जगत बा

neelam kulshreshth

दुर्गा को पूजने वाले इस देश में कब स्त्रियाँ कमजोर और कोमल मान लीं गयीं ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता | आज भी स्त्रियाँ उस परम्परा का आवरण ओढ़े हुए हैं पर सच्चाई ये है कि अगर स्त्री ठान ले तो वो वो काम भी कर लेती है जिसके बारे में उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था | ये कहानी एक ऐसी ही जुझारू स्त्री की कहानी है जिसने अनपढ़ होने के बावजूद गाँव का नक्शा बदल दिया | जगत बा कुछ बरस पहले मैंने अपने सरकारी घर के पीछे के कम्पाउंड में खुलने वाला दरवाज़ा खोला था ,देखा  वे हैं -बा ,दो कपडों के लम्बे थैलों में वे अपनी कपड़े ठूंसे खड़ी हैं। झुर्रियों भरा चेहरा ,पतली  दुबली ,छोटे कद की देह  ,नीले पतले बॉर्डर वाली हलके रंग की साड़ी में  अपने छोटे काले सफ़ेद बालों को पीछे जुड़े में बांधे हुए ,एक आम गंवई गुजरातिन। “बा तारा बेन नथी , पानी जुईये [तारा बेन घर पर नहीं हैं , पानी चाहिए ]?“ “पिड़वा दो [ पिला दो ].“कहते हुए वह हमारे घर के आऊट  हाउस के दरवाज़े के कुंडी खोलकर थैले रख आईं । बा ,यानि हमारे आऊट हाउस में रहने वाली बाई तारा बेन की सास। दो गिलास फ्रिज का ठंडा पानी पीकर वह तृप्त हो गई। ऐसी गर्मी में गाँव से बस के सफ़र में वह पसीने पसीने हो रही थी। मैंने दिल से आग्रह किया ,“ठंडा शरबत बनाऊं ?“ “अत्यारे नथी मने जमवाणुं छे [अभी नहीं ,मुझे खाना खाना  है।]“ “सारू। “मैं कमरे में अंदर आ गई  तो छोटा  बेटा बोला ,“बा की काफ़ी खातिरदारी हो रही थी। “ “बिचारी बूढ़ी है ,धूप में सफ़र करके आ रही है। “ “बट  शी इज़ अ  मेड। तारा बेन के  घड़े में से भी पानी पी सकती थी। “उसने अपनी छोटी अक्ल लगाते हुए  कहा। “आफ़्टर   ऑल शी इज़ एन ओल्ड   ह्यूमेन बिइंग   `.“कहते हुए मैंने अपने को दस सीढ़ी ऊपर  चढ़ा लिया कि  देखो मैं नौकरानी की सास की भी परवाह करतीं हूँ. इन सात वर्षों से जब जब वे गाँव से आतीं हैं तो तारा बेन निश्चित हो जाती है। वे कभी ,उसकी बेटियों कामी व झीनी के साथ मेरे घर के बर्तनों को साफ़ कर रही होतीं हैं या बाहर पत्थर पर अपने सारे घर के कपड़े  धो रही होतीं हैं। बीच में जब समय मिलता है तो  चबूतरे पर चावल या गेंहूं बीनने  बैठ जातीं हैं  या पुराने कपडों   की कथरी   [दरी ] पर टाँके लगाने बैठ जातीं हैं। बीच बीच में उनका पोता मेहुल उन्हें पानी पिलाता रहता है। मैं उनकी इस मेहनत  पर  तारीफ़ करती जातीं हूँ   तो बहुत समझदारी से मुझे देखते हुए `हाँ `में  सिर हिलाती जातीं हैं। जैसे ही मेरा बोलना बंद होता है वे तारा बेन से पूछतीं हैं ,“ए सु कहे छे ?[ये क्या कह रहीं हैं ]? “ तारा बेन हँसते हँसते लोट पोट हो जाती है,“बा ने हिंदी नई आवड़ती  एटले  [ बा को हिंदी नहीं आती ] .  “ कभी ऊंचा नहीं बोलने वाली ऐसी दुर्लभ सास पर मैं मुग्ध होती रहतीं हूँ।  तो हाँ ,मैं  उस दिन की बात बता रही थी जब मैंने अपने आपको दस सीढ़ी ऊपर चढ़ा दिया था।  स्त्री अधिकारों के लिए लड़ने वाली व समाज  सेवा सम्बन्धी अपने लेख लिखने के लिए अपने आपको कितने सीढ़ी चढ़ाये रखतीं  हूँ  ,बताऊँ ?ख़ैर —- जाने दीजिये।  एक आज का दिन है। मैं  अपने ऊपर शर्मसार हूँ। पाताल क्या उसके भी नीचे कोई जगह हो तो मैं उसमें जा धंसूं  .जिसे दो गिलास पानी पिलाकर मैं गौरान्वित हो रही थी। उस अनपढ़ बा ने एक गाँव में प्राण फूंक दिए थे ,सारे गाँव को ट्यूब वैल से निहला दिया था    .  कहते हैं प्रसवकाल का समय निश्चित होता है तो क्या  कहानी के जन्म का समय भी निश्चित होता है ?एक क्रांतिकारी कहानी हमारे ही घर की आऊट हाउस में रहने वाली तारा बेन के दिल में कुछ वर्ष से बंद थी और मुझे पता ही नहीं था। हुआ कुछ यूं कि मैं उस उस सुबह कम्पाउंड की धूप  में अख़बार लेकर बैठे अफ़सोस ज़ाहिर  कर रही थी ,“देखो कैसे आंधी आई है। बी जे पी को उड़ा ले गई। सोनिया गांधी को प्रधान  मंत्री बनाये दे रही है। “ तारा  कत्थई धोती में, बालों में तेल लगाकर चोटी बनाकर टी वी पर समाचार सुनकर काम पर जाने को तैयार थी। मेरी बात सुनकर बोल उठी ,“आंटी! तुम देख लेना सोनिया गांधी एक औरत है देश को  अच्छी तरह संभालेगी। “ मुझे हंसी आ  गई  ,“देश को सम्भालना   कोई घर सँभालने जैसा खेल नहीं है। “ “केम नथी ?औरत के दिल में दर्द होता है इसलिए वह दूसरों का दर्द कम करना जानती है। हमारे गामड़ा में कितने सरपंच हुए हैं। किसी ने सरकारी पैसे से गाँव का भला नहीं किया। जब बा सरपंच बनी तो देखो हमारा भानपुरा गामड़ा को  गोकुलनगर [आदर्श गाँव ] का इनाम मिला। “ “कौन सी बा ?“मेरी निगाहें अभी भी अख़बारों की सुर्ख़ियों पर फिसल रहीं थीं। “और कौन सी बा ?म्हारी सविता बा ,बसंतभाई नी  माँ  .“ “क्या ?“मेरे हाथ से अखबार छूटते छूटते बचा। मैं कुर्सी पर चिहुंक कर सीधी बैठ गई। ये तो नहीं कह पाई कि ये दुबली पतली ,अगूँठा छाप सविता बेन कैसे सरपंच  हो सकती है  ?फिर भी बोली ,“तू ने इतने बड़ी बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई ?“ “आंटी !आपको  मैंने आपको दो वर्ष पहले बताया था कि बा का सरपंच का टैम ख़त्म हो रहा है। वो राज़ीनामा [इस्तीफ़ा ] दे रही है। “ “हाय —मुझे बिलकुल याद नहीं है। तू कहना भूल गई होगी। “ “ना रे ,मैंने आपको बताया था। “ हे भगवान ! लेखक `एब्सेंट मांइडेड `होते हैं ,तो मैं ऐसी ही अवस्था में  रही हूँगी। तारा की बात मेरे दिमाग़ के  ऊपर से निकल गई होगी। अब मैं आप लोगों के बीच  सेअपने आपको व गुजराती भाषा को अंतर्ध्यान कर रहीं हूँ।  भानपुरा की सरपंच सविता बा की कहानी ला रही हूँ। ये गरीब घर की थीं इसलिए घरवालों ने पंद्रह वर्ष बड़े दुहाजु से इनका ब्याह कर दिया था।वे पति छगनभाई ,मगनभाई वाणंद के घर के … Read more

एक्शन का रिएक्शन

रश्मि तारिका

न्यूटन का तीसरा नियम ऐक्शन का रिऐक्शन प्रकृति में ही इंसानी जिंदगी में भी काम करता है | अब आम औरतों की जिंदगी को ही लीजिए,”सारा दिन तुम करती ही क्या रहती हो ?” के ताने झेलने वाली स्त्री दिन भर चक्करघिननी बनी सारे घर को ही नहीं सारे रिश्ते नातों,परंपराओं का बोझ अपने नाजुक कंधों पर उठाए रहती है |लॉकडाउन के समय में उसका काम और घरवालों की अपेक्षाएँ और बढ़ गईं हैं |ऐसे में खुद के शरीर के प्रति लापरवाह हो जाना और शरीर की दिक्कतें बढ़ जाना स्वाभाविक ही है | आखिर इंसान समझे जाने की दिशा में क्या हो उसका ऐक्शन ..  पढिए रश्मि तारिक जी की कहानी .. एक्शन का रिएक्शन दरवाज़े की आहट से शिल्पा उठ गई।सामने निखिल खड़े थे ,माथे पर त्योरियाँ चढ़ाए। “क्यों ,आज खाना नहीं बनेगा क्या ?दो बजने को हैं ,और तुम आराम से बैठी हो।”निखिल का स्वर बाहर के तापमान की तरह ही गर्म था। “सुनिए ,मेरी कमर में बहुत दर्द है।आप आज मांजी से कह दीजिये न ।बस चपाती ही तो बनानी है।सब्जी कढ़ाई में बना कर रखी है।” “मैं नहीं कह पाऊँगा उन्हें..और माँ की तबीयत तो तुम जानती ही हो।”कहते हुए निखिल कमरे से निकल गए। उफ़्फ़ ..! बारह बजे सब को भारी भरकम नाश्ता करवाकर सोचा था दो घण्टे अब आराम कर पायेगी।पर यहाँ तो दो बजते ही फिर लंच की पुकार।कई बार लगता कि घर के सभी सदस्य पेट की भूख नहीं मानसिक भूख के सहारे जीते हैं।पेट भरा  हो तो भी नाश्ते का समय हो ,लंच का समय ,शाम की चाय से रात के खाने तक सब कुछ समय पर आधारित। न आधा घण्टा पहले न आधा घण्टा बाद में।शिल्पा को वह बात बेकार लगती कि इंसान के दिल का रास्ता पेट से होते हुए जाता है।यहाँ तो दिमाग की घण्टी बजती थी तो पेट से आवाज़ आती थी।दिल तो बीच राह कहीं था ही नहीं।खुद वह भी उन सब के पेट तक पहुंचते हुए अपने दिल की राह भूल जाती थी।उसकी अपनी  ज़रूरतें और इच्छाएँ भी कोने में पड़ी डस्टबीन में पड़ी चिढ़ा रही होती थीं ।कभी बच्चों के समय तो कभी पति के हुकुमनामों के बीच वह जूझ रही होती थी और पेन किलर खाकर फिर अगले काम के लिए जुट जाती।आज तो पेनकिलर से भी आराम नहीं आया था। निखिल का जवाब सुन एक लंबी साँस लेकर शिल्पा उठ गई।दर्द और बेरुखी से उपजे आँसूं समेटते हुए रोटी बेलने लगी ।जैसे तैसे निखिल को खाना दे कर ,बाकी सब की रोटी बनाकर फॉयल में लपेट कर रख दी ।थोड़ी सी सब्जी और अमूमन दो लोइयों की एक मोटी अधपकी सी ,ठंडे तवे और ठंडे मन की रोटी लेकर बैठ गई मानो शरीर रूपी गाड़ी में इस रोटी का डीज़ल ही भरना है ताकि रात तक उसकी गाड़ी सुचारू रूप से चलती रहे। बेदिली से दो कौर खा कर पानी पी लिया मानो उसे ज़बरन गले से उतारना हो। पास पड़ा मोबाइल उठाया ,देखा निशा की मिस कॉल थी।दर्द की वजह से हिम्मत तो नहीं थी लेकिन एक निशा ही तो है जिससे बात करके दिल हल्का हो जाता था।अपनी इस दोस्त को अपना दर्द निवारक मानती थी।पलकों में उपजी नमी होठों पर मुस्कान बन खिल गई। “हाँ ,बोल निशु…!” “क्या कर रही है शिल्पा ? काम हो गया क्या ?”निशा ने पूछा। “हाँ लगभग।बस अभी निखिल को खाना दिया। बाकी सब का बनाकर रख दिया।पर देखो न ..आधे घण्टे बाद निखिल की चाय की आवाज़ और उसके आधे घण्टे बाद मम्मी पापा जी की चाय का समय।फिर बच्चों की फरमाइशें..! सबके अलग अलग समय निश्चित हैं।चाय के बाद रात के खाने की चिंता।दिन भर बर्तन ,सफाई ,कपड़े कितने काम और हैं ।थक जाती हूँ।” “इस लॉक डाउन में भी कोई समझता क्यों नहीं कि बाई तो है नहीं तो एक ही वक़्त पर सब खा पी लें ?मैंने तो घर के सभी लोगों से कह दिया कि मेरे हिसाब से नहीं चलना तो फिर खुद ही बना लें ।बस खामोशी से सब जब बना दो खा लेते हैं।उस पर भी सब के काम के बंटवारे कर दिये हैं।सारे काम का ठेका हमने नही  लिया भई।हम भी इंसान हैं ,कोई नमशीन नहीं।” “हुँह ..!! यहाँ तो लॉक डाउन से पूर्व भी यही हाल था और यही हमेशा रहेगा। कोई सहयोग नहीं ।सब अपने अपने कमरों में और मेरा तो कमरा ही यह रसोई है बस।”एक ठंडी आह के साथ शिल्पा ने मन की एक परत को खोलते हुए कहा “जानती हो निशु  ,एक बार किसी झगड़े में निखिल ने मुझे तलाक देने की धमकी दी तो सासू माँ ने कहा “नहीं ,बेटा ! ऐसा हरगिज़ मत करना। तलाक मत देना,मुझसे तो काम न होगा। तुम्हीं बताओ ,कोई इत्ता भी स्वार्थी हो सकता है ? यह नहीं कि बेटे को उसकी गलती समझाएँ या डाँटें कि बात बात पर तलाक की धमकी देना सही नहीं । पर नहीं केवल अपनी मजबूरी का हवाला देते रहेंगे।” “हद है यार ! चलो उन्होंने बुढ़ापे की वजह से उन्होंने कह भी दिया होगा।पर निखिल जी ? व्यापार में घाटा देख फेक्ट्री बंद कर दी, तब से घर बैठे हैं।समझ सकती हूँ कि ऐसे में व्यवहार में चिड़चडाहट हो जाती है।लेकिन तुम तो कब से सब झेल कर भी उनकी सेवा में दिन रात एक किये बैठी ही हो ,फिर भी तलाक की धमकी ?”निशा के स्वर में रोष उभर आया था । ” वही तो ! यह सब देख पहले मैं सोचा करती थी कि ये दुख सुख तो अपने कर्मों का लेखा है।जितनी श्वासें ईश्वर ने हमें दी हैं ,उन्हें जीना पड़ेगा।रो कर जिये या हंस कर ,हम पर निर्भर करता है।पर अब लगता है कि कभी तो अंत हो इन दुखों का।अब तो हर पल यही दुआ करती हूँ कि मुझे भी कोरोना हो जाये।जान छूटे मेरी।”कहते हुए आवाज़ भर्रा गई शिखा की। “दिमाग खराब है क्या ? फालतू बातें सोचती रहोगी ।क्या होगा इससे ? जिन लोगों को तुम्हारी दुख तकलीफ से वास्ता ही नहीं ,उन्हें क्या फर्क पड़ेगा।यदि बच गई तो भी उपेक्षित ही रहोगी।बोलने से पहले सोचा तो करो।” “क्या और क्यों सोचूँ ? आखिर इन सब को मालूम … Read more

अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

अनामिका

अनामिका चक्रवर्ती आज कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | यूँ तो वो हर विषय पर कवितायें लिखती हैं पर उनकी कलम से स्त्री का दर्द स्वाभाविक रूप से ज्यादा उभर कर आता है | आज आपके लिए उनकी कुछ ऐसी ही स्त्री विषयक कवितायें लेकर आये हैं |इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लोकगीत “काहे को ब्याही विदेश” मन में गुंजायमान हो गया | कितनी पीड़ा है स्त्री के जीवन में जब उसे एक आँगन से उखाड़कर दूसरे में रोप दिया जाता है | पर क्या पराये घर में उसे अपनी बात कहने के अधिकार मिल पाते हैं उड़ने को आकाश मिल पाता या स्वप्न देखने को भरपूर नींद | आधुनिक पत्नी में वो कहती हैं .. क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई लड़की पढ़ी लिखीं चाहिए समाज को दिखने के लिए पर उसकी डिग्री ड्राइंग रूम का शो केस बन कर रह जाती हैं |किस तरह से पति गृह में बदलती जाती है एक स्त्री | कहीं पीड़ा की बेचैनी उनसे कहलवाती है कि औरतें तुम मर क्यों नहीं जाती तो कहीं वो क पुरुष कहकर पुरुष को ललकारती हैं | समाज में हाशिये से भी परे धकेली गयीं बदनाम औरतों पर लिखी उनकी रचनायें उनके ह्रदय की संवेदना पक्ष को उजागर करती है | कम से कम स्त्री तो सोचे उनके बारे में …जिनके बारे में ईश्वर  भी नहीं सोचता | अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें आधुनिक_पत्नी जमाना बदल गया है तकनीकी तौर पर गाँवों का भी शहरीकरण हो चुका है कच्ची सड़कों पर सीमेंट की वर्क बिछा दी गई है और सड़क की शुरूआत में टाँग दी गई है एक तख्ती उस सड़क के उदघाटन करने वाले किसी मंत्री का नाम पर क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई तकनीकी तौर पर ये आज की आधुनिक औरतें कामकाजी कहलाती हैं मगर इनका अपनी ही जेबों पर खुद का हक़ नहीं होता इनको महिने भर की कमाई का पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है अपने ही आजाद ख्यालात परिवारों को घर के बजट में ही होता है शामिल उसके खर्चों का भी बजट जबकि उसके कंधे भी ढोते हैं बजट भार की तमाम जिम्मेदारी मगर उन कंधों को देखा जाता है केवल आंचल संभालने की किसी खूंटी की तरह ये औरतें भी गाँव की उन कच्ची सड़कों जैसी होती हैं जिनपर बिछा दी जाती हैं सीमेंट की वर्क जिनका उदघाटन उनके पतिनुमा मंत्री ने किया होता है और परिवार के शिलालेख पर लिखा होता है आधुनिक पत्नी के आधुनिक पति का नाम। बदलाव  उसे लहसुन छीलना आसान लगता था प्याज काटना तो बिलकुल पसंद नहीं था रह-रहकर नहीं धोती थी मुँह अपना जबकि सूख जाता था चेहरे पर ही पसीना आँखें तो रगड़कर पोछना बिलकुल पसंद नहीं था पीते पीते पानी ठसका भी नहीं लगता था न होती थी नाक लाल बीच में चाहे कुछ भी कर ले बातें चुप रहना तो बिलकुल पसंद नहीं था उसे अब प्याज काटना बहुत पसंद है मुँह भी धोती है रह-रहकर पोछती है आँखें रगड़कर पीते पीते पानी लग जाता है अक्सर अब ठसका जबकि चुपचाप ही पीती है नाक भी दिख जाती है लाल वो अब भी बहुत बोलती है अब तो खत्म होने लगा है जल्दी काजल भी पसंद करने लगी है मगर चुप रहना….. वेश्याएँ आखिर कितनी वेश्या ? मोगरे की महक जब मादकता में घुलती है शाम की लाली होंठों पर चढ़ती है वेश्यायें हो जाती है पंक्तियों में तैयार कुछ लाल मद्धम मद्धम रोशनी में थिरकती हैं दिल के घाव पर मुस्कराहट के पर्दे डालकर झटकती है वो जिस्मों के पर्दों को जिसमें झाँक लेना चाहता है हर वो मर्द जिसने कुछ नोटों से अपना जमीर रख दिया हो गिरवी और कुछ चौखटों पर दिखती हैं तोरण सी सजी अपने अपने जिस्म को हवस की थाली में परोसने के लिए लगाती है इत्र वो अपनी कलाइयों में उस पर बाँधती है चूड़ा मोगरे का आँखों के कोने तक खींचती है वो काजल और काजल के पर्दे से झाँकती है औरत होने की असिम चाह जिनके नसीब में सुबह भी काली होती है मगर जिस्म बन कर रह जाती हर बार हवस की थाली लिये मर्द नामर्द हवस के भूखे भेड़िये नहीं होते क्योंकी भेड़िया हवस का भूखा नहीं होता वे होते है किसी के खसम, भाई, दद्दा, बेटा जो घर की औरतों को इज्जत का ठेका देते हैं और बाजारों में अपनी हवस मिटाने का लेते है ठेका फिर भी नहीं मिटती उनकी भूख कभी न देते है औरत को औरत होने का हक़ कभी आस मिटती नहीं, आँखें छलकती नहीं फिर हर बार बनती है वो वेश्या सजती सवँरती है लगाती है इत्र फिर गजरे बालों में बांधती रखती गालो में पान ऐसे श्रृगाँर से रखना चाहती दूर वह अपनी बेटीयों को, जिनके नसो में बहता नाजायज बाप का खून मगर सर पर साया नहीं रहता कभी न होते है जन्मप्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कोई औरत न होने की पीड़ा लिये जीती है ऐसी माएँ वेश्या की आड़ में तब तक झुर्रियाँ उसकी सुरक्षा का कवच न बन जाए जब तक ।  सच है, स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं पुरुष की बराबरी क्या हुआ अगर उसी ने जन्म दिया है पुरुषों को कोई हक़ नहीं उसे अपनी भूख को मिटाने का खाने का आखिरी निवाला भी वह पुरुष की थाली में ही परोस देती है चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े खाने के साथ साथ अपनी कामनाओं से भी कर लेती है समझौता बेहद जरूरी होता है पुरुष का पेट भरना, मन भरना जब तक कि उसको न दोबारा भूख लगे क्यों हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है परन्तु भूख तो स्त्रियों की भी उतनी ही होती है पुरुष की संतुष्टि से तृप्त नहीं होतीं स्त्रियाँ मगर वह खुशी से जीती हैं अपनी ज़िन्दगी अपनी असंतुष्टि और अतृप्त पीड़ा को लेकर नहीं करतीं वह बातें इस … Read more

निगोड़ी

स्मृतियाँ हमें तोडती भी हैं हमें जोडती भी हैं | ये हमारी जीवन यात्रा की एक धरोहर है | हम इन्हें कभी यादों के गुद्स्तों की तरह सहेज कर रख लेना चाहते हैं तो कभी सीखे गए पाठ की तरह |स्मृति का जाना एक दुखद घटना है | पर क्या कभी कोई व्यक्ति स्वयं ही स्मृति लोप चुन लेता है | ऐसा क्यों होता है अत्यधिक तनाव के कारण उपजी एक मानसिक अस्वस्थता या फिर जीवन के किसी से भागने का एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम | आखिर क्या था रूपक्रांति  की जिंदगी में जो वो इसका शिकार हुई |जानते हैं दीपक शर्मा जी की एक सशक्त कहानी से … निगोड़ी  रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी| उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों परअपनेशोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप कीरोगिणी के रूप में कराया गया था| मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में| अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते| स्मृति केबाहर वह स्वेच्छा सेनिकलीथी| शीतलताईकी खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था| क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी| (१) “किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने| “कैसे? किससे?” वहहक-बकायी थी| किरणमयीरूपकान्तिकी बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथबेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले| “मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलालतनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था| “मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जोअभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था| “वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था| “बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी| जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था| “उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| औरदामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहताथा| “उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है…..” “मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी…..” “देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्तिने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे| (२) “जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था| रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी| कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी| चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखेंविशालतथा और चमकीली हो आयी थीं| नाकऔर नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित| सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी| “मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी| जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा| रूपकान्तिअभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापाजोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थींऔर सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है…..’ “यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था| “नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी| “काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझेइस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?” “जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था| “मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी| “बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयीडहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तोउसने आपत्ति जतलायी थी, मुझेइस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घरमें एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की … Read more

सलीब

सलीब

सलीब पर  लटकना कितना  दर्दनाक होता है पर ये दर्द न जाने कौन कौन भोगता आया है चुपचाप |  सलीब यानी क्रूज यह कहानी कहानी है उन लड़कियों की जिन्होंने अपने फ़र्ज के आगे खुद को अकेलेपन के सलीब पर पाया। सलीब  रीटा मैडम office में काम करने वाली सीधी सादी औरत हाँ एक समय के बाद कोमर्य होते हुए भी क्या एक लड़की औरत ही तो कहलाती है या बन जाती है। टाइम से office आना टाइम से जाना घर से office और ऑफ़िस से घर का ज़रूर्री सामान समान लेते हुए घर जाना। बरसों से एक ही दिनचर्या एक ही घर एक ही रास्ता,पर आज खाने की टेबल पर अकेले नहीं एक चुलबुली राशी ने घेर ही लिया उनको। क्या आप अकेले खाना खाती हो ज़रूर पनीर लायी हो तभी चुपके चुपके , रीटा मैडम कुछ कह पाती तब तक तो राशी अपने पोहे का डब्बा लेकर उनके खाने पर आक्रमण बोल दिया। आप भी खाए , मैं तो जल्दी में बस पोहा ही बना पायी हूँ आपकी सब्ज़ी अच्छीहै । रीटा मैडम मुस्कुरा दी राशी की चंचलता पर ,फिर दोनो ओफ़िस के गार्डन में टहलने लगी। रीटा मेम एक बात बताए आप शादी कब कर रही हैं मुझे ना Christian wedding बहुत पसंद है,अभी तक बस मूवीज़ में ही देखा है, मैं आपकी बेस्ट गर्ल बन जाऊँगी dress की चिंता ना करें वो तो सिल जाएगी। राशी , मुझे नहीं लगता कोई लड़का मेरे साथ मेरे पेरेंट्सकी ज़िम्मेदारी भी लेगा। तो क्या आप सारी ज़िंदगी …….? पता नहीं शायद हाँ। लेकिन आपका भाई भी तो है उनके साथ मिलकर क्यों नहीं आप अपनी ज़िम्मेदारी बाँट लेती? उसका परिवार है बीबी ,बच्चे शायद वो उतना वक़्त ना दे पाए फिर माँ बाप तो मिलकर बच्चों को पालते हैं बाँटकर नहीं , फिर आज मैं अपना फ़र्ज़ कैसे बाँट लूँ? फिर जरुरी तो नहीं शादी के बाद मैं ख़ुश रहूँ। रीटा मेम क्या आपके पेरेंट्स नहीं चाहते? आपका घर बसे आप ख़ुश रहे। जब वो कहते थे तब कोई फ़िट बेठा नहीं अब वो कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। चलो ब्रेक काफ़ी लम्बा हो गया मुझे काम जल्दी पूरा करके मेडिकल शाप जानाहै । अगले दिन गुड फ़्राइडे था ।यीशु को सलीब पर लटकाया गया था ,लोग नहीं जानते थे की वो क्या कर रहे हैं पर रीटा मेम ने में तो ख़ुशी ख़ुशी इस सलीब को चुना है सिर्फ़ अपने पेरेंट्स के लिये। रश्मि वर्मा आपको लघुकथा सलीब कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत करायें | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो साईट को सबस्क्राइब करें और हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

आजादी से निखरती बेटियाँ  

  कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी कि पांच वर्ष से नौ दस वर्ष की तीन बहनों को देखा जो अपने पिता के पीछे पीछे चल रहीं थी. रैक पर सजे सामानों को छूती और ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखती और झट से उसे छोड़ दूसरे चीजों को निहारने लगतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ़ पता चल रहा था कि इन्हें यहाँ बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जायेगा जो पिता चाहेंगें. दिखने में धनाड्य पिता धीर-गंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. वहीँ बच्चियों की माँ पीछे घसीटती हुई गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी, जो कुछ भी छूने के पहले अपने पति का मुख देखती थी. अगल-बगल कई और परिवार भी घूम रहें थें, जहाँ बेटियाँ अपनी माँ को सुझाव दे रही थी या पिता पूछ रहें थें कि कुछ और लेनी है. उन बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख, मेरे मन में आ रहा था कि जाने वे क्या सोच रही होंगी. उनकी कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटते रही. इसी तरह देखती हूँ कि घरों में भाई अक्सर ज्यादा अच्छे होतें हैं पढने में कि वे डॉक्टर, अभियंता या कुछ और बढ़िया सी पढ़ाई कर बड़ी सी नौकरी करते हैं और उसी घर की लडकियां बेहद साधारण सी होती हैं पढ़ने में और अन्तोगत्वा साधारण पढ़ाई कर उनकी शादी हो जाती है. ऐसा कैसे होता कि लडकियां ही कमजोर निकलती हैं उनके भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी अलिखित रूप से हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊँचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने को हिम्मत ही नहीं होती है, पाने को वो मौका ही नहीं मिलता है जो उनके पंख पसार उड़ने में सहायक बने. एक आम सी धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है सो दबा के रखनी चाहिए. उनके मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए क्यूंकि कल को जब वे ससुराल जाएँगी तो उन्हें तकलीफ होगा. इतनी टोका-टोकी और पाबंदियां बचपन से ही लगा दी जाती है कि बच्चियों का आत्मविश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है. आज के युग में भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे वही काम करें वैसे ही करें जो उनकी माँ, दादी या बुआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण मानों एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो और तुम इन अधिकारों की हकदार नहीं हो. तुम अकेले कहीं जा नहीं सकती हो, तुम अपनी पसंद के कपडे नहीं पहन सकती, तुम को अपने पिता-भाई की हर बात को माननी ही होगी. स्पोर्ट्स और पसंद के विषय चुनना तो दूर की बात है. ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. आया है और बेहद जोरदार तेजी से आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग तो सदैव पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है. सारा प्रपंच तो मद्ध्य्म वर्ग के सर पर है. मद्ध्यम वर्ग में भी शहरी लोगो की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है जो अपनी बेटियों को भी ज्यादा-कम आजादी दे रहें हैं. पूरी आजादी तो शायद अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को नहीं मिली होगी. ‘आजादी’ देने का मतलब छोटे कपड़े पहनने, शराब पीना या देर रात बाहर घूमने से कतई नहीं होता है, ये तो बेटे या बेटी किसी के लिए भी अवारागार्दियों की छूट कहलाएगी. आजादी से मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घर-बाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उसका ऐसा बौद्धिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता-भाई या पति पर आश्रित नहीं रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों  तक ही सीमित न हो बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके. बच्चियों के स्वाभाविक गुण व् रुझान की पहचान कर उसके विकास में सहयोग करना हर पालक का धर्म है. पालन ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जिया जाता है’, बचपन से सीख सके. वरना यहाँ मानों ‘ससुराल’ और सास’ के लिए ही किसी बेटी का लालन-पालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी वी सिन्धु या गीता फोगाट के माता-पिता जी का होता तो देश कितनी प्रतिभाओं से के परिचय से भी वंचित रह जाता. बेटे-बेटियों के लालन-पालन का अन्तर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वह भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने लगी है. ‘पराये घर जाना है’ या ‘ससुराल जा कर अपनी मन की करना’ बीते ज़माने के डायलाग होते जा रहें हैं. शादी की उम्र भी अब खींचती दिख रही है, पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी. आज लोग अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच रखने लगें हैं. इस का असर समाज में दिखने लगा है, चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजुमदार शॉ आज लड़कियों की रोल मॉडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलावों से बेटियों की प्रतिभाएं भी सामने आने लगी है. मानव संसाधन देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन हैं. उनका विकास ही देश को विकसित बनता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है तो देश का विकास भी असंभव है. जरुरत है प्रतिभाओं का विकास, उनको सही दिशा देना. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभा को खोज उन्हें सामने लाना ही चाहिए. आजादी से निखरती ये बेटियाँ घर-परिवार-समाज के साथ साथ स्व और देश को भी विकसित कर रहीं हैं. बस जरुरत है कि हर कोई ‘आजादी और स्वछंदता’ के अंतर के भान का ज्ञान रखे. रीता गुप्ता RANCHI, Jharkhand-834008. email id koylavihar@gmail.com

अगस्त के प्रेत -अनूदित लातिन अमेरिकी कहानी

अगस्त का प्रेत

 भूत होते हैं कि नहीं होते हैं इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता |परन्तु भूतिया यानि की डरावनी फिल्में देखने का अपना एक अलग ही आनंद है | फिल्म का माध्यम दृश्य -श्रव्य वाला है वहां डर उत्पन्न करना थोडा सरल है पर कहानियों में यह उतना सहज नहीं | परन्तु कई कहानियाँ हैं जो इस कसौटी पर खरी उतरती हैं |ऐसी ही एक लातिन अमेरीकी कहानी हैं अगस्त के  प्रेत | मूल लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़की कहानी का अनुवाद किया है सुशांत सुप्रिय जी ने | तो आइये पढ़ते हैं … अगस्त के प्रेत —— मूल लेखक : गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ —— अनुवाद : सुशांत सुप्रिय   दोपहर से थोड़ा पहले हम अरेज़्ज़ो पहुँच गए , और हमने दो घंटे से अधिक का समय वेनेज़ुएला के लेखक मिगुएल ओतेरो सिल्वा द्वारा टस्कनी के देहात के रमणीय इलाक़े में ख़रीदे गए नवजागरण काल के महल को ढूँढ़ने में बिताया । वह अगस्त के शुरू के दिनों का एक जला देने वाला , हलचल भरा रविवार था और पर्यटकों से ठसाठस भरी गलियों में किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान नहीं था जिसे कुछ पता हो । कई असफल कोशिशों के बाद हम वापस अपनी कार के पास आ गए , और हम सरू के पेड़ों की क़तार वाली , किंतु बिना किसी मार्ग-दर्शक संकेत वाली सड़क के रास्ते शहर से बाहर निकल आए । रास्ते में ही हमें हंसों की देख-भाल कर रही एक वृद्ध महिला मिली , जिसने हमें ठीक वह जगह बताई जहाँ वह महल स्थित था । हमसे विदा लेने से पहले उसने हमसे पूछा कि क्या हम रात उसी महल में बिताना चाहते हैं । हमने उत्तर दिया कि हम वहाँ केवल दोपहर का भोजन करने के लिए जा रहे हैं , जो हमारा शुरुआती इरादा भी था । “ तब तो ठीक है , “ उसने कहा , “ क्योंकि वह महल भुतहा है । “ मैं और मेरी पत्नी उस वृद्धा के भोलेपन पर हँस दिए क्योंकि हमें भरी दुपहरी में की जा कही भूत-प्रेतों की बातों पर बिल्कुल यक़ीन नहीं था । लेकिन नौ और सात वर्ष के हमारे दोनों बेटे इस विचार से बेहद प्रसन्न हो गए कि उन्हें किसी वास्तविक भूत-प्रेत से मिलने का मौका मिलेगा । मिगुएल ओतेरो सिल्वा एक शानदार मेज़बान होने के साथ-साथ एक परिष्कृत चटोरे और एक अच्छे लेखक भी थे , और दोपहर का अविस्मरणीय भोजन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था । देर से वहाँ पहुँचने के कारण हमें खाने की मेज़ पर बैठने से पहले महल के भीतरी हिस्सों को देखने का अवसर नहीं मिला , लेकिन उसकी बाहरी बनावट में कुछ भी डरावना नहीं था । यदि कोई आशंका रही भी होगी तो वह फूलों से सजी खुली छत पर पूरे शहर का शानदार दृश्य देखते हुए दोपहर का भोजन करते समय जाती रही । इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल था कि इतने सारे चिर-स्थायी प्रतिभावान व्यक्तियों का जन्म मकानों की भीड़ वाले उस पहाड़ी इलाक़े में हुआ था , जहाँ नब्बे हज़ार लोगों के समाने की जगह बड़ी मुश्किल से उपलब्ध थी ।हालाँकि अपने कैरेबियाई हास्य के साथ मिगुएल ने कहा कि इनमें से कोई भी अरेज़्ज़ो का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं था । “ उन सभी में से महानतम तो ल्यूडोविको था , “ मिगुएल ओतेरो सिल्वा ने घोषणा की । ठीक वही उसका नाम था । उसके आगे-पीछे कोई पारिवारिक नाम नहीं जुड़ा था — ल्यूडोविको , सभी कलाओं और युद्ध का महान् संरक्षक । उसी ने वेदना और विपदा का यह महल बनवाया था । मिगुएल दोपहर के भोजन के दौरान उसी के बारे में बातें करते रहे । उन्होंने हमें ल्यूडोविको की असीम शक्ति , उसके कष्टदायी प्रेम और उसकी भयानक मृत्यु के बारे में बताया । उन्होंने हमें बताया कि कैसे ग़ुस्से से भरे पागलपन के उन्माद के दौरान ल्यूडोविको ने उसी बिस्तर पर अपनी प्रेमिका की छुरा भोंक कर हत्या कर दी , जहाँ उसने अभी-अभी उस प्रेमिका से सहवास किया था । फिर उसने ख़ुद पर अपने ख़ूँख़ार कुत्ते छोड़ दिए , जिन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए । मिगुएल ने पूरी गम्भीरता से हमें आश्वस्त किया कि अर्द्ध-रात्रि के बाद ल्यूडोविको का प्रेत प्रेम के इस दुखदायी , अँधेरे महल में शांति की तलाश में भटकता रहता है । महल वाक़ई विशाल और निरानंद था । लेकिन दिन के उजाले में भरे हुए पेट और संतुष्ट हृदय के साथ हमें मिगुएल की कहानी केवल उन कई विपथनों में से एक लगी जिन्हें सुना कर वे अपने अतिथियों का मनोरंजन करते थे । दोपहर का आराम करने के बाद हम बिना किसी पूर्व-ज्ञान के महल के उन बयासी कमरों में टहलते-घूमते रहे जिनमें उस महल की कई पीढ़ियों के मालिकों ने हर प्रकार के बदलाव किए थे । स्वयं मिगुएल ने पूरी पहली मंज़िल का पुनरुद्धार कर दिया था । उन्होंने वहाँ एक आधुनिक शयन-कक्ष बनवा दिया था जहाँ संगमरमर का फ़र्श था , जिसके साथ वाष्प-स्नान की सुविधा थी , व्यायाम करने के उपकरण थे और चटकीले फूलों से भरी वह खुली छत थी जहाँ हमने दोपहर का भोजन किया था । सदियों से सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी कथा में अलग-अलग काल-खंडों की सजावट वाले एक जैसे साधारण कमरे थे , जिन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था । लेकिन सबसे ऊपरी मंज़िल पर हमने एक कमरा देखा जो अक्षुण्ण रूप से संरक्षित था , जिसे समय भी भूल चुका था — ल्यूडोविको का शयन-कक्ष । वह पल जादुई था । पलंग वहाँ पड़ा था जिसके पर्दों में सोने के धागे से ज़रदोज़ी का काम किया गया था । बिस्तरें , चादरें आदि क़त्ल की गई प्रेमिका के सूखे हुए ख़ून की वजह से अकड़ गई थीं । कोने में आग जलाने की जगह थी जहाँ बर्फ़ीली राख और पत्थर बन गई अंतिम लकड़ी पड़ी हुई थी । हथियार रखने की जगह पर उत्कृष्ट क़िस्म के हथियार पड़े हुए थे और एक सुनहले चौखटे में विचारमग्न सामंत का बना तैल-चित्र दीवार की शोभा बढ़ा रहा था । इस तैल-चित्र को फ़्लोरेंस के किसी श्रेष्ठ चित्रकार ने बनाया था किंतु बदक़िस्मती से उसका नाम उस युग के बाद किसी को याद नहीं रहा । लेकिन जिस चीज़ ने मुझे वहाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह न जाने … Read more

ऊँटकी करवट

ऊँट किस करवट बैठता है यह बहुत ही प्रसिद्द मुहावरा है | ये एक संदेह की स्थिति है | दरअसल वो परिणाम जो हमें पता नहीं होते हैं | फिर भी मर्जी तो ऊँट की ही चलती है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं | जहाँ पुरुष या पितृसत्ता की तुलना ऊँट से की गयी है | कयास लगाए जाते हैं पर मर्जी उसी की चलती है | ये कहानी वैसे तो १९६१ की हैं पर स्त्री -पुरुष के समीकरण में बहुत अंतर नहीं आया है | आइये जानते हैं दीपक शर्मा जी की मार्मिक कहानी से … ऊँटकी करवट यह घटना सन् इकसठ की है किन्तु उसका ध्यान आते ही समय का बिन्दु-पथ अपना आधार छोड़ कर नए उतार-चढ़ाव ग्रहण करने लगता है. बीत चुके उन लोगों के साए अकस्मात् धूप समान उजागर हो उठते हैं और मेरे पीछे चलने की बजाय वे मेरे आगे चलने लगते हैं. और कई बार तो ऐसा लगता है उस घटना को अभी घटना है और बहुत बाद में घटना है….. अभी तो उस घटना के वर्तमान में मेरा आना बाक़ी है….. कौन कहता है कोई भी व्यक्ति समय से आगे या पीछे पहुँचकर भविष्य अथवा अतीत के अंश नहीं देख सकता? यदि प्रत्येक बीत रहे अनुभव का समय बोध वाले वर्तमान में घटना ज़रूरी हैं तो फिर तो स्मृति क्या है? अन्तर्बोध क्या है? “देखो” अपनागौना लाए जब खिलावन को दो सप्ताह से ऊपर हो गए तो माँ ने बागीचे से ढेर सारी अमिया तुड़वायीं और खिलावन से कहा, “गुलाब को आज इधर बँगले पर भेजना. अमिया कद्दूकस कर देगी. आज मैं मीठी चटनी बनाऊँगी.” उन दिनों बँगले पर तैनात हमारे दूसरे नौकरों की पत्नियों के ज़िम्मे माँ ने अनन्य काम सौंप रखे थे : माली हरिप्रसाद की पत्नी फ़र्श पर गीला पोंछा लगाती और रसोइए पुत्तीलाल की पत्नी घर का कपड़े धोया करती. “मैं बताऊँ मालकिन?” खिलावन थोड़ा खिसिया गया, “गुलाब के घर वालों ने मुझसे वादा लिया है उससे बँगले का काम न करवाऊँगा.” “ऐसा है क्या?” ‘न’ सुनने की माँ को आदत न थी किन्तु खिलावन उनका चहेता नौकर था. पाँच साल पहले सत्रह वर्ष की आयु में उसने यहाँ जो काम सीखना शुरू किया था सो अब वह बहुत काम का आदमी बन गया था. उसकी फुरती और कार्यकुशलता देखने लायक रही. मिनटों-सैकंडों में वह जूठे बर्तनों की ढेरी चमका देता, चुटकियों में पूरा बँगला बुहार लेता; तिस पर ईमानदार इतना कि सामने रखे सोने को देखकर भी उसका चित्त डुलाये न डोलता. “जी, मालकिन,” खिलावन ने अपने हाथ जोड़े, “गुलाब ग़रीब घर की ज़रूर है मगर उसके यहाँ औरत जात से बाहर का काम करवाने काप्रचलन नहीं.” दोपहर में माँ ने मेरे पिता से यह बात दोहरायी तो माँ की झल्लाहट में सम्मिलित होने की बजाय वे हँस पड़े, “देखने में ज़रूर अच्छी होगी.” मेरे पिता अत्यन्त सुदर्शन रहे जब कि माँ देखने में बहुत मामूली. मुझेयक़ीन है माँ मेरे धनाढ्य नानाकी यदि इकलौती सन्तान न रहीहोतीं तो मेरेपिता कदापि उनसे शादी न करते. “देखने में अच्छी है,” जवाबी वारमें माँ का जवाब नथा, “तभी तो काम में फिसड्डीहै.” काम के मामले में मेरे पिता खासे चोर रहे. साड़ियोंके विक्रेता मेरे नाना की दुकान पर वेकभी-कभार ही बैठते. बस, उनके हाथ बँटाने के नाम पर केवल साड़ियों को उठाने या पहुँचाने का कामही करते; वहभी इसलिए क्योंकि उस काम में हरतिमाही-छमाही रेलपर घूमनेका उन्हेंअच्छा अवसर मिल जाता. कभी बनारस तो कभी कलकत्ता और कभी हैदराबाद तो कभी त्रिवेन्द्रम. वरना इधर तो आधा दिन वे सजने-सँवरने मेंबिताते औरआधा रात की नींद पूरी करने में. रात को क्लबमें देरतक शराब पीनेऔर ब्रिज खेलने की उन्हें बुरी लत रही. रात का खाना वे ज़रूर घर पर लेते. कभीग्यारहबजेतोकभीसाढ़ेग्यारहबजे. अकेले. खिलावन की मदद लेकर माँ उन्हें खाना परोसतीं ज़रूर किन्तु स्वयं कुछ न खातीं. असल में माँका रात में रोज़ व्रतरहता. “भली मानस तेरी माँ तेरे पिता को तो दण्ड दे नहीं सकती,” रात में जल्दी सोने की आदत की वजह से विधुर मेरे नाना ठीक साढ़े आठ बजे मेरी बगल में खाने की मेज पर अपना आसन ग्रहण करते ही रोज़ कहते, “इसीलिए खुद को दंड दे रही है.” नौ साल पहले मेरे पिता को मेरे नाना के पास बी. ए. में पढ़ रही माँ ही लायी रहीं, “इनसे मिलिए. हमारे इलाके के एम. पी. के मँझले बेटे.” सन् बावन के उन दिनों में हाल ही में संगठित हुई देश की पहली लोक सभा का रुतबा बहुत बड़ा था और मेरे नाना उनके परिचय के‘क्या’, ‘कितना’ और‘क्यों’ के चक्कर में न पड़े थे. वैसे माँ मेरे पिता को क्लब के लॉन टेनिस टूर्नामेंट के अन्तर्गत मिली रहीं. उनकी तरह माँ भी टेनिस की बहुत अच्छी खिलाड़ी थीं. दोनों ने एक साथ मिक्स्ड डबल्स कीकई प्रतियोगिताओं में भाग भी लिया. आप चाहें तो सन् तिरपनकी कुछ अख़बारों में उन दोनों की एक तस्वीर भी देख सकते हैं. राजकुमारी अमृत कौर के हाथों एक शील्ड लेते हुए. “कहो जगपाल,” अगले दिन सुबह गोल्फ़ के लिए मोटर में सवार मेरे पिता ने ड्राइवर को टोहा, “खिलावन के क्या हाल हैं?” मोटर में उस समय मैं भी रहा. मेरे पिता का गोल्फ-ग्राउण्ड मेरे स्कूल के समीप था. “बंदर के हाथ हिरणीलग गयी,” जगपाल ने अपने दाँत निपोरे, “वह गुलाब नहीं गुलनार है, सरकार!” “दूर से ही लार टपकाते हो या कभी पार भी गए हो?” मेरे पिता और जगपाल के बीच असंयत ठिठोली का सिलसिला पुराना था. हरिप्रसाद और पुत्तीलाल की पत्नियों के बारे में लापरवाह बातें करते हुए भी मैं उन्हें अक्सर पकड़चुका था. हरिप्रसाद की पत्नी को वे ‘चिकनिया’ कहते और पुत्तीलाल की पत्नी को ‘लिल्ली घोड़ी’. “आप कहें तो आजमाइश करें, सरकार?” जगपाल ने अपना सिर पीछे घुमाया- मेरे पिताकी दिशा में- “आप के लिए यह भी सही-” “आजमाइश नहीं, तुम निगहबानी करना. पहरा रखना.” “रखवाली किसकी करनी है, सरकार? उसकी या आपकी?” स्कूल पर पहुँच जाने की मजबूरी के कारण उसी समय मुझे मोटर से उतरना पड़ा और अपने पिता का उत्तर मैं जान न पाया. मगर स्कूल से लौटते ही खाना खाने के उपरान्त मैं बाग़ीचे की तरफ़ आ निकला. हमारे नौकर लोगों के कमरे हमारे पिछवाड़े के बागीचे की तरफ़ रहे. हमारे निजी कुएँ के … Read more

मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट )

ये समय जब इतिहास में लिखा जाएगा तो शायद कोरोना काल के रूप में जाना जाएगा | साहित्य पर समय और समाज का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है | आज कई कहानियाँ , कवितायें कोरोना को केंद्र में ले कर लिखी जा रही हैं | प्रस्तुत कहानी मे भी  कविता सिंह जी ने भी कोरोना को केंद्र में लिख कर एक बहुत मर्मस्पर्शी कहानी बुनी है | हालांकि ये कहानी स्त्री मन की कोमल भावनाओं को इंगित करती है ..उसके मन की परतों को खोलती है | स्त्री ममत्व का दरिया है जो चाहकर भी उन रिश्तों के प्रति कठोर नहीं हो पाती जिन्हें उसने जीवन भर संजोया -संवारा है | यहाँ कोरोना मन की गांठों को खलने का कारण  बनता है …. मन की गाँठ (कोरोना इफेक्ट) साठ साल की सोमवती जी बेचैनी से करवट बदल रही थीं, कभी उठती बाथरूम जातीं कभी ग्लास में पानी उड़ेलतीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आज की खबर से वो इतनी बेचैन क्यों थीं। बार-बार खिड़की के पर्दे हटाकर देखतीं, सुबह हुई या नहीं। कोई तो दुःख था जो उन्हें मथ रहा था। कितनी रात गए उनकी आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला। “दादी..दादी उठो! आज कितनी देर कर दी तुमने, देखो तो दस बज गए।” दस साल के पोते वीर की आवाज सुनकर उनकी आंख खुल गयी। “अरे इतनी देर हो गयी आज!” वो बड़बड़ाते हुए उठी और वीर को प्यार करके बाथरूम में घुस गयीं। ” पापा! दादी अभी सो रही थीं, मैं अभी जगाकर आया उनको।” बेटे की बात सुनकर लक्ष्मण और सीमा एकदूसरे का मुँह देखने लगे। उनके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी। मां को यहाँ आये दो साल हो गए थे पर कभी भी वो इतनी देर तक नहीं सोई। अबतक तो वो सोसाइटी के बाहर वाले मंदिर के भजन कीर्तन में शामिल होकर घर भी आ जाती थीं। लक्ष्मण को चिंता हुई वो मां के कमरे की ओर बढ़ गया। वहाँ जाकर देखा तो सोमवती जी चुपचाप कुर्सी पर बैठी खिड़की के बाहर देख रही थीं। ” क्या हुआ माई, तबियत ठीक नहीं क्या तुम्हारी? आज तुमने पूजा भी नही किया?” ‘नहीं लछमन ऐसी कोई बात नही, रात में देर से आँख लगी तो उठने में देर हो गई।” “तो क्या हुआ माई चलो बाहर वीरू बैठा नाश्ते के लिए इंतजार कर रहा।” लक्ष्मण ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया। “तु चल हम आ रहे हैं, आज तो तुम्हारी ऑफिस भी नहीं होगी, कोई बीमारी फैली है ना!” “हाँ माई, बड़ी खराब बीमारी है, एक आदमी से दूसरे के हो जाती है। इसी कारण सरकार ने सबकुछ  बन्द कर दिया है।” “चल!” कहते हुए वो अपने चेहरे की मायूसी को ढकने की नाकाम कोशिश करते हुए लक्ष्मण के साथ बाहर हॉल में आ गईं जहाँ लक्ष्मण की पत्नी सीमा और वीर उनदोनों का इंतजार कर रहे थे। सीमा ने सबको नाश्ता परोसा और उनकी तरफ देखते हुए चिंतित स्वर में बोली– “क्या हुआ मां जी? आपकी तबियत तो ठीक है ना?” “हाँ! तबियत सही है हमारी। अच्छा ये बताओ कबतक बन्द रहेगा सबकुछ?” “बस कुछ दिन की बात है माई।” लक्ष्मण ने जवाब दिया। सबलोग नाश्ता करके उठने लगे, उन्होंने देखा सोमवती जी ने तो कुछ खाया ही नहीं। उन्हें लगा लोकडाउन के वजह से उनका मन उदास है।   सोमवती जी पिछले दो साल से अपने छोटे बेटे के साथ शहर में रह रहीं थी और उनके पति बड़े बेटे के साथ पास के गाँव में।    उन्होंने दो सालों से अपने पति का मुँह नहीं देखा था। पर आज जब टीवी में सुना कि ये बीमारी बच्चों और बूढ़ों के लिए ज्यादा खतरनाक है तब से उनका मन बेचैन था। दो वर्ष की नाराजगी आँखों के रास्ते पिघलने लगी थी। बार-बार सोचती बच्चों से एकबार गाँव की खबर लें पर चाह के भी वो ऐसा नहीं कर पातीं आखिर करें भी तो कैसे करें, खुद ही कसम दे रखीं थीं इस घर में उनके सामने गाँव की कोई बात नहीं होगी। हाँ कभी- कभी बड़े बेटे राम से बात जरूर कर लेतीं पर वहाँ भी पिता के बारे में बात करने की मनाही थी उनकी तरफ से। आखिर क्या किया था राम के बाबूजी ने, जिससे तिलमिलाकर उनकी जैसी धैर्यवान स्त्री ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। आज सबकुछ फ़िल्म की तरह उनके आँखों के सामने घूमने लगा था।   पैंतालीस बरस पहले ब्याह के आईं थी उस घर में। जहाँ सास, विधवा चचिया सास और एक बड़ी ननद ने उनका स्वागत किया था। भरा पूरा घर था, अपनी उम्र से तीन साल छोटा एक देवर और उससे दो साल छोटी एक और ननद, जिनकी जिम्मेदारी सास ने उनको हांडी छुआते समय ही सौंप दिया। पंद्रह बरस की नादान उमर में ही पूरी गृहस्थी का बोझ ढ़ोते हुए वो कब परिपक्व हो गयीं उन्हें खबर ही नहीं लगी। बड़ी ननद ससुराल में झगड़ा करके नैहर में आके बैठ गयीं थीं जिनका हुक्म बजाते-बजाते रात हो जाती पर उनको सोमवती जी कभी सन्तुष्ट नहीं कर पायीं। ससुरजी दबंग इंसान थे उनके सामने किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकलती। सबकी दबी कुचली कुंठाएँ बिचारी सोमवती पर ही उतरने लगी थीं। ले देकर एक पति थे जो अपना सा लगते थे पर वो भी मां और बड़ी बहन के सामने केवल उन्हींलोगों का पक्ष लेते। सोमवती जी को संस्कार घुट्टी में पिलाकर पाला गया था, कुछ भी हो जाता मुँह नहीं खोलती बस चुपके से अँधेरी रातों में आँसू बहा लिया करतीं। दिनरात सबको खुश करने में अपना जी जान लगा देतीं पर पर वो कभी अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पायीं। बस एक सहारा रहा जीवन का कि पति ने कभी उनमें मीनमेख नहीं निकाला ये अलग बात थी कि कभी परिवार के अन्याय के खिलाफ उनका पक्ष भी नहीं लिया। जीवन के इन कटु अनुभवों को अपनी नियति मानकर वो चुपचाप सब सहती रहीं पर कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। प्यार के दो मीठे बोल को तरसती सोमवती को भगवान ने समय पर दो बेटे राम और लक्ष्मण के रूप में उनके जीने के लिए दो बड़े मकसद दे दिए, … Read more

कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का!

सुधांशु गुप्त जी की कई कहानियाँ पढ़ी हैं और पसंद भी की | उनकी कहानियों में एक खास बात है कि उसका एक बड़ा हिस्सा मन के अन्दर चलता |उनकी कलम किसी खास परिस्थिति में व्यक्ति के मन में चल रहे अंतर्द्वंद को पकडती हैं और उन्हें शब्दश: उकेर देती है | उनकी कहानियों में संवाद इतने नहीं होते जितने मन में बादलों की तरह घुमड़ते हुए विचार होते हैं |मन के अंदर का अंतर्दावंद बेपर्दा होता चलता है | कई बार पाठक हतप्रभ होता है कि अरे ऐसा ही तो सोचते हैं हम |  सच ही तो है कितनी कहानियाँ हमारे मन के अंदर चलती रहती हैं कुछ आगे बढती हैं और कुछ हथेली पर चाँद उगाने जैसे दुरूह स्वप्न की तरह दम तोड़ देती हैं | फिर भी उनका अंत मुक्कमल होता है, हकीकत के करीब | यूँ तो शब्द हमारी भावनाओं को व्यक्त करने में सहायक है पर जो कहा नहीं जाता वो ज्यादा शोर मचाता है …व्यक्ति के मन में भी और पाठक के मन में भी | ऐसी ही कहानी है “कॉफ़ी,  ताज और हरी आँखों वाला लड़का” | कॉफ़ी, ताज और हरी आँखों वाला लड़का तीनों ही इस कहानी के विशेष अंग हैं |  जितना खूबसूरत ये नाम है , कहानी भी उतनी ही खूबसूरत है | जहाँ प्रेम है पर अव्यक्त है, इंतज़ार है पर मैं पहले फोन क्यों करूँ का भाव भी है, कसक है पर शुभकामनायें भी | देखा जाए तो कॉफ़ी एक प्रतीक्षा है ताज एक रूमानी कल्पना तो हरी आँखों वाला लड़का एक हकीकत | कहानी में जान डालती हुई कहीं परवीन शाकिर की पंक्तियाँ हैं तो कहीं पुश्किन की | वैसे तो ये एक खूबसूरत शिल्प में सजी ये महज एक कहानी है पर हो सकता है कि फेसबुक इस्तेमाल करने वाले कई लोगों की हकीकत भी हो | तो आइये रूबरू होते हैं … कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का! तीन दिन हो गए उससे बात हुए। आमतौर पर ऐसा नहीं होता। एक दो दिन में वह ख़ुद फोन कर लेता है या उसका फोन आ जाता है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। चाहता तो वह फोन कर सकता था। लेकिन परवीन शाकिर उसे फोन करने से रोकती रहीं। परवीन शाकिर मतलब उनकी कुछ लाइनें-मैं क्यों उसको फोन करूं, उसके भी तो इल्म में होगा, कल शब मौसम की पहली बारिश थी। इसमें पहली लाइन ही उसे काम की लगी। कई बार उसने मोबाइल करने की कोशिश भी कि फिर हाथ पीछे खींच लिए। सोचा क्या बात करेगा। यह भी सोचा कि शायद उसी का फोन आ जाए। जब भी वह ‘मैं क्यों उसको फोन करूं’ की जिद पालता है, उसका फोन आ जाता है। कोई भी गांठ पड़ने से पहले ही गांठ खुल जाती है। कई बार ऐसा भी हुआ कि उसके दिल ने चाहा कि उसका फोन आ जाए और उसका फोन आ गया। वह फोन को बड़ी शिद्दत से देख रहा है। उसका मन कह रहा है कि उसका फोन बस आने वाला ही होगा। पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है। उसके पास बताने के लिए कुछ ख़ास नहीं है। शायद इस बार बताने के लिए उसके पास ही कुछ हो। वह मोबाइल को देख रहा है। देखे जा रहा है। मानो मोबाइल को नहीं उसे ही देख रहा हो। अचानक उसे अहसास हुआ कि उसका फोन बज रहा है। साइलेंट पर होने की वजह से उसे आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। स्क्रीन पर उसका नाम फ्लेश हो रहा था-वन की देवी। ‘हैलो…कितनी देर से बेल जा रही है…आप कहीं बिजी हैं क्या…’ ‘अरे नहीं…वो फोन साइलेंट पर था, इसलिए ध्यान नहीं दिया। बताइये क्या हाल हैं, कैसा चल रहा है सब…’ ‘मैं अच्छी हूं और सब यथावत चल रहा है, नथिंग न्यू..आप बताओ’ ‘यहां भी सब ठीक ही चल रहा है…एक कहानी लिखने की सोच रहा हूं…’ ‘अरे मैं आपको बताना ही भूल गई…आपकी जो कहानी मैं उत्तर प्रदेश पत्रिका में भेजी थी, वह छप गई है…मैं अभी उसका फोटो आपको व्हाट्स अप पर भेज दूंगी…’ ‘थैंक्यू वैरी मच अन्वि जी…’ ‘सिर्फ थैंक्यू से काम नहीं चलेगा…एक कॉफी पिलानी पड़ेगी…’ ‘कॉफी का तो हमारा बहीखाता चल ही रहा है…उसमें जोड़ दो मेरी तरफ एक कॉफी ड्यू हो गई..’ ‘वो तो मैं जोड़ ही दूंगी…लेकिन कॉफी मेरी तरफ ही निकलेंगी…’ ‘उसमें कोई दिक्कत नहीं है…बस हिसाब बराबर नहीं होना चाहिए…’ ‘सच में हिसाब बराबर नहीं होना चाहिए…आपकी तरफ ड्यू हो या मेरी तरफ…लेकिन खाता चलते रहना चाहिए…’ ‘हां खाता तो चलना ही चाहिए….और बताइये कुछ नया लिखा…’ ‘नहीं, अभी तो पुराना ही एन्ज्वॉय कर रही हूं…आपने कोई कहानी लिखी…’ ‘मैंने भी नहीं लिखी, लेकिन सोच रहा हूं, जल्दी ही आपको नई कहानी पढ़ने को मिलेगी…’ ‘गुड…कहानी लिखकर सबसे पहले मुझे ही मेल करना…’ ‘बिल्कुल, आपको ही करूंगा…,’ और कौन है जिसे कहानी मेल की जा सके, यह उसने सोचा, कहा नहीं। ‘मैं तो आजकल पुश्किन की कविताएं पढ़ रही हूं…मुझे यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि महज 37साल की उम्र में वह मर गया और पूरी दुनिया में अपनी कविताओं के लिए जाना जाता है…’ ‘पुश्किन बड़े कवि हैं…उनकी कुछ पंक्तियां सुनाऊं..’ ‘बिल्कुल सुऩाइये…इसमें पूछने की भला क्या बात है’ ‘विदा, प्रिय प्रेम पत्र, विदा, यह उसका आदेश था, तुम्हें जला दूं मैं तुरंत ही, यह उसका संदेश था, कितना मैंने रोका ख़ुद को, कितनी देर न चाहा, पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह…’ ‘वाह…क्या बात है…बहुत सुंदर…’ ‘और भी बहुत सारी कविताएं हैं….’ ‘चलिए आप पढ़िए..और अच्छी कविताएं शेयर करिए…’ ‘वो तो करूंगी ही..अभी फिलहाल मैं आपकी कहानी भेज रही हूं व्हाट्स अप पर..’ ‘जी शुक्रिया…’ ‘शुक्रिया की कोई बात नहीं है आकाश…आपकी तरफ एक कॉफी लिख दी है मैंने….अब एक दो रोज़ में बात होगी…बॉय…’ ‘बॉय…’ उधर से फोन कट गया और वह फोन को हाथ में लिए इस तरह बैठा रहा मानो अभी बहुत कुछ कहना शेष हो। अब उसके पास करने को कुछ भी शेष नहीं है। आज उसकी छुट्टी है। अख़बार में नौकरी करने वालों के लिए छुट्टी  मुश्किल से बीतती है। वह दिल्ली में रहता है, सूचनाओं की नगरी में। एक अखबार में साहित्य का पेज देखता है। अन्वि आगरा में … Read more