रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून

…   आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर मुझे कवि रहीम का दोहा…….       रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।      पानी गए न उबरे, मोती, मानुस चून।। बरबस याद आ रहा है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में अध्यापिका के रूप में बिताये चौबीस वर्षों में जल के महत्त्व को मैंने बखूबी समझा और यही मूलमंत्र जीवन में पाया कि सोने-चांदी, हीरे-मोती से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण और अमूल्य है जल। वहाँ की स्मृतियों में जब-तब मैं डूबती-उतराती रहती हूँ। आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर उन स्मृतियों को साझा करने की मन में हिलोर उठी। लगा कि इन स्मृतियों को शब्दों में पिरोना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश में हम जहाँ भी रहे वहाँ दूर-दूर हैंडपंप लगे होते थे। पहाड़ी जगहों में पानी के स्रोत पर पाइप लाइन फिट करके,पाइप बिछाते हुए जगह-जगह, पर दूर-दूर नल लगा दिए जाते थे। आप कितना भी पानी संग्रह करके रख लें, यदि मितव्ययिता व्यवहार में नहीं है, तो कम ही होता है। वर्षा के दिनों में पाइपों में मिट्टी-पत्ते भर जाते तो पानी का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। पर वहाँ पानी की समस्या से बखूबी परिचित होने के कारन बच्चे, गाँव वाले, शिक्षक सभी उसे ठीक करना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे और इसीलिए सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा किए बिना जिसे भी पता चलता, वह तीन-चार को संग ले, अपने औजार-हथियारों सहित ठीक करने जा पहुँचते थे और ठीक करके ही लौटते थे। दूर से बाल्टियों में पानी लाना कठिन होता था, तो उसके लिए हमने सरसों-सफोला तेल के पांच लीटर  के प्लास्टिक कैन लेकर पानी लाना आरंभ किया, क्योंकि ढक्कन व पकड़ने की सुविधा होने के कारण उसमें पानी लाने में सुविधा होती थी। वहाँ सरकारी घरों में टीन की छत  थी, तो पति महोदय ने अपनी बुद्धि लगा कर, कनस्तरों को काट-काट कर, उन्हें जोड़ कर पतनाला जैसा बना कर पतले तारों से उसे टीन की छत पर लटकाया। वहाँ जब वर्षा होती तो कई-कई दिन तक होती थी। वर्षा होने पर हम बड़ा ड्रम रखते, उसमें पानी का संग्रह होता रहता। तब मैं विद्यालय और घर के कार्यों की सारी थकान भूल कर बर्तन-कपड़े धोने के कार्य में जुट जाती थी, क्योकि इंद्रदेव  की कृपा से पानी हमें घर के द्वार पर मिल रहा होता था। हमारी ऐसी व्यस्थाओं को देख कर कई शिक्षकों ने अपने घर में पतनाले लगवाए, तेल के प्लास्टिक कैन में पानी लाना   आरंभ किया और कई बार हमें बताया की ऐसी व्यवस्था करके उन्हें बहुत सुविधा हुई है।             पानी ले नल पर बाल्टियों की लंबी लाइन लगी रहती थी। कोई तेज़ बुद्धि वाला पीछे राखी अपनी बाल्टी आँख बचा कर पहले भर लेता तो घरों के अंदर खिड़की से लगातार ताक-घात लगाए महिलाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के लिए आगा-पीछा देखे बिना तुरंत कूद पड़ती थी। चिल्ल-पों, कच-कच, वाकयुद्ध और फिर कई दिनों तक बातचीत बंद। ऐसे में मेरा तो साहस ही नहीं होता था कि उस लंबी लाइन में मैं भी अपनी बाल्टी रखूँ। पति महोदय ने इसका भी उपाय सोचा। रात के ग्यारह बजे तक सब अपना कार्य करके सो चुके होते थे। वह दो सौ फ़ीट का प्लास्टिक पाइप खरीद कर लाए। उसे हम रात के बारह बजे नल पर लगाते और सुबह के तीन बजे तक पानी भरते। मैं लालच में रात को कपडे भी धो डालती।घर के सारे बर्तनों में, कोल्ड ड्रिंक की पचासों से भी ज़्यादा बोतलों में, बड़े ड्रम, बाल्टियाँ, भगोने…सबमें पानी भर कर रख लेती थी। फिर तीन-चार दिनों तक पानी भरने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।                एक दिन विद्यालय के स्टाफ रूम में बैठे शिक्षकों ने हमसे पूछा….बौड़ाई सर! आप कभी पानी भरते दिखाई नहीं देते, क्या बात है? खाना, नहाना, कपडे धोना होता भी है या नहीं? और जब हमारी व्यवस्था सुनी तो दाँतो तले ऊँगली दबा ली। अनुकरण तो उसका होना होना ही था, क्योंकि उसमें मानसिक शांति और आराम जो था।             एक उपाय हम और भी किया करते थे। रविवार को कपड़ों में साबुन लगा घर में रगड़ लेते, फिर उन्हें थैले में रख, कुछ खाने-पीने की चीजें संग लेकर दोनों बच्चों और एक-दो विद्यार्थियों को साथ लेकर नदी की तरफ चले जाते थे।वहाँ बहती नदी में कपड़ों का साबुन निकल कर वहीँ सुखाते, कहते-पीते,फ़ोटो खींचते….और इस तरह पिकनिक का आनंद लेकर घर लौटते। आप सच मानेंगे? कई शिक्षक बंधुओं ने इसका भी अनुसरण किया। देख कर अच्छा लगता है जब आपके किए किसी अच्छे कार्य का अनुकरण होता है।               पानी को और केवल पानी ही नहीं, बिजली, कागज़ आदि कोई भी चीज़ हो, उसे किफ़ायत से खर्च-उपयोग करना आज भी मेरी आदत में शुमार है। कई बार बच्चे कहते है कि अब आप अरुणाचल प्रदेश में नहीं, देहरादून में हो,अपने को बदलो।तो मेरा उत्तर यही होता है कि पानी का संरक्षा और सही उपयोग तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। पर्यावरण को सही रखने के लिए, प्रदुषण कम करने और प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित रहे, इनका दोहन न हो…..तो इसके लिए हर व्यक्ति को अपनी लापरवाही की आदत बदलनी होगी।          इंटीरियर में रहने पर वहाँ समस्याओं से जूझते-दो-चार होते हुए सहायता-सहयोग करने की भवन स्वयमेव बन जाती है, क्योंकि सब समझते हैं कि यदि हम दुसरे के काम नहीं आएंगे तो अपनी समस्या के समय अकेले पड़ कर हम स्वयं कुछ नहीं कर पाएंगे। पर शहरी सभ्यता में लोगों ने सुविधाओं से संपन्न होने पर जो लबादा ओढ़ कर अपने को चारों ओर से बंद कर लिया है उसमे दूसरों के लिए तो जगह ही नहीं बचती। चिंता होती भी है तो केवल अपनी होती है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की बात तो दूर ही हो जाती है। शहरी संस्कृति में महात्मा गांधी जी के गोल मेज सम्मलेन की तरह पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी वर्ग टी.वी. देखते हुए डाइनिंग टेबल कॉन्फ्रेंस तो कर सकता है,पर स्वयं बाहर निकल कर, मिल कर कार्य करने की बहुत कम सोचता है। हाँ, काम करते हुओं की खिल्ली जरूर आगे बढ़ कर उड़ा सकता है। आज कागजों पर अनगिन एन.जी. ओ कार्य कर रहे है, पर उनमें तन-मन और धन  से भी कार्य करने  वाले कुछ ही लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने और उनके संरक्षण के … Read more

अंतर्राष्ट्रीय गोरैया दिवस पर ……..’ओ री गौरैया ‘ .

. मेरी बचपन की प्यारी सखी गौरैया! तुम्हें पता है आज विश्व गोरैया दिवस है। इसे एक तरह से इसे मैं तुम्हारा जन्मदिवस ही मानती हूँ। सो मेरी प्यारी सखी!जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। तुम्हें याद होगा, बचपन में माँ से आलू-प्याज रखने वाली टोकरी माँग कर ,पापा से उसमें सुतली बंधवाती थी । एक लकड़ी की सहायता से उसे खड़ा करते, उसके नीचे चावल के दाने बिखेर कर, मैं पापा के साथ सुतली पकड़ कर तुम्हारे इंतज़ार में छिप कर बैठ जाती थी। तुम आती और चावल खा कर फुर्र से उड़ जाती, और मैं देखने के चक्कर में सुतली खींचना ही भूल जाती थी। माँ अलग डाँटती कि खाना छोड़ कर चिड़िया के चक्कर में लगे हो। पर कभी कभी तुम मेरे झाँसे में आकर टोकरी में बंद हो जाती थी और मैं अपनी विजय पर फूली नहीं समाती थी। थोड़ी देर तुम्हें देखती, चावल के और दाने डालती, एक कटोरी में पानी रखती थी। फिर थोड़ी देर बाद टोकरी उठा कर तुम्हें उड़ा देती थी। न जाने कितनी बार हम-तुम इसी तरह बचपन में मिलते रहे।       अब तुम्हारा आना कम हो गया। हम मनुष्य अपने लिए ही सोचने वाले बन गए। कभी सोचा ही नहीं कि अपने लिए सुविधाएँ जुटाने के चक्कर में हम तुम्हारे लिए कितनी कठिनाइयाँ उत्पन्न कर रहे हैं।       पर मेरी सखी! अब तुम बिलकुल चिंता मत करो। अब सभी तुम्हारी चिंता करने लगे हैं। कई एन. जी.ओ. तुम्हारे संरक्षण के लिए  कार्य कर रहे हैं। कई घरों में लोगों ने तुम्हारे लिए घोंसले लगवाए है। अब गर्मियाँ आ रही हैं, तो लोगों ने अभी से मिट्टी के बर्तन में तुम्हारे लिए पानी रखना आरंभ कर दिया है, चावल के दाने, रोटी रखने लग गए हैं। आज तुम्हारा जन्मदिवस मान कर मेरे दोनों बच्चे भी मिट्टी का बर्तन लाने गए हैं,ताकि नए बर्तन में वे तुम्हारे लिए पानी भर कर रख सकें। इसी तरह सभी लोग अब तुम्हारी चिंता करके तुम्हारे संरक्षण के लिए सोचने और कार्य करने में लग गए हैं।           जैसे तुम मेरे बचपन की सखी हो हो, उसी तरह न जाने कितनों की तुम सखी होंगी। वे सब भी मेरी ही तरह बचपन की पुरानी स्मृतियों में तुम्हें देख रही होंगी। तुम हमारे आँगन आनाओ मत भूलना। आज की नई पीढ़ी ने अपने ढंग से तुम्हारे लिए सपने देखे हैं। उन्हें निराश न करना। तुम बिन आँगन सूना है, घर में लगे वृक्ष तुम्हारी राह देख रहे हैं। बताओ मेरी सखी गोरैया! कब आ रही हो हमारे घर। पानी का नया बर्तन तुम्हें बुला रहा है।       ……….आज विश्व गोरैया दिवस पर उसके संरक्षण के लिए हम सब कुछ न कुछ सार्थक सोचें और करें। डॉ भारती वर्मा बौड़ाई 

‘वैलेन्टाइन दिवस’ को मनाएं ‘पारिवारिक एकता दिवस’

                                                              (1) ‘वैलेन्टाइन दिवस’ के वास्तविक, पवित्र एवं शुद्ध भावना को समझने की आवश्यकताः- संसार को ‘परिवार बसाने’ एवं ‘पारिवारिक एकता’ का संदेश देने वाले महान संत वैलेन्टाइन के ‘मृत्यु दिवस’ को आज जिस ‘आधुनिक स्वरूप’ में भारतीय समाज में स्वागत किया जा रहा है, उससे हमारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता प्रभावित हो रही है। संत वैलेन्टाइन ने तो युवा सैनिकों को विवाह करके परिवार बसाने एवं पारिवारिक एकता की प्रेरणा दी थी। इस कारण अविवाहित युवा पीढ़ी का अपने प्रेम का इजहार करने का ‘वैलेन्टाइन डे’ से कोई लेना-देना ही नहीं है। आज वैलेन्टाइन डे के नाम पर समाज पर बढ़ती हुई अनैतिकता ने हमारे समक्ष काफी असमंज्स्य तथा सामाजिक पतन की स्थिति पैदा कर रखी है। नैतिक मूल्यों की कमी के कारण आज लड़कियों तथा महिलाओं के विरूद्ध अपराध, छेड़छाड़, अश्लीलता, बलात्कार, हत्या आदि जैसी जघन्य घटनायें लगातार बढ़ती ही जा रहीं हैं। (2) विवाह के पवित्र बन्धन को ‘वैलेन्टाइन दिवस’ पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है:- ‘वैलेन्टाइन डे’ का दिन हमें सन्देश देता है कि अविवाहित स्त्री-पुरूष के बीच किसी प्रकार का अनैतिक संबंध नहीं होना चाहिए। विवाह के पवित्र बन्धन को ‘वैलेन्टाइन डे’ पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है। आज महान संत वैलेन्टाइन की मूल, पवित्र एवं शुद्ध भावना को भुला दिए जाने के कारण यह महान दिवस मात्र युवक-युवतियों के बीच रोमांस के विकृत स्वरूप में देखने को मिल रहा है। वैलेन्टाइन डे को मनाने के पीछे की जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार रोमन शासक क्लाडियस (द्वितीय) किसी भी तरह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह संसार की सबसे ताकतवर सेना को बनाने के लिए जी-जान से जुटा था। राजा के मन में स्वार्थपूर्ण विचार आया कि विवाहित व्यक्ति अच्छे सैनिक नहीं बन सकते हैं। इस स्वार्थपूर्ण विचार के आधार पर राजा ने तुरन्त राजाज्ञा जारी करके अपने राज्य के सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगा दी। (3) महान संत वैलेन्टाइन के प्रति सच्ची श्रद्धा प्रकट करने के लिए मनाया जाता था ‘वैलेन्टाइन दिवस’:- रोम के एक चर्च के पादरी महान संत वैलेन्टाइन को सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगाने संबंधी राजा का यह कानून ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध प्रतीत हुआ। कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि युवा सैनिक विवाह के अभाव में अपनी शारीरिक इच्छा की पूर्ति गलत ढंग से कर रहे हैं। सैनिकों को गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए पादरी वैलेन्टाइन ने रात्रि में चर्च खोलकर सैनिकों को विवाह करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट को जब यह पता चला तो उसने पादरी वैलेन्टाइन को गिरफ्तार कर माफी मांगने के लिए कहा अन्यथा राजाज्ञा का उल्लघंन करने के लिए मृत्यु दण्ड देने की धमकी दी। सम्राट की धमकी के आगे संत वैलेन्टाइन नहीं झुके और उन्होंने प्रभु निर्मित समाज को बचाने के लिए मृत्यु दण्ड को स्वीकार कर लिया। संत वैलेन्टाइन की मृत्यु के बाद लोगों ने उनके त्याग एवं बलिदान को महसूस करते हुए प्रतिवर्ष 14 फरवरी को उनके ‘शहीद दिवस’ पर उनकी दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थनायें आयोजित करना प्रारम्भ कर दिया। इसलिए ऐसे महान संत के ‘शहीद दिवस’ पर खुशियां मनाकर उनकी भावनाओं का निरादर करना सही नहीं है। (4) वैलेन्टाइन डे को ‘आधुनिक’ तरीके से मनाना भावी पीढ़ी के प्रति अपराध:- ‘वैलेन्टाइन डे’ मनाने को तेजी से प्रोत्साहित करने के पीछे छिपी एकमात्र भावना धन कमाना अर्थात ‘वैलेन्टाइन डे’ कार्डो की ब्रिकी का एक बड़ा बाजार विकसित करना, फुहड़ डान्सों तथा मंहगे होटलों में डिनर के आयोजनों की प्रवृत्तियों को बढ़ाकर अनैतिक ढंग से अधिक से अधिक लाभ कमाने वाली शक्तियां इसके पीछे सक्रिय हैं। विज्ञापन के आज के युग में वैलेन्टाइन बाजार को भुनाने का अच्छा साधन माना जाता है। मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपना बाजार बढ़ाना चाहती हैं और इसके लिए उन्हें युवाओं से बेहतर ग्राहक कहीं नहीं मिल सकता। अतः ‘वैलेन्टाइन डे’ आधुनिक तरीकांे से मनाने को प्रोत्साहित करना भावी पीढ़ी एवं मानवता के प्रति अपराध है। अन्तिम विश्लेषण यह साफ संकेत देते हैं कि ‘वैलेन्टाइन डे’ के आधुनिक स्वरूप का भारतीय समाज एवं छात्रों में किसी प्रकार का स्वागत नहीं होना चाहिए क्योंकि यह मात्र सस्ती प्रेम भावनाओं को प्रदर्शित करने की छूट कम उम्र में छात्रों को देकर उनकी अनैतिक वृत्ति को बढ़ावा देता है। (5) परिवार, स्कूल एवं समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित करें:- हम संत वैलेन्टाइन के इन विचारों का पूरी तरह से समर्थन करते हैं कि विवाह के बिना किसी स्त्री-पुरूष में अनैतिक संबंध होने से समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट आ जाएगी और समाज ही भ्रष्ट हो जाएगा। इस समस्या के समाधान का एक मात्र उपाय है, बच्चों को बचपन से ही भौतिक, सामाजिक, मानवीय तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की संतुलित शिक्षा देकर उनका सर्वागीण विकास किया जाए। किसी भी बच्चे के लिए उसका परिवार, स्कूल तथा समाज ये तीन ऐसी पाठशालायें हैं जिनसे ही बालक अपने सम्पूर्ण जीवन को जीने की कला सीखता है। इसलिए यह जरूरी है कि परिवार, स्कूल तथा समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित किया जाये। एक स्वच्छ व स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए हमारा कर्तव्य है कि हम विश्व के बच्चों की सुरक्षा व शांति के लिए आवाज उठायें और पूरे विश्व के बच्चों तक संत वैलेन्टाइन के सही विचारों को पहुँचायें जिससे प्रत्येक बालक के हृदय में ईश्वर के प्रति, अपने माता-पिता के प्रति, भाई-बहनों के प्रति और समाज के प्रति भी पवित्र प्रेम की भावना बनी रहे। (6) परिवार, विद्यालय तथा समाज से मिली शिक्षा ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती हैः- दिल्ली गैंगरेप कांड जैसी बढ़ती घटनायें चारित्रिकता, नैतिकता, कानून व जीवन मूल्यों की शिक्षा के अभाव में राह भटक गये लोगों के कारण ही हो रहीं हंै। वास्तव में किसी भी मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को तीन प्रकार के चरित्र निर्धारित करते हैं। पहला प्रभु प्रदत्त चरित्र, दूसरा माता-पिता के माध्यम से प्राप्त वांशिक चरित्र तथा तीसरा परिवार, स्कूल तथा समाज से मिले वातावरण से विकसित या अर्जित चरित्र। इसमें … Read more

चलो चले जड़ों की ओर ; नागेश्वरी राव

                         वृद्ध अवस्था अपने आप में दुखदायक है|इस स्तर में  आजादी, सम्मान, क्षमता, मानसिक, शारीरिक शक्ति का हनन होने लगता है|,जिन वृद्धों का लक्ष केवल परिवार रहा हो जब कटु सत्य सामने आता है, पैर तले जमीन खिसक –जाती है उन्हें कई कुंठाओं, व्यथाओं का सामना करना पड़ता है। क्योकि बच्चों के समस्याएं, समय की कमी,उनकी आर्थिक परिस्थितियां, समाज की मांग, स्पर्धा आदि उन्हें रिस्ते को संभालने में असफल बना देते हैं| इनके आलावा व्यक्तियों के संस्कार, ममता आदि का भी असर पड़ता है। लेकिन सर्वविदित है कि आधुनिक समय में संयुक्त परिवार की बात दूर, मूल परिवार भी मिट रहा है, पति, पत्नी,बच्चे तीनो को अलग अलग रहना पड़ता है. समय कहाँ कहाँ ले जाता है इंसान को| यह समाज का प्रारूप है. यह सच्चाई है इसे हम नकारा नहीं सकते| इस यथार्थ को लेकर ही वृद्धो के हलातो के सुधारने का प्रयास करना ही है। यह सच है हर दूसरे दिन खबर पढ़ते है कि महत्वाकांक्षी बच्चें (४०%) एवं उनके  अभिभावकों द्वारा संपत्ति को जबरदस्ती हड़पने के लिए माता पिता को पीटा जा रहा है. उन्हें छोटे तहखाने जैसे कमरे में रखा जा रहा है, अस्वस्थ एवं कमजोर माता-पिता से जबरदस्ती काम ले रहे है| भारत सरकार ने अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए विभिन्न रियायतें और सुविधाएं प्रदान करता है| बुजुर्ग माता पिता के कल्याण,रखरखाव, आत्म-सम्मान, शांति और रक्षा के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल के नवीनतम निर्णय के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 पारित किया है.साथ ही वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को सामान्य  जीवन बिताने के लिए  बच्चों और रिश्तेदारों पर एक कानूनी जिम्मेदारी सौंपा है। जो, विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों सहित सभी पर लिए लागू होता है। राज्य सरकार हर जिले में वृद्धाश्रम का निर्माण करेगा, पर  वरिष्ठ नागरिकों के संतान, रिश्तेदारों,को पर्याप्त समर्थन प्रदान करने की आवश्यकता है। अंतत: हम कहना चाहते है कि बच्चे, अपने पालन पोषण करने की कृतज्ञता स्वरूप और अपनी कल की चिंता कर, माता पिता की सेवा और सम्मान करे| बुजुर्ग भी अपने सरकार द्वारा प्राप्तः सुविधाओ तथा सुरक्षा के प्रति सजग रहे। जिन बच्चो के पास धन की नही, समय का आभाव है वे अपने माता पिता के लिए बुजुर्ग के आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाये गए अपार्टमेंट और आधुनिक साधनो का उपलब्ध कराये और मानव होने का एहसास करे| समाज–सेवक भी इस ओर प्रयासरत रहने की कृपा करें| नागेश्वरी राव 

चलो चले जड़ो की ओर : अशोक परूथी

                                                                                  माँ देश में बेटे के बिछोड़े में अकेली रोती तो है लेकिन इसका हल क्या है। उसे अपने साथ विदेश भी ले जाओ लेकिन उसका मन वहाँ नही लगता। अपने बेटों या बेटियों के पास भी उसका दिल नही लगता, उसका मन तो बस उसी मिट्टी में बसा रहता है जहां वह पल्ली और बड़ी हुयी होती है …जिसे वह अपना देश और अपना घर कहती है …उससे अपनी सभ्यता, अपनी भाषा, अपनी गालियां, अपना घर, एक एक पाई इकठी कर जुटाई चीज़े से लगाव …अमिट रहता है। अपनी संतान से जुदाई भी उससे सहन नही होती और अपने वतन की मिट्टी में भी वह मिट्टी होकर रह जाना चाहती है। यह कैसी विडम्बना है – एक तरह अपनी संतान का प्यार, मोह, सुख और लगाव और दूसरी और अपने वतन की मिट्टी जो उसे न इधर का छोडती है न उधर का! यह तो था किस्सा उन माता पिता का जिनके बच्चे विदेश रहते है, उनके बच्चे अपनी रोज़ी-रोटी के कारण विदेश तो छोड़ नही सकते और अपने माँ-बाप को भी अपने पास बुला लेते हैं लेकिन माँ-बाप का वहाँ दिल नही लगता ! लेकिन, मुद्दा भारत में रहने वाले बजुर्गों का है । आज सयुंक्त परिवार नही रहे – कारण वित्य (financial) हो सकते हैं या बहू -बेटियों की निजी आज़ादी का मसला हो सकता है या इसे हम पश्चमी सभ्यता का प्रभाव भी कह सकते हैं। यही हाल विदेशियों का भी है उन्हें अपने माँ-बाप तभी याद आते हैं जब उन्हें अपने बच्चो को रखने के लिए ‘माई’ की याद आती है – यह बड़े दुख की बात है !मेरे पिता कहा करते थे- देखो, एक माँ-बाप का जोड़ा अपने पाँच -या छह (संतान) को पालने -पोषने में क्या क्या कुरबानिया देता है, उनकी पढ़ाई , उनके लालन-पालन में अपना सब सुख-आराम और धन सब कुछ वार कर देता है । यही नही उन्हें अच्छी शिक्षा देने के ईलावा अपने सुखी भविष्य की परवाह न करते हुये अपने बचे-खुचे धन को भी उनकी शादियों पर खर्च कर देता है और फिर यह नतीजा – यह सारे स्मारिद्ध बच्चे – जो आज डाक्टर, इंजनीयर, वकील या किसी सफल व्यवसाय में ही क्यूँ न हों – सारे के सारे, सब के सब , मिलकर भी अपने एक माता-पिता का उनकी वृद्धावस्था में दायित्व नही लेते या ले सकते!मेरे बच्चो, मेरे भाईयो अपने माँ-बाप के लिए कुछ न करो एक्सट्रा करो, अगर उनसे दूर भी रहते हो तो थोड़ा समय निकाल कर उन्हे मिल ज़रूर आया करो और अगर यह भी मुमकिन नही तो उन्हें कभी -कभार फोन ही कर उनका हल-चाल पूछ लिया करो , बस इस्सी में माँ-बाप खुश हो जाते हैं – बस इतना तो हम सबका फर्ज़ बंता है ….भगवान हमसबको सतबुद्धि दे और इस दिशा में ठोस कदम उठाने का साहस दे …नही तो कल हम भी बूढ़े होंगे …हमारा भी यही अशर होगा जो आज हमारे जीवन देने वालों का हो रहा है । बदनसीब, हैं वह लोग जिंहे अपने माता-पिता का आशीर्वाद नही मिलता ! ताकि समय निकाल जाने के बाद आपका यह गि”ला न रहे –मामा -पापा , प्लीज़ मुझे एक बार और अपने गले लगा लो!” अशोक परूथी