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कवि एवं कविता कर्म
माया मृग जी साहित्य के क्षेत्र में जाना -माना नाम है। …… उनकी खूबसूरत कविता के साथ -साथ पढ़िए कवि एवं कविता-कर्म पर आलेख कवि एवं कविता – कर्म ************************* मैं साहित्यकार नहीं हूं.कुदरत का क्लर्क हूं.कुदरत जो डिक्टेट कराती है, वह लिपिबद्ध करता हूं .कुदरत को अगर सिर्फ पेड़ पौधे मानना हो तो बात अलग— अगर इसे भीतर तक महसूस कर सकें तो सचमुच हम धन्य हो जाते हैं.कि कुदरत ने हमें चुना अपने किसी काम के लिए.पर ,यह तो सच ही है कि कुदरत हमें चुनती है कुछ ख़ास कामों के लिए कई बार ऐसा भी लगता है कि कई घटनाएं भी कुदरत के आधीन हो घटती है और उस के अंतस में जो होता है हम उसे सही समय पर ही जान पाते हैं घटनाएं दरअसल आकस्मिक नहीं होती.एक पूरी प्रक्रिया तय होती है पहले उसके बाद अचानक वे हमें दिखती हैं.यदि हमारी संवेदनशीलता विस्तृत हो जाए तो घटना से पूर्व उसकी प्रक्रिया का आभास पा जाती है .इसी से शायद कवि को ब्रहृम कहा हमारे शास्त्रों में.ब्रह्म होना भगवान होने जैसा नहीं बल्कि एक संवेदनशील इन्सान होने जेसा ही मानना चाहिए कई बार हम सब महसूस करते हैं किसी घटना को देखकर— कि अरे यह तो पहले भी कहीं हुआ हे कहीं देखा है;या कहीं पढा है.जबकि ऐसा होता नहीं.तो कहां देखा या सुना.सपने में— नहीं.वह प्रक्रिया तब चल रही थी इस घटना की.हम उसके अंश भर से परिचित हो पाए क्योंकि हमारी संवेदना तब वहां से संवेदित थी.हम मन भर कर घूमते हैं मन से’हमारी संवेदनाएं हवा में यात्रा करती हैं.जहां से कुछ ग्रहण कर सकें, ले अाती हैं अमृता प्रीतम विचार क े बारे में कहती हैं कि विचार पंख वाला बीज है, इस जमीन पर नमी ना हुई तो दूसरी जगह जा टिकेगा यही बात हमारी संवेदना की है.वह पंखों पर रहती है हर समय.शुष्क बौद्धिक लोग कवि नहीं हो पाते.वे अच्छे लेखक हो सकते हैं पर कवि नहीं कितना कुछ समझना बाक़ी है.बेशक, कुदरत असीम है जितना समझते जाएं लगता जाएगा कि ओह अभी तो हमें कुछ भी नहीं पता.किनारे पर खड़े होकर समु्द्र की गहराई की नाप बताना बौद्धिकता है.धारा में डूबते हुए गहराई में उतरते जाना कविता है.कितना अजीब है यह सब.पर मुझे तो लगता है कि हां ऐसा ही है बौद्धिक लोग आक्रामक और कवि दुनयिावी नजर से पलायनवादी क्यूं होते हैं.इसलिए कि धारा काे नापने के लिए बुदिध चाहिए, बहने के लिए धारा से प्रेम होना कैलाश वाजपेयी की एक कविता का अंश है — आंख भी ना बंद हो और दुनिया अांख से ओझल हो जाए कुछ ऐसी तरकीब करना हर जीत के आगे और पीछे शिकस्त है इसलिए सफलता से डरना डूबना तो तय है भरोसा नाव पर नहीं नदी पर करना कविता शब्दों में नहीं होती.दो शब्दों के बीच छूट गई खाली जगह में होती है.जैसे हम जब बहुत गहरे तक भीतर डूबे हों तो जो बोलते हैं उस समय वे शब्द उतनी बात नहीं कहते जितना बीच बीच में ली गई लंबी गहरी सांस कहती है.कविता वही गहरी सांस है वही चुप और गहरी अांख है, जिसमें शब्द केवल सहारा देते हैं बात को.शब्द बात नहीं हैं.बात तो शब्दों के पीछे है.जब बहुत कुछ कहना हो तो क्या करें, दीप्ति नवल कहती हैं जब बहुत कुछ कहने को जी चाहता है .तब कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता.यह चुप्पी कविता है चुप्पी जितनी सघन होगी कविता उतने गहरे से अाएगी.आत्मदंभ और आत्मप्रशंसा में डूबे लोगों की कविता सतही इसीलिए हो जाती है.कि वे अपने भीतर उतर नहीं पाते.भीतर उतरने पर पता लगता है कि दरअसल हम तो कहीं हैं ही नहीं’जब हम हैं ही नहीं तो दंभ िकस बात का.गर्व किस बात का.मुझे कोई कवि कहता है तो हंसी अा जाती है.मैं कैसे कवि हुआ.मैं तो कुदरत का क्लर्क ठहरा.कविता मेरी कैसे हुई.वह तो पंख वाली संवेदना थी.यहां ना उगती तो कहीं और उगती.आपने भी महसूस किया होगा कई बार हमारे भीतर कुछ चल रहा होता है हम आलस्यवश या किसी कारण वश उसे नहीं लिखतेलिख पाते तो देखते हैं कि कुछ ही समय में लगभग वही बात कोई दूसरा लिख देता है हम चौकते हैं– अरे ये तो मैं कल सोच रहा या रही थी तो चूंकि मैने अपनी ज़मीन नहीं दी उसे.वह पंख वाली संवेदना कहीं अौर जाकर उग आई.विचार मरता नहीं, इसे ही कह सकते हैं- संवेदना मरती नहीं इसे ही कह सकते हैं;वह जगह बदल लेती है वैसे ही जैसे विज्ञान कहता है ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती बात एक ही है,ऊर्जा कह लो, संवेदना कह लो, विचार कह लो;वह अमृत्य है देखिये कितनी मजेदार बात है;कुछ भी मर नहीं सकता और हम सबसे ज्यादा मृत्यु से डरते हैं गीता में लिखा कि आत्मा मरती नहीं यानी वह नष्ट नहीं होती, विज्ञान कहता है ऊर्जा अक्षय है, बल्कि इससे भी अागे जाकर कहें तो कोई भी पदार्थ अक्षय है.अमर है.कोई भी चीज ना तो नष्ट की जा सकती है ना बनाई जा सकती है बस उसका रुप बदलना ही सारा खेल हैइसे अब कविता और संवेदना के साथ जोड़कर देखिये कविता ना तो बनाई जा सकती है ना नष्ट की जा सकती है, वह बस शब्द बदलकर समय और संदर्भ बदलकर हर बार नई होकर दिखती हे आप बताइये,क्या ऐसा कुछ है जो अाज तक ना कहा गया हो क्या इस स्तर की कोई मौलिकता संभव है कि आज तक किसी ने कभी किसी रुप में ना कहा हो.हमारी कल्पना की उड़ान भी वहीं तक है जहां तक वह बात सृष्टि में मौजूद हो जब पहले से मौजूद है तो हमारी मौलिकता क्या है लिखने वाले की मौलिकता बस इतनी िक रुप नया दे दिया.शब्द बदल गए.गीता के िहसाब से कहूं तो देह बदल गई.आत्मा वही की वहीं.संवेदना वही की वही .जो प्रेम लाखों बरस पूर्व मौजूद था, उसकी संवेदना तब भी वही थी आज भी वही तो नई प्रेमकविता यानी समय और संदर्भ बदलकर उसी संवेदना की … Read more
आभा दुबे की कवितायेँ
आभा दुबे जी नारी मनोभावों को पढने में सिद्धहस्त हैं। बड़ी ही सहजता से वो एक शिक्षित नारी को परिभाषित करती हैं ,वो रो नहीं सकती चीख नहीं सकती घुटन अन्दर ही अन्दर दबाती है। ………क्योंकि जहीन औरतों को यही तालीम दी जाती है। नारी जीवन की कठोरता को ओ निराश लड़की में व्यक्त करती हैं। …… कहीं न कहीं आभा जी को पढना मुझे खुद को पढने जैसा लगा ,एक नारी को पढने जैसा लगा। वो अपने प्रयास में कितना सफल हो पाई हैं ,पढ़िए और जानिए आभा दुबे की कवितायेँ 1….तालीम का सच….————– पढ़ी-लिखी सर्वगुणसंपन्न ,जहीन, घरेलू औरतें , रोतीं नहीं, आंसू नहीं बहातीं बंद खिड़की दरवाजों के पीछे , अन्दर ही अन्दर घुटती हैं,सिसकती हैं कि आवाज बाहर ना चली जाये कहीं,हाँ, सच तो है ,ऐसी औरतें भी भला रोती हैं कहीं? शेयर करती हैं सुबह की चाय सबके साथ…ओढ़ के चौड़ी,नकली,मुस्कराहट,बारी -बारी देखती हैं सबकी आँखों में खुद को ,पढ़ ले ना कोई चेहरे से,बंद कमरे की रात की कहानी,डूबी रहती हैं अंदेशे में,किसी ने चेहरे को पढ़ा तो नहीं? अगर किसी ने पूछ लिया,है ये माथे पे निशां कैसा ?देंगी वही घिसा-पिटा जवाब ,हंस के कहेंगी, ओह ये….! रात वाशरूम में पांव स्लिप कर गया था ,या…सीढियां उतरते पैर फिसल गया था, …अब कौन बताये इन्हें …आये दिन, एक ही तरह के हादसे , होते हैं भला कहीं? ऐसे ही मसलों से दो चार होती औरतें,सोचती रहती हैं मन ही मन ,अच्छा होता हम अनपढ़ और जाहिल ही रहतीं !कम से कम बुक्का फाड़के , चिल्ला के, रो तो सकतीं थीं !दिल तो हल्का हो जाता !अपनी ही तालीम बोझ तो नहीं लगती…!तालीम ही ऐसी मिली कि हर बात पे सोचो….लोग क्या कहेंगे बड़े मसले होते हैं इन पढ़ी-लिखी, घरेलू, जहीन औरतों के पास ,कुछ दिखाने के , कुछ छिपाने के,पर करें भी क्या ?…..तालीम ही ऐसी मिली….! 2….देह …!देह …! __________ एक देह में छिपी है कितनी देह एक पिंजरा कितनी उड़ानों को कर सकता है कैद ? एक ही घर में कितने लोग उनका अपना – अपना अकेलापन घर के भीतर कई मकान होते हैं कितने आंसू ? उन आँखों के समंदर में ..? एक औरत हमेशा ही सहती है सितम फिर भी पहनती है इच्छाओं की चूड़ियाँ देखती है सपने लेकिन उसका होना, सबके होने में होना होता है इस तरह वह अक्सर छिपा लेती है अपने मन और तन का सच एक देह मरती है तो कितने देह की मौत हो जाती है …? 3…..वो पागल …! वो पागल ! ____________ उसके पास दिमाग नहीं है याददाश्त भी कमजोर है एक हद तक भूलने की बीमारी जैसा वो तर्क नहीं करती हाजिर रहती है , हर आवाज पर हाथ बंधे, सर झुकाए आज भी, जिसने जिस रूप में देखना चाहा, आती है वो नजर बदले में तैयार रहता है एक संबोधन उसके लिए, पागल … सुना है, कि… प्रेम से बोलने वाला , प्रेम में बोलनेवाला , सबसे खूबसूरत शब्द होता है ये– पागल पर पागलपन में ही सही वो नहीं भूल पाती, अपने औरतपन को , हर हाल याद रहता है उसे कि, प्रकृति को संतुलन प्रदान करती और जीवों की तरह, हाड़-मांस, रक्त-मज्जा, अस्थियों के मेल से बनी है वो भी उन्ही के जैसी भावनाओं से लदी-फदी पर, जब वो मिलती है , नारी छवियों की आड़ में , छवियों को भंजाते-भुनाते, लोगों से, खुद-जैसी ही छवियों की कैदी औरतों से , तब वो करती है स्त्री-विमर्श जो बनती है सुर्खियाँ, अखबारों की और मैं देखती हूँ ख़बरों में छाई हुई पागल के उम्दा पागलपन को, मैं खुश होती हूँ कि वो पागल, औरत है और औरत ही रहेगी… क्यूंकि उसके पास दिमाग नहीं है….! 4…..तलाश ….. बाज़ार में खड़ी हूँ यकीन खरीद रही हूँ इच्छाओं की बुझी राख में ढूंढ रही हूँ जिंदगी के अवशेष रौशनी को छूने की कोशिश में जलें हैं हाथ बार बार दरअसल मेरा जीना मेरे होने के खिलाफ एक अलिखित समझौता है निभाना है जिसे, रहती सांसों तक…. 5…..ओ ! निराश लड़की … ______________ बहुत ही कम है तुममें , धैर्य और सहिष्णुता और तुम पढ़ती हो निराशा के क्षणों में , पाब्लो नरूदा की कविताएँ … डर है मुझे … कहीं फिर ना हो जाये नरूदा, किसी, आत्महत्या का जिम्मेदार क्यूंकि.तुम …. पहले कविता पढ़ती हो फिर शब्दों से सपने बुनती हो बना देती हो कविता में सपनों की कहानी ढूंढती हो एक ऐसा सच, जैसा तुम चाहती हो जीने लगती हो पात्र बनकर उन कविताओं के आसपास ही कहीं बसा लेती हो एक मायावी संसार उनमें ही अंत में उलझ जाती हो हकीकत की कठोर धरातल और सपनों के सतरंगी मायाजाल में नतीजा …. आत्मसात कर लेती हो मृत्यु का सच हार जाता है कविताओं के बिम्ब से उभरे रंगीन जीवन का दुह्स्वप्न …. और जीत जाता है नरूदा खुद के भावों को तुम्हारे मन से जोड़ने में ऐ निराश लड़की …. मत बुनो मत ढूंढो कविताओं के आसपास जीवन और मृत्यु का ताना-बाना कविताएँ बहुत ही कोमल, नर्म, मखमली हुआ करती हैं और जीवन ? कठोर …..इसके रास्ते …. बहुत ही पथरीले ….. मेरा परिचय…. नाम — आभा दुबे शिक्षा –स्नातक (मनोविज्ञान) मूल निवास —पटना वर्तमान पता …. विद्या विहार , नेहरु नगर पश्चिम भिलाई (छत्तीसगढ़) भावनावों को शब्दों में ढालना अच्छा लगता है.. संगीता पाण्डेय की कवितायें भावनाएं आपको “ आभा दुबे की कवितायें “ कैसे लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita,
पहचान
मेरा इस शहर में नया -नया तबादला हुआ था । जिससे दोस्ती करता सब दीनानाथ जी के बारे में कुछ न कुछ बताते । दीनानाथ जी हमारे ही दफ्तर के दूसरे विभाग में काम करते थे । वे क्लर्क थे , पर हर कोई उनकी तारीफ करता था …….. क्या आदमी हैं ……… कहाँ -कहाँ तक उनकी पहुँच है , हर विभाग के अफसर के घर चाय -पानी है । एक दिन एक मित्र ने मुझसे यहाँ तक कह दिया कि अगर कोई काम अटके तो दीनानाथ जी से मिल लेना ,चुटकियों में काम हो जाएगा । पर मैंने सोचा मुझे क्या करना है ? दो रोटी खानी हैं और अपनी फकीरी में मस्त ! बच्चों के साथ खेलूं या दीनानाथ से मिलूँ । पर विधि का विधान , मेरी एक फाइल फंस ही गई । मैं लोगों के कहने पर उनके घर गया । दीनानाथ जी सोफे पर लेटे थे । स्थूलकाय शरीर, तोंद कमीज की बटन तोड़ कर बाहर आने की कोशिश कर रही थी । पान से सने दांत और बड़ी -बड़ी मूंछें जो उनके व्यक्तित्व को और भी रौबीला बना रही थीं । मैंने जाकर पाँव छुए (सबने पहले ही बता दिया था कि उन्हें पाँव छुआना पसंद है ), वे उठ बैठे । मैंने अपनी समस्या बताई। ” बस इतनी सी बात ” वे हंस पड़े ,ये तो मेरी आँख की पुतली के इशारे से हो जाएगा । उन्होंने कहा ” अब क्या बताएं मिश्राजी ,यहाँ का पत्ता-पत्ता मेरा परिचित है ।सब मेरे इशारे पर काम करते हैं ! उन्होंने अपने परिचय सुनाने शुरू किये ,फलाना अफसर बुआ का बेटा ,वो जीएम् … उसकी पोस्टिंग तो मैंने करायी है । दरअसल उसका अफसर मेरे साले के बहनोई का पडोसी है । मैं सुनता जा रहा था ,वो बोलते जा रहे थे । कोई लंगोटिया यार ,कोई कॉलेज का मित्र कोई रिश्तेदार ,और नहीं तो कोई मित्र के मित्र का पहचान वाला । मैं चमत्कृत था, इतना पावरफुल आदमी !! मुझे तो जैसे देव पुरुष मिल गए ! मेरा काम तो हुआ पक्का !! मैं उनके साथ साहब से मिलने चल पड़ा । साथ में चल रहे थे उनके पहचान के किस्से !वो बताते जा रहे थे और साथ में जगह -जगह पर पान की पीक थूक रहे थे । मुझे उन्हें थूकते हुए देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ा अधिकारी किसी फाइल पर अपनी मोहर लगा रहा हो । सारा रास्ता उनकी मोहरों से रंग गया ।मैं मन ही मन सोच रहा था कि कितने त्यागी पुरुष हैं, इतनी पहचान होने पर भी साधारण जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।इन्हे तो संसद में होना चाहिए !! सर्दी के दिन थे । सामने चाय की छोटी सी रेहड़ी थी ।मैने चाय पीने की ईक्षा ज़ाहिर की । वे अनमने से हो गए । पर मैं क्या करता ? उंगलियाँ अकड़ी जा रही थीं । इसलिए उनसे क्षमा -याचना करते हुए एक चाय का आर्डर दे दिया । दीनानाथ जी मुँह फेर कर खड़े हो गए। वृद्ध चाय वाले ने मुझे चाय दी । मैंने चाय पीते हुए दीनानाथ जी को आवाज दी । बूढा चाय वाला बोला- उसे मत बुलाओ ,वो नहीं आएगा ।वो मेरा बेटा है । वो अब बड़ी पहचान वाला हो गया है । अब अपने बूढे बाप को भी नहीं पहचानता । चाय मेरे गले में अटक गई ।दूसरों से पहचान बढ़ाने के चक्कर में अपनी पहचान से इनकार करने वाले दीनानाथ जी अचानक मुझे बहुत छोटे लगने लगे । वंदना बाजपेयी