जबर्दस्त विरोध-प्रदर्शन हुए थे। उस आंदोलन को जनता का पूरा समर्थन मिला था, लेकिन ऐसा होने में 24 साल का लंबा वक्त लगा। काश! उस जमाने में उनके पास आज की तरह ही आधुनिक संचार माध्यम होते। लेकिन पिछले एक दर्शक में बहुत कुछ बदला है। वर्ष 2011 में फिलीपींस में करीब दस लाख लोगों ने वहां की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ मोबाइल पर संदेश भेजकर विरोध किया और सरकार को जाना पड़ा। इसी तरह जिम्बाॅब्वे में चुनाव के दौरान वहां की सत्ता के लिए धांधली करना मुश्किल हो गया, क्योंकि जनता के हाथ में मोबाइल फोन था, जिसकी मदद से वे मतदान केंद्रों की तस्वीरें लेकर कहीं भी भेज सकते थे। बर्मा के लोगों ने ब्लाॅगों के जरिये दुनिया को अपने देश के हालात से अवगत कराया। तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की सत्ता आंग सान सू की की आवाज को दबा नहीं पाई।             समस्याओं के हल के लिए सिर्फ संस्थाएं बनाने से बात नहीं बनेगी। हमें लोगों के व्यवहार और सोच को बदलना होगा। हमें देशों के बीच जिम्मेदारी और नैतिकता का भाव जगाना होगा। हमें अमीर और गरीब देशों के बीच स्वस्थ साझेदारी विकसित करनी होगी। हमें देखना होगा कि गरीब देशों के कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़े, ताकि उनकी अर्थव्यवस्था सुधर सके, ताकि अफ्रीका जैसे देश हमेशा के लिए अनाज के आयातक बनकर न रह जाएं। कृषि की स्थिति सुधरे, ताकि अफ्रीका भी अनाज का निर्यात कर सके। दुनिया के कई देश मानवाधिकार हनन की त्रासदी से जूझ रहे हैं, हमें इस दिशा में पहल करनी होगी। हम आधुनिक सूचना व संवाद के साधनों से लैस हैं। हमें यह अवसर नहीं खोना चाहिए। हमें एकजुट होकर इन समस्याओं के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। साहसी महिलाएं हर क्षेत्र में बदलाव की मिसाल कायम कर रही हैं             हमारा मानता है कि आधुनिक तकनीक ने हमें वैश्विक रूप से एकजुट होने की ताकत प्रदान की है। यह पहला अवसर है, जब आम लोगों को दुनिया को बदलने की ताकत मिली है। अब चंद शक्तिशाली लोग मनमाने ढंग से अपने देश की नीति तय नहीं कर सकते। नीतितय करते समय उन्हें लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा, जो इंटरनेट के जरिये बाकी दुनिया से जुडे़ हैं। समय के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला है। दो सौ साल पहले हमारे सामने दासता से छुटकारा पाने का मुद्दा था, 150 साल पहले ब्रिटेन जैसे देश में बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने जैसा मुद्दा छाया था, सौ साल पहले यूरोप के ज्यादातर देशों में राइट टू वोट का मुद्दा गूंज रहा था। पचास साल पहले सामाजिक सुरक्षा व कल्याण का मुद्दा गरम था। पिछले पचास-साठ वर्षों के दौरान हमारा सामना नस्लवाद और लिंगभेद जैसी समस्याओं से हुआ।             आज का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा शरणार्थियों की बढ़ती संख्या है। साथ ही गुणात्मक शिक्षा एवं सारे विश्व की एक न्यायपूर्ण तथा युद्धरहित विश्व व्यवस्था बनाने का है। संयुक्त राष्ट्र संघ को लोकतांत्रिक विश्व संसद का रूप प्रदान करके यह साकार किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए सभी देशों के सहमति विश्व सरकार, प्रभावशाली विश्व न्यायालय तथा गुणात्मक शिक्षा आज की आवश्यकता है। इन मद्दों पर अभियान वे लोग चला रहे है, जिनके अंदर दुनिया को बदलने का जज्बा है। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं।