प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव

प्रज्ञा की कहानी पटरी की समीक्षा

कुछ कहानियाँ अपने कलेवर में इतनी बड़ी होती हैं जिन पर विस्तार से चर्चा होना जरूरी हो जाता है l कई बार कहानी संग्रह की समीक्षा में उनके साथ न्याय  नहीं हो पाता इसलिए किसी एक कहानी की विस्तार से चर्चा हेतु अटूट बंधन में समय समय पर कहानी समीक्षा का प्रकाशन होता रहा है l इसी कड़ी में आज सुपरिचित साहित्यकार प्रज्ञा जी की कहानी पटरी पर बात करेंगे l ये कहानी बाल मनोविज्ञान को साधते हुए अपने कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने का आदर्श प्रस्तुत करती है l प्रज्ञा जी की कहानी पटरी- कर्म के प्रति सम्मान और स्वाभिमान का हो भाव   “कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं होता” “हर काम को बराबर की नजर से देखना चाहिए” अपना स्वाभिमान बेचने या किसी के आगे हाथ फैलाने से बेहतर है अपना काम करना” काम को ले कर कहे गए कितने सूत्र वाक्यों के दिमाग में कौंधने  के दौरान ये प्रश्न भी बराबर दिमाग में चलता रहा कि क्या वाकई ऐसा होता है ? समाज ऐसा सोचने देता है ? क्या समाज उस दोषी के कटघरे में नहीं खड़ा है जहाँ हम लोगों को उनके काम के आधार पर उनकी औकात जैसे शब्दों से नवाजते हैं l इससे किसी के मनोविज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? खासकर बाल मनोविज्ञान पर l इस सारे चिंतन का कारण था  प्रज्ञा जी किस्सा पत्रिका में प्रकाशित कहानी “पटरी l   अभी हाल में अटूट बंधन में प्रकाशित दीपक शर्मा जी की कहानी सिर माथे भी  …तथाकथित औकात के तिलिस्म में फंसे दांव पेंच में उलझे मन के जुगाड़ू  प्रयोजन और मासूम मन की कुलबुलाहट एक ही बिन्दु के दो विस्तार हैं l एक कहानी विद्रुप सच्चाई पर पड़े परदे को हटाती है तो दूसरी मन की ग्रंथियों में जा कर उसे समझने और खोलने का प्रयास करती है l   रात के अंधेरे को चीरने के लिए सूरज की एक किरण ही काफी है l और अगर ये समाज का दमित शोषित वर्ग हो तो .. तो ये किरण उगते सूरज का संदेश बन जाती है l अगर ये बात प्रज्ञा जी की कहानियों के लिए कही जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी l “बुरा आदमी” इस संदर्भ में खास तौर से मेरे मन के पन्नों पर दर्ज है l जैसे की पिता पुत्र पर आधारित उन्हीं की कहानी “उलझी यादों के रेशम” जो बुजुर्गों की उपेक्षा को दर्शाती है l तो ‘परवाज’  कहानी पिता के दोस्ताना व्यवहार की बात करती है l लेकिन “पटरी कहानी उनसे अलहदा है, जो एक मासूम बच्चे और उसके पिता की कहानी है l जिसकी नज़रों में अचानक से उसके पिता नायक से खलनायक बन जाते हैं l इसका कारण है उसके दोस्तों द्वरा उसके पिता की औकात की बात करना lबच्चे  उसे “कचौड़ी के” कह कर  चिढ़ाते हैं l अपना काम करने का पिता का स्वाभिमान उसकी क्लास में उस समय दम तोड़ता हुआ लगता है जब बच्चे को सुनने को मिलता है … “उल्टी छोड़ी, सीधी छोड़ी, तेरे बाप की…गरम कचौड़ी”   और बाल मन में प्रश्न अकुलाने लगते हैं ? लोग डॉक्टर, इंजिनीयर बनते हैं l अच्छी-अच्छी दुकाने भी चलाते हैं…फिर उसके पिता ने यही काम क्यों चुना ? बड़ी दुकान  में काम करते तब भी बात अलग होती पर पिता तो विवाद होने पर अपना स्वाभिमान बचाने के लिए काम छोड़कर  हनुमान मंदिर के पीछे वाली गली की पटरी पर बैठ कर कचौड़ी तलने लगे l तभी दोस्तों ने देख लिया l   बाल मनोविज्ञान के साथ आगे बढ़ती कहानी बच्चों के साथ झगड़े-मारपीट, खाना छोड़कर पिता को दवाब में लेने और पढ़ाई में पिछड़ने तक पहुँचती l और पिता ? क्या बीतती होगी उस पिता के दिल पर जब उसे महसूस होता ही कि उसका स्वाभिमान, वो धन जिससे वो अपने बच्चों और परिवार की जरूरतें पूरी कर रहा है  उसके बच्चे की नज़रों में अपमान है l क्या होता है  उस पर इसका असर ? एक पिता अपने अपमान की हीनता  बोध से बाहर आकर पुत्र की उंगली थाम कर उसे स्वाभिमान और हुनर कि सच्चाई से रूबरू कराता है l उसे साथ ले जाता है और अपने काम में हाथ बँटवाता है l बेमन से ही सही बीटा सहयोग करता है  और एक दिन उसके स्कूल में पिता के आने पर चिप जाने वाले बेटे के मन में उनके काम की भूरि-भूरि प्रशंसा सुन कर उनके प्रति सम्मान जागता है l   प्रज्ञा जी की कलम समस्या उठा कर उसे छोड़ नहीं देती बल्कि समाधान तक ले जाती है l इस कहानी  में भी अपमान के भाव में डूबते  उतराते पिता का संबल बन कर उभरती हैं माँ और कुछ हद तक स्कूल के प्रिंसिपल भी l जिसे मैं प्रज्ञा जी की कहानियों में हमेशा देखती हूँ l एक बुरी दुनिया के साथ एक अच्छी दुनिया भी उनकी नजर में है .. जहाँ बिगड़ती बातें बन जाती हैं l उनकी कहानियाँ जीवन का स्याह पक्ष दिखा कर सूर्य की उजास भी दिखाती है l ये दुनिया इन्हीं अच्छे लोगों के दम पर चलती है l आज ऐसी ही कहानियों की जरूरत है जो मात्र न्यूज रिपोर्टिंग ही बनाकर ना रह जाएँ बल्कि समाज को दिसँ भी दिखाएँ l   पिता -पुत्र के रिश्तों को आधार बना कर लिखी गई ये कहानी उन तमाम प्रश्नों का उत्तर है जो मैंने शुरू में उठाए, ये स्वाभिमान की कहानी है, और  प्रतिभा और हुनर की स्थापना की कहानी है जो “औकात” के इस जुमले से कहीं ऊपर है या जिसे अंगुलियाँ जला कर सीखना पड़ता है …पैसे के दम पर नहीं l अच्छी कहानी के लिए बधाई प्रज्ञा जी समीक्षा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  आपको लेख “प्रज्ञा जी की कहानी पटरी की समीक्षा” कैसा लगा अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन के लेख पसंद आते हैं तो साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को फॉलो करें l 

दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी सिर माथे

दीपक शर्मा की कहानी-सिर माथे” पढ़कर मुझे लगा कि  तथाकथित गेट टुगेदर में एक  साथ मौज-मजा, खाना-पीना, डिनर-शिनर के बीच असली खेल होता है कॉन्टेक्ट या संपर्क बढ़ाने का l बढ़े हुए कॉन्टेक्ट मतलब विभाग में ज्यादा सफलता l कॉन्टेक्ट से मिली सफलता का ये फार्मूला रसोई में पुड़ियों  के साथ छन कर आता है तो कभी मोरपंखी साड़ी और लिपस्टिक कि मुस्कुराहट में छिपी बीमार पत्नी के अभिनय में l लाचारी बस अभिनय की एक दीवार टूट भी जाए तो तमाम दीवारे यथावत तनी हैं,जहाँ  अस्पताल में भी नाम पुकारने,हाथ बढ़ाने और हालचाल पूछने में भी वरिष्ठता क्रम की चिंता है l लजीज खाने की चिंता बीमार से कहीं ज्यादा है, और खुद को किसी बड़े के करीब दिखा देने की ललक उन सब पर भारी है l अस्पताल सड़क घर यहाँ  तक डाइनिंग टेबल पर भी गोटियाँ सज जाती है l हालांकि कहानी एक खास महकमे की बात करती है  पर वो कहानी ही क्या व्यक्ति में समष्टि ना समेट ले, खासतौर से वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कलम से, जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने का माद्दा रखती हैं l  शुरुआत में कहीं भीष्म सहानी की कहानी “चीफ की दावत” की याद दिलाती इस कहानी में आगे बढ़ते हुए गौर से देखेंगे तो इसमें शतरंज के खेल का ये बोर्ड काले-सफेद गत्ते के टुकड़े तक नहीं रहता, हर विभाग, हर शहर, हर सफलता इसमें शामिल है l इसमें शामिल हैं  सब कहीं चाले चलते हुए तो कहीं प्यादा बन पिटते हुए l साधारण सी दिखने वाली इस कहानी के की ऐंगल देखे जा सकते हैं l जिसे पाठक खुद ही खोजें तो बेहतर होगा l बड़ी ही बारीकी से रुपक के माध्यम से  एक बड़ी बात कहती कहानी… दीपक शर्मा की कहानी -सिर माथे   ’’कोई है?’’ रोज की तरह घर में दाखिल होते ही मैं टोह लेता हूँ। ’’हुजूर!’’ पहला फॉलोअर मेरे सोफे की तीनों गद्दियों को मेरे बैठने वाले कोने में सहलाता है। ’’हुजूर!’’ दूसरा दोपहर की अखबारों को उस सोफे की बगल वाली तिपाई पर ला टिकाता है। ’’हुजूर!’’ तीसरा मेरे सोफे पर बैठते ही मेरे जूतों के फीते आ खोलता है। ’’हुजूर!’’ चौथा अपने हाथ में पकड़ी ट्रे का पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ाता है। ’’मेम साहब कहाँ हैं?’’ शाम की कवायद की एक अहम कड़ी गायब है। मेरे दफ्तर से लौटते ही मेरी सरकारी रिवॉल्वर को मेरी आलमारी के सेफ में सँभालने का जिम्मा मेरी पत्नी का रहता है। और उसे सँभाल लेने के एकदम बाद मेरी चाय बनाने का। मैं एक खास पत्ती की चाय पीता हूँ। वेल ब्रू…ड। शक्कर और दूध के बिना। ’’उन्हें आज बुखार है,’’ चारों फॉलोअर एक साथ बोल पड़ते हैं। ’’उन्हें इधर बुलाओ….देखें!’’ पत्नी का दवा दरमन मेरे हाथ में रहता है। मुझसे पूछे बिना कोई भी दवा लेने की उसे सख्त मनाही है। सिलवटी, बेतरतीब सलवार-सूट में पत्नी तत्काल लॉबी में चली आती है। थर्मामीटर के साथ। ’’दोपहर में 102 डिग्री था, लेकिन अभी कुछ देर पहले देखा तो 104 डिग्री छू रहा  था….’’ ’’देखें,’’ पत्नी के हाथ से थर्मामीटर पकड़कर मैं पटकता हूँ, ’’तुम इसे फिर से  लगाओ…’’ पत्नी थर्मामीटर अपने मुँह में रख लेती है। ’’बुखार ने भी आने का बहुत गलत दिन चुना। बुखार नहीं जानता आज यहाँ तीन-तीन आई0जी0 सपत्नीक डिनर पर आ रहे हैं?’’ मैं झुँझलाता हूँ। मेरे विभाग के आई0जी0 की पत्नी अपनी तीन लड़कियों की पढ़ाई का हवाला देकर उधर देहली में अपने निजी फ्लैट में रहती है और जब भी इधर आती है, मैं उन दोनों को एक बार जरूर अपने घर पर बुलाता हूँ। उनके दो बैचमेट्स के साथ। जो किसी भी तबादले के अंतर्गत मेरे अगले बॉस बन सकते हैं। आई0पी0एस0 के तहत आजकल मैं डी0आई0जी0 के पद पर तैनात हूँ। ’’देखें,’’ पत्नी से पहले थर्मामीटर की रीडिंग मैं देखना चाहता हूँ। ’’लीजिए….’’ थर्मामीटर का पारा 105 तक पहुँच आया है। ’’तुम अपने कमरे में चलो,’’ मैं पत्नी से कहता हूँ, ’’अभी तुम्हें डॉ0 प्रसाद से पूछकर दवा देता हूँ….’’ डॉ0 प्रसाद यहाँ के मेडिकल कॉलेज में मेडिसिन के लेक्चरर हैं और हमारी तंदुरूस्ती के रखवाल दूत। दवा के डिब्बे से मैं उनके कथनानुसार पत्नी को पहले स्टेमेटिल देता हूँ, फिर क्रोसिन, पत्नी को आने वाली कै रोकने के लिए। हर दवा निगलते ही उसे कै के जरिए पत्नी को बाहर उगलने की जल्दी रहा करती है। ’’मैं आज उधर ड्राइंगरूम में नहीं जाऊँगी। उधर ए0सी0 चलेगा और मेरा बुखार बेकाबू हो जाएगा,’’ पत्नी बिस्तर पर लेटते ही अपनी राजस्थानी रजाई ओढ़ लेती है, ’’मुझे बहुत ठंड लग रही है…’’ ’’ये गोलियाँ बहुत जल्दी तुम्हारा बुखार नीचे ले आएँगी,’’ मैं कहता हूँ, ’’उन लोगों के आने में अभी पूरे तीन घंटे बाकी हैं….’’   मेरा अनुमान सही निकला है। साढ़े आठ और नौ के बीच जब तक हमारे मेहमान पधारते हैं, पत्नी अपनी तेपची कशीदाकारी वाली धानी वायल के साथ पन्ने का सेट पहन चुकी है। अपने चेहरी पर भी पूरे मेकअप का चौखटा चढ़ा चुकी है। अपने परफ्यूम समेत। उसके परिधान से मेल खिलाने के उद्देश्य से अपने लिए मैंने हलकी भूरी ब्रैंडिड पतलून के साथ दो जेब वाली अपनी धानी कमीज चुनी है। ताजा हजामत और अपने सर्वोत्तम आफ्टर सेव के साथ मैं भी मेहमानों के सामने पेश होने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका हूँ। पधारने वालों में अग्निहोत्री दंपती ने पहल की है। ’’स्पलैंडिड एवं फ्रैश एज एवर सर, मैम,’’ (हमेशा की तरह भव्य और नूतन) मैं उनका स्वागत करता हूँ और एक फॉलोअर को अपनी पत्नी की दिशा में दौड़ा देता हूँ, ड्राइंगरूम लिवाने हेतु। इन दिनों अग्निहोत्री मेरे विभाग में मेरा बॉस है। छोनों ही खूब सजे हैं। अपने साथ अपनी-अपनी कीमती सुगंधशाला लिए। अग्निहोत्री ने गहरी नीली धारियों वाली गहरी सलेटी कमीज के साथ गहरी नीली पतलून पहन रखी है और उसकी पत्नी जरदोजी वाली अपनी गाजरी शिफान के साथ अपने कीमती हीरों के भंडार का प्रदर्शन करती मालूम देती है। उसके कर्णफूल और गले की माला से लेकर उसके हाथ की अँगूठी, चूड़ियाँ और घड़ी तक हीरे लिए हैं। वशिष्ठ दंपती कुछ देर बाद मिश्र दंपती की संगति में प्रवेश लेता है। वशिष्ठ और उसकी पत्नी को हम लोग सरकारी पार्टियों … Read 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बहुत बुरी हो माँ

बहुत बुरी हो मां

“बहुत बुरी हो मां” कौन सी माँ होगी जो अपने बच्चे के मुँह से ये शब्द सुनना चाहेगी | हर माँ अपने बच्चे की नजर में दुनिया कि सबसे बेहतर माँ बनना चाहती है | पर अच्छी माँ के दवाब में उससे भी कहीं ना  कहीं कुछ कमी रह जाती है या रह सकती है, तो क्या उसे बुरा कह दिया जाए ? या बुरी माँ की कोई अलग परिभाषा है ? क्या नरम दिल माँ ही अच्छी है ? क्या बच्चों के हित के लिए थोड़ा कठोर हो जाना, बुरा होने का पर्याय है | क्या माँ भी एक इंसान नहीं है, जिसके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते ? अपने देखे सुने इतिहास का भय हो सकता है ? ये कहानी ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझती है | और इन प्रश्नों का उत्तर भी देती है | कहीं नया कहीं ये कहानी  कहती है कि  माँ बनना केवल नौ महीने का उतरदायित्व नहीं है ये पूरे 21 साल का प्रोजेक्ट है .. और कभी कभी उससे भी ज्यादा | वो अच्छी है या बुरी, ये बच्चों का भविष्य तय करता है | आइए पढ़ें एक माँ को अपने बच्चों के  प्रश्नों  के कटघरे में खड़ा करती डॉ . पूनम गुज़रानी की कहानी बहुत बुरी हो माँ  कितनी अजीब है दुनिया…. निरन्तर चलती रहती है…. अपने-अपने क्रम से…. दिन आता है, ढल जाता है, रात आती है, चली जाती है…. पूरी प्रकृति चलती रहती है बिना विश्राम के….कोई नहीं रुकता किसी के लिए….पर मानव हरदम रुक-रुक कर चलता है… अतीत कभी उसका पीछा नहीं छोङ़ता और भविष्य के खुशहाल, मघुर सपने देखने से वो बाज नहीं आता। जानता है सपने पूरे नहीं होते फिर भी देखता है दिवास्वप्न….ये भ्रम कि आने वाला कल अच्छा होगा उसकी आज की कङ़वाहट कम नहीं कर पाते पर च्यूंगम पर लगी मिठास के तरह दो पल ही सही मुँह  के कसैलेपन को चांद को रोटी बताकर बहलाने वाली मां की तरह बहला फुसलाकर आगे की जिंदगी जीने के लिए तैयार तो कर ही देती हैं। हर सुख के साथ दुख बिना बुलाए चला आता है  और दुख के बाद सुख की प्रतिक्षा जीने की जिजीविषा जागाए रखती है। वक्त आगे बढ़ता रहता है, घङ़ी की सूई घूमती रहती है…. पर कभी-कभी गाज गिराने के लिए वक्त की सुई  पीछे भी घूम जाती है। रत्ना ‌के वक्त की  सूई आज पीछे की ओर घूम गई…जब बरसों बाद फिर से उसे सुनने को मिला वही डायलाग…. “तुम बहुत बुरी हो मां….”। कितना कुछ उधङ गया इस एक वाक्य की कैंची से…. उसकी तमाम मजबूत सिलाई धङ़धङ़ाकर निकल गई और रंगीन कवर के नीचे से झांकने लगी पेबंद लगी जिंदगी….। अतीत के झरोखे से जब  झांकने लगी रत्ना… तो लगा कि उसका पूरा बचपन बहुत शानदार था। खुशकिस्मत थी रत्ना….प्रतापगढ़ राजधराने में जन्मी थी। रियासत अब नहीं थी पर रहन-सहन में ताम-झाम,शाही शानौ-शोकत आज भी कायम थी, महल नहीं था पर उसकी हवेली भी महल से कम नहीं थी,अदब वाले नौकर-चाकर भी हर समय अपनी हाजरी देने के लिए तत्पर रहते थे, उसकी कोई भी फरमाइश और ख्वाहिश हर हाल में पूरी की जाती थी। भाई वीरसेन और रत्ना हमेशा फूलों की बिस्तर पर सोये, सोने-चांदी की थाली में भोजन किया, बिन मांगे इतना कुछ मिला था कि मांगने की जरूरत ही नहीं पङ़ी। स्कूल-कॉलेज की गलियों में उछलते-कूदते, किताबों और नोट्स का आदान-प्रदान करते, एनवल फंक्शन के नाटकों में अपना किरदार निभाते, कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के बीच सोमेश के साथ कब इश्क परवान चढ़ा पता ही नहीं चला। कितना विरोध सहन किया….. कितनी बंदिशों का सामना किया….. लगभग चार साल मनाती रही बापूसा को….. बहुत उकसाया सहेलियों ने भागकर शादी करने के लिए पर न वो राजी थी न सोमेश….. शादी जब भी होगी बङ़ो के आशीर्वाद के साथ होगी, यही ख्वाहिश थी दोनों की….. । जब बापूसा राजी हुए तभी हुई उन दोनों की शादी। बस खालिस एक साङ़ी में लिवा लाए थे स्वाभिमानी सामेश उसे। बापूसा बहुत कुछ देना चाहते थे पर सोमेश ने इंकार कर‌ दिया। रत्ना राजमहल से निकलकर साधारण से परिवार की बहू बन गई। वो खुश थी। सुदर्शन कद काठी, ऊंचे सपने, सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श सहेजे, शांति प्रिय युवक था उसका जीवनसाथी सोमेश। उसे गर्व था अपने निर्णय पर।सोमेश पढ़ने में बहुत अच्छा था और दूसरों को पढ़ाने में भी,  उसने टीचर की जॉब कर ली। शुरुआत में जीवनयापन की भी बहुत समस्याएं आई।पाई- पाई को दांत से पकड़ कर रखना रत्ना के वश की बात नहीं थी। कभी-कभी उसे थोङ़े से खर्च के लिए कई महीनों का इंतजार करना पङ़ता … महंगी साङ़ियां और ज्वेलरी सपना बनकर रह गई थी….  छोटी-छोटी बातों पर रत्ना के यहां आये दिन पार्टी का आयोजन होता था पर अब रत्ना को जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर भी सिर्फ मंदिर जाकर संतोष करना पङ़ता….. । कभी-कभी झुंझला जाती वो….अपनी झुंझलाहट में सोमेश की साधारण नौकरी पर तीखे व्यंग्य करने से भी बाज नहीं आती…. उसे गुस्सा आता सोमेश पर…. क्यों दहेज नहीं लिया…. अगर लिया होता तो  सुख- सुविधाओं से युक्त शानदार घर से लेकर महंगी ज्वैलरी तक सब कुछ होता उसके पास…. पर सोमेश का शांत-संतुलित  व्यवहार उसकी हर नादानी को मुस्कराहट की हवा में उड़ा देने  की कला जानता था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सोमेश के प्रेम ने हर रिक्तता को भर दिया। वो खुद भी सोमेश के रंग में रंगती चली गई। जब प्रेम सर चढ़कर बोलता है तो कमियां ही खूबियां बन जाती है।अब जरुरतें इतनी ही थी जितनी पूरी हो जाती। आगे चलकर सोमेश कॉलेज के प्रोफेसर हो गया। बहुत शानौ-शौकत न  सही पर  बंधी हुई आमदनी जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए प्रर्याप्त थी।अब दो बच्चों की मां रत्ना का पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर था। रत्ना ने बचपन से लेकर जवानी तक जाने कितने बच्चों को ग़लत संगत में पङ़ते देखा था, कितने बच्चों को आवारा होकर उजङ़ते देखा था, जाने कितनी बार पढ़ा, कितनी बार सुना की बच्चे सही परवरिश के अभाव में शराब-सिगरेट पीने लगते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। उसके भाई वीरसेन को भी तो नशे की ऐसी लत लगी कि … Read more

डॉ. रंजना जायसवाल की कहानी डिनर सेट

डिनर सेट

  डॉ. रंजना जायसवाल जी की कहानी डिनर सेट आम परिवार की आम घटनाओं में आने वाले भविष्य का संकेत देती है | वैसे भी बड़ी जगहों पर तो ज्यादातर लोग अभिनय कर लेते हैं पर कई बार छोटी-चोटी चीजें हमारी सोच की पोल खोल देती हैं | जैसे नायिका निर्मला का ये कहना की, ““अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” आम मध्यम वर्गीय गृहणी की एक-एक रुपये बचाने कि जुगत को खोल देता है | अब ये   डिनर सेट .. किस ओर इशारा कर रहा है | और निर्मला किस खूबसूरती से उसे निर्मूल करने की परिवार को बांधे रखने वाली स्त्री कि तरह प्रयास कर रही है ?  आइए पढे  डॉ. रंजना जायसवालजी की कहानी    डिनर सेट   मेहमान सब चले गए थे,घर समेटते-समेटते हाथ दुखने लगे थे। पारुल को इस घर में आये चार ही दिन तो हुए थे,नई-नवेली दुल्हन से कुछ काम कहते बनता भी नहीं था।तभी सक्सेना जी ने आवाज लगाई।  “निर्मला! काम होता रहेगा,लगे हाथ शादी में आये उपहारों को भी देख लो।कल हमें भी तो देना होगा।” ये काम निर्मला को सबसे ज्यादा खराब लगता था।सक्सेना जी को बातों का पोस्टमार्टम करने में बड़ी मजा आता था।अरे भाई किसी से उपहार लेने के लिए थोड़ी आमंत्रित करते हैं।आदमी की अपनी श्रद्धा और सोच जैसा चाहे वैसा दे।कोई रिश्तेदार या जान-पहचान वाला सस्ता उपहार दे दे तो सक्सेना जी हत्थे से उखड़ जाते। “ऐसे कैसे दे दिया कम से कम हमारी हैसियत तो देखनी चाहिए थी।लोग एक बार भी सोचते नहीं कि किसके घर दे रहे हैं।” और अगर कोई अच्छा उपहार दे दे तो…? “इसमें कौन सी बड़ी बात है भगवान ने दिया है तो दे रहे हैं।” निर्मला कहती, “हमें भी तो उन्हें देना पड़ेगा सिर्फ लेना ही तो संभव नहीं है।” “हमारा उनसे क्या मुकाबला वह चाहे तो इससे भी अच्छा दे सकते थे खैर…” सक्सेना जी ने अपने बेटे आयुष और बहू पारुल को आवाज लगाई। “आयुष!मम्मी का लाल वाला पर्स अलमारी से निकाल लाओ और वहीं बगल में गिफ्ट्स भी रखे हैं। पारुल बेटा ये डायरी और पेन पकड़ो और लिखती जाओ।” “जी पापा!” “आप भी न हर बात की जल्दी रहती है आपको…घर में इतने सारे काम पड़े हैं।अरे हो जाता ऐसी भी क्या जल्दी है।” निर्मला ने बड़बड़ाते हुए कहा, रंग-बिरंगों कागजों में लिपटे उपहार कितने खूबसूरत लग रहे थे।ये उपहार भी कितनी गजब की चीज़ हैं, कुछ के लिए भावनाओं के उदगार को दिखाने का माध्यम बनते हैं तो कुछ के लिए सिर्फ औपचारिकता…पुष्प गुच्छ उसे कभी समझ नहीं आते थे।कभी-कभी लगता सामान देने का मन नहीं, लिफाफा बजट से ऊपर जा रहा तो इसे ही देकर टरका दो। खुशियों की तरह इनकी जिंदगी भी आखिर कितनी होती है। “अरे ध्यान से उपहार खोलो,पैकिंग पेपर कितना सुंदर है।गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूँगी सब सीधे हो जाएंगे।किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।” निर्मला ने हाँक लगाई, “क्या मम्मी तुम भी न यहाँ लाखों रुपये शादी में ख़र्च हो गए और तुम वही दस-बीस रुपये बचाने की बात करती हो।” नई-नवेली पारुल के सामने आयुष का यूँ झिड़कना निर्मला को रास नहीं आया पर क्या कहती…हम गृहणियाँ इन छोटी-छोटी बचतों से ही खुश हो जाती हैं। उनकी इस खुशी का अंदाजा पुरुष नहीं लगा सकते। लाखों के गहने खरीदने में उन्हें उतनी खुशी नहीं होती जितनी उसके साथ मिलने वाली मखमली डिबिया, जूट बैग या फिर कैलेंडर के मिलने पर होती है। चार सौ रुपये की सब्जी के साथ दस रुपये की धनिया मुफ्त पाने के लिए वे दो किलोमीटर दूर सब्जी बेचने वाले के पास जाने में भी वे गुरेज नहीं करती। दाँत साफ करने से शुरू होकर ,कुकर के रबड़ साफ करने तक  वे एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करती हैं।उनकी यह यात्रा यहाँ पर भी समाप्त नहीं होती,ब्रश के एक भी बाल न बचने की स्थिति में वो पेटीकोट और पायजामें में नाड़ा डालने में उसका सदुपयोग करती हैं। ये आजकल के बच्चे क्या जानेंगे कि एक औरत किस-किस तरह से जुगाड़कर गृहस्थी को चलाती है। नींबू की आखिरी बूंद तक निचोड़ने के बाद भी उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती और वो नींबू के मरे हुए शरीर को भी तवे और कढ़ाही साफ करने में प्रयोग में लाती हैं। निर्मला चुप थी नई-नवेली बहू के सामने कहती भी तो क्या…? तभी निर्मला की नजर पारूल पर पड़ी,वो न जाने कब रसोईघर से चाकू ले आई थी और सर झुकाए अपने मेंहदी लगे हुए हाथों से सावधानी से धीरे-धीरे सेलोटेप को काट रही रही थी।बगल में ही उपहारों में चढ़े रंगीन कागज तह लगे हुए रखे हुए थे।पारुल की निगाह निर्मला से टकरा गई,निर्मला की आँखों मे चमक आ गई।दिल में एक भरोसा जाग गया,उसकी गृहस्थी सही हाथों में जा रही है।उसे अब इस घर की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पारुल पढ़ी-लिखी लड़की है वो अच्छे से उसकी गृहस्थी सम्भाल लेगी। “ये जो इतना रायता फैला रखा पहले इसे समेटो। ऐसा है पहले ये सारे उपहार खोलकर नाम लिखवा दो,फिर लिफाफे देखना।” निर्मला ने आयुष से कहा ,किसी में बेडशीट, किसी में गुलदस्ता,किसी में पेंटिंग तो किसी में घड़ी थी।  “जरा संभालकर!शायद कुछ काँच का है।कहीं टूट न जाये।” निर्मला के अनुभवी कानों ने आवाज से ही अंदाजा लगा लिया। “माँ!देखो कितना सुंदर डिनर सेट है।” आयुष ने हुलस कर कहा,निर्मला ने डिनर सेट की प्लेट पर प्यार से हाथ फेरा। “निर्मला जरा इधर तो दिखाओ,किसने दिया है भाई बड़ा सुंदर है।” “मथुरा वाली दीदी ने दिया है, कितना सुंदर है न?” “हम्म!पर इसमे तो सिर्फ चार प्लेट और चार कटोरियाँ है। ये कौन सा फैशन है।आजकल की कंपनियों के चोंचले समझ ही नहीं आते।” “समझना क्या है ठीक तो है।माँ-बाप और बच्चे ।” “और हम?” सक्सेना जी ने दबे स्वर में कहा,सक्सेना जी का चेहरा उतर गया था,निर्मला कुछ-कुछ समझ रही थी।आखिर तीस साल  साथ बिताए थे ।निर्मला ने हमेशा की तरफ बात को संभाला, “वो भी तो वही कह रहा है, माँ-बाप और बच्चे।” सक्सेना जी ने दबे स्वर में बड़बड़ाते हुए कहा कौन से माँ-बाप और कौन से बच्चे… … Read more

स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ

स्टैपलेड पर्चियाँ

    जीवन अनगिनत समझौतों का नाम है | कुछ दोस्ती के नाम पर, कुछ प्रेम की परीक्षा में खरे उतरने के नाम पर,  कुछ घर गृहस्थी चलाने के नाम पर और कुछ घर गृहस्थी बचाने के नाम पर .. हर पर्ची एक समझौता है और  “स्टेपल्ड पर्चियाँ” उन समझौतों का पूरा दस्तावेज .. जीवन का दस्तावेज हमारा आपका सबका मन कभी ना कभी तो करता है की खोल दें उस पूरे गट्ठर को, खोल दें  पर्चियों वाली इस रवायत को और  जी के देखें जिंदगी जिसमें किसी कपड़ों की अलमारी में साड़ियों की तहों में छिपाई गई स्टेपल्ड पर्चियाँ की कोई जगह ना हो | पर क्या अतीत को बदला जा सकता  है? खासकर उस अतीत को जिसकी पर्चियों को रंग हल्के पड़ गए हैं | कब वो रंग पर्चियों से निकलर हमारे मन को इस कदर रंग देते हैं की हमें पता ही नहीं चलता की इससे इतर हमारा भी कोई रंग है ?इस संग्रह के माध्यम से उन्होंने गंभीर सवाल उठाए हैं |   “स्टेपल्ड पर्चियाँ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रगति गुप्ता जी के कहानी संग्रह की ज्यादातर कहनीनियाँ इन्हीं पर्चियों को खोलने की कोशिश है | कुछ में खुली हैं, कुछ  में फाड़कर फेंक दी गई हैं और कुछ पढ़कर वापस वैसे ही रख दी  गई है | सबकी अपनी लड़ाई है, उलझने हैं, फिर सबका अपना -अपना मन है, कन्डीशनिंग भी है | “विधोतमा सम्राट सम्मान”से सम्मानित इस पुस्तक में 11 कहानियाँ हैं जिनमें लेखिका प्रगति गुप्ता जी ने, जो की मरीजों की कॉउनसिलिंग भी करती हैं मन की कई गिरहों को खोलने का प्रयास किया है | स्टेपल्ड पर्चियाँ -समझौतों की बानगी है ये पर्चियाँ   हालांकि अपनी बात में वो लिखती हैं की “सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों का चयन करते समय मर्यादाओं को भी साधना होता है | यही वजह है की घटित पूर्णतःअन्वेषित नहीं हो पाता | तभी तो एक ही घटना पर विभिन्न दृष्टिकोणों से कई कहानियाँ व उपन्यास रचे जाते हैं |पुन: कुछ ना कुछ छूटता है और नवीन दृष्टि के साथ कुछ नया रचा जाता है |”   कहनियों में लेखिका ने ये खास  बात रखी है की स्त्री पुरुष का भेद भाव  नहीं रखा है | परंतु ज्यादातर समझौते स्त्री के हिस्से आते हैं तो वो कहानियों में परिलक्षित होते हैं, परंतु पुरुष की पीड़ा को कहने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया है |   “घर उसका, रुपया पैसा उसका पर वो अपने माता-पिता को हक से अपने घर नहीं रोक सकता | .. उस रोज अंकित को अपनी बेबसी पर बहुत अफसोस हुआ |” “तमाचा” कहानी आज की बदली हुई स्त्री और बदले हुए पुरुष के मुद्दे को सामने लाती  है | परदेश में अपने माता -पिता से दूर रहने वाला पुरुष भी क्या उतना ही असहाय नहीं है ? यहाँ विमर्श का एक दूसरा कोण  सामने आता है | पुरुष के घर में भी उसके माता-पिता के लिए जगह नहीं है | अच्छी पोस्ट, तनख्वाह,  पर शादी से पहले कैजुअल ड्रिंक कहने वाली लड़की जब पत्नी बन कर पार्टियों में नशे में धुत हो जाए, पति की सार्वजनिक निंदा करे और तमाचा भी मारे तो उसे विमर्श के किसी खांचे में नहीं रखा जा सकता | भले ही उसके पीछे उसका परिवार और पालन -पोषण रहा हो | अवगुण अगर स्त्री पुरुष नहीं देखते तो शोषण भी नहीं देखता |इस बारे में बात होनी चाहिए |  नए समाज के नए यथार्थ का दरवाजा खोलती अच्छी कहानी |     शीर्षक  कहानी “स्टेपल्ड पर्चियाँ” एक तथाकथित सुखी कहे जाने वाले परिवार के मृतप्राय संबंधों की दास्तान  है | जहाँ  पति पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर एक चुप्पा समझौता है बच्चों को अच्छी परवरिश देने के लिए | जहाँ कोई बातचीत मन मुटाव सहमति असहमति नहीं होती .. ना ही विवेचना करने के लिए कुछ “की हम कहाँ  गलत थे” जो कुछ  था वो सब बस स्वीकार करना था और भरती जानी थी अलमारी की दराजे  “स्टेपल्ड पर्चियों” से  | लेकिन एक दिन ये पर्चियाँ खुलती हैं | और समझ में आता है की दो लोगों के मध्य मौन भी दो तरह का हो सकता है |एक वो जहाँ दोनों एक दूसरे में मानसिक स्तर पर समाए हों और एक वो जहाँ सन्नाटा हो |   एक परिपक्व उम्र में जब  इंसान अपने बच्चों को दुनिया से, चालाकियों से  आगाह करता है ठीक उसी  वक्त स्वयं का स्नेहापेक्षी मन किसी के शब्दों के फरेब में फँस रहा होता है | “काश” कहानी मानसिक स्तर पर मन के बातों में आ जाने का शोकगीत है |   अभी हाल ही में डॉ. अर्चना शर्मा की आत्महत्या की दुखद घटना सामने आई है | कहानी “गलत कौन” में लेखिका यही मुद्दा उठाती हैं | जिस डॉक्टर को मौका पड़ने पर भगवान का दर्जा दिया जाता है उसके साथ मार -पिटाई करने से भी लोग बाज नहीं आते |   “अदृश्य आवाजों का विसर्जन” कोख  में मारी गई बेटियों की का सामूहिक मार्मिक  रुदन है | “सोलह दिनों का सफर” मृत्यु से पहले के तीन दिन व बाद के तेरह दिन की  आत्मा की वो यात्रा है जिसमें वो अपनों का ही स्वार्थ भरा चेहरा देख स्वयं ही उस घर से मुक्त होना चाहती है | एक तरफ बी प्रैक्टिकल, गुम  होते क्रेडिट कार्ड्स, माँ ! मैं जान गई हूँ, खिलवाड़, आम रिश्तों की उलझती सुलझती कहानियाँ हैं तो दूसरी तरफ “अनुत्तरित प्रश्न “ में एक ऐसे जोड़े का दर्द है जिनके संतान भी है पर पिता समलिंगी है | और एक दिन सारे परदों से बाहर आकर अपनी पहचान घोषित करता है | आखिर क्यों समाज हर व्यक्ति को उसकी तरह से नहीं अपनाता | जिंदगी को दाँव पर लगाने वाले ये अनुत्तरित प्रश्न पति  के भी हैं, पत्नी के भी और उस मासूम बच्ची के भी जो बार -बार जानना चाहती है की उसके पापा कहाँ हैं ?  एक अच्छी कहानी |   अंत में मैं यही कहूँगी की सारी कहानियाँ खोखले होते संबंधों की कहानियाँ हैं जो बाहर से भले ही चमकीले दिखते हों पर अंदर से दरके  हुए हैं | और प्रेम में देह  की भले ही भूमिका हो पर मन से … Read more

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

लकीर-कहानी कविता वर्मा

लकीर

कोयल के सुत कागा पाले, हित सों नेह लगाए, वे कारे नहीं भए आपने, अपने कुल को धाए ॥ ऊधो मैंने —                                             जब भी माँ की बात आती है | यशोदा और देवकी की बात आती है | परंतु जब यशोदा कृष्ण को पाल रहीं थीं तब उन्हें पता नहीं था की वो उनके पुत्र नहीं देवकी के पुत्र हैं, ना ही कृष्ण को पता था .. परंतु यह बात पता होती है तो रिश्ते में एक लकीर खिचती है | क्या पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती  माँ को सारे अधिकार मिल जाते हैं या पुत्र अधिकार  दे पाता है ? हर प्रश्न एक लकीर है जो एक सहज रिश्ते को रोकती है | कौन बनाता है ये लकीरे और क्या होता है इनका परिणाम | आइए इसी विषय पर पढ़ें सुपरिचित कथाकार कविता वर्मा की कहानी .. लकीर  जिसने भी इस खबर को सुना भौंचक रह गया। कुछ लोगों ने तो एकदम से विश्वास ही नहीं किया, तो कुछ ने विश्वास कर इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि ऐसा ही कुछ होना था, हम तो पहले से जानते थे। शुभचिंतकों ने पूछा कि अब उनका क्या हाल है, तो अति शुभचिंतकों ने कहा कि ऐसा करना ही नहीं था। पराये को अपना बना ले इतना बड़ा दिल नहीं होता किसी का।शायद उन्हें यही अफ़सोस था कि हम तो इतना बड़ा दिल कभी न कर पाते उन्होंने कैसे कर लिया? कुछ लोग ये कयास लगाते नज़र आये कि आखिर हुआ क्या होगा? कुछ सयाने यहाँ तक कहते दिखे कि बेकार में बात बिगाड़ी। जितने मुँह उतनी बातें। वैसे अब तक जो कुछ देखा सुना समझा वह इस घटना की नींव तो नहीं थी, फिर उसकी परिणिति इस तरह क्यों हुई? उस चाल से थोड़े ऊपर के स्तर की बड़ी सी बिल्डिंग में रहने वाले दस-बारह परिवार अपनी स्तरीयता को कायम रखते हुए स्वतंत्र भी थे और साथ में एक दूसरे से जुड़े हुए भी। इसलिए कभी कभी घर के राज़ साझा दीवारों से रिस कर दूसरे घर तक पहुँच जाते थे। . इसी बिल्डिंग के दो कमरों में रहता था वह परिवार या कहें पति-पत्नी। शादी के कई साल बाद भी गोद सूनी थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था। ऊपरी तौर पर तो कर ही लिया था लेकिन मन में बहती ममता की नदी को सुखा पाना कहाँ संभव होता है वह बहती थी और कभी-कभी तो तटबंध तोड़ बहती थी। यह उनका बरसों का प्रयास ही था कि वे इस उफान को थाम लेतीं और वहाँ से हट जातीं। उस नदी का प्रवाह मोड़ने के लिए खुद को किसी काम में या अपने कृष्ण कन्हैया की सेवा में व्यस्त कर देतीं। तब मन के रेगिस्तान में रह जाती एक लकीर सुगबुगाती सी। उनकी दिनचर्या बड़ी सुनियोजित थी। ठीक छह बजे उनके घर के दरवाजे खुल जाते। सात बजे घंटी की आवाज़ आती और सब अपनी घडी मिला लेते। तभी उनके बगल के तीन कमरों में वह परिवार रहने आया। पति-पत्नी और दो प्यारे से बच्चे। परिवार के वहाँ आकर रहने के कुछ ही दिनों बाद इस दिनचर्या में सिर्फ इतना अंतर आया कि घंटी की आवाज़ से पहले चिंटू के नाम की पुकार होने लगी। जिस घर में बिना स्नान किये कोई रसोई में नहीं घुस सकता था वहाँ चिंटू जी बिना नहाये पूजा की आरती में शामिल होते, ताली बजाते, आरती की लय पर झूमते और उनकी हथेली को सहारा दे कर उस पर न सिर्फ प्रसाद दिया जाता बल्कि उसके बाद उनका मुँह भी साफ किया जाता। चिंटू के आने से उनकी पूजा को एक सार्थकता मिलने लगी। उन्होंने तो जिंदगी को इसी रूप में स्वीकार कर लिया था। भगवान से जितनी मनौतियाँ मानी जा सकती थीं माँग ली गयीं थीं। भगवान उनकी आशा पूरी नहीं करेंगे इसका भी उन्हें विश्वास हो गया था। उनकी गोद न भरने के लिए भगवान से जितनी शिकायतें की जा सकती थीं कर ली गयीं थीं। और अब सारी मान-मनौतियों, शिकवे शिकायतों को भूला कर पूरे श्रध्दा भाव से सुबह की पूजा, आरती,भोग से लेकर तीज त्यौहार तक मनाये जाते थे। पता नहीं मन से शिकायतें ख़त्म हुई या नहीं लेकिन ये उनके जीवन की लय को बनाये रखने के लिए जरूरी थे और ये उसी का पुण्य प्रभाव था कि ममत्व की धारा जीवन की कठोर धूप की परवाह किये बिना भी उनके मन में प्रवाहमान थी। उस चिलचिलाती धूप में जब सभी घर बंद किये गरम हवा फेंकते पंखों के नीचे पसरे पड़े थे और किसी बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे वे घर से बाहर आ कर हर घर की आहट भाँप चुकीं थीं। उस पर भी मन न माना तो छत पर जाकर अडोस पड़ोस के हर घर आँगन में झाँक आयीं। कहीं कोई न दिखा लेकिन बच्चे के रोने चीखने की आवाज़ बदस्तूर सुनाई देती रही। उनका मन भर आया शिकायत होंठों पर आने को हुई उस माँ की बेपरवाही पर झुँझलाती सी सोने की कोशिश करती रहीं लेकिन वह आवाज़ तो उनकी ममता को ही पुकार रही थी उन्हें सोने कैसे देती? वे फिर उठ बैठीं और कुछ सतर्क सी आवाज़ का पीछा कर छत पर पहुँच गयीं। धूप की तपिश में भी वात्सल्य की नदी हरहरा रही थी सतर्क आँखें छत पर पड़े कबाड़ की टोह सी लेती लकड़ी की पेटी पर आकर रुक गयी। पास ही रजाइयों का ढेर सूख रहा था। उनकी आहट में ही प्रेम का स्पर्श पा कर वह रोने की आवाज़ बंद हो गयी। उन्होंने एक बार फिर चारों ओर देखा। नज़र फिर पेटी पर टिकी उसे बंद देख कर वे पलटीं और सीढ़ियों की ओर बढ़ गयीं। लेकिन मन को अभी भी बच्चे के रोने की आवाज़ व्यथित कर रही थी। प्रेम पूरित मन के साथ लौटते क़दमों ने अपनी सारी शक्ति कानों को दे दी और बंद पेटी के ढक्कन के धीरे से खटके को पकड़ वे फिर उस तक पहुँच गयीं। किसी और की पेटी को नहीं खोले जाने का … Read more

मैत्रेयी पुष्पा की कहानी “राय प्रवीण”

राय प्रवीण

क्या इतिहास पलट कर आता है ? “हाँ” इतिहास आता है पलटकर एक अलग रूप में अलग तरीके से पर अक्सर हम उसको पहचान नहीं पाते | यहीं पर एक साहित्यकार की गहन दृष्टि जाती है | एक ही जमीन पर दो अलग-अलग काल-खंडों में चलती कथाएँ  एकरूप हो जाती हैं | राय प्रवीण फिर आती है लौट कर, पर इस बार घुँघरुओं की तान और मृदंग की नाद की जगह होता है बाढ़ का हाहाकार | अकबर को अपने दोहे से परास्त कर देने वाली क्या परास्त कर पाई उस व्यवस्था को जो पीड़ितों को  अनाज देने के बदले माँगती भी है बहुत कुछ | पाठकों की अतिप्रिय वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा जी की  मार्मिक कहानी “राय प्रवीण” एक ऐसी ही कहानी है जो इतिहास  और वर्तमान के बीच आवाजाही करती अंततः पाठक को झकझोर देती है | आइए पढ़ते हैं एक मार्मिक सशक्त कहानी .. राय प्रवीण  गोविन्द गाइड को खोजना-ढूंढ़ना नहीं पड़ता। झांसी स्टेशन पर जब वातानुकूलित मेल-गाडि़यां रुकती हैं, या कि जब शताब्दी एक्सप्रेस आती है, वह गहरी पीली टी-शर्ट और सलेटी रंग की ढीली पैंट पहने, सिर के लंबे बालों को उंगलियों से कंघी-सी करता हुआ हाजिर मिलेगा। खास तौर पर शताब्दी आते ही उसकी देह में बिजली का-सा करंट दौड़ जाता है। बोगी नंबर 7 से एक्जीक्यूटिव क्लास तक आते-जाते भागमभाग मचाते हुए देख लो। कभी अंदर तो कभी बाहर, उतरा-चढ़ी में आतुरता से मुसाफिरों का जायजा लेता। सुनहरेे बालों वाले गोरे पर्यटकों को देखते ही उसके भीतर सुनहरा सूरज जगमगाने लगता है। अपनी बोली तुरंत बदल लेता है और जर्मन, फ्रेंच तथा इटैलियन भाषा में मुस्कराकर गर्मजोशी से अभिवादन करता है। छब्बीसवर्षीय गोविन्द की आंखों में अनोखी चमक रहती है। भले ही कद लंबा होने के कारण काठी दुबली सही। रंग तनिक सांवला, माथा ऊंचा और नाक छोटी। दांत सफेद, साफ। कुल मिलाकर पर्सनैलिटी निखारकर रहता है,धंधे की जरूरी शर्त। देशी पर्यटकों को वह तीर्थयात्री से ज्यादा कुछ नहीं मानता। वे ऐतिहासिक धरोहर को बेजायका चीज समझकर धार्मिक स्थानों की शरण में जाना पसंद करते हैं। उनके चलते गाइड को उसका मेहनताना देने की अपेक्षा महंत और पुजारियाें के चरणों में दक्षिणा चढ़ाना ज्यादा फायदे का सौदा है परलोक सुधारने का ठेका।—लेकिन गोविन्द ही कब परवाह करता है, विदेशियाें की जेब झाड़ना उसके लिए खासा आसान है। माईबाप, पालनहार, मेहनत और कला के कद्रदान विदेशी मेहमान! उसे ही क्या, सभी के प्यारे हैं विदेशी। तभी तो खजुराहो के ‘घुन गाइड’ उसका धंधा खोखला करने पर लगे रहते हैं। गोरे लोग देखे नहीं कि मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। अंग्रेज बनकर ऐसे बोलेंगे ज्यों होंठों के बीच छिरिया की लेंड़ी दबी है। फ्ओरचा कुच नहीं सर! एकदम डर्टी, बोगस। जाड़ा में भी लू-लपट। गर्मी में फायर का गोला। रेनी सीजन में मड ही मड—टूरिस्ट लोग इल हो गया था डॉक्टर भी नहीं। नो मैडीसिन—। गोविन्द के कानों में गर्म सलाखें कोंचता रहता है कोई। —लेकिन उसे पछाड़ना आसान नहीं। साथ आए अनुवादक से आंख मारकर मिलीभगत कर लेता है (पैसा सबकी कमजोरी है)। पूरी बात मुसाफिरों तक नहीं जाने देता ट्रांसलेटर। गोविन्द होंठों तक आई मां-बहन की गालियों को जज्ब कर जाता है। अनुवादक का क्या, गालियों का ही रूपांतरण कर डाले और बदले में अधिक रकम की फरमाइश धर दे। बेईमानी के अपने पैंतरे हैं, जो धंधे के हिसाब से शिकंजा कसते हैं। गोरे समूह के साथ हो लेता है गोविन्द सर, ओरछा! मैम यू हैव हर्ड अबाउट राय प्रवीण? नहीं? राजा इंद्रमणि सिंह की प्रेमिका। ए स्टोरी ऑफ ट्रू लव। खजुराहो से पहले ही—बेतवा नदी के किनारे किला और राय प्रवीण का महल। लहरों पर नाचती है आज भी वह नर्तकी। बिलीव मी। पीठ और कंधों पर भारी वजन लटकाए हुए चलते पर्यटक स्त्री-पुरुष उसकी बात पर अचानक तवज्जो देते हैं, और वह मगन मन बोलता ही चला जाता है, मुगल  पीरियड में बादशाह अकबर का दिल ले उड़ने वाली राय प्रवीण। गोविन्द यह बात अच्छी तरह जानता है कि ओरछा के मुकाबले खजुराहो की शान धरती से आसमान तक फैली हुई है। संभोगरत युगल मूर्तियों की कल्पना में उड़ती आई पर्यटकों की टोली ओरछा में क्या पाएगी? ले-देकर एक टूटा-फूटा मामूली-सा किला, सादा रूप राम राजा का मंदिर और ऋतुओं के हिसाब से भरती-सूखती बेतवा। एकदम प्रकृति का अनुचारी कस्बा। रुकने-ठहरने के नाम पर सबसे बड़ा माना जाने वाला होटल शीशमहल नाम बड़े और दर्शन थोड़े। कई बार जब टूरिस्ट उसके हाथ से फिसल जाते हैं तो वह ऐसी ही बातें सोचकर दुखी होता है। सरकार को गरियाता है और पर्यटक के देखते ही फिर चालू किले  में आज भी राय प्रवीण की बीना गूंजती है सर! जुबान  की गति के हिसाब से हाथ नचाता, लोगों से कदमताल मिलाता हुआ अपने ग्राहकों पर बातों के लच्छे फेंकता चलता है, ज्यों हारना नहीं चाहता हो खजुराहो के आधुनिक वैभव से। अपने  प्रेमी को पुकारने वाली बेचैन प्रेमिका, अप्सरा रम्भा! एकदम आपके माफिक मैम! उसने साफ झूठ बोल दिया। विदेशी लड़की गोरी तो थी मगर खासी बदशक्ल। उसने एक इटैलियन लड़की को इसी तरह बहकाया था। गोविन्द के सफेद झूठ को सच मानते हुए वह खुद को राय प्रवीण समझने लगी थी और पूरे-पूरे दिन राय प्रवीण के महल के एकांत में बैठी रहती थी। वह किले के नीचे बने ढाबों से तवे की रोटी और आलू की रसीली सब्जी लाया करता था। बोलता था राय प्रवीण यही भोजन किया करती थी। कैसे न बोलता? इस बस्ती में गोश्त-मछली कहां? अच्छा पैसा ऐंठा था उस विदेशिनी से क्योंकि वह पैसे वाली थी और गोविन्द की उन दिनों फाकामस्ती चलती थी। राय प्रवीण जवान, खूबसूरत और नाचने-गाने वाली वेश्या! विदेशी लोग भले ही खुले जीवन के आदी हों, भारतीय स्त्री की आजादी की यह शैली उनके लिए जादू की तरह दिलचस्प और अद्भुत थी। यदि ऐसा न होता तो गोविन्द के ओरछा को कौन देखता? गोविन्द बताता ये जीवित कथाएं हैं सर! किले में गूंजती हुई आवाजें आज भी सुनाई देती हैं। गोरे लोग भारी सीनों में सांस रोककर आंखें फैलाने लगते हैं, मैले दांतों से डरी हुई-सी मुस्कराहट झरती है, तब गोविन्द को लगता है कि उसने टूरिस्ट पर अपना जाल डाल दिया है। अब यह खजुराहो जाने की जल्दी में नहीं है। वह पर्यटकों के आगे-आगे चलता है छाती फुलाकर। किले को गर्व से देखता हुआ। जिस दिन वह ओरछा में पर्यटक बटोरकर खड़े कर देता है, खुद को राजा इंद्रमणि सिंह से कम नहीं समझता और यदि वह टूरिस्टों को नहीं ला पाता, राय प्रवीण … Read more

स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे

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स्वागत नई किताब का कॉलम के अंतर्गत हम आने वाली किताब का टीजर सभी मित्रों, पाठकों से साझा करते हैं | इस बार शिवानी जयपुर की आने वाले कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” का चयन किया गया है | कवयित्री, कथाकार, पत्रकार और विभिन्न कार्यक्रमों के संचालक के तौर पर अपनी पुख्ता पहचान बनाने वाली शिवानी जयपुर का  पहला कहानी संग्रह “कबीर जग में जस रहे” शीघ्र ही बोधि प्रकाशन से आने वाला है | शिवानी जी की पहली कहानी “बातशाला” अटूट बंधन हार्ड कॉपी मैगजीन में प्रकाशित हुई थी | ये पहली कहानी ही काफी चर्चित रही थी | तबसे निरंतर अपनी पैनी लेखनी  के माध्यम से वो सार्थक साहित्य का सृजन कर रही हैं  | प्रस्तुत है उनकी आने वाले कहानी संग्रह का टीजर .. स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे “तुम? तुम कब से…” मुझे जो नहीं कहना चाहिए था वही जिव्हा के अग्रभाग पर आकर लटक गया। बिना हाड़ की ये जिव्हा, जितनी बाहर दिखाई देती है उससे अधिक भीतर छिपी होती है! जाने क्या क्या संचित रहता है उस भीतरी भाग में जो रपटीली सड़क पर फिसलते किसी ब्रेक फेल वाहन की तरह आखिरी छोर पर आकर लटक जाता है! अब टपका तो क्या और लटका रहा तो क्या? वापस पीछे तो जाने से रहा! मैं अपने शब्दों के ऐसे लटकने-भटकने को लेकर शर्मिंदा हो कर कुछ कहती उससे पहले अंबु ने मुस्कुराते हुए कहा “मुझे पता था आप सब अब तक यही समझते होंगे!” 2 … अब हाल ये था कि सिलीगुड़ी में कम और अंबु के घर-परिवार में अधिक दिलचस्पी हो गई थी! बात भले ही अजीब सी थी पर धरती, चाँद, सूरज, हवा और पानी की उपस्थिति की तरह सच्ची थी! इंसान दुनिया भर से झूठ बोल सकता है पर अपने हिये की थाह वो स्वयं ही ले सकता है! अपनी पीठ का तिल दिखाई भले ही न दे,पर हम ही जानते हैं कि वो है और कहाँ है! मेरे मन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी! अंबु की उदासीनता से मुझे एतराज़ था,पर क्यों? ये समझ नहीं आ रहा था। बीस साल… बहुत बड़ा अर्सा था। जीवन में कितना कुछ बदलाव आ गया था! मुड़ कर देखने की फुर्सत ही नहीं मिली थी!अब मिली थी तो… अजीब उलझन में फँस गई थी। 3…. मुझे कई बार लगता है कि हमारा मस्तिष्क एक विशाल समन्दर की तरह होता है! हमारे क्रिया-कलापों के माध्यम से जो कुछ ऊपर से दृष्यमान होता है उससे कई गुना अधिक सामग्री हमारे सुप्त मस्तिष्क में संचित रहती हैं! क्या-क्या यादें और बातें जमा रहती हैं ये हम तब तक नहीं जान पाते जब तक कोई घटना,गोताखोर सी भीतर जाकर कुछ उथल-पुथल, कुछ तहकीकात न करे! और जिस तरह गोताखोर समुद्रतल तक पहुँचने के क्रम में कई तरह की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के सम्पर्क में आते हैं, उनके बारे में और अधिक नये-नये तथ्य जान पाते हैं, उसी तरह से कोई एक घटना, कोई एक बात हमें अतीत की गहराइयों में ले जा सकती है। इस दौरान हम उन पर नये सिरे से,नये दृष्टिकोण से विचार कर चकित हो रहे होते हैं! 4… “सबने अपने मन का किया! उन्होंने छोड़ना चाहा, छोड़ दिया! नन्नू ने जाना चाहा,चला गया! उन दोनों केे लिए कोई सज़ा नहीं! पर मेरे मन का क्या हुआ? मैंने भी तो वही किया जो मुझे ठीक लगता था! जिस बात का मन नहीं मानता था, नहीं किया! पर उसके लिए इतनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ी! मैं उस मरुभूमि की तरह बंजर रह गई जिसकी मिट्टी की गुणवत्ता पानी के अभाव में अनजानी ही रह जाती है…” 5 … दुखों की पोटलियाँ अगर समय-समय पर खोली न जाएँ तो वो सीलन से भारी होने लगती हैं। उसी सीलन के बढ़ते बोझ को कम करने के लिए दोनों सखियाँ अपने-अपने दुखों की पोटलियाँ एक दूसरे के सामने खोलकर थोड़ी हवा और धूप दिखाकर बोझ कम कर लेती थीं। 6 … अखबार खिड़की में लगाते हुए बिसना के हाथ काँप रहे थे। कंपकंपाते हाथों से अखबार और उसके ऊपर गत्ते अच्छी तरह फिट करके जब वो स्टूल से नीचे उतरा तब भी बाल्टी के पानी में पड़ गए कीड़ों का कुलबुलाना जारी था।रश्मि की बात उसके कानों में लगातार गूँज रही थी…”इतना गुस्सा आया कि बस हाथ पहुँच सकता तो गर्दन पकड़ कर वहीं मरोड़ देती! छुप-छुप के देखता है इडियट… बेशर्म! थू है थू ऐसे लोगों पर…हम हमारे घर में कुछ भी करें! हमारी मर्जी! कोई चुपचाप कैसे देख सकता है? कोई प्राइवेसी नहीं है क्या हमारी?” “थैंक्यू भैया” कहकर खुश होती रश्मि स्टूल उठा कर बाहर निकल गई। बिसना ने बाथरूम की बाल्टी का पानी फर्श पर बिखेर दिया। कीड़े बहकर नाली में जा रहे थे और बिसना उस शाम चुपचाप सारा सामान समेट कर घर जा रहा था… 7…. जब बच्चे माता-पिता को छोड़कर अपनी खुद की नई दुनिया बसा कर मस्त हो जाते हैं! तब माता-पिता अपना बचा हुआ जीवन,गुज़रे हुए जीवन की समीक्षा में ही निकालने लगते हैं! कारण ढूँढते रहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ! कभी-कभी गल्तियाँ समझ आती हैं तो अफसोस करते हैं। नहीं तो तकदीर को दोष देकर जी बहलाने की कोशिश करते हैं। नए कहानी संग्रह के के लिए शिवानी जयपुर को बहुत बहुत शुभकामनाएँ आपको “स्वागत नई किताब का -कबीर जग में जस रहे” कैसा लगा ? अपनी राय हमाएं अवश्य बताएँ |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

सुमन केशरी की कविताएँ

सुमन केशरी की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ | इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के  विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की | एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था  की तुम नहीं कर सकतीं |  शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए | सुमन केशरी की  कविताएँ (1) मैंने ठान लिया है   मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती मसलन कविता करना शब्दों के ताने बाने गूँथ कुछ ऐसा बुनना जिसे देखा नहीं सुना जा सके महसूसा जा सके   तुमने मुझे बंद कर दिया था रंग-बिरंगे कमरे में और मैं तुम्हारी उंगली थामे उसमें से बाहर निकल तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती तुम्हारी भाषा में बतियाती चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे   मुझे  ताज्जुब होता था जाबाला का उत्तर सुनकर द्रौपदी का आक्रोश देखकर और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था   कि एक दिन अचानक सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से अब भी रिस रहा है खून फट गया है माथा और अब तक की सारी आस्थाएँ विचार और सपने चूर चूर हो गए हैं एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते रक्त की शिराओं में जा घुसा है और झिंझोड़ कर रख दिया है पूरे शरीर को मय चेतना के   इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं   बड़ा मजा आता है बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने और नाव चलाने में चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने छकने-छकाने में   प्रिय! अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो   और हाँ पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात एक लंबी बहस में बदल गई है क्या तुम मेरे संग उलझोगे याज्ञवल्क्य से बहस में?     (2) मोनालिसा   क्या था उस दृष्टि में उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया   वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिर कर जा पहुँची थी मन की अतल गहराइयों में जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से…   वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी….   (3) सुनो बिटिया……..   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन   तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जायेंगे कहानियों की दुनिया की तरह   तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम आना…..     (4) ऋतंभरा के लिए….   जब जब मैंने नदी का नाम लिया बेटी दौड़ी आई पूछा तुमने मुझे पुकारा माँ?     जब जब मैंने हवा का नाम लिया मेरी पीठ पर झूम-झूम कहा उसने तुमने मुझे पुकारा और लो मैं आ गई   जब जब मैंने सूरज को देखा किरणों की आभा लिए उतरी वह मेरे अंतस्तल का निविड़ अंधेरा मिटाने     जब जब मैंने मिट्टी को छुआ वह हँस दी मानो बीज बो रही हो खुशियों  के मेरे आंगन में   जब जब मैंने आकाश को निहारा वह तिरने लगी बदरी बन बरसी झमाझम सूखी धरा पर     जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी कहती मैं हूँ न तुम्हारे पास…     (5) औ..ऋत   डर एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे छिपना जितना आसान उतना ही मुश्किल   कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे बादलों के बाहर देखा था निरभ्र आकाश में   डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी इतना झीना इतना महीन   डर क्या है धरती-सी बैठी औरत ने पूछा   डर आँधी है उड़ा ले जाता है अपने संग सब-कुछ योगी बुदबुदाया   अच्छा!   डर बाढ़ है बहा ले जाता है सब कुछ…   अच्छा!!   डर तूफान है सब कुछ छिन्न-भिन्नकर देता है     अच्छा!!!   औरत ने कहा और लेट गई…   बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी.. बहने लगी जल की धार-सी स्वच्छ सुंदर.. हवा के झौंके-सी भर ली सुगंध उसने नासापुटों में… बादलों में बूंदों-सी समा तिरने लगी आकाश के सागर में निर्द्वंद…   जोगी ने देखा सब डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे… अब जोगी था और डर था   और था ऋत विस्तृत…     (6) सीता सीता रात के अंधेरे में द्वार के पार आंगन में आंगन पार पेड़ों के झुड़मुटों से घास के मैदान से और उसके भी पार बहती नदी के बूंद बूंद जल से किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से जिस पर … Read more