महाशिवरात्रि -एक रात ” इनर इंजिनीयरिंग” के नाम

शिव नाम अपने आप में मन्त्र हैं | शिव अर्थात जो नहीं है |  जो नहीं है वो असीम है | क्योंकि वहीं कुछ नया प्रस्फुटित   होने की सम्भावना है | इस बात में जितना विरोधाभास नज़र आता है उतना ही विरोधाभाव स्वयं शिव में हैं |  जो आध्यात्म के मार्ग की ओर अग्रसर हैं वो जानते हैं कि जिसने शिव को जान लिया, नहीं होने  में होने को जान लिया , अज्ञानता में ज्ञान को जान लिया उसके व्यक्तित्व में संतुलन आ गया | शिव का व्यक्तित्व सात्विक गुण और तमो गुण दोनों को समेटे हुआ है | वो सदाशिव हैं स्थिर , शांत अविचल और रौद्र रूप रखने वाले भी जो संसार को नष्ट करते हैं | वो योगी भी हैं और परिवार से अतिशय प्रेम करने वाले भी, वो महा पवित्र हैं और अघोरी भी , मनुष्य , देवता और दानव  सभी शिव की पूजा करते हैं क्योंकि शिव के लिए कुछ भी अनछुआ नहीं है | जब हम शिव को अपना लेते हैं तो हम समग्र जीवन को अपना लेते है | यहाँ अच्छे और बुरे में चयन बंद हो जाता हैं | ये चयन बुद्धि करती है | बुद्धि से परे सहज रूप से जीवन को स्वीकारना , असीम को स्वीकारना अंत: चेतना के  सीमाओं से परे जाने पर ही संभव है | महाशिवरात्रि -एक रात  ” इनर इंजिनीयरिंग” के नाम  महाशिवरात्रि की रात हमें अपनी अंत: चेतना को असीम उर्जा से जोड़ने का अवसर देती है | इसे ऐसे समझा जा सकता है कि इस बाह्य जगत में जितनी चीजे इंजीनीयरों ने बनायीं उन सब को चलाने के लिए ऊर्जा की जरूरत थी | वो उर्जा प्रकृति में थी , उसे बस वहाँ  से लिया है | जब हम उस उर्जा को जो हमारे अंत: जगत में है उसे असीम उर्जा से जोड़ देते हैं तो हमारा ये शरीर दिव्य हो जाता है , जहाँ शक्ति असीम है पर जीवन सहज है , शांत है | वैदिक कथाओं में ऋषि – मुनि इस ज्ञान को जानते थे | असीम उर्जा को अपने अन्दर समाहित करके वो ऐसे काम कर पाते थे जो सामान्य मनुष्यों के बस के नहीं थे | इसी आधार पर तमाम मंत्रों का सृजन हुआ जो लोक कल्याणकारी हैं | महा शिवरात्रि की रात एक ऐसी ही अनुपम रात्रि है जब आम मानव को इस उर्जा को अपने अन्दर प्रविष्ट कराने का और असीम से जुड़ने का अवसर मिलता है | अर्थात ये रात्रि “इनर इंजिनीयरिंग “की रात्रि है | महाशिवरात्रि और उर्जा का उर्ध्वगमन आप की जानकारी के लिए बता दें कि हर महीने चंद्रमास के चौदहवें दिन और आमवस्या से एक दिन पहले शिवरात्रि होती है | इस दिन इंसानी  प्रकृति का ऐसा विधान है कि उर्जा ऊपर की ओर बढती है | फरवरी मार्च के महीने में पड़ने वाली शिवरात्रि को महा शिवरात्री कहा गया है | प्रकृति का ऐसा विधान है की इस दिन यह उर्जा बढाने में सहायता करती है | जब कोई भी आध्यात्मिक प्रक्रिया की जाती है चाहे वो शस्त्रीय नृत्य हो , गायन , योग या ध्यान सब का उद्देश्य उर्जा को ऊपर की और ले जाना होता है | महाशिवरात्रि की रात प्रकृति स्वयं ही इसमें सहयोग करती हैं | अगर आप चाहते हैं कि आप चेतना के दूसरे स्तर तक पहुंचे तो आप को इस  रात का विशेष लाभ उठाना चाहिए | महाशिवरात्रि कि तैयारी कुछ दिन पहले से करें  अगर आप आम गृहस्थ भाव  महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती  के विवाह के रूप में मनाना चाहते हैं , तो ये एक अच्छा अवसर है जब आप  शिव पर अपनी तमाम बुराइयों को अर्पित कर दें व् शिव कृपा हासिल करे | | शिव को चढ़ाई जाने वाली तमाम वस्तुएं नकारात्मकता को सोखती हैं | विधान ऐसा बना दिया गया है कि  प्रेम भाव से शिव पर अर्पित करने के बाद आपके जीवन की नकारत्मकता  में कमी आये | महत्वाकांक्षी लोग इसे उस दिन के तौर पर मानते हैं जब शिव ने अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त की | यह बात उनको उर्जा से भर देती है | वहीं योगियों के अनुसार यह वो रात है जब शिव कैलाश में स्थिर हो गए थे | जीवन में स्थिरता , आनंद और शांति चाहने वाले इसे इसी रूप में मनाते हैं | आप किसी भी रूप में इसे मनाएं , अगर आप चेतना के दूसरे स्तर पर जाना चाहते हैं तो आप को इस रात का प्रयोग करना होगा | लेकिन उसकी तैयारी कुछ दिन पहले से करनी होगी |   महाशिवरात्रि से पहले क्या तैयारी  करें – महाशिवरात्रि से २ या ३ दिन पहले से शुरू कर दें | 1)हल्का भोजन लें | 2) ॐ नम: शिवाय मन्त्र का जप प्रारम्भ करें 3) महाशिव रात्रि के दिन अपनी रीढ़ की हड्डी को जितना संभव हो सीधा रखे | मूल से ऊपर की और उर्जा का चढ़ना ही चेतना के अलग स्तरों तक पहुंचना है | 4) रात्रि जागरण करें | 5) अगर नहीं जागते हैं तो सामानांतर या क्षैतिज  न सोये | 6) पंचाक्षरी मन्त्र का जाप् करने  के साथ पंचभूतों की सेवा का संकल्प लें | पंचभूत यानि वो तत्व जिनसे हमारा शरीर बना हैं | ऊर्जा के उर्ध्वगमन से आपके जीवन में क्या अंतर आएगा  जैसे -जैसे उर्जा ऊपर के चक्रों की ओर चलती है , मन शांत होने लगता है , कई बार आपने महसूस किया होगा कि अच्छी जॉब व् तनख्वाह के बाद भी मन शांत नहीं रहता , ऐसा उर्जा चक्रों में बाधा के कारण होता है | जीवन को सहज भाव से लेना  आ जाता है | ख़ुशी की जगह आनंद की भावना आने लगती है | यहाँ ये ध्यान देना है कि ख़ुशी किसी चीज को पाने में है वो अल्पकालिक है जबकि आनंद मन की अवस्था है वो बहुत देर तक स्थायी भाव में रहता है | इसके बाद सुख -दुःख को संभव से लेना आ जाता है | महाशिवरात्रि की रात आप इनर इंजिनीयरिंग करके स्वयं को ज्यादा शांत , स्थिर व् आनन्दमय बना सकते हैं | आप सभी को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें – मनसा वाचा कर्मणा … Read more

कर्म और आत्मसंतुष्टि

गीता के अध्याय 3 में श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा – हे जर्नादन! हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो आप मुझे घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं? आपके उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। इसलिए मुझे निश्चयपूर्वक बताये कि इनमें से मेरे लिए श्रेष्ठतम क्या है? कृष्ण ने कहा – हे निष्पाप अर्जुन! जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने वाले दो तरह के इंसान होते हैं। कुछ लोग ज्ञान योग से कुछ लोग भक्ति सेवा के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास करते हंै। हे अर्जुन! न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्म फल से छुटकारा पा सकता है। और न केवल संन्यास से सिद्धि पायी जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति के अर्जित गुणों के अनुसार कर्म करना पड़ता है। कोई भी इंसान एक क्षण के लिए भी कर्म से दूर नहीं रह सकता। Karma and self satisfaction(in Hindi) कर्म न करने की अपेक्षा यज्ञीय भाव से कर्म करना श्रेष्ठ है। यज्ञीय भाव से कर्म करने से भगवान के भक्त सारे पापों से मुक्त हो जाते हैं। यज्ञ नियत कर्म करने से उत्पन्न होता है। इन्द्रियों की तृप्ति के लिए कर्म करने से जीवन व्यर्थ में जाता है। कर्मफल में असाक्त हुए बिना मनुष्य को निरन्तर यज्ञीय भाव से कर्म करना चाहिए। यज्ञीय भाव से जीवन जीने वाले राजा जनक इसका श्रेष्ठ उदाहरण थे। भगवान कहते है कि यदि मैं भी निश्चित कर्म न करूं तो सारे लोग भी मेरा अनुसरण करेंगे। विद्वान लोगों को चाहिए कि साक्षी भाव से अपने प्रत्येक कर्म को परमात्मा को समर्पित करके करें ताकि उनके जीवन से संसार के लोगों को प्रेरणा मिले। इसलिए हे अर्जुन अपने कार्याें को मेरे पर समर्पित करके युद्ध करो। हमारा मानना है कि ज्ञानी पुरूष अपनी प्रकृति के अनुकूल नौकरी या व्यवसाय का कार्य करते हैं। लोककल्याण की भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय करना आत्मसाक्षात्कार के लिए सहायक है। अर्जुन ने कहा- हे देवकी नंदन! मनुष्य न चाहते हुए भी बुरे कर्म में क्यों संलग्न रहता है? कृष्ण ने कहा- हे भारत! इन्द्रियों को वश में करके कार्य करें। फल की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म ही बंधन बनते हैं। क्योंकि हमारे कर्म यज्ञ नहीं बने है। यज्ञीय तथा साक्षी भाव से हम जीवन में जो क्रिया करते हैं उस कर्म को करते हुए हमें जो आनंद प्राप्त होता है वह ही उस कर्म का महाफल हैं।  हमारा मानना है कि माया निरन्तर दूरबीन लेकर हमारे ऊपर नजर लगाये बैठी है। वह अपनी पैनी दृष्टि से यह देखती है कि इस इंसान की रूचि किसमें है। माया के लिए हमको वश में करने के लिए एक इन्द्री की पकड़ ही काफी है। डोर का एक छोर पकड़ में आ गया तो फिर डोर की पूरी रील खीची जा सकती है। शरीर से पांच इन्द्रियां श्रेष्ठ हैं, पांच इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है तथा बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा है। इस प्रकार हमें आत्मा के द्वारा बुद्धि को वश में करके पूर्णतया अहंकाररहित तथा भौतिक इच्छा रहित संतुलित जीवन जीना चाहिए। गीता के अध्याय 3 को जानकर, पीकर तथा जीकर अब हम जो भी कर्तव्य करेंगे उसमें महा-आनंद तथा महाफल मिलना सुनिश्चित है। भौतिक समृद्धि तो बोनस में मिलने ही वाली हैं।  माता-पिता अपने बच्चे से कहते हैं कि बेटे! जाओ मोहल्ले के मैदान/पार्क में बच्चों के साथ खेल कर आओ हम तुम्हें चाकलेट देंगे। बच्चे अच्छी तरह समझते हैं  कि खेलने में ही महाफल छिपा है। उसके लिए चाकलेट की लालच देने की क्या आवश्यकता है। सहजता में जी रहे बच्चे के लिए जीवन ही एक खेल है और वह उसके प्रत्येक पल का आनंद लेते हैं। इसलिए बच्चे भगवान के ज्यादा नजदीक रहते हैं। बच्चों को हम बड़ी उम्र के लोग ही अज्ञानतावश ईश्वर से दूर करते हैं । इस शायरी के ये पंक्तियां बहुत प्रेरणादायी हैं – घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो, यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये। रोशनी की भी हिफाजत है इबादत की तरह,  बुझते सूरज से, चारागों को जलाया जाये।  जीवन हो खेल जैसा  हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं उसके साथ ही हम यह भूलते जाते हैं कि कर्म में ही महाफल आत्मिक संतुष्टि तथा आनंद के रूप में छिपा है। हमारा सारा जीवन एक खेल ही है। समझ के साथ कर्म करने से अन्दर से आनंद के रूप में महाफल मिलता ही है। हमें जीवन में होने वाली घटनाओं को खेल समझकर लेना चाहिए। खेल में आसक्ति की वजह से उलझ ना जाएँ। जीविका लक्ष्य के साथ ही उसके साथ पृथ्वी में आने के उद्देश्य को भी साथ जोड़कर हर पल जीना चाहिए। पृथ्वी का लक्ष्य है – इस हथियार रूपी मन तथा मित्र रूपी शरीर के द्वारा ईश्वर की उच्चतम अभिव्यक्ति करना। ईश्वर ही है हम है कि नहीं पता करें? वर्ष 2018 गीता का श्रवण और मनन करने के लिए बेहतरीन सुअवसर ईमानदारी के साथ अपनी नौकरी या व्यवसाय करना ही आत्मा के विकास का एकमात्र तथा सबसे सरल उपाय है। इसके अलावा आत्मा के विकास का अन्य कोई रास्ता नहीं है। यदि हम गीता के द्वारा भगवान के इशारे तथा संकेतों को समझ गये तो पूरा जीवन सफल है। वर्ष 2018 गीता का श्रवण और मनन करने के लिए बेहतरीन सुअवसर है। गीता के 18 अध्याय की तरह इस वर्ष में भी 18 का योग है। इसलिए वर्ष 2018 में पूरे वर्ष गीता का श्रवण तथा मनन करने का सुनहरा अवसर है। इस संजोग का भरपूर लाभ उठाकर हमें अपनी गीता को अपने रोजाना के क्रियाकलापों तथा आचरण द्वारा प्रकट करना है। ज्ञान को आचरण में लाना ही भक्ति है। यह सब बहुत आसान है। बस केवल सूचनाओं को पालन करना पड़ता है। हम बीमारी में मेडिकल स्टोर से दवा लेकर आते हैं। दवा के डिब्बे में सूचनायें लिखी होती है कि डाक्टर के पूछे बिना दवा मत लीजिए। डाक्टर को दवा के बारे में पूरा ज्ञान होता है। ज्ञानी युधिष्ष्ठिर बनकर नहीं बैठना है। ईश्वर को जो लगे अच्छा वह ही मेरी इच्छा है। ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीने में समझदारी है। इसके … Read more

सोल हीलिंग – कैसे बातचीत से पहचाने आत्मा छुपे घाव को

                                                          बचपन में सब कहते थे की शैव्या बहुत सीधी  है | शैव्या थी भी ऐसी ही | माँ ने कहती  यहाँ बैठ जाओं तो घंटो बैठी रहेगी | घर से निकलने से ठीक पहले तैयार शैव्या से पिताजी ने कहते  नहीं आज घूमने नहीं चल पाएंगे |बिना ना – नुकुर किये  शैव्या मान जाती |दादी कहती ,” शैव्या अपनी सबसे प्यारी गुडिया चाहेरी बहन काव्या को दे दो | शैव्या ख़ुशी- ख़ुशी दे देती | दरसल सबकी ख़ुशी में ही शैव्या खुश रहती थी | इसी लिए सब उससे खुश रहते थे | समाज के हिसाब से देखे तो ये तो बहुत अच्छी बात हैं | पर ये बात आगे चलकर शैव्या के लिए बहुत अच्छी सिद्ध नहीं हुई | सबकी ख़ुशी में खुश होने वाली शैव्या धीरे – धीरे भूल ही गयी कि उसकी पसंद –ना पसंद किसमें  है | उसकी ख़ुशी किसमे है | तू जो कहे हाँ तो हाँ , तू  जो कहे ना तो ना में शैव्या का निजी व्यक्तित्व दबता गया | सबको खुश रखने वाली शैव्या दुखी रहने लगी | सबका प्यार पाने वाली शैव्या अपने आप से नफरत करने लगी |शैव्या सबसे कटने लगी | तो लोग उसे दब्बू , खुदगर्ज बुलाने लगे | ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शैव्या के व्यव्हार में उसकी आत्मा के घाव और उसका दर्द लोग समझ नहीं पाए | पर ये कहानी सिर्फ शैव्या की नहीं है |   जरा सोंचिये हम सब सब कितनी बातें करते हैं | सुबह से शाम तक | और बातों के आधार पर दूसरों को समझने की कोशिश भी करते हैं | पर क्या बातें वो बता पाती हैं जो वो  छुपा रहे हैं | जाहिर है नहीं | यहाँ मैं  उनकी निजी   बातों  की बात नहीं कर रही हूँ | बल्कि उन  घावों की बात कर रही हूँ जो हमारी/उनकी  आत्मा पर होते हैं |हर आत्मा पवित्र , शांति पूर्ण व् शक्ति से भरी हुई है | पर समय के साथ – साथ हमारी आत्मा पर गहरे घाव होते जाते हैं | क्योंकि हमारे व्यक्तित्व का निर्माण बहुत सारी  बातों से होता है | जिसमे हमारे बचपन का बहुत बड़ा हिस्सा होता है | लेकिन ऐसा नहीं है कि उसके बाद हमारा व्यक्तित्व बनना बंद हो जाता है | जीवन में जब भी ,किसी भी उम्र में जब हम एक जैसी परिस्थितियों  के साथ लम्बे समय तक रहते हैं तो उनसे हमारा व्यक्तित्व बनता जाता है | लेकिन हर व्यक्तिव के बनने के पीछे कुछ घाव होते हैं जिसे हम छुपा रहे हैं | सोल या आत्मा के सन्दर्भ में कुछ भी गलत नहीं है | कोई भी बुरा नहीं है | पर जब हम किसी व्यक्ति की बात करते हैं तो कहते हैं कि वो बहुत खुशमिजाज है , वो बहुत नकचिढा है , अकडू है या भावनाहीन है | अगर आप आध्यात्मिक है तो अवश्य ही आपको ये विरोधाभासी लगता होगा |  सोल हीलिंग में आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेगे कि जो इंसान ऐसा या वैसा है वो ऐसा क्यों है | जब आप उसके मूल स्वाभाव को समझ लेंगे | तब उसके व्यवहार की बुराई – भलाई करने के स्थान पर आप उससे सहज रूप से स्नेह करने लगेंगे | आत्मा को आत्मा से जोड़ने में इससे बेहतर और क्या हो सकता है | तो आइये चलते हैं सोल हीलिंग पर … सोल हीलिंग – कैसे बातचीत से पहचाने व्यक्ति के  छुपे घाव  को  soul healing-how to identify soul’s hidden wounds by talking किसी व्यक्ति की बातचीत से आप उसकी आत्मा के छुपे घावों को जानने के लिए सबसे पहले तो इस उदाहरण पर जरा ध्यान दीजिये …. रीता , निधि , श्यामा , मीता और राधिका पांच सहेलियाँ हैं | वो एक पिकनिक जाने का कार्यक्रम बनाती हैं | पाँचों नियत समय पर उस स्थान में पहुँचती हैं | जहाँ उनकी टैक्सी खड़ी  होगी | पर वहां पहुँचते ही देखती हैं कि टैक्सी का टायर पंचर है | उफ़ , ये पहला शब्द है जो शायद सबके मुँह से निकलता है | फिर देखिये क्या होता है .. निधि : टैक्सी कैसे पंचर हो गयी | जरूर इसके ड्राइवर ने किसी कील पर चढ़ा दी होगी | फिर रीता की ओर देख कर ,” रीता तुमने टैक्सी देर से बुलाई | अगर तुम जल्दी बुला देती तो शायद कील  इस टैक्सी के टायर में नहीं चुभी होती | लेकिन तुम जल्दी कैसे बुलाती ? क्योंकि तुम उठ ही नहीं पायी होगी | उफ़ , एक तो इतनी गर्मी है | सूरज को भी इतना तपना था | अब इतनी गर्मी में हम को दूसरी टैक्सी भी नहीं मिलेगी | किसी ने ठीक से प्रोग्राम नहीं सेट किया | पूरा प्रोग्राम चौपट हो गया |  रीता : माफ़ी मांगती हूँ निधि , सब मेरी ही गलती है | sorry , मैं जल्दी उठ नहीं पायी | वो क्या है रात को देर तक पढाई की | नींद नहीं खुली | मम्मी से कहा था जगाने को पर उन्होंने जगाया ही नहीं | मम्मी की तरफ से भी सॉरी | नहीं तो हमारी टैक्सी ठीक होती | सॉरी,तुम्हे इतनी गर्मी लग रही है | सब मेरी ही गलती है | अब जब दूसरी टैक्सी करेंगे तो उसके सारे पैसे मैं दूंगी | अब तो खुश हो जाओ |  श्यामा : निधि की सॉरी से रीता पर कोई असर नहीं है वो लगतार बोलती ही जा रही है | श्यामा इन दोनों के झगडे से बेखबर मोबाईल से तस्वीरे खींच रही है | वो ऐसे दिखा रही है कि जैसे दोनों से उसे कोइ मतलब ही नहीं है | या उसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा है | मीता : रीता और निधि  के बीच में जाकर अरे छोड़ो कह कर अपने मोबाइल पर सेव् किया हुआ कॉलेज का वीडियो दिखाने लगती है | इधर , उधर की बातें करने लगती है | जिससे झगडा  धीमा तो होता है पर जारी रहता है |  राधिका : … Read more

रिश्ते और आध्यात्म – जुड़ाव क्यों बन जाता है उलझन

                                   नीता , मीरा , मुक्ता  व् श्रेया सब एक सहेलियां एक ग्रुप में रहती थी | जब निधि ने कॉलेज ज्वाइन किया |वो भी उन्हीं के ग्रुप में शामिल हो गयी | निधि बहुत जीजिविषा से भरपूर लड़की थी | जल्द ही वो सबसे घुल मिल गयी | कभी बैडमिन्टन खेलती कभी , डांस कभी पढाई तो कभी बागवानी तो कभी गायन या सिलाई  | ऐसा क्या था जो वो न करती हो | या दूसरों से बेहतर न करती हो | ग्रुप की सभी लडकियां उसे बेहद पसंद करती | सब उसके साथ ज्यादा समय बिताना चाहती | पर कहीं न कहीं ये बात मीरा को बुरी लगती क्योंकि वो निधि पर अपना एकाधिकार समझने लगी थी | निधि से सबसे पहले दोस्ती भी तो उसी की हुई थी | फिर डांस , पढाई व् बागवानी में वो उसके साथ ही होती | इस्सिलिये जब निधि दूसरी लड़कियों के साथ होती तो उसे जलन या इर्ष्या होती | ये बात ग्रुप  अन्य लडकियां व् निधि भी धीरे – धीरे समझने लगी | इस कारण वो मीरा से काटने लगी | क्योंकि वो सबसे बराबर की दोस्ती रखना चाहती थी | पर मीरा ऐसा होने नहीं देना चाहती थी | धीरे – धीरे अच्छी सहेलियों का वो ग्रुप उलझन भरे रिश्तों में बदल गया | सहेलियों का वो ग्रुप हो या एक परिवार की बहुएं , या ऑफिस के सहकर्मी ये जुड़ाव क्यों उलझाव में बदल जाता है | जुड़ाव क्यों बन जाता है उलझन  हम सब के जीवन में ये समस्या कभी न कभी आती है | किसी रिश्ते से जुड़ाव उलझन बन जाता है | इसके कारण को समझने के लिए रिश्तों की गहराई का बारीकी से विश्लेष्ण करना होगा | हर व्यक्ति में बहुत सारे गुण होते हैं | या यूँ कहे की हर व्यक्ति दिन भर में अनेक क्रियाओं को करता है | उस क्रिया के अनुरूप वो उसमें रूचि रखने वाले को चुनता है | ताकि उस काम को करने में मजा आये | जैसे किसी खास मित्र के साथ मूवी देखने में , किसी के साथ पढाई करने में , किसी के साथ नृत्य या सिलाई करने में मज़ा आता है | हम उन क्रियाओं के सहयोगी के रूप में अनेक लोगों से दोस्ती करते हैं व् उनका साथ चाहते हैं | दिक्कत तब आती है जब कोई एक व्यक्ति  हमारा हर समय साथ चाहे या हम किसी एक व्यक्ति का हर समय साथ चाहें | ये अत्यधिक जुड़ाव की आकांक्षा रखना ही रिश्तों में उलझन का कारण हैं | पसंद और अत्यधिक जुड़ाव में अंतर हैं  जब आप किसी के साथ इस हद तक जुड़ाव चाहते हैं की वो सिर्फ आपका ही हो तो उलझन स्वाभाविक है |आप स्वयं ये बोझ नहीं धो पायेंगे | जरा सोच कर देखिये अगर आप ग्लू या गोंद के बने हों | ये गोंद ऐसी हो की जिस चीज को आप पसंद करें वो आपसे चिपक जाए | अब जब आप घर से बाहर निकलेंगे | आपको  सामने बैठी चिड़िया अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | फूल या पत्ती अच्छी लगी  वो आपसे चिपक गयी | सब्जी अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | वृद्ध महिला अच्छी लगी वो आपसे चिपक गयी | पेड़ अच्छा लगा वो भी आपसे चिपक गया | आधे घंटे के अन्दर आपसे इतनी चीजे चिपक जायेंगी कि आपका सांस लेना भी दूभर हो जाएगा | चलना तो दूर की बात हैं | अत्यधिक जुड़ाव या एकाधिकार चाहना किसी के गले पड़ना या यूँ चिपक जाने के सामान ही है | जहाँ रिश्तों में घुटन होगी प्रेम नहीं | जुड़ाव केवल इंसानों से नहीं चीजों से भी होता है             जुड़ाव की अधिकता केवल इंसानों से नहीं चीजों से भी होती है |मान लीजिये आप किसी पार्क में आज पहली बार गए हैं | आप एक बेंच पर बैठते हैं |  संयोग से कल भी उसी बेंच पर बैठते हैं | तीसरे दिन से आप पार्क में उसी बेंच को ढूंढेगे |चाहे पार्क की साड़ी बेंचे खालीही क्यों न पड़ी हों | बेड के उसी सिरे पर लेटने से नींद आएगी | डाईनिंग टेबल की वही कुर्सी मुफीद लगेगी | कभी सोंचा है ऐसा क्यों है की इन बेजान चीजों से भी हमें लगाव हो जाता है | इसका कारण है हमारी यादाश्त जो चीजों को वैसे ही करने या होने में विश्वास करती है | तभी तो आँखे बंद हों पर घर का कोई सदस्य कमरे में आये तो पता चल जाता है की  कौन आया था | ये सब यादाश्त के कारण होता है |जन हम किसी के साथ किसी क्रिया में समानता या सामान रूप से उत्साहित होने के कारण ज्यादा समय बाँटने लगते हैं तो यादाश्त उस समय को  अपने जरूरी हिस्से के सामान लेने लगती है | फिर उसे किसी से शेयर करना उसे नहीं पसंद आता है | यही उलझन का कारण है | चीजों से जुड़ाव एक तरफा होता है इसलिए उलझन नहीं होती                                                  जब आप किसी चेज से प्यार करते हैं या जुड़ाव महसूस करते हैं तो आप जानते हैं की ये केवल आप की तरफ से हैं | आप उसे बाँध नहीं सकते हैं | जैसे आप किसी पेड़ को रोज गले लगाइए | आप जुड़ाव महसूस करेंगे पर पेड़ आप को बंधेगा नहीं | न ही आप अपने ऊपर  किसी प्रकार का बंधन अनुभव करेंगे | जिस कारण उलझन या तकलीफ होने की सम्भावना नहीं है | ईश्वर या गुरु के प्रति जुड़ाव भी ऐसा ही है | जहाँ एक तरफ़ा जुड़ाव है | बंधन कोई नहीं अपेक्षा  कोई नहीं | तो फिर उलझन भी कोई नहीं | कैसे आध्यात्म  दूर करता है उलझन                                              जैसा की मैंने पहले ग्लू का उदाहरण दिया था | … Read more

अपरिग्रह -वस्तुओं से अत्यधिक प्यार रिश्तों व् मानवता के लिए खतरा

प्रायः ऐसी घटनाएँ देखने-सुनने में आती हैं कि किसी नौकर से कोई चीज़ टूट गई या कुछ नुक़सान हो गया तो मालिक द्वारा उसको अमानवीय यातनाएँ दी गईं। पिछले दिनों ऐसे मामले भी प्रकाश में आए हैं कि ऐसी यातनाओं के कारण नौकर या नौकरानी की मृत्यु तक हो गई। घर के बच्चे विशेष रूप से बहुएँ भी इस प्रकार की यातनाओं का शिकार होती देखी गई हैं। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल गाँवों और क़स्बों तक सीमित हैं अपितु बड़े-बड़े शहरों और महानगरों तक में ऐसी घटनाएँ घटित होना आम बात है। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित लोगों द्वारा अंजाम दी जाती हैं अपितु समाज के शिक्षित और आज की भाषा में कहें तो प्रोफेशनल और समृद्ध लोगों द्वारा भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देना साधारण-सी बात है और इसमें महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। वस्तुओं से अत्यधिक प्यार रिश्तों व् मानवता के लिए खतरा  माना कि एक टी सैट या क्रिस्टल का गिलास बहुत क़ीमती है लेकिन एक समृद्ध व्यक्ति के लिए ये क्या मायने रखता है और फिर क्या एक कप, प्लेट या गिलास की कीमत एक व्यक्ति की जान से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? कदापि नहीं। फिर क्यों ऐसा होता है कि हम थोड़े से आर्थिक नुक़सान के लिए किसी की जान लेने से भी नहीं हिचकिचाते? किसी की जान लेने का अर्थ है ज़िंदगी भर जेल की सलाखों के पीछे सड़ना या फाँसी। क्या कारण है कि हम विवेक से काम न लेकर दूसरों का और स्वयं का जीवन संकट में डाल देते हैं? जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग करे और मनुष्यों से प्रेम न कि वस्तुओं से प्रेम और मनुष्य का उपयोग। आज व्यावहारिक स्तर पर इसका उलट हो रहा है। मनुष्य भौतिक वस्तुओं से तो प्रेम करता है लेकिन मनुष्य से नहीं। भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण अथवा लगाव या प्रेम का प्रमुख कारण है मनुष्य की परिग्रह-वृत्ति या संग्रह करने की आदत। व्यक्ति जिन वस्तुओं का संग्रह करता है उनके प्रति मोह पैदा होना स्वाभाविक है। इसी मोह के वशीभूत जब वस्तु उसके हाथ से निकलती है तो उसे पीड़ा होती है। पीड़ा का कारण वस्तु के क़ब्ज़े से महरूम या वंचित होना है। अनेक ऐसी वस्तुएँ हैं जिनको व्यक्ति प्रयोग में तो लाता है पर उन वस्तुओं पर उसका क़ब्ज़ा नहीं होता। जिन वस्तुओं पर व्यक्ति क़ब्ज़ा नहीं कर सकता उनके लिए तो वह नहीं लड़ता। इस भौतिकवादी युग में पैसा या उससे प्राप्त वस्तु ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है और जब उससे वंचित होना पड़ता है तो बरदाश्त नहीं होता और इस असहिष्णुता के भयंकर परिणाम होते हैं। अपरिग्रह अपनाने के लिए जरूरी है परिग्रह को समझना  परिग्रह या संग्रह वृत्ति को जानने के लिए योग को जानना ज़रूरी है। योग के आठ अंग है जो क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं। योग मात्र कुछ आसनों या सांसों की क्रियाओं का नाम नहीं हैं। यम-नियम से लेकर समाधि तक की यात्रा ही वास्तविक योग है। योग की शुरूआत होती है यम से। यम की परिभाषा है: ‘‘अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः’’ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पालन ही यम है। अपरिग्रह यम का अनिवार्य अंग है। जीवन में यम का समावेश और यम में अपरिग्रह का समावेश नहीं है तो कैसा योग? इनके अभाव में आसन, प्राणायाम तथा ध्यान व योग के अन्य अंग निरर्थक हैं। अपरिग्रह से तात्पर्य है परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह न करना या कम से कम आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। वस्तुएँ नहीं होंगी तो कोई क्लेश नहीं होगा। वस्तुओं के अभाव में न चोरी का भय, न खो जाने की आशंका तथा न पुरानी होकर बेकार हो जाने की चिंता। जीवन में जितना अपरिग्रह का पालन किया जा सकेगा व्यक्ति उतना ही अहिंसक तथा सत्य के निकट हो सकेगा। अहिंसा और अपरिग्रह तो मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हों। अपरिग्रह है तो हिंसा नहीं। परिग्रह वृत्ति के कारण ही हिंसा और उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। जो जितना अधिक संग्रह करता है वह उतना ही भयभीत भी है। भयभीत व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता और न चीजों का सही इस्तेमाल ही। अपरिग्रह भय से मुक्त कर व्यक्ति से प्रेम करना तथा वस्तुओं का सही इस्तेमाल करना भी संभव बनाता है। अपरिग्रह के साथ-साथ एक चीज़ और है जो महत्वपूर्ण है और वह है उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की साधारणता। वस्तुएँ जितनी साधारण होंगी मनुष्य उतना ही सुखी होगा। चाट खाई और पत्ता फैंक दिया या चाय पीकर कुल्हड़ फोड़ दिया। क़ीमती चीज़ों के उपयोग के कारण कई बार बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो जाती है। आपसी संबंध बिगड़ जाते हैं या तनावपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में प्रेम कैसे संभव है? प्रेम महँगी वस्तुओं में नहीं प्रेम तो वस्तुओं से परे है। मन का भाव है। अभाव में जितना प्रेम प्रस्फुटित होता है उतना समृद्धि में नहीं। ओ. हेनरी की कहानी ‘उपहार’ तो आपने अवश्य पढ़ी होगी जिसमें डेला और जिम अभावग्रस्त होते भी हुए एक दूसरे को कितना प्यार करते हैं। अपरिग्रह अपनाने के लिए खुद ही खींचनी होगी सीमा रेखा  आज मनुष्य की आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि संग्रह के बिना काम नहीं चल सकता। उपदेश देना सरल है लेकिन संग्रह का पूर्ण त्याग अथवा पूर्ण अपरिग्रह असंभव है फिर भी कहीं न कहीं तो सीमा रेखा खींचनी ही होंगी। सीमा रेखा के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं के प्रति अपनी सोच अथवा दृष्टिकोण में परिवर्तन करना भी अनिवार्य है। भौतिक वस्तुओं के प्रति उचित सोच का निर्माण होने पर ही व्यक्ति के प्रति उचित सोच का निर्माण संभव है। वस्तुतः हमारी सोच अथवा हमारा दृष्टिकोण ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारा दृष्टिकोण ही हमारी सफलता-असफलता अथवा सुख-दुख के स्तर का निर्माण और निर्धारण करता है। सकारात्मक सोच ही हर समस्या का समाधान है। वस्तुओं और मनुष्य के प्रति अपेक्षित उचित दृष्टिकोण अनिवार्य है। एक प्रश्न ये भी उठता है कि यदि सभी लोग अपरिग्रह वृत्ति को अपना लें तो दुनिया के अधिकांश कारोबार ठप्प हो जाएंगे। भौतिक प्रगति के साथ-साथ विज्ञान और टेक्नोलाॅजी तथा शिल्प और कलाओं का विकास … Read more

धर्म , मजहब , रिलिजन नहीं स्वाभाविक संवेदना से आती है सही सोंच

कभी किसी खाली वक़्त में गौर से अपने आस पास के मज़हबी लोगों को देखिएगा….अजब हैरान परेशान से आत्मसंतोष का ढोंग करते ये लोग आपको एक अलग ही दुनिया की अनुभूति देंगे….मौत के बाद किसी संभावित काल्पनिक ज़िन्दगी की आस में अपना जीवन बर्बाद करते हुए ऐसे लोग आपको हर जगह दिख जायेंगे….महज़ धर्म की बिना पर किसी से प्रेम या नफरत करना ऐसे लोगों का प्रधान गुण होता है…. कोई व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो , यदि वो इनकी जाती और इनके धर्म का अनुयायी है और वो किसी ऐसे नेक और शरीफ आदमी से भिड़ गया है जो किसी दूसरे धर्म को मानता है तो यह लोग अपने धर्म/मज़हब वाले व्यक्ति की लाख गलती के बावजूद भी उसी अपने सहधर्मी का ही साथ देंगे ….. इस तरह की अंध पक्षपातपूर्ण धार्मिकता सबसे पहले व्यक्ति की न्याय क्षमता और इस प्रकार उसके सही गलत की समझ और सच के साथ खड़े होने की सलाहियत को ख़त्म कर देती है…..और फिर जो इंसान सही के साथ खड़े होने की काबिलियत नही रखता उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं की वो अपने जीवन में कुछ कर सकेगा? अच्छा इंसान बन कर समाज के लिए कुछ करने की बात तो छोड़ ही दीजिए,ऐसे लोग खुद अपनी अंतर्मन की आवाज़ को मार के अपने आप को ही धीरे धीरे समाप्त कर देते हैं…. . सही सोंच मजहब से नहीं स्वाभाविक संवेदना से  सही और गलत की पहचान हर इंसान के अंदर स्वाभाविक रूप से होती है…इसके पीछे कोई धर्म नही बल्कि उसकी स्वाभाविक संवेदना होती है जो उसे सही और गलत की समझ प्रदान करती है….कुछ लोगों का कहना है कि इस सही और बुरे के भेद को स्पष्ट करने वाली भावना व्यक्ति में धर्म से आती है…. लेकिन ऐसा नही है….अक्सर लोग धार्मिक होते हुए भी अपने धर्म की बहुत सारी बातें नही मानते,या मानते भी हैं तो उसको कभी व्यव्हार में नही लाते….क्योंकि उनका अंतर्मन और उनकी सही को सही और गलत को गलत समझने की स्वाभाविक मानवीय तार्किकता उन्हें ऐसा करने से रोकती है |जैसे इस्लाम में चार शादियों की अनुमति है लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम इसे सही मानते हुए भी व्यवहार में 4 शादियां नहीं करते , ऐसा वो क्यों करते हैं?क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं मन में इस बात का अहसास होता है कि ऐसा करना गलत होगा|यह अन्याय होगा अपनी जीवन संगिनी से जो उसके लिए अपना घर परिवार छोड़ उसके प्रेम में खुद को समर्पित किये हुए उसके साथ रह रही है |जो उसके सुख दुःख की साथी रही है | यह भाव मनुष्य को धर्म नही बल्कि उसका अंतर्मन कहें या उसकी मानसिक तार्किकता कहें,या धर्म से इतर जो भी कह लें ,उसी से मिलता है |अक्सर धार्मिक जन यह दावा करते हैं की नैतिकता का मूल स्त्रोत धर्म है |क्या ऐसा वास्तविकता में है? यदि हम इसकी गहराई में जाएंगे तो पता चलेगा की वास्तविकता में यह सत्य के एकदम नज़्दीक से होकर गुज़रता एक ऐसा मिथ्या विचार है जो सत्य की तरह दिखने के कारण सत्य प्रतीत होता है..वास्तव में नैतिकता तो मनुष्य के अंतर्मन में ही वास करती है |उसका कहीं बाहर से आना संभव ही नही है |.इसका कारण और इसके पीछे का तर्क भी वही है जो उपर लिखा जा चूका है |नैतिकता तो सही को सही और गलत को गलत कहने की सलाहियत का नाम है….वो गलत चाहे धर्म के नाम पर हो रहा हो या किसी वाद के नाम पर….और सही को सही कहना और उसके साथ खड़ा रहना भी नैतिकता है |चाहे वो सही बात करने वाला व्यक्ति आपका कितना ही बड़ा प्रतिद्वंदी क्यों न हो | धर्म , मजहब , रिलिजन से नहीं करें मानवता से प्यार  एक बात इस विषय में और लिखूंगा….कभी मन से इसको सोचिये और आज़मा कर अवश्य देखिएगा….एक पल को अपने मन से धर्म,जाती,देश मज़हब और वाद की समस्त भावनाओं को अपने मन से एकदम समाप्त करके उनका एकदम से विसर्जन करके फिर अपने आस पास मौजूद इंसानों को देखिएगा….फिर देखिएगा आपके मन में मानवता के लिए कितना प्रेम उमड़ता है….सब लोग आपको आपके अपने लगने लगेंगे….बिलकुल सगे रिश्तेदार जैसे और यह सच भी है की दुनिया के सब इंसानों के बीच आपस में खून का रिश्ता है…. यह तो धर्म/वाद/सीमायें हैं जो उन्हें एक दूसरे में भेद करना और अलगाव पैदा करना सिखाती हैं….यह सब विकार है हमारे पैदा किये हुए  जो इंसान को इंसान से अलग करते हैं…. ज्यादातर धर्म /मजहब  शुरूआती दौर में  सामजिक आन्दोलन रहे हैं  हो सकता है कोई धर्म अपने समय की व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन रहा हो…लेकिन आज के दौर के लिहाज़ से वो आंदोलन परिमार्जित हो चुके हैं….कोई भी आंदोलन…कोई विद्रोह या कोई सुधार समय के साथ ही कालातीत हो जाता है और एक समय ऐसा आता है कि जब परिस्थितयों के चलते वो आंदोलन या सुधार वर्तमान हालातों में लागू किये जाने के लिहाज़ से सुधार के बजाये बिगाड़ बन जाता है…. हो सकता है कोई विचार किसी समय के लिहाज़ से वरदान रहा हो,लेकिन वक़्त के साथ साथ वो वरदान अभिश्राप भी बन जाता है यह भी सत्य है….क्योंकि सृष्टि सदैव परिवर्तनशील है…. मनुष्य की आवश्यकताएं…समाज में व्याप्त दोषों के आधार पर उसमें सुधार के लिए आवश्यक ज़रूरतें और उन सुधारों के मापदंड सदैव परिवर्तित होते रहते हैं स्थितियों के साथ साथ….जिस काल में जिस समाज में जैसे हालात होंगे उनमें उन्हीं हालातों और स्थितियों के अनुरूप सुधार किया जाएगा…. हज़ार हज़ार साल पुराने फार्मूले हमेशा लागू नही किये जा सकते उनपर….ऐसा करेंगे तो सुधार की बजाये बिगाड़ होना निश्चित ही है | संवेदनाओं से युक्त मानवता है असली धर्म  लेकिन धर्म को तो ज़िद है कि उसे बदलना नही है…धर्म को ज़िद है की बदलना तो समाज को ही है….एक मिसाल देता हूँ…..आप कोई कपडा बनवाते हैं,समय के साथ शरीर का माप बदलने के साथ वो कपड़ा आप हमेशा नही पहन सकते ,उसे बदलना होता ही है, लेकिन कपडा अगर ज़िद थाम ले की आपको तो मुझे ही पहनना है,तो आप क्या करेंगे…ज़ाहिर है उसे फेंक देंगे…. यह मानव स्वभाव है कि जो इसके अनुसार नही चल सकता उसकी वर्तमान परिस्थितियों के लिहाज से … Read more

ईश्वर का वाचक शब्द – ओ३म् (ॐ) या ओंकार

ओम शब्द का गठन वास्तविकता मनुष्य जाति  के सबसे महान अविष्कारों में से एक है। ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है।  ओम को सबसे पहले उपनिषद (जो की वेदांत से जुड़े लेख हैं) में वर्णित किया गया था। उपनिषदों में ओम का अलग-अलग तरह से वर्णन किया गया है जैसे कि “ब्रह्मांडीय ध्वनि” या “रहस्यमय शब्द” या “दैवीय चीज़ों की प्रतिज्ञान”। ॐ शब्द का निर्माण  संस्कृत में ओम शब्द तीन अक्षरों से बना है: “अ”, “उ”, और “म”।  “अ” ध्वनि गले के पीछे से निकलती है। आम तौर पर, यह पहली ध्वनि है जो सभी मनुष्यों द्वारा मुंह खोलते ही निकलती है, और इसलिए अक्षर “अ” शुरुआत को दर्शाता है। इसके× बाद ध्वनि “उ” आती है, जो तब निकलती है जब मुंह एक पूरी तरह से खुले होने से अगली स्थिति में आता है। इसलिए “उ” परिवर्तन के संयोजन को दर्शाता है। ध्वनि “म” का गठन होता है जब होठों को जोड़ते हैं और मुंह पूरी तरह बंद हो जाता है, इसलिए यह अंत का प्रतीक है। जब इन ध्वनियों को एक साथ जोड़ दिया जाता है, ओम का अर्थ है “शुरुआत, मध्य और अंत।” ॐ  की अन्य   व्याख्याएं ओम की कई अन्य व्याख्याएं भी हैं, जिनमें से कुछ हैं: अ = तमस (अंधकार, अज्ञान), उ = रजस (जुनून, गतिशीलता), म = सत्व (शुद्धता, प्रकाश) अ = ब्रह्मा (निर्माता), उ = विष्णु (परिरक्षक), म = शिव (विध्वंसक) अ = वर्तमान, उ = भूत, म = भविष्य अ = जगे होने की स्थिति, उ = स्वप्न देखने की स्थिति, म = गहरी नींद की स्थिति ओम को “प्रथम ध्वनि” माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि व्रम्हांड में भौतिक निर्माण के अस्तित्व में आने से पहले जो प्राकृतिक ध्वनि थी, वह थी ओम की गूँज। ॐ का जाप हमें पूरे ब्रम्हांड की इस चाल से जोड़ता है ॐ यह अमर शब्द ही पूरी दुनिया है, जिसका नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। ॐ का जाप हमें पूरे ब्रम्हांड की इस चाल से जोड़ता है और उसका हिस्सा बनाता है चाहे वो अस्त होता सूर्य हो, चढ़ता चन्द्रमा हो, ज्वार का प्रवाह हो, हमारे दिल की धड़कन या फिर हमारे शरीर के भीतर की परमाणु की ध्वनियाँ ! जब हम ॐ का जाप करते हैं तो यह हमें हमारी सांस, हमारी जागरूकता तथा हमारी शारीरिक ऊर्जा के माध्यम से हम सर्भौमिक सवारी पर सवार होकर आत्मा की गहराई में डुबकी लगाते हैं जो हमें अपार शांति प्रदान करता है !   ॐ सभी मुख्य  संस्कृतियों का प्रमुख भाग  ओ३म् किसी ना किसी रूप में सभी मुख्य  संस्कृतियों का प्रमुख भाग है. यह तो अच्छाई, शक्ति, ईश्वर भक्ति और आदर का प्रतीक है. उदाहरण के लिए अगर हिन्दू अपने सब मन्त्रों और भजनों में इसको शामिल करते हैं तो ईसाई और यहूदी भी इसके जैसे ही एक शब्द “आमेन” का प्रयोग धार्मिक सहमति दिखाने के लिए करते हैं.  मुस्लिम इसको “आमीन” कह कर याद करते हैं. बौद्ध इसे “ओं मणिपद्मे हूं” कह कर प्रयोग करते हैं. सिख मत भी “इक ओंकार” अर्थात “एक ओ३म” के गुण गाता है. अंग्रेजी का शब्द “omni”, जिसके अर्थ अनंत और कभी ख़त्म न होने वाले तत्त्वों पर लगाए जाते हैं (जैसेomnipresent,omnipotent), भी वास्तव में इस ओ३म् शब्द से ही बना है. इतने से यह सिद्ध है कि ओ३म् किसी मत, मजहब या सम्प्रदाय से न होकर पूरी मानव जाति का है. ठीक उसी तरह जैसे कि हवा, पानी, सूर्य, ईश्वर, वेद आदि !  सृष्टि के सृजन का प्रतीक हैं ॐ  संक्षेप में, कोई भी और सभी ध्वनियों, चाहे वे कितनी अलग हों या किसी भी भाषा में बोली जाती हों, ये सभी इन तीनों की सीमा के भीतर आती हैं इतना ही नहीं, “शुरुआत, मध्य और अंत” के प्रतीक यह तीन अक्षर, स्वयं सृष्टि के सृजन का प्रतीक हैं। इसलिए सभी भाषाओं में सभी प्रकार की ध्वनियों को इस एकल शब्द, ओम, का उच्चारण अपने में लपेट लेता है। और इसके अलावा, ओम के उच्चारण के द्वारा ईश्वर की पहचान करने में सहायता मिलती है, ईश्वर जो कि शुरुआत, मध्य और ब्रह्मांड के अंत का स्रोत है।  ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें …….. मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल परमात्मा से मित्रता ही साधारण को असाधारण में बदलती है संन्यास नहीं , रिश्तों का साथ निभाते हुए बने आध्यात्मिक मृत्यु सिखाती है कर्तव्य का पाठ आपको आपको  लेख “ ईश्वर का वाचक शब्द – ओ३म् (ॐ) या ओंकार“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords:ॐ , om, omkar, ईश्वर, God, universe

दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष

     जीवन के हर मोड़ पर कोई न कोई विषमता, कोई न कोई अभाव मुँह उठाए ही रहता है। किसी का बचपन संघर्षों में गुज़रता है तो किसी की युवावस्था। कोई अधेड़ावस्था में अभावों से जूझ रहा है तो कोई वृद्धावस्था में एकाकीपन की पीड़ा का दंश भोगने को विवश है। हम सबका जीवन किसी न किसी मोड़ पर कमोबेश असंख्य दूसरे अभावग्रस्त अथवा संघर्षशील लोगों जैसा ही होता है। मेरे ही जीवन में अभावाधिक्य रहा है अथवा मैंने ही जीवन में सर्वाधिक संघर्ष किया है और ऐसी परिस्थितियों में मेरे स्थान पर दूसरा कोई होता तो वो सब नहीं कर सकता था जो मैंने किया यह सोचना ही बेमानी, वास्तविकता से परे व अहंकारपूर्ण है।      कई लोगों का कहना है कि यदि उनके जीवन में ये तथाकथित बाधाएँ अथवा समस्याएँ न आई होतीं तो उनका जीवन कुछ और ही होता। प्रश्न उठता है कि यदि जीवन ऐसा नहीं होता तो फिर कैसा होता? यहाँ एक बात तो स्पष्ट है कि यदि परिस्थितियाँ भिन्न होतीं तो जीवन भिन्न होता लेकिन ऐसा नहीं होता जैसा आज है। लेकिन जैसा आज है क्या वह कम महत्त्वपूर्ण अथवा महत्त्वहीन है? क्या ऐसे जीवन की कोई सार्थकता अथवा उपयोगिता नहीं? क्या संघर्षमयता स्वयं में जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं? इसका उत्तर तो हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जानिये कैसे दुख का मूल नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष      संघर्षों से जूझनेवाला बहादुर तथा पलायन करने वाला कायर कहलाता है। अभाव और संघर्ष हमारे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा होते हैं अतः हमारे चरित्र निर्माण अथवा चारित्रिक विकास में बड़े सहायक होते हैं। जो अभावों तथा संघर्षों की आँच में तपकर बड़े होते हैं अथवा निकलते हैं वह उन लोगों के मुक़बले में महान होते हंै जिन्होंने जीवन में कोई संघर्ष किया ही नहीं। अभाव और संघर्ष जीवन की गुणवत्ता को नए आयाम प्रदान करते हैं। संघर्षशील व्यक्ति अपने जीवनकाल में अथवा संघर्ष के बाद के शेष जीवन में बिना किसी भय के अडिग रह सकता है जबकि संघर्षविहीन व्यक्ति बाद के जीवन में अभाव अथवा दुख के एक हलके से आघात अथवा झोंके से धराशायी हो सकता है। जिनके जीवन में अभाव अथवा संघर्ष की कमी होती है उन्हें आगे बढ़ने के लिए अथवा स्वयं का विकास करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है जिसकी उन्हें आदत नहीं होती। आभाव देते हैं संघर्ष की प्रेरणा       वास्तविकता ये भी है कि अभावों में व्यक्ति जितना संघर्ष करता है सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं करता। अभाव एक तरह से व्यक्ति के उत्थान के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं, उसके विकास की सीढ़ी बन जाते हैं। अभावों से जूझने वाला संघर्षशील व्यक्ति अधिक परिश्रमी ही नहीं अपितु अधिकाधिक सहृदय और संवेदनशील भी होता है। परिस्थितियाँ एक संघर्षशील व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से ऐसे गुण पैदा कर देती हैं। संघर्ष चाहे स्वयं के लिए किया जाए अथवा दूसरों को आगे बढ़ाने व उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष के उपरांत सफलता मिलने पर ख़ुशी होती है। यही ख़ुशी हमारे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि में सहायक होती है। हमारी ख़ुशी का हमारे स्वास्थ्य से और स्वास्थ्य का हमारी भौतिक उन्नति से सीधा संबंध है। संघर्ष व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है।      सफ़र में थोड़ी बहुत दुश्वारियाँ न हों तो घर पहुँचकर साफ़-सुथरे बिस्तर पर आराम करने का आनंद संभव नहीं। इसी प्रकार अभाव की पूर्ति होने पर जो आनंदानुभूति होती है वह अभाव की अनुभूति के बिना संभव नहीं। अभाव व संघर्ष द्वारा ही यह संभव है। संघर्षों का नाम ही जीवन है। जीवन में संघर्ष न हों तो जीने का मज़ा ही जाता रहता है। उर्दू शायर असग़र गोंडवी तो ज़िंदगी की आसानियों को ज़िंदगी के लिए सबसे बड़ी बाधा मानते हुए कहते हैं: चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे-हवादिस से,अगर आसानियाँ हो  ज़िंदगी दुश्वार हो जाए।  सघर्ष हैं आनंद  का मार्ग      जीवन में आनंद पाना है तो स्वयं को संघर्षों के हवाले कर देना ही श्रेयस्कर है। संघर्ष रूपी कलाकार की छेनी आपके अस्तित्व रूपी पत्थर को तराशकर एक सुंदर प्रतिमा में परिवर्तित करने में जितनी सक्षम होती है अन्य कोई नहीं। मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ जीवन में विषम परिस्थितियों से उत्पन्न हालात को एक दूरदर्शी व्यक्ति के लिए उस्ताद या गुरू के तमाचे अथवा थप्पड़ की तरह मानते हुए कहते हैं: अहले-बीनिश  को  है  तूफ़ाने-हवादिस  मक्तब,लत्मा-ए-मौज कम अज़  सीली-ए-उस्ताद नहीं।      हम स्वयं अपने जीवन को रोमांचक, चुनौतीपूर्ण और साहसी बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ते। ख़तरों के खिलाड़ी कहलवाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे हमें ख़ुशी मिलती है। लेकिन यदि हमें कोई चुनौती प्राकृतिक रूप से मिल जाती है तो उसे स्वीकार करने अथवा उसके पार जाने में दुविधा क्यों? अभावों तथा संघर्ष को अन्यथा मत लीजिए। उन्हें महत्त्व दीजिए। किसी भी चुनौती को स्वीकार किए बिना उसे जीतना और विजेता बनना असंभव है। संघर्ष हर जीत को संभव बना देता है।  संघर्ष दुख नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास होता है। दुख से बाहर आने का अर्थ है सुख, प्रसन्नता अथवा आनंद। संघर्ष आनंद का ही उद्गम है।  सीताराम गुप्ता, दिल्ली यह भी पढ़ें ……….. तेज दौड़ने के लिए जरूरी है धीमी रफ़्तार असफलता से सीखें अधूरापन अभिशाप नहीं प्रेरणा है व्यक्तित्व विकास के पांच बेसिक नियम -बदलें खुद को आपको आपको  लेख “दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

परमात्मा से मित्रता ही साधारण को असाधारण में बदलती है

                                            परमात्मा हर पल हम सब के साथ है | वो हमारा अभिन्न  मित्र है | पर हम इस बात को स्वीकार कहाँ करते हैं की हम अकेले होते हुए भी अकेले नहीं है वो परमात्मा हर पल हमारे साथ है | जिस पल हमें यह अहसास हो जाएगा हम भी अर्जुन , मीरा या श्री हुनमान जी कर तरह असाधारण कार्य कर जायेंगे | इस बात को समझाने की सबसे ज्यादा आवश्यकता हमारे बच्चों को है | जो परमात्मा की शक्ति को अपने अन्दर महसूस करते हुए  सहज भाव से असाधारण कामों को अंजाम दे सकते हैं | पढ़ें कैसे परमात्मा से मित्रता ही साधारण को असाधारण में बदलती है  संसार में जितने भी महापुरूष हुए हैं वे सभी बचपन में साधारण थे। परमात्मा सबसे महान एवं शक्तिशाली है। आप अपने बालक की इसी सबसे महान एवं शक्तिशाली परमात्मा से मित्रता करा दीजिए। हृदय पवित्र करके परमात्मा की आज्ञा तथा इच्छा को जानने तथा उसके अनुसार प्रभु कार्य करने से ही परमात्मा से मित्रता होती है। इसके लिए हमें बालक को घर तथा विद्यालय में परमात्मा की शिक्षाओं का अर्थ बताना चाहिए। उसे यह बताना चाहिए कि परमात्मा अपना है पराया नहीं और इसलिए परमात्मा की बनायी यह पूरी धरती तथा मानव जाति अपनी है परायी नहीं। वास्तव में मानव जाति की भलाई करना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। प्रभु इच्छा तथा आज्ञा को जानकर लोक कल्याण के लिए असाधारण कार्य करने वाले कुछ महापुरूषों के त्यागमय तथा कष्टमय जीवन के विवरण इस प्रकार हंै:- (1) न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए:- अर्जुन को कृष्ण के मुँह से निकले परमात्मा के पवित्र गीता के सन्देश से ज्ञान हुआ कि कर्तव्य ही धर्म है। न्याय के लिए युद्ध करना ही उसका परम कर्तव्य है। उस समय राजा ही जनता के दुःख-दर्द को सुनकर न्याय करते थे। कोई कोर्ट या कचहरी उस समय नहीं थी। और जब राजा स्वयं ही अन्याय करने लगे तब न्याय कौन करेगा? न्याय की स्थापना के लिए युद्ध के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा था। भगवानोवाच पवित्र गीता के ज्ञान को एकाग्रता से सुनने के बाद अर्जुन हाथ जोड़कर बोला ‘‘प्रभु अब मेरे मोह का नाश हो गया है और मुझे ईश्वरीय ज्ञान एवं मार्गदर्शन मिल गया है। अब मैं निश्चित भाव से युद्ध करुँगा।’’ अर्जुन ने विचार किया कि जो परमात्मा की बनायी सृष्टि को कमजोर करेंगे वे मेरे अपने कैसे हो सकते हैं? पवित्र गीता के ज्ञान को जानकर उसने निर्णय लिया कि न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए। फिर अर्जुन ने अन्याय के पक्ष में खड़े अपने ही कुल के सभी अन्यायी यौद्धाओं तथा 11 अक्षौहणी सेना का महाभारत के युद्ध में विनाश किया। इस प्रकार अर्जुन ने प्रभु का कार्य करते हुए धरती पर न्याय के साम्राज्य की स्थापना की। (2) माता देवकी ने मानव उद्धारक कृष्ण को अपनी कोख से जन्म देने की प्रतीक्षा की:- माता देवकी ने प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया और वह एक महान नारी बन गईं तथा उनका सगा भाई कंस ईश्वर को न पहचानने के कारण महापापी बना। देवकी ने अपनी आंखों के सामने एक-एक करके अपने सात नवजात शिशुओं की हत्या अपने सगे भाई कंस के हाथों होते देखी और अपनी इस हृदयविदारक पीड़ा को अत्यन्त धैर्यपूर्वक अपने आंठवे पुत्र कृष्ण के अपनी कोख से उत्पन्न होने की प्रतीक्षा की ताकि मानव उद्धारक कृष्ण का इस धरती पर अवतरण हो सके तथा वह धरती को अपने भाई कंस जैसे महापापी के आतंक से मुक्त करा सके तथा धरती पर न्याय आधारित ईश्वरीय साम्राज्य की स्थापना हो। (3) मीरा को कृष्ण की भक्ति में अनेक कष्ट सहने पड़े:- मीराबाई कृष्ण भक्ति में भजन गाते हुए मग्न होकर नाचने-गाने लगती थी जो कि उनके राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था। इससे नाराज होकर मीरा को राज परिवार ने तरह-तरह से डराया तथा धमकाया। उनके पति राणाजी ने कहा कि तू मेरी पत्नी होकर कृष्ण का नाम लेती है। मैं तुझे जहर देकर जान से मार दूँगा। मीरा ने प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था उसने कहा कि पतिदेव यह शरीर तो विवाह होने के साथ ही मैं आपको दे चुकी हूँ, आप इस शरीर के साथ जो चाहे सो करें, किन्तु आत्मा तो प्रभु की है, उसे यदि आपको देना भी चाँहू तो कैसे दे सकती हूँ? इसलिए हमें भी मीरा की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। (4) प्रभु कार्य किये बिना मुझे कहा विश्राम:- हनुमान जी ने परमात्मा को पहचान लिया तो वे एक छलाँग में मीलों लम्बा समुद्र लांघकर सोने की लंका पहुँच गये। हनुमान में यह ताकत परमात्मा की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लेने से आ गयी। प्रभु भक्त हनुमान ने पूरी लंका में आग लगाकर रावण को सचेत किया। हनुमान के चिन्तन में केवल एक ही बात थी कि प्रभु का कार्य किये बिना मुझे एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं करना है। हनुमान ने बढ़-चढकर प्रभु राम के कार्य किये। हनुमानजी की प्रभु भक्ति यह संदेश देती है कि उनका जन्म ही राम के कार्य के लिए हुआ था। भक्त प्रहलाद, गाँधी जी, मदर टेरेसा, अब्राहम लिंकन ने अपने त्यागमय तथा सेवामय जीवन द्वारा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। (5) बच्चों को इस युग का ज्ञान तथा बुद्धिमत्ता देकर पूर्णतया गुणात्मक व्यक्ति बनाये:- परिवार तथा विद्यालय दोनों को मिलकर बच्चों को भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षाओं का संतुलित ज्ञान कराना चाहिए। बच्चों को यह बतलाये कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है। इसके साथ ही हमें बच्चों को बाल्यावस्था से ही यह संकल्प कराना चाहिए कि एक दिन दुनियाँ एक करूँगा, धरती स्वर्ग बनाऊँगा। विश्व शान्ति का सपना एक दिन सच करके दिखलाऊँगा। परमात्मा की ओर से अवतरित पवित्र पुस्तकों का ज्ञान सारी मानव जाति के लिए हंै। राम ने अपने जीवन द्वारा मर्यादा, कृष्ण ने गीता द्वारा न्याय, बुद्ध ने त्रिपटक द्वारा सम्यक ज्ञान (समता), ईशु ने बाइबिल द्वारा करूणा, मोहम्मद ने … Read more

हे ईश्वर, क्या वो तुम थे

ईश्वर हैं की नहीं हैं | हम इस पर कभी न् खत्म  होने वाली बहस कर सकते हैं | पक्ष और विपक्ष में तरह – तरह की दलीले दे सकते हैं | पर जिसे दिल महसूस करता है उसे दिमाग तर्क से न कभी समझ पाया है न समझ पायेगा | ईश्वर , जो नहीं हो कर भी हैं , और हो कर भी नहीं हैं | उनके होने के अहसास को जिसने महसूस किया है | उसके सामने दिमाग के तमाम तर्क बेमानी हो जाते हैं बचपन में माँ के मुँह से अक्सर एक भजन सुना करतीं थी। …… “जहाँ गीध -निषाद का आदर है जहाँ व्याधि अजामिल का घर है उस घर मे वेश बदल कर के जा ठहरेंगे वो कभी न कभी “  बालसुलभ कौतूहलता से माँ से पूँछती “माँ क्या ऐसा होता है ,क्या भगवान आते है ,माँ स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहती ,भगवन वेश बदल कर आते है किसी को माध्यम बना कर आते है | पर आते है ,इसी आस्था विश्वास के साथ मैं बड़ी होने लगी।जीवन में कुछ ऐसी घटनाऐ हुयी जिनसे मेरे इस विश्वास को बल मिला। उन्ही में से एक घटना मैं साझा कर रही हूँ। आज से करीब पाँच  साल पहले की बात है ………वो रविवार की एक आम सुबह थी ,मै हमेशा की तरह घर की विशेष सफाई के मूड मे थी क्योंकि सप्ताह के बाकि दिनों मे इतना समय नही मिलता और मेरे पति कुछ सामान लेने बाहर गये हुए थे,तभी अचानक फोन की घंटी बजी। …………उधर से आवाज आई ,आप श्रीमती बाजपेयी बोल रही है ,”जी” मैने कहा, उधर से स्वर सुनाई दिया “आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है वो इस अस्पताल मे है आप जल्दी आ जाइये”। ,उसके बाद उन्होने क्या कहा मुझे सुनाई नहीं दिया ,मेरी चीख निकल गई , दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया,जल्दी -जल्दी में बस इतना समझ आया कि अस्पताल जाना है |  जितने पैसे मेरी पर्स मे आ सकते थे ड़ालकर , तमाम आशंकाओ से ग्रस्त मन के साथ ईश्वर  के नाम का जप करते हुए अस्पताल पहुँची। मैंने सुना था ,यह दिल साथ देना छोड़ देता है ,उस दिन पहली बार महसूस किया। मैं जो किसी दूसरे को दर्द तकलीफ मे नही देख पाती ,आपने पति को इस हलत मे देख कर बिल्कुल टूट गयी, मेरे दिल की धड़कने 150 /मिनट तक पहुँच गयी ,पसीना आने लगा ,आखों के आगे अंधेरा छाने लगा ,मै पति को क्या संभालती मैँ तो खुद खड़ी होने की स्थिति  मे नही रह गयी। मैं वही फर्श पर बैठ गयी।  तभी वो तीन लड़के (उम्र करीब 20 ,21 साल ) जो मेरे पति को अस्पताल ले कर आये थे , उनकी नजर मुझ पर गयी ,उन्होने तुरन्त डॉक्टर को बुलाया , डॉक्टर ने पल्पिटेशन देख कर एंटी एंग्जाइटी , बीटा ब्लॉकर्स की टैबलेट्स देकर मुझे आराम करने को कहा ,मैं इस हालत मे नही थी कि किसी को फ़ोन कर के बुलाऊ ,वही तीनो लड़के जो मध्यम वर्ग के लग रहे थे ,  मेरे पति के साथ लगे रहे , उनको X -RAY रूम तक ले जाना , जूते मोज़े उतारना, सारी दौड़ भाग  करीब चार घंटे तक करते रहे। तब तक मेरी हालत थोड़ी ठीक हुईं मैंने अपने परिचितों को फोन कर के बुला लिया।  फिर वो तीनों मेरे पास आ कर बोले “आंटी अब हम जा रहे है , मैंने उनसे उनके बारे में पूंछा तो उन्होंने बताया की वो CA की  कोचिंग कर रहे हैं | एक्सीडेंट के समय कोचिंग ही जा रहे थे | उन्होंने कोचिंग का नाम व् घर का पता बताया | मैंने भी अपने घर का पता ,अपना परिचय , पति का कार्ड देकर कभी घऱ आने को कहा।” फिर वो चले गए।  अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय जब मैं काउंटर पर बिल देने गयी तब पता चला , अस्पताल में एडमिट करने में करीब 1500 का बिल वो लड़के भर गए हैँ।  मुझे आश्चर्य हुआ की उन्होंने मुझसे चलते समय अपने रूपये क्यों नहीं मांगे .। उस समय मैंने सोचा शायद घर आएं ,पता तो उनके पास् हैं. ,और मैं पति के साथ घर वापस आ गयी।  करीब पांच महीने का वो समय बहुत कठिन था ,एक पत्नी के रूप में शायद मेरे धैर्य ,सेँवा ओर सहनशक्ति की परीक्षा का समय थ।कामों के बोझ से दबी मैं हर ऱोज उनकी आने की प्रतीक्षा करती,हर ऱोज सोचतीं शायद आज आये ,कम से कम अपने पैसे तो ले जाये।मन पर भारी बोझ था | पर वो नहीं आये।  जब पति ठीक हो गये तो उनके साथ उस मुहल्ले में गयी ,उस पते पर कोई दूसरे लोग रहते थे , कोचिंग सेंटर गयी वहां पता चला इस नाम क़े लडके तो यहॉँ कभी पढेँ ही नहीं। बहुत खोज बीन की ,आज के समय में ऐसा कौन हो सक़ता है ,जो अपने रूपये छोड़ दे | जबकि दो – दो रूपये के लिए  लोग रिश्तेदारों को मारने – काटने दौड़ते हैं |  मन खुद से ही प्रश्न करता वो क्यों नहीं आये जबकी उनके पास  घऱ का पता था  । अन्तत : बड़े दुखी मन से हमने वो रूपये मंदिर में चढ़ा दिए। मंदिर से लौट कर मैं अन्मयस्क सी घर की सीढियाँ चढ़ती जा रही थी और सोचती जा रही थी ,हे प्रभु …. उस समय जब मुझे मदद की बहुत जरूरत थीं |  ,हे ईश्वर  क्या वेश बदल कर आने वाले वो तुम थे। …. क्या वो तुम थे।  घर के अन्दर से सासु माँ के भजन की आवाज़ आ रही थी।  “गिरने से जो प्रहलाद को तुम थाम न लेते भूले से कभी भक्त तेरा नाम न लेते “ और मेरा सर उस परमपिता के आगे श्रद्धा से झुक गया | अब मुझे किसी से पूँछने की जरूरत नहीं थी कि हे ईश्वर क्या वो तुम थे |  वंदना बाजपेयी  या भी पढ़ें …. मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल संन्यास नहीं , रिश्तों का साथ निभाते हुए बने आध्यात्मिक मृत्यु सिखाती है कर्तव्य का पाठ आस्थाएं -तर्क से तय नहीं होती  आपको आपको  लेख “हे ईश्वर, क्या वो तुम थे “ कैसा … Read more