कविता लिखी नहीं जाती है …आ जाती है चुपचाप कभी नैनों के कोर से बरसने को, कभी स्मित मुस्कान के बीच सहजने को तो कभी मन की उथल पुथल को कोई व्यवस्थित आकार देने को | जहाँ कहानी में किस्सागोई का महत्व है वहीँ कविता में बस भाव में डूब जाना ही पर्याप्त है | कहानी हो या कविता शिल्पगत प्रयोग बहुत हो रहे हैं होते रहेंगे| कभी कच्ची पगडण्डी पर चलेंगे तो कभी सध कर राजपथ में भी बदलेंगे पर भाव की स्थिरता ही कविता को जमीन देती है | आज कविता सिंह जी की कुछ ऐसी ही कवितायें लेकर आये हैं जहाँ कहीं मन की उलझन है तो कहीं प्रेम का अवलंबन तो कहीं स्त्री सुलभ कोमल भावनाएं … कविता सिंह जी की कवितायें छटपटाहट अक्सर ही आती है वो रात के सन्नाटे में, झकझोरती है मुझे, जब मैं होती हूँ मीठी सी नींद में, बुन रही होती हूँ कुछ मधुर सपने, तभी कानों में पड़ती है जानी पहचानी एक सिसकी, खोलती नहीं आँखें मैं कहीं चली ना जाए वो, बोलती नहीं वो, सिर्फ सिसकती है, पता है मुझे क्या चाहती है वो मुझसे!! मैं लिखना चाहती हूँ उसे उसकी पीड़ा को, अपनी कविता और कहानियों में, पर हर बार चूक जाती हूँ शब्दों में पिरोने से उसे, सोचती हूँ कुछ नये शब्द गढ़ लूँ जो व्यक्त कर सकें उसे, पर नहीं गढ़ पाती, और अक्सर ही लथपथ होकर उठ बैठती हूँ, आप पूछेंगे कौन है वो, नहीं बता सकती, बस इतना जानती हूँ, जब से खुद से परिचय हुआ तब से जानती हूँ उसे, जानती हूँ उसकी तलाश को, उसकी तकलीफ को भी, मुझसे अछूती नहीं इच्छाएं भी उसकी!! पर लिख पाऊंगी कभी मैं उसकी बेचैनी, उसकी तड़प? या फिर यूँ ही नींद में अचानक सुनकर उसे छटपटाती रहूँगी मैं?? कामवाली_बाई# वो घर-घर जाकर धुलती है जूठे बर्तन रगड़-रगड़कर, जैसे मांज रही हो लिखा भाग्य, या अपने बच्चों का आने वाला कल!! झाड़ती है जालें और बुहारती पोछती है फर्श हौले से, धीरे-धीरे जैसे, रह न जाये उसकी किस्मत के बिखरे टूटे कोई भी कण!! फिंचती है मैले कपड़े पटक-पटककर, धोती है दाग धब्बे, जैसे मिटा रही हो रात में पड़ी मार के निशान,और आत्मा पर पड़े गालियों के दाग!! जानती है वो, चलती रहेगी जिंदगी यूँ ही लगातार, ना मंजेगा भाग्य, ना ही फिकेंगे किस्मत के बिखरे कण और ना ही मिटेंगे तन मन पे पड़े घाव के निशान….. तो फिर झटकारती है कपड़ों के संग सपने भी और टांग देती अलगनी पर….. ——–#कविता_सिंह#——— मन_गौरैया# तन की कोठरी में चहकती फुदकती मन गौरैया कभी पंख फड़फड़ाती कभी ची- ची करती भर जाती पुलक से नाचती देहरी के भीतर। उड़ना चाहती पंख पसार उन्मुक्त गगन में देखना चाहती ये खूबसूरत संसार…. नहीं पता उसे ये लुभावने संसार के पथरीले धरातल, और छद्म रूप धरे, मन गौरैया के पर कतरने ताक में बैठे शिकारी… हर बार कतरे जाते सुकोमल पंख कभी मर्यादा, कभी प्रेम, कभी संस्कार, कभी परम्परा की कैंची से!!! और फिर! अपने रक्तरंजित परों को फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया समेट कर अपना वजूद, दुबक जाती अपने भीत आँखो को बन्दकर अपनी अमावस सी अँधेरी कोठरी में। फिर एक किरण आशा की करती उजियारा धीरे -धीरे मन गौरैया खोलती हैं आँखें अपने उग आये नए परों को खोलती अपने दुबके वजूद को ढीला छोड़ दबे पांव शुरू करती फिर फुदकना। पर पंख कतरने का भय नहीं छोड़ता पीछा.. और उस भय से डरी-सहमी गौरया आहिस्ता-आहिस्ता हो जाती है विलुप्त!! अंततः रह जाता है सिर्फ अवशेष अंधेरी कोठरी का!! …………कविता सिंह………… जिन्दगी जिंदगी तू इतनी उलझी – उलझी सी क्यों है?? कभी आशा कभी निराशा कभी हो निष्क्रिय विचरती सी क्यों है?? कभी खुशी कभी दुःख कभी भावों से विमुक्त रिक्ती सी क्यों है?? कभी शोर कभी सन्नाटा कभी वीरानों में भटकती आत्माओं सी क्यों है?? कभी अपना कभी पराया कभी साहिल की रेत सरीखी उड़ती सी क्यों है?? कभी अतीत कभी भविष्य कभी आज से भी पीछा छुड़ाती सी क्यों है?? कभी सपनों कभी ख्वाहिशों कभी अवसाद में डुबती – उतराती सी क्यों है?? कभी बंधती कभी बांधती कभी हो उन्मुक्त खुशबू बिखेरती सी क्यों है?? कभी ठहरती कभी भागती कभी हर गति से परे तिरस्कृत सी क्यों है??? बता ना जिंदगी तू इतनी उलझी उलझी सी क्यों है??? ………………..कविता सिंह “सर्मपण” आओ ना एक बार, भींच लो मुझे उठ रही एक कसक अबूझ – सी रोम – रोम प्रतीक्षारत आकर मुक्त करो ना अपनी नेह से। आओ ना एक बार, ढ़क लो मुझे, जैसे ढ़कता है आसमां अपनी ही धरा को बना दो ना एक नया क्षीतिज । आओ ना एक बार, सांसो की लय से मिला दो अपनी सांसों की लय को प्रीत हमारी नृत्य करे धड़कनों के अनुतान पर रोम रोम में समा लो ना मुझे। आओ ना एक बार, सुनाई दे ध्वनि शिराओं में प्रवाहित रक्त की, स्वेद की बूंदें भी हो जाएं अमृत जकड़ो ना मेरी देह को। आओ ना एक बार, बन जाते हैं पथिक उस पथ का जिसकी यात्रा अनंत हो, कर दो ना निर्भय विभेदन के भय से। आओ ना एक बार, करो ऐसा यज्ञ जिसमें अनुष्ठान हो मिलन की आहुति हो प्रेम की करो ना हवन जिसमें मंत्र हों समर्पण, समर्पण और अंततः समर्पण।। हां आओ ना एक बार……. —–कविता सिंह हां! हो तुम हां! हो तुम हृदय में , जैसे मृग के कुंडल में स्थित कस्तूरी, आभामंडल सा व्याप्त है तुम्हारे अस्तित्व का गंध, जो जगाए रखता है निरंतर एक प्यास मृगतृष्णा सी, हां मृगतृष्णा सी -…. एक अभिशप्त तृष्णा जो जागृत रखती है अपूर्णता के एहसास को मृत्युपर्यंत ….. हां ये अपूर्णता ही तो परिपूर्ण करती है जीवनचक्र, नहीं होना मुक्त इस एहसास से, बस यूं ही कस्तूरी सा बसे रहो हृदय तल में, जिसकी गंध से अभिभूत एक विचरण जो जीवित रख सके मृत्यु तक…. —-कविता सिंह——– #अव्यक्त भाव की पीड़ा# ऐसा प्रायः क्यों होता है व्यतिथ हृदय दग्ध चित्त व्यग्र मन शब्दों का अवलम्ब ले उतर जाना चाहते हैं किसी पन्ने पर.. प्रायः ऐसा होता है कि शब्द गायब हो शुन्य में विलीन होते … Read more