हमसाया

हमसाया

अंधेरी रात, सुनसान सड़क और एक अकेली लड़की .. ये पंक्तियाँ पढ़ते ही जब मन में एक भय तारी हो जाता है तो क्या बीतती होगी उस लड़की पर जो वास्तव में इन परिस्थितियों से गुजर रही हो ? क्या होता होगा जब ऐसे में कोई हमसाया बन उसका पीछा कर रहा हो | धड़कते दिल से मन -मन भर भारी हो चुके पैरों को आगे घसीटते हुए ना जाने कितने अखबारों की खौफनाक पंक्तियाँ याद आती होंगी |ऐसी ही मनोदशा से गुजरती एक लड़की की कहानी हमसाया       कुछ ही दिन हुए थे उस नए शहर में मुझे नौकरी ज्वाइन किये। हर दिन लगभग पांच-छः बजे मैं अपने ठिकाने यानि वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल पहुँच जाती थी। उस दिन कुछ जरुरी काम निपटाते मुझे देर हो गयी। माँ की सीख याद आई कि रात के वक़्त रिज़र्व ऑटो में अकेले न जाना, सो शेयर्ड ऑटो ले मैं हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। वह मुझे सड़क पर उतार आगे बढ़ गया, रात घिर आई थी, कोई नौ -साढ़े नौ होने को था। पक्की सड़क से हमारा हॉस्टल कोई आधा किलोमीटर अंदर गली में था।    अचानक गली के सूनेपन का दैत्य अपने पंजे गड़ाने लगा मानस पर। इक्के दुक्के लैंप पोस्ट नज़र आ रहें थें पर उनकी रौशनी मानो बीरबल की खिचड़ी ही पका रहीं थी। सामने पान वाले की गुमटी पर अलबत्ता कुछ रौशनी जरुर थी पर वहां कुछ लड़कों की मौजूदगी सिहरा रही थी जो जोर जोर से हंसते हुए माहौल को डरावना ही बना रहे थें। मैं सड़क पर गुमटी के विपरीत दिशा से नज़रें झुका जल्दी जल्दी पार होने लगी, “काश मैं अदृश्य हो जाऊं, कोई मुझे न देख पाए”,     कुछ ऐसे ही ख्याल मुझे आ रहें थें कि उनके समवेत ठहाकों ने मेरे होश उड़ा दिए। अचानक मैं मुड़ी तो देखा कि एक साया बिलकुल मेरे पीछे ही है। लम्बें -चौड़े डील डौल वाले उस शख्स को अपने इतने पास देख मेरे होश फाक्ता हो गएँ। घबरा कर मैंने पर्स को सीने से चिपका लिया और दौड़ने लगी। अब वह भी लम्बें डग भरता मेरे समांतर चलने लगा। अनिष्ट की आशंका से मन पानी-पानी होने लगा। “छोरियों को क्या जरुरत बाहर जा कर दूसरे शहर में नौकरी करने की”, दादी की चेतावनी अब याद आ रही थी। “दादी, सारी लडकियां आज कल पढ़-लिख कर पहले कुछ काम करतीं हैं तभी शादी करती हैं…”, इस दंभ की हवा निकल रही थी।  तभी एक कार बिलकुल मेरे पास आ कर धीमी हो गयी, जिसमें तेज म्यूजिक बज रहा था. दो लड़के शीशा नीचे कर कुछ अश्लील आमंत्रण से मेरे कान में पिघला शीशा डाल ही रहें थें कि उस हमसाये ने टार्च की रौशनी उनके चेहरे पर टिका दिया। शीशा ऊपर कर कार आगे बढ़ गयी। वह अब भी मेरे पीछे था, उसके टार्च की रौशनी मुझे राह दिखा रही थी पर उसके इरादे को सोच मैं पत्ते की तरह कांप रही थी।  “क्या देख रहा वह पीछे से रौशनी मार मुझ पर, शायद कार वाले इसके साथी होंगे और लौट कर आ ही रहे होगें ?”,  मैं अनिष्ट का अनुमान लगा ही रही थी कि तभी माँ का फ़ोन आ गया। “माँ, मैं बस पहुँचने वाली हूँ हॉस्टल, मुझे अब रौशनी दिखने लगी है….”, एक तरह से खुद को ही ढाढ़स बढाती मैं माँ से बातें करती कैंपस में प्रवेश कर गयी। तेजी से हाँफते मैं पहली मंजिल पर अपने रूम की तरफ दौड़ी। लगभग अर्ध बेहोशी हालत में बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी रूम मेट ने मुझे पानी पिलाया और एक साँस में मैं उस हमसाये की बात बता गयी जो मेरा पीछा करते गेट तक आ गया था. अब चौंकने की बारी मेरी थी,    “लगभग तीन महीने पहले इसी वर्किंग हॉस्टल के बगल घर में रजनी रहती थी। एक रात वह लौटी नहीं, अगले दिन सुबह गली की नुक्कड़ पर उसका क्षत-विक्षत लाश पाई गयी थी। ये उसके ही भाई हैं जो तब से हर रात गली में आने वाली हर अकेली लड़की को उसके ठिकाने तक पहुंचाते हैं”, सुनीला बोल रही थी और मैं रो रही थी. उठ कर खिड़की से देखा मेरा वह भला हमसाया दूर गली के अंधियारे में पीठ किये गुम हुए जा रहा था शायद किसी और लड़की को उसके ठिकाने तक सुरक्षित पहुँचाने. रीता गुप्ता   यह भी पढ़ें .. ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा कहानी -कडवाहट पागल औरत (कहानी ) आपको कहानी हमसाया कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें |

मंथरा

मंथरा

इतिहास साक्षी है कि केकैयी अपने पुत्र राम के प्रति अपार स्नेह भाव रखती थीं | पर उन को सौतेली माँ का दर्जा दिलाने में मंथरा की अहम भूमिका रही है | कबसे सौतेली माएँ कैकेयी के उपनाम का सहारा ले कर ताने झेलती रहीं हैं और मंथराएँ आजाद रहीं हैं | सौतेली सिद्ध होती माँ के पास मंथरा जरूर रही है पर जरूरी नहीं कि वह स्त्री ही हो | आइए जानते हैं वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी मंथरा .. मंथरा  इस बार हम पति-पत्नी मेरी स्टेप-मॉम की मृत्यु की सूचना पर इधर पापा के कस्बापुर आये हैं। “मंथरा अभी भी जमी हुई है,” हमारे गेट खोलने की आवाज़ पर बाहर के बरामदे में मालती के प्रकट होने पर विभा बुदबुदाती है। “यह मौका है क्या? तुम्हारे उस पुराने मज़ाक़ का?” मैं उस पर झल्लाता हूँ। मालती को परिवार में पापा लाये थे चार वर्ष पहले। ‘केयर-गिवर’ (टहलिनी) की एक एजेंसी के माध्यम से। इन्हीं स्टेप-मॉम की देखभाल के लिए। जो अपने डिमेन्शिया, मनोभ्रंश, के अंतर्गत अपनी स्मृति एवं चेतना तेज़ी से खो रही थीं। समय, स्थान अथवा व्यक्ति का उन्हें अकसर बोध न रहा करता। और अगली अपनी एक टिकान के दौरान विभा ने जब उन्हें न केवल अपने प्रसाधन, भोजन एवं औषधि ही के लिए बल्कि अपनी सूई-धागे की थैली से लेकर अपने निजी माल-मते की सँभाल तक के लिए मालती पर निर्भर पाया था तो वह बोल उठी थी, “कैकेयी अब अकेली नहीं। उसके साथ मंथरा भी आन जुटी है।” “पापा कहाँ हैं?” समीप पहुँच रही मालती से मैं पूछता हूँ। आज वह अपना एप्रन नहीं पहने है जिसकी आस्तीनें वह हमेशा ऊपर चढ़ाकर रखी रहती थी। उसकी साड़ी का पल्लू भी उसकी कमर में कसे होने के बजाय खुला है और हवा में लहरा रहा है-चरबीदार उसके कन्धों और स्थूल उसकी कमर को अपरिचित एक गोलाई और मांसलता प्रदान करते हुए। “वह नहा रहे हैं…” “नहाना तो मुझे भी है,” विभा पहियों वाला अपना सूटकेस मालती की ओर बढ़ा देती है। सोचती है पिछली बार की तरह इस बार भी मालती हमारा सामान हमारे कमरे में पहुँचा देगी। किन्तु मालती विभा के संकेत को नज़र-अन्दाज़ कर देती है और बरामदे के हाल वाले कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़कर उसे हमारे प्रवेश के लिए खोल देती है। बाहर के इस बरामदे में तीन दरवाज़े हैं। एक यह हाल-वाला, दूसरा पापा के क्लीनिक वाला और तीसरा उनके रोगियों के प्रतीक्षा-कक्ष का। विभा और मैं अपने-अपने सूटकेस के साथ हाल में दाखिल होते हैं। अन्दर गहरा सन्नाटा है। दोनों सोफ़ा-सेट और खाने की मेज़ अपनी कुर्सियों समेत जस-की-तस अपनी-अपनी सामान्य जगह पर विराजमान हैं। यहाँ मेरा अनुमान ग़लत साबित हो रहा है। रास्ते भर मेरी कल्पना अपनी स्टेप-मॉम की तस्वीर की बग़ल में जल रही अगरबत्ती और धूप के बीच मंत्रोच्चार सुन रहे पापा एवं उनके मित्रों की जमा भीड़ देखती रही थी। लगभग उसी दृश्य को दोहराती हुई जब आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व मेरी माँ की अंत्येष्टि क्रिया के बाद इसी हाल में शान्तिपाठ रखा गया था। और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस दिन माँ की स्मृति में अगरबत्ती जलाने वाले हाथ इन्हीं स्टेप-मॉम के रहे थे। “मौसी?” सम्बोधन के स्तर पर मेरी स्टेपमॉम मेरे लिए मौसी ही रही हैं। रिश्ते में वह मेरी मौसी थीं भी, माँ के ताऊ की बेटी। जो उन्हीं के घर पर पली बढ़ी थीं। कारण, माँ के यह ताऊ जब अपने तेइसवें वर्ष ही में विधुर हो गये तो उन्होंने दो साल की अपनी इस बच्ची को अपनी माँ की झोली में डालकर संन्यास ले लिया था। “अम्माजी बिजली की भट्टी में भस्म कर दी गयी हैं। उनका अस्थिकलश उनके कमरे में रखवाया गया है…।” आयु में मालती ज़रूर सैंतीस-वर्षीया मेरी स्टेप-मॉम से दो-चार बरस बड़ी ही रही होगी किन्तु पापा के आदेशानुसार घर में काम करने वालों के लिए वह ‘अम्माजी’ ही थीं। “हमारा कमरा तैयार है क्या?” विभा मालती से पूछती है। “तैयार हो चुका है,” मालती सिर हिलाती है। बैठक का पिछला दरवाज़ा एक लम्बे गलियारे में खुलता है जो अपने दोनों ओर बने दो-दो कमरों के दरवाज़े लिए है। बायीं ओर के कमरों में पहला रसोईघर है और दूसरा हमारा शयनकक्ष। जबकि दायीं ओर के कमरों में पहला कमरा गेस्टरूम रह चुका है किन्तु जिसे मालती के आने पर स्टेप-मॉम के काम में लाया जाता रहा है और जिसे विभा ने अपनी ठिठोली के अंतर्गत ‘सिक-रूम’ का नाम दे रखा है। जिस चौथे कमरे को यह गलियारा रास्ता देता है, कहने को वह पापा का शयनकक्ष है मगर पापा अब उसे कम ही उपयोग में लाते हैं। उसके स्थान पर उन्होंने घर के उस चौथे शयनकक्ष को अपने अधिकार में ले लिया है जो घर के बाक़ी कमरों से कटा हुआ है। मेरे विद्यार्थी जीवन में वह मेरा कमरा रहा है जिसमें मैंने अपनी उठती जवानी के अनेक स्मरणीय पल बिताये हैं। कुछ आर्द्र तो कुछ विस्फोटक। कुछ उर्वर तो कुछ उड़ाऊ। यह कमरा गलियारा पार करने पर आता है। उस बड़े घेरे के एक चौथाई भाग में, जिसका तीन-चौथाई भाग सभी का है। किसी भी एक के अधिकार में नहीं। इसमें एक तख़्त भी बिछा है और चार आराम-कुर्सियाँ भी। माँ और फिर बाद में अपने डिमेंशिया से पूर्व मेरी स्टेप-मॉम भी अपने दिन का और बहुत बार रात का भी अधिकांश समय यहीं बिताया करती थीं। स्वतंत्र रूप से : कभी अकेली और कभी टोली में। “तुम पहले हमें चाय पिलाओ, मालती।” हमारे कमरे की ओर अपना सूटकेस ठेल रही विभा को रसोई-घर का दरवाज़ा चाय की आवश्यकता का एहसास दिला जाता है। उधर मालती रसोई की ओर मुड़ती है तो इधर अपना सूटकेस गलियारे ही में छोड़कर मैं स्टेप-मॉम के कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ। उनका बिस्तर पहले की तरह बिछा है। बिना एक भी सिलवट लिए। मालती की सेवा-टहल में औपचारिक दक्षता की कमी कभी नहीं रही थी। हमेशा की तरह बिस्तर के बग़ल वाली बड़ी मेज़ पर दवाओं के विभिन्न डिब्बे अपनी अपनी व्यवस्थित क़तार में लगे हैं। धूल का उन पर एक भी कण ढूँढने पर भी नहीं मिल सकता। स्टेप-मॉम की पहियेदार वह कुर्सी आज ख़ाली है जिस पर वह मुझे मेरे … Read more

सुपारी

सुपारी

एक खूबसूरत कहावत है “नेकी कर दरिया में डाल ” क्योंकि हमारी नेकियों का हिसाब रखने वाला कोई है जो समय आने पर हमें हर मुश्किल सही से बचाता है | सुपारी कहानी सुपरिचित लेखिका हुस्न  तबस्सुम ‘‘निंहाँ‘‘जी की एक अनोखी कहानी है | एक तरफ तो ये एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा को दर्शाती है जो जीवन की तमाम विद्रूपताओं से परेशान हो स्वयं ही जीवन के उस पार की यात्रा करता है | उसकी छटपटाहट और बेचैनी में उसके अपने पराए हैं और पराए हितैषी  बन कर सामने आते है | बार-बार  क्यों होता है  ऐसा कि कोई एक तिनका उसे मृत्यु सागर में डूबने से बचा लेता है | आइए जानते हैं हुस्न  तबस्सुम‘‘निंहाँ‘‘ जी की  रहस्य और संवेदनाओं  से भारी कहानी सुपारी से .. सुपारी  ठीक रात के दो बजे सेठ नरोत्तम दास काली मण्डी पहुंचे। काली मण्डी, यानी कालू दादा का ठिया। खपरैल डाल कर बनाए गए तमाम छोटे-छोटे मिट्टी पुते घर। सभी आपस में मिले हुए और सारे मकानों को दोनों तरफ से घेरे हुए एक चैहद्दी। जैसे पूरी जगह को दोनों बाँहों में भरे हुए हो। अंत में बांस के बने हुए बड़े-बड़े गेट। गेट पर खड़े दो-चार प्रहरी। कह लो सुरक्षा गार्ड। जब सेठ नरोत्तम दास उधर बढ़े तो उन लोगों ने थाम लिया- ‘‘कहाँ घुसे जा रहे हो़…….पहले संदेसा भेजो अंदर, कहाँ से आए हो, क्या काम है?’’ ‘‘ मैं सेठ नरोत्तमदास हूँ, मुझे कालू दादा को सुपारी देनी है’’ ‘‘ठीक  है’’-कहते हुए उसने भीतर पुकारा- ‘‘अबे मन्नू उस्ताद से कहो सुपारी आई है’’ -कुछ देर बाद एक लड़का बाहर आया- ‘‘लड्डन भाई, सुपारी को भीतर उस्ताद ने बुलाया है।’’ ‘‘……….जाओ सेठ’’ -सेठ जी भीतर चले गए लड़के के साथ। कई दालान व बरामदे पार करने के बाद कालू दादा का कमरा दिखाई पड़ा। एक बड़ा सा हॉल जिस पर नीचे ही दीवान बिछा था और उस पर कालू दादा गाव तकिए के सहारे बैठा हुआ था। हुक्के की नाल उसके मुँह में थी और वह हुक्का गुड़गुड़ाए जा रहा था। लड़का उन्हें वहीं छोड़ कर बाहर से ही चला गया। कालू दादा ने उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया- ‘‘आओ सेठ जी इतनी रात गए कैसे आना हुआ। कुछ चाय पानी़………….’’ ‘‘ नहीं, कुछ नहीं’’-कहते हुए सेठ जी वहीं दीवान पर ही बैठ गए। ‘‘अच्छा बताओ, किस के दिन पूरे कर रहे हो? किस हरामी ने आपका जीना दुश्वार कर रखा है…….कल ही काम लगवाता हूँ ’’ ‘‘ठीक है  ये लो’’-कहते हुए सेठ ने उसकी ओर एक बैग बढ़ा दिया- ‘‘पूरे दस लाख हैं।’’ ‘‘दस लाख, किसकी जान इतनी मंहगी है सेठ, तुम्हारा काम तो पाँच लाख में ही हो जाएगा।‘‘ ‘‘……..नहीं रख लो’’ -सेठ के चेहरे पे अजब शून्यता और नारंगीपन था। चेहरे से नितांत हताशा टपक रही थी। जुबान बोलती कम थी लड़खड़ाती ज्यादह थी। अंतस बेजान हुआ जाता था। उनकी कैफियत समझ कर कालू दादा ने सांत्वना दी- ‘‘तुम नर्वस न हो सेठ। कोई नहीं जानेगा कि आप यहाँ आए हो। आप उस आदमी का नाम व पता बता दीजिए और निश्चिन्त हो जाईए। ‘‘ ‘‘…….उसका नाम’’ सेठ जी की जुबान फिर लड़खड़ाई। ‘‘हाँ….हाँ…बोलिए…..’’ कालू ने जेब से कलम निकाला और बाजू में पड़ी हुई एक पुरानी सी नोटबुक उठा ली। ‘‘दरअसल… दर…..असल….मुझे ही मारना है।‘‘ ‘‘हैं….ह…’’ कालू दादा के हाथ से पेन छूट गई और वह उछल पड़ा।- ‘‘सेठ जी आज कुछ ज्यादह चढ़ा ली है क्या….कमाल करते हो…’’ ‘‘ नहीं ……मैं पीता नहीं’’ ‘‘ तो?’’ ‘‘…..मैं सही कहता हूं। बिल्कुल होश में हूँ।’’  ‘‘ पर तुम्हें ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी कि तुम अपनी ही जान के दुश्मन बन बैठे हो। तुम उसका नाम बता दो जिसने तुम्हें इस हाल तक पहुँचाया है। मैं उसी को न खत्म कर डालूँ ‘‘ ‘‘नहीं….नहीं…ऐसा कभी मत करना कभी…’’ कालू दादा उसको देखता रह गया।  ‘‘असल में कालू दादा, मैं बहुत कायर  व्यक्ति हूँ। कई बार आत्महत्या की कोशिश की पर नाकाम रहा। अंत में ये सोंचा कि ये काम तुम्हें दे दूँ।’’ ‘‘मगर क्यूं सेठ ….क्यूँ……? वह लगभग तड़प कर बोला। ‘‘…ये मत पूछो, अपने काम से मतलब रखो। बस मुझे इस हाड़-मांस से मुक्ति दिला दो’’ ‘‘…ठीक है सेठ जी हो जाएगा काम। अब आप जाएं’’ -सेठ नरोत्तम दास उठे, कालू दादा भी उनके साथ खड़ा हो गया। बड़ी विनम्रता के साथ उनको नमन किया और एक लड़के को पुकार कर उन्हे गेट तक छोड़ने को कहा। =============================================== रात के बारह साढ़े बारह बजे होंगे। कुत्तों ने सुरताल मिलानी शुरु कर दी थी। यहाँ-वहाँ झींगुर भी बोल पड़ते थे। काली रात। भयावह सन्नाटा। कि तभी सेठ नरोत्तम दास की कोठी के पीछे हंगामा बरपा हो गया। सेठ नरोत्तम दास के चैकीदार एक काले भुजंग बदमाश तुल्य व्यक्ति को बुरी तरह पीट रहे थे। सेठ तक खबर लगने से पहले ही वह व्यक्ति तुड़ा-फुड़ा कर भाग खड़ा हुआ। =============================================== तीसरे दिन देर रात सेठ जी फिर काली मण्डी पहुंचे। कालू दादा वैसे ही दीवान पर पड़ा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। सेठ को देख कर उठ बैठा। सेठ जी ने आते ही रद्दा रखा- ‘‘यार किस बात के दादा हो, मेरा काम नहीं हुआ। आज तीसरा दिन है।’’ ‘‘…अरे सेठ जी क्या बात करते हो। काम तो हो ही जाता, पर आपने इतने गुर्गे पाल रखे हैं कि कोई मारना तो दूर आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता। उल्टे हमारे ही आदमी की अच्छी ठुंकाई कर दी सालों ने। उसकी मरहम-पट्टी करवानी पड़ी सो अलग।’’ -कालू दादा ने एक ही सांस में सफाई दे डाली। सेठ जी बगैर किसी औपचारिकता के उसके सामने उसी दीवान पर बैठ गए और शून्य निहारने लगे। दादा ने उन्हें कुरेदा- ‘‘सेठ जी , मगर ये बात हजम नहीं हो रही कि ऐसा भी क्या आन पड़ा….’’ कि सेठ जी ने दायां हाथ ऊपर उठा दिया- ‘‘नहीं कुछ भी नहीं….‘‘ कालू दादा चुप मार गए। कुछ देर इधर उधर खामोशी लहराती रही फिर कालू दादा ने ही खामोशी तोड़ी- ‘‘सेठ जी आप निश्चिंत हो कर जाएं। भगवान चाहेगा तो एक दो रोज में आपका काम जरुर हो जाएगा।‘‘  ‘‘देखो दादा, कोई जरुरी नहीं कि ये काम तुम्हारे कारिंदे सन्नाटेदार रातों में ही करें। बाहर चलते फिरते दिन दहाड़े कहीं भी … Read more

एक टीचर की डायरी – नव समाज को गढ़ते हाथों के परिश्रम के दस्तावेज

एक टीचर की डायरी

    “वो सवालों के दिन वो जवाबों की रातें” …जी हाँ, अपना बचपन याद आते ही जो चीजें शुरुआत में ही स्मृतियों के अँधेरे में बिजली सी चमकती हैं उनमें से एक है स्कूल | एक सी स्कूल ड्रेस पहन कर, दो चोटी करके स्कूल जाना और फिर साथ में पढना –लिखना, लंच शेयर करना, रूठना-मनाना और खिलखिलाना | आधी छुट्टी या पूरी छुट्टी की घंटी |  पूरे स्कूल जीवन के दौरान जो हमारे लिए सबसे ख़ास होते हैं वो होते हैं हमारे टीचर्स | वो हमें सिर्फ पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि गढ़ते भी है | टीचर का असर किसी बाल मन पर इतना होता है कि एक माँ के रूप में हम सब ने महसूस किया होगा कि बच्चों को पढ़ाते समय वो अक्सर अड़ जाते हैं, “ नहीं ये ऐसे ही होता है | हमारी टीचर ने बताया है | आप को कुछ नहीं आता |” अब आप लाख समझाती रहिये, “ऐसे भी हो सकता है” , पर बच्चे बात मानने को तैयार ही नहीं होते |   एक समय था जब हमारी शिक्षा प्रणाली में गुरु का महत्व अंकित था | कहा जाता था कि “गुरु गोविंद दोऊ खड़े ……” गुरु का स्थान ईश्वर से भी पहले है | परन्तु धीरे –धीरे शिक्षा संस्थानों को भी बाजारवाद ने अपने में लपेटे में ले लिया | शिक्षा एक व्यवसाय में बदल गयी और शिक्षण एक प्रोफेशन में | गुरु शिष्य के रिश्तों में अंतर आया, और श्रद्धा में कमी | बात ये भी सही है कि जब हम किसी काम पर ऊँगली उठाते हैं तो इसमें वो लोग भी  फँसते हैं जो पूरी श्रद्धा से अपना काम कर रहे होते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनीयर, सरकारी कर्मचारी और शिक्षक | क्या हम दावे से कह सकते हैं कि हमें आज तक कोई ऐसा डॉक्टर नहीं मिला , सरकारी कर्मचारी…आदि  नहीं मिला जिसने नियम कानून से परे जा कर भी सहायता ना करी हो | अगर हम ऐसा कह रहे हैं तो झूठ बोल रहे हैं या कृतघ्न हैं | अगर टीचर्स के बारे में आप सोचे तो पायेंगे कि ना जाने कितनी टीचर्स आज भी आपके जेहन दर्पण में अपनी स्नेहमयी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार छवि के रूप में प्रतिबिंबित हो रही होंगी | कितनी टीचर्स के कहे हुए वाक्य आपके जीवन सागर में लडखडाती नाव के लिए पतवार बने होंगे , तो कितने अँधेरे के दीपक | कितनी बार कोई टीचर अचनाक्ज से मिल गया होगा तो सर श्रद्धा सेझुक गया होगा |   अगर हम टीचर्स की बात करें तो इससे बेहतर कोई प्रोफेशन नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षा के २० -२२ वर्ष पूरे करते समय हर विद्यार्थी का नाता स्कूल, कॉलेज से रहता है | समय पर जाना –आना, नियम, अनुशासन यानि एक ख़ास दिनचर्या की आदत पड़ जाती है | टीचर्स को नौकरी लगते ही अपने वातावरण में कोई खास बदलाव महसूस नहीं होता और ना ही नए माहौल से तारतम्य बनाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है | सबसे खास बात जहाँ और प्रोफेशंस में बदमिजाज, बददिमाग, प्रतिस्पर्द्धी लोगों से जूझना होता है वहीँ यहाँ मासूम नवांकुरों से जिनके भोले मन ईश्वर के बैलेंसिंग एक्ट के तहत सारी दुनिया की नकारात्मकता को साध रहे होते हैं |   ये तो हुई हमारी आपकी बात …एक टीचर क्या सोचता/सोचती  है …जिस पर जिम्मेदारी है कच्ची मिटटी में ऐसे बीज रोपने की जो कल छायादार वृक्ष बने | उसका काम केवल बीज रोप देना ही नहीं, उसे ये सुनिश्चित भी करना है कि हर दिन उन्हें धूप , हवा, पानी सब मिले | एक शिक्षक वो कृषक है जिसके रोप बीज २० -२२ साल बाद पल्लवित, पुष्पित होते हैं | जरूरी है अथक परिश्रम, असीम धैर्य, जरूरी है मन में उपजने वाली खर-पतवार  को निकालना, बाहरी दुष्प्रभावों से रक्षा करना | क्या ये केवल  सम्बंधित पीरियड की घंटी बजने से दोबारा घंटी बजने तक का साथ है | नहीं …ये एक अनवरत साधना है | इस साधना को साधने वाले साधक टीचर्स के बारे में हमें पता चलता है “एक टीचर की डायरी से” प्रभात प्रकशन से प्रकाशित इस किताब में भावना जी ने अपने शिक्षक रूप में आने वाली चुनौतियों, संघर्षों, स्नेह और सम्मान सबको अंकित किया है | पन्ना –पन्ना आगे बढ़ते हुए पाठक एक नए संसार में प्रवेश करता है जहाँ कोई शिष्य नहीं बल्कि पाठक, शिक्षक की ऊँगली थाम कर कौतुहल से देखता है लगन, त्याग और कर्तव्य निष्ठा के प्रसंगों को |   भावना जी को मैं एक मित्र, एक सशक्त लेखिका के रूप में जानती रही हूँ पर इस किताब को पढने के बाद उनके कर्तव्यनिष्ठ व् स्नेहमयी  शिक्षक व् ईमानदार नागरिक, एक अच्छी इंसान  होने के बारे में जानकार अतीव हर्ष हुआ है | कई पृष्ठों पर मैं मौन हो कर सोचती रह गयी कि उन्होंने कितने अच्छे तरीके से इस समस्या का सामाधान किया है | इस किताब ने मुझे कई जगह झकझोर दिया जहाँ माता –पिता साफ़ –साफ़ दोषी नज़र आये | जैसे की “रिजल्ट” में | बच्ची गणित में पास नहीं हुई है पर माता पिता को चिंता इस बात की है कि उन दो लाख रुपयों का क्या होगा जो उन्होंने फिटजी की कोचिंग में जमा करवाए हैं … “पर मिस्टर वर्मा ! सोनम शुरू से मैथ्स में कमजोर है, आपने सोचा कैसे कि वो आई आई टी में जायेगी ?” “ नहीं मिस वो जानती है कि उसे आई आई टी क्लीयर करना है | मैं उसे डराने के लिए धमकी दे चूका हूँ कि अगर दसवीं में ९० प्रतिशत से कम नंबर आये …तो मैं सुसाइड कर लूँगा …फिर भी ..|” हम इस विषय पर कई बार बात कर चुके हैं कि माता –पिता अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर डाल रहे हैं | पर शिक्षकों को रोज ऐसे माता –पिता से दो-चार होना पड़ता होगा | उनकी काउंसिलिंग भी नहीं की जा सकती | सारे शिष्टाचार बरतते हुए उन्हें सामझाना किता दुष्कर है |   “अंगूठी” एक ऐसी बच्ची का किस्सा है जो शरारती है | टीचर उसे सुधारना चाहती है पर उसकी उदंडता बढती जा रही है | और एक दिन वह अपनी सहपाठिन से ऐसा कठोर शब्द ख … Read more

गेस्ट रूम

गेस्ट रूम

गेस्ट रूम यानि मेहमानों का कमरा |आजकल के घरों में बनाया जाने वाला एक आवश्यक कमरा है |जहाँ मेहमानों को आराम से रहने को मिल सके पर क्या इसमें अपनेपन  का वो एहसास राहत है जो अगल-बगल खटिया डाल कर तारे गिनने में होता है | पराए होते अपने रिश्तों की डॉ. रंजना  जायसवाल जी यथार्थपरक कहानी गेस्ट रूम   “रामदीन साहब का सामान गेस्ट रूम रख दो।”   “जी साहब!!!…”   विजय चाचा प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे। गाड़ी,बंगला लाल बत्ती गाड़ी….सब कुछ था।जब भी वो सफारी सूट पहने लाल बत्ती गाड़ी से गाँव आते…. बाबू जी की जी जुड़ा जाता।   बाबा दादी के स्वर्ग सिधारने के बाद बाबू जी और अम्मा ने चाचा जी को औलाद की तरह पाला था। चाचा जी भी उन्हें कम आदर नहीं देते थे।बाबू जी हर साल एक बार तो चाचा जी के पास जरूर जाते…पर पता नहीं क्यों माँ का उत्साह चाचा जी के घर जाने के नाम कपूर की तरह उड़ जाता।   ऐसा नहीं था कि चाची जी उन्हें मान-सम्मान नहीं देती थी।जब भी चाचा जी का परिवार घर आता तो माँ उनकी सेवा-सत्कार में बिछ सी जाती ।   चाचा जी अम्मा से लाड़ लड़ाने से बाज नहीं आते।अम्मा कहती रह जाती …तुम्हारा कमरा साफ करवा दिया है पर चाचा बड़े वाले कमरें में गद्दे बिछवा कर सब बच्चों के साथ वही लेट जाते।   “इतना बड़ा अफ़सर हो गया है पर इसका बचपना नहीं जा रहा…”   “आपके लिए तो विजु ही हूँ न…”   चाचा जी अम्मा की गोद में सर रख कर लेट जाते। चाची जी आँचल की ओट से देवर -भाभी का प्यार देख मुस्कुराती रहती।   ” विजु हमारे पेट से पैदा नहीं हुए बस …अपनी संतान से कभी कम नहीं समझा।ब्याह कर आये थे बारह बरस के थे…उसकी पसन्द-नापसंद हमसे बेहतर कोई नहीं जानता।”   अम्मा कहते-कहते न जाने कहाँ खो जाती…ये बाते अम्मा हमसे कितनी बार कह चुकी थी पर चाचा की बात आती तो उनकी पलके सहज ही सजल हो जाती…   “वो क्या जाने माँ …उसके लिए तो हम ही भाभी …हम ही माँ…”   चाचा जी भी कही भी घूमने जाते तो अम्मा के लिए साड़ी लाना नहीं भूलते। कितना मजा आता था चाचा जी के घर…घर के हर कमरे में मेज पर घण्टी रखी रहती थी। एक घण्टी दबाओ तो सफेद पैंट शर्ट पहने आदमी खिदमत में हाजिर हो जाता था।    “बहन जी!!…कुछ चाहिए??”   और हम भाई-बहन एक पल के लिए सकपका से जाते…   ” भैया !!…चाची जी कहाँ है।”   ” मैडम जी!!! …वो बड़ी मैडम जी के साथ बगीचे में बैठी है।”   चाचा जी सरकारी बंगले में रहते थे…एकदम फिल्मों की तरह था चाचा जी का बंगला।बंगले में दो तरफ गेट लगे थे…सफेद रंग की अम्बेसडर में चाचा जी ड्राइवर की पीछे वाली सीट पर बैठते थे। लाल झब्बेदार कपड़े में चपरासी हाथों में फाइलों का पुलिंदा लिए आगे वाली सीट पर बैठता था। जब चाचा जी ऑफिस निकलने के लिए कार की तरफ बढ़ते, तब कार का दरवाजा सिपाही खोलता था और एक जोरदार सलाम ठोकता   “जय हिंद सर!!…”   कितना रोमांचक और खूबसूरत था ये सब… एक सपनें की तरह…ऐसा सपना जो कभी खत्म न हो। बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा था जहां गेरुए रंग से रंगे गमलों में गुलदाऊदी, गेंदे और गुलाब के फूल मुस्कुराते रहते थे। लाल-सफेद रंग के ईंटो से बनी मेड के आगे कालीन की तरह बिछी मुलायम घास पर पैर देने में भी संकोच होता था।बंगले के पीछे खेती थी….चाचा जी के परिवार की जरूरत के हिसाब से अनाज भी निकल आता था।…पर माँ तो माँ ही थी गाँव मे अच्छी-खासी खेती थी। माँ हर बार गाड़ी में गेंहू ,चावल,प्याज,आलू की बोरियाँ लाद-फांद कर चाचा जी के घर पहुँचती थी। चाचा जी के शान-शौकत को देखकर वो सकुचा जाती …कही उन्होंने गलती तो नहीं कर दी।   चाचा जी की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं थी…हम जब भी चाचा जी के घर से लौटते चाची जी फल,मिठाई कपड़ों से गाड़ी भर देती।बाबू जी, चाचा जी का रौब-दाब देख कर निहाल हो जाते। उनका छोटा सा विजु कब इतना बड़ा हो गया…उनकी आँखें बरबस भर-भर जाती।   चाचा जी के घर से वापस लौटने पर भी कई दिनों तक बाबू जी का चाचा पुराण चलता रहता….पर माँ की आँखों में एक अजीब सी खामोशी तैर जाती।    “अजी सुनती हो विजु का फोन आया था…अगले हफ्ते गाड़ी भेजेगा।सबको बुलाया है…अगले महीने उसकी ट्रेनिग है इसलिए बहू को मायके भेज देगा…बोल रहा था…इस बार चित्रकूट और बिठूर भी चलेंगे। गेस्ट हाउस में इंतजाम हो जाएगा एक-दो दिन आराम से रहा जायेगा।”   बाबू जी अपनी रौ में बोले जा रहे थे और अम्मा अपनी ही उधेड़बुन में थी।   ” पीहू के बाबू जी हर बार ही तो जाते है …इस बार रहने दो अगले साल चले चलेंगे।”   “क्यों???…क्या हुआ पिछली बार भी तो तुम्हारी तबीयत की वजह से जा नहीं पाए थे। दिक्कत क्या है…”   “कुछ मन नहीं कर रहा।”   “चलो न अम्मा…कितना मजा आता है वहाँ”   अम्मा की मनाही से पीहू और पवन का चेहरा उतर गया,   ” देखो न बच्चे भी कही नहीं जा पाते इसी बहाने उनका भी निकलना हो जाएगा…एक जगह रहते-रहते तुम्हारा भी मन ऊब जाता है …हवा-पानी बदलेगा तो तबीयत भी सुधर जाएगी।”   बाबू जी ने दलील दी।   “वहाँ वो उस कमरे में ठहरा देता है…!!!”   अम्मा ने अस्फुट स्वर में कहा,   ” क्या खराबी है उस गेस्ट रूम में…इतना बड़ा कमरा है अपना तो पूरा घर समा जाए।मुझे तो कभी-कभी बड़ी शर्म आती है कि बहू कैसे अपने आप को यहाँ एडजस्ट करती होगी…विजु का तो खैर ये घर ही है…”   अम्मा की निगाहें फर्श की तरफ कुछ ढूंढती रही,वो लगातार पैर के नाखून से फर्श को कुरेद रही थी…उनके मन मे बहुत कुछ था जिसे वो कुरेद-कुरेद कर निकालना चाहती थी पर…,    “चारों तरफ खिड़की,सोफा, कालीन,ए. सी. और वो गद्देदार बिस्तर …एक घण्टी पर नौकर- चाकर सेवा के लिए हाजिर हो जाते हैं। यहाँ आकर तो बहू को तुम्हारे साथ चौके में … Read more

जया आनंद की कविताएँ

जया आनंद की कविताएँ

कविता मन की अभिव्यक्ति है | जया आनंद की कविताएँ उस स्त्री की आवाज है जो आकाश छूना चाहती है| वहीं धरती से जुड़े रह कर अपने स्नेह से रिश्तों की जमीन को भी सींचना  चाहती हैं | कहीं न कहीं हर स्त्री इन दो को थामने साधने के प्रयास  में हैं | आइए पढ़ें .. जया आनंद की कविताएँ छूना चाहती हूँ आकाश पर धरती से नापना चाहती हूँ ऊंचाई पर आधार नहीं खोना चाहती उड़ना चाहती हूँ पर बिखरना नही चाहती होना चाहती हूँ मुक्त पर बंधन नही तोडना चाहती होना चाहती हूँ व्यक्त पर परिधि नहीं लांघना चाहती ……. देखती हूँ मेरा न चाहना मेरे चाहने से अधिक प्रबल है और फिर मेरा न चाहना भी तो मेरा चाहना ही है इसलिए शायद मेरे सवालों का मेरे पास ही हल है #डॉ जया आनंद ढाईअक्षर का अधूरा सा शब्द ‘स्नेह’ पर कितना पूरा इसकी परिधि में है विचारों की ऊँचाई भावनाओं की गहराई नेहिल मुस्कान सजल  दृष्टि कोमल अभिव्यक्ति सहज अनुभूति आशीषों की वृष्टिे बीते पल जीये गीत सुनहरे सपने हमारे अपने … सच !स्नेह शब्द अधूरा कहाँ यह तो पूरा है । #डॉ जया आनंद अटल बिहारी बाजपेयी की पाँच कवितायें जाने कितनी सारी बातें मैं कहते कहते रह जाती हूँ शहीद दिवस पर कविता डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ. आपको जया आनंद की कविताएँ कैसी लगीं | हमें अवश्य बताएँ | अटूट बंधन  का फेसबूक पेज लाइक करें व atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें |ताकि रचनाएँ सीधे आप तक पहुँच सकें |

अष्टावक्र गीता -3 

अष्टावक्र गीता -3

अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में | अष्टावक्र गीता -3  कभी आप अपने गाँव या सुदूर क्षेत्रों में जरूर गए होंगे | देश के ऐसे कई अंदरूनी इलाके हैं जहाँ सड़क भी नहीं है तो हवाई जहाज तो क्या जीप भी नहीं जा सकती | मान लीजिए आप को  किसी सुदूर इलाके में जाना है |ऐसे में जब आप अपनी यात्रा  प्लान करते हैं तो इस तरह से करते हैं पहले दिल्ली से से नजदीक के हवाई अड्डे तक की फ्लाइट फिर वहाँ से उस गाँव तक की ट्रेन फिर गाँव के पास तक बस फिर बैलगाड़ी ,फिर थोड़ा पैदल | इस तरह से आप की यात्रा पूरी होती है | ऐसे में आप ये नहीं कहने लगते की ये हवाई जहाज या ये ट्रेन या ये बस मेरी है .. या उससे भी बढ़कर ये हवाई जहाज या ट्रेन या बस मैं हूँ | हमको पता होता है कि मैं यात्रा पर हूँ और ये सब साधन मात्र है जिनके द्वारा यात्रा की जा रही है | ऐसे ही हमारी आत्मा अनंत यात्रा पर निकली है | विभिन्न जन्मों में विभिन्न रूप नाम युक्त शरीर बस साधन मात्र हैं जिससे ये यात्रा पूरी होगी | उसे मैं या  मेरा मान लेना ही समस्त दुखों की जड़ है | अष्टावक्र गीता के साथ हम परमात्मा (आत्म तत्व )को खोजने वाली ऐसी ही यात्रा पर निकलेंगे |  इस यात्रा की खूबसूरती ये है कि इसके लिए न हमें मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद न गुरुद्वारे न ही और किसी पूजा स्थल | इसके लिए न किसी धूप दीप फूल पट्टी की आवश्यकता है ना किसी कर्मकांड की | क्योंकि अष्टावक्र जी ने स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ये मंदिर मस्जिद जाने वाला , ये धूप बत्ती जलाने वाला , ये धार्मिक अनुष्ठान करने वाला ही   परमात्मा है | एक बच्चा जब अपने पिता के साथ लूडो या सांप -सीधी खेलता है तो जीतने के लिए पूरा कौशल लगा देता है |उसके लिए हार या जीत बहुत मायने रखती है | वही बच्चा एक दिन बड़ा होकर जब अपने बच्चे के साथ खेलता है तो जानबूझकर हारता है |हारते हुए भी मुसकुराता है |क्योंकि वो जान गया है की ये तो बस खेल है | वो बोध जो बचपन में नहीं था वो बड़े पर हो गया | यही बोध अगर हमें हो जाए कि परमात्मा (मैं )इस संसार के खेल को खेलने निकला है तो सारी सफरिंगस समाप्त हो जाएंगी | सुख -दुख मान  अपमान खेल लगने लगेंगे | बोध बस इतना होना  है कि इन अनुभवों को लेने के लिए शरीर रूपी रथ पर सवार होने वाला परमात्मा ही है | अष्टावक्र गीता -तत्वमसि  जो तुम हो वही मैं हूँ | जिस प्रकार व्यक्ति बिना दर्पण के अपना चेहरा नहीं देख सकता | उसी प्रकार परमात्मा अपनी ही बनाई या अपने से ही उत्पन्न हुई इस सृष्टि को जानने समझने अनुभव करने हेतु विभिन्न जड़ और चेतन स्वरूपों में विद्धमान है | इसलिए पेड़ हो , इंसान हो या मामूली कंकण पत्थर सबके अंदर दृष्टा रूप में परमात्मा ही है | इस गोचर और अगोचर सृष्टि में परमात्मा के अतरिक्त कुछ है ही नहीं | केवल उसे मैं या मेरा मान  लेना ही सारी सफरिंगस की जड़ है | जैसे एक बिजली के तार से बहुत सारे बल्ब जुड़े हुए है | कोई बल्ब फ्यूज है वो प्रकाशित नहीं हो रहा है पर उसमें भी बिजली जा रही है | जो प्रक्षित हो रहे हैं उनमें भी बिजली ही जा रही है | यहाँ बल्ब का रोशन होना या न होंना  जड़ और चेतन के रूप में समझ सकते है | सृष्टा दोनों में है |कहीं कुछ भिन्न है ही नहीं | अपने भौतिक स्वभाव के कारण ही वो कहीं  जड़ तो कहीं चेतन रूप में दिख रहा है | यानि मेरे अंदर और बाहर सब कुछ परमात्मा ही है या अंदर से ले कर बाहर तक मैं ही सब जगह व्याप्त हूँ |तो मेरा तेरा के सारे झगड़े और दोष समाप्त हो जाते हैं |  अष्टावक्र के अनुसार अगर ये बात अभी इसी क्षण समझ लो .. तो अभी इसी क्षण से मुक्ति है | आज जब सबसे ज्यादा झगड़े धर्म जाति और संप्रदाय के कारण ही होते हैं |सबसे ज्यादा रक्तपात इसी कारण होता है तो अष्टावक्र गीता को समझ लेना ,आत्मसात कर लेना इन सब झगड़ों को मिटा सकता है |और इस शरीर में रहते हुए भी परमानन्द प्राप्त किया जा सकता है | यहाँ पर सबसे पहले ये समझना होगा की सुख और आनंद अलग अलग है  सुख एक क्षणिक भाव है और आनंद हमेशा रहने वाला | सुख का कारण बताया जा सकता है | आनंद का नहीं |सुख के बाद दुख आना निश्चित है पर आनंद ठहर जाता है | सुख और आनंद की यात्रा में उलझे व्यक्ति के आधार पर तीन भागों में बांटा जासकता है| सामान्य व्यक्ति -जिसने मान  लिया है की सुख बाहर है | वो सुख और दुख की यात्रा में निमग्न रहता है |वो अभी स्टेशन पर ही बैठ है |इस प्रकार के व्यक्ति को संसारी भी  कह सकते हैं | सन्यासी -जो समझता है कि सुख अंदर है पर इस बात को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है |जरूरी नहीं ये व्यक्ति सन्यासी भेष धरण करे | उसका मन से सन्यासी होंना  पर्याप्त है | ज्ञानी _जिसने  इस ज्ञान को आत्मसात कर लिया है |जिसका सुख अब अंदर से आ रहा है |यहाँ दुख है ही नहीं |सुख और दुख मन के आनंद सागर में उठने वाली लहरें मात्र है | कृष्ण के सारे पुत्र गांधारी के … Read more

कल्पना मनोरमा की कविताएँ

कल्पना मनोरमा

 कल्पना मनोरमा जी एक शिक्षिका हैं और उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वो आम जीवन की बात करते हुए कोई न कोई गंभीर शिक्षा भी दे देती हैं | कभी आप उस शिक्षा पर इतराते हैं तो कभी आँसुन भर कर पछताते भी हैं कि पहले ये बात क्यों न समझ पाए | अम्मा पर कविता 90 पार स्त्री के जीवन की इच्छाओं को दर्शाती है तो देर हुई घिर आई साँझ उम्र की संध्या वेल में जड़ों  को तलाशते मन की वापसी है | तो आइए पढ़ें कल्पना मनोरमा  जी की कविताएँ …. कल्पना मनोरमा की कविताएँ नुस्खे उनके पास जरूरी तुनक मिज़ाजी की मत पूछो हँस देते, वे रोते-रोते। इसके-उसके सबके हैं वे बस सच कहने में डरते हैं सम्मुख रहते तने-तने से झुक, बाद चिरौरी करते हैं क्या बोलें क्या रखें छिपाकर रुक जाते वे कहते-कहते।। ठेल सकें तो ठेलें पर्वत वादों की क्या बात कहेंगे कूदो-फाँदो मर्जी हो जो वे तो अपनी गैल चलेंगे नुस्खे उनके पास जरूरी बाँधेंगे वे रुकते-रुकते ।। यारों के हैं यार बड़े वे काम पड़े तो छिप जाते हैं चैन प्राप्त कर लोगे जब तुम मिलने सजधज वे आते हैं नब्बे डिग्री पर सिर उनका मिल सकते हो बचते-बचते।। -कल्पना मनोरमा पुल माटी के टूट रहे पुल माटी के थे उजड़ गये जो तगड़े थे | नई पतंगें लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी, थे जिन पर मांझे कच्चे दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी छूट गये वे लँगड़े थे || महँगी गेंद नहीं होती है, होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मँगा पायी लहँगा थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरज़रूरी बने काम सब चाहत वाले बिगड़े थे || -कल्पना मनोरमा  अम्मा नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा मचलन कैसे बची रह गई।। नींबू,आम ,अचार मुरब्बा लाकर रख देती हूँ सब कुछ लेकिन अम्मा कहतीं उनको रोटी का छिलका खाना था दौड़-भाग कर लाती छिलका लाकर जब उनको देती हूँ नमक चाट उठ जातीं,कहतीं हमको तो जामुन खाना था।। जर्जर महल झुकीं महराबें ठनगन कैसे बची रह गई।। गद्दा ,तकिया चादर लेकर बिस्तर कर देती हूँ झुक कर पीठ फेर कर कहतीं अम्मा हमको खटिया पर सोना था गाँव-शहर मझयाये चलकर खटिया डाली उनके आगे बेंत उठा पाटी पर पटका बोलीं तख़्ते पर सोना था बाली, बल की खोई कब से लटकन कैसे बची रह गई।। फगुनाई में गातीं कजरी हँसते हँसते रो पड़ती हैं पूछो यदि क्या बात हो गई अम्मा थोड़ा और बिखरती पाँव दबाती सिर खुजलाती शायद अम्मा कह दें मन की बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर धीरे-धीरे खूब बिसुरती जमी हुईं परतों के भीतर विचलन कैसे बची रह गई? -कल्पना मनोरमा देर हुई घिर आई सांझा उड़ने लगीं हवा में तितली याद हमें हो आई घर की ।। समझ-समझकर जिसकोअपना लीपा -पोता खूब सजाया अपना बनकर रहा न वो भी धक्का दे मन में मुस्काया देर हुई घिर आई साँझा याद हमें हो आई घर की।। चली पालकी छूटी देहरी बिना पता के जीवन रोया अक्षत देहरी बीच धराकर माँ ने अपना हाथ छुड़ाया चटकी डाल उड़ी जब चिड़या याद हमें हो आई घर की।। पता मिला था जिस आँगन का उसने भी ना अंग लगया राजा -राजकुमारों के घर जब सोई तब झटक जगाया तुलसी बौराई जब मन की याद हमें हो आई घर की।। -कल्पना मनोरमा लेकिन पंख बचाना चिड़िया रानी उड़कर जीभर, लाना मीठा दाना लेकिन पंख बचाना।। राजा की अंगनाई, मटका पुराना है प्यास-प्यास जीवन का, अंत हीन गाना है मेघों की छाती में सोता है पानी का लेकिन वह बंधक है फूलमती रानी का लेकर हिम्मत अपने मन में मेधी जल पी आना लेकिन पंख बचाना।। पिंजरे में बैठा जो सुगना सयाना है राम राम कह,खाता मक्की का दाना है जुण्डी की बाली में दुद्धी चबेना है उसपर भी लेकिन पड़े जान देना है आँखों के आगे से चुनकर लाना सच्चा दाना लेकिन पंख बचाना।। -कल्पना मनोरमा यह भी पढ़ें …. यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें किरण सिंह की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायेँ मनीषा जैन की कवितायें आपको  “कल्पना मनोरमा की कविताएँ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी

archana anupriya

  अंग्रेजी में एक कहावत है- “God helps those,who help themselves”यानि, ईश्वर भी उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद कर सकता है। अंग्रेजी की यह कहावत आत्मनिर्भरता की संकल्पना सामने लाती है। व्यक्ति या देश जब अपनी क्षमताओं और अपने प्रयत्नों पर आश्रित होकर कार्य करता है,किसी अन्य के सहारे या किसी अन्य पर निर्भर रहने की उसे जब आवश्यकता नहीं होती है, तब वह व्यक्ति या देश आत्मनिर्भर कहलाता है। ‘आत्मनिर्भरता’या ‘स्वावलंबन’ किसी भी काल में किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के लिए अनमोल धरोहर है। “आत्मनिर्भरता- कितनी जरूरी” आत्मनिर्भरता का अर्थ है – खुद के ऊपर निर्भर होना, स्वयं पर विश्वास रखना अर्थात् भाग्य या दूसरों के सहारे न बैठकर अपनी क्षमताओं का विकास करना। अब सवाल उठता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,तो एक दूसरे के साथ रहकर एक दूसरे के काम आना उसका स्वभाव भी है और जरूरत भी, तब ऐसे में, सारा काम वह अपनी क्षमताओं के आधार पर स्वयं ही कर ले, तभी पूर्णतया आत्मनिर्भर कहलाएगा, तो क्या यह संभव है? कदापि नहीं । एक ही आदमी सारे सामान पैदा करना, बनाना, खरीदना,उपभोग करना-सब कैसे कर सकता है ? एक दूसरे की सहायता की जरूरत तो पड़ेगी ही। कोई खाद्य सामग्री बनाएगा तो कोई रहन-सहन की व्यवस्था करेगा, कोई सुरक्षा का जिम्मा लेगा तो कोई यातायात की व्यवस्था करेगा, कोई प्रशासन देखेगाऔर कोई अर्थ की व्यवस्था करेगा… कहने का तात्पर्य है कि एक दूसरे का सहयोग अनिवार्य है। ऐसे में, आत्मनिर्भरता का क्या तात्पर्य हुआ ? यही प्रश्न किसी देश की आत्मनिर्भरता के संदर्भ में भी उठाया जा सकता है। आज के इस वैश्वीकरण के समय में कोई एक देश पूर्णतया आत्मनिर्भर हो कर रहे या यूं कहें कि रॉ मटेरियल से लेकर उत्पादन और उपभोग तक सब कुछ स्वयं ही कर सके यह संभव नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि तकनीकि, पेट्रोल, व्यवसाय, संस्कृति- लगभग सभी चीजों के लिए हम परस्पर निर्भर हैं। दुनिया जितनी सिमट रही है, बाजारवाद और प्रतिस्पर्धायें उतनी ही हर क्षेत्र में पनप रही हैं और अगर देखा जाए तो वस्तुओं की विविधता और गुणवत्ता की दृष्टि से यह जरूरी भी है। यह पारस्परिक आदान-प्रदान एक सीमा तक उचित प्रतीत होता है परंतु यह गलत तब प्रमाणित होता है जब केवल आयात हो और बदले में दिया कुछ न जा सके। जब अधिकारों का उपभोग विश्व में बिना कृतज्ञता का निर्वाह किए भिक्षावृत्ति तथा चोरी और लूट-खसोट में हो लेकिन विनिमय न हो, लेने वाला देने वाले के दबाव में रहे, उसकी नाराजगी से डरने लगे, उसकी इच्छा की गुलामी करने को विवश होने लगे तब ऐसे में,आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को जागृत करना अनिवार्य हो जाता है। सामान्यतया, जब हम दूसरों पर आर्थिक रूप से निर्भर होते हैं, जरूरत से ज्यादा दूसरों की सहायता,सहानुभूति, हमदर्दी, नेकी पर विश्वास करने लगते हैं तब यह स्थिति किसी व्यक्ति, समाज या देश के लिए बहुत हानिकारक होती है।इससे हमारी शक्ति और आत्म उद्योगी भावनाओं का ह्रास होता है। यह आदत हमें निज मददहीनता से भर देती है ।यह बिल्कुल उसी प्रकार है जब किसी शिशु को स्वतंत्र रूप से चलने, दौड़ने या गिरने न दिया जाए और उसके अंदर के आत्मविश्वास में अपंगता भर दी जाए। दूसरों पर निर्भरता किसी राष्ट्र को ऐसे ही आर्थिक और नैतिक रूप से अपंग कर सकती है, देश का स्वरूप विकृत कर सकती है।इसके अतिरिक्त, दूसरों से हमेशा अपेक्षा रखना लगभग स्वयं को दयनीय और तिरस्कार का पात्र बना लेने जैसा है।हम धीरे-धीरे परजीवी होने लगते हैं और अपनी स्थिति दयनीय बना लेते हैं। इसके ठीक विपरीत, यदि व्यक्ति या राष्ट्र वीर है,संकल्पी है, तो मुसीबतों से संघर्ष कर सकता है, आत्मविश्वासी बन सकता है और सब के लिए प्रशंसा का पात्र बन जाता है।प्रयत्न ही किसी को महान बनाता है; सफलता असफलता तो घटती रहती है। आत्मनिर्भरता ही व्यक्ति एवं राष्ट्र को मानसिक दृढ़ता,सहनशीलता एवं नैतिक सुरक्षा प्रदान करती है। कमजोर और पिछड़ा वर्ग भी सीख ग्रहण करता है, प्रयत्नों का हिस्सेदार बनता है और साहसिक प्रवृत्ति से संघर्ष करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा पाता है। अंततोगत्वा, एक मजबूत और सुनहरे भविष्य का निर्माण कर पाता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति या देश प्रेम और आदर प्राप्त करता है और खुशहाल प्रसिद्ध एवं यशस्वी बनता है, विश्व का नेतृत्व कर सकता है।परहितकारों द्वारा की गई दया आत्म सम्मान के लिए भी घातक है। लेकिन, जब किसी वस्तु के लिए परिश्रम एवं अर्थ हम स्वयं खर्च करते हैं, खून पसीना एक करते हैं तो ऐसी स्थिति में नैतिक दृष्टिकोण बहुत ऊंचा और शांति भरा होता है। आत्मनिर्भरता से ही व्यक्ति समाज और देश की उन्नति होती है और वह निरंतर सफलता की ऊंचाइयों को छूता जाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है- “यल्लमसे निज कर्मोपातम्, वित्त विनोदय चित्तम”…अर्थात स्वयं अर्जित किए गए धन का उपयोग करने में एक अकथनीय सुख की प्राप्ति होती है ।आत्मनिर्भरता राष्ट्र या समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अद्भुत आत्मविश्वास उत्पन्न करती है और आत्मविश्वासी एवं कर्मठ व्यक्ति ही दुनिया की हर समस्या से जूझने को तैयार हो सकता है।परावलंबी सोच समाज और राष्ट्र को अपाहिज करती है,जबकि आत्मनिर्भरता अमृत का अक्षय स्रोत है।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बिल्कुल सही लिखा है- ” यह पापपूर्ण परावलंबी चूर्ण होकर दूर हो, फिर स्वावलंबन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए..” वास्तव में,आत्मनिर्भरता ही वह गुण है जो जीवन की कठिन राह को आसान बना देता है।स्वावलंबन में वह पुरुषार्थ छिपा है, जिसके आगे सारी वैश्विक शक्ति नतमस्तक हो सकती है।जो दूसरों के सामर्थ्य पर ऊँचाई पाते हैं,वे एक हल्के से आघात से जमींदोज हो सकते हैं क्योंकि दूसरों की सहायता हमारी स्वाभाविक क्षमता के विकास में बाधा बनती है, अपने पैरों को मजबूत बनाने का प्रयास ढीला पड़ जाता है और हर समय एक अनिश्चितता की तलवार लटकती रहती है।इसके विपरीत, जिस देश और समाज के नागरिक आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर जीते हैं,वहाँ भूखमरी, बेरोजगारी, निर्धनता जैसी सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ नहीं के बराबर होती हैं और वह समाज एवं वह देश उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था और काफी हद तक आत्मनिर्भर था।परंतु, कालांतर में विदेशी व्यापारियों ने खासकर अंग्रेजी हुकूमत ने इसी व्यापार के रास्ते भारत … Read more

ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह

ऐ सुनो

पितृसत्ता की लड़ाई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है ,ये उस सोच की लड़ाई है जो स्त्री को पुरुष से कमतर मान कर स्वामी और दासी भाव पैदा करती है |कई बार आज का शिक्षित पुरुष भी  इस दवंद में खुद को असहाय महसूस करता है | वो समझाना चाहता है कि भले ही तुमने सुहाग के चिन्हों को धारण  किया हो पर मेरा अनुराग तुम्हारे प्रति उतना ही है |सौरभ दीक्षित ‘मानस’की ये कविता प्रेम और समर्पण के कुछ ऐसे ही भाव तिरोहित हुए हैं……. ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह माँग में सिन्दूर भरकर नहीं घूमता। लेकिन मेरी प्रत्येक प्रार्थना में सम्मिलित पहला ओमकार तुम ही हो। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह आँखों में काजल नहीं लगाता। लेकिन मेरी आँखों को सुकून देने वाली प्रत्येक छवि में तुम्हारा ही अंश दिखता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह कानो में कंुडल नहीं डालता । लेकिन मेरे कानों तक पहुँचने वाली प्रत्येक ध्वनि में तुम्हारा ही स्वर होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह गले में मंगलसूत्र बाँधकर नहीं रखता। लेकिन मेरे कंठ से निकले प्रत्येक शब्द का उच्चारण तुम से ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैरों में महावर लगाकर नहीं चलता। लेकिन मेरे जीवन लक्ष्य की ओर जाने वाला प्रत्येक मार्ग, तुमसे ही प्रारम्भ होता है। ऐ, सुनो! मैं तुम्हारी तरह पैर की अंगुलियों में बिछिया नहीं बाँधता। लेकिन मेरी जीवन की प्रत्येक खुशी की डोर तुमसे ही बँधी हुयी है………मानस आपको सौरभ दीक्षित  जी की कविता कैसी लगीं हमें अवश्य बताएं | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेबसाईट सबस्क्राइब करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |