मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

गांधारी – आँखों की पट्टी खोलती एक बेहतरीन किताब

सुमन केशरी दी की की नई किताब “गांधारी” आई और प्रिय अनुप्रिया के बनाए कवर में ही ऐसी कशिश थी कि तुरंत सैनिटाइज़ कर पढ़ना शुरू किया  | फिर किताब ने ऐसा जकड़ा की रात में 12 बजे खत्म करके ही रुकी | बहुत दिनों बाद ऐसी किताब पढ़ी जिससे नशा सा हुआ, एक बेचैनी भी और कुछ अच्छा पढ़ लेने की संतुष्टि भी | सुमन केशरी दी के लेखन की गहनता को कविताओं के माध्यम जानती हूँ | उनके कथा नटी के रूप में बेहतरीन कथा पाठ की भी मुरीद हूँ पर इस तरह का लेखन पहली बार पढ़ा और पढ़कर बंध गई | ये किताब समर्पित है उन सभी स्त्रियों को ये समझती हैं कि आँख -कान मूँद लेने से जीवन सुखी व शांतिपूर्ण हो जाता है | ये एक वाक्य ही बहुत कुछ कह देता है | समझा देता है | गांधारी के विषय में अब तो जो कुछ भी लिखा -पढ़ा गया उससे बिल्कुल अलग दृष्टि लेकर आई है सुमन दी | और पढ़कर कर लगा बिल्कुल ऐसा ही हुआ होगा .. यही सच है | ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा गया? काल की सीमाओं को लाँघ कर एक स्त्री के मन को, उसके दर्द को दूसरी स्त्री पढ़ रही है .. पन्ना दर पन्ना | सहज स्त्रियोचित दृष्टि, सहज स्त्री विमर्श की मन गांधारी के लिए चीत्कार कर उठा, मन हुआ की गले लगा लें उस गांधारी को प्रेम की लौह समान मजबूत बाजुओं में कैद इतनी अच्छी थी ..कि उसके साथ सब कुछ बुरा होता चला गया | यूँ तो किताब गांधारी के बचपन से शुरू होती है पर ये किताब केवल गांधारी की ही बात नहीं करती| महाभारत काल के हर पात्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण करती है | किस तरह से भीष्म पितामह गांधार नरेश को उन्हीं के राजमहल में लगभग कैद कर गांधारी और धृतराष्ट्र का विवाह कराते है| साथ ही उसके भाई शकुनि को भी अपने साथ ले आते हैं ताकि भविष्य में भी गांधार अपने को मुक्त ना करा सके | हम प्राचीन भारत में राज कन्याओं के स्वयंवर की बात करते हैं पर चाहे अम्बा, अंबिका , अंबालिका हों या गांधारी सभी के विवाह जबरन हुए और माद्री के पिता को भी अपार धनराशि दे कर उसका पांडु के साथ विवाह कराया गया | इसमें उसकी इच्छा शामिल थी या नहीं इसका जिक्र नहीं है | सीधी सी बात है स्वयंबर का वास्तविक अधिकार उन्हीं कन्याओं को प्राप्त होता था जिनके पिता बलशाली राज्यों के राजा हों | एक स्थान पर गांधार नरेश अपनी पत्नी से कहते हैँ कि “इतने शक्तिशाली साम्राज्य से शत्रुता घातक होगी | देखो! मैं भी तो मन पर पत्थर रख रहा हूँ |” वहीं धृतराष्ट्र में अपने अंधेपन की वजह से हीन भावना है | वो हीन भावना इतनी है की वो जब -तब अपनी माँ को भी कोसते हैं कि अगर उन्होंने नेत्र ना बंद किये होते तो कदाचित वो अंधे ना होते | वो अपने दर्द को बार -बार पत्नी से साझा करते हैं.. फिर भी उन्हें पितृसत्ता की डिजाइन करी हुई पत्नी चाहिए | उन्हें क्या चाहिए इसका अपने पास बड़ा तार्किक आधार है पर पत्नी को क्या चाहिए इसका ना उन्होंने कभी प्रश्न पूछा और ना ही कभी सोचा | स्त्री जीवन का यह सत्य तब से लेकर आज तक यथावत है | वहीं पांडु को गांधारी जैसी स्त्री के धृतराष्ट्र को मिल जाने की ईर्ष्या है | एक नेत्रहीन व्यक्ति जो अपनी पत्नी का सौन्दर्य देख ही नहीं सकता उसका इतनी सुंदर स्त्री से विवाह का क्या लाभ ? कुंती सामान्य सुंदर स्त्री हैं और यही ईर्ष्या मद्र नरेश से वहाँ की प्रथा के अनुसार बहुत मूल्य चुका कर अतीव सुंदरी माद्री से विवाह की वजह बनती है | नाटक का अंत कारुणिक होते हुए भी उसका मजबूत पक्ष है.. महाभारत के युद्ध का अंत , महाविनाश कर बाद महाविलाप करता हर पात्र | स्त्रियों का हाहाकार | हर पात्र को अपने -अपने हिस्से की गलतियाँ समझ में आ रही है | ऐसे में भीष्म गांधारी संवाद बहुत महत्वपूर्ण है .. जो एक स्त्री के लिए ही नहीं पति-पत्नी के रिश्ते के लिए भी महत्वपूर्ण है | अपनी गलतियों को स्वीकारते भीष्म का एक महत्वपूर्ण बिन्दु ये भी उठाया है की उन्होंने राज्य और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा को राजा के प्रति निष्ठा मान कर बहुत बड़ी गलती की है| गांधारी का चरित्र भी सखियों के साथ मस्ती करती खेलती गांधारी से, पति से अनन्य प्रेम करती गांधारी, अपने शयन कक्ष में रोती-विलाप करती गांधारी, सहज ईर्ष्या भाव और इतना सब कुछ हो जाने के पीछे द्रौपदी के प्रति क्रोध भाव रखती गांधारी से अपनी गलती को स्वीकारती गांधारी से लेकर परीक्षित को गोद में ले उसका नामकरण करती गांधारी तक विकास की एक यात्रा पूरी करता है | मानवीय कमजोरियों को भी लेखिका ने साफ साफ दिखाया है | एक दृश्य में द्रौपदी के दर्द को महसूस करती गांधारी के ऊपर माँ की ममता हावी है जो उसे श्राप देने से रोकती है और अपने पुत्रों को स्वयं भी कोई ऐसी सजा नहीं देती, जिससे उन्हें पछतावा हो | क्रोध में कृष्ण को वंश नाश का श्राप देती गांधारी को जब कृष्ण कहते हैँ कि वहाँ भी रोएगी तो स्त्रियाँ ही .. तो वो अपने ही दिए गए श्राप पर पश्चाताप करती है | युद्ध कभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं होते | वहीं स्त्रियों के दुख साझा होते हैँ | जो स्त्रियाँ सामान्य समय में एक दूसरे से ईर्ष्या करती हैं, हावी होना चाहती है वही दुख में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर सहारा देती हैं | ये बिन्दु भी विचारणीय है कि किस तरह से पितृसत्ता स्त्रियों को स्त्रियों के विरुद्ध खड़ा करती है | क्योंकि ये किताब नाटक विधा में लिखी गई है | इसलिए इसके संवाद बहुत सधे और कसे हुए हैं| दृश्य चित्रण प्रभावित करता है | भाषा बहुत सरल व सहज है, जो सीधे पाठक के दिल में उतरती है | अंत में आँखे खोलने वाली इस किताब के लिए सुमन दी को बहुत बहुत बधाई समीक्षा -वंदना बाजपेयी

दीपक शर्मा की कहानी सवारी

सवारी

अपना पैसा,  अपनी सवारी, और अपना मकान  ..अपने वजूद की तलाश करती स्त्री की यही तो पायदानें है जिनसे वो आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान अर्जित करती है | पर क्या ये सब इतना सहज है? और क्या स्त्री देह के प्रति समाज की सोच बदल जाती है ?  हम सबकी प्रिय  वरिष्ठ कथाकार  दीपक शर्मा की कहानी “सवारी”  1967 की कोई तिथि और 27 नवंबर 2019 का वो  जघन्य हादसा ….वर्तमान की घटना के दंश से इतिहास का सफर करती ये कहानी स्त्री जीवन के उस दर्द की बानगी है जो तब से लेकर अब तक हर ही है | आइए सवार हों .. लाइफ ऑन टू व्हीलस/इट इज़ अ ब्युटीफुल राइड सवारी    मानव-स्मृति, में घटनाएं कोई पदानुक्रम नहीं रखतीं । न समय का कोई सोपान-उतरान। वहाँ क्लिक नहीं, ट्रिगर काम करता है । तभी 27 नवम्बर, 2019 की तिथि में डॉ. प्रियंका रेड्डी के संग हुआ जघन्य अपराध मेरे सामने 21 जुलाई, 1967 की तिथि ले आया है । बुआ के क्षत-विक्षत चेहरे के साथ । सांझा कारक दोनों का स्कूटर रहा था । ’’मंगला की सवारी’’ सन् 1967 की फरवरी की किसी एक तिथि में हमारे दालान में उतारे एक  नए स्कूटर को ढक रहे पेपर बोर्ड को हटाते हुए घोषणा की थी, ’’मंगला का वेस्पा । मंगला का वौस्प…’’ ’’वौस्प?’’ उन्हें घेर रही हम तीनों चचेरी बहनें उत्सुक हो ली थीं ।  ’’हाँ वौस्प, ततैया, ही होता है । सुनते हैं इसके इतावली मालिक पियाज्जियों ने जब पहली बार इसे इसकी तैयार अवस्था में देखा तो यही बोला ’सेम्बरा उना वेस्पा’ (यह तो ततैया, वौस्प जैसा है) ततैया ही की भांति इसका पिछला भाग इसके अगले चौड़े भाग के साथ बीच में तंग रखी गयी इस कमर जैसी सीट के साथ जुड़ाए रखा गया है….’’ ’’बहुत बढ़िया है, बाबा,’’ बुआ हमारे दादा के साथ जा चिपटी थीं ।  ’’आप का हर फैसला गलत ही क्यों होता है बाबा?’’ तभी मेरे ताऊ और पिता एक साथ दालान में चले आए थे और चिल्लाए थे, ’’मंगला इसे सम्भाल पाएगी भला? बारह मील कोई रास्ता नहीं । ऊबड़-खाबड़, झाड़ी-झंखाड़ और गड्ढों से भरी वह राह सीधी-सपाट है क्या? टायर पंक्चर होंगे, स्कूटर उलट जाएगा, ब्रेक टूटेगी, मंगला चोट खाएगी……..’’ ’’तुम चुप रहो,’’ दादा उन्हें डपट दिए थे, ’’मंगला सब सम्भाल पाएगी । सब सम्भाल लेगी……’’ ’’जैसी आप अपने सूरतदास को सम्भाल रहे हैं,’’ ताऊ ने तीखा व्यंग किया था । बाद  में हम लड़कियों ने जाना था हमारी बुआ ने अभी अपने अठारहवें वर्ष में कदम रखा ही था कि बाबा ने उनकी सगाई कर दी थी । अपने परम मित्र, सूरतदास जी, के बेटे से । उस समय उनके बेटे के तपेदिक-ग्रस्त होने का न बाबा को पता था और न ही सूरतदास बाबा को । और पता मिलने पर भी हमारे दादा ने सगाई नहीं तोड़ी थी । सूरतदास बाबा के आग्रह बावजूद । हाँ, शादी ज़रूर टाल दी थी । और बुआ को बी.ए., व एम.ए. कराने के बाद नौकरी में लगा दिया था । कस्बापुर के उसी डिग्री कालेज में उनके विषय, दर्शन-शास्त्र, में लेक्चरर, जिसके हॉस्टल में रह कर बुआ ने अपनी बी.ए. तथा एम.ए. पास की थी । अल्पसंख्यक वर्ग के उस कालेज में गैर-धर्मी विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था तो हॉस्टल में उपलब्ध थी किन्तु अध्यापिकाओं के लिए अल्पसंख्यक उसी वर्ग से होना अनिवार्य था ।   ऐसे में बुआ को अब रोज़ाना हमारे गाँव, बारह मील कस्बापुर से बारह मील की दूरी पर होने के कारण हमारे गाँव ने अनूठा वही नाम पाया था ।………..यही से कालेज के लिए निकलना होता था । एक दिन यदि परिवार की जीप की अगली सीट पर बैठ कर मेरे पिता के संग जाती तो दूसरे तीसरे दिन मेरे चाचा की मोटर-साइकिल के पीछे बैठ कर । ताऊ अपने पोलिए-ग्रस्त पैर के कारण न जीप चलाते और न ही मोटर-साइकिल ।   उन दिनों लड़कियों में साइकिल और लड़कों में मोटरसाइकिल का चलन तो आम था किन्तु स्कूटर का बिल्कुल नहीं ।  सच पूछें तो बूआ का वह वेस्पा हमारे गाँव बारह मील, का पहला स्कूटर था । बल्कि हमारे क्षेत्र में उसे लोकप्रियता प्राप्त करने में पाँच-छः साल तो और लगे ही लगे थे । एक दूसरी इतालवी कम्पनी ने भी लम्ब्रेटा नाम का अपना नया स्कूटर उसी सन् 1957 में बेशक बाज़ार में उतार दिया था किन्तु सन् 1956 का बना हुआ बुआ वाला वेस्पा 150 अभी भी उसे अच्छी प्रतिस्पर्धा देने में सफल हो रहा था ।    हम तीनों चचेरी उसे दिन में लाख बार देखतीं-जोखतीं और जानतीं-समझतीं । और यह भी अब स्वाभाविक था, बुआ का ततैया गाँव भर में चर्चा का विषय बन गया था । महिलाएं यदि कम ऊँचाई पर बनी उस गद्दी और पिछले अलग आसन की बात करतीं तो पुरूष उसके इंजन और पार्सल कम्पार्टमेन्ट के स्थल की । स्टील के एक ही यूनिफाइड दांये में बना वह वाहन अपने सवार को साइकिल और मोटर साइकिल से ज्यादा रक्षा व सुविधा उपलब्ध करा रहा था और उन दो की भांति यहाँ सवार को अपनी गद्दी के ऊपर टाँगे फैला कर नहीं बैठना पड़ता था । पैर रखने के लिए सवार के पास यहाँ सपाट समतल चौड़ा पटरा था, इंजन सीट के नीचे स्थित था, और आधाड़ी हवा रोकने के लिए कवच-नुमा फ़ेयरिंग भी ज़बरदस्त थी ।    मगर जो नज़र लग गयी । इधर मेरी माँ, मेरी ताई और हम चचेरी बहनों के लिए वह स्कूटर अभी साहस-कर्म तथा अपूर्व अनुभव का उपकरण बना ही था और बुआ की पिछली सीट पर बारी-बारी से शहर घूमने का हमारा रोमान्च पुराना भी न पड़ा था, कि नृशंस व अमानवीय यह दुर्घटना उधर घट गयी । ’’मंगला अभी तक घर नहीं पहुँची?’’ बाबा ने उस दिन अपनी मेंटलपीस घड़ी छठी बार उठा कर देखी थी ।   घड़ी की सूइयां अढ़ाई बजाने जा रही थीं । बुआ को अगर पहले कभी देर हुई भी थी तो हद से हद पौने दो से सवा दो बज गए थे । मगर इस तरह अढ़ाई तो कभी नही बजे थे। ’’विनोद,’’ बाबा अपने कमरे में दालान में चले आए थे । और चाचा को आवाज़ लगाये थे ।  बाबा अच्छे उपन्यासकार … Read more

बस अब और नहीं !

बस अब और नहीं

स्वतंत्रता या गुलामी ये हमारा चयन है | कई बार गुलामी के चयन के पीछे सामाजिक वर्जनाएँ होती हैं  तो कई बार इसके पीछे विलासिता और ऐश की चाह  भी होती है जो हँसकर गुलामी सहने को विवश करती है | स्वतंत्रता अपने साथ जिम्मेदारियाँ लाती है, संघर्ष लाती है और कठोर परिश्रम का माद्दा भी .. “बस अब और नहीं” केवल कह कर समझौता कर लेने वाले शब्द नहीं है | ये शब्द है.. अपने स्वाभिमान को बचाए रख कर जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने के | आइए पढ़ें सुपरिचित लेखिका रश्मि तारिका जी की एक ऐसी कहानी जिसकी नायिका  लता  विपरीत परिस्तिथियों  के सामने मजबूती से खड़ी हुई | बस अब और नहीं !   दर्द अगर कहानियों में निहित है तो कहानियाँ हमारे आस पास ही बिखरी होती हैं  और कहानियाँ हैं तो किरदार भी होंगे ही ..बस ज़रा ढूँढने की ज़द्दोज़हद करनी पड़ती है ! चलिये आज आपके लिए मैं ही एक किरदार ढूँढ लाई हूँ …ऐसा ही शायद आपके भी इर्द गिर्द होगा ही।चलिये इस किरदार से मिलने चलते हैं जो एक ईंटों से बने एक कमरे को ही अपना घर बनाने की कोशिश में है। * सुबह दस बजे का समय और रसोई में  उठा पटक का स्वर रोज़ की बजाए आज तेज़ था।पल्लवी के दिमाग और कदमों ने भी कमरे से रसोई तक पहुंचने में भी एक तीव्रता दिखाई। कारण था किसी नुक्सान की आशंका !   “लता !  ज़रा ध्यान से ! आज जल्दी है या कोई गुस्सा है जो बर्तनों पर निकाल रही है ? पिछली दफा भी तूने जल्दबाज़ी में एक काँच का गिलास तोड़ दिया था।आज ज़रा संभलकर।” पल्लवी ने कहा और लता के उखड़े मूड को देखकर खुद ही चाय चढ़ा दी ,अपने लिए और लता के लिए भी।वरना तो गरमा गरम चाय लता के हाथों, कुर्सी पर बैठे बिठाए उसे रोज़ ही मिल जाती थी।लता काम बाद में शुरू करती और चाय पहले चढ़ा देती थी। “लता ..चाय बन गई है पहले गरम गरम पी ले फिर करती रहना काम।” पर आज लता ने  बर्तनों का काम पूरा किया और हाथ पौन्छ कर चाय लेकर फटाफट पी और अपना मोबाइल उठाकर ले आई। “भाभी ..पहले तो आज मुझे यह बताओ कि ये जो फेसबूक होती है ,उस में  जो अपुन फ़ोटो डालते हैं क्या वो सबके पास पहुँच जाती है ?”भोलेपन से लता ने पूछा। “हाँ ,पहुँचने का मतलब वही लोग देख सकते हैं अगर तुमने उसे अपना दोस्त बनाया हुआ है।”   पल्लवी को लगा फ्रेंड लिस्ट ,मित्र सूची शब्दों का इस्तेमाल लता के समक्ष लेना व्यर्थ है कि वो समझ नहीं पाएगी। ” हाय री मेरी अल्पबुद्धि ! इतना भी न सोच सकी कि फेसबूक की दुनिया में कदम रखने वाली लता क्या फ्रेंड लिस्ट का मतलब भी न जानती होगी ?”पल्लवी को अपनी सोच पर खुद ही हँसी आने लगी।   “अरे भाभी , ये तो मालूम कि एक फ्रेंड लिस्ट होती है जिस में हम अपनी मर्ज़ी से लोगों को लिस्ट में बुलाते हैं।आप भी तो हो न मेरी लिस्ट में !”   लता ने बड़े फ़ख्र से बताया जबकि पल्लवी उसी फ़ख्र से यह न बता सकी कि उसने लता की फ्रेंड रिकुवेस्ट कितना सोचने के बाद स्वीकार की थी। “हाँ ..तो फिर क्या हुआ अब ! परेशानी किस बात की है लता?”   “भाभी ..कल मेरी बेटी ने अपनी एक फ़ोटो डाल दी फेसबूक पर और मेरी जान को एक मुसीबत खड़ी हो गई।इसीलिए परेशान हूँ।” “क्या परेशानी ज़रा खुल कर बताओ न! ” “वो मेरी बेटी की फ़ोटो मेरे किसी रिश्तेदार ने देख ली और  उसने गुड़िया के पप्पा को शिकायत कर दी कि फ़ोटो क्यों डाली ।” “तो क्या हुआ ! आजकल तो सब बच्चे ही अपनी फोटो फेसबूक पर हैं तो डाल ही देते हैं।चिंता वाली क्या बात है ? बस फोटो सही होनी चाहिए, मर्यादा में।” पल्लवी ने मर्यादा शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा ताकि लता आराम से समझ जाए। “भाभी ,बच्ची ने केवल मुस्कुराते हुए ही अपनी फोटो डाली।अब हम लोग कहाँ ऐसे वैसे कपड़े पहनते कि मर्यादा का सोचें।लेकिन लोग फिर भी बातें बनाएँ तो क्या करें ! खुद के अंदर तो झाँक कर नहीं देखते !”   लता का उखड़ा स्वर बता रहा था कि किसी अपने ने ही उसकी बेटी की शिकायत की थी।पल्लवी सुनकर हैरान थी कि एक बारह तेरह साल की मासूम बच्ची जो न बोल सकती है ,न सुन सकती है।केवल इशारों से जो बात सुनती समझती है तो क्या वो मुस्कुरा भी नहीं सकती ? क्या उसके मुस्कुराने पर भी कोई बैन लगा है? “तूँ लोगों की बातों की परवाह क्यों करती है, लता ?कहने दे जिसने जो कहना है।बच्ची ने कोई गुनाह नहीं किया जो तूँ इतना डर रही है।”पल्लवी ने समझाने का प्रयास किया। “”नहीं न भाभी ..आपको मालूम नहीं। अभी तो गुड़िया के पप्पा अपनी साइट(काम) पर गए हैं।आएँगे तो बहुत बवाल करेंगे।अभी तो बस उन्होंने फ़ोन पर बताया।मैं इसी बात को लेकर परेशान हूँ।”   “तो अब क्या इरादा है ,क्या चाहती है तूँ और तूने गुड़िया से पूछा क्या इस फ़ोटो की बात को लेकर ?”   “मैंने उसे इशारे से समझाया तो वो पहले तो अड़ी रही कि फ़ोटो नहीं हटाएगी पर जब मैंने उसे कहा कि पप्पा गुस्सा होंगे तो उसने गुस्से में आकर अपनी फोटो भी हटा ली और  मेरे मोबाइल से फेसबूक भी हटा दिया।” “एक तो तूँ बच्ची को नाहक ही गुस्सा हो रही है।फिर अगर उसने फ़ोटो हटा दी है तो अब क्यों परेशान है ?”   “वो यह पूछना था कि गुड़िया ने फ़ोटो हटा ली तो क्या अब भी फ़ोटो वो रिश्तेदार के पास होगी तो नहीं न ?”लता अपनी बुद्धि के हिसाब से अपनी समस्या का निवारण ही पूछ रही थी । पल्लवी सोचने लगी कि आजकल के बच्चे इतना कहाँ सोचते हैं कि सोशल साइट्स पर तस्वीरें डालने से कई बार समस्याओं का सामना करता पड़ता है।जबकि लता तो अपनी बेटी की मासूमियत को भी लोगों की नज़रों से बचाने का प्रयास कर रही थी। पल्लवी जानती थी कि लता आज संघर्षों और हिम्मत से जूझती हुई एक साहसी महिला थी … Read more

उर्मिला शुक्ल की कहानी रेशम की डोर 

रेशम की डोर

          रेशम की डोर में गाँठ बांध कर जोड़ा गया पति -पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का होता है | सुख के साथी, दुख के साथी, जीवन के हर पल के साथी ..  फिर क्यों ऐसा रिवाज बना दिया गया कि   अंतिम विदा में जीवन संगिनी साथ नहीं दे सकती | चार कंधों के लिए आदमी ढूंढते लोग अपनी जाई बेटी को मुखाग्नि  देने का अधिकार नहीं देते |  शहरों में छुटपुट घटनाएँ भले ही हों पर गांवों में समाज इतना शक्तिशाली और हावी रूप से सामने आता है कि  हुक्म की इन बेड़ियों को काटना आसान नहीं होता |  आइए पढ़ें कुछ ऐसी ही बेड़ियों को जानने, समझने और काटने की कोशिश करती सुप्रसिद्ध साहित्यकार उर्मिला शुक्ल जी की कहानी जिसमें स्त्री विमर्श एक नारा भर नहीं है |                                                               उर्मिला शुक्ल की कहानी “रेशम की डोर”                                                                                                                                                                                                                                                  कस्बे की एक सर्द सुबह, कुहरे में लिपटा सूरज तनिक बाहर झाँकता फिर अपने लिहाफ में जा छुपता .  ऐसे में भला मेरी क्या बिसात थी की  मैं.. सो उठने का मेरा संकल्प बार बार भहरा रहा था .दिन चढ़ आया था , मगर ठंड कह रही थी कि  बस मैं ही हूँ . रविवार था ,सो चिंता की  कोई बात भी नहीं थी. ‘ क्यों न एक  नींद मार ली जाय . ‘ सोचा और लिहाफ ताना ही था कि कालबेल घनघनाई . ‘ कौन आ गया इतनी ठंड में ? ‘ लिहाफ़ से जरा सा मुँह निकाला था कि ठंड भीतर तक उतरती चली गई . ‘ होगा कोई .अपने आप लौट जायेगा ‘. सोचा और लिहाफ़ कस लिया . मगर अब कालबेल लगातार घनघना रही थी . ” कौन ?  ” स्वर में झुंझलाहट  उतर आयी .  बेमन से चप्पल घसीटे और दरवाज़ा खोला …… ” कुछु सुनेव आपमन ? मास्टर साहब बीत गये . ”  पड़ोसी थे . …………. “रात को जो सुते तो उठे ही नहीं . ”  अब मैं कुछ सुन नहीं पा रही थी .  भीतर कुछ हो रहा था , जिसमें उनकी आवाज़ ही नहीं, सब कुछ गुम हो चला था . ” बहुत परेमी मनखे रहिन . “ उनके होंठ हिल रहे थे . आवाज़ भी कानों तक पहुँची थी, पर वह कोई अर्थ न दे सकी . वे जा चुके थे . अब भीतर मेरे अतीत फैलाव ले रहा था…….. मास्टर साहब !  सारा कस्बा उन्हें इसी नाम जानता था .  उनके इस नाम ने इतनी ख्याति पायी थी कि उनका असली नाम ही खो गया था और वे सबके मास्टरसाहब बन गये थे . ‘जीवन प्रकाश ‘ उन्होंने अपने नाम को सार्थक किया था. दूसरों का अँधेरा समेटने में अपना कितना कुछ पीछे छूटता चला  गया  था . गाँव , रिश्ते सब . वे लोगों में  इस कदर डूबे कि सब भूल गये . उन्हें कभी लगा  ही  नहीं कि उनका कुछ  निजी  भी  है . सिर्फ  देना  ही तो जाना था उन्होंने . काकीदाई नाराज़ होतीं– ” बस ! एक कमंडल खंगे हे . धर लेव् . हममन तो तुम्हारे  कुछ  लगते ही नहीं . ” वे कहती .मगर उनकी सरल  सौम्य मुस्कान के सामने  उनका ये आक्रोश कहाँ ठहरता था. .उनका  यह आक्रोश भी तो ऊपरी था . भीतर से तो उनकी अनुगामी ही थीं . अब आँखों वे उभर आयीं – गोरा रंग , माथे पे सिंदूरी बिंदी ,कोष्टउहन लुगरा ( करघा की साडी ) और चूड़ियों भरी कलाइयाँ . मगर  आज ? ‘ सोच कर मैं सिहर उठी . भाई साहब जा चुके थे. ठंड अभी भी वैसी ही थी;, मगर मैं देर तक वहीं खड़ी रही . फिर जैसे तैसे पैर घिसटते हुए कमरे तक पहुँची .ऐसा लग रहा था, मानो मीलों लंबा सफर तय किया हो . मन थिर नहीं हो रहा था . चलचित्र सा चल रहा था – विद्यालय में मेरा  पहला दिन था . दूसरों की तरह मैं उनके लिये भी अजनबी थी; मगर ज्वाइनिंग के बाद मुझे अपने घर ले गये . मुझे डर भी लगा .एक अनजान व्यक्ति के साथ ? अख़बारों में पढ़ी घटनायें याद  हो आयीं .सोचा मना कर दूँ . मगर …… ” डेरा झन ! तेरे जैसी बेटी हे मेरी ” उन्होंने  मुझे देखा था . ‘ मैं सन्न ! ‘ . लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ ली गई हो . मन में डर तो था ,पर ऊपरी मन से कहा…. “नहीं  सर ऐसी  बात नहीं  हे “. कह तो दिया पर मन का भय बरकरार था ;मगर  घर पहुँचते ही काकीदाई और केतकी ने मुझे ऐसा अपनाया कि लगा ही नहीं कि वह किसी और का घर है . मैं ही नहीं , मेरे जैसे बहुतों की छाया थे वे .आज मुझे वहाँ जाना था ;मगर  हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर भी जाना तो था . सो दरवाजा बंद किया ; मगर ताला था कि बंद ही न हो . बार – बार चाबी घुमाने के बाद भी खुलाका खुला. हाथों में जैसे ताकत ही  नहीं थी . देर तक  चाबी और ताले से जूझने के बाद ताला बंद हुआ . अब घिसटते कदमों से मैं उस घर की ओर बढ़ रही थी . मगर कदम साथ नहीं दे रहे थे .  किसी तरह मैं उस द्वार तक पहुँची ..तो द्वार पर कोई नहीं  ! मन को धक्का  लगा ! यह  वही द्वार था, जहाँ लोगों की भीड़ लगी रहती थी . मास्टर साहब अपना सब काम छोड़कर सबकी समस्यायें सुलझाते थे तब लोग उन्हें कितना सम्मान देते थे ; मगर   पंचायती राज ने  सारे समीकरण ही … Read more

उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो 

बिन ड्योढ़ी का घर

ऊर्मिला शुक्ल जी का “बिन ड्योढ़ी का घर” एक ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री के जीवन का हाहाकार सुनाई देता है | साथ ही उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | इस उपन्यास को पाठकों और समीक्षकों द्वारा पसंद किये जाने के बाद अब उर्मिला शुक्ल जी ला रहीं हैं “बिन ड्योढ़ी का घर -2 ” पूरा विश्वास है की ये उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर कहर उतरेगा | आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का एक अंश ..   यू ट्यूब पर देखें   उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो  “ माँ देखो न ! डंकिनी ने मेरी माला खराब कर दी | उसने मुझे जीभ भी चिढाया | ” रूआँसी सी वन्या उसे अपनी माला दिखा रही थी | उसकी माला की लड़ें आपस में उलझ गयी थीं |  “ इसमें रोने की क्या बात है ? चलो अभी ठीक कर देते हैं | ” कात्यायनी को वहाँ से निकलने की राह मिल गयी | वह उसे लेकर वनिता धाम की ओर बढ़ चली |  “भूरी चींटी लाल भितिहा | गिर गई चींटी फूटगे भितिहा | ईइइ ” दीवार की ओट में खड़ी डंकिनी ने वन्या को चिढ़ाया | “ देखो माँ वो फिर चिढ़ा रही है और बिजरा (जीभ चिढ़ा ) भी रही है | ” कात्यायनी ने डंकिनी की ओर देखा | वह उसे देखकर भी डरी नहीं | पूरी ढिठाई से उसकी ओर देखती रही |  “ गंदी बात | अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते | ” “ में अच्छी नई हूँ ? ” “ किसने कहा तुम अच्छी नहीं ? तुम तो सबसे अच्छी हो | “  “ वनिया ने मेरे को डंकिनी फंखनी बोला | ” “ वन्या ! ये गंदी बात है | तुमने क्यों चिढ़ाया इसे ? ”  “ इसने कहा ये माला मेरे को नई फबती और मेरी माला खराब कर दी | ” अपनी उलझी माला देख ,उसका स्वर फिर रुआँसा हो उठा |  “ इसने भी तो मेरे को काली चीटी बोला | डंकिनी डंक मार बी बोली | बिजराया बी | देखो – देखो फिर बिजरा रही | ” कात्यायनी ने देखा ,वन्या उसके पीछे छुपकर अपनी माला दिखाते हुए उसे जीभ दिखा रही थी और डंकिनी की क्रुद्ध नजरें उसकी माला पर टिकी थीं | वह उसकी इर्ष्या कारण समझ गयी |   “ तुमको भी माला पहनना है ? ” डंकिनी ने हाँ में गर्दन हिलाई | “ आओ मेरे साथ | ” “ माँ इसको माला नहीं देना | बहुत गंदी है ये | ” “ ऐसा नहीं बोलते | ये तो तुम्हारी संगी है न | संगी के संग तो मिल कर रहते हैं | ” कात्यायनी ने लाल पाड़वाली कोसा की ओढ़नी निकाली | साड़ी की तरह पहनाया उसे | फिर उसके बालों को समेट कर सुंदर सा जूड़ा बनाया | उसमें कौड़ियों की माला सजाई | फिर अपनी मालाओं में से लाल रंग की एक माला निकाली और  तिहराकर पहना दिया | डंकिनी ने दर्पण देखा | उसका मुख गुड़हल सा खिल उठा | “ देख– देख मेरा माला कितना सुंदर | तेरे से भी सुंदर | ” “ ठेंगा | ” वन्या ने अँगूठा दिखाया और जीभ चिढ़ाती बाहर भाग गयी |  उसके पीछे डंकिनी भी | कात्यायनी महसूस रही थी उस बाल युद्ध को ,जिसमें जीभ चिढ़ाना ,ठेंगा दिखाना और चिढ़ाने वाले शब्द ,ऐसे अस्त्र थे कि सामने वाला तिलमिला उठे | यहाँ डंकिनी का नाम भी ऐसा ही हथियार बन गया था | वरन डंकिनी इस अंचल की ख्यात नदी हैं | उसकी कथा में माँ दंतेश्वरी जुड़ी हैं | सो इस अंचल के लिए एक पवित्र नाम है डंकिनी | ‘ सोचती कात्यायनी को वह दिन याद हो आया जब …….   बस्तर के धुर दक्खिन में डंकिनी की गोद में बैठा पालनार | जंगल ,नदी और पहाड़ का सौंदर्य अपने में समेटे ,एक सुंदर सा गाँव | लोह अयस्क का तो अकूत भंडार ही था वहाँ | अपनी बोली – बानी ,अपने नाच – गान को सहेजता पालनार अपने आप में मस्त था | वह तेलंगाना के ज्यादा करीब था | सो उस गाँव का शेष बस्तर से, कोई ख़ास वास्ता नहीं था | न काहू से दोस्ती न काहू से बैर ,की तर्ज पर वह एक शांतिप्रिय गाँव था ; मगर उस दिन पूरा गाँव राख में बदल गया था ? पुलिस ,सेना और प्रशासन को अंदेसा तो उन्हीं पर था ,जो अपने को इस अंचल का कर्णधार मान बैठे थे ;मगर सबूत कोई न था | वे वहाँ पहुँचीं ,तब तक कुछ नहीं बचा था | बची थी तो सिर्फ राख | मारी माँ उदास हो उठीं | उन्हें लग रहा था आना व्यर्थ हुआ | सो लौटते समय गाड़ी में ख़ामोशी पसरी हुई थी | घाट आने वाला था | मोड़ तीखे हो चले थे | चालक ने गाड़ी की रफ्तार धीमी की | गाड़ी घाट चढ़ने ही वाली थी कि छत पर धम्म की आवाज आई |  “ साड़थी ! गाड़ी साइड लो | देखो कौन है ? ”   “ जिनावर होगा | इहाँ गाड़ी रोकना टीक नई | ये इलाका बहुत डेंजर | ” चालक ने कहा | “ जानवर ? अमको लगता कोई आडमी है ? ” “ आदमी ? इतना अँधेरा में आदमी कहाँ होयेगा ? कोंनो जिनावर है | मै गाड़ी को अइसा मोड़ेगा के वो धड़ाम हो जायेगा | ” और उसने झटके से मोड़ काटा – “ रूको – … Read more

खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी

खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी

आमतौर पर परिवार की धुरी बच्चे होते हैं | माता -पिता की दुनिया उनके जन्म लेने से उनका कैरियर /विवाह  हो जाने तक उनके चारों ओर घूमती है | कहीं ना कहीं आम माओ की तो बच्चे पूरी दुनिया होती है, इससे इतर वो कुछ सोच ही नहीं पाती | पर एक ना एक दिन बच्चे माँ का दामन छोड़ कर अपना एक नया घोंसला बनाते हैं .. और माँ खुद को ठगा हुआ महसूस करती है |  मनोविज्ञान ने इसे एम्टी नेस्ट सिंड्रोम की संज्ञा दी है | पर क्या नए आकाश की ओर उड़ान भरते, अपने जीवन की खुशियाँ तलाशते और अपनी संतान को तराशने में लगे बच्चों को दोष देना उचित है ?  या स्वयं ही इस उम्र की तैयारी की जाए | आइए इस विषय पर पढ़ें सुपरिचित साहित्यकार शिवानी जयपुर का लेख खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी   यू ट्यूब पर देखें .. तीसरी पारी यही तो वो समय है… एक ही जीवन हम कई किश्तों में, कई पारियों में जीते हैं। आमतौर पर एक बचपन की पारी होती है जो शादी तक चलती है। उसके बाद शादी की पारी होती है जो घर गृहस्थी और बच्चों की ज़िम्मेदारी तक चलती रहती है। और उसके बाद एक तीसरी पारी होती है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने काम-धंधे में लग जाते हैं या पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर चले जाते हैं। या फिर शादी के बाद अपनी ज़िंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि माता-पिता के लिए समय बचता ही नहीं या बहुत कम बचता है। ऐसे में पति पत्नी अकेले रह जाते हैं। मुझे लगता है कि ये जो तीसरी पारी है, पति-पत्नी के संबंधों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। बहुत सारे ऐसे सपने होते हैं, बहुत सारी इच्छाएँ होती है जिन्हें चाह कर भी गृहस्थी के तमाम उत्तरदायित्वों को निभाते हुए पूरा नहीं कर पाते हैं। इस समय जब बच्चे बाहर हैं और अपने आप में व्यस्त हैं, मस्त हैं… तब रात-दिन बच्चों को याद करके और उनकी चिंता करके अपने आप को गलाते रहने से कहीं बेहतर है कि पति-पत्नी एक-दूसरे को फिर से नये सिरे से समझें और समय दें। न जाने कितने किए हुए लड़ाई-झगड़े हैं, कितनी अधूरी छूटी हुई लड़ाइयाँ हैं, गिले-शिकवे भी हैं, उनकी स्मृतियों से बाहर आएँ और इस समय का सदुपयोग करें। “चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों” इस तर्ज़ पर फिर से आपस में प्रेम किया जा सकता है! इस बार आप निश्चित रूप से बेहतर कर पाएँगे क्योंकि एक दूसरे को पहले से अधिक जानते हैं। बच्चे जो एक बार बाहर चले जाते हैं, बहुत ही मुश्किल होता है उनका लौट कर आना। आप अगर बड़े शहरों में हैं तो फिर भी कुछ संभावना बनती है। लेकिन अगर छोटे शहरों में है और बच्चे बड़ी पढ़ाई कर लेते हैं तो फिर छोटे शहरों में उनका भविष्य नहीं रह जाता है। तो मान के चलिए कि ये बची हुई उम्र आप पति-पत्नी को एक-दूसरे के सहारे ही काटनी है। इस उम्र का एक-दूसरे का सबसे बड़ा सहारा आप दोनों ही हैं। तो अब तक की कड़वाहट को भूलकर नयी शुरुआत करने की कोशिश करिए। अपनी और साथी की पसंद का खाना मिल-जुलकर बनाइए। पसंद का टीवी शो या फिल्म देखिए। सैर-सपाटा कीजिए।अपने शहर को नये सिरे से जानने की कोशिश करिए। मंदिर और पुरातत्व की ऐसी जगहें जहाँ आमतौर पर बच्चे जाना पसंद नहीं करते तो आप भी नहीं जाते थे, वहाँ जाइए। किसी पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण कर लीजिए और छूट गई आदत को पुनः पकड़ लीजिए। पुराने एल्बम निकालकर उस समय की मधुर स्मृतियों को ताज़ा किया जा सकता है। जिन दोस्तों और रिश्तेदारों से मिले अर्सा हो गया है, उनसे मिलना-जुलना करें या फिर फोन पर ही पुनः सम्पर्क बनाएँ। मान कर चलिए कि सब अपने-अपने एकाकीपन से दुखी हैं। सबको उस दुख से बाहर लाकर गैट टुगेदर करिए। छोटी-छोटी पार्टी रखिए। छुट्टी के दिन पूल लंच या डिनर करिए। एक दूसरे के घर या किसी पब्लिक प्लेस पर चाय-शाय पीने का कार्यक्रम करिए। और हाँ, अपने शौक जो पहले पूरे नहीं कर पाए थे, उन्हें अब पूरा कर सकते हैं। सिलाई-कढ़ाई, बुनाई, पेंटिंग, बागवानी, टैरेस गार्डन आदि विकल्प मौजूद हैं,उन पर विचार किया जा सकता है। अगर लिख सकते हैं तो अपने उद्गार लिखना शुरू किया जा सकता है। डायरी लेखन या सोशल मीडिया लेखन भी अच्छा विकल्प है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्थाओं से जुड़कर खाली समय का सदुपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा अब तक अगर अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को नज़रंदाज़ करते रहे हैं, तो उन पर ध्यान दीजिए। उचित चिकित्सकीय परामर्श लेकर खान-पान और जीवनशैली को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू की जा सकती है।योग और प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर सकते हैं। स्वास्थ्य का ध्यान रखना सबसे पहली आवश्यकता है ही ना! तो खुद को व्यस्त और मस्त रखना अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। कभी-कभी बच्चों से भी मिलना-जुलना करिए। उन्हें बुलाइए या आप उनके पास जा सकते हैं। आजकल तो दूर रहकर भी वीडियो कॉल जैसी सुविधाएँ हमें परस्पर जोड़े रखती हैं। ज़माने के बदलाव को समझते हुए, आत्मसात करते हुए बच्चों को दोस्त मानकर चलना ही बेहतर है। इससे भी बहुत सी घरेलू समस्याएँ सुलझ सकती हैं। उनके सलाहकार की बजाए सहयोगी बनेंगे तो आपको भी बदले में सहयोग ही मिलेगा। हो सके तो बचपन से ही उनकी आँखों में विदेश जाने का सपना न बोएँ। हम में से बहुत से माता-पिता ये भूल कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों की तरक्की में हम क्यों बाधा बनें? पर मुझे लगता है कि ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जब हम बच्चों को ज़िम्मेदार बनाने की बात सोचते हैं तो याद रखें उनकी एक ज़िम्मेदारी हम भी होते हैं। इसमें कोई शर्म या झिझक की बात नहीं है। देश में ही बच्चे दूर कहीं रहें तो मौके बेमौके आ-जा सकते हैं! पर विदेश से आने-जाने का हाल हम सब जानते-समझते हैं। और फिर कोविड महामारी ने भी यही समझाया है जो हम बचपन से सुनते आए हैं- “देख लिया हमने जग सारा, अपना घर है सबसे प्यारा।” किसी भी परिस्थितिवश … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द

अंतरद्वन्द

जीवन में हम जो चाहते हैं वो हमेशा हमें नहीं मिलता | फिर भी हम अपेक्षाओं का लबादा ओढ़े आगे बढ़ते जाते हैं .. खोखले होते रिश्तों को ढोते रहते हैं |इस परिधि को तोड़ कर एक नए आकाश की ओर बढ़ते कदम अतीत के अनुभव की कारा में बार -बार बंदी होते रहते हैं | आखिर कोई तो हल होगा .. अतीत और वर्तमान के इस अंतरद्वन्द का | आइए पढ़ें अतीत और वर्तमान के  उलझे धागों को सुलझाती, युवा कथाकार कविता सिंह की कहानी.. अंतरद्वन्द  कहानी से – देखें यू ट्यूब पर   “तुम भूलती जा रही हो कि तुम एक डॉक्टर हो, जिन्हें अपनी फीलिंग्स और इमोशन्स अपने घर रखकर क्लीनिक जाना चाहिए।” आज फिर मुझे गुमसुम बैठा देखकर दक्ष ने कहा। “तुम भी भूल रहे हो, मैं सिर्फ डॉक्टर नहीं बल्कि साइकोलॉजिस्ट हूँ, इन फीलिंग्स और इमोशन्स से ही अपने मरीजों के मन की तह तक पहुँच पाती हूँ।” “पागलों का इलाज करते-करते जो तुम अपने खोल में सिमटती जा रही हो ना, मुझे डर है किसी दिन तुम्हें ही किसी डॉक्टर की जरूरत ना पड़ जाए।” मेरा जवाब सुनकर उसने बहुत धीरे से कहा। “दक्ष! वो पागल नहीं हैं….” मैं भड़क गई। “लीव दिस… मैं तो मजाक कर रहा था। मैं मानता हूँ तुम इस शहर की जानी-मानी साइकोलोजिस्ट हो पर मेरी दोस्त भी तो हो.. भई! खाना ऑर्डर करो।” वेटर को हमारी तरफ आता देखकर वो मुस्कुराते हुए बोला। वो सच कह रहा था, मैं बाहर की दुनिया से कटने लगी थी। डिप्रेशन के बढ़ते मरीजों और उनके साथ लंबे-लंबे काउंसलिंग सैशन, उनके आँसू, उनकी हिचकियाँ अक्सर मेरे गले में मछली के कांटें जैसी फँस जाया करतीं। बाहरी दुनिया में कदम रखते ही अजीब-अजीब से ख्याल आने लगते हैं। चलते-फिरते लोगों में न जाने कितने ऐसे मुर्दे लोग हैं जो सम्बन्धों का शव कांधे पर लिए घूम रहे हैं। मुर्दे? हाँ मुर्दे ही होते हैं वो..चलते-फिरते और सांस लेते हुए। साँसों का बन्द होना ही मौत नहीं होती। बहुत करीब से देखा है ऐसों को इन दस सालों में..जो सम्बन्धों और उम्मीदों का गला तो नहीं घोंट पाते पर अपनी साँसों को खत्म करने की कोशिशें जरूर कर चुके होते हैं। “उफ्फ यार! फिर से शुरू हो गईं…ऑर्डर करो भई! वेटर वेट कर रहा..अच्छा छोड़ो मैं ही कर देता हूँ।” उसने मेनू लेते हुए कहा। कितने वक़्त के बाद मैं आज दक्ष के साथ डिनर पर बाहर निकली थी वो भी उसकी जबरदस्ती के कारण। “सॉरी स्वाति, मुझे तुमसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर कुछ समय से मैं तुममें जरूरत से ज्यादा बदलाव देख रहा हूँ।” वो बहुत गम्भीरता से बोला। मैंने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की- “ऐसी कोई बात नहीं दक्ष, थोड़ी थकान हो जाती है। अब खाना खाओ!”   आजकल बिस्तर पर लेटते ही मकड़ियां दिमाग में जाले बुनना शुरू कर देती हैं, और मैं उस जाले में फँसी मक्खी की तरह छटपटाती रह जाती हूँ। क्या सच में मैं अपने मरीजों के हालातों से खुद भी जूझने लगी हूँ? नहीं.. नहीं, शायद मैं अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही, केवल भागने की कोशिश कर रही। अनगिनत मरीज मेरे पास आने के बाद ठीक हुए हैं, फिर मैं क्यों नहीं मुक्त हो पाती? उफ्फ! मैं हर बार सर झटककर सोने की कोशिश करती हूँ पर कामयाब नहीं हो पाती। आज भी तो यही हुआ, कोई सामने बैठा जैसे मेरा ही अतीत मुझे सुना रहा था। मुझे चुपचाप एक कोने में बैठी दस साल की लड़की याद आने लगी। उसे पता था, तीन सालों में बहुत कुछ बदल गया है उसकी जिंदगी में। उसकी जिंदगी बदल गयी, उसके प्रति फैसले बदल गए, उसके पापा बदल गए…। जन्मदिन पर चुपचाप उदास बैठने की कोई खास वजह नहीं थी। मम्मी तैयारियाँ कर रही थीं जैसा कि उनके हिसाब से होना चाहिए। तीन साल पहले तक जैसा वो चाहती थी तैयारियां वैसी होती थीं। पापा दस दिन पहले से ही गिफ्ट के लिए पूछना शुरू कर देते। उस दिन सुबह ही उसे बाजार लेकर जाते, पूरे दिन मस्ती और शाम को बर्थडे पार्टी। मां अक्सर कहती थी- “बेटी है अधिक सर पे मत चढ़ाइए, अभी की बिगड़ी आदतें जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती हैं। कोई सर पर बैठाने वाला नहीं मिला तो जीवन दूभर हो जाएगा इसका।” हाँ, बेटियों के ‘रहनुमा’ बदलते जो रहते हैं उम्र के साथ-साथ। “चिंता क्यों करती हो! मेरी बिटिया मेरे पलकों पर रहेगी।” पापा की बात सुनकर मां अपना सर पीट लेती। मां एक बीमारी में चली गयी दुनिया छोड़कर। वो बहुत रोई थी, बच्ची ही तो थी.. धीरे-धीरे संतोष कर लिया उसने, उसके पापा तो साथ थे। फिर आईं मम्मी, मां जैसी तो नहीं पर बुरी भी नहीं। उसका और पापा का खूब ख्याल रखती। समझदार इतनी थीं कि उसे बिगाड़ने वाली मां की बात जो पापा कभी नहीं समझे मम्मी की यही बात वो कुछ महीनों में ही समझ गए। जिस घर में बिना उससे पूछे शाम का खाना नहीं बनता था अब मम्मी के हिसाब से हेल्थी खाना बनने लगा। पलकों पर बैठने वाले भूल जाते हैं कि पलक झपकते देर नहीं लगती। वो उम्र से पहले ही समझदार होने लगी थी। जल्द ही समझ गयी, अब फैसले पापा के नहीं मम्मी के हाथ में हैं। उसे किस चीज की जरूरत है ये अब वो नहीं मम्मी सोचती थीं। किस स्कूल में पढ़ना है, ट्यूशन की जरूरत है या नहीं। अब पढ़ाई पर ध्यान देना है उछल-कूद की उम्र खत्म हो रही है, आदि, आदि…। एक शाम मम्मी को तैयार होता देख वो भी अपनी सबसे पसंदीदा ड्रेस ढूँढने लगी थी। “वक़्त से खाना खा लेना गुड़िया! हम जल्दी आ जाएँगे।” मम्मी अपने बाल सँवारती बोलीं। उनकी बात सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरायी थी। वो जानती थी पापा उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकते। उसे हर जगह साथ लेकर जाने वाली आदत पर मां के साथ पापा की कितनी बार बहस हो जाती थी, फिर भी पापा मानते कहाँ थे। पर, मम्मी मां की तरह झगड़ती नहीं थीं, वो तो बहुत धीरे से समझाती थीं। पापा समझ गए कि बड़ी होती बेटी को हर जगह ले जाना उचित नहीं और … Read more

पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी

वो एक नदी

सागर से मिलने को आतुर नदी हरहराती हुई आगे बढ़ती जाती है, बीच में पड़ने वाले खेत खलिहान को समान भाव  से अपने स्नेह से सिंचित करते हुए | पर इस नदी में कभी बाढ़ आती है तो कभी सूखा भी पड़ता है | परंतु  वो ऐसी नदी नहीं थी, वो अपने दो पक्के किनारों के बीच अविरल बह रही थी .. भले हि कगार के वृक्ष मूक देख रहे हों | आस-पास से गुजरते पथिक प्रश्न उठा रहे हों, यहाँ  तक की उसके अंदर पली बढ़ी मछलियाँ भी उसके इस तरह बहने से आहत हों ? फिर भी वो बहती रही अपने ही वेग में अपने ही अंदाज में इस तरह की सारे प्रश्न स्वतः ही गिर गए | अस्वीकृति  को मौन स्वीकृति मिल गई और अस्वीकार को स्वीकार | आइए पढ़ते हैं   सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका आदरणीय पद्मश्री उषा किरण खान जी की बेहद सशक्त कहानी “वो एक नदी” | एक स्त्री की नदी से तुलना हमने कई बार सुनी है पर वो कुछ अलग ही थी .. वो एक नदी पद्मश्री उषा किरण खान की कहानी – वो एक नदी   जब कभी तुम्हारे बारे में कुछ सोचने बैठती हूँ तो दृष्टि अनायाम आकाश की ओर उठ जाती है। सफेद खरगोश की तरह दौड़ता चाँद दिखने लगता है, उसके पीछे  बादलों का झुंड पड़ा  दिखता है। लुकता-छिपता यह चाँद मुझे सचमुच नहीं दिखता, यह तो मैं अपने  मन के आकाश में देखती हूँ। ऐसा भी नहीं है कि आकाश मे  उन दृश्यों को देखकर मुझे तुम याद आती हो। नहीं, मैंने  कहा न, मैं  तुम्हारी याद आने पर ही उन वस्तुओं की कल्पना करने लगती हूँ जो कभी घटी थी। तुम्हें  क्या मालूम कि तुम्हारी  आज की इतनी-इतनी, सौन्दर्यबोध वाली माँ उन दिनों क्या कहती थी, कैसी लगती थी। श्यामा कुँअरि से श्यामा शर्मा होते जाने  की कहानी का तुम्हें कहाँ पता है? तीन भाईयों वाले जमींदार साहब के घर कई-कई पुश्तों के बाद जनमी पहली लड़की थी श्यामा। भक् गोरा रंग, बड़ी-बड़ी चमकती आँखें और सौन्दर्य के तमाम उपमानों की हेठी करती-सी उसके देहयष्टि देखकर कोई भी सोच सकता था कि इसका नाम श्यामा क्यों है। मुझे याद है, तुमने भी कई बार पूछा था। रेशमी  घघरी छोड़कर अभी साड़ी बाँधने ही लगी थी श्यामा कि उसकी शादी उच्च कुलीन बलदेव  से कर दी गयी थी। वही बलदेव, जो तुम्हारा पिता है और उसे  तुम बेहद-बेहद प्यार करती हो। आठ वर्षो की श्यामा थी, अठारह वर्षो का बलदेव था। कहीं संस्कृत विद्यालय में  पढ़ रहा था। श्यामा की ओर बलदेव भौंचक देखता रहता। श्यामा की शैतानियाँ बदस्तूर  कायम रहीं। वैसे ही आम की बगीची में जाकर। कोयल के सुर-में-सुर मिलाना, वैसे ही घर से दाल चावल-घी चुराकर ले जाना, कुम्हार के घर से हाँड़ी उठा लाना और कमलबाग में  आम की सूखी  टहनियों से ईटे  जोड़कर खिचड़ी पकाना। हर टोले की छोकरियाँ श्यामा की दोस्त हुआ करतीं। साथ-साथ खिचड़ी खाना और करिया झूमर खेल खेलना ढली साँझ तक चलता रहता आषाढ़ बीतने के बाद ताल-तलैया भर जाते , कमलबाग सूने  पड़ते । तब बंसी-बनास लेकर कीचड़े-कादों फलाँगती फिरती मिली हुइ छोटी मछलियों को खेत में ही पकाकर नमक मिर्च  के साथ चट कर जाती। अक्सर बूढ़ी  दादी के डाँट खाती किन्तु  उसकी भी परवाह नहीं करती। बड़ी-बुढ़ियां  अक्सर सिर पर हाथ ठोंककर कहतीं ‘‘अरी, यह तो बड़ी  बहरबटटू है,दिन भर वन-वन छिछियाती रहती है। घराने की नाक कटाएगी।’’ ‘‘क्या बताऊँ , यह तो बड़े घराने की कन्यादानी बेटी है। कौन क्या कहेगा? लेकिन हम जैसे छोटे घर की लड़कियो  को तो बिगाड़ कर रख देगी’’-दूसरी बूढ़ी  कहती और सोच में डूब जाती। पहले  बड़े  घराने  के लोग करते थे। बेटी के नाम धन-सम्पत्ति का भाग तो रहता ही था, मायके में रहकर खानदान भर पर रौब गाँठने का स्वार्जित अवसर भी स्वतःहाथ आ जाता था। तो तुम्हारी माँ श्यामा ऐसी ही कन्यादानी बेटी थी। तुम्हारा पिता बलदेव वैसा ही उच्चकुलीन दामाद था जो कई   और शादियाँ कर सकता था। तुम्हारे  पिता को पढने-लिखने  का कुछ अधिक ही शौक था। सो उन्होंनें  संस्कृत विद्यालय पास कर मेंडिकल स्कूल में दाखिला ले लिया था। कुऐं  की जगत पर ‘‘पाहुन, आप श्यामा कुँअरि को क्यों नहीं कुछ कहते?’’- एक दिन स्नान के बाद धोती पकड़ते खवासन ने कहा था। ‘‘ऊँ, क्या कहूँ?’’ चिहुँक उठे थे बलदेव। ‘‘यही, रन-वन छिछियाती रहती है।’’ ‘‘हें-हें-हें’’ -स्निग्ध हँसी हँस पड़े थे थे बलदेव। ‘‘घर में लोग तो है ही।’’ ‘‘फिर भी, आप स्वामी है।’’ ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है।’’ ‘‘हाँ सरकार। कहीं आपके कहने से सुधर जाए।’’ ‘‘कोइ बात नहीं, अभी बच्ची है, बड़ी होगी तो समझ जाएगी।’’ बातों के तार को छिन्न कर दिया उन्होंने । लेकिन उसी रात को जब छोटी काकी ने  नहला-धुलाकर चाटी-पाटी करके किशोरी की थी। मेडिकल में नाम लिखाने के बाद बलदेव  पहली बार ससुराल आये थे। छह माह में  ही श्यामा बड़ी लगने लगी थी। आते ही चहककर पास आ बैठी। आप इस बार बहुत दिनों के बाद आये । डॉक्टरी की पढ़ाई  शुरू हो गयी? बार रे। आप भी छुरी से घाव चीर डालिएगा, नौआ की तरह? प्रश्न-पर-प्रश्न दागती चली गयी श्यामा तब तक जब तक बलदेव ने उसे अपनी ओर खींच नहीं लिया। बोल-े ‘‘छोड़ो यह सब, पहले  यह बताओं कि अबकी कलमबाग में नीलम परी उतरी थी क्या?’’ ‘‘न, तो, किसने कहा? कैसे पता चला? तुम  नीलम परी को जानते तो क्या? झूठे।’’ आँखें मटका कर कहा था  श्यामा ने । “तुम्हीं  तो बताती थी, नीलम परी आती है, जादू  का डण्डा लाती है। जिस साल डण्डा फेरतीहै उस साल आम में बौर लगते है, नहीं, तो नहीं।’’-श्यामा ने सुनकर ठहाका लगाया था। ‘‘जानते हो, अब मैं  जान गयी हूँ, कोई परी-वरी नहीं आती है, वह तो धरती माता है, आकाश पिता है, जो आम के गाछों मे  बौर लगाते  हैं। ‘‘बस’’ -समझदारी से कहा। ‘‘लेकिन मेरा तो विश्वास बढ़ गया है नीलम परी के प्रति कि वह जरूर आती है बगीची में,जरूर  जादू की छड़ी फेरती है। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने  से सटाते  हुए कहा बलदेव ने। उसकी छड़ी अभी तुम्हारे ऊपर फिरी है।’’ अपने से सटाते हुए कहा बलदवे ने। सीने में सटाकर बलदवे ने जैसे ही दोनों … Read more