श्राद्ध पक्ष – क्या वास्तव में आते हैं पितर 

श्राद्ध पक्ष - क्या वास्तव में आते हैं पितर

    चाहें ना धन-संपदा, ना चाहें पकवान l पितरों को बस चाहिए, श्रद्धा और सम्मान ll    आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता हैl यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं l  पितरों को पिंड व् जल अर्पित करते हैं | मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं, जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके l  श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को महालया  भी कहा जाता है| इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा    कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं? कल यूँहीं कुछ परिचितों से मिलना हुआ |उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोलीं की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा, पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो, और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा किया गया  श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | वहीँ दूसरे परिचित ने कहा कि  श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर वे किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं, व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को, या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है | तीसरे परिचित ने बात काटते हुए कहा, “ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ? आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ, पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | तीनों परिचितों की सोच, श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है? प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आँसू नहीं देखना कहते हैं तो परलोक गमन के बाद हमारे माता –पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें? जिनकी वसीयत तो हमने ले ली पर साल में एक दिन भी उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में हम “खाओ, पियो, ऐश करो की संस्कृति में कहीं अपने और आगामी संतानों को अकेलेपन से जूझती कृतघ्न पीढ़ी की ओर तो नहीं धकेल रहे l   श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत    भाव बिना सब आदर झूठा, झूठा है सम्मान  शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख ‘संतोष पंड्या’ के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। कुछ लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने जीवन के इतने वर्ष बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से ‘पं. रामनरेश त्रिपाठी’ भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है, ना कि भयभीत l जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। क्या वास्तव में आते हैं पितर  जब मानते हैं व्यापी जल भूमि में अनल में तारा  शशांक में भी आकाश में अनल में फिर क्यों ये हाथ है प्यारे, मंदिर में वह नहीं है ये शब्द जो नहीं है, उसके लिए नहीं है प्रतिमा ही देखकर के क्यों भाल  में है रेखा निर्मित किया किसी ने, इसको यही है देखा हर एक पत्थरों में यह मूर्ति ही छिपी है शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया यही है l जयशंकर प्रसाद   पितर वास्तव में धरती पर आते हैं इस बात पर तर्क करने से पहले हमें हिन्दू धर्म की मान्यताओं को समझना पड़ेगा, सगुण उपासना पद्धति को समझना होगा l सगुण उपासना उस विराट ईश्वर को मानव रूप में मान कर उसके साथ एक ही धरातल पर पारिवारिक संबंध बनाने के ऊपर आधारित है l इसी मान्यता के अनुसार सावन में शिव जी धरती पर आते हैं l गणेश चतुर्थी से अनंत चौदस तक गणेश जी आते हैं l नवरात्रि में नौ देवियाँ आती है और देवउठनी एकादशी में भगवान विष्णु योग निद्रा  से उठकर अपना कार्यभार संभालते हैं l तो इसी क्रम में अगर मान्यता है कि अपने वंशजों से मिलने पितर धरती पर आते हैं, तो इसमें तकर्क रहित क्या है ? सगुणोंपासना ईश्वर के मूर्त रूप से, प्राणी मात्र में, फिर अमूर्त और फिर कण-कण में व्याप्त ईश्वर के दर्शन की भी यात्रा हैं l और जब मूर्ति से वास्तविक प्रेम होता है तो यह यात्रा स्वतः ही होने लगती है l कबीर दास जी कहते हैं कि- एक राम दशरथ का बेटा , एक … Read more

निर्मल वर्मा की कहानी – डेढ़ इंच ऊपर

निर्मल वर्मा की कहानी - डेढ़ इंच ऊपर

  अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक और बिअर लूँगा। कुछ देर में यह पब बन्द हो जाएगी और फिर सारे शहर में सुबह तक एक बूंद भी दिखाई नहीं देगी। आप डरिए नहीं … मैं पीने की अपनी सीमा जानता हूँ … आदमी को ज़मीन से करीब डेढ़ इंच ऊपर उठ जाना चाहिए। इससे ज़्यादा नहीं, वरना वह ऊपर उठता जाएगा और फिर इस उड़ान का अन्त होगा पुलिस-स्टेशन में या किसी नाली में … जो ज़्यादा दिलचस्प चीज़ नहीं। लेकिन कुछ लोग डर के मारे ज़मीन पर ही पाँव जमाए रहते हैं …   निर्मल वर्मा जी की कहानियों में प्रेम की गहन अभिव्यक्ति हैl पर वो अब अतीत का हिस्सा बन गया हैl कहानियों में अपूर्णता स्वीकार करने के बाद भी बची हुई छटपटाहट है और पूर्णता की लालसा है जैसे चूल्हे की आग ठंडी हो जाने पर भी राख देर तक धधकती रहती हैl यही बेचैनी वो पाठक के मन में बो देते हैँ l उनकी कहानियों में बाहरी संघर्ष नहीं है भीतरी संघर्ष हैl कहानियाँ वरतान में अतीत में भटकते वर्तमान में निराश और भविष्य के प्रति उदासीन नायक का कोलाज हैँ l निर्मल वर्मा जैसे कथाकार दुर्लभ होते हैं l जिनके पास शब्द सौन्दर्य और अर्थ सौन्दर्य दोनों होते है l सीधी-सादी मोहक भाषा में अद्भुत लालित्य और अर्थ गंभीरता इतनी की कहानी पढ़कर आप उससे अलग नहीं हो सकते… जैसे आप किसी नदी की गहराई में उतरे हो और किसी ने असंख्य सीपियाँ आपके सामने फैला दी हों l खोलो और मोती चुनो l यानि कहानी एक चिंतन की प्रक्रिया को जन्म देती है… ऐसी ही एक कहानी है ‘डेढ़ इंच ऊपर’   दूसरे महायुद्ध के समय में यूरोपीय देश की पृष्ठ भूमि पर आधारित नाटक में अधेड़ व्यक्ति अपनी पत्नी की अचानक हुई मौत से व्यथित हो जाता है। वह मौत से अधिक इस बात से आहत होता है कि उसकी पत्नी ने सात वर्ष के वैवाहिक जीवन में अपने असल भेद को छिपा कर रखा। अधेड़ आदमी की पत्नी देशवासियों के हित में नाजीवाद के खिलाफ चल रहे गुप्त आंदोलन का हिस्सा थी। उसकी पत्नी की मौत देश पर काबिज जर्मनियों के चलते हुए। जर्मन पुलिस उस अधेड़ से पत्नी के बारे जानकारी हासिल करने के लिए गिरफ्तार करती है। जबकि वह अपनी पत्नी के इस रोल से पूर्ण तौर से अनभिज्ञ होता है। पत्नी से अथाह प्रेम के चलते वह दूसरी शादी भी नहीं करता है। परंतु दूसरी तरफ वह अपनी पत्नी की ओर से विश्वास तोड़ने से आहत भी होता है। आइए पढ़ें… निर्मल वर्मा की कहानी – डेढ़ इंच ऊपर     अगर आप चाहें तो इस मेज़ पर आ सकते हैं। जगह काफ़ी है। आखिर एक आदमी को कितनी जगह चाहिए? नहीं … नहीं … मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी। बेशक, अगर आप चाहें, तो चुप रह सकते हैं। मैं खुद चुप रहना पसन्द करता हूँ … आदमी बात कर सकता है और चुप रह सकता है, एक ही वक्त में। इसे बहत कम लोग समझते हैं। मैं बरसों से यह करता आ रहा हूँ। बेशक आप नहीं … आप अभी जवान हैं आपकी उम्र में चुप रहने का मतलब है चुप रहना और बात करने का मतलब है बात करना। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। आप छोटे मग से पी रहे हैं? आपको शायद अभी लत नहीं पड़ी। मैं आपको देखते ही पहचान गया था कि आप इस जगह के नहीं हैं। इस घड़ी यहाँ जो लोग आते हैं, उन सबको मैं पहचानता हूँ। उनसे आप कोई बात नहीं कर सकते। उन्होंने पहले से ही बहुत पी रखी होती है। वे यहाँ आते हैं, अपनी आखिरी बिअर के लिए — दूसरे पब बन्द हो जाते हैं और वे कहीं और नहीं जा सकते। वे बहुत जल्दी खत्म हो जाते हैं। मेज़ पर। बाहर सड़क पर। ट्राम में।   कई बार मुझे उन्हें उठाकर उनके घर पहुँचाना पड़ता है। बेशक, अगले दिन वे मुझे पहचानते भी नहीं। आप गलत न समझें। मेरा इशारा आपकी तरफ नहीं था। आपको मैंने यहाँ पहली बार देखा है। आप आकर चुपचाप मेज़ पर बैठ गए। मुझे यह बुरा-सा लगा। नहीं, आप घबराइए नहीं … मैं अपने को आप पर थोपूँगा नहीं। हम एक-दूसरे के साथ बैठकर भी अपनी- अपनी बिअर पर अकेले रह सकते हैं। मेरी उम्र में यह ज़रा मुश्किल है, क्योंकि हर बूढ़ा आदमी थोड़ा-बहुत डरा हुआ होता है … धीरे-धीरे गरिमा के साथ बूढ़ा होना बहुत बड़ा ‘ ग्रेस है, हर आदमी के बस का नहीं। वह अपने-आप नहीं आता, बूढ़ा होना एक कला है, जिसे काफी मेहनत से सीखना पड़ता है। क्या कहा आपने? मेरी उम्र? ज़रा अन्दाज़ा तो लगाइए? अरे नहीं साहब आप मुझे नाहक खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। यों आपने मुझे खुश ज़रूर कर दिया है और अगर अपनी इस खुशी को मनाने के लिए मैं एक बिअर और लूँ, तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं होगा? और आप? आप नहीं लेंगे? नहीं … मैं ज़िद नहीं करूंगा।   रात के तीन बजे … यह भयानक घड़ी है। मैं तो आपको अनुभव से कहता हूँ। दो बजे लगता है, अभी रात है और चार बजे सुबह होने लगती है, लेकिन तीन बजे आपको लगता है कि आप न इधर हैं, न उधर। मुझे हमेशा लगता है कि मृत्यु आने की कोई घड़ी है, तो यही घड़ी है।   हर आदमी को अपनी ज़िन्दगी और अपनी शराब चुनने की आज़ादी होनी चाहिए … दोनों को सिर्फ एक बार चुना जा सकता है। बाद में हम सिर्फ उसे दुहराते रहते हैं, जो एक बार पी चुके हैं, या एक बार जी चुके हैं। आप दूसरी ज़िन्दगी को मानते हैं? मेरा मतलब है, मौत के बाद भी? उम्मीद है, आप मुझे यह घिसा-पिटा जवाब नहीं देंगे कि आप किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। मैं खुद कैथोलिक हूँ, लेकिन मुझे आप लोगों का यह विश्वास बेहद दिलचस्प लगता है कि मौत के बाद भी आदमी पूरी तरह से मर नहीं जाता … हम पहले एक ज़िन्दगी पूरी करते हैं, फिर दूसरी, फिर तीसरी। अक्सर रात के समय मैं इस समस्या के बारे में सोचता हूँ … आप जानते हैं, मेरी … Read more

बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी

नेहा की लव स्टोरी

लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है।पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होकर युवा पीढ़ी इस ओर आकर्षित तो हुई है पर यह अभी विवाह के विकल्प के रूप में स्थापित नहीं हो सकी है l जिस रिश्ते में प्रवेश करते समय “साथ तो हैं पर साथ नहीं” की तर्ज पर किसी तरह का वादा ना हो उसके टूट जाने पर लगाए जाने आरोप लगाए भी तो किस पर और क्यों? बाज़रवाद से प्रभावित लिव इन का रैपर इतना शानदार है कि युवा इसके शिकंजे में आते जा रहे हैं, और पूरी पीढ़ी गुमराह हो रही हैl ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उन्मुक्त जीवन की ओर अंधी दौड़ का दुष्परिणाम महिलाओं के हिस्से ज्यादा आता हैlऐसे में ऐसी विवेक सम्पन्न स्त्री को गढ़ना भी साहित्य का काम है जो अपनी जिंदगी का ये महत्वपूर्ण फैसला देह की कामनाओं की ज्वार में ना ले l आइए पढ़ते  हैं लिव इन जैसे मुद्दे पर अपनी बात रखते सुपरिचित कथाकार सोनाली मिश्रा के उपन्यास “नेहा की लव स्टोरी” पर डॉ. मीनाक्षी स्वामी की समीक्षा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी सोनाली मिश्रा का पहला उपन्यास ‘महानायक शिवाजी’ भी पढ़ा था। शिवाजी की वीरता के साथ माता जीजाबाई की भूमिका को भी सोनाली ने जिस तरह रेखांकित किया है, वह बहुत प्रभावी है। श्रेष्ठ समाज के निर्माण में माता की भूमिका के साथ शिवाजी के शौर्य, देशभक्ति आदि का सुगठित संयोजन उपन्यास में है। सोनाली की दृष्टि स्पष्ट है। इसी कारण विचारों में भी स्पष्टता है। वे साहस के साथ उन्हें जो सही लगता है, उसके पक्ष में खड़ी रहती हैं। यही बात सोनाली के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास बहुत दिनों से मंगाकर रखा था। मगर इस दौरान व्यस्तता के कारण अब पढ़ पाई। वर्तमान में समाज में तेजी से नासूर बनी लव जिहाद की समस्या को परत दर परत इस उपन्यास में खोला गया है। नारीवाद एक आयातित विचार है जो हमारे देश की संस्कृति के अनुकूल नहीं है। मगर हीनता ग्रंथि के चलते विदेशी संस्कृति को महान समझने की भूल अब कई समस्याओं के रूप में सामने आ रही है। इसी के चलते सनातन संस्कृति के प्रति पनपी हीन भावना हिंदू लड़कियों को दूसरे धर्म की ओर आकर्षित करने लगी। नारीवाद के प्रति आकर्षण, छद्म प्रगतिशीलता और अपनी जड़ों से दूरी इन लड़कियों को ऐसे शिकंजे में कसने लगी जिसमें जीवन की समाप्ति के अलावा कुछ हाथ न लगा। और जो जीती रहीं, वे मृत्यु से भी बदतर दशाओं में। लिव इन जैसे सम्बंधों को भले ही कानूनी मान्यता मिली हो, मगर सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर जीवन से जुड़ी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के गरिमामय और मर्यादित तरीके तय किए थे। ये परम्पराएं एक दिन में नहीं बनती। इनमें पीढ़ियों के सामाजिक अनुभवों का समावेश होता है। ये समाज हित में होती हैं। विवाह जैसी संस्थाएं और अपने जाति समूह में विवाह। समय के साथ परम्पराओं में बदलाव हुआ तो अपने धर्म के भीतर जातीय बंधनों के परे विवाहों को भी समाज द्वारा मान्य किया गया। अन्तरधार्मिक विवाह और लिव इन को मान्यता क्यों न मिली, आज इनके परिणाम देखकर हमें अपनी परम्पराओं पर गर्व के साथ पालन करने में दृढसंकल्पित होने का समय है। ‘नेहा की लव स्टोरी’ उपन्यास इसी बात को बहुत रोचक अंदाज़ में बयान करता है। किस तरह हिंदू लड़कियों को बरगलाया जाता है और फिर उनका जीवन बर्बाद किया जाता है। वे इस जाल में क्यों और कैसे फंसकर किस तरह तबाह हो जाती हैं। सब कुछ उपन्यास में उद्घाटित होता है। इससे बचने के लिए परिवार की भूमिका विशेष तौर पर माता की क्या भूमिका होना चाहिए। इस जाल से कैसे बचें। जिस आयु में लड़कियों की आंखों में अपने जीवन को लेकर सुनहरे सपने होते हैं। उस आयु में उन्हें पूरा करने के लक्ष्य से भटककर वे बहुत सूक्ष्म तंतुओं से बने अदृश्य मगर अत्यंत खतरनाक जाल में फंस जाती हैं, जब उन्हें इसका एहसास होता है, तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि उससे निकल पाना उनके लिए असंभव हो जाता है। जो परिवारजन उन्हें निकाल सकते हैं, वे उस समय उनसे नाराज़गी, उनके उठाए गलत कदम पर उनसे क्रुद्ध होते हैं और सहारा नहीं देते हैं। इन्हें जाल में फंसाने वाले इनके परिवारजनों से दूर करने का जाल भी बड़ी धूर्तता से बुनते हैं। इस सबका मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्रण दक्ष लेखिका ने बहुत कौशल से किया है। किस तरह ब्रेन वॉश करते हुए भारतीय संस्कृति का विनाश करने का षड़यंत्र रचा गया है। हमारी परम्पराओं, मूल्यों पर आघात किया जा रहा है। आधुनिकता, प्रगतिशीलता, नारीवाद जैसे विमर्श किस तरह हमारी संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं। नारीवाद के नाम पर हमारे समाज को स्त्री पुरुष के खांचे में बांटकर महिला और पुरुष को एक दूसरे के पूरक के स्थान पर विरोधी बनाकर समाज को तोड़ने का विमर्श रचा गया। उपन्यास में सोनाली ने गहन शोध, चिंतन, मनन, विश्लेषण के बाद कथानक को बुना है, यह पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह उपन्यास सोए हुए हिंदू समाज को झिंझोड़कर जगाता है कि उठो, जागो और अपनी अस्मिता की रक्षा करो। यह उपन्यास हर किसी को जरूर ही पढ़ना चाहिए। उपन्यास पूरे समय बांधे रखता है। यही कारण है कि एक बैठक में पढ़े बिना छोड़ा नहीं जाता है। सोनाली इस समस्या की जड़ तक जाती हैं और एक एक रेशा पूरी स्पष्टता से सामने रखती हैं। ऐसे साहसिक उपन्यास के लिए सोनाली को साधुवाद। डॉ. मीनाक्षी स्वामी यह भी पढ़ें प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे का सारांश व समीक्षा रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी प्रज्ञा की कहानी जड़खोद- स्त्री को करना होगा अपने हिस्से का संघर्ष आपको “बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी” पर यह समीक्षात्मक आलेख कैसा लगा? अपने विचारों से हमाएं अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें l

उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

  एक स्वाभिमानी, कर्मठ, स्त्री थी सुकन्या, जिसे इतिहास च्यवन ऋषि की पथअनुगामिनी भार्या के रूप में जानता है l इससे सुकन्या के व्यक्तित्व पर समुचित प्रकाश नहीं पड़ता l राजपुत्री सुकन्या के स्वाभिमान, प्रेम, करुणाद्र हृदय, वनस्पतियों से सहज लगाव और उनका औषधि के रूप में प्रयोग की कथा अकथ ही रह जाती है l “हेति’ के माध्यम से सिनीवाली इतिहास के धुँधलके में कल्पना और तथ्यों के सहारे प्रवेश करते हुए तार्किक ढंग से सुकन्या के साथ न्याय करते हुए उसे इतिहास से वर्तमान में लाकर खड़ा कर देती हैं l उपन्यास के ब्लर्ब से कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” और “गुलाबी नदी की मछलियाँ” की अपार सफलता के बाद सबकी प्रिय लेखिका सिनीवाली कई वर्षों के परिश्रम के बाद ला रहीं हैं कथ्य, भाव, भाषा की दृष्टि से एक बेहद सशक्त उपन्यास “हेति -सुकन्या एक अकथ कथा” l अपनी कलम से पाठकों को बाँध लेने की क्षमता रखने वाली सिनीवाली का यह उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर खरा उतरेगा | इस विश्वास और शुभकामनाओं के साथ आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का अंश उपन्यास का ये अंश मासूम कोमल राजपुत्री सुकन्या की च्यवन ऋषि से विवाह के बाद विदाई का है l ये सिर्फ पुत्री की विदा नहीं है…. उपन्यास पर आधारित रील यहाँ देखें उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा   जिस मंगलकारी, हर्षवर्षा करने वाले दिवस की मुझ सहित सभी को चिरप्रतीक्षा थी वो वही दिवस था। मेरे विवाहोत्सव में तो अत्यधिक हर्षोल्लास, मंगलगीत, आडम्बर के संग नगरवासी सम्मिलित होते। नगर तथा हर्म्य की शोभा का वर्णन ही क्या होता! पिताश्री महाराज कोष का द्वार खोल देते। जिसकी जो इच्छा होती, जितनी इच्छा होती उसे उतना दिया जाता। माता आनंदित हो ईश्वर का आभार प्रकट करतीं। भ्राता गर्व से कुमार को विवाह मंडप में लाते परंतु…! अब…! मैं परिणय सूत्र में बँधूंगी एवं सभी शोकग्रस्त होंगे। अपनी कल्पनाओं की चिता पर अश्रुपूरित नेत्र लिए मैं सुकन्या विवाह के लिए प्रस्तुत थी। परंतु इसे विवाह कैसे कह सकते हैं? वो तो समिधा के लिए लायी गई सुकन्या को विवाह मंडप में भस्म किया जा रहा था तथा अपने अहं एवं क्षुधा की तुष्टि करनेवाले तपस्वी का कार्य सिद्ध हो रहा था! वैवाहिक जीवन सम्बन्धी जितनी भी कोमल कल्पनाएँ थीं वे सभी विवाह वेदी की अग्नि में भस्म हो रही थीं। पुरोहितगण मंगलाष्टक का सस्वर पाठ कर आशीर्वचन दे रहे थे। उस वेदी से लौह की ऐसी बेड़ी निर्मित हो रही थी जो मंत्रोच्चार के घन के प्रहार से सशक्त होती जा रही थी। मुझे विवाह रूपी उस पाश में जकड़ा जा रहा था। मंडप में वर के रूप में ऋषि को देखकर एक वृद्धा ने कहा, “प्रतीत होता है रुद्र, गौरी को ब्याहने आए हैं।” पार्वती ने तप करके शिव को स्वयं पति रूप में वरण किया था। माता गौरी के समान सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होता ! किंतु मेरा दारकर्म तो भय दिखाकर किया जा रहा था। इसे विवाह नहीं बलात् अधिकार स्थापित करना कहिए, जिसे धर्म के माध्यम से मेरे धर्मपति प्रजाजनों एवं स्वजनों के समक्ष कर रहे थे। हमारा युग्म देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, ज्यों सर्प के मुख में शशक! प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। (ऋग्वेद) यहाँ (पितृकुल) से तुझे मुक्त करता हूँ, वहाँ (पतिकुल) से नहीं। वहाँ से तुझे अच्छी तरह बाँधता हूँ। मैं राजकुमारी सुकन्या से ऋषिपत्नी सुकन्या में परिणत हो गई। परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है परंतु ऐसा परिवर्तन…! विवाह के पश्चात बासरगृह… प्रेम की दैहिक यात्रा! प्रेम में एकरूप हो जाना! इस यामिनी की कल्पना करके उर्वी ने मुझे कई बार सताया था। मिलनकक्ष की सज्जा की बातें मेरे लोभी मन को लुभा जातीं, आँखें झुक जातीं परंतु कर्ण अपनी पूरी शक्ति लगाकर श्रवण करते। जब दो हृतल का प्रथम मिलन होगा तो बासरगृह की सज्जा भी हृदयहारी होनी चाहिए। उर्वी कभी पुष्प से कक्ष सज्जित करने के लिए उतावली होती तो कभी मणि – माणिक्य से। कभी मयूरचंद्रिका एवं मौतिक्य से। इतनी कल्पनाओं के मध्य वो स्वयं ही उलझ जाती। मुझसे पूछने लगती, “कुँवर, कौन सी सज्जा प्रथम रयन के योग्य होगी ?” “उवीं, ये तो तुम्हारा कार्य क्षेत्र है मैं भला क्या उत्तर दूँ?” “हाँ सखी, प्रथम रयन केलिगृह में जाते हुए आपकी जो दशा होगी उस क्षण मैं भी कोई सहायता नहीं कर सकूँगी।” सुकंठ भी कभी-कभी, सुनते सुनते बोल पड़ता, सखी मणिमुक्ता की सज्जा, पुष्प की शय्या ! चिरप्रतीक्षित स्वप्न जिन नयनों ने संजोया था, अश्रु की अविरल धारा उसे अपने संग प्रवाहित कर ले गई। उर्वी भी व्यथित थी परंतु वो अपना कष्ट प्रकट कर मेरी पीड़ा में वृद्धि करना नहीं चाहती थी। मेरे लिए अब कोई कष्ट, दुखदायी नहीं क्योंकि इससे अधिक प्रलंयकारी और क्या होगा ? क्या अतीव कष्ट भी भय से मुक्त कर देता है ? उर्वी दुविधा में थी प्रथम निशि के लिए मेरा श्रृंगार किस भाँति करे जो मेरे धर्मपति के अनुरूप हो। मुझे पट्टमहिषी, राजरानी, पटरानी बनाने का स्वप्न देखने वाली अब मुझे ऋषिपत्नी का रूप देते हुए काँप रही थी। “उर्वी, श्रृंगार की क्या आवश्यकता, इस रयन के लिए जब सौभाग्य का आगमन हुआ ही नहीं ?” मैंने उसकी दुविधा समाप्त कर दी। * * * विदाई की बेला आ गई। अयुत स्वस्थ दुग्ध देने वाली गौ, सहस्र स्वस्थ सुडौल वायु से गति मिलाने वाले स्वर्ण आभरण से युक्त अश्व, शतम चंदनचर्चित स्वर्णमंडित गज, महावत सहित, इंद्रनील, महानील, वैदूर्यमणि, पीतमणि, स्वर्ण एवं रजत मुद्राएँ, कौशेय, क्षौम वस्त्र, पाट साड़ी, भाँति-भाँति के नगवलित अवतंस, कतारबद्ध दास-दासियाँ, मेरे प्रिय रथों पर मेरे प्रिय वाद्ययंत्र, मेरे पोषित मयूर, शुक, कपोत, राजहंस, मृग आदि राजप्रासाद के प्रांगण, द्वार एवं राजपथ पर मेरे संग जाने हेतु सज्जित थे। पिता का वात्सल्य पुत्री के लिए! वह मेरे संग इतना यौतुक भेजना चाहते थे कि मैं जहाँ भी रहूँ वहाँ राजभवन का सुख एवं एश्वर्य प्राप्त हो। परंतु क्या ये वस्तुएँ मुझे सुख प्रदान करेंगी ? अब मेरे लिए इनका क्या प्रयोजन ? यदि पिता श्री वन में महल का निर्माण करा भी दें तो मैं वहाँ पत्नी के रूप में स्वाभिमान के साथ जीवन कैसे व्यतीत करूँगी ? मैं ध्यानपूर्वक अपने संग जाने वाले यौतुक देख रही थी। महाराज मेरे कक्ष में कांतिहीन मुख, … Read more

काकी का करवाचौथ

हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|” मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?” “इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा| मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, “नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|”  काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और ‘नीत्से’ को वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई | मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक – एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो ?  इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो | मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक –छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस “ खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद| यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े “अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|   मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |” ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या – क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |” शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था “ काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर – कर के कम करना ही पड़ेगा | एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को | मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने –अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता | अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से … Read more

प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू

प्राइड एण्ड प्रेजुडिस

अभी 28 जनवरी 2023 को जेन ऑस्टिन  (jane austen) के  लोकप्रिय उपन्यास “प्राइड एण्ड प्रेजुडिस” को 210 साल पूरे हो गए l ये एक ऐसी किताब है जो तब से लेकर आजतक बेस्ट सेलर बनी हुई है l इतना ही नहीं विश्व भर में इस पर आधारित जितने भी टीवी सीरियल फिल्में बनीं वो सब सुपर हिट रहीं और अभी भी हो रहीं हैं l एक समय युवा लड़कियों में अति लोकप्रिय लखनऊ दूरदर्शन पर प्रसारित “तृष्णा” इसी पर आधारित था l स्कूल-कॉलेजों में डार्सी की भूमिका निभा रहे तरुण धनराजगीर के चर्चे आम थे l आज भी लड़कियों के मन में कहीं न कहीं एलिजबेथ और डार्सी की छवि रहती है l इन पात्रों में ऐसा क्या खास है इस पर फिर कभी बात करूँगी l मुझे याद है मैंने इसे  पहली बार अंग्रेजी साहित्य पढ़ रही दीदी से लेकर पढ़ा था l आज ये मेरी बेटी की निजी लाइब्रेरी का हिस्सा है l मूल रूप से प्रेम कहानी रहे इस उपन्यास के बाद ही  अपोजिट अटरैक्टस या लव हेट रिलेशनशिप जो बाद में में समर्पित प्रेम में बदल जाता है को साहित्य और सिनेमा में स्थान दिया गया l लेकिन मात्र 43 वसंत देखने वाली जेन स्त्री की सुंदरता के ऊपर स्त्री की बौद्धिकता और अपने साथी को चयन करने का अधिकार को स्थापित करने का महत्वपूर्ण काम कर गई l माना जाता है उसके बाद स्त्री की छवि कहानियों में बदलनी शुरू हुई l प्राइड एंड प्रिज्युडिस की लेखिका जेन ऑस्टिन के बारे में   जेन ऑस्टेन (jane austen)का जन्म स्टीवनटन के हैम्पशायर गाँव में हुआ था, जहाँ उनके पिता, रेवरेंड जॉर्ज ऑस्टेन, रेक्टर थे। वह आठ बच्चों वाले परिवार यानि -छह लड़कों और दो लड़कियों के परिवार में दूसरी बेटी और सातवीं संतान थी। जीवन भर उसकी सबसे करीबी साथी उसकी बड़ी बहन कैसेंड्रा थी; न तो जेन और न ही कैसेंड्रा ने शादी की। उनके पिता एक विद्वान थे जिन्होंने अपने बच्चों में सीखने के प्यार को प्रोत्साहित किया। उनकी पत्नी नी लेह बुद्धिमान महिला थीं, जिन्होंने तात्कालिक छंदों और कहानियों को लिखा l हालांकि उनका रुझान अभिनय की ओर भी था l   जेन ऑस्टेन (jane austen)के जीवंत और स्नेही परिवार ने उनके लेखन के लिए विस्तृत फलक प्रदान किया। इसके अलावा, रिश्तेदारों और दोस्तों के द्वारा बताए गए उनके अनुभवो को जानकर उन्होंने अपनी कलम को विस्तार दिया l गाँव, आस-पड़ोस और देश के शहर में छोटे-छोटे जमींदारों और देश के पादरियों की, कभी-कभी लंदन की यात्रा केअनुभवों को उन्हें, पात्रों और विषय वस्तु में उपयोग करना था l पर जीवन के बारीक अनुभव ही कैसे बडी कथा को जन्म देते हैं, ये उनकी कलम ने दिखा दिया l हालांकि इन बातों का प्रमाण नहीं है फिर भी कहा जाता है कि 1802 में जेन हैम्पशायर परिवार के 21 वर्षीय उत्तराधिकारी हैरिस बिग-विदर से शादी करने के लिए तैयार हो गई थी, लेकिन अगली सुबह उसका मन बदल गया। ऐसी कई परस्पर विरोधी कहानियाँ भी हैं जो उसे किसी ऐसे व्यक्ति से जोड़ती हैं जिसके साथ वह प्यार करती थी लेकिन जिसकी बहुत जल्द मृत्यु हो गई। चूँकि ऑस्टेन के उपन्यासों का प्रेम और विवाह से इतना गहरा संबंध है, इसलिए इन संबंधों के तथ्यों को स्थापित करने की पाठक सदा कोशिश करते रहे l दुर्भाग्य से कैसेंड्रा अपनी बहन के निजी जीवन की अप्रकाशित लिखी हुई कथाओं की संरक्षक थी, लेकिन वो सिबलिंग रायवलरी से ग्रस्त थी l इसलिए उसने  जेन की मृत्यु के बाद उसने बचे हुए पत्रों को सेंसर कर दिया, कई को नष्ट कर दिया और कुछ को फाड़ कर नष्ट कर दिया। लेकिन उनके पाठक यह मानते रहे कि उनके प्रिय उपन्यास के लेखक ने प्रेम के अनुभव को समझा है और प्रेम में निराशा का सामना भी किया है l प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल- कुछ अनछुए पहलू  उपन्यास की रिकॉर्डतोड़ लोकप्रियता के  खुशी के इन पलों के साथ कुछ दुखद और क्रूर  बातें भी जुड़ी हैं l उस समय की कई महिला लेखकों की तरह, ऑस्टेन ने गुमनाम रूप से अपनी पुस्तकें प्रकाशित कीं थी ।  उस समय, एक महिला के लिए आदर्श भूमिकाएँ पत्नी और माँ के रूप में थीं, और महिलाओं के लिए लेखन द्वितीय श्रेणी का काम माना जाता था l  एक लेखिका जो पूर्ण कालिक लेखन करना चाहती हो उसको एहसास कराया जाता था कि उसमें स्त्रीत्व की कमी है l मतलब कहीं ना कहीं  महिला लेखक को सिद्ध करना पड़ता था कि वो लेखन केवल अंशकालिक रूप में कर रही है, और “साहित्यिक  जगत” नाम-दाम कमाने की कोशिश नहीं कर रही है l अकूत प्रतिभा की धनी जेन ऑस्टिन  भी ये सारा लेखन छिप के करती थीं l कोई आ जाता तो मेज की दराज में वो सारे पन्ने छिपा देती, ऐसे दिखातीं कि वो लिखती ही नहीं हैं l पात्र को पकड़ने रहने की कोशिशों के मध्य जेन का ये संघर्ष आँखें नम कर देता है l  इतना छिप के लिखने पर वो इतना अनमोल दे गई, अगर बेफिक्र होकर लिखती तो ? ये प्रश्न मन को मातहत है l उनके पहले प्रकाशित उपन्यास, सेंस एंड सेंसिबिलिटी को “एक महिला द्वारा” लिखे जाने के रूप में” पब्लिश किया गया था l प्राइड एंड प्रेजुडिस को “सेंस एंड सेंसिबिलिटी के लेखक” द्वारा लिखा गया बताया गया l अपने जीवनकाल में उनके अपने उपन्यासों में उनका कभी नाम नहीं आया l   शायद वो नाम कभी सामने आता भी नहीं पर उनकी मृत्यु के 4 साल बाद एक फ्रेंच अनुवादक ने कॉपी राइट के बिना चोरी छिपे प्राइड एण्ड प्रेजुडिस का बेहद कम स्तर का अनुवाद खराब कागजों पर प्रकाशित करवा दिया l  उसमें जेन ऑस्टिन का नाम धोखे से चला गया l खुशकिस्मती ये भी है कि वो भी लोकप्रिय हो गया और उसके बाद….  मूल अंग्रेजी में प्रकाशित उपन्यास में उनका नाम उनकी मृत्यु के साल बाद आया l   पर बात यही खत्म नहीं होती… jane austen ने मिलिट्री लाइब्रेरी, व्हाइटहॉल से थॉमस एगर्टन को £110 के बदले उपन्यास का कॉपीराइट बेच दिया था l जो एक महंगा फैसला साबित हुआ l   उस महान लेखिका jane austen को याद करते हुए कहीं ना कहीं मेरे … Read more

कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक 

कितने गांधी

व्यक्ति अपने विचारों के सिवा कुछ नहीं है. वह जो सोचता है, वह बन जाता है. महात्मा गांधी इस वर्ष जबकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाया गया है, तमाम लेखक और साहित्यकार ढूंढ-ढूंढ कर हमें स्वतंत्रता दिलाने वाले उन शहीदों पर लिख रहें हैं जिन के नाम या गुमनाम रह गए या हमने कृतघ्न वंशज की तरह उन्हें भुला दिया | ऐसे समय में जब वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार चिकित्सक अजय शर्मा जी की का नाटक “कितने गांधी“ मेरी नज़रों के सामने से गुजरा तो नाम पढ़ते ही मन में पहला प्रश्न यही आया कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी, हमारे प्रिय बापू के योगदान को कौन नहीं जानता | गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की जगह लेखक ने इन्हें क्यों चुना ? परंतु जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटती गई तो पाया कि लेखक ने गाँधी जी के प्रति नई दृष्टि और दृष्टिकोण को पुस्तक में समाहित किया है | विचार कभी ऐकांगी नहीं होते | वो हर दिशा में उठते हैं | प्रश्नों की तलवार और उत्तरों की ढाल के साथ सिद्ध हो जाने तक अपनी यात्रा करते है | व्यक्ति की हत्या हो सकती है, विचारों की नहीं | परंतु क्या ये प्रश्न नहीं उठता है कि किसी एक विचार का महिमामंडन किसी दूसरे विचार की अपरोक्ष रूप से हत्या होती है ? शायद इसीलिए आज कल इतिहास को नए दृष्टिकोण से लिखा जा रहा है | सवाल ये भी उठता है कि ये नया दृष्टिकोण क्या होता है ? बहुत सारी महिला कथाकार स्त्री दृष्टिकोण से इतिहास को खंगाल रही है, तो चुन-चुन कर उनके साथ पुरुष लेखकों द्वारा किये गए अन्याय की गाथाएँ सामने आ रही हैं | कितनी सशक्त स्त्रियाँ केवल भावों के मोती बहाती अबलाएँ नजर आती हैं | तो क्या ये पुरुष विरोध है? नहीं ! ये न्याय है उन चरित्रों के साथ जिन् के साथ पितृसत्तात्मक समाज और उससे पोषित लेखकों ने न्याय नहीं किया | कितने गांधी- महात्मा गांधी को नए दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करता नाटक  इन पर सवाल उठाने से पहले सवाल ये भी है कि निष्पक्ष तो उन्होंने भी नहीं लिखा, जिन्होंने पहले लिखा था | अभिव्यक्ति की आजादी कलम को वर्जनाओं में बांधने के विरुद्ध यही | समझना ये भी होगा कि इतिहास लिखने में क्या कोई ऐसा नियम है कि हमें इतना ही पीछे जाना चाहिए ….क्या पचास साल पीछे नहीं जाया जा सकता, साथ साल, सत्तर साल ….क्या समय घड़ी प्रतिबंधित है? शायद नहीं | क्योंकि जब हम कहते हैं कि सूरज डूब रहा है तो कहीं ना कहीं ये भी सत्य होता है कि वो कहीं उग रहा होता है | और सूरज डूबता ही नहीं है ये जानने के लिए ये दोनों पक्ष जानना जरूरी होता है | इस किताब को पढ़ने के बाद कुछ ऐसा ही महसूस हुआ | “ये विश्व एक रंगमंच है, और सभी स्त्री-पुरुष सिर्फ पात्र हैं, उनका प्रवेश और प्रस्थान होता है, और एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में कई किरदार निभाता है”…विलियम शेक्सपियर इस किताब को पढ़ते हुए शेक्सपीयर का ये कथन बार-बार मेरे दिमाग में आता रहा | हर व्यक्ति कितने सारे किरदारों को निभाता है| एक अच्छा बेटा बुरा पति हो सकता है या ये भी बुरा भाई अच्छा दोस्त हो सकता है | पर किसी किरदार का महिमा मंडन करते हुए या उसके प्रति नकारात्मकता रखते हुए हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है | हम उस किरदार के अन्य पहलूओं पर बात नहीं करते | इस नाटक में अजय शर्मा जी गांधी जी के व्यक्तित्व को तीन भागों में बाँट कर देखते हैं | उनका सामाजिक व्यक्तित्व, राजनैतिक व्यक्तित्व और नैतिकता की परिभाषा में स्वयं को सिद्ध करने वाला हठीला व्यक्तिव | महात्मा गांधी जी के सामाजिक व्यक्तित्व की लेखक द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है | महात्मा नाम भी उनके साथ इसीलिए जुड़ा क्योंकि उन्होंने गरीबों, वंचितों, असहायों में सदा परमात्मा को देखा | उनके हित के लिए समाज में महती भूमिका निभाई | अहिंसा और सत्य जिनके जीवन का अवलंबन था, ये नाटक जाति-पात के भेदभाव मिटाने की उनकी कोशिशों की सराहना करता है | अलबत्ता नैतिकता के दृष्टिकोण से वो स्वयं को सिद्ध करने की धुन में हठी साबित होते हैं | अपने ब्रह्मचर्य को साबित करने के लिए वो मासूम बच्चियों के मन में जीवन पर्यंत रह जाने वाले मानसिक ट्रॉमा की परवाह भी नहीं करते का भी मुद्दा उठाया गया है | कुछ अन्य मुद्दे नैतिकता की परिभाषा के उठाते हुए मुख्य रूप से नाटक गांधी जी के राजनैतिक व्यक्तित्व पर बात करता है | लेखक के अनुसार राजनैतिक व्यक्ति के रूप में गांधी जी उस समय की लोकप्रिय पार्टी का प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे | जो गरम दल और नरम दल में बँटी थी | स्वतंत्रता में दोनों ही दलों की भूमिका थी परंतु एक विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे को दबाना जरूरी था | लेखक राजनैतिक उठापटक के उसी आधार पर मूल्यांकन करते हुए अपनी बात रखते हैं | ये राजनीति ही है जिसने बहुत खूबसूरत शब्द सेकुलरिज्म को भी सिलेक्टिव चुप्पियों और सेलेक्टिव विरोध के पिंजरे में कैद कर दिया | फिर निष्पक्ष कौन है ? आम जन मानस का ये सवाल नाटक में लेखक ने बार-बार उठाया है | अब प्रश्न ये उठता है | महात्मा गांधी हमारे राष्ट्र पिता है, क्या उनको किसी नए दृष्टिकोण से देखा जा सकता है ? उत्तर “नहीं” भी हो सकता है और ये भी हो सकता है आज नेहरू पर बात होती है सिकंदर पर बात होती है राम और कृष्ण पर बात होती है | पुराण के हर पात्र को नए दृष्टिकोण से देखा जा रहा है | तो महात्मा गांधी को क्यों नहीं ?लेखक ने कई जगह प्रश्न उठाया है कि इतिहास हमेशा जीतने वाले के पक्ष में लिखा जाता है | जो सिकंदर को विश्व विजेता कहता है और अंग्रेजों को तानाशाह | जब भी किसी प्रसिद्ध व्यक्ति, राजा या नेता या साहित्यकार का हम उसके जीवल काल में मूल्यांकन करते हैं तो निष्पक्ष नहीं रह जाते | उसका प्रभा मण्डल निष्पक्ष होने नहीं देता | किसी का असली मूल्यांकन उसके बाद ही होता है जब उसके प्रभा मण्डल के प्रभाव … Read more

महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया ?

अब रोती नहीं कानुप्रिया

  असली जिंदगी में अक्सर दो सहेलियों की एक कहानी विवाह के बाद दो अलग दिशाओं में चल पड़ती हैl पर कभी-कभी ये कहानी पिछली जिंदगी में अटक जाती है l जैसे रामोना और लावण्या की कहानी l कहानी एक सहेली के अपराध बोध और दूसरी के माध्यम से एक धोखा खाई स्त्री के चरित्र को उसके स्वभावगत परिवर्तन को क्या खूब उकेरा है । “अब रोती नहीं कनुप्रिया”  कहानी पाठक को रुलाती है। प्रेम पर भावनाओं पर लिखे  कई वाक्य किसी हार की तरह गुथे हुए बहुत प्रभवशाली व कोट करने लायक हैं । तो आइए पढ़ें महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया    पंद्रह साल बहुत ज्यादा होते हैं। लावण्या मेरी बचपन की साथिन। उसे कितने सालों से ढूढ़ती रही हूँ। कहाँ है ?कैसी है? उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। कितने सवाल हैं मेरे ज़हन में। । फेसबुक प्रोफाइल बनने के पहले दिन से ले कर आज तक उसे अलग-अलग सरनेम के साथ कितनी बार ढ़ूढ़ चुकी हूँ।   मॉल में एस्केलेटर से नीचे उतरता सायास मुझे वह पहचाना चेहरा दिखा।जिसकी तलाश में मेरी आँखे रहती हैं। हॉल में उस भरी देहवाली स्त्री को देखते ही मैं चहकी। मैंने अपने आपसे कहा- हाँ- हाँ वही है मेरी बचपन की सहेली लावण्या।मैंने एस्केलेटर पर से  ही आवाज लगाई लावण्या आ आ…….। वह  सुंदर गोलाकार चेहरा आगे ही बढ़ता जा रहा था। मेरा मन आशंकित हो उठा कहीं वह भीड़ में गुम न हो जाये।   इसबार  मैंने जोर से आवाज लगाई लावण्या..आ आ…   कई चेहरे एकसाथ मुड़ कर मुझे देखने लगे।मैंने किसी की परवाह नहीं की। बस लावण्या गुम न हो जाये।इसलिए आशंकित हो रही थी।   लावण्या ने मुड़ कर देख लिया। उसकी आँखों में भी पहचान की खुशी झलक उठी थी।मेरा दिल जोरो से धक -धक कर रहा है।मेरी अभिन्न सखी लावण्या। उसकी चिरपरिचित मुस्कान ने मुझे आशवस्त कर दिया।   हाँ वही है। मैं किसी अजनबी का पीछा नहीं कर रही थी। मेरा अनुमान सही निकला। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।आखिर मैंने उसे ढ़ूढ निकाला।   आज मेरी आँखों के सामने वह साक्षात खड़ी है।वही हँसता -मुस्कुराता चेहरा।चंचल आँखों में थोड़ी स्थिरता आ गई है। कोमल सुडौल शरीर में चर्बी यहाँ-वहाँ झांकने लगी है।पर वही है। मेरी प्यारी सखी लवण्या  ।   मैं तेजी से सामने आकर लगभग उसे अपने अंक में भिंच ही लिया।कुछ देर के लिए भूल गई कि मॉल के अंदर भीड़-भाड़ के बीच में हूँ। मैं भावूक हुई जा रही हूँ।   “कहाँ थी यार? कितना तुम्हें याद किया। कितना तुम्हें ढ़ूढ़ा।अब भी तू वैसी ही सुंदर है। बस थोड़ी मोटी हो गई है।क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई। तू तो लगता है भुल ही गई थी मुझे।देख मैं तो तुझे देखते ही पहचान लिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।“   लावण्या हल्की स्मित लिए खड़ी रही। वह मेरी हर सवाल पर एक मुस्कान दे रही है।लोग आते-जाते हमें देख रहे हैं।लोगो का क्या है। कुछ देर गिले शिकवे कहने के बाद मैं थोड़ी शांत हो गई।मैंने महसूस किया लावण्या मुझे देखकर उतनी भावूक नहीं हुई।जितनी मैं उसके लिए अभी महसूस कर रही हूँ। या फिर सार्वजनिक स्थान होने के कारण उसने अपनी भावूकता को दबा लिया।आखिरकार एक अभिनेत्री जो ठहरी।   मुझे कुछ सोचता देख उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। मुझे थोड़ा सुकून मिला। चलो एकतरफा लगाव तो नहीं रह गया।   फिर  लावण्या ने अपने साथ खड़े  पुरुष से परिचय करवाया।   “रमोना! ये मेरे मेरे पति विनीत ।   विनीत ये मेरी सहेली  है। हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ थे।“   फिर से मुझे उसकी आवाज में एक ठंढेपन की तासिर नजर आई। मैंने अपने दिमाग को झटक कर। आँखे पूरी खोल दी।   विनीत। मैंने मन में इस नाम को दोहराया।वे एक मध्यम कद, मध्यम आयु के मोटे थोड़े थुलथुल से व्यक्ति हैं। पहली नजर में वे लावण्या से उन्नीस क्या सत्तरह ही नजर आये।फैब इंडिया का कुर्ता-पायजामा । गले में सोने का चेन और ऊंगलियों में हीरे और माणिक जड़ी अँगुठियाँ।एक हाथ में महँगा लैटेस्ट आई फोन।बायें हाथ की कलाई में रैडो की घड़ी। अमीरी की एक विशेष चमक उनके बॉडी लैंगवेज में झलक रही है।   “नमस्ते।“ “नमस्ते। आईये कभी हमारे गरीबखाने पर।“ विनीत ने अपनी अँगुठियों भरे दोनों हथेलियों को जोड़कर कहा। “आप दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। और एक ही शहर में । कमाल का इत्तिफाक है।ऐसी मुलाकात तो नसीबवालों की ही होती है।“ जी । मेरी आँखों में हजारों प्रश्न चिन्ह एक साथ कौंध गए।लावण्या समझ गई।उसने अपना मोबाइल नम्बर दिया।साथ में अपने घर आने का आमंत्रण भी।   मेरी बेचैनी अपने चरम पर है ।मैं घर पहुँच अपने सारे काम निपटा कर लावण्या से बात करना चाहती हूँ। पंद्रह वर्षों की सारी बातें एक दिन में ही कर लेना चाहती हूँ। अपने मन में घुमड़ते प्रश्नों का हल भी चाहती थी। मन बार-बार अतीत में लौट रहा था ।लावण्या से पहले मेरी शादी हो गई थी ।मेरी शादी के बाद  पापा का भी ट्रांसफर हो गया। जिसके कारण मेरा  उस शहर उससे जुड़े लोग भी छूट गये । शादी के बाद  लड़कियों की जिंदगी ही बदल जाती है।यहाँ तो मेरा  मायका का शहर भी बदल गया था। घर –गृहस्थी में ऐसी उलझी की सहेलियों की याद आती मगर उनसे जुड़ने का माध्यम न मिलता। आज पता चला हमदोंनो सहेलियाँ तो कई वर्षों से एक ही शहर में रह रही हैं । 2   लावण्या का मतलब जिंदगी लाइव।जिंदगी के हर रंग उसके व्यक्तिव में समाया था।वह हर वक्त किसी न किसी रंग में रमी रहती।लवण्या का मतलब लाइफ फुल ऑफ पार्टी। स्कूल-कॉलेज का हर फंक्शन उसके बिना फीका लगता।खेल , नृत्य, नाटक, पाक-कला , सिलाई-बुनाई, बागबानी, साहित्य-इतिहास, बॉटनी जुआल्जी सभी में बराबर दखल रखती।वह हर काम में आगे रहती। किसी से न डरती और हमें भी मोटीवेट करती रहती।उसका दिमाग और पैर कभी शांत नहीं रहते।हमेशा कुछ न कुछ योजना बनाते रहती। फिर उसे पूरा करने में जुट जाती। हमें भी ना ना कहते शामिल कर ही लेती।   लावण्या  हमारी  नायिका जो थी।जिस बात को करने के लिए हम लाख बार सोचते, डरते। वह बेझिझक कर आती।हो भी क्यों … Read more