ढोंगी

आशा सिंह

श्राद्ध पक्ष के दिन चल रहे हैं |हम सब अपने अपने हिसाब से अपने पित्रों के प्रति सम्मान व्यक्त कर रहे है | लेकिन अगर श्रद्धा न हो तो सब कुछ मात्र ढोंग रह जाता है | पढिए आशा सिंह दी की लघु कथा ढोंग ढोंग    आज पितृपक्ष की मातृनवमी है। मैं छत पर मां की पसंद का भोजन लिए कोओं की प्रतीक्षा कर रहा हूं। कोए भी मेरे ढोंग पहचानते हैं, आ नहीं रहे हैं। उस दिन आफिस में जैसे ही टिफिन खोला, मन व्याकुल हो उठा। लगा कोई पुकार रहा है। टिफिन चपरासी की ओर बढ़ा दिया, बोला ‘खाने के बाद टिफिन घर पर पहुंचा देना ‘सब पूछते रह गये कि क्या बात हो गई। बिना किसी से कुछ कहे मैं तेजी से कार भगाता हुआ घर पहुंचा। टी वी चल रहा था, बच्चे शोर मचा रहे थे। मुझे बेवख्त आया देख पत्नी चौंक गयी-‘क्या हुआ?’ मां कहां है? अपने कमरे में सो रही होंगी। मां के कमरे में देखा, उसकी सांसें उखड़ रही थी। मुझे देख कर मुस्कराई,-‘तू आ गया बेटा। मैं याद कर रही थी कि तुझको बिना देखे न चली जाऊं।‘ नहीं,आप कहीं नहीं जा रहीं। मैं अभी हस्पताल लेकर चलता हूं। उसने हाथ हिलाकर मना कर दिया-‘बस बेटा वक्त आ गया है।‘ मैंने मां के ठंडे पड़ते हाथ को थाम लिया-‘मां कुछ बोलो, कुछ चाहिए।‘ हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई- मेरी प्लेट लगा ला। जब कभी हम पार्टियों में जाते थे, मां को बुफे सिस्टम से बड़ी चिढ़ थी। बफैलो सिस्टम कहती थी। मुझसे कहती-मेरी प्लेट लगा कर ले आ।‘ प्लेट में बस एक रोटी, एक ही सब्जी, दही बड़ा और पापड़। पार्टी में तरह तरह के व्यंजनों की भरमार होती, पर मां का एक ही अंदाज था। कभी पूछा तो रटा-रटाया जवाब-‘उतना ही लो थाली में, बहे न अन्न नाली में। कभी कभी मैं कह देता हजार रूपए प्लेट थी। मां हंस देती- हम उनके कार्य क्रम में आये है, प्लेट का पैसा नहीं देखने। मैं रसोई में आया, फटाफट रोटी बनाने लगा।सहम कर पत्नी और बेटी भी मदद के लिए आ गई। कल दहीबड़े बने थे, प्लेट में लगाओ। हां पापड़ भी।बेटी पापड़ भूनने चली, मैने कहा- दादी को तले पापड़ पसंद है। जल्दी से प्लेट लगा कर मां के पास गया,पर वह जा चुकी थी। मैं प्लेट लिए खड़ा रह गया। इस समय भी छत पर खड़ा हूं। लग रहा है कि कोऐ भी कह रहे हैं- ढोंगी। आशा सिंह श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय जीवित माता -पिता की अनदेखी और मरने के बाद श्राद्ध : चन्द्र प्रभा सूद श्राद्ध की पूड़ी आपको लघु कथा “ढोंगी कैसी लगी | अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें और साइट को सबस्क्राइब करें |ताकि अटूट बंधन की रचनाएँ सीधे आप तक पहुँच सकें |

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12

गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 13-साहित्यिक गतिविधियाँ

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे-अध्याय 12 –साहित्यिक गतिविधियाँ (दिल्ली 2006 – अब तक)   तनु ने मुझे धीरे धीरे मुझे टाइपिंग सिखा दी थी। मूलतः तो मैं कविता ही लिखती थी, जो छोटी होती हैं, उन्हे मैं टाइप कर लेती थी। तनु वैब  साइट्स पर भेज देती थी और उनका डिजिटल मीडिया में प्रकाशन होने लगा था। धीरे धीरे मैं ख़ुद ई मेल भेजने लगी थी।पत्रिकाओं( प्रिंट) में भी काफ़ी रचनाये आने लगी थीं। टाइपिंग का अभ्यास हो गया तो लेख भी टाइप करने लगी थी। कुछ संस्मरण लिखे, कुछ संस्मरणों को कहानी का रूप दिया। वैब मीडिया ने मानों दूर दराज़ के लोगों से रिश्ते जोड़ दिये थे।   मेरे लेखन के पहले दौर की कुछ रचनायें अप्रकाशित थीं, जिनको संशोधित करके मैंने टाइप किया। सबसे पहले मेरी रचनायें  सृजन गाथा में आनी शुरू हुईं थीं।मेरे एक लेख ‘ हिन्दी किसकी है?’ को पढ़कर श्री प्राण शर्मा जी ने अति सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी, इसके बाद उनकी मेल भी मिली जिसमें उन्होंने हैरानी जताई थी कि इतना अच्छा लेख लिखने वाली लेखिका अब तक कहाँ थी ! ज़ाहिर है उन्होंने लेखक का परिचय पढ़ा होगा। मैंने भी सृजन गाथा में प्राण शर्मा जी की ग़जले पढ़ी थी और प्रतिक्रियायें देखकर लगा था कि ये प्रतिष्ठित साहित्यकार ही होंगे। मैंने गूगल में ढूँढा तो पता चला कि वे एक वरिष्ठ ग़ज़लकार होने के साथ कथाकार भी हैं और छंद शास्त्र के पंडित हैं। इतने वरिष्ठ साहित्यकार की प्रशंसा से मैं अभिभूत हो गई। मुझे लगा कुछ तो होगा मेरे लेखन में…….. अब नहीं छोडूँगी……. लिखती रहूँगी। मेरी हर प्रकाशित रचना पर प्राण सर की टिप्पणी आती थी। धीरे धीरे मेरी रचनायें प्रवक्ता.कॉम पर आने लगीं। यहाँ भी मेरी रचनाओं पर प्राण सर टिप्पणी देते थे।वे मेल पर हर तरह से हौसला बढ़ाते, और अलग अलग पत्रिकाओं में भेजने की सलाह देते थे। उन से संपर्क बना अंत तक बना रहा। वे इंग्लैड में रहते थे, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा क्योंकि अपने स्वास्थ्य के कारण वे भारत आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, जबकि उनकी आत्मा भारत में ही बसती थी। यहाँ होने वाली छोटी मोटी घटनाये, साहित्य से जुड़ी ख़बरों या राजनैतिक ख़बरों से वे अवगत रहते थे। जब मैंने लिखना शुरू ही किया था तब से श्री प्राण शर्मा की प्रशंसा, आलोचना और मार्ग दर्शन मुझे मिला है , उनसे बहुत कुछ सीखा है उनकी लेखनी के विषय में कोई टिप्पणी करने की मेरी औकात नहीं है। वे मेरे लिये गुरु समान थे।   साहित्य में कुछ करने के लिये आजकल क़लम के साथ कम्प्यूटर और अन्य कई गैजेट काम करने में सहायता करते है, इनके बिना काम नहीं चलता, एक उम्र के बाद इन्हें समझना  सीखना आसान भी नहीं होता उसी पर ये दो व्यंग्यात्मक संस्मरण प्रस्तुत हैं।व्यंग्य का निशाना खुद की तरफ ही है।   हम सीख  रहे हैं….. (संस्मरण 14) कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती।  अब  70 हमारे पास मंडरा रहा है और हम सीखे जा रहे है, शायद कब्र तक पहुँचते पहुँचते भी सीखते रहे, सीखने से छुट्टी नहीं मिलने वाली,  सीखे जाओ सीखे जाओ यही हमारी नियति है। पचास साल हो गये पढ़ाई पूरी  किये पर सीखना बन्द नहीं हुआ। हिन्दी इंगलिश ठीक ठाक लिखना पढ़ना आता था पर जब से ये मुआ कम्पयूटर आया तब से ऐसा लगने लगा कि हम तो अनपढ़ हो  गये, दूसरी तीसरी क्लास के बच्चे भी हमसे ज़्यादा जानते हैं। हमारे बच्चों ने हमें बताया कि लिखकर…..अरे नहीं टाइप करके बातचीत करने को चैट कहते हैं। टाइप करके चिट्ठी एक बटन दबा  के चली जाती है जिसे ई मेल कहते हैं । ई मेल का पता घर का पता नहीं होता ख़ुद ही कोई झूठ मूठ का पता बनाने से सारी चिट्ठिययाँ आ जाती है, बस पासवर्ड याद रखना पड़ता है ,नहीं तो आई हुई चिट्ठी भी पढ़ नहीं सकते। हमारी उत्सुकता इतनी बढ़ी कि हमने ठान ली अब हम अनपढ़ नहीं रहेंगे टाइपिंग भी सीखेंगे और कम्प्यूटर इस्तेमाल करना भी। हिन्दी को रोमन में लिखने पढ़ने में अर्थ का अनर्थ होने लगा था। हमने लिखा  chhat  tapak rahi  hai  (छत टपक रही है)पढ़ने वाले ने पढ़ा ‘चाट टपक रही है।‘ जैसे तैसे देवनागरी में टाइप करने की तकनीक उपलब्ध करवाईं और इस युक्ति से मुक्ति ली पर इस उम्र में ये कोई आसान काम नहीं था पर सीखना तो था ही, सो सीखा। चैट की भाषा सीखना भी  आसान नहीं था यहाँ Tomorrow को tmmro या ऐसा ही कुछ और लिख देते हैं too , 2 हो जाता है great को gr8 कर सकते हैं भाषा का ये अनोखा  रूप पढ़ पाना ही हमारे लिये चुनौती था, पर हमने सीखा वैसे ही जैसे कभी क्लास में  नोट्स लिया करते थे!  वह भी अपनी ही बनाई भाषा होती थी, जिसे हम ख़ुद ही पढ़ पाते थे। हाँ अब हमें साइलैंट अक्षरों का हटाना और are को R और you कोU लिखना अच्छा लगने लगा है । हमारी उम्र  बढ़ रही थी और गैजेट छोटे हो रहे थे। हमने डैस्कटौप पर बड़े से मानीटर पर चूहे की पूंछ पकड़कर कम्प्यूटर का प्रयोग करना सीखा था सब अच्छा चल रहा था कि कम्प्यूटर जी बूढ़े होकर बीमार रहने लगे,तो लैपटौप आ गया जिसका स्क्रीन और की बोर्ड हमें छोटा लगता था लैपटौप आने के बाद भी हमने … Read more

कृष्ण यानि केंद्र

कृष्ण

कृष्ण को  समझना इतना आसान नहीं हैं | सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥ कृष्ण का अर्थ है केंद्र ..  सेंटर ऑफ ग्रैविटेशन की तर्ज पर समझ सकते हैं की सेंटर ऑफ अट्रैक्शन जिसके चारों ओर जो कुछ  भी हैं वो उसमे खिंचता चला जाता है | कृष्ण आकर्षण का केंद्र हैं |उनमें गजब का आकर्षण है गोपियाँ ही नहीं उनके दुश्मन भी उनकी तरफ खिंचते  हैं | कृष्ण को पूर्णवतार माना जाता है | ये भी सत्य है कि जब हम किसी को नहीं समझ पाते तो हम उसे पूजने लगते हैं |जबकि असली पूजन उस को समझना व खुद में समाहित करना होता है | कितने  लोग हैं जिन्हे गीता कंठस्थ हैं पर उनमें से कितने है जो उसे समझ पाते हैं | जब हम कृष्ण कहते हैं और केंद्र को समझने का प्रयास  करते हैं तो हम पाते हैं कि हर आत्मा एक केंद्र हैं जिसके जन्मते ही उसके चारों ओर एक वृत्त का निर्माण होने लगता हैं |इस वृत्त में पहले परिवार फिर पड़ोस फिर समाज खिंचता जाता है |बहुत कम लोग हैं जो समस्त राष्ट्र का केंद्र हो पाते हैं |उससे भी कम समस्त मानवता केंद्र और समस्त ब्रह्मांड का केंद्र होना तो दुर्लभ ही है | इसीलिए हर आत्मा एक व्यक्ति रूप में  जन्म के साथ पैदा होती है और मृत्यु के साथ एक व्यक्ति के रूप में खत्म हो जाती है |   महापुरुष मृत्यु के साथ जन्म लेते हैं |उन्हे फिर से समझने का प्रयास होता हैं ..आखिर कोई इतना महान कैसे हो सकता है | इसको समझने के क्रम में क्षेपक  जुडते हैं कहानियां जुड़ती हैं | अलग अलग व्यक्ति अपनी सोच और दृष्टि के साथ उनको समझने का प्रयास करते हैं |कोई महारास को आध्यात्मिक दृष्टि से देखता  है तो किसी को उसमे छलिया नजर आता है |कोई माखन चोर नन्द किशोर में सामान्य बालक देखता है तो कोई योगेश्वर में ईश छवि निरूपित करता है | जैसे -जैसे समय आगे बढ़ेगा हम आने वाले समय की अच्छाइयों और बुराइयों के अनुसार उस काल से साम्य बैठा  कर कृष्ण के चरित्र को समझने का प्रयास करते रहेंगे  पर हर हाल में कृष्ण  केंद्र में बने रहते हैं,बने रहेंगे |   आखिर ऐसा क्यों है की कृष्ण हर काल में प्रासंगिक बने रहते हैं | यहाँ सिर्फ छवि गढ़ने की बात ही नहीं छवि भंजन करने की बात भी है |इसका उत्तर भी कृष्ण स्वयं देते है |जब कृष्ण कहते हैं मैं वृक्षों में मैं पीपल हूँ , गायों में मैं कामधेनु हूँ .. एक आम समझ के आधार पर हम इसे कह सकते हैं की वो सबमें श्रेष्ठ चुनते हैं | क्या ये अहंकार है ? पर ध्यान से समझने का प्रयास करेंगे तो हर गाय में कामधेनु बनने की संभावनाएँ हैं ,वृक्ष में पीपल बनने की संभावनाएँ हैं,व्यक्ति में कृष्ण बनने की संभावनाएँ  हैं |अगर हम वहाँ तक नहीं पहुँच पाए तो हमने जीवन पूर्ण नहीं जिया |   पूर्ण जीवन यानि कृष्ण जैसा जीवन .. जो सबको समग्रता से स्वीकार करते हैं |किसी को अस्वीकार नहीं करते | जब हम किसी को गुण मान  लेते हैं तो उसके विपरीत आचरण स्वतः ही अवगुण हो जाता है |जिसे हम अवगुण समझते हैं उससे बचना चाहते  हैं,मन उस ओर आकर्षित होता है | यहाँ दवंद उत्पन्न होता है |कृष्ण  मर्यादाओं में भी खुद को नहीं बांधते |सही -गलत को परिभाषित नहीं करते वरन कर्म पर बल देते हैं |वे स्वयं निष्काम हो जाते हैं | वो  देह को आत्मा से अलग नहीं देखते |वो देह का दमन कर आत्मा के साथ  जाने के द्वैत सिद्धांत का खंडन करते हैं | वो रिश्तों में रह कर असंग  रहते हैं ,महारास रचाते हुए भी योगेश्वर हैं और  युद्ध भूमि में भी करुणा से पूरित हैं | इसीलिए वो कृष्ण हैं ..केंद्र हैं श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की शुभकामनाएँ वंदना बाजपेयी    

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुजरे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 अब आगे ….     गुजरे हुए लम्हे-अध्याय 8: बच्चे बड़े हो रहे थे (दिल्ली 1987 से 91 तक)   तनु ने 87 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और स्वेच्छा से कॉमर्स स्ट्रीम को चुना था। अपूर्व कक्षा 1 में आ गया था।  उस समय ट्यूशन या कोचिंग का चलन शुरू हो चुका था पर अधिकतर विज्ञान के छात्र दाख़िले की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये कोचिंग में जाते थे। कॉमर्स वाले भी मैथ्स और ऐकाउंट्स के लिये जाने लगे थे पर तनु ने कभी कोचिंग नहीं ली थी।   जब तनु 12 वीं कक्षा में थी तभी इनका तबादला पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के अलीपुरद्वार( प. बंगाल) में हो गया। दिल्ली में किसी तरह 10- 11 साल निकाल चुके थे। कभी रेलवे बोर्ड में तो कभी उत्तर रेलवे में पर अब रुकना मुश्किल था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में जाने से दो लाभ थे पहला तो ये कि दिल्ली में सरकारी मकान रख सकते थे दूसरा यह कि 2-3 साल वहाँ काम करने के बाद अपनी मनचाही जगह नहीं सकते थे, वापिस तबादला माँग सकते थे। हम तनु को नेवल स्कूल से स्कूल के आख़िरी साल में हटा नहीं सकते थे,  इसलिये मुझे बच्चों के साथ दिल्ली में ही रहना था, जो कि आसान तो नहीं था। जाने से पहले रेलवे बोर्ड के उच्चाधिकारियों को इन्होंने अपनी समस्या बताई तो इन्हें आश्वासन दिया गया कि जैसे ही कोई जगह खाली होगी इन्हें वापिस बुला लिया जायेगा। जगह खाली भी हुईं और भरती भी गईं पर हमें दिया हुआ आश्वासन आश्वासन ही रहा। दिल्ली आने के लिये लोग राजनैतिक दबाव के अलावा और भी तरीके अपनाते हैं।  किसी की सच्ची बड़ी समस्या लोगों को नहीं दिखती और कभी बिना समस्या के समस्या गढ़ ली जाती है और तरह तरह के दबाव डालकर तबादले हो जाते हैं। बार बार की नाउम्मीदी असह्य होने लगी थी, बहुत से काम थे जो करने में मैं दिक्कतें महसूस कर रही थी। इसके अलावा पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में बोडो आंदोलन हिंसक हो रहा था। इन सब मिली जुली बातों का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था जो पड़ौसियों और मित्रों को दिखने लगा था। इसी बीच में शशी बीबी की बेटी दिव्या का विवाह ग्वालियर से हुआ बारात इंदौर से आई थी। इस शादी में ये गुवाहाटी से आये ज़रूर थे परंतु ग्वालियर बहुत कम समय के लिये ही जा पाये थे। अगली पीढ़ी की यह पहली शादी थी।   इस समय मुझे लगा कि मेरा ड्राइविंग सीखना बहुत ज़रूरी है। मैंने पास के ही ड्राइविंग स्कूल से सीखने का प्रबंध कर लिया। पहले दिन ही एक मज़ेदार वाकया हो  गया जो बाद में मैंने संस्मरण के रूप में लिखा था। वह प्रस्तुत है। –   एकाग्रता (संस्मरण- 5) मेरी एकाग्रता हमेशा से बहुत अच्छी है। यदि कोई काम ज़रूरी हो और उसमें रुचि भी हो तो मेरा ध्यान इधर उधर नहीं भटकता। अभी भी मैं जब कुछ लिखती पढ़ती हूँ तो आस पास से कौन निकल गया, पता ही नहीं चलता।   पहले दिन मैं बहुत उत्साह के साथ ड्राइविंग सीखने निकली। ड्राइविंग स्कूल की गाड़ियों में दोहरे नियंत्रण होते हैं, इसलिये प्रशिक्षक मुझे पहले ही दिन भीड़ वाली जगह ले गया। क्लच ब्रेक सब  का प्रयोग पहले ही सिखा दिया था। एक जगह जाकर उसने कहा कि” मैंम आप उस बस के पीछे जाकर कार को ब्रेक लगाकर रोकियेगा” मैंने कहा “ठीक है।” अब मुझे बस बस दिखाई दे रही थी जिसको पीछे मुझे कार रोकनी थी।  बीच में प्रशिक्षक ने झटके से ब्रेक लगाया और कहा “मैंम देखकर चलाइये” मैंने जवाब दिया” देखकर ही चला रही हूँ उस बस के पीछे ही गाड़ी रोकना है न” वह बोला “तो बीच में जो भी आयेगा उसे उड़ा देंगी ! ”   खैर धीरे धीरे कार चलाना अच्छी तरह सीख लिया और यह भी समझ लिया कि इसमें निशाना लगाने वाली एकाग्रता नहीं चाहिये बल्कि आगे पीछे ही नहीं दायें बायें कौन चल रहा है इस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है।कार चलाना सीख लेने से कुछ तो सुविधा हो गई थी परंतु अभी आसपास के इलाकों में ही चलाती थी। रास्ते भी ज्यादा पता नहीं थे।हमारे दो तीन पड़ौसी जो कि इनके सहकर्मी थे वे और उनकी पत्नियाँ बहुत ध्यान रखते थे,पर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद अवसाद और व्याकुलता(depression & anxiety ) बढ़ रहे थे। हर काम को करने में दो गुना प्रयत्न लगता था। घबराहट रहती थी,लगता था कि कुछ बुरा या ग़लत होने वाला है। मैं स्वयं ही डॉक्टर के पास चली गई उन्होंने हल्की ऐंटी डिप्रैसैंट और ऐंटी ऐंग्ज़ायटी दवाइयाँ दे दी थी। कोई सैडेटिव नहीं दी थी क्योंकि घर में कोई और बड़ा व्यक्ति नहीं था और मुझे गाड़ी भी चलानी होती थी। दवाइयाँ लेने से कुछ सुधार हुआ, मैं घर ठीक से चला रही थी ,नकारात्मक विचार कम हो गये थे।   तनु को मैथ्स पढ़ाने के लिये कुछ दिन आशू पूनम आकर रह गये थे। उनके एक बेटा भी हो चुका था जो उस समय कुछ uउपन्यास महीने का था। 1989 में तुनु ने 12 वीं पास कर ली। इसी साल सुरेन भैया की तीसरी बेटी चारु की शादी दयालबाग से  गर्मी में ही होनी थी। पूनम ने हमारे ठहरने का प्रबंध अपनी ताई जी के यहाँ कर दिया था । वहाँ तो शादियाँ बहुत सादगी से होती हैं। हमारी मारुति 800 की यह इकलौती शहर से बाहर की यात्रा थी जबकि वह  86 से 03 … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 बेफिक्र किशोरावस्था (लखनऊ.1963-67)   1963 में मैनपूरी के गवर्नमैंट गर्ल्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर सवाल उठा कि अब बी.ए. कहाँ से करवाया जाये। उस समय अच्छा घर वर मिलने के लिये बी.ए. होना काफ़ी था। मैनपुरी में डिग्री कॉलिज था ही  नहीं तो तय किया गया कि लखनऊ के किसी कॉलिज में मेरादाख़िला करवा दिया जाये। उस समय बीबी लखनऊ आ चुकी थी परन्तु उनके ससुर का निधन होने के कारण ससुराल का सारा परिवार उनके पास था, अत: छात्रावास में ही रहने का निश्चय हुआ। उन दिनों दाख़िला मिलना कोई समस्या नहीं थी, जहाँ चाहें वहाँ मिल जाता था, जो विषय लेना चाहें मिल जाते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय में भूगोल केवल एक दो कॉलिज में था। मेरी इच्छा थी कि मैं भूगोल लेकर आई. टी. कॉलिज में पढूँ, परन्तु मम्मी को किसी ने बता दिया था कि वहाँ का वातावरण बहुत स्वछंद है , छात्रावास की लड़कियाँ इधर उधर घूमती रहती हैं। मम्मी के दिमाग़ में कोई बात बैठ जाती थी तो फिर वो किसी की नहीं सुनती थीं। बस बी.ए .करना है विषय कुछ भी ले लो,तो मुझे महिला विद्यालय में दाख़िल करवा दिया गया।यहाँ पर मम्मी और मेरे पिताजी की अलग सोच का अंदाज़ होता है।पिताजी ने बीबी को11,12 साल पहले उत्तर प्रदेश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में भेजा था जबकि मम्मी के लिये सिर्फ बी.ए. हो जाना काफ़ी था। वैसे भी मैं उनकी नज़र में उदण्ड और स्वछंद थी इसलिये मुझ पर बंदिशें ज्यादा थी। अकेली होने की वजह से वो ज़माने से डरती थीं। उनके अनुभवों ने उन्हे हर एक को शक के दायरेमें रखना सिखा दिया था।   महिला विद्यालय लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित था, अभी भी है।जिन्होने लखनऊ नहीं देखा उन्हे बतादूँ कि अमीनाबाद दिल्ली के चाँदनी चौक या चावड़ी बाज़ार की तरह का पुराना बाज़ार है। महिला कॉलिज एक बहुत बड़ा कॉलेज/स्कूल है, अब पता नहीं…. पर उस समय यहाँ के.जी. से लेकर बी.ए. बीएड. किया जा सकता था । स्कूल की हर कक्षा के आठ दस सैक्शन थे। बी.ए. का एक बैच चार सौ पाँच सौ लड़कियों का होता था। सीटों की सीमा कहीं नहीं थी जो आ जाये जगह अपने आप बन जाती थी। पढ़ाई बहुत कम ख़र्च में बहुत अच्छी थी। तीन  छात्रावास थे एक इंटरमीडिएट तक की छात्राओं के लिये और बाकी डिग्री कॉलेज  की छात्राओं के लिये थे। अमीनाबाद जैसे बाज़ार में सड़क पर केवल गेट दिखता था, शायद अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ होगा। दुकानों के बीच, कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि उसके भीतर इतना बड़ा कैंपस है, ये छात्रावास नहीं ये लड़कियों की जेल थी। यहाँ से कदम बाहर निकालने के लिये स्थानीय अभिभावक  की इजाज़त लेनी होती थी, बीच बाज़ार में होते हुए भी अपनी ज़रूरत की चीज़ लेने भी बाहर नहीं जा सकते थे। ज़रूरत का सामान छात्रावास की नौकरानी ही लाकर देती थी।कमरों में एक बल्ब की रौशनी के अलावा कोई सुविधा नहीं थी गर्मियों में पंखा भी किराये का मँगाते थे, वहाँ बिजली डी.सी. हुआ करती थी , डी सी बिजली के कारणपंखे भी धीरे धीरे चलते थे।गर्मियों में बरामदों में सोते थे। नीचे के फ्लोर वाली लड़कियाँ तो लॉन में अपनी चारपाई डाल लेती थीं। सर्दियों में नहाने का पानी मैस से लेने के लिये लाइन लगती थी, रोज तो  नहीं नहा पाते थे।मैस का खाना ठीक ठाक था। आठ लड़कियों पर एक नौकरानी होती थी जो उनके बर्तन धोती संभालती थी, कमरों में झाड़ू पोंछा करती थी और लड़कियों की ज़रूरत का सामान बाज़ार से लाकर देती थी। शाम की चाय के साथ कभी समोसे, कचौरी या पकौडी मिलती थीं, तो रात के खाने की छुट्टी हो जाती थी।   बी.ए. के सभी इम्तिहान यूनिवर्सिटी कैंपस में होते थे। एक दिन पहले ही जिनके इम्तिहान होते थे उनकी सूची बन जाती थी और मेट्रन सबको उनके परीक्षा भवन पर छोडकर वहीं कहीं इंतज़ार करती थी और रिक्शों में ही वापिस लेकर आती थी।यानी लड़कियों  को अपनी मर्ज़ी से हिलने की भी इजाज़त नहीं थी, सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम थे। हमें ये बाते उस वक़्त परेशान नहीं करती थी बल्कि सुरक्षित होने का अहसास होता था। हमें मिलने की इजाज़त केवल उन ही  लोगों से थी जिनके नाम और हस्ताक्षर घरवालों ने दे रखे हों।बीमार होने पर मेट्रन ही डॉक्टर के पास ले जा सकती थी।सिनेमा जाना होता था तो पहले सूची तैयार होती थी, यदि बीस नाम आगये तो मेट्रन के साथ रिक्शों में काफिला चलता था। पहुँचने पर देखा जाता था कि क़ैदी पूरे हैं कि नहीं , वापसी में भी गिनकर लाया जाता था।इस तरह एक दो बार मूवी देखने के बाद कभी कैदियों की तरह जाने का मन ही नहीं किया।   मैनपुरी से ही मेरे स्कूल की एक सहेली उषा कुशवाहा ने भी महिला कॉलिज में दाख़िला लिया था और छात्रावास में भी थी। मैनपुरी में हमारी काफ़ी दोस्ती भी थी। यहाँ बी. ए. में हमने बिलकुल अलग विषय लिये थे, धीरे धीरे मेरी और उसकी अलग अलग सहेलियाँ  बनने लगी और उसके साथ समय बहुत कम बीतने लगा।यहाँ मेरी दो ख़ास सहेलियाँ थीं ललिता कपूर और उमा अग्रवाल। ललिता के साथ दो विषय मिलते थे और उमा के साथ बस एक। दोनों ही छात्रवासीय थी।दिवसीय छात्राओं से दोस्ती करने का मौक़ा कम मिलता था हम दिन रात साथ रहने वाले ही बहुत थे।ललिता कपूर से अब तक संपर्क बना हुआ है पर उमा  से बी ए करने के बाद ही संपर्क कम होता चला गया, उसने संस्कृत मे ऐम ए किया था।उस समय पत्रों … Read more

वो स्काईलैब का गिरना

कुमकुम सिंह

आज हम कोरोना की आपदा से घिरे हुए अपने –अपने घरों में कैद हैं और ये दुआएं कर रहे हैं की ये आपदा जल्दी से जल्दी विश्व पटल से दूर हो | क्योंकि साहित्य अपने समय को दर्ज करता है इसलिए इस आपदा पर कई लेख, कहानियाँ , कवितायें आदि लिखी जा रहीं हैं | मुझे P.B.Shelley का एक कथन याद आ रहा है | “our  sweetest songs are those that tell of saddest thought” आपदा के निकल  जाने के बाद हो सकता है हम इस पर कुछ ऐसी ही रचनाएँ लिखे जिन्हें पढ़कर होंठों पर मुस्कान खिल जाए | अब स्काई लैब को ही देखिये …जिस समय ये गिरने को तैयार भारत के साथ फेरे ले रहा था तब हम सब कैसे दम साधे बी. बी. सी पर उसकी पल –पल की खबरे सुन रहे थे | अब उसी बात को याद कर के हँसी भी आती है | अब स्काई लैब भले ही खबरों  के अनुसार प्रशांत महासागर में गिरा पर चुन्नी लाल जी के परिवार पर तो गिर ही गया | पढ़िए कुमकुम सिंह जी की रोचक कहानी …. वो स्काईलैब का गिरना   “अरे पढ़ लो , पढ़ लो , परीक्षा सिर पर है । तुम दोनो अभी तक खेले ही जा कहे हो । इतनी शाम हो गई और तुम दोनो ने किताब तक ना खोली । मै कहता हूँ कि जिन्दगी मे बस पढ़ाई ही काम आने वाली है ये फालतू की उछल कूद से कुछ भी हासिल ना होगा “ चुन्नीलाल ने दफ्तर से वापस आकर अपना छाता और झोला , दीवार की खूटी पर टांगते हुए , अपने दोनो बेटों को उलाहना देते हुए कहा । “ अब बस भी करो , अब जब सब कुछ खतम ही होने जा रहा है तो फिर कैसी पढ़ाई लिखाई ? जो दो चार दिन बाकी हैं तो इन दोनो को जी भर के मौज मस्ती कर लेने दो “ विमला बाई अपने बारह वर्षीय राकेश और चौदह वर्षीय मुकेश को अपने सीने से लगाते हुए बोली । ऐसा कहते हुए वो अत्यन्त भावुक हो गई और उनके नैन आँसू से भर आये । “ अरे तुमको भी पता लग गया ? “ चुन्नीलाल बेहद दुखी स्वर मे बोले । “ ये भला कोई छिपने वाली बात है ? आजकल सारा मोहल्ला बस यही बात कर रहा है । रेडियो मे भी बार बार यही खबर आ रही है कि आसमान से कोई भारी सी मशीन आफत बन कर हम पर गिरने वाली है और हम सब बस एक साथ ….” इतना कहने के बाद विमला से आगे कुछ ना बोला गया , गला भारी हो गया और वो अपने दोनो बच्चों को गले लगा कर रोने लगी ।यह देख कर चुन्नीलाल के भी आँखों मे आंसू भर आए और वे रूंधे हुए गले से बोल पड़े – “ करे कोई और भरे कोई । अमेरिका नाम के देश ने कुछ समय पहले स्काईलैब नाम का बहुत ही वजनी प्रयोगशाला जैसी कुछ मशीन अन्तरिक्ष मे भेजा था , पता नही क्या करने ? वही अब हमारी जान लेने के वास्ते आ रहा है “ “ पापा ये स्काईलैब क्या होता है ? बड़े बेटे ने कौतुहल पूर्वक पूछा । “बेटा ये एक विशालकाय यान है जो कुछ साल से अंतरिक्ष मे था । यह एक इमारत जितना बड़ा है और वैज्ञानिक लोगों की प्रयोगशाला बना हुआ था । पृथ्वी से वैज्ञानिक लोग इसमे सन्देशों के जरिए विभिन्न प्रकार के प्रयोग कर रहे थे और सूचनाएँ एकत्र कर रहे थे । पर बदकिस्मती से अब वैज्ञानिकों का इस पर कोई नियन्त्रण नही रहा । अत: वो अब पृथ्वी की ओर तेजी से आ रहा है । कहीं भी गिर सकता है । पता ये चला है कि इसके गिरने की ज्यादा सम्भावना अपने मध्यप्रदेश के किसी इलाके मे या आसपास के इलाके की है । इसलिए हम सब की जान खतरे मे हैं “ चुन्नीलाल उदास होकर बोले । “ तो अब हम लोग अब क्या करें पापा ?” छोटा बेटा हैरान होकर पूछने लगा । “ कुछ नही , जो मरजी आए वो करो और अपने आप को खूब खुश रखो “ इतना कह कर वे मुकेश के सिर पर , स्नेहपूर्वक हाथ फेरने लगे । “ तुम लोग को क्या क्या खाने का मन कर रहा है ? अपनी अपनी पसन्द बताते चलो । मै सब बना कर खिलाऊँगी अपने बच्चों को । और अब पढ़ने लिखने की कतई जरूरत नही है “ विमला ने ऐसी घोषणा करके बच्चों की मुँह मांगी मुराद पूरी कर दी । “ आज तो हम लोग नन्हे हलवाई के समोसे और जलेबी खायेगे , पापा पैसे दो “छोटा मचल कर बोला । “ हाँ हाँ ! अभी लो “ चुन्नीलाल ने तुरन्त ही मुकेश को एक नोट पकड़ाया । नोट लेकर दोनो बच्चे बाजार दौड़ गए । अब तो जब ना तब बाजार से तरह तरह के चटपटे, नमकीन और मीठे मनभावन खाने की चीजें खरीद कर आने लगी । कभी चाट और रबड़ी ,कभी कलाकंद , रसगुल्ले , कुल्फी आदि आदि । घर पर भी लज्जतदार पकवान बनने लगे । सच है कि भोजन इन्सान की मूलभूत आवश्यकता है और ये भी सच है कि स्वादिष्ट भोजन मे मानव तो तुरन्त ही आनन्द की अनुभूती करा देने की क्षमता होती है।कई लोग तो अकसर ये कह भी देते हैं कि हम खाने के लिए ही तो कमाते हैं ! राकेश मुकेश ने स्कूल बैग को बिस्तर के नीचे सरका दिया और बची खुची किताब कॉपी , पेन पेन्सिल सब ताक पर रख दिए । दिन भर गिल्ली डन्डा , कबड्डी , पतंगबाजी आदि होने लगा । स्कूल जाना बंद । पढ़ाई से कोई सरोकार ना रहा । परीक्षा और परीक्षाफल का कोई डर नही रहा । ऐसा लग रहा था कि जैसे निश्चित मौत के डर ने जीवन को और भी निडर बना दिया था । इन दिनो दफ्तर मे भी कोई काम ना होता था । सभी मुँह लटका कर उदास मन से तरह तरह की बात करते थे । अफवाहों का बाजार गर्म हो चला था । कई लोग तो यह भी दावा करने … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

बीनू भटनागर

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | अध्याय दो -थोडा खुश सा बचपन (हरिद्वार, अलीगढ़ और मैनपुरी 1956-63) बुलंदशहहर में मै जिस स्कूल में पाँचवीं कक्षा में गई मुझे उसका नाम याद नहीं है,पर मेरा नाम बीनू कैसे लिखवाया गया वह कहानी याद है। उस समय जन्म प्रमाणपत्र तो बनते नहीं थे, न नाम रखने की जल्दी होती थी, न स्कूल भेजने की जल्दी होती थी। मुन्नी, गुड़िया या गुड्डी से काम चल जाता था। स्वतंत्रता प्राप्त होने के एक महीने बाद आने के कारण स्वतंत्र कुमारी या स्वतंत्रता देवी जैसे नामों के सुझाव भी आये थे।बड़ी बहन कुसुम थीं. तो छोटी बहन का नाम कुमुद या कुमकुम घर वालों ने सोचा हुआ था। कुमकुम और कुमुद के बीच से एक चुनने की बात थी………………. फिर मैं बीनू कैसे हो गई! दरअसल हुआ यह कि मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी। बचपन में एक दोस्त था जिसका नाम बीनू था, उस दोस्त की मुझे याद भी नहीं है, मैं उससे और उसके नाम से प्रभावित थी, इसलिये मैं ख़ुद को बीनू कहने लगी थी, बचपन में मेरी कितनी बातें मानी जाती रहीं थी ये तो नहीं पता ,पर स्कूल में मेरा नाम बीनू ही लिखा दिया गया, मेरी यह बात मान ली गई,काश यह बात न मानी गई होती तो अच्छा था। इस नाम के कारण जो परेशानियाँ उठानी पड़ीं, उनकी चर्चा आगे आने वाले पन्नों में करूँगी। हरिद्वार आकर मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था मेरा छोटा सा भांजा था ,उससे खेलने में मज़ा आता था। मेरा दाखिला एक स्कूल में करवा दिया गया था जिसका मुझे नाम भी याद नहीं है, न किसी सहेली का न किसी अध्यापिका का चेहरा जेहन में है। ताज्जुब की बात ये है कि बुलंदशहर की सहेलियों दोस्तों की हल्की सी छवि दिमाग़ में है, पर हरिद्वार के स्कूल के बारे में कुछ याद ही नहीं है। यह स्कूल गंगा नहर के किनारे था, ब्रेक में पानी में पैर लटका कर सीढ़ियों पर बैठकर नाश्ता खाते थे।कोई हादसा न हो इसलिये आगे चेन लगी हुई थीं हरिद्वार के एक साल प्रवास की बस ये ही याद हैं। मैं हमेशा ही पढ़ाई ख़ुद कर लेती थी, वह कोई समस्या नहीं थी। हरिद्वार में भाई साहब का सरकारी बँगला था जो काफ़ी बड़ा था, ज़मीन भी बहुत थी, ख़ूब सब्ज़ियाँ होती थी। लॉन भी बहुत बड़ा और सुन्दर था। लाड़ प्यार और अनुशासन का सही समन्वय चल रहा था , मैं ख़ुश थी। बुलंदशहर में अब कोई नहीं था।भैया की पढ़ाई ख़त्म हो गई थी वह उत्तर प्रदेश सरकार में बिजली विभाग में इंजीनियर नियुक्त हो गये थे, उनकी पहली नियुक्ति मैनपुरी में हुई थी।मम्मी को उनके लिये अब लड़की की तलाश थी जो भैया के साथ साथ उनसे भी निभा सके।भैया की शादी तय हो गई । बुलंदशहर का जो सामान उन्होनें इधर उधर रखवा दिया था मैनपुरी भेजकर भैया का घर उसके साथ बसाना शुरू हो गया था।मम्मी मैनपुरी और सिकंद्राबाद के बीच आती जाती रहीं, नानी अकेली सिकंद्राबाद रहती रहीं थी, हालाँकि बहुत से रिश्तेदार उसी मकान के अलग अलग हिस्सों में रहते थे।ज़मीने ज़्यादातर बिक चुकी थीं, थोड़ी बहुत बाकी थीं। सिकंद्राबाद का मकान किसका था, किसने किराये पर लिया मुझे नहीं पता । नानी उपर के पिछले हिस्से में रहती थीं। नीचे उनकी छोटी बहन रहती थीं, बाकी हिस्से उनके दूसरे रिश्तेदार रहते थे। मेल मिलाप लड़ाई झगड़े सब होते थे, पर मुश्किल के समय पूरा कुनबा एक हो जाता था।वहाँ मेरे तो सारे मौसी मामा ही थे,उस समय आज की तरह आँटी अँकल नहीं कहलाते थे।।इस मकान का किराया 15 रु था जिसमें से मेरी नानी 3 रु देती थीं।कुनबे के एक सदस्य ये किराया किसको भेजते थे ,इसकी जानकारी मम्मी की कोशिशों के बाद उन्हे नहीं मिली। हरिद्वार से मैंने छटी कक्षा पास कर लीथी, अब मुझे मैनपुरी बुला लिया गया, मैं वहाँ सातवीं कक्षा में दाख़िल हो गई थी। यह सरकारी स्कूल था ,पर यहाँ पढाई बड़ी लग कर होती थी। हर विषय की बुनियाद काफ़ी मजबूत करवाई जाती थी। मुझे पढ़ाई बोझ नहीं लगती थी ,पढ़ना अच्छे नम्बर लाना मुझे अच्छा लगता था ,परन्तु घर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था चाहें जैसे नम्बर आयें। मम्मी का क्रोध भी कम होने लगा था। 1957 नवम्बर के महीने में भैया की शादी हो गई, बारात बस द्वारा मैनपुरी से मथुरा गई थी । बारात उन दिनो तीन दिन रुकती थी। शादी के बाद भैया को छोड़कर सारे बाराती वृंदाबन घूमने गये, भैया को उनके ससुराल वालों ने रोक लिया था। वृंदावन में एक हादसा हो गया जो आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। वहाँ निधि वन में मैं अपने रिश्तेदारों को छोड़कर किसी दूसरे समूह के साथ चलने लगी कुछ देर बाद अंदाज़ हुआ कि अपने लोग नहीं हैं, सब अजनबी हैं। मैं अपनों से बिछड़कर रोने लगी, मुझे न मथुरा का पता मालूम था, न बस के बारे में कि कहाँ खड़ी है।एक भले परिवार ने मुझे मेरे परिवार से मिलाने की ज़िम्मेदारी उठाई बहुत पूछने पर मैं जो कुछ बता पाई उस मंदिर के बारे में जहाँ हमारी बस खड़ी थी,उसी जानकारी के आधार पर वे लोग मुझे बस तक पहुँचा गये।मैने भी बस चालक को पहचान लिया तो वे लोग चले गये। सारे रिश्तेदार मुझे ढूँढने निकल पड़े थे, सबसे ज्यादा परेशान सुरेन भैया और भाई साहब थे, क्योंकि सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उनकी ही थी,सबसे नज़दीकी वो दोनो ही थे । सबको इक्ट्ठा करने में वक़्त लगा ।बस अंत भला तो सब भला !अब भी सोच के डर लगता है कि भले परिवार की जगह किसी ग़लत गिरोह के लोग होते तो न जाने मेरी ज़िन्दगी क्या होती, पर जो नहीं हुआ उसके बारे में ज्यादा न सोचूँगी न … Read more

कविता सिंह जी की कवितायें

कविता सिंह

कविता लिखी नहीं जाती है …आ जाती है चुपचाप कभी नैनों के कोर से बरसने को, कभी स्मित मुस्कान के बीच सहजने को तो कभी मन की उथल पुथल को कोई व्यवस्थित आकार देने को | जहाँ कहानी में किस्सागोई का महत्व है वहीँ कविता में बस भाव में डूब जाना ही पर्याप्त है | कहानी हो या कविता शिल्पगत प्रयोग बहुत हो रहे हैं होते रहेंगे| कभी कच्ची पगडण्डी पर चलेंगे तो कभी सध कर राजपथ में भी बदलेंगे  पर भाव की स्थिरता ही कविता को जमीन देती है | आज कविता सिंह जी की कुछ ऐसी ही कवितायें लेकर आये हैं जहाँ कहीं मन की उलझन है तो कहीं प्रेम का अवलंबन तो कहीं स्त्री सुलभ कोमल भावनाएं … कविता सिंह जी की कवितायें छटपटाहट अक्सर ही आती है वो रात के सन्नाटे में, झकझोरती है मुझे, जब मैं होती हूँ मीठी सी नींद में, बुन रही होती हूँ कुछ मधुर सपने, तभी कानों में पड़ती है जानी पहचानी एक सिसकी, खोलती नहीं आँखें मैं कहीं चली ना जाए वो, बोलती नहीं वो, सिर्फ सिसकती है, पता है मुझे क्या चाहती है वो मुझसे!! मैं लिखना चाहती हूँ उसे उसकी पीड़ा को, अपनी कविता और कहानियों में, पर हर बार चूक जाती हूँ शब्दों में पिरोने से उसे, सोचती हूँ कुछ नये शब्द गढ़ लूँ जो व्यक्त कर सकें उसे, पर नहीं गढ़ पाती, और अक्सर ही लथपथ होकर उठ बैठती हूँ, आप पूछेंगे कौन है वो, नहीं बता सकती, बस इतना जानती हूँ, जब से खुद से परिचय हुआ तब से जानती हूँ उसे, जानती हूँ उसकी तलाश को, उसकी तकलीफ को भी, मुझसे अछूती नहीं इच्छाएं भी उसकी!! पर लिख पाऊंगी कभी मैं उसकी बेचैनी, उसकी तड़प? या फिर यूँ ही नींद में अचानक सुनकर उसे छटपटाती रहूँगी मैं?? कामवाली_बाई# वो घर-घर जाकर धुलती है जूठे बर्तन रगड़-रगड़कर, जैसे मांज रही हो लिखा भाग्य, या अपने बच्चों का आने वाला कल!! झाड़ती है जालें और बुहारती पोछती है फर्श हौले से, धीरे-धीरे जैसे, रह न जाये उसकी किस्मत के बिखरे टूटे कोई भी कण!! फिंचती है मैले कपड़े पटक-पटककर, धोती है दाग धब्बे, जैसे मिटा रही हो रात में पड़ी मार के निशान,और आत्मा पर पड़े गालियों के दाग!! जानती है वो, चलती रहेगी जिंदगी यूँ ही लगातार, ना मंजेगा भाग्य, ना ही फिकेंगे किस्मत के बिखरे कण और ना ही मिटेंगे तन मन पे पड़े घाव के निशान….. तो फिर झटकारती है कपड़ों के संग सपने भी और टांग देती अलगनी पर…..     ——–#कविता_सिंह#——— मन_गौरैया# तन की कोठरी में चहकती फुदकती मन गौरैया कभी पंख फड़फड़ाती कभी ची- ची करती भर जाती पुलक से नाचती देहरी के भीतर। उड़ना चाहती पंख पसार उन्मुक्त गगन में देखना चाहती ये खूबसूरत संसार…. नहीं पता उसे ये लुभावने संसार के पथरीले धरातल, और छद्म रूप धरे, मन गौरैया के पर कतरने ताक में बैठे शिकारी… हर बार कतरे जाते सुकोमल पंख कभी मर्यादा, कभी प्रेम, कभी संस्कार, कभी परम्परा की कैंची से!!! और फिर! अपने रक्तरंजित परों को फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया समेट कर अपना वजूद, दुबक जाती अपने भीत आँखो को बन्दकर अपनी अमावस सी अँधेरी कोठरी में। फिर एक किरण आशा की करती उजियारा धीरे -धीरे मन गौरैया खोलती हैं आँखें अपने उग आये नए परों को खोलती अपने दुबके वजूद को ढीला छोड़ दबे पांव शुरू करती फिर फुदकना। पर पंख कतरने का भय नहीं छोड़ता पीछा.. और उस भय से डरी-सहमी गौरया आहिस्ता-आहिस्ता हो जाती है विलुप्त!! अंततः रह जाता है सिर्फ अवशेष अंधेरी कोठरी का!! …………कविता सिंह………… जिन्दगी  जिंदगी तू इतनी उलझी – उलझी सी क्यों है?? कभी आशा कभी निराशा कभी हो निष्क्रिय विचरती सी क्यों है?? कभी खुशी कभी दुःख कभी भावों से विमुक्त रिक्ती सी क्यों है?? कभी शोर कभी सन्नाटा कभी वीरानों में भटकती आत्माओं सी क्यों है?? कभी अपना कभी पराया कभी साहिल की रेत सरीखी उड़ती सी क्यों है?? कभी अतीत कभी भविष्य कभी आज से भी पीछा छुड़ाती सी क्यों है?? कभी सपनों कभी ख्वाहिशों कभी अवसाद में डुबती – उतराती सी क्यों है?? कभी बंधती कभी बांधती कभी हो उन्मुक्त खुशबू बिखेरती सी क्यों है?? कभी ठहरती कभी भागती कभी हर  गति से परे तिरस्कृत सी क्यों है??? बता ना जिंदगी तू इतनी उलझी उलझी सी क्यों है???            ………………..कविता सिंह                “सर्मपण” आओ ना एक बार, भींच लो मुझे उठ रही एक कसक अबूझ – सी रोम – रोम प्रतीक्षारत आकर मुक्त करो ना अपनी नेह से। आओ ना एक बार, ढ़क लो मुझे, जैसे ढ़कता है आसमां अपनी ही धरा को बना दो ना एक नया क्षीतिज । आओ ना एक बार, सांसो की लय से मिला दो अपनी सांसों की लय को प्रीत हमारी नृत्य करे धड़कनों के अनुतान पर रोम  रोम में समा लो ना मुझे। आओ ना एक बार, सुनाई दे ध्वनि शिराओं में प्रवाहित रक्त की, स्वेद की बूंदें भी हो जाएं अमृत जकड़ो ना मेरी देह को। आओ ना एक बार, बन जाते हैं पथिक उस पथ का जिसकी यात्रा अनंत हो, कर दो ना निर्भय विभेदन के भय से। आओ ना एक बार, करो ऐसा यज्ञ जिसमें अनुष्ठान हो मिलन की आहुति हो प्रेम की करो ना हवन जिसमें मंत्र हों समर्पण, समर्पण और अंततः समर्पण।। हां आओ ना एक बार……. —–कविता सिंह हां!  हो तुम     हां!  हो तुम हृदय में , जैसे मृग के कुंडल में स्थित कस्तूरी, आभामंडल सा व्याप्त है तुम्हारे अस्तित्व का गंध, जो जगाए रखता है निरंतर एक प्यास मृगतृष्णा सी, हां मृगतृष्णा सी -…. एक अभिशप्त तृष्णा जो जागृत रखती है अपूर्णता के एहसास को मृत्युपर्यंत ….. हां ये अपूर्णता ही तो परिपूर्ण करती है जीवनचक्र, नहीं होना मुक्त इस एहसास से, बस यूं ही कस्तूरी सा बसे रहो हृदय तल में, जिसकी गंध से अभिभूत एक विचरण जो जीवित रख सके मृत्यु तक…. —-कविता सिंह——–      #अव्यक्त भाव की पीड़ा# ऐसा प्रायः क्यों होता है व्यतिथ हृदय दग्ध चित्त व्यग्र मन शब्दों का अवलम्ब ले उतर जाना चाहते हैं किसी पन्ने पर.. प्रायः ऐसा होता है कि शब्द गायब हो शुन्य में विलीन होते … Read more