अंधेर नगरी , चौपट ———–

डॉ मधु त्रिवेदी       सोन चिड़िया कहलाने वाला मेरा देश भारत समय -समय पर आक्रमणकारियों के द्वारा लूटा जाता । हमारी विवश्ता कि हम अपने को लुटवाते रहे । महमूद गजनवी से लेकर मुगल सल्तनत के नष्ट होने तक भारत की अपार सम्पदा , धरोहर एवं संस्कृति को लूटा जाता रहा ।           रामकृष्ण , विश्वामित्र , वशिष्ठ , अपाला गार्गी आदि विद्वतजनों की यह भूमि , यदि वर्तमान पर दृष्टिपात करे, तो ‘अंधेर नगरी के सिवा कुछ और नजर नही आती । स्वार्थ लिप्सा में लिप्त हम किसी के मान सम्मान की हत्या करने में जरा भी चूक नहीं करते है , मान – सम्मान को छोड़ इंसान की भी हत्या कर देते हैमहत्वाकांक्षा की पूर्ति में उतावले हम उस अंधे धृतराष्ट्र तथा आप उस दुर्योधन की  की भाँति है है जो पूरे कुल का विनाशक है ।           हर युगीन परिस्थितियाँ बदलती है जिस समय भारतेन्दु के इस नाटक की रचना हुई तब से आज तक परिस्थितियों में अन्तर आया है । अंधेर नगरी तो हर युग में मौजूद रही , बस उसका स्वरूप बदला है । भ्रष्टाचार , सत्ता की जड़ता , अन्याय पर आधारित व्यवस्था जो किसी मूल्य की नहीं है । यह तो हर युग की विशेषता रही है । जिस राज्य में विवेक – अविवेक का भेद  नहीं होता उस राज्य में प्रजा कैसे सुखी रह सकती है ? क्योंकि भ्रष्टाचार व्यवस्था की आत्मा में गहराई से समाया हुआ है और बड़े – बड़े चोर सरेआम घूमते रहते है ।                   महत्वाकांक्षा की पूर्ति मेंआमादा हम उस शिष्य की के सदृश है जो भारतेन्दु के नाटक ” अंधेर नगरी ” में अपने गुरू को छोड़ अय्याशी जीवन व्यतीत करने के लिए अंधेर नगरी रूक जाता है । जहाँ पर हर चीज का भाव ‘ टका सेर ‘ पाता है । टका सेर से मेरा आशय वोटों को बटोरने की राजनीति की आड़ में एवं वर्गगत समानता की आड़ में सत्तापक्ष द्वारा चली गयी कूटनीतिचालों से है , ये कूटनीतिक चालें आरक्षण एवं सामाजिक समानता के नाम पर लोगों से छल कर रही है ।                    “रिश्वत की संस्कृति ” सरकारी और गैर सरकारी महकमे में पूरे प्रभाव के साथ जीवित है जो घोटालों का ही सुधरा रूप है कहीं भी किसी भी डिपार्टमेंट में छोटे से छोटा , बड़े से बडा काम बिना रिश्वत नही होता । सत्ता में कोई भी आये , सभी जनता का खून चूसते है जनता को इन्तजार रहता है कि कोई उद्वारक आयेगा और युगों से चली आ रही व्यवस्था में सुधार होगा । जिसके कर्मों से कुशासन रूपी अंधा राजा फाँसी पर लटकेगा ।और सुशासन रूपी चेला (शिष्य ) दूसरे शब्दों में जनता या देशवासियों को मुक्ति मिलेगी ।                      यहीं हालात न्यायलयों की है “जिसकी लाठी , उसकी भैंस “। न्याय उसी को मिलेगा जिसकी लाठी में दम है । काफी लम्बी प्रक्रिया के बाद अपराधी साफ बच जाता है निर्दोष को ही सजा मिलती है और गरीब तारीख पर तारीख लेते – लेते या तो मर जाता है या सुसाइड कर लेता है ।                    ‘अंधेर नगरी की ” यहीं प्रासंगिकता है कि दुनियाँ के किसी भी देश की बदलती शासन की परम्परा का लम्बा इतिहास “अंधेर नगरी ” से स्वत: जुड़ जाता है । “अंधेर नगरी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रजातंन्त्र की घोर असफलताओं और व्यवस्थाओं के पतन का प्रतीक है । Attachments area

“अवसर” खोजें,पहचाने और लाभ उठायें

लेखक :- पंकज “प्रखर” कोटा , राज. अवसर का लाभ उठाना एक कला है एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन में बहुत मेहनत करता है लेकिन उसे अपने परिश्रम का शत-प्रतिशत लाभ नही मिल पाता और एक व्यक्ति ऐसा जो कम मेहनत में ज्यादा सफलता प्राप्त कर लेता है  इन दोनों व्यक्तियों में अंतर केवल अवसर को पहचानने और उसका भरपूर लाभ उठाने भर का होता है प्राय: आपने देखा होगा की अपने वर्तमान से अधिकाँश मनुष्य संतुष्ट नहीं होते हैं। जो वस्तु अपने अधिकार में होती है उसका महत्व, उसका मूल्य हमारी दृष्टि में अधिक नहीं दीखता। वर्तमान अपने हाथ में जो होता। अपने गत जीवन की असफलताओं का भी रोना वे यही कह कर रोया करते हैं कि हमें भगवान या भाग्य ने अच्छे अवसर ही नहीं दिए अन्यथा हम भी जीवन में सफल होते। ऐसा कहना उनकी अज्ञानता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जिनसे वह लाभ उठा सकता है। पर कुछ लोग अच्छे और उचित अवसर को पहिचानने में ही अक्षम्य होते हैं। ठीक अवसर को भलीभांति पहचानना तथा उससे उचित लाभ उठाना जिन्हें आता है जीवन में सफल वे ही होते हैं। पर यह भी सत्य है कि अच्छे अवसर प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक बार आते हैं। अब हम उन्हें न पहचान पावें या पहचानने पर भी उनसे उचित लाभ न उठा पावें तो यह हमारा अज्ञान है। एक पाश्चात्य विद्वान का कहना है “अवसर के सर के आगे वाले भाग में बाल होते हैं, सर के पीछे वह गंजा होता है। यदि तुम उसे सामने से पकड़ सको, उसके आगे बालों को, तब तो वह तुम्हारे अधिकार में आ जाता है,पर यदि वह किसी प्रकार बचकर निकल गया तो उसे पकड़ा नही जा सकता | आधुनिकता के दौर में संस्कृति से समझौता क्यों आपको अनेक ऐसे मनुष्य मिलेंगे जो बिना सोचे-समझे यह कह देते हैं कि फलाँ – फलाँ को जो जीवन में सफलतायें मिली वह इत्तफाक के कारण। घटनावश उनका भाग्य उनके ऊपर सदय हो गया और यह इत्तफाक है कि आज सफलता पाकर वे इतने बड़े हो सके। पर सच पूछा जाय तो इत्तफाक से प्रायः कुछ नहीं होता। संसार के समस्त कार्यों के पीछे कार्य – कारण-सम्बन्ध होता है। और यदि इत्तफाक से ही वास्तव में किसी को सुअवसर प्राप्त हो जाता है, तो भी हम न भूलें कि यह बात हमें ‘अपवाद’ के अंतर्गत रखनी चाहिए। एक विद्वान ने कहा है” जीवन में किसी बड़े फल की प्राप्ति के पीछे इत्तफाक का बहुत थोड़ा हाथ होता है।” अंधे के हाथ बटेर भी कभी लग सकती है। लेकिन सफलता प्राप्त करने का सर्वसाधारण और जाना पहिचाना मार्ग है केवल लगन, स्थिरता, परिश्रम, उद्देश्य के प्रति आस्था और समझदारी। मानिए एक चित्रकार एक चित्र बनाता है तो उसकी सुन्दरता के पीछे चित्रकार का वर्षों का ज्ञान, अनुभव, परिश्रम और अभ्यास है। इस चित्रकला में योग्यता पाने के लिए उसने बरसों आँखें फोड़ी हैं, दिमाग लगाया है तब उसके हाथ में इतनी कुशलता आ पाई है। उसने उन अवसरों को खोजा है जब वह प्रतिभावान चित्रकारों के संपर्क में आकर कुछ सीख सके। जो अवसर उसके सामने आये, उसने उन्हें व्यर्थ ही नहीं जाने दिया वरन् उन अवसरों से लाभ उठाने की बलवती इच्छा उसमें  थी और क्षमता भी। मनुष्यों की समझदारी तथा चीजों को देखने परखने की क्षमता में अन्तर होता है। एक मनुष्य किसी एक घटना या कार्य से बिल्कुल प्रभावित नहीं होता, उससे कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता, जब कि एक दूसरा मनुष्य उसी कार्य या घटना से बहुत कुछ सीखता और ग्रहण करता है। साधारण रूप से मनुष्य की बुद्धि तथा प्रवृत्ति तीन प्रकार की हो सकती है। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए एक प्रसंग याद आता है “एक नदी के तट पर तीन लड़के खेल रहे हैं। तीनों खेलने के बाद घर वापस आते हैं। आप एक से पूंछते हैं भाई तुमने वहाँ क्या देखा? वह कहता है ‘वहाँ देखा क्या, हम लोग वहाँ खेलते रहे बैठे रहे।’ ऐसे मनुष्यों की आँखें, कान, बुद्धि सब मंद रहती है। दूसरे लड़के से आप पूछते हैं कि तुमने क्या देखा तो वह कहता है कि ‘मैंने नदी की धारा, नाव, मल्लाह, नहाने वाले, तट के वृक्ष, बालू आदि देखी।’ निश्चय ही उसके बाह्य चक्षु खुले रहे, मस्तिष्क खुला रहा था। तीसरे लड़के से पूछने पर वह बताता है कि ‘मैं नदी को देखकर यह सोचता रहा कि अनन्त काल से इसका स्रोत ऐसा ही रहा है। इसके तट के पत्थर किसी समय में बड़ी-बड़ी शिलाएँ रही होंगी। सदियों के जल प्रवाह की ठोकरों ने इन्हें तोड़ा-मरोड़ा और चूर्ण किया है। प्रकृति कितनी सुन्दर है, रहस्यमयी है। तो फिर इनका निर्माता भगवान कितना महान होगा, आदि।’यह तीसरा बालक आध्यात्मिक प्रकृति का है। उसकी विचारधारा, अन्तर्मुखी है। ऐसे ही प्रकृति के लोग अवसरों को ठीक से पहचानने और उनसे काम लेने की पूरी क्षमता रखते है .सतत परिश्रम के फल स्वरूप ही सफलता मिलती है, इत्तफाक से नहीं जो भी अवसर उनके सामने आये उन्होंने दत्तचित्त हो उनसे लाभ उठाया। वैलेंटाइन डे : युवाओं का दिवालियापन यदि हम एक कक्षा के समस्त बालकों को समान अवसर दें, तो भी हम देखते हैं कि सभी बालक एक समान लाभ नहीं उठाते या उठा पाते। बाह्य सहायता या इत्तफाक का भी महत्व होता है पर हम अँग्रेजी कहावत न भूलें ‘भगवान उनकी ही सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करना जानते हैं।’अतः आलस्य और कुबुद्धि का त्याग कीजिये। अवसर खोइये मत। उन्हें खोजिये,पहचानिए और लाभ उठाइए । अनेक ऐसे आविष्कार हैं जिनके बारे में हम कह सकते हैं कि इत्तफाक से आविष्कर्त्ता को लक्ष्य प्राप्त हो गया पर यदि हम ईमानदारी से गहरे जाकर सोंचे तो स्पष्ट हो जायगा कि इत्तफाक से कुछ नहीं हुआ है। उन आविष्कर्त्ताओं ने कितना अपना समय, स्वास्थ्य, धन और बुद्धि खर्ची है आविष्कार करने के लिए। न्यूटन के पैरों के निकट इत्तफाक से वृक्ष से एक सेब टपक कर गिर पड़ा और न्यूटन ने उसी से गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ज्ञान कर लिया। पर न जाने कितनों के सामने ऐसे टूट-टूट कर सेब न गिरे होंगे। पर सभी क्यों नहीं न्यूटन की भी भाँति गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ज्ञात … Read more

” बहू बेटी की तरह होती है यह कथन सत्य है या असत्य “

डॉ मधु त्रिवेदी ———————————————————————-                बहू और बेटी ” में समानता और असमानता केवल सोच की है जो बेटी है वो किसी और घर की बहू बननी है और जो बहू है किसी के घर की बेटी है बस केवल अन्तर यह है कि एक जाती है नया संसार बसाने तो दूसरी बेटे का नया संसार बसाने आती है दोनों ही स्थितियों में वंश सरम्परा का बढ़ना सुनिश्चित है —–     “जीवन की राहे सुगम करनी है तो      प्यार , स्नेह , ममत्व उगाना होगा      पर – परायी भावना को छोड़ कर       सास -बहू को माँ -बेटी बनना होगा              बहुओं को बेटी बनाकर रखा जाए तो सासु और बहू के लिए जीवन सफर सरल तो होगा ही साथ ही घर के सभी लोग परस्पर नेह के बंधन में भी बँधे रहेगे । पोतियों का जन्म होने पर उनको महान बनाकर सर्वश्रेष्ठ एवं गौरवान्वित महसूस करो। बेटी किसी भी बात में कम नही है पुरुष के बराबर कदम से कदम मिला चल रही है । बेटी को सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत कर अच्छी बहू बनाया जा सकता है ।          प्राय: देखने में आता है कि लोग सोशल मीडिया जैसे  साइट्स  फेसबुक , वाट्सप्प , ट्वीटर आदि पर अपनी बेटियों, बहुओं और पोतियों के साथ फोटो डालकर एवं शेयर कर अपने अनुभव को साझा करते हैं इससे पारस्परिक सामजस्य तो बढता ही है साथ ही जीवन समरसता भी बनी रहती है । इसलिए सास का भी दायित्व बनता है कि बहू को बाहर से आयी न समझकर उसको परिवार में बेटी का दर्जा दें जिससे उसको नया परिवार न मान अपना ही घर मानकर चलें ।                 बदलते परिवेश में ऐसी फैमिलियाँ भी है जहाँ  सास और बहू मां-बेटी की तरह रहती हैं।  आपस में उनमें तू-तू,मैं-मैं नहीं होता ,बल्कि एक-दूसरे को समझती हैं चाहती हैं। यदि सुख और दुखों का साथ साथ बँटवारा करती हैं और एक-दूसरे का संबल और सहारा बनती हैं।  इक्कीसवीं सदी की सासु माँ प्राचीन सासु माँओ की तरह न होकर काफी सुलझी हुई है वो बहू पर बंधन नहीं लादती है आजादी प्रदान करती है इसका उदाहरण विवाहोपरान्त जब वे शिक्षा प्राप्त करती है तो अपने बच्चों को भी छोड़ जाती है ।          इसलिए यह तथ्य कि बहू  बेटी की तरह होती हैयह कथन सत्यता प्राप्त तभी कर सकता है जब एक छत के नीचे सास- बहू दोनों माँ बेटी का रिश्ता बना रह पायेगी ।

बुजुर्गों के दिल मे घर कर गई भावना :भावना का 17 वां वार्षिक महाधिवेशन संपन्न

लखनऊ -(संजीव कुमार शुक्ल) उत्तर प्रदेश में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण अधिनियम 2007 एवं उत्तर प्रदेश माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण नियमावली 2014 तथा उत्तर प्रदेश राज्य वरिष्ठ नागरिक नीति के प्राविधानों को एन केन प्रकारेण यथाशीघ्र पूर्णतः लागू कराने की भावना को लेकर ही भावना समिति ने अपना 17 वां वार्षिक महाधिवेशन राय उमा नाथ बली पे्रक्षागृह में संपन्न किया। इस अवसर पर भावना सदस्यों के साथ साथ वरिष्ठ नागरिकों की तथा उनका ही चिंतन करने वाली कई अन्य संस्थाओं के पदाधिकारी भी उपस्थित थे। महाधिवेशन में इन ज्वलंत मुद्दों  पर विचार किया गया कि वर्तमान समय में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या देश में कुल आबादी की 10प्रतिशत  है जो वर्ष 2050 तक बढ़कर 22 प्रतिशत हो जाएगी अर्थात प्रत्येक 4 में एक व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक होगा 70 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिक अनपढ़ है  तथा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं 70 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिक ग्रामों में रहते हैं 66प्रतिशत  इतने गरीब है की खाने की दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती अनपढ़ होने के कारण इनको जीवकोपर्जन  हेतु शारीरिक श्रम पर  निर्भर होना पड़ता है।        भावना समिति में 14 प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किए तथा यह निर्णय लिया गया कि वरिष्ठ नागरिकों की तथा उनका हित चिंतन करने वाली संस्थाओं के सहयोग से प्रदेश के हर नगर एवं ग्राम में बिना जाति धर्म लिंग आदि का भेद  किए वरिष्ठ नागरिकों को जागरूक करने का प्रयास किया जाएगा ताकि वे इन सुविधाओं से वंचित ना रहे जो शासन से उन्हें पहले से ही अनुमन्य हैं तथा उन सुविधाओं की वह साधिकार मांग कर सके जो उन्हें मिलनी चाहिए भावना द्वारा निर्धन एवं असहाय जनों के हित में चलाए जा रहे विभिन्न सेवा प्रकल्प यथावत जारी रखने का निर्णय भी इस बैठक में लिया गया तदानुसार समिति द्वारा प्रायोजित एवं वित्त पोषित शिक्षा सहायता योजना का लाभ आगामी शिक्षा सत्र में कक्षा आठ तथा नीचे की कक्षाओं में पढ़ रहे सब गरीब मेधावी बच्चों को 12 सौ रुपए की दर से उपलब्ध कराया जाएगा आगामी सत्र  में लखनऊ जनपद तथा निकटवर्ती अन्य जनपदों के नगरीय  तथा ग्रामीण इलाकों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर निर्धन जन सेवा शिविर आयोजित करके कम से कम 800 निर्धन परिवारों को प्रति परिवार एक एक नया कम्बल  प्रदान किया जाएगा तथा कम से कम 2000 निर्धन  महिलाओं बच्चों को पहने  बिछाने के सूती कपड़े बर्तन आदि दिए जाएंगे कुछ ऐसे अनाथ बच्चों को जीवन यापन हेतु आवश्यकता वाली वस्तु दी जायेगी। अधिवेशन के उद्घाटन सत्र में भावना के वयोवृध्द सदस्यों माननीय डॉक्टर जगदीश गांधी  जिन्होने जीवन पर्यन्त समाज सेवा की और अपने संसथान से वह ज्ञान की गंगा प्रवाहित की जो समाज को  संस्कार मे बनाए इसके अलावा श्रीमती उमा शशि मिश्र ,श्री बैजनाथ कक्कड़,श्री कृष्णपाल निगम त्रिलोकीनाथ सिंह तथा श्री राम किशोर पांडे को पुरस्कृत कर उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया इस अवसर पर भावना प्रकाशन के प्रधान  संपादक श्री अमरनाथ की नव रचित पुस्तक खरी-खोटी का लोकार्पण भी हुआ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि उत्तर प्रदेश के पूर्व चीफ महानिदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री महेश चंद्र द्विवेदी थे उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि उसने यह देख कर प्रसन्नता हो रही है की भावना अपने सदस्यों के माध्यम से समाज सेवा कर रही है सभा को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायधीश न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ हेल्पेज इंडिया के निदेशक श्री अशोक कुमार सिंह ने भी संबोधित किया इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत करते हुए भावना के अध्यक्ष श्री विनोद कुमार शुक्ल ने भारत में वर्तमान समय में हो रही वरिष्ठ नागरिकों की दुर्दशा पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए कहा की भावना आंदोलन उनकी दशा सुधारने की दिशा में प्रयास रत है  प्रमुख महासचिव श्री राम लाल गुप्ता ने भावना द्वारा प्रत्येक वर्ष में किए गए जब हितकारी कार्यों का संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत कर भविष्य की योजनाएं बताई कार्यक्रम के अंत में वरिष्ठ उपाध्यक्ष श्री सुशील कुमार सक्सेना ने सभी को धंयवाद दिया कार्यक्रम का संचालन साहित्यकार श्री देवकीनंदन शांत द्वारा किया गया। इस अवसर पर तेज ज्ञान फाउन्डेशन, पुणे द्वारा साहित्य पुस्तकों का एक स्टाल भी लगाया गया था जो लोगो के आकर्षण का केंद्रबिंदु बना रहा |

उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से ओमकार मणि त्रिपाठी की विशेष बातचीत

उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से विशेष साक्षात्कार पदों का संक्षिप्त ब्यौरा महासचिव- स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया (1963.64) अध्यक्ष-अखिलभारतीय सिख छात्र संघ (1968 .1972) व पंजाबी भलाई मंच प्रचार सचिव-शिरोमणि अकाली दल (1975.77. 1980 .82) महासचिव-शिरोमणि अकाली दल (1985.87) नेता शिरोमणि अकाली दल ग्रुप-आठवीं लोकसभा केन्द्रीय मंत्री-समाज कल्याण विभाग (1996-98) राजनीतिक सफर बलवंत सिंह रामूवालिया का जन्म 15 मार्च, 1942 को पंजाब के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता श्री करनैल सिंह पारस एक सुविख्यात कवि थे। पिता से विरासत में मिला भावुक हृदय बचपन से ही लोगों के दुःख-दर्द को देखकर व्यथित हो जाता। गरीब, बेसहारा और बेबस लोगों के लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए, ये बात उन्हें हर पल बेचैन करती और इसके लिए उन्होंने राजनीति का वो मार्ग चुना, जो त्याग और सेवा के रास्ते पर चलता है। श्री रामूवालिया ने अपने राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत अपने छात्र जीवन में ही कर दी थी। 1963 में उन्हें स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया का महासचिव चुना गया। तत्पश्चात वे अखिल भारतीय सिख छात्र संघ में सम्मिलित हुए और 1968 से 1972 तक उसके अध्यक्ष रहे। बाद में उन्होंने अकाली दल की सदस्यता ग्रहण की और दो बार फरीदकोट व संगरूर से सांसद चुने गये। अकाली दल छोड़ने के पश्चात 1996 में वह राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए व केन्द्रीय मंत्री बने। उन्होंने ”लोक भलाई पार्टी“ नामक अपनी एक पार्टी भी बनायी थी, जिसका 2011 में अकाली दल में विलय हो गया। वर्तमान में वे उत्तरप्रदेश सरकार में जेल मंत्री हैं। विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक स्वभाव से वे मितभाषी और मृदुभाषी हैं, लेकिन जब बात मानवाधिकारों की आती है, तो वे काफी मुखर हो जाते हैं। समाज के शोषित-वंचित तबके की वेदना और आम आदमी की व्यथा उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। राजनीति के शुष्क धरातल पर एक लम्बे सफर के बावजूद उनके विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक साफ दिखाई देती है। सत्ता को वे साध्य नहीं, बल्कि एक ऐसा साधन मानते हैं, जिसके माध्यम से समाज के उत्थान को नए आयाम दिए जा सकते हैं। जी हां! हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया की, जिन्हें पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है और पदभार संभालने के बाद से वे लगातार जेल सुधार और बंदीगृहों में मानवाधिकारों का उल्लंघन रोकने के लिए प्रयासरत हैं। हाल ही में ‘अटूट बंधन’ के प्रधान संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी ने श्री रामूवालिया से उनके आवास पर विशेष मुलाकात करके विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर उनका मन टटोलने की कोशिश की। साक्षात्कार के दौरान श्री रामूवालिया ने पूछे गए हर सवाल के जवाब में बड़े ही बेबाक ढंग से अपनी राय स्पष्ट की। सहज एवं सरल जीवनशैली उनके व्यक्तित्व के हर पहलू में प्रतिबिंबित होती है। 74 वर्षीय श्री रामूवालिया इससे पहले पंजाब व केन्द्र सरकार में भी कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर चुके हैं। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश। उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? मेरा स्पष्ट मानना है कि सत्ता किसी के भी हाथ में हो, सरकार किसी की भी हो, लेकिन न्याय का शासन होना चाहिए। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को आम लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। सत्ता की चैखट पर कमजोर से कमजोर व्यक्ति को भी इंसाफ मिलना चाहिए। कारागार मंत्री के रूप में मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता यही है कि जेलों में किसी भी कीमत पर कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन न होने दिया जाए। जो लोग विभिन्न कारागारों में बंद हैं, वे भी इसी देश के ही नागरिक हैं। जेल में बंद किसी भी कैदी के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं होना चाहिए, जिसे अमानवीय या अमानुषिक कहा जा सके। पदभार संभालने के बाद से मैं लगातार जेल व्यवस्था में सुधार के लिए प्रयासरत हूँ। आपको पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है। उत्तर प्रदेश आपको कैसा लगा? उत्तर प्रदेश की जो बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी, वह है ज्यादातर लोगों में सामाजिक व सांप्रदायिक सद्भाव की भावना। यहां सिख समुदाय के लोगों और हिन्दुओं में जो भाईचारा देखने को मिलता है, वह काफी काबिले तारीफ है। आपकी नजर में इस समय समाज की प्रमुख समस्याएं क्या हैं और उनके समाधान किस तरह तलाशे जा सकते हैं। हमारा समाज वैसे तो कई समस्याओं का सामना कर रहा है, लेकिन दहेज व्यवस्था अभी भी हमारे समाज के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है। दूध में आप जितनी शक्कर डालोगे, दूध उतना ही मीठा हो जाएगा, लेकिन शादी में आप जितना दहेज डालोगे, शादी उतनी ही कड़वी हो जाएगी। शादी-ब्याह खुशी के माध्यम बनने चाहिए, लेकिन दहेज की वजह से कई शादियां झगड़े की पतीली का रूप धारण कर ले रही हैं। बात सिर्फ दहेज तक ही सीमित नहीं है, शादियों में बेतहाशा खर्च की बढ़ती प्रवृत्ति भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। आज लगभग हर समुदाय की 95 प्रतिशत शादियों में यही देखने को मिलता है कि क्षमता से अधिक खर्च किया जा रहा है। कहीं-कहीं लड़के वालों की तरफ से लड़की वालों पर पंचसितारा होटलों में शादी समारोह आयोजित करने के लिए दबाव तक डाला जाता है। इस तरह की खर्चीली शादियां किसी के भी हित में नहीं हैं। यह धन की बर्बादी तो है ही, साथ ही संबंधों की बर्बादी भी है। फिजूलखर्ची और आडंबर की बुनियाद पर अच्छे रिश्तों की इमारत नहीं खड़ी की जा सकती। आजकल सहिष्णुता-असहिष्णुता को लेकर देश में बहुत चर्चा हो रही है। इस संबंध में आपकी क्या राय है? यह मुल्क सहिष्णु मुल्क है। भारतीय संस्कृति विविधता पर आधारित है। समन्वय तथा सामंजस्य भारतीय समाज की विशेषता है, लेकिन कुछ लोग सिर्फ अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो देश और समाज के हित में नहीं है। इससे विघटनकारी और विभाजनकारी तत्वों को बढ़ावा मिलता है। अनेकता में एकता हमारी खासियत है, इसलिए हमें उन मुद्दों को तवज्जो नहीं देनी चाहिए, जिनसे पारस्परिक विश्वास और सद्भाव बिगड़ता हो। देशभक्ति भी आजकल राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है? इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे? यह देशभक्ति का मुद्दा सिर्फ वोट बटोरने के लिए उछाला … Read more

निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर आता है वसंत

जनवरी की कडकडाती सर्दी फरवरी में धीरे-धीरे गुलाबी होने लगती है.इसी महीने में ऋतुराज वसंत का आगमन होता है और वासंती हवा जैसे ही तन-मन को स्पर्श करती है,तो समस्त मानवता शीत की ठिठुरी चादर छोड़कर हर्षोल्लास मनाने लगतीहै,क्योंकि जिस तरह से यौवन मानव जीवन का वसंत है,उसी तरह से वसंत इस सृष्टि का यौवन है,इसीलिये वसंत ऋतु का आगमन होते ही प्रकृति सोलह कलाओ में खिल उठती है. पौराणिक कथाओ में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है. शायद इसीलिये रूप और सौन्दर्य के देवता कामदेव के पुत्र का स्वागत करने के लिए प्रकृति झूम उठती है.पेड़ उसके लिए नवपल्लव का पालना डालते हैं,फूल वस्त्र पहनाते हैं,पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनकर बहलाती है.   वसंत ऋतु निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर भी आती है.पतझड़ में वृक्षों के पत्तो का गिरना और सृष्टि का पुन नवपल्लवित होकर फिर से निखर जाना निराशा से घिरे हुए मानव को यह सन्देश देता है कि इसी तरह वह भीअपने जीवन में से दुःख और अवसाद के पत्तो को झाड़कर फिर से नवसृजन कर सकता है.जिन्दगी का हर पतझड़ यह इंगित करता है कि पतझड़ के बाद फिर से नए पत्ते आयेंगे,फिर से फल लगेंगे और सुखो की बगिया फिर से लहलहा उठेगी.  फरवरी का दूसरा सप्ताह आते-आते वेलेंटाइन डे का शोर भी मच जाता है.वेलेंटाइन डे के पक्ष-विपक्ष में तर्कों-दलीलों का संग्राम सा छिड़ जाता है.युवाओ का एक वर्ग इसे अपनी आजादी से जोड़कर देखता है,तो वही समाज का एक वर्ग इसे भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात मानता है.कोई इसे आधुनिक संस्कृति कहता है,तो कोई पाश्चात्य विकृति.कुल मिलाकर  भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य संस्कृति,लेकिन फरवरी माह प्रेमोत्सव से जुड़ा हुआ है. प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि इसे पूरी तरह से परिभाषित कर पाना किसी के लिए भी मुश्किल है,लेकिन दुर्भाग्य से मशीनीकरण और बाजारवाद के आज के इस दौर में प्रेम शब्द की व्यापकता धीरे-धीरे संकीर्ण होकर सिमटती जा रही है. महान दार्शनिक ओशो के अनुसार आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं: उसका शरीर विज्ञान, उसका शरीर, उसका मनोविज्ञान, उसका मन और उसका अंतरतम या शाश्वत आत्मा। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है लेकिन उसकीगुणवत्ताएं अलग होंगी। प्रेम जब सिर्फ शरीर  के तल पर होता है,तो वह प्रेम नहीं महज कामुकता होती है,लेकिन आजकल ज्यादातर इसी दैहिक आकर्षण को ही प्रेम समझा जा रहा है,जिसकी वजह से प्रेम शब्द अपना मूल अर्थ खोता जा रहाहै.प्रेम की वास्तविक परिभाषा उसके मूल स्वरुप पर चर्चा के लिए ही हमने अटूट बंधन का फरवरी अंक प्रेम विशेषांक के रूप में निकालने का निर्णय लिया है.पत्रिका के लिए यह गौरव का विषय है कि अपने तीसरे पड़ाव पर ही पत्रिका का जनवरी अंक देश के प्रमुख महानगरो के 56 बुकस्टालों पर पहुँच गया और फरवरी अंक लगभग 100 से ज्यादा बुकस्टालों पर उपलब्ध रहने की उम्मीद है.हमें पूरी उम्मीद है कि पहले के तीन अंको की तरह ही इस अंक को भी आप सबका अपार स्नेह और आशीर्वाद मिलेगा. ओमकार मणि त्रिपाठी  यह भी पढ़ें …. निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत अपरिभाषित है प्रेम प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर आता  है वसंत ” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

धर्म तथा विज्ञान का समन्वय इस युग की आवश्यकता है!

– प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’,  शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक             हमारे मन में प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर है तो संसार में इतना अज्ञान, मारा-मारी, असमानता तथा दुःख क्यों है? क्या समाज को नियंत्रण में रखने के लिए कुछ विचारशील लोगों ने ईश्वर की अवधारणा को अपनी कल्पना द्वारा जन्म दिया है? जैसे बच्चों को प्रायः डराने के लिए मां कहती है कि जल्दी सो जाओ नहीं तो शैतान आकर तुम्हें उठा ले जायेगा। बालक भोला-भाला होता है वह मां की बात सच मानकर शैतान के डर से सो जाता है। इसी प्रकार अतीतकाल में गुफाओं से बाहर आकर कुछ बुद्धिमान लोगों ने कुछ कम बुद्धिमान लोगों को शिक्षा दी होगी कि बुरे काम करने से पाप होता है तथा अच्छे काम करने से पुण्य मिलता है। मानव की समझ के अनुसार प्रेरणादायी कथाओं तथा मूर्तियों-प्रतिमाओं के रूप में ईश्वर की पूजा के प्रचलन को बढ़ाया गया होगा। ऐसे बुद्धिमान लोगों की इसके पीछे लोक कल्याण की भावना रही होगी। इसी के बाद जाति के भेदभाव, रंग-भेद, अमीर-गरीब जैसी सामाजिक तथा धार्मिक कुरीतियों के युग की शुरूआत हुई होगी।             इस अन्याय को देखकर कृष्ण की प्रखर प्रज्ञा व्याकुल हो उठी होगी। संसार में फैले अन्याय को रोकने तथा न्याय की स्थापना के लिए उस युग में न्यायालय के अभाव में उन्हें अन्तिम विकल्प के रूप में महाभारत युद्ध की रचना करनी पड़ी होगी। किसी रोगी, वृद्ध, मृत्यु तथा धार्मिक पाखण्ड को देखकर सिद्धार्थ जैसे बालक की मानवीय संवेदना जागी होगी। सिद्धार्थ इस अज्ञान से मनुष्य को मुक्त कराने के लिए ज्ञान की खोज में निकल पड़े। वह वर्तमान तथा सत्य में ठहर गये और वह बुद्ध बन गये। बुद्ध ने सारे संसार को सन्देश दिया कि सभी मनुष्य एक समान है। इसी प्रकार ईशु ने अपना बलिदान देकर करूणा का सन्देश दिया। मोहम्मद ने आपस में एक दूसरे का खून बहाने वाले काबिलों को भाईचारे का सन्देश दिया। नानक ने स्वार्थ में लिप्त समाज को त्याग का सन्देश देकर उबारा। इसी प्रकार अनेक महापुरूषों ने संसार के अलग-अलग क्षेत्रों में लोगों की भलाई के लिए अपना जीवन लगा दिया।             मनुष्य की विचारशील तथा प्रगतिशील आस्था यह मानती है कि इस सारी सृष्टि को बनाने वाला एक परमपिता परमात्मा है। सभी धर्मों का स्त्रोत एक परमपिता परमात्मा है। इस सृष्टि की रचना परमपिता परमात्मा ने प्राणी मात्र के लिए की है। इसके विपरीत विज्ञान ऐसा नहीं मानता है। कभी एक वैज्ञानिक ने अपनी खोज के आधार पर कहा कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है उसके कुछ वर्षों बाद दूसरे वैज्ञानिक ने और गहराई से खोज करके दुनिया के सामने इस सत्य को उजागर किया कि नहीं पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। यह एक सत्य है कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है। वह निरन्तर ब्रह्माण्ड का किस प्रकार निर्माण हुआ इसकी खोज-अनुसन्धान में लगा हुआ है। विज्ञान में निरन्तर खोजों-अनुसन्धानों द्वारा विकास हुआ है। प्रगतिशील विचार होने के कारण विज्ञान सदैव पुरानी खोजों से निरन्तर आगे की ओर बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार धर्म को भी प्रगतिशील होना चाहिए उसे पुरानी परम्पराओं, मान्यताओं तथा अन्धविश्वासों में ही नहीं बंधे रहना चाहिए। धर्म तथा विज्ञान का समन्वय इस युग की आवश्यकता है। धर्म के मायने हैं धारण करना। अर्थात सामाजिक तथा धार्मिक गुणों को जीवन में धारण करना। जो जोड़े वह धर्म है तथा जो तोड़े वह अधर्म है। सत्य की निरन्तर स्वतंत्र खोज ही धर्म का परम उद्देश्य है। मेरा धर्म, तेरा धर्म तथा उसका धर्म की संकीर्ण सोच को अब त्यागने में ही मानव जाति का हित है। आज के युग में व्यापक सोच यह है कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है।             पूजा-पाठ, प्रेयर, सबद-कीर्तन, इबादत करते हुए ईमानदारी से अपना कार्य-व्यवसाय करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ श्रेणी में आता है। साथ ही जो व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को न मानते हुए अपने कार्य-व्यवसाय को यदि ईमानदारी के साथ करता है वह भी मनुष्यता की श्रेष्ठ श्रेणी में आता है। धर्म के नाम पर दूसरों की जान लेने वाले व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता। एक धर्म के व्यक्ति द्वारा दूसरे धर्म के व्यक्ति की जान लेना अमानवीय कृत्य है। ऐसे हिंसक व्यक्ति सामाजिकता, कानून-न्याय तथा व्यवस्था के विरोधी होते हैं। महात्मा गांधी से किसी व्यक्ति ने पूछा कि क्या ईश्वर का अस्तित्व है? इस प्रश्न के जवाब में महात्मा गांधी ने कहा कि ईश्वर है या नहीं है, इस बारे में मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता। लेकिन मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि सत्य ही ईश्वर है। नास्तिक व्यक्ति कुदरत अर्थात प्रकृति के नियमों का सम्मान करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है। भारतीय संविधान में आस्तिक तथा नास्तिक दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संविधान दोनों का बराबर से सम्मान करता है। इसलिए संविधान दोनों को अपने-अपने विचार के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।             मानव इतिहास में विश्व में राजनैतिक विचारधारा के कारण कम वरन् धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ तथा युद्ध हुए हैं। धर्म के नाम पर हम रोजाना जो भी घण्टों पूजा-पाठ करते हैं वे भगवान को याद करने के लिए कम भगवान को भुलाने के ज्यादा होते हैं। रामायण में लिखा है परहित सरिस धर्म नही भाई, परपीड़ा नहीं अधमाई। अर्थात दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा दूसरों का बुरा करने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, किताबे-अकदस में जो लिखा है उसकी गहराई में जाकर उसे जानना तथा उसके अनुसार अपना कार्य-व्यवसाय करना ही पूजा है। देश संविधान तथा कानून से चलता है इसके अनुसार जीवन यापन करना भी हमारा कर्तव्य है।         मानवीय गुण दया, करूणा, त्याग, प्रेम, एकता, मित्रता, समता, न्याय आदि सर्वभौमिक हंै। गुणात्मक शिक्षा के द्वारा हमें एक ऐसी जीवन शैली विकसित करनी है जो 21वीं सदी के वैश्विक युग में मानव जाति के लिए सर्वमान्य हो। भारत के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर के अनुसार देश-दुनिया में बढ़ती असहिष्णुता चिन्ता का विषय है। संविधान के अनुसार इंसान और भगवान के बीच रिश्ता बेहद निजी होता है, इससे किसी अन्य का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। उनका कहना था, ‘मेरा … Read more

विश्व कैंसर दिवस-ैंआवश्यकता है कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में साथ खड़े होने की

आज विश्व कैंसर दिवस है | आज मेडिकल साइंस के इतने विकास के बाद भी कैंसर एक ऐसे बिमारी है | जिसका नाम भी भयभीत करता है |परन्तु ये भी सच है की शुरूआती स्टेज में कैंसर का इलाज़ बहुत आसन है | यहाँ तक की स्टेज ३ और 4 के मरीजों को भी डॉक्टर्स ने पूरी तरह ठीक किया है | पर ये एक कठिन लड़ाई होती है जिसमें मरीज को बहुत हिम्मत व् हौसले की जरूरत होती है |सबसे पहले तो यह समझना होगा की कैंसर मात्र एक शब्द है ये कोई डेथ सेंटेंस नहीं है | world कैंसर डे इसी लिए मनाया जाता है | दरसल ये एक जागरूकता अभियान है | जिसके द्वारा कैंसर को शुरू में पहचानने , सही इलाज़ करने व् कैंसर के मरीजों के कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में उनके साथ खड़े होने की आवश्यकता पर बल दिया है | वैसे अलग – अलग प्रकार के कैंसर के लिए भी अलग – अलग डे या माह बनाए गए हैं | जैसे ब्रैस्ट कैंसर मंथ , प्रोस्टेट कैंसर मंथ , world लिम्फोमा अवेरनेस डे आदि , आदि | मकसद इस जानलेवा बिमारी के खिलाफ जागरूकता फैलाना व् मरीजों के साथ खड़े होना हैं | कैंसर के मरीजों के लिए बहुत जरूरी है की वो एक कम्युनिटी बनाए | जहाँ वह अपने लक्षणों , इलाज़ , दुःख व् तकलीफ को शेयर कर सकें | एक दूसरे की तकलीफ को बेहतर तरीके से महसूस कर पाने पर वो बेतर समानुभूति दे पाते हैं | जो मनोबल टूटते मरीज के लिए बहुत जरूरी है |विदेशों में ऐसे बहुत से समूह हैं पर हमारे देश में इनका अभाव है |छोटे शहरों और गाँवों में जहाँ अल्प शिक्षा के चलते लोग कैंसर के मरीजो से संक्र्मकता से डर कर दूरी बना लेते हैं , ख़ास कर जब की वो सरकोमा या नॉन हीलिंग वुंड के रूप में हो | जिसके कारण कैंसर का मरीज बेहद अकेला पं व् अवसाद का अनुभव करता है | जो कैंसर के खिलाफ उसकी लड़ाई को कमजोर करता है | एक बात और जो बहुत जरूरी है वो यह है की कैंसर के मरीजों के केयर गिवर का भी ख़ास ख़याल रखा जाए | क्योंकि अपने परियां की तकलीफ के वो भी पल – पल के साझी दार होते हैं और एक गहरे सदमे की अवस्था में जी रहे होते हैं | कैंसर का इलाज़ जो डॉक्टर करते हैं चाहे वो सर्जरी हो , कीमो हो , रडियो थेरेपी हो बहुत पीड़ादायक है , और इनके बहुत सारे साइड इफेक्ट्स होते हैं | परन्तु एक इलाज ऐसा भी है जो हम भी कर सकते हैं वो है उन्हें , संवेदना , प्यार दे कर , उनकी हिम्मत बढ़ाकर , उन्हें हौसला दे कर , ताकि वो अपनी कैंसर के खिलाफ लड़ाई आसानी से लड़ सकें |मेरे साथ आप भी कहिये कैंसर क्या नहीं कर सकता है ……कैंसर भवः नहीं वो इतना सीमित है कीये दोस्ती को नहीं मार सकताये प्रेम को नहीं कम कर सकताये उम्मीद को नहीं नष्ट कर सकताये विश्वास में जंग नहीं लगा सकताये हिम्मत को मौन नहीं कर सकताये यादों को कम नहीं कर सकताऔर मेटास्टेसिस के बावजूद ये आत्मा तक कभी नहीं पहुँच सकताये अब तक जी चुकी हुई जिंदगी को नहीं चुरा सकतासबसे महत्वपूर्ण ये आत्मशक्ति से तो बिलकुल भी नहीं जीत सकता वंदना बाजपेयी keywords:world cancer day, cancer, 

आधुनिकता के इस दौर में संस्कृति सेसमझौता क्यों

लेखक :- पंकज प्रखर आज एक बच्चे से लेकर 80 वर्ष का बुज़ुर्ग आधुनिकता की अंधी दौध में लगा हुआ है आज हम पश्चिमी हवाओं के झंझावत में फंसे हुए है |पश्चिमी देशो ने हमे बरगलाया है और हम इतने मुर्ख की उससे प्रभावित होकर इस दिशा की और भागे जा रहे है जिसका कोई अंत नही है |वास्तव में देखा जाए तो हमारा स्वयं  का कोई विवेक नही है हम जैसा देख लेते है वैसा ही बनने का प्रयत्नं करने लगते है निश्चित रूप से यह हमारी संस्कृति के ह्रास का समय है जिस तेज गति से पाश्चात्य संस्कृति का चलन बढ़ रहा है, उससे लगता है कि वह समय दूर नहीं, जब हम पाश्चात्य संस्‍कृति के गुलाम बन जायेंगे और अपनी पवित्र पावन भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जायेगी, गुमनामी के अंधेरों में खो जायेगी। आज मनोरंजन के नाप पर बुद्धू बॉक्स से केवल अश्लीलता और फूहड़पंन का ही प्रसारण हो रहा है हमें मनोरंजन के नाम पर क्या दिया जा रहा  है मारधाड़, खुन खराबा, पर फिल्माए गए दृश्य मनोरंजन के नाम पर मानवीय गुणों, भारतीय संस्कृति व कला का गला घोट रहे हैं।माना की आधुनिक होना आज के दौर की मांग हैं और शायद अनिवार्यता भी है, लेकिन यह कहना भी गलत ना होगा कि यह एक तरह का फैशन है। आज हर शख्स आधुनिक व मॉर्डन बनने के लिये हर तरह की कोशिश कर रहा है, मगर फैशन व आधुनिकता का वास्तविक अर्थ जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी, और है भी, तो उसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। क्या आधुनिकता हमारे कपड़ों, भाषा, हेयर स्टाइल एवं बाहरी व्यक्तित्व से ही संबंध रखती है? शायद नही। भारत वो देश है जहां पर मानव की पहचान उसके महंगे और सुंदर वस्त्र नही बल्कि उसके अदंर छुपे हुए नैतिक मूल्य है जो मानव के व्यवहार से प्रतिबिंबित होते है विवेकानंद जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये तो वहां के लोग उनकी भारतीय वेशभूषा को देख कर हास्य करने लगे कई लोगों ने मजाक बनाया बुरा भला कहा लेकिन जब उन्होंने धर्म सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त किये तो सारा जन समूह भारतीय संस्कृति के रंग में रंग गया विवेकानन्द ने अपने ज्ञान से विदेशियों के समक्ष अपना लोहा मनवा दिया | मैं आधुनिकता के विपक्ष में नही हूँ मैं समय के साथ बदलना आवश्यक मानता हूँ| लेकिन आधुनिकता का मतलब ये तो बिलकुल नही है की हम अपनी संस्कृति  के स्वयं भक्षक बन जाएँ | वास्तविक रूप में आधुनिकता तो एक सोच है, एक विचार है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरूक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखलाती है। सही मायने में सही समय पर, सही मौके पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षक व् सभ्य परिधान से सजाना, सही भाषा का प्रयोग तथा समय पर सोच-समझकर फैसले लेने की क्षमता, समझदारी और आत्मविश्वास का मिला-जुला रूप ही आधुनिकता है। लकिन आधुनिकता के नाम पर हो कुछ और रहा है  आज हमारी वेशभूषा से लेकर सोच तक सारी पश्चिम के रंग में रंगी हुई है || हम इतने आधुनिक हो गए की व्यक्ति को व्यक्ति से बात करने की फुर्सत नही है सब काम ऑनलाइन है सब व्यस्त है किसी के पास समय नही है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो सब व्यस्त नही है बल्कि तृस्त है आज तकनीक को हम नही बल्कि तकनीक हमे स्तेमाल कर रही है | सुबह उठते ही सबसे पहले  मोबाइल पर हाथ जाता है की किस –किस के और कितने मेसेज आये ,फेसबुक पर कितने लाइक आये | आदमी पहले सुबह उठकर ईश्वर का नाम लेता था अपनी दैनिक – चर्या से निवृत्त हो फिर वो अपने कामकाज में लगता था परिवार के साथ माता-पिता के पास बैठता था आज हमे अपने बच्चों से बात करने का माता-पिता के पास बैठने का ही समय नही है आज भीढ़ में भी आदमी अकेलेपं का अनुभव करता है | आज युवा इससे ज्यादा तृस्त है वो युवा जो आने वाले समय में इस देश की दिशा धारा निर्धारित करने वाले है | वेशभुषा हमारी निहायती फूहड़ और भद्दी हो गयी बिगडती हुई भाषा शैली और अस्त व्यस्त जीवन शैली से युवा तृस्त है | अपने बच्चो को छोटे-छोटे कपड़े पहनाने में भी हमें अब गर्व का अनुभव होने लगा है सलवार कुर्ते की जगह अब मिनी स्कर्ट और टॉप ने ले लिया लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ समाज का वातावरण दूषित हुआ हाँ ये बात पक्की है मेरे इस विचार को पढकर कई तथाकथित सामाजिक लोग मुझे पिछड़ी और छोटी सोच का व्यक्ति आंकेगे | जिसका मुझे कोई रंज नही है लकिन ये वास्तविकता है | एक बहुत सोचनीय स्थिति बनी हुई है और वो ये की हमारे बच्चे हमारी  और आप की आधुनिक शैली अपनाने की वजह से समय से पहले बड़े हो रहे | बचपन में दादा-दादियों द्वारा हमें अच्छी-अच्छी कहानिया सुनाई जाती थीं। कहते हैं कि जब बच्चा छोटा होता है तो उसका दिमाग बिलकुल शून्य होता है। आप उसको जिस प्रकार के संस्कार व शिक्षा देंगे उसी राह पर वह आगे बढ़ता है। अगर वाल्यकाल में बच्चों को यह शिक्षा दी जाती है कि चोरी करना बुरी बात है तो वह चोरी जैसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा। छोटी अवस्था में बच्चों को संस्कारित करने में माता-पिता, दादा-दादी व बुजुर्गो का बड़ा हाथ होता था। कहानियां भी प्रेरणादायी होती थीं। – कही ऐसा ना हो की अंधी आधुनिकता और स्वयं की मह्त्व्कंषा की वजह से हमारा सारा कुछ समय से पहले ही लूट जाये और हमारे सामने रोने के सिवा कुछ ना बचे देश में आधुनिकता के नाम पर एक अंधी दौड़ जारी है| आम इंसान आधुनिकता की इस दौड़ में अंधा व भ्रमित हो गया है, उसे यही समझ में नहीं आ पा रहा कि आधुनिकता के नाम पर कंपनियाँ आम इंसान को किस प्रकार गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने की फिराक में लगी हुई हैं|

आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी0वी0 और सिनेमा?

– डा0 जगदीश गांधी, प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं संस्थापक–प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) आज हमारे नन्हें–मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है?:-                 वर्तमान समय मंे परिवार शब्द का अर्थ केवल हम दो हमारे दो तक ही सीमित हुआ जान पड़ता हैं। परिवार में दादी–दादी, ताऊ–ताई, चाचा–चाची, आदि जैसे शब्दों को उपयोग अब केवल पुराने समय की कहानियों को सुनाने के लिए ही किया जाता है। अब दादी और नानी के द्वारा कहानियाँ सुनाने की घटना पुराने समय की बात जान पड़ती है। अब बच्चे टी0वी, डी0वी0डी0, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि के साथ बड़े हो रहे हैं। परिवार में बच्चों को जो संस्कार पहले उनके दादा–दादी,  माँ–बाप तथा परिवार के अन्य बड़ेे सदस्यों के माध्यम से उन्हें मिल रहे थे, वे संस्कार अब उन्हें टी0वी0 और सिनेमा के माध्यम से मिल रहे हैं। (2) घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है:-                 आज हमने अपने घरों में रंगीन केबिल टी0वी0 के रूप में बच्चों के लिए एक हेड मास्टर नियुक्त कर लिया है। बाल तथा युवा पीढ़ी इस हेड मास्टर रूपी बक्से से अच्छी बातों की तुलना में बुरी बातें ज्यादा सीख रहे हैं। टी0वी0 की पहुँच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गयी है। यह बड़ी ही सोचनीय एवं खतरनाक स्थिति है। दिन–प्रतिदिन टी0वी0 के माध्यम से फ्री सेक्स, हिंसा, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं। बाल एवं युवा पीढ़ी फ्री सेक्स, लूटपाट, बलात्कार, हत्या तथा आत्महत्या करने वाले समाचारों से सीख रही है। (3) युवक ने टी0वी0 देखने में खलल पड़ने पर उठाया हिंसक कदम:-                      हैवानियत की सारी हदें पार कर कानपुर के श्यामनगर के भगवंत टटिया इलाके मंे हुई हिंसक वारदात में एक युवक ने सिर्फ इसलिए अपनी बहन और दो मासूम भान्जियों के गले रेत दिए क्योंकि उसके टी0वी0 देखने में खलल पड़ रही थी। इस युवक को अपने किए पर पछतावा भी नहीं है। इस हिंसक वारदात में माँ माया और बहन सुनीता के काम पर जाने के बाद जब बच्चे रोए तो अनीता ने टीवी देख रहे भाई सुनील से चाकलेट लाने को कहा, इस पर वह भड़क गया। सुनील ने दरवाजा बंद किया और बहन अनीता की गर्दन पर गड़ासे का तेज वार कर उसे मौत के घाट उतार दिया। बाद में सुनील ने मासूम भान्जियों प्रज्ञा व शिवी की भी गर्दन रेत डाली। इसके बाद सुनील ने अपनी गर्दन पर भी प्रहार कर लिया। (4) बच्चों के मन–मस्तिष्क पर टी0वी0 तथा सिनेमा के द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभाव:-                 इसी प्रकार की एक घटना में एक बच्चे ने अपनी दादी को सिर्फ इसलिए मार डाला था क्योंकि उसकी दादी ने उसे गन्दी पिक्चर देखने से मना किया था। उसके न मानने पर दादी ने टी0वी0 को बंद कर दिया था। टी0वी0 बंद होने से नाराज बच्चे ने गुस्से में आकर अपनी दादी की हत्या कर दी। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक बच्चों के कोमल मन–मस्तिष्क पर कितना गहरा दुष्प्रभाव डाल रहे हैं इसका एक उदाहरण केरल के इदुकी नामक स्थान पर देखने को मिला। वहाँ कक्षा पाँच की छात्रा ने टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देखा और उसकी नकल करने में उसकी जान चली गई। पत्थानम्थित्ता क्षेत्र में मंगलवार को आठ वर्ष की एक बच्ची टेलीविजन पर एक धारावाहिक देख रही थी। घर में माता–पिता नहीं थे, उसका पाँच वर्षीय भाई ही उसके साथ घर पर था। टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देख बच्ची को इसकी नकल करने की सूझी। दूसरे कमरे में उसने दरवाजा बंद कर लिया। काफी देर बाद जब वह बाहर नहीं आई तो भाई ने हल्ला मचाया। पड़ोसियों ने दरवाजा तोड़ा तो बच्ची फाँसी लगा चुकी थी। (5) सी0एम0एस0 के फिल्म डिवीजन एवं दो रेडियो स्टेशनों में शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्माण:-                 सी0एम0एस0 के बच्चों ने प्रतिज्ञा की है कि वे गन्दी फिल्में नहीं देखेंगे। केवल शैक्षिक फिल्में देखेंगे। शैक्षिक फिल्में निर्मित करने के उद्देश्य से सी0एम0एस0 ने फिल्म डिवीजन की स्थापना की है। सी0एम0एस0 द्वारा दो रेडियो स्टेशन भी स्थापित किये हैं। सी0एम0एस0 ने अत्यन्त उच्च कोटि की प्रेरणादायी अनेक बाल फिल्मों का निर्माण किया है। संसार में ऐसी सशक्त बाल फिल्मों का निर्माण आज तक नहीं हुआ है। समाज को हिंसा, सेक्स, रेप, हत्या, आत्महत्या जैसे अपराधिक मामलों की प्रेरणा देने वाले अश्लील चैनलों को तत्काल बंद किया जाये। ताकि आगे किसी माँ–बाप के जिगर के टुकड़ों प्रिय बेटे–बेटी को असमय मुरझाने से बचाया जा सके। (6) प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते पहचाने:-                 जीवन प्रभु का दिया है। किसी दूसरे की हत्या करना अथवा स्वयं आत्महत्या करना दोनों एक ही जैसी मनः स्थिति को दर्शाती हैं। और वह है ईश्वर से अलगाव। प्रभु की दृष्टि में ये दोनों ही स्थितियाँ पापपूर्ण हैं। बच्चे माता–पिता के लाड़ले बेटी–बेटे होते हैं। कोई अज्ञानी बालक या युवक आत्महत्या करके अपने परिजनों को जीवन भर के लिए अपराध बोध के बोझ तले रोते–बिलखते रहने के लिए छोड़ जाता है। हमारी आंखों में पड़ा मोह का पर्दा अपने प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते देखने से रोके रखता है। बाद में वह बुरा विचार धीरे–धीरे परिपक्व हो जाता है। तब बहुत देर हो चुकी होती है। (7) परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है:-                            परिवार में मां की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता–पिता का है। माता–पिता बच्चों को उनके बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे अथवा ईश्वरीय और अनिश्वरीय का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसा बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता–पिता का अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक देखता है वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हंै। अतः प्रत्येक बालक को उसकी प्रथम पाठशाला में ही प्रेम, दया, एकता, करूणा आदि ईश्वरीय गुणों की शिक्षा दी जानी चाहिए। परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई … Read more