सफल व्यक्ति ~आखिर क्या है इनमें ख़ास

पंकज प्रखर  मानव ईश्वर की अनमोल कृति है लेकिन मानव का सम्पूर्ण जीवन पुरुषार्थ के इर्दगिर्द ही रचा बसा हैगीता जैसे महान ग्रन्थ में भी श्री कृष्ण ने मानव के कर्म और पुरुषार्थ पर बल दिया है रामायण में भी आता है “कर्म प्रधान विश्व रची राखा “ अर्थात बिना पुरुषार्थ के मानव जीवन की कल्पना तक नही की जा सकती इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पढ़े है जो पुरुषार्थ के महत्व को प्रमाणित करते है हम इतिहास टटोलकर देखें तो ईसा मसीह,सुकरात, अब्राहम लिंकन,कालमार्क्स ,नूरजहाँ,सिकंदर आदि ऐसे कई उदाहरण इतिहास में विद्यमान है जिन्होंने अपने निजी जीवन में बहुत से दुःख और तकलीफें झेली इनके जीवन में जितने दुःख और परेशानियां आई इन्होने उतनी ही मजबूती के साथ उनका मुकाबला करते हुए न केवल एक या दो बार बल्कि जीवन में अनेको बार उनका डटकर मुकाबले किया और अपने प्रबल पुरुषार्थ से उन समस्याओं और दुखों को परास्त करते हुए इतिहास में अपना एक सम्माननीय स्थान बना लिया | सिकंदर फिलिप का पुत्र था कहा जाता है की सिकंदर की माँ अपने प्रेमी के प्रणय जाल में इतनी अंधी थी की उसने अपने पति फिलिप को धोखे से मरवा दिया और सिकंदर का भी तिरस्कार किया मगर सिकंदर का परिस्थितियों पर हावी होने का इतना प्रबल पुरुषार्थ था की सिकंदर ने अपने दुर्भाग्य को पुरुषार्थ से सोभाग्य में परिणित कर दिया | एक मूर्तिकार का बेटा जो देखने में बड़ा कुरूप था उसने अपने जीवन की शुरुवात एक सैनिक के रूप में की और बहुत छोटी उम्र में उसके पिता का साया उस पर से उठ गया अब उसकी माँ ही थी जो अपने पुत्र और अपने जीवन का निर्वाह दाई का कम करके करती थी यही कुरूप बालक आगे चलकर सुकरात के नाम से प्रसिद्द हुआ जिसने अपने पुरुषार्थ से दर्शनशात्र के जनक की उपाधि प्राप्त की | एक सम्पन्न परिवार में जन्म लेने वाला लिओनार्दो विन्ची को भी अपने जीवन में माता पिता के बीच हुए मनमुटाव के कारण अलग होने पर कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पढ़ा बहुत गरीब स्थिति में उसने अपना जीवन बिताया थोडा बड़े होते ही घर की सारी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर आ गयी लेकिन उसने अपनी जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा से निभाया और इटली ही नही अपितु पुरे विश्व में शिल्प और चित्रकला के नये आयाम स्थापितकरअपनी कलाकृतियों के द्वारा अमर हो गया | ईसामसीह जिनके आज दुनिया में एक तिहाई अनुयायी है उनका जन्म एक बड़ई के घर में हुआ लेकिन ईश्वर में अपनी आस्था और विश्वास के द्वारा उन्होंने श्रेष्ठ मार्ग पर चलते हुए सभी विघ्न बाधाओं को काटते हुए वे एक महामानव बने और लोगों के लिए सत्य का मार्ग अवलोकित कर गये | भारत वर्ष को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने वाले चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म भी एक दासी से हुआ था लेकिन उसे चाणक्य जैसे गुरु मिले और उनके बताये रास्ते पर चलते हुए वह अपने पराकृम और पुरुषार्थ के द्वारा राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में सफल रहा | प्रसिद्द विचारक और दार्शनिक कुन्फ़्युसिअस को तीन वर्ष की छोटी सी उम्र में ही पिता के स्नेह से वंचित होना पड़ा था अपने पिता को वो अभी ठीक प्रकार से पहचान भी नही पाया था की वह अनाथ हो गया है और छोटी सी उम्र में ही उसे जीविकोपार्जन  के कार्य में लगना पढ़ा लेकिन बढ़ा बनने की इच्छा उसमे प्रारम्भ से ही थी यद्यपि 19 वर्ष की आयु में ही उसका विवाह हो गया और तीन संतानों के साथ बड़ी ही तंगहाली में उसने जीवन जिया लेकिन अपने पुरुषार्थ और दृण इच्छा शक्ति के कारण उसने चमत्कार कर दिखया और महान  दार्शनिक कहलाया | कालमार्क्स यद्यपि गरीब था और मरते तक उसने तंगहाली में ही जीवन जिया लेकिन अपनी संकल्प शक्ति और दृण विचारों द्वारा दुनिया के करोड़ो लोगों को अपने भाग्य का विधाता आप बना गया उसने अपनी पुस्तक “दास केपिटल” को सत्रह बार लिखा अठारवीं बार में वो अपने उद्दत रूप में निकलकर बाहर आई और साम्यवाद की आधारशिला बन गयी| नूरजहाँ जिसके इशारे पर जहांगीर अपना शासन चलाता था एक निर्वासित ईरानी की बेटी थीजो शरणार्थी बनकर सम्राट अकबर के दरबार में आया था | अपने संगठन शक्ति दूरदर्शिता दावपेंचऔर सीमित साधनों के बल पर औरंगजेब के नाकों चने चबवाने वाले शिवाजी के पिता शाहजी एक रियासत के दरबारी थे शिवाजी को अपने पिता का किसी प्रकार का सहयोग या आश्रय नही मिला उनका साहस केवल माता की शिक्षा और गुरु के ज्ञान पर टीका हुआ था वे साहस और पराकृम के बल पर स्वराज्य के लक्ष्य की ओर सफलतापूर्वक बढ़ते गये एवं यवनों से जूझकर छत्रपति राष्ट्राध्यक्ष बने | शेक्सपियर जिनकी तुलना संस्कृत के महान कवि कालिदास से की जाती है एक कसाई के बेटे थे परिवार के निर्वाह हेतु उन्हें भी लम्बे समय तक वही काम करना पड़ा लेकिन बाद में अपनी अभिनय प्रतिभा तथा साहित्यिक अभिरुचि के विकास द्वारा अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ कवि तथा नाटककार बन गये | न्याय और समानता के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले  अब्राहम लिंकन को कौन नही जानता उन्होंने अपने जीवन में असफलताओं का मुँह इतनी बार देखा की यदि पूरे जीवन के कार्यों का हिसाब लगाया जाए तो उनमे सौ में से निन्यानवे तो असफल रहे है जिस काम में भी उन्होंने हाथ डाला असफल हुए |रोजमर्रा के निर्वाह हेतु एक दूकान में नौकरी की तो दुकान का दिवाला निकल गया किसी मित्र से साझेदारी की तो धंधा ही डूब गया जैसे तैसे वकालत पास की लेकिन वकालत नही चली चार बार चुनाव लढ़े  और हर बार हारे जिस स्त्री से शादी की उसके साथ भी सम्बन्ध बिगड़ गये और वो इन्हें छोड़कर चली गयी जीवन  में एक बार उनकी महत्वाकांक्षा  पूरी हुई जब वे राष्ट्रपति बने और इस सफलता के साथ ही वो विश्व इतिहास में सफल हो गये | विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइनजिसने परमाणु शक्ति की खोज की वो खोजी बचपन में मुर्ख और सुस्त था | उनके माता-पिता को चिंता होने लगी थी की ये अपना जीवन कैसे चला पायेगा लेकिन जब उन्होंने प्रगति पथ पर बढ़ना शुरू किया तो सारा संसार चमत्कृत होकर देखता रह गया | सफलता के लिए … Read more

मां ने कभी हारने नहीं दिया – पैरालंपिक गोल्ड मेडलिस्ट मरियप्पन थंगावेलु के जीवन का साहस भरा जज्बा तथा जुनून

संकलन-प्रदीप कुमार सिंह मरियप्पन का जन्म तमिलनाडु के सेलम जिले से 50 किलोमीटर दूर पेरियावादागामपट्टी गांव में हुआ। बचपन में ही पिता परिवार छोड़कर चले गए। परिवार मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। चार बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी अकेले मां पर आ गई। गुजर-बसर करने के लिए कुछ दिनों तक उन्होंने ईंट भट्टे पर मजदूरी की। बाद में सब्जी बेचने लगीं। दुश्वारियों भरे दिन थे वे। सब्जी बेचकर इतनी कमाई नहीं हो पाती थी कि चारों बच्चों को भरपेट खाना खिलाया जा सके। इसके बावजूद मां चाहती थीं कि किसी तरह बच्चों की पढ़ाई जारी रहे, ताकि आगे चलकर उन्हें अच्छी जिंदगी नसीब हो। खुद अनपढ़ होने के बावजूद उन्होंने चारों बच्चों को स्कूल भेजा। पर नई मुसीबतें उनका इंतजार कर रही थीं। मरियप्पन तब पांच साल के थे। एक दिन पैदल स्कूल जा रहे थे। तभी रास्ते में सामने से आती तेज रफ्तार बस ने उन्हें टक्कर मार दी। बस का पहिया उनके नन्हे पैरों को कुचलता हुआ आगे बढ़ गया। वह बेहोश हो गए। राहगीरों ने खून से लथपथ बच्चे को पास के सरकारी अस्पताल तक पहुंचाया। इलाज शुरू हुआ, पर उनकी हालत बिगड़ती गई। फिर किसी ने प्राइवेट अस्पताल ले जाने का सुझाव दिया। वहां डाॅक्टर ने मां से कहा कि इलाज में बहुत खर्च आएगा। मां गिड़गिड़ाने लगीं- कुछ भी कीजिए डाॅक्टर साहब। मेरे बेटे के पांव ठीक कर दीजिए। आनन-फानन में किसी तरह तीन लाख रूपये का लोन लिया। कुछ लोगों ने उन्हें टोका- इतनी बड़ी रकम है, कहां से चुकाओगी? मां का जवाब था- बेटा अपने पांव पर खड़ा हो जाए, इसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं। कुछ महीने इलाज चला। समय के साथ उम्मीदें धूमिल होती गईं। आखिरकार एक दिन डाॅक्टर ने साफ कह दिया कि अब आपका बेटा कभी अपने पैरांे पर खड़ा नहीं हो पाएगा। मरियप्पन के घुटने के नीचे का हिस्सा पूरी तरह खराब हो गया था। मरियप्पन कहते हैं, लोगों ने कहा कि ड्राइवर ने शराब पी रखी थी, इसलिए यह हादसा हुआ। मगर मेरे लिए यह सब मायने नहीं रखता। किसी को कोसने से कुछ हासिल नहीं होता है। मैंने हकीकत को स्वीकार किया और आगे बढ़ने की कोशिश की। हादसे ने उन्हें हमेशा के लिए अपाहिज बना दिया। मगर मां ने हिम्मत नहीं हारी। सब्जी बेचने के साथ ही वह दूसरों के घरों में चैका-बर्तन करने लगीं, ताकि बेटे की पढ़ाई का खर्च निकल सके। वह जानती थीं कि शिक्षा ही वह ताकत है, जो उनके बेटे को बेहतर जिंदगी दे सकती है। इसलिए तमाम अड़चनों के बावजूद मरियप्पन का स्कूल जाना बंद नहीं हुआ। पढ़ाई के साथ खेल में भी उनका खूब मन लगता था। उन्हें वाॅलीबाॅल बहुत पंसद था। मगर खेल टीचर को लगा कि उनका शिष्य ऊंची कूद में कहीं ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पाएगा। लिहाजा उन्होंने मरियप्पन को हाई जंप के लिए प्रेरित किया। इस प्रेरणा ने मरियप्पन के अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा किया। अब उनके लिए हर अड़चन, हर चुनौती बेमानी थी। टेªनर ने उन्हें एहसास दिलाया कि वह सामान्य बच्चों से कहीं बेहतर खिलाड़ी और छात्र हैं। इसी एहसास से वह आगे बढ़ते रहे। 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद बीबीए की डिग्री हासिल की। विकलांग होने के बावजूद वह सामान्य खिलाड़ियों के संग खेले। 14 साल की उम्र में सामान्य खिलाड़ियों के साथ मुकाबला करते हुए वह हाई जंप में दूसरे स्थान पर पहुंचे। मरियप्पन कहते हैं, मैंने कभी खुद को दूसरे से कम नहीं समझा। शारीरिक रूप से जरूर मैं दिव्यांग बन गया था, पर मन से मैं एक सामान्य बच्चा था। मन की ताकत ने मुझे यहां तक पहुंचाया। कोच सत्यनारायण  ने उन्हें 18 साल की उम्र में नेशनल पैरा एथलीट चैंपियनशिप में देखा। उन्हें यकीन हो गया कि लड़के में दम है और अगर इसे बेहतर टेªनिंग दी जाए, तो यह बहुत आगे जा सकता है। प्रोफेशनल टेªनिंग के लिए वह मरियप्पन को अपने साथ बेंगलुरू ले गए। वहां कड़े अभ्यास के बाद मरियप्पन 2015 में अव्वल खिलाड़ी बन गए। टेªनिंग के लिए घर से एकेडमी तक जाना और टूर्नामेंट के दौरान शहर से बाहर जाना आसान नहीं था। एक तरफ संसाधनों की कमी थी, तो दूसरी तरफ शारीरिक चुनौतियां। मगर बुलंद हौसले वाले मरियप्पन ने मुश्किलों को कभी अपनी राह की अड़चन नहीं बनने दिया। उनके कोच ई इलामपार्थी कहते हैं, मरियप्पन बहुत मेहनती और अनुशासित खिलाड़ी है। उसका जज्बा व लगन हम सबके लिए प्रेरक है। मरियप्पन ने पिछले साल रियो पैरालंपिक्स में पुरूषों की टी-42 हाई जंप में गोल्ड मेडल जीता। 21 साल के मरियप्पन 1.89 मीटर की जंप लगाने वाले पहले भारतीय बन गए। उनकी शानदार कामयाबी ने देश का नाम रोशन किया है। जल्द ही उनके संघर्ष और कामयाबी की कहानी फिल्मी परदे पर दिखने वाली है। तमिलनाडु की मशहूर डायेक्टर ऐश्वर्या धनुष उनके जीवन पर फिल्म बना रही हैं। हाल में मरियप्पन को पद्मश्री अवाॅर्ड से सम्मानित किया गया है। उनकी मां सरोज कहती हैं, मरियप्पन को लेकर हमेशा फिक्र रहती थी। मगर उसने अपनी मेहनत और लगन से सारी चिंताए दूर कर दी। मुझे खुशी है कि पूरा देश उसे प्यार करता है। प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी रिलेटेड पोस्ट …… नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है 

लड़का हो या लड़की मकसद होता है हराना जीना इसी का नाम है – जमुना बोडो: महिला बाॅक्सर

संकलन – प्रदीप कुमार सिंह             असम के शोणितपुर जिले में छोटा सा गांव है बेलसिरि। यह ब्रह्नमपुत्र नदी के किनारे बसा आदिवासी इलाका है। घने जंगलों व प्राकृतिक नजारों से भरपूर इस इलाके में रोजगार के नाम पर लोगों को मेहनत-मजदूरी का काम ही मिल पाता है। कुछ लोग फल-सब्जी बेचकर जीवन गुजारते हैं। आर्थिक बदहाली के बावजूद पिछले कुछ साल में यहां के युवाओं में खेल के प्रति रूझान बढ़ा है। जमुना दस साल की थीं, जब पापा गुजर गए। बड़ी बेटी की शादी करनी थी। छोटी को पढ़ाना था। बेटे को नौकरी दिलवानी थी। सब कुछ बीच में ही छूट गया। बच्चे सदमे में थे। मां बेहाल थीं। अब बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी उन पर थी। जमुना बताती हैं, मां पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर उनमें गजब का हौसला था। समझ में नहीं आ रहा था कि घर कैसे चलेगा? फिर मां ने घर चलाने के लिए सब्जी बेचने का फैसला किया।             मां बेलसिरी गांव के रेलवे स्टेशन के बाहर सब्जियां बेचने लगीं। इस तरह जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू हो गई। जमुना स्कूल जाने लगीं। कुछ समय बाद मां ने दीदी की शादी कर दी। वह ससुराल चली गईं। उन दिनों देश में मणिपुर की बाॅक्सर मेरीकाॅम की वजह से महिला बाॅक्सिंग सुर्खियों में थी, पर जमुना के गांव में वुशु गेम का बुखार चढ़ रहा था। स्कूल से लौटते वक्त अक्सर वह खेल के मैदान के किनारे रूककर गेम देखने लगतीं। दरअसल वुशु जूडो-कराटे और टाइक्वांडो की तरह एक मार्शल आर्ट है। वुशु गेम में लड़कों को पंच, थ्रो और किक लगाते देख जमुना को खूब मजा आया। यह खेल उन्हें इतना रोमांचकारी लगता था कि वह खुद रोक नहीं पाईं। जमुना बताती हैं, सारे वुशु खिलाड़ी मेरे गांव के थे। वे सब मेरे भाई जैसे थे। मैं उन्हें भैया कहती थी। मेरा उत्साह देखकर उन्होंने मुझे अपने साथ खेलने का मौका दिया।             उन दिनों गांव की कोई लड़की वुशु नहीं खेलती थी। लोग महिला बाॅक्ंिसग से परिचित तो थे, पर महिला वुशु खिलाड़ी की कहीं कोई चर्चा नहीं थी। तब जमुना यह तो नहीं जानती थीं कि खेल में उनका भविष्य है या नहीं, पर उन्हें वुशु खेल अच्छा लगता था, इसलिए वह खेलने लगीं। स्थानीय कोच बिना फीस के उन्हें टेªनिंग देने लगे। जल्द ही गांव में यह बात फैल गई कि एक लड़की वुशु गेम सीख रही है।             सबसे अच्छी बात यह थी कि मां ने उन्हें खेलने से नहीं रोका। पर जल्द ही जमुना को इस बात एहसास हुआ कि वुशु गेम में उनके लिए कोई खास संभावना नहीं है। उन्होंने बाॅक्सर मेरीकाॅम के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। वह बाॅक्ंिसग सीखना चाहती थी, लेकिन गांव में इसकी टेªनिंग की कोई सुविधा नहीं थी। जब उन्होंने अपने कोच से बात की, तो उन्होंने भी यही राय दी कि तुम्हें बाॅक्ंिसग सीखनी चाहिए।             कोच को यकीन था कि अगर इस लड़की को टेªनिंग मिले, तो यह बेहरतीन बाॅक्सर बन सकती है। जमुना बताती हैं, मुझे मेरीकाॅम से प्रेरणा मिली। जब वह तीन बच्चों की मां होकर बाॅक्ंिसग कर सकती हैं, तो मैं क्यों नहीं? वह मेरी रोल माॅडल हैं। मैं उनके जैसी बनना चाहती हूं।             यह बात 2009 की है। वुशु सिखाने वाले कोच उन्हें गुवाहाटी बाॅक्ंसिंग टेनिंग सेंटर ले गए। वहां उनका चयन हो गया। जमुना के मन में डर था कि पता नहीं, मां गांव छोड़कर गुवाहाटी जाने की इजाजत देंगी या नहीं। पर यह आशंका गलत साबित हुई। मां ने उन्हें यह आशीर्वाद देकर विदा किया कि जाओ, मन लगाकर खेलो। जमुना कहती हैं, मां ने सब्जी बेचकर हम भाई-बहनों को पाला। दीदी की शादी की। वैसे सब्जी बेचना खराब काम नहीं है। मुझे गर्व है मां पर।             टेनिंग के दौरान उनका प्रदर्शन शानदार रहा। 2010 में जमुना पहली बार तमिलनाडु के इरोड में आयोजित सब जूनियर महिला राष्ट्रीय बाॅकसिंग  चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतकर गांव लौटीं। यह उनका पहला गोल्ड मेडल था। गांव में बड़ा जश्न हुआ। अगले साल कोयंबटूर में दूसरे सब जूनियर महिला राष्ट्रीय बोक्सिंग  चैंपियनशिप में भी उन्होंने गोल्ड मेडल जीतकर चैंपियनशिप  का खिताब अपने नाम किया। जमुना कहती हैं, मां ने बहुत मेहनत की है। उनका पूरा जीवन एक तपस्या है। जब मैं मेडल जीतकर गांव लौटी, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। सच कहूं, तो उनके हौसले ने मुझे खिलाड़ी बनाया।             साल 2013 बहुत खास रहा जमुना के लिए। इस साल सर्बिया में आयोजित इंटरनेशनल सब-जूनियर गल्र्स बाॅक्ंिसग टूर्नामेंट में उन्होंने गोल्ड जीतकर देश को एक बड़ा तोहफा दिया। फिर तो जैसे उन्हें जीत का चस्का ही लग गया। अगले साल यानी 2014 में रूस में बाॅक्ंिसग प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतकर वह चैंपियन बनीं। तरक्की का सफर रफ्तार पकड़ने लगा। 2015 में ताइपे में यूथ वल्र्ड बाॅक्ंिसग चैंपियनशिप में उन्होंने काॅस्य पदक जीता। अब उनका लक्ष्य 2020 में टोक्यो में होने वाले ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेना है। आजकल वह इसकी तैयारी में जुटी हैं। जमुना कहती हैं, प्रैक्टिस के दौरान मैं अक्सर लड़कों से मुकाबला करती हंू। खेल के समय मैं यह नहीं देखती कि सामने लड़का है या लड़की। मेरा मकसद सामने वाले को हराना होता है। मेरा लक्ष्य ओलंपिक पदक है। प्रस्तुति – मीना त्रिवेदी  साभार – हिन्दुस्तान रिलेटेड पोस्ट ……….. गुमनाम गाँव से संसद तक का सफ़र – फावजिया कूफी आसान नहीं है शख्सियतें रचना – गरिमा विशाल गरीबों का जीवन स्तर उठाना मेरा मकसद जनसेवा के क्षेत्र में रोल मॉडल बनी पुष्प पाल

उन्हें पानी पिलाता हूूँ जिन्हें लोग दुत्कारते हैं – ओकारनाथ कथारिया

संकलन – प्रदीप कुमार सिंह               मैं 2012 से दिल्ली की सड़कों पर आॅटो चला रहा हूं। शुरू से गर्मी के दिनों में, खासकर जब तेज लू चल रही होती है, तब सड़कों पर आॅटो चलाना मेरे लिए काफी कठिन होता था। मैंने देखा, इस मौसम में कई आॅटो वाले पेड़ों की घनी छाया में आॅटो खड़े कर सो जाते थे। मैं चूंकि किसी मजबूरी में ही इस पेशे में आया, लिहाजा मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं था। लेकिन जब मैंने चिलचिलाती धूप में रेड लाइट पर सामान बेचने वाले लोगों और खासकर बच्चों की परेशानियां देखीं, तब मेरा दिमाग घूम गया।             आॅटो चलाते हुए तो फिर भी हमारे सिर पर छत होती है, लेकिन लालबत्ती के आसपास मंडराने वाले लोगों और बच्चों की हालत की सहज ही कल्पना की जा सकती है। कुछ समय वे इधर-उधर पेड़ की छांव में भले गुजार लें, लेकिन बत्ती लाल होते ही वे खिलौने, किताबें और कार पोंछने के कपड़े आदि बेचने पहुंच जाते हैं। उनकी हालत पर तरस खाना तो दूर, गाड़ियों में बैठे लोग उन्हें दुत्कारते हैं। धूप में पसीना बहाकर रोजी-रोटी कमाने वालों को वे चोर या उठाईगीर समझते हैं।             आॅटो चलाते हुए मैंने कई बार देखा कि हाॅकरों को लोग बुरी तरह दुत्कारते है। मैं एक समान्य आदमी हूं। इसके बावजूद मैंने सोचा कि मुुझे इन हाॅकरों के लिए कुछ करना चाहिए। मैं यही कर सकता था कि उन्हें पानी पिलाकर थोड़ी राहत दे सकता था। फिर सोचा, पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाए, तो अच्छा रहेगा। इसी भावना के तहत गर्मी के दिनों में मैं अपने आॅटो में स्नैक्स के कुछ पैकेट और एक कार्टन में पानी की बोतलें लेकर निकलने लगा। रास्ते में पड़ने वाली हर रेड लाइट पर मैं सामान बेचने वालों को स्नैक्स और पानी देता तथा उनसे बात भी करता, उनके हाल-चाल पूछता। यह काम तेजी से करना होता है, क्योंकि टैªफिक लाइट के ग्रीन होते ही मुझे झट से अपना आॅटो स्टार्ट कर देना पड़ता है, नहीं तो पीछे कतार में खड़ी गाड़ियों में बैठे लोग चिल्लाने लगते हैं।             कुछ दिन इसी तरह बीते, तो कुछ लोगों ने मेरे काम की तारीफ की और कहा कि भलाई के इस काम में वे भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं। उस समय तो मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन अगले दिन मेरे आॅटो में स्नैक्स और पानी की बोतलों के साथ डोनेशन बाॅक्स भी था। लोगों ने मेरी मदद करनी शुरू की तो मेरे लिए यह काम और आसान हो गया। चूंकि लोग मुझे पहचानने लगे और मेरे पास थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद भी आने लगी, तो मैंने सोचा कि मुझे जरूरतमंद लोगों की मदद का दायरा और बढ़ाना चाहिए। फिर मैं गरीब मरीजों को मुफ्त में अस्पताल ले जाने और उन्हें घर तक छोड़ने का काम भी करने लगा।             दरअसल जल्दी ही मैं आॅटो की जगह टेक्सी चलाऊंगा। मैंने कार लोन के लिए एप्लाई किया था और लोना मंजूर हो गया है। इसी महीने मुझे टैक्सी मिल जाएगी। टैक्सी से फायदा यह होगा कि स्नैक्स और पानी की बोतलें रखने के लिए ज्यादा जगह मिलेगी। इससे मैं ज्यादा लोगों की मदद कर पाऊंगा। मेरे मददगारों में अनेक लोग ऐसे हैं, जो मेरी ही रूट पर अपनी कारों से आते-जाते हैं। मैं वह सब गरीब, लाचार और धूप में पसीना बहाकर कमाने वालों के लिए खर्च करता हूं। मेरी सिर्फ एक ही इच्छा है कि जीवन भर लोगों की इसी तरह सेवा करता रहूं। विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार – अमर उजाला

गुमनाम गांव से संसद तक तक सफर – फावजिया कूफी, मानव अधिकार कार्यकर्ता

संकलन: प्रदीप कुमार सिंह             फावजिया का जन्म अफगानिस्तान के एक सियासी परिवार में हुआ। उनके पिता की सात पत्नियां थी। परिवार में पहले से 18 बच्चे थे। मगर पिता संतुष्ट नहीं थे। वह चाहते थे कि घर में एक और बेटा पैदा हो। इस बीच फावजिया का जन्म हुआ। वह 19वीं संतान थीं। मां को जब पता चला कि उन्होंने बेटी को जन्म दिया है, तो वह डर गई। उन्हें लगा कि उनके शौहर को यह पसंद नहीं आएगा। इसलिए नवजात बच्ची को घर के बाहर चिलचिलाती धूप में मरने के लिए छोड़ दिया। मगर अल्लाह को कुछ और मंजूर था। कुछ घंटों के बाद देखा गया, तो बच्ची जिंदा थी। मां का दिल पिघल गया। उसे गले लगाते हुए तय किया कि चाहे जो हो जाए, वह बच्ची को पालेंगीं।             उनका परिवार बदख्शां प्रांत के एक छोटे से गांव में रहता था। पिता सांसद थे। इलाके में उनका खास रूतबा था। अक्सर सियासत के कामकाज के लिए गांव से बाहर जाना होता था। नन्ही फावजिया को कभी पिता के करीब जाने या उनके बात करने का मौका नहीं मिला। उन दिनों रूढ़िवादी अफगान परिवारों में बेटियों को दुलार करने का रिवाज नहीं था। घर की सभी महिलाएं, चाहे वे किसी भी उम्र की हों, परदे में ही रहती थीं। बेटियां स्कूल नहीं जाती थीं। होश संभालते ही उनका निकाह करा दिया जाता था। फावजिया बताती हैं, अब्बू ने गांव में एक स्कूल खुलवाया। वह हमारे गांव का पहला स्कूल था। लेकिन उस स्कूल में केवल लड़कों को पढ़ने की इजाजत थी। यहां तक कि उन्होंने अपने घर की बेटियों को भी स्कूल जाने का मौका नहीं दिया, क्योंकि बेटियों का घर से बाहर निकलना बहुत खराब माना जाता था।             उनके अब्बू 25 साल तक सांसद रहे। यह 80 के दशक की बात है। मुल्क के घरेलू हालात बहुत खराब हो चुके थे। अफगान जंग के दौरान मुजाहिद्दीन ने उनकी हत्या कर दी। अब्बू की मौत के बाद परिवार बिखर गया। मां ने बच्चों के संग गांव छोड़कर राजधानी काबुल जाने का फैसला किया। शहर का माहौल गांव से काफी अलग था। काबुल में स्कूल और अस्पताल थे। फावजिया तब 10 साल की थीं मां ने उन्हंे स्कूल भेजने का फैसला किया। यह सुनते ही परिवार के लोग चैंक गए। यहां तक कि फावजिया के भाई भी यह नहीं चाहते थे कि वह स्कूल जाए। सवाल था कि जब आज तक खानदान की कोई बेटी स्कूल नहीं गई, तो भला फावजिया को यह मौका क्यों मिले? मगर मां के आगे किसी की नहीं चली।             कुछ समय तो ठीक चला, लेकिन बाद में काबुल के हालात भी खराब होने लगे। तालिबान की दखल बढ़ने लगी। घर के बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं था। कहीं भी किसी वक्त अचानक गोलियां चलने लगती थीं। पर स्कूल जाना जारी रहा। जब तक वह स्कूल से घर नहीं लौट आतीं, मां दरवाजे पर खड़े रहकर उनका इंतजार करती रहतीं। फावजिया बताती हैं, हमारे गांव में महिलाओं को डाॅक्टर के पास जाने तक की इजाजत नहीं थी। लोग कहते थे कि भला एक महिला कैसे किसी मर्द डाॅक्टर से अपना इलाज करा सकती है? इसलिए मैंने डाॅक्टर बनने का फैसला किया। मगर यह सपना टूट गया।             उन दिनों वह डाॅक्टरी पढ़ रही थीं। तालिबान ने काबुल पर धावा बोल दिया। उनके मेडिकल काॅलेज पर भी हमला किया गया। काबुल छोड़कर भागना पड़ा। परिवार के संग फावजिया वापस गांव आ गईं। उन्होंने गांव आकर स्कूल खोला और लड़कियों को पढ़ाने लगीं। यह बात तालिबान को अच्छी नहीं लगी। इस बीच उनकी शादी हो गई। पति रसायनशास्त्र के टीचर थे। मगर मुश्किलों का पहाड़ टूटना अभी बाकी था। शादी के दस दिनों बाद ही उनके पति को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। फावजिया बताती हैं, मेरे हाथों की मेंहदी भी नहीं छूटी थी कि तालिबान ने मेरे शौहर को पकड़कर जेल भेज दिया। उनका अपराध सिर्फ यह था कि उन्होंने मुझसे शादी की थी। जेल में उन्हें खूब प्रताड़ित किया गया। वहां उन्हें टीबी की बीमारी हो गई। कुछ समय बाद वह घर लौटे, मगर तब तक बीमारी गंभीर हो चुकी थी। कुछ दिनों के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।             पति की मौत से फावजिया को गहरा झटका लगा, पर अब उनके इरादे और मजबूत हो चुके थे। तय किया कि वह तालिबानी जुल्म बर्दाश्त नहीं करेंगी। साल 2001 में उन्होंने लड़कियों को स्कूल भेजने का अभियान ‘बैक टु स्कूल’ चलाया। अभियान से अफगान महिलाओं को नई ताकत मिली। वर्ष 2005 में उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा।  वह अफगानिस्तान की पहली महिला स्पीकर बनीं। फावजिया बताती हैं, मैंने चुनाव लड़ने का फैसला किया, ताकि लोगों को न्याय दिला सकंू। मैं जानती थी कि बिना सत्ता में आए, मैं समाज के लिए कुछ नहीं कर पाऊंगी। 2010 में लोगों ने उन्हें दोबारा चुना। 2009 में उन्होंने महिला हिंसा को रोकने के लिए एक बिल तैयार करवाया, पर मर्द सांसदों ने बिल को पास नहीं होने दिया। हालांकि बाद में सभी प्रांतों ने उसे लागू कर दिया। इस बीच कई बार उन्हंे जान से मारने की नाकाम कोशिशें हुई। साल 2014 में वह तीसरी बाद सांसद चुनी गईं। फिलहाल वह अफगानिस्तान वुमन, सिविल सोसाइटी और ह्नयूमन राइट्स की अध्यक्ष हैं। प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी रिलेटेड पोस्ट  संकलन: प्रदीप कुमार सिंह

गरीबों का जीवन स्तर उठाना मेरा मकसद- एनी फेरर

           संकलन – प्रदीप कुमार सिंह    मेरा जन्म इंग्लैंड में हुआ था। वर्ष 1963 में अपने भाई के साथ मैं भारत आई और फिर यहीं की होकर रह गई। मुंबई में पढ़ाई की और फिर पत्रकार के तौर पर एक पत्रिका में काम करने लगी। उस वक्त मेरी उम्र करीब 18 वर्ष रही होगी। वर्ष 1968 में एक इंटरव्यू के सिलसिले में मेरी मुलाकात स्पेन से आए मिशनरी विन्सेंट फेरर से हुई। उन दिनों वह महाराष्ट्र के मनमाड़ में रहकर गरीबों की मदद करने में जुटे थे। उनके विचारों और गरीबों के प्रति उनकी सेवा-भावना ने मुझे काफी प्रभावित किया। मैंने नौकरी छोड़ दी और में भी उनके साथ गरीबों की सेवा में जुट गई।             वर्ष 1969 में मैं विन्सेंट के साथ आंध्र प्रदेश के अनंतपुरम में आ गई। उन दिनों अनंतपुरम भयंकर सूखे और गरीबी से जूझ रहा था। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्षेत्र के ज्यादातर इलाकों में यही हाल था। सूखा, बुनियादी सुविधाओं की कमी और रूढ़िवादी परंपराओं ने उस पूरे इलाके को जकड़ा हुआ था। हमने वहां पर रूरल डेवलपमेंट ट्रस्ट (आरडीटी) नामक एक सामाजिक संस्था शुरू की और 1970 में हमारी शादी हो गई। अब मैं स्थानीय भाषा फर्राटे से बोलती हूं और 70 साल की उम्र में भी महिलाओं एवं बच्चों की भलाई के लिए बिना थके काम करती हूं। हम सामुदायिक शक्ति को एकजुट करके सहभागिता आधारित विकास कार्यों पर जोर देते हैं। इससे प्रेरित होकर दलित, आदिवासी, ग्रामीण गरीब और अन्य पिछड़े वर्गों के लोग मिलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं।             आंध्र प्रदेश के अनंतपुरम, कुरनूल, गुंटूर एवं प्रकाशम और तेलंगाना के महबूबनगर और नालगोंडा समेत छह जिलों के 3,291 गांवों में आरडीटी काम कर रही है। मेरा मानना है कि गरीबी के दुश्चक्र में फंसे लोगों को भी सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने का हक है। नलामला के जंगलों में रहने वाले दस हजार से अधिक चेंचू आदिवासी परिवारों के जीवन-स्तर में सुधार के लिए हम एकीकृत विकास कार्यक्रम चला रहे हैं। बच्चों की शिक्षा से लेकर विकलांगों के अधिकार, सामुदायिक स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, सामुदायिक आवास, ग्रामीण अस्पताल और पारिस्थितिक पुनरूत्थान और पर्यावरण संरक्षण हमारे उद्देश्यों में शामिल रहे हंै।             आरडीटी तीन सामान्य अस्पताल और संक्रामक रोगों के लिए एक अस्पताल का संचालन कर रहा है। जबकि 17 ग्रामीण हेल्थ क्लिनिक चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा कम्युनिटी हेल्थ वर्कर के तौर पर काम करने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है। आरडीटी के इन अस्पतालों में हर साल 13 हजार से अधिक शिशु जन्म लेते हैं। 2,801 गांवों में चल रहे तीन हजार से अधिक पूरक स्कूलों को माॅनिटर करने के लिए कम्युनिटी डेवलपमेंट कमेटियों को हम प्रशिक्षित करते हैं। इन स्कूलों में दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों को कोचिंग दी जाती है। लड़कियों की शिक्षा पर खास ध्यान दिया जाता है। इनमें से कई बच्चे तो टेनिस और हाॅकी जैसे खेलों का प्रशिक्षण भी ले रहे हैं। यही नहीं, वे कंप्यूटर चलाते हैं और अंग्रेजी भी सीखते हैं।             इन बच्चों को अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश भाषाएं भी सिखाई जाती है, ताकि रोजगार के ज्यादा अवसर उन्हें मिल सकें। इन टेªनिंग कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले 98 प्रतिशत से अधिक छात्रांे को नौकरी आसानी से मिल जाती है और बेहतर आमदनी होने से वे परिवार को गरीबी के दलदल से उबार लेते हैं।   – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार – अमर उजाला रिलेटेड पोस्ट नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है 

आसान नहीं शख्सियतें रचना – गरिमा विशाल

             संकलन – प्रदीप कुमार सिंह  हमें एक ऐसे युवा समाज की जरूरत है, जो ज्यादा से ज्यादा योगदान कर सके और जो अपने जुनून को अपनी आजीविका बनाने में सक्षम हो। ऐसा मानना है बिहार के मुजफ्फरपुर की 28 वर्षीय गरिमा विशाल का, जिन्होंने ऐसे ही युवा तैयार करने के उद्देश्य से एक खास स्कूल ‘डेजावू स्कूल आॅफ इनोवेशन’ की शुरूआत की है। पांच लोगों की टीम द्वारा शुरू किए गए इस स्कूल में बच्चों की पढ़ाई में उन बातों का ध्यान रखा जाता है, जो उनकी सोच को साकार कर पूरा कर सकें। सोच की शुरूआत             बच्चों को पढ़ाने में शुरू से ही गहरी रूचि रखने वाली गरिमा की गणित में अच्छी पकड़ रही। करियर की मांग को देखते हुए मणिपाल इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाॅजी से सूचना प्रौद्योगिकी में उन्होंने बीटेक की पढ़ाई 2011 में पूरी कर ली। कैंपस प्लेसमेंट भी इंफोसिस कंपनी में हो गया। सामाजिक और व्यावहारिक पैमाने के हिसाब से करियर की गाड़ी तेज रफ्तार से चलने लगी, लेकिन उनके मन के अंदर बैठा सामाजिक बदलाव की सोच रखने वाला शिक्षक हमेशा सुगबुगाता रहा। शुरू हुआ पढ़ाने का सिलसिला             गरिमा एक वाकया याद करती हैं, ‘तब मेरी पोस्टिंग इंफोसिस के भुवनेश्वर आॅफिस में थी। एक दिन मैं शेयरिंग वाले आॅटो से कहीं जा रही थी। उस आॅटो में एक गुजराती परिवार भी अपने बच्चो के साथ था। उनके बच्चे आपस में हिंदी में बात कर रहे थे। मेरी उत्सुकता बढ़ी कि भुवनेश्वर में गुजराती परिवार के बच्चे इतनी अच्छी हिंदी में बात कर कैसे रहे हैं। मैंने पूछ ही लिया कि ये बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं? जवाब मिला कि ये स्कूल में नहीं पढ़ते, क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में उड़िया पढ़ाई जाती है और पब्लिक स्कूल में वे पढ़ा नहीं सकते। उन बच्चों को मैंने पढ़ाना शुरू किया। सुबह 7 से 9 बच्चों को पढ़ाने लगी। जल्दी ही बच्चों की संख्या 30 पहुंच गई।’ पिताजी का सपना, मेरा अपना             गरिमा बताती हैं, ‘मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं आईएएस करूं या आईआईएम या फिर आईआईटी में पढ़ने जाऊं। मैं भी कुछ ऐसा ही चाहती थी। इंजीनियरिंग करने के बाद में आईआईएम की परीक्षा के लिए तैयारी कर रही थी। 2014 में उसमें मेरा चयन हो गया। आईएएस में मेरी रूचि नहीं थी। इंजीनियरिंग के दौरान ही मेरे दोस्त रहे अभय (अभय नंदन) ने पढ़ाने में मेरी बहुत अधिक रूचि को देखते हुए सलाह दी कि तुम्हारा जो मन है, वहीं करो, ताकि जीवन में संतुष्ट रहो। वह बात मुझे बहुत पंसद आई और दिल-दिमाग दोनों उस हिसाब से सोचने लगे। फिर कुछ और दोस्तों और परिवार के सदस्यों से विचार-विमर्श के बाद स्कूल शुरू करने का रास्ता साफ हो गया।’ काम आई आईआईएम की पढ़ाई                                                                                  गरिमा बताती हैं, ‘2014 में मेरे जीवन में दो बड़े काम हुए। आईआईएम में दाखिला मिला और पांच दोस्तों के साथ मिलकर ऐसे स्कूल की स्थापना का निर्णय हो  गया, जिसका अंतिम लक्ष्य अपने पैशन को प्रोफेशन बनाने वाला युवा तैयार करना रखा गया।’ वे बताती हैं, ‘अब बिहार में स्कूल खोलने की कोशिश शुरू हुई। आखिरकार मुजफ्फरपुर के माड़ीपुर में स्कूल को स्थापित करने का निर्णय लिया। स्कूल का नाम रखा डेजावू स्कूल आॅफ इनोवेशन।  डेजावू फ्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है जुड़ाव महसूस कराने वाला, इसलिए स्कूल के माहौल को घर जैसा बनाया और प्ले स्कूल से लेकर दूसरी क्लास तक की पढ़ाई शुरू की गई। 10 बच्चों से स्कूल शुरू हुआ और आज यहां पांचवी क्लास तक लगभग 100 बच्चे पढ़ रहे हैं। इनकी बेहतर पढ़ाई के लिए हम शिक्षिकाओं को तो नियमित रूप से प्रशिक्षित करते ही हैं, बच्चों के अभिभावकों को भी समझाते हैं कि वे अपने बच्चे पर घर में किस तरह ध्यान रखें।’ बड़े लक्ष्य के लिए बड़े कदम             गरिमा की एमबीए की पढ़ाई भी 2016 में पूरी हो गई, जिसके बाद में उन्हें गुड़गांव की जेडएस कंपनी में प्लेसमेंट मिला। इसी वर्ष अभय से शादी भी हुई। अब समय था, नौकरी को पूरी तरह अलविदा कहने का। गरिमा ने जब नौकरी को अलविदा कहा उस वक्त उनका वार्षिक पैकेज लगभग 20 लाख रूपए का था, लेकिन पढ़ाने की सामाजिक जिम्मेदारी उन्हें इन पैसों से भी महत्वपूर्ण  लगी। यही वजह है कि स्कूल में क्लास बढ़ाने से लेकर यहां के अति पिछड़े इलाके नेउरा से लेकर ऐसी अन्य जगहों पर स्कूल की शाखाएं शुरू करने के लक्ष्य के साथ उनकी टीम काम कर रही है। गरिमा की मैनेजमेंट की पढ़ाई यहां खूब काम आती है, जब वे बच्चों को व्यक्तित्व के 360 डिग्री डेवलपमेंट का तरीका अपनाती हैं। प्रस्तुति – सत्य सिंधु   साभार: हिन्दुस्तान रिलेटेड पोस्ट ……… नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था फीयरलेस वुमन तला रासी -मिनी स्कर्ट पर कोड़े खाने के बाद बनी स्विम वीयर डिजाइनर हम कमजोर नहीं है – रेप विक्टिम से रैम्प पर उतरने का सफ़र काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अलमेलहन यूएन कीगुड विल ऐम्बेस्डर   अनूठी है शिखा शाह की कारीगरी

” ग्रीन मैंन” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है……

    प्रेषक -प्रदीप कुमार सिंह  पर्यावरण और जीवन का अनोखा संबंध है आज के समय में पर्यावरण का ध्यान रखना हर किसी की जिम्मेदारी और अधिकार होना चाहिए , विशेषकर आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण संरक्षण बहुत जरूरी है ।पर्यावरण संरक्षण और जल वायु परिवर्तन ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया हुआ है । इस समस्या से उबरने के लिए पूरी दुनिया को एक होने की जरूरत है, और इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं ग्रीन मैन के नाम से विख्यात पर्यवरण विद विजय पाल बघेल । पेड़ों के दर्द को अपने हृदय में महसूस करने और उनके संरक्षण में लगे ग्रीन मैन विजयपाल बघेल से  वरिष्ठ पत्रकार संजीव कुमार शुक्ला ने बातचीत की प्रस्तुत आलेख उसी बातचीत पर आधारित है…  हाथरस उत्तर प्रदेश की जमीन पर एक किसान परिवार के घर पर जन्म लेने  वाले इस बालक का बचपन से ही रुझान पेड़-पौधों की ओर था। ,उन्हें संस्कार तो अपने दादा राम बघेल जो की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे ,से प्राप्त हुए बालक के हाव-भाव और बातों से ही माता रामकली बघेल और पिता रामप्रसाद बघेल को यह एहसास हो चला था कि मेरा पुत्र सामाजिक उत्थान के लिए जीवन में जरूर कुछ ना कुछ करेगा और यह बात सत्य भी साबित हुई । अपने जीवन मे अब तक  देश और दुनिया में पांच करोड़ से अधिक पेड़ लगाकर गिनीज बुक में नाम दर्ज कराने वाले विजयपाल ग्रीन मैन के नाम से जाने गए ।     पर्यावरण संरक्षण की वह जिद्द  जो लोगों की प्रेरणा बन गई अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट लीडर ए पी जे अब्दुल कलाम अवार्ड ,वन विभूति, वन्यजीव प्रतिपालक ,ग्रीन अम्बेसडर, वृक्षमित्र ,प्राणी मित्र जैसे तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय  पुरस्कार  प्राप्त करने वाले विजयपाल बघेल बहुत ही शांतिप्रिय और सरल स्वभाव वाले हैं हमेशा हरे रंग के कपड़े पहनने वाले विजयपाल बघेल कहते हैं कि इन कपड़ों में खुद को इस पर्यावरण में समाहित पाता हूं जो मुझे आनंदित करता है ।पृथ्वी के हर कोने में पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को संचालित करने वाले ग्रीन मैन बहुत ही गर्व के साथ बताते हैं कि मेरे जीवन का सर्वाधिक   आनंदमय छण वह था जब देव भूमि ऋषिकेश के गंगा तट पर परमपूज्य स्वामी चिदानंदसरस्वती मुनि जी महाराज के दिव्य सानिध्य मे  छत्तीसगढ़  के माननीय मुख्यमंत्री डॉ रमण सिंह द्वारा सम्मानित किया गया और जब मेरे हरित महागुरु ने हरित ऋषि के रूप में दीक्षा प्रदान कर  रुद्राक्ष का पौधा तथा माला पहनाकर हरित आशीर्वाद प्रदान किया था ।  बहुत ही चिंतित होते हुए वह बताते हैं कि हमारे सांसों की डोर पेड़ों से बंधी हुई है इसके बावजूद हम पर्यावरण संरक्षण के प्रति बहुत गंभीर नहीं लगते। वह बताते हैं कि विश्व मे  इस समय 10 अरब पेड़ हर साल लगाए जाते हैं और 20 अरब पेड़ काट दिए जाते हैं मतलब वृक्षारोपण से ज्यादा पेड़ों की कटान हो रही है और यही पर्यावरण असंतुलित होने का सबसे बड़ा कारण है। हम जब तक पर्यावरण संरक्षण को अपनी आदत नहीं बना लेते तब तक हालातों में सुधार आने  वाला नहीं है बातचीत में वह बताते हैं कि विश्व में आज एक आदमी पर 22 पेड़ है जबकि भारत में एक आदमी पर 21 पेड़ हैं और यह संख्या 33 होनी चाहिए वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में एक आदमी पर मात्र 5 पेड़ हैं जबकि जिले में एक आदमी पर केवल दो से तीन पेड़ है जिंदा रहने के लिए प्रति  मनुष्य 30 पेड़ तो जरूरी है हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति काफी सचेत होना पड़ेगा हम अगर हर बच्चे के जन्म के अवसर और उसके हर संस्कार के अवसर पर तथा  राष्ट्रीय और सामाजिक पर्वों पर वृक्षारोपण की परंपरा को कायम कर ले तो काफी हद तक स्थित सुधर सकती है अन्यथा हम सभी को आगे आने वाले समय में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।       वह बताते हैं कि आजकल सर्दियों में भी गर्मियों का एहसास मौसम का बदलता चक्र सब कुछ पेड़ों के होते विनाश के कारण ही हो रहा है और हम अगर इसे सरकार और संस्थानों का काम समझेंगे तो भला होने वाला नहीं है । इसके लिए हमे  खुद जागरूक होना पड़ेगा वह बताते हैं की अध्यात्मिक वृक्षारोपण अधिक से अधिक करना चाहिए जिससे जिसमें बरगद ,पीपल, अशोक ,बेल ,आंवला आदि  पेड़ों को  अधिकता से रोपित  करना चाहिए बातचीत में आप बताते हैं कि सृष्टि को संचालित करने वाले घटकों में वृक्ष संपदा आधार है और साथ ही अध्यात्म का केंद्र बिंदु भी जो पूरे भूमंडलीय घटनाचक्र पर नियंत्रण करती आ रही है और इसी कारण हमारे ग्रह नक्षत्र तथा राशियां वृक्षों से प्रभावित होती हैं और जो वृक्ष जिस ग्रह नक्षत्र एवं राशि को प्रभावित करता है उसी वृक्ष को पौराणिक मान्यताओं के आधार पर उस का प्रतिनिधित्व वृक्ष माना गया है जिसके रोपण करने से ग्रह नक्षत्र तथा राशि का दुष्प्रभाव खत्म होता है ।इसीलिए वह कहते हैं कि हर व्यक्ति को अपना जन्मदिन तो राशि वृक्ष लगाकर ही मनाना चाहिए वह वृक्षारोपण को अध्यात्म से जोड़ते हुए पंचवटी वाटिका, नक्षत्र उपवन, गृह वाटिका और राशि वृक्ष के सिद्धांत का विवरण देते हैं पर्यावरण संरक्षण को पूर्ण रूप से अपने जीवन का सिद्धांत बना लेने वाले ग्रीन मैन विजयपाल बघेल का जीवन वास्तव में एक प्रेरणा मय मिशाल है अगर हम उनकी कही किसी एक बात का भी अनुसरण कर लेते हैं तो स्थित बहुत बेहतर हो जाएगी फिलहाल विजयपाल बघेल अपनी मस्त चाल से वृक्षारोपण को एक अभियान की तरह मन मे समाहित कर अपना सफर अनवरत जारी रक्खे है।       रिलेटेड पोस्ट          नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर   जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल                              

नौकरी छोड़कर खेती करने का जोखिम काम आया – अभिषेक सिंहानिया (आईआईटी मद्रास से ग्रेजुऐट )

संकलनकर्ता – प्रदीप कुमार सिंह              मैं कोलकाता का रहने वाला हूं और मेरे पिता उद्योगपति है। आईआईटी मद्रास से ग्रेजुएशन करने के बाद मुझे मुंबई में प्राइसवाटरहाउस कूपर्स में नौकरी मिल गई। लेकिन बचपन से ही किसानों का मैं काफी सम्मान करता था, इसलिए उनको होने वाली परेशानियां मुझे उदास कर देती थी। हालांकि जमीनी स्तर पर मुझे इसका कोई समाधान नहीं मिलता था। नौकरी जाॅइन करने के कुछ ही समय बाद कंपनी ने मुझे छह महीने की एक परियोजना पर सऊदी अरब भेज दिया। लेकिन उन्हीं दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ में कुछ किसानों की आत्महत्याओं की खबर सामने आई थी, जिसने मुझे फिर से बेचैन कर दिया था। मैं सोचता था कि अगर खेती लाभ का सौदा नहीं हुई, तो किसान खेती करना छोड़ देंगे।             सऊदी अरब में काम करते हुए ही मैं एक बार छुट्टी लेकर भारत आया और कोलकाता के पास बालीचक, डेबरा और तेमाथानी जैसे गांवों का दौरा किया और वहां खेती को बहुत गौर से देखा। यह किसी गांव को नजदीक से देखने-जानने का मेरा पहला अवसर था। जल्दी ही मुझे एहसास हुआ कि महाराष्ट्र और बंगाल की खेती में बहुत अंतर है। महाराष्ट्र में भीषण जल संकट है, जबकि परिचम बंगाल में पानी की प्रचुरता है और जमीन भी उपजाऊ है, लेकिर किसान साल में तीन बार धान की फसल लेकर जल का दुरूपयोग कर रहे थे। उससे किसानों को पूरे साल में मात्र तीस हजार रूपये का मुनाफा हो रहा था और रासायनिक खादों के लगातार इस्तेमाल से मिट्टी की ऊर्वरा शक्ति को कहीं ज्यादा नुकसान हो रहा था। फसलों की उत्पादकता घट रही थी और खेती की लागत भी बढ़ रही थी। मैंने आईआईटी, खड़गपुर से इस संदर्भ में संपर्क किया।             थोड़े दिनों बाद मैं अपनी नौकरी छोड़ आईआईटी, खड़गपुर में शोध से जुड़ गया। आठ महीनों तक मैंने दूसरे प्रोफेसरों के साथ धान और दूसरी फसलों पर शोध किया। उसके बाद खेती से जमीनी स्तर पर जुड़ने की इच्छा लिए शोध से मुक्त होकर घूमने लगा। मेघालय से महाराष्ट्र और हिमाचल से कर्नाटक तक मैं खेती की विविधताओं को देखता और किसानों के साथ ही रहता था।             मैंने इस दौरान कई किसानों को देखा, जो प्राकृतिक खेती करते थे और अपने खेतों में रासायनिक खाद डालने से परहेज करते थे। मैंने महसूस किया कि प्राकृतिक खेती में शुरूआत में उत्पादन भले कम हो, पर बाद में न केवल उत्पादन बढ़ता है, बल्कि लागत लगभग शून्य रह जाती है और प्राकृतिक तरीके से उपजाई गई फसल का मोल बहुत अधिक होता है। मुझे याद है, मुजफ्फरनगर में मैं प्राकृतिक रूप से गन्ना उपजाने वाले एक किसान के खेत में पहुंचा था। वे गन्ने न केवल तुलनात्मक रूप से लंबे थे, बल्कि उनमें मिठास भी अधिक थी। यह सब देख-समझकर मैंने पिछले साल पश्चिम बंगाल में ही तीन एकड़ जमीन खरीदी।             आज मैं हर तरह की सब्जियां और फल यहां उपजाता हूं। मैं शुरूआत में यह देखना चाहता हूं कि इस जमीन में क्या-क्या उपजाया जा सकता है। उसके बाद मैं फसल उपजाने के बाद में किसी निष्कर्ष पर पहुंचूंगा। मेरे इस प्रयोग से आसपास के किसान अचंभित हैं। मैं सबको यही कहता हूं कि खेती घाटे का सौदा नहीं है। अगर रासायनिक खादों से मुक्ति पाई जाए और खेती में नए प्रयोग किए जाएं, तो इस देश में खेती की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार -अमर उजाला फोटो क्रेडिट – अवध की आवाज़ यह भी पढ़ें ……… मेरे एक महीने का वेतन पिताजी के कर्ज के बराबर              पूंछने की आदत से शिक्षक परेशांन होते थे जनसेवा के क्षेत्र में रोल मोडल बनीं पुष्पा पाल तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी

मेरे एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर – पी.सी. मुस्तफा

संकलन कर्ता – प्रदीप कुमार सिंह              मेरा जन्म केरल के एक छोटे-से गांव वायनाड में हुआ था। मेरे पिता काॅफी के एक बगीचे में दैनिक मजदूरी का काम करते थे। तमाम पिछड़े गांवों की तरह मेरे गांव में भी सिर्फ एक ही प्राइमरी स्कूल था। हाई स्कूल करने के लिए बच्चों को गांव से चार किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता था। बचपन में मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था, इसलिए स्कूल के बाद मैं पिता के पास बगीचे में चला जाता था। पढ़ाई से बेरूखी के कारण मैं कक्षा छह में फेल हो गया।             मेरे पिता भी मुझे पढ़ाने के इच्छुक नहीं थे, मैंने पढ़ाई छोड़ दी और अपने पिता के साथ बगीचे में काम पर जाने लगा। भले ही मैंने पढ़़ाई छोड़ दी थी, पर मुझे यह पता था कि मैं गणित में अच्छा था। मेरी इसी खूबी को मेरे गणित के अध्यापक जानते थे। उन्होंने मेरे पिता से बात करके मुझे दोेबारा स्कूल जाने के लिए मना लिया। उस वक्त मेरे अध्यापक ने मुझसे सवाल किया था कि ‘तुम क्या बनना चाहते हो कुली या एक अध्यापक?’ इस सवाल ने मुझे एहसास कराया कि स्कूल छोड़कर मैं गलती कर रहा था। उन्होंने मेरे कमजोर विषयों पर विशेष ध्यान दिया।             इसी मेहनत का नतीजा रहा कि मैंने सभी अध्यापकों को चैंकाते हुए कक्षा सात में पहला स्थान हासिल किया। उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हाई स्कूल में टाॅप करने के बाद मेरा उस वक्त का मकसद अपने गणित अध्यापक जैसा बनना था, क्योंकि वह मेरे रोल माॅडल थे। उच्च शिक्षा के लिए कोझिकोड जाने के फैसले के वक्त भी मेरे पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इसका खर्चा उठा सकें। पिता के एक दोस्त ने कोझिकोड में किसी तरह मेरे रहने-खाने का इंतजाम किया। गांव से होने के कारण मेरी अंग्रेजी भी बुरी थी। मेरे लिए काॅलेज के सभी लेक्चर को समझना मुश्किल होता था, क्योंकि वे सारे अंग्रेजी में होते थे। मेरे एक दोस्त ने इसमें मेरी मदद की और मेहनत के दम पर मैंने यहां भी अच्छे अंक हासिल किए।             इंजीनियरिंग करने के बाद मुझे बंगलूरू में अमेरिका की प्रतिष्ठित मोबाइल कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी ने एक प्रोजेक्ट के लिए मुझे आयरलैंड भेजा, जहां मैंने डेढ़ साल तक काम किया। बाद में मुझे दुबई के एक बैंक में प्रतिमाह एक लाख रूपये से ज्यादा वाली नौकरी मिल गई। उस वक्त मेरे पिता ने तमाम तरह के कर्ज ले रखे थे, जो लगभग एक लाख के आसपास था। सारे कर्ज चुकाने के लिए मैंने अपना पहला वेतन पिता के पास भेजा। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे, कि मेरी एक महीने की कमाई उनके जीवन भर के कर्ज से ज्यादा थी।             मैं 2003 में बंगलूरू लौट आया। मैं भारत लौटकर आगे की पढ़ाई करके समाज को कुछ वापस लौटाना चाहता था। मेरे लिए अपनी नौकरी छोड़ना काफी मुश्किल था। मैंने गेट की परीक्षा में अच्छा स्कोर किया और आईआईएम बंगलूरू से एमबीए किया। पढ़ाई के साथ-साथ मैं छुट्टी वाले दिन अपने चेचेरे भाइयों की किराने की दुकान पर जाता था। वहां मैंने देखा कि कुछ महिलाएं इडली और डोसा बनाने के लिए बैटर (आटे का घोल) खरीद कर ले जाती हैं। यहीं से मेरे दिमाग में इसका बिजनेस करने का आइडिया आया। 25,000 रूपये से अपना बिजनेस शुरू करने के बाद आज मेरी कंपनी 100 करोड़ रूपये का टर्नओवर पार कर चुकी है। मेरा यही मानना है कि यदि आपके पास कुछ नया शुरू करने का जुनून है, तो उसे तुरंत कर डालिए। – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित                                                           साभार- अमर उजाला  फोटो क्रेडिट – भोपाल समाचार रिलेटेड पोस्ट ……… पूंछने की आदत से शिक्षक परेशांन होते थे जनसेवा के क्षेत्र में रोल मोडल बनीं पुष्पा पाल तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी